‘छीनलुङ’ से मिजो जनजातियों की उत्पत्ति की कथा : मिजोरम की लोक-कथा

'Chhinlung' Se Mizo Jatiyon Ki Utpatti Ki Katha : Lok-Katha (Mizoram)

प्राचीनकाल में एक बार मिजोरम में अचानक घना अँधेरा छा गया। परिणामस्वरूप सभी जीव-जंतुओं के आकार परिवर्तित होने लगे। मनुष्य पशु-पक्षी तथा अन्य जीवों में परिवर्तित होने लगे। इस रूपांतरण से सृष्टिकर्ता ‘खुआङजीङनू’ परेशान हो गईं। अपनी श्रेष्ठ रचना में इस तरह परिवर्तन होते देखकर उन्हें बहुत घबराहट और चिंता हुई। उन्होंने इस समस्या पर विचार किया और उसका समाधान निकालने का सफल प्रयास किया। उन्होंने सभी प्रजातियों के रूपांतरण के पहले हर एक प्रजाति से एक-एक जोड़े को अलग करके उन्हें एक बहुत गहरी गुफा में छुपाकर रख दिया और उसके द्वार को एक बहुत बड़े पत्थर से ढककर बंद कर दिया। इसी गुफा को ‘छीनलुङ’ कहा जाता है।

‘छीनलुङ’ में रहते हुए भी उन सभी प्रजातियों की संख्या बढ़ती गई। कुछ समय के उपरांत जब चार-पाँच पीढ़ियों का समय बीत गया तो ‘छीनलुङ’ में उन सभी प्रजातियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि उन सबका उस गुफा में एक साथ रहना मुश्किल हो गया। सृष्टिकर्ता ‘खुआङजीङनू’ ने यह सोचकर कि अब तो वे संख्या में बहुत बढ़ चुके होंगे, ‘छीनलुङ’ का द्वार धीरे से खोला। द्वार के खुलते ही अंदर से बहुत ही भयानक कड़कड़ाहट की आवाज और बहुत सारे लोगों के आपस में बात करने की तेज आवाज सुनाई दी। अतः उन्होंने उन लोगों के निकलने के लिए ‘छीनलुङ’ के द्वार को पूरा खोल दिया। ‘छीनलुङ’ के अंदर उनकी संख्या इतनी अधिक हो गई थी कि गुफा से निकलते समय वे जमीन के अंदर से बाहर निकलने वाले पंखोंवाले दीमक की तरह दिखाई दे रहे थे। कुछ समय के बाद गुफा से ‘राल्ते’ उपजाति निकली। वे संख्या में सबसे ज्यादा थे, साथ-ही-साथ बहुत ऊँची आवाज में कोलाहल भी कर रहे थे। उनकी आवाज को सुनकर सृष्टिकर्ता ने कहा, “वे आवश्यकता से बहुत अधिक हो गए हैं। इसलिए मैं सभी लोगों के निकलने के पूर्व ही ‘छीनलुङ’ के द्वार को बंद कर दूँगी।

फिर उन्होंने ‘छीनलुङ’ के द्वार को उसी बड़े पत्थर से ढककर बंद कर दिया। इसी के कारण आज भी सभी मिजो जनजातियाँ अपने आप को ‘छीनलुङ’ से निकला हुआ मानती हैं और अपनी उत्पत्ति का स्थान ‘छीनलुङ’ को ही बताती हैं। मिजो जनजातियों के पूर्वजों का यह भी विश्वास है कि अगर सृष्टिकर्ता ‘खुआङजीङनू’ ने सभी जनजातियों के निकलने के पूर्व ही ‘छीनलुङ’ के द्वार को ढक न दिया होता तो आज मिजो जनजातियों की संख्या कम न होती।

‘छीनलुङ’ से निकलने के बाद बर्मा एवं मिजोरम की उपजाऊ भूमि तथा अनुकूल वातावरण में रहने के कारण मिजो जनजातियों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ने लगी। प्राचीनकाल में मनुष्य एवं अलौकिक प्रजाति के लोग भी परस्पर आपस में प्यार और शादी करते थे, जिससे उनके बहुत सारे सुंदर-सुंदर बच्चे पैदा होने लगे थे। इन्हीं में से एक बहुत सुंदर, लंबा, बुद्धिमान, चतुर, शक्तिशाली एवं धनी नवयुवक हुआ, जिसका नाम ‘थ्लानरोकपा’ था। इसको पाइते जाति ने ‘दहपा’ कहा। उसकी बुद्धिमानी और ताकत को देखते हुए लोगों ने उसे अपने मुखिया (राजा) के लिए चुन लिया। कुछ समय के बाद ‘थ्लानरोकपा’ के विवाह की बात स्वर्ग के देवता ‘पुवाना’ की बेटी ‘सबेरेक’ से चली। ‘सबेरेक’ भी इस विवाह के लिए राजी हो गई। मिजो जनजातियों की परंपरा के अनुसार वधु मूल्य के रूप में ‘थ्लानरोकपा’ से केवल एक बंदूक एवं एक विशेष प्रकार के पेड़ की बड़ी सी छाल माँगी गई। अपनी होनेवाली पत्नी के मूल्य को ‘थ्लानरोकपा’ ने खुशी-खुशी ‘पुवाना’ (स्वर्ग के देवता) को तुरंत सौंप दिया। तब से लेकर आज तक मिजो जनजातियों के लोग नभ की ध्वनि को ‘पुवाना’ (स्वर्ग के देवता) की बंदूक की आवाज और जोर की मेघध्वनि को बड़ी थाली के खींचने की ध्वनि के रूप में स्वीकार करते हैं। उन्हें लगता है कि यह कोई प्राकृतिक घटना न होकर मानवीय क्रियाकलाप है।

(साभार : प्रो. संजय कुमार)

  • मिजोरम की कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां