छह आने का टिकट (कहानी) : भगवतीचरण वर्मा

Chheh Aane Ka Ticket (Hindi Story) : Bhagwati Charan Verma

1

उस दिन जब मैं दफ्तर पहुँचा तो मैंने एक सज्जन को अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ पाया। ये सज्जन अपने पैर मेज पर रखे हुए गुनगुना रहे थे और कभी-कभी एक पेंसिल से अपनी जाँघों पर रखे हुए मेरे लेटर पैड पर एक-आध लाइन भी लिख देते थे । यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि मैंने एक लेटर पैड तीन रंगों में छपाया था और हरएक पन्ने की लागत ढाई पैसे पड़ी थी ।

वे मझोले कद के मोटे से आदमी थे, चेहरा किसी कदर गोल-मटोल, ऊबड़-खाबड़ और भद्दा । उनकी मूँछें आधी और अच्छी तरह से छँटी हुई; आँखें बिल्ली की तरह । बिजली के पंखे की हवा में इनकी चुटिया फहरा रही थी और यह बतला रही थी कि ये सज्जन काफी मौज में हैं। खादी का कुरता और धोती पहने थे ।

मेज के पास पड़े हुए तख्त पर मैं बैठ गया यह समझकर कि दफ्तर के किसी कर्मचारी के ये मुलाकाती होंगे, और सुबह आए हुए पत्रों को उलटने पुलटने लगा ।

एकाएक इनकी निगाह मुझ पर पड़ी - मैं उस समय कुछ सिकुड़ा हुआ कुछ सहमा हुआ एक पत्रिका के एक विशेष लेख को पढ़ रहा था, जिसमें हिन्दीवालों को यह सूचित किया गया था कि मैं घमंडी हूँ, मक्कार हूँ, मूर्ख हूँ। उन्होंने मुझे कुछ देर तक गौर से देखा, शायद मेरी मुद्रा देखकर उन्हें कुछ दया आई; उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा- "क्या आप इस दफ्तर में काम करते हैं।"

बहुत विनयपूर्वक मैंने उत्तर दिया- "जी हाँ !”

उन्होंने फिर पूछा - "और सम्पादक किशोरजी कब आते हैं ?”

"कोई समय तो उनका ठीक नहीं है- क्या आप उनसे मिलना चाहते हैं ?” मैंने पूछा ।

“जी... मैं उन्हीं से मिलने आया हूँ, अभी हावड़ा स्टेशन से आ रहा हूँ, वह सामने मेरा असबाब रखा है। मेरी-उनकी मित्रता है - सोचा मिल आऊँ, और चला आया । वे रहते कहाँ हैं ?"

और वास्तव में उनका ट्रंक और बिस्तर वहीं रखा था। उनके असबाब को देखकर मैं घबराया, लेकिन जब उन्होंने मेरे मकान का पता पूछा तो मैं मर्माहत सा हो गया । मैंने कहा - "जी... रहते तो वे यहाँ से करीब दस मील की दूरी पर हैं, लेकिन शायद आजकल वे यहाँ नहीं हैं, एक हफ्ते बाद उनके लौटने की खबर है !"

“अरे-वे यहाँ नहीं हैं। खैर दफ्तर तो है - यहीं रहूँगा। एक हफ्ता कोई बड़ी बात नहीं है, इन्तजार करूँगा !”

यह वार खाली गया। मैं सोच ही रहा था कि अब दूसरा वार कौन सा हो कि मेरे सहकारी श्रीराम ने प्रवेश किया। आते ही उन्होंने कहा - "नमस्कार किशोरजी - आज जरा देर हो गई, क्षमा कीजिएगा ।"

मेरे सहकारी की बात सुनते ही वे उठकर खड़े हो गए। बड़ी भक्ति के साथ हाथ जोड़कर उन्होंने मुझसे कहा - " अहा- आप ही किशोरजी हैं ! आपने दिल्लगी तो खूब की। आप मुझे जानते ही हैं, मैं हूँ रामखेलावन शरण नारायणप्रसाद सिंह ! वही जिसने आपको छह कविताएँ भेजी थीं जिस पर आपने लिखा था कि खो गईं और जिस पर मैंने बारह कविताएँ भेजीं तो आपने लिखा था कि आँधी में उड़ गईं, और फिर मैंने अठारह भेजी थीं तो आपने लिखा कि जिस कम्पोजीटर को आपने कविताएँ कम्पोज करने को दी थीं उस पर उनका इतना प्रभाव पड़ा कि वह साधु बन गया और कविताएँ अपने साथ लेता गया। लिहाजा मैं खुद अब अपनी चौबीस कविताएँ लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ !”

अब मुझे भी आतिथ्य सत्कार की सरगर्मी दिखलाने को मजबूर होना पड़ा। मैंने कहा- "ओह - तो आप ही रामखेलावन शरण नारायणप्रसाद सिंह हैं - आपका इस कुटी में स्वागत है-आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हो गया ।" इसके बाद मैंने अपने सहकारी से कहा - " श्रीरामजी - आपके ठहरने का प्रबन्ध छेदीलालजी के धर्मशाले में करा दें, कमरा अच्छा होना चाहिए। और..."

लेकिन मेरी बात पूरी न हो पाई कि बीच ही में मेरे अतिथि ने बात काटकर कहा - "जी, धर्मशाले में ठहरना मैं कभी पसन्द नहीं करता, चोरों और बदमाशों का वहाँ जमघट रहता है - मैं इसी दफ्तर के अतिथि गृह में ठहर जाऊँगा । उससे आपकी सेवा करने का मुझे पूरा अवसर प्राप्त होगा।"

मेरे दफ्तर में अतिथियों के लिए एक कमरा है - इसका पता भगवान जाने किस प्रकार श्री रामखेलावन शरण ने लगा लिया था- मैं निरुत्तर रह गया ।

2

चार दिन बाद सुबह के समय जब मैं सोकर उठा तो मुझे यह देखकर महान आश्चर्य हुआ कि श्री रामखेलावन शरण नारायणप्रसाद सिंह बरामदे में एक कुर्सी पर बैठे हैं और उनके सामने उनका बिस्तरा तथा ट्रंक रखा है। मुझे देखते ही वे तपाक के साथ उठे, प्रणाम करके मुस्कुराते हुए उन्होंने मुझसे कहा- “कल रात मैंने यह तय किया कि मुझसे आपका सम्पर्क पूर्णरूप से प्राप्त नहीं हो रहा, क्योंकि दफ्तर में दिन-भर आप व्यस्त रहते हैं, आपकी अमृत-वाणी मैं नहीं सुन पाता। लिहाजा मेरा आपके घर में आपके साथ ही ठहरना उचित होगा। इसके साथ ही बाजार का भोजन मुझे रुचिकर नहीं होता, यहाँ घर का भोजन मिलेगा !”

मेरी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि आदमी मैं मुरौवतवाला हूँ और आसानी से 'न' नहीं कह सकता हूँ। लिहाजा अब श्री रामखेलावन शरण नारायणप्रसाद सिंह मेरे निजी अतिथि बनकर मेरे घर पर जम गए। रोज सुबह वे मेरे साथ चाय पीते थे, भोजन करते थे, दफ्तर जाते थे । उनका ट्राम का किराया मुझे ही देना पड़ता था क्योंकि कंडक्टर के पास आते ही वे मेरा मुँह देखने लगते थे ।

एक दिन दफ्तर पहुँचकर उन्होंने मुझसे कहा - " किशोरजी, आज इच्छा होती है कि कलकत्ता घूम आऊँ !”

"बड़ी प्रसन्नता की बात है,” मैंने उत्तर दिया ।

"जरा आप अपना ट्राम का टिकट दे दीजिए !"

" वह मेरे नाम है - आप पकड़े जाएँगे,” मैंने कहा ।

"वाह ! आपके दफ्तर के सभी आदमी तो उसका प्रयोग करते हैं- मैं क्या मूर्ख हूँ जो पकड़ा जाऊँगा !" और उस दिन वे मेरा ट्राम का टिकट ले गए। मुझे अपने आदमियों को ट्राम का किराया देकर ट्राम पर भेजना पड़ा और शाम को जो मैंने हिसाब लगाया तो दस आने का मुझे नुकसान हुआ ।

दूसरे दिन जब उन्होंने फिर ट्राम का टिकट माँगा तो मैंने उत्तर दिया- "मुझे बड़ा दुख है, ट्राम का टिकट मुझसे एक मेरे मित्र ले गए।"

उन्होंने ठंडी साँस भरकर कहा- "कोई बात नहीं, मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ, उनके आने पर चला जाऊँगा।"

और उस दिन अपने झूठ को छिपाने के लिए दिन-भर अपने आदमियों को ट्राम के किरायों के पैसे देकर भेजना पड़ा। उस दिन बारह आने का नुकसान हुआ।

तीसरे दिन उन्होंने फिर ट्राम का टिकट माँगा और मैंने फिर वही बहाना किया। पर उस दिन के लिए मैंने एक स्कीम सोच ली थी। जैसे ही दफ्तर का कोई कर्मचारी बाहर जाने लगा तो मैं उसके साथ दफ्तर के बाहर निकला, बाहर निकलकर एकान्त में उसे अपना टिकट दिया और उससे कह दिया कि वह मुझे बुलाकर एकान्त में ही टिकट वापस भी करे। लिहाजा रोज का अब मेरा यही दस्तूर हो गया ।

इतवार के दिन सुबह मेरे साथ चाय पीते हुए श्री रामखेलावन शरण नारायणप्रसाद सिंह ने मुझसे कहा- “किशोर जी, आज तो आपकी छुट्टी है - आज आप मुझे कलकत्ता घुमा दीजिए !”

मैं उस दिन कुछ झल्लाया हुआ था । मैंने उत्तर दिया- "मुझे दुःख है कि मुझे आपकी सेवा करने से वंचित रहना पड़ेगा क्योंकि मुझे आज कई लोगों से मिलने जाना है,” और यह कहकर मैंने अपने नौकर भीखू को आवाज दी- "देखो ! बाबूजी को आज शहर घुमा लाओ ! दो छह-छह आनेवाले टिकट ले लेना - दिन-भर के," यह कहकर मैंने एक रुपया भीखू के सामने फेंक दिया।

लेकिन उसी समय श्री रामखेलावन शरण बोल उठे - "नहीं, एक ही टिकट लाना--मैं अकेले ही घूम लूँगा।" और भीखू ने छह आनेवाला टिकट उनके हवाले कर दिया।

उस दिन उन्होंने जो चा पी तो मैं दंग रह गया। चार टोस्ट और छटाँक - भर मक्खन के अलावा उन्होंने पूड़ियों के साथ चार लँगड़ा आमों का नाश्ता किया। इसके बाद वे छह आनेवाला टिकट जेब में रखकर कलकत्ता घूमने के लिए निकल पड़े। चलते हुए उन्होंने मुझसे कहा था--" आप मेरे भोजन की प्रतीक्षा न कीजिएगा, रात में लौटकर भोजन करूँगा ।"

दिन भर मैं काम-काज में व्यस्त रहा। रात को मैं करीब ग्यारह बजे घर लौटा, लेकिन एक अजब सन्नाटा मुझे मालूम हुआ । नौकर-चाकर सभी मौजूद थे, लेकिन न मुझे भक्तिपूर्वक प्रणाम करनेवाला मेरा भक्त था और न लगातार प्रश्नों की झड़ी लगानेवाला, अजीब-अजीब शंकाएँ उठानेवाला और मेरी सूनी जिन्दगी की सुख-शान्ति हरनेवाला मेरा अतिथि था । यानी श्री रामखेलावन शरणजी अभी तक न लौटे थे।

नौकर मेरा खाना ले आया, लेकिन यकीन दिलाता हूँ मुझसे खाना न खाया गया । मैं न जाने क्यों अपने अतिथि के लिए चिन्तित हो उठा था। कलकत्ता बहुत अच्छा नगर नहीं है - और श्री रामखेलावन अपने जीवन का जहाज लेकर अकेले ही इस कलकत्ता नामक महासागर में निकल पड़े थे। मुझे चिन्ता हो रही थी कि कहीं बस के नीचे तो नहीं आ गए या रास्ता तो नहीं भूल गए। या उन्हें कोई भगा तो नहीं ले गया ।

मुझे अच्छी नींद भी नहीं आई । बिस्तर पर मैं करवटें बदलने लगा। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि श्री रामखेलावन शरण के प्रति मुझमें इतनी अधिक ममता कैसे आ गई।

एकाएक मैं चौंक उठा- टेलीफोन की घंटी बज रही थी। मैं उठा-घड़ी पर मेरी नजर गई और उस समय तीन बजे थे। धड़कते दिल के साथ काँपते हुए हाथों से मैंने रिसीवर उठाया - "हलो।"

उत्तर मिला- “भवानीपुर थाने से बोल रहा हूँ । आपके यहाँ कोई रामखेलावन शरण प्रसाद सिंह तो नहीं ठहरे हैं ?"

मेरा चेहरा पीला पड़ गया। मैंने घबराकर पूछा - " खैरियत तो है - जिन्दा हैं न ?” एक हँसी की आवाज सुनाई पड़ी - "जी हाँ हैं तो खैरियत से, लेकिन पिये हुए हैं। आध घंटा हुआ लाए गए हैं! आप उन्हें ले जाइए !”

रिसीवर मैंने रख दिया। मैं आसमान से गिरा - तो हमारे श्री रामखेलावन शरण प्रसाद सिंह इतने पहुँचे हुए आदमी हैं । विश्वासों को एक भयानक धक्का लगा। जी चाहता था कि जमीन फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ। जब श्री रामखेलावन शरण नारायणप्रसाद सिंह ऐसे आदमी पी सकते हैं, और इतनी पी सकते हैं कि थाने में बाँध दिए जाएँ, तब मेरे न पीने के अर्थ यही थे कि मेरी जिन्दगी अकारथ गई ।

बहरहाल अपने अतिथि को हवालात से लाना ही था - और मैं हवालात पहुँचा । पाँच रुपए देकर रामखेलावन शरण को मैंने छुड़ाया और उन्हें घर लाया ।

घर आते ही श्री रामखेलावन शरण ने खींचकर एक गिलास पानी पिया और फिर मत्था पकड़कर बैठ गए। अब देखिए कि उनकी आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे हैं और वे मौन बैठे हैं, न हिलते हैं, न डोलते हैं; न बोलते हैं, न चालते हैं ।

आखिरकार मुझे बात आरम्भ करनी पड़ी - " रामखेलावन शरणजी, भला आपको यह क्या सूझी कि आप पीकर रास्ते में निकले ?"

इस सवाल का पूछा जाना था कि श्री रामखेलावन के उद्गारों का फूट निकलना था । "मैं शपथ से कहता हूँ कि मैंने मदिरापान का जघन्य पाप नहीं किया है। बदमाश पुलिसवालों ने मुझे जबर्दस्ती ही बन्द कर दिया ।”

"यह क्यों ?" मैंने पूछा ।

“यह मेरा दुर्भाग्य है-मुझमें अब जान नहीं है, इतना थका हुआ हूँ। आज छह आने के टिकट ने मुझे मार डाला ।”

“यह कैसे ?” सहानुभूति दिखाते हुए मैंने पूछा; पर मुझमें सहानुभूति की अपेक्षा कौतूहल की मात्रा अधिक थी ।

देखिए किशोर जी—आपने मुझे छह आने का टिकट दे ही दिया था। जब मैं कलकत्ता घूमने निकला तो मैंने दो आने पैसे और साथ में ले लिये कि वक्त जरूरत काम आएँगे। अब मैं रवाना हुआ। ट्राम पर बैठ जाता था जहाँ तक जाती थी, वहाँ तक जाता था और उसी ट्राम पर धरमतल्ला वापस आता था । टालीगंज गया, बालीगंज गया, बेहला गया, खिदरपुर गया, पार्क-सर्कस गया, सियालदह और राजाबाजार गया, श्यामबाजार गया, बागबाजार गया, डलहौजी गया, हाईकोर्ट गया, बऊ बाजार गया, हैरिसन रोड गया और नीमतल्ला भी मैं घूम आया। शाम को कुछ थोड़ी सी भूख लगी थी तो पास में दो आने पैसे थे ही, नाश्ता डट कर किया।

"अब करीब दस बजे मैं हैरिसन रोड और चितपुर रोड चौराहे पर उतरा। मैंने हिसाब लगाया, छह आने के टिकट से मैं एक रुपया बारह आने का घूम चुका था - और घर आने में दो आने का और सफर करता तो इस प्रकार एक रुपए चौदह आने का घूम चुकता। और छह आने में अपने हिसाब से मुझे डेढ़ रुपया का घूमना चाहिए था । इसलिए मुझे सन्तोष करके उस समय लौट आना चाहिए था। लेकिन मालूम होता है कि उस समय मुझ पर शैतान सवार था क्योंकि एकाएक खयाल आया कि खर्च छह आने नहीं बल्कि आठ आने हुए हैं क्योंकि दो आने का नाश्ता तो घूमने के सिलसिले में ही मैंने किया था। और आठ आने के हिसाब से मुझे दो रुपए का घूमना चाहिए था।

"इधर यह खयाल आया और उधर मुझे एक ट्राम दिखलाई दी जिस पर बेलगछिया लिखा था । एकाएक मुझे खयाल आया कि बेलगछिया अभी तक नहीं गया और मैं उस ट्राम में बैठ गया ।

"बेलगछिया पहुँचकर मैं इस आशा से ट्राम में बैठा रहा कि यह वापस जाएगी। लेकिन एक आदमी ने आकर मुझसे कहा- 'अब आप जाइए - ?'

"मैंने कहा- 'मैं धरमतल्ला जाऊँगा !'

"उसने घड़ी की तरफ इशारा करते हुए कहा - ' ग्यारह बज गए हैं, देख रहे हैं आप ! अब यहाँ से कोई ट्राम नहीं जाएगी !'

"किशोरजी -मैं चौंक उठा ! मैंने कहा- 'क्या - यहाँ से क्या अब कोई ट्राम नहीं जाएगी ?"

“ उसने कहा - 'कह तो दिया नहीं जाएगी-अभी बस मिल जाएगी चले जाओ !'

"मैं उठा। लेकिन मेरी जेब में एक पैसा नहीं; भला बस पर कैसे आता। मैंने उस आदमी से पूछा - 'धरमतल्ला यहाँ से कितनी दूर है ?'

"उसने जवाब दिया- 'होगा कोई पाँच मील !'

"और किशोरजी, मैं पैदल धरमतल्ले की तरफ रवाना हुआ। करीब साढ़े बारह बजे मैं धरमतल्ला पहुँचा - बुरी तरह थका हुआ । धरमतल्ला में भी कोई ट्राम नहीं मिली और इसलिए मुझे वहाँ से भी पैदल ही रगड़ना पड़ा। डेढ़ बजे के करीब मैं उस बड़े चौराहे पर पहुँचा । किशोरजी - जरा देखिए, नौ मील पैदल चलकर आया था, दिन-भर खाया भी नहीं था - प्यास जोरों से लगी थी। पैर लड़खड़ा रहे थे, आँखें निकली पड़ती थीं । और उसी समय एक पुलिसवाले ने बढ़कर मुझसे पूछा- 'तुम कौन हो ?'

“ मैं ऐसा बेकाबू और बेहोश था कि मेरे मुँह से शायद शब्द ही नहीं निकले, और अगर निकले भी तो टूटे-फूटे, बिना मतलब के रहे होंगे। तब तक एक-दूसरा पुलिसवाला आ गया। उसने पहले से पूछा कि मामला क्या है। दूसरे ने जवाब दिया- 'मालूम होता है सार दारू पिये है। पैर सीध नाहीं पड़त हैं-जबान नाहीं खुलत है-नसा माँ बेहोस है।' दूसरे ने कहा - 'तो फिर थाना लै चलो, काल सुबह होस आय जाई ।'

"उस समय मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, लेकिन या तो मैं उन्हें नहीं समझा सका, या फिर वे मुझे नहीं समझ सके ! "

"अरे तो यह बात है !” मैंने मुस्कुराते हुए कहा। मैंने नौकर को बुलाकर खाना मँगाया। वे भोजन करने लगे और मैंने उनसे कहा - "आपका अनुभव तो बुरा हुआ है। अब मेरी सलाह यह है कि आप कल सुबह अपने घर वापस चले जाएँ, आप अच्छी साइत पर घर से नहीं चले थे ।"

खाना खाते हुए उन्होंने कहा, "जी हाँ किशोरजी- बात तो ठीक है। लेकिन मेरे मामा के ससुर के बहनोई जो टिकट - कलक्टर हैं और मुझे कलकत्ता मुफ्त लाए थे, कह गए थे कि करीब पन्द्रह दिन में वापस लौटेंगें तब साथ ले जाएँगे । बारह दिन हो गए हैं; दो-तीन दिन में आनेवाले हैं, तब चला जाऊँगा।”

लेकिन इस घटना को हुए करीब पन्द्रह दिन हो गए हैं और मेरा घर अभी तक आबाद है क्योंकि श्री रामखेलावन शरण नारायणप्रसाद सिंह के मामा के ससुर के बहनोई अभी तक वापस नहीं लौटे हैं।

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