छत्रसाल की माँ (एकांकी) : भगवान अटलानी
Chhatrasal Ki Maan (Hindi Play) : Bhagwan Atlani
पात्र-परिचय
कालकुमरि : छत्रसाल की माँ। आयु लगभग पैंतीस वर्ष। सुंदर देहयष्टि। वीर वेश में किसी पराक्रमी योद्धा का सा व्यक्तित्व।
चंपतराय : छत्रसाल के पिता। आयु लगभग चालीस वर्ष। रुग्णावस्था के कारण वे वृद्ध प्रतीत होते हैं। धोती-कुरता पहने हुए। सर्वथा अस्त-व्यस्त दशा।
छत्रसाल : प्रसिद्ध इतिहास पुरुष। ग्यारह वर्ष की आयु। श्रेष्ठ अंग-सौष्ठव एवं अंग-विन्यास के कारण सोलह की लगती है। प्रभावशाली उठान। वीरवेश।
बाकी खाँ : औरंगजेब का सेनापति। छह फीट लंबा सुदृढ़ व्यक्ति। मुगल सेनापति की वेशभूषा। स्वर में एक स्वाभाविक गर्जन का पुट।
बुंदेलखंडी राजपूत ठाकुर, मुगल सिपाही, छह ग्रामीण।
[परदा उठता है। जंगल का दृश्य और उसके अनुरूप ही वातावरण है। कुछ क्षणों के लिए पार्श्व में पदचाप की निकट आती हुई ध्वनि मात्र सुनाई देती है। तत्पश्चात् मंच पर छह लोग प्रवेश करते हैं। उन्होंने धोती और बंडी पहनी हुई है। कंधों पर अँगोछे हैं। उन सबने मिलकर एक चारपाई उठा रखी है, जिस पर चंपतराय लेटे हुए हैं। चंपतराय की अवस्था अत्यंत क्षीण व दुर्बल है। कालकुमरि और छत्रसाल चारपाई के एक ओर चल रहे हैं। पीछे ठाकुर हैं। सभी ठाकुर वीर वेश में सज्जित हैं। मंच के मध्य में पहुँचकर छहों ग्रामीण चारपाई नीचे रख देते हैं और एकाएक सामने की ओर दौड़ते हुए मंच के दूसरी ओर निकल जाते हैं। छत्रसाल, कालकुमरि और ठाकुरों को देखकर लगता है, इस आकस्मिक व्यापार से वे ठगे-ठगे से रह गए हैं।]
कालकुमरि : (स्वगत) मुझे पहले से ही न जाने क्यों बार-बार अमंगल की आशांका हो रही थी। आँख बार-बार फड़कती थी। मन बार-बार कहता था कि दौओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए। (सबकी ओर देखकर जोर से) आखिर हमारी परीक्षा का दिन आ ही गया। शत्रु के फैलाए हुए जाल में हम फँस ही गए। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे मायके गाँव के लोग ही मुझे धोखा देंगे। मगर नहीं, चिंता की कोई बात नहीं है। अभी इस वंश का दीपक अपनी पूरी आन-बान के साथ प्रज्वलित है। (छत्रसाल की ओर देखती है) हमारे मरने के बाद भी शत्रु को चैन की नींद नसीब नहीं होगी। छतारे, मेरे सामने तलवार हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करो कि तुम औरंगजेब से बदला लोगे। अपनी मातृभूमि की ओर बुरी नजर से देखने वाले की आँख निकाल लोगे। इसके लिए तुम्हें चाहे कितनी भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े, जान भी क्यों न देनी पड़े।
छत्रसाल : सामने तो आने दीजिए दुश्मन को माँ, आप स्वयं देख लीजिएगा कि आपका बेटा कितने सिपाहियों को मौत के घाट उतारकर प्राण देता है; कितने कायरों का सिर उतारकर मृत्यु का वरण करता है!
कालकुमरि : तुम्हें देश के लिए अभी बहुत कुछ करना है, बेटा। तुम्हारे जीवन का, तुम्हारी चढ़ती जवानी के खिलते पुष्प का मूल्य इतना कम नहीं है। अभी तो तुम्हें मेरी और अपने पिता की अपूर्ण इच्छाएँ पूरी करनी हैं, अभी अपनी शक्ति के बल पर तुम्हें औरंगजेब को यह दिखाना है कि बुंदेलखंड की भूमि इतनी आसानी से गुलामी की जंजीरें नहीं पहनती है, अभी तो तुम्हें अपनी मातृभूमि पर हुए नृशंस अत्याचारों का हिसाब लेना है। इस बीहड़ में, सहरा से आठ कोस दूर एक बेनाम मौत के शिकार होकर तुम इतने सारे काम कैसे पूरे कर सकोगे? इसलिए तुम शीघ्रता करो और फिलहाल अपनी बहन के पास चले जाओ।
छत्रसाल : अपने प्राण बचाने के लिए आपको और पिताजी को मैं इस संकटपूर्ण विकट स्थिति में छोड़कर नहीं जाऊँगा, माँ। मैं राजपूत का पुत्र हूँ और राजपूत कभी मौत से नहीं डरता।
कालकुमरि : ऐसे अवसरों पर प्राणों से भी अधिक महत्त्व कर्तव्य का होता है, बेटा। माता-पिता के मोह में पड़कर कर्तव्य से मुँह मोड़ लेना क्षत्रिय का धर्म नहीं है।
छत्रसाल : (आग्रहपूर्वक) कर्तव्य को सामने रखकर ही तो मैं वापस न जाने की बात कह रहा हूँ, माँ। आप लोगों को इस तरह जाल में फँसा हुआ छोड़कर मैं अकेला यहाँ से चला जाऊँ, क्या यही मेरा कर्तव्य है? क्या ऐसा करके मैं कायरता नहीं दिखाऊँगा, माँ?
कालकुमरि : तुम्हारी माँ स्वयं कायर नहीं है छतारे, कि वह तुम्हें कायरता का पाठ पढ़ाएगी। वह तुम्हारी माँ ही थी, जिसने वली बहादुर खाँ के लड़के बाकी खाँ जैसे खानदानी प्रसिद्ध सेनापति को चंबल पार के मैदानों में धूल चटाई थी। यह ढाल, यह तलवार और सहारा में बँधा हुआ वह कद्दावर घोड़ा उसी विजय की निशानियाँ हैं। तुम भूल गए शायद छतारे, कि वह तुम्हारी माँ ही थी, जिसने औरंगजेब के दूत सरदार तहव्वर खाँ के सामने एरछ की जागीरी सनद सिर्फ इस बात के लिए फेंक दी थी कि छत्रसाल से बाकी खाँ द्वारा छीना हुआ वही विजयसूचक घोड़ा मुझे वापस दिला दिया जाए। वह तुम्हारी माँ ही थी, जिसने इस घटना से भी पहले शाहजहाँ से एरछ की बैठक और नौ लाख की जागीर पाकर लौटने वाले तुम्हारे पिता से कहा था, आज मेरा सिर शर्म से झुका जा रहा है। बुंदेलखंड की स्वतंत्रता की तड़प, ओरछा की मर्यादा, आपके और आपके वंश के महान् आदर्श इन सब की कीमत बस इतनी की कूती आपने?
छत्रसाल : फिर आज प्राण बचाकर भागने के लिए आप मुझे क्यों कह रही है, माँ?
कालकुमरि : देश ही तुम्हारी सच्ची माता है। देश ही तुम्हारा सच्चा पिता है। इसी देश की धरती का अन्न खाकर, इसी देश का पानी पीकर तुम्हारी कोपलें फूटी हैं। इसी देश की मिट्टी से तुम्हारा शरीर बना है। अपने जीवन की आहुति तुम्हें हमारे लिये नहीं, अपने देश के लिए देनी है। बुंदेलखंड के लिए देनी है। इसी में तुम्हारे पिता की, मेरी और इन सब बहादुरों की प्रतिज्ञाओं की पूर्ति छिपी है। इसी में हम सब का कल्याण है।
चंपतराय : (आँखें खोलकर, चारपाई से उठने का असफल प्रयत्न करते हुए) तुम्हारी माँ ठीक कहती है, बेटा। दुश्मन कभी भी आकर हमें घेर सकता है। तुम जल्दी यहाँ से निकल जाओ।
छत्रसाल : मगर पिताजी, सामने खड़े कर्तव्य की पुकार को ठुकराकर एक स्वप्न, एक कल्पना के पीछे चलना क्या वीरोचित है? क्या यह प्राण बचाकर भाग जाना नहीं है?
कालकुमरि : (दृढ़ता से) छतारे, यह अधिक तर्क करने का समय नहीं है। इससे अधिक समझाने की जरूरत तुम्हें होनी भी नहीं चाहिए। बस, इतना सुन लो कि तुम्हारे पिता का छोड़ा हुआ अधूरा काम तुम्हारे सामने बाँहें पसारे खड़ा है। देश को तुम से बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं। तुम्हें कर्तव्य का कड़वा घूँट पीना ही होगा। तुम्हें यहाँ से जाना ही होगा। यह मेरा आदेश है।
(छत्रसाल कुछ क्षणों तक सिर झुकाए मौन खड़े रहते हैं, फिर माँ और पिता के चरण छूकर धीरे-धीरे एक ओर चले जाते हैं।)
कालकुमरि : (ठाकुरों को संबोधित करते हुए) ओरछा के बहादुर सपूतो, सहरा के घघरे और दीए औरंगजेब के क्रोध से डर गए। जिस स्थान पर और जिस स्थिति में वे हमें छोड़कर भाग गए हैं, उससे साफ जाहिर है कि कुछ ही क्षणों में औरंगजेब की सेना हमें घेर लेगी। हम लोग इनके चंगुल में फँस जाएँ, इससे पहले हमें निर्णय ले लेना होगा। इतिहास हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। हमारे सामने इस समय दो रास्ते हैं या तो हम ओरछा की मान-मर्यादा भुलाकर अपने इतिहास, अपने स्वाभिमान को कलंकित करके मुगल सेना के कदमों में सिर झुकाकर अपने जीवन की भीख माँगें या सच्चे क्षत्रियों की तरह ‘बुंदेलखंड की जय’ के नारे से आसमान को कंपित करते हुए, दुश्मन को गाजर-मूली की तरह काटकर वीरगति पाएँ। बोलिए, आप इन दोनों में से कौन सा रास्ता चुनते हैं? इज्जत के साथ मर जाने का या बेइज्जत होकर बिक जाने का? (सभी ठाकुर अपनी म्यानों में से तलवारें निकालकर अपने-अपने मस्तक से लगाते हैं। एक ठाकुर आगे बढ़कर पहले चंपतराय और फिर कालकुमरि के सम्मुख शीश नवाते हैं।)
ठाकुर : बुंदेलखंड के ठाकुरों ने बिक जाना नहीं सीखा महारानी सा, उन्हें इज्जत दुनिया की किसी भी चीज से ज्यादा प्यारी है। रक्त की आखिरी बूँद तक हम दुश्मन का मुकाबला करेंगे। हम मर जाएँगे, कट जाएँगे, मगर किसी को यह कहने का अवसर नहीं देंगे कि बुंदेलखंड के ठाकुर कायर हैं।
कालकुमरि : (ओजपूर्वक) मुझे आप सबसे इसी उत्तर की आशा थी। बुंदेलखंड की...!
सभी ठाकुर : (जोर से) जय!
(चंपतराय कालकुमरि को संकेत से अपने पास बुलाते हैं।)
चंपतराय : (क्षीण स्वर में) काल, मैं नहीं चाहता कि मेरा सिर जीते जी औरंगजेब की मसनद के आगे झुके। अपना कर्तव्य पूर्ण कर सकोगी न?
कालकुमरि : आप किसी प्रकार की चिंता न करें, स्वामी। कालकुमरि उस मिट्टी से नहीं बनी, जिसे मोह या भावुकता कर्तव्य से च्युत कर सके।
चंपतराय : (उसी तरह क्षीण स्वर में) भाला चलाते हुए तुम्हारे हाथ काँपेंगे तो नहीं?
कालकुमरि : हमारे विवाह से पहले एक बार दाऊ साहब इंद्रमणी का मुहीउद्दीन से युद्ध चल रहा था। एक रात्रि को द्वार पर खटका हुआ। मैंने द्वार खोला तो भीगा बदन और मलिन मुख लिये दाऊ साहब सामने खड़े थे। मैंने आश्चर्य में भरकर उनसे पूछा, दाऊ साहब! सब ठीक तो है? उन्होंने दबी जबान से उत्तर दिया, काल! आज हमें मैदान छोड़ना पड़ा। मेरे सब साथी युद्धस्थल से भाग गए हैं। मैं भी बेतवा नदी पार करके बड़ी कठिनाई से किसी तरह यहाँ पहुँच पाया हूँ। मैंने यह कहते हुए द्वार वापस बंद कर दिया था कि दाऊ साहब! आपके इस कृत्य से बुंदेलखंड का मस्तक लज्जा से झुक गया है। आप लौट जाइए। अब इस घर के दरवाजे आपके लिए बंद हैं। वे लौट गए थे। उनके जाने के बाद भाभी ने क्रोधित होकर मुझे कहा था, राजा! अपना पति होता तो मैं भी देखती कि उन्हें तुम इस तरह दरवाजे से लौटा देती या गले लगा लेतीं। मैंने भाभी से कहा था, भाभी! ये दाऊ साहब थे कि मैंने उन्हें दरवाजे से लौटाकर धीरज कर लिया। अगर पति होते तो उनकी छाती में आपकी काल की कटार ही होती। मुझ पर भरोसा रखिए, स्वामी!
चंपतराय : (मंद-मंद मुसकराते हुए) भरोसा तुम पर नहीं करूँगा, तो भला और किस पर करूँगा, काल?
(कालकुमरि उनके चरणों पर झुकती है कि ‘अल्ला हो अकबर’ के नारों से वन प्रांतर गूँज उठता है। कालकुमरि फुर्ती से उठकर अपनी तलवार और ढाल सँभालती है।)
कालकुमरि : (उत्साहपूर्वक) आगे बढ़ो वीरो, अपनी तलवारों की प्यास बुझाओ! हम सब की परीक्षा का समय आ गया है।
बाकी खाँ : (गरजकर) रुक जाओ! कोई आगे नहीं बढ़ेगा! (मुगल सैनिक जहाँ के तहाँ रुक जाते हैं। ठाकुर भी अपने स्थानों पर स्तब्ध खड़े रह जाते हैं। बाकी खाँ अपनी सेना के सामने आता है।)
बाकी खाँ : (कालकुमरि को संबोधित करते हुए) रानी साहिबा, हम नहीं चाहते कि आपका और आपके सरदारों का खून इन जंगल पौधों को सींचे। हम आपको एक मौका देते हैं। आप अपने हथियार डाल दीजिए। हम आपको और आपके सरदारों को जहाँपनाह से माफी दिलाने का वादा करते हैं।
कालकुमरि : (ललकारकर) वह दिन शायद तू भूल गया है बाकी खाँ, जब चंबल के मैदानों में तू मेरे सामने जीवनदान के लिए गिड़गिड़ाया था। इस ढाल और तलवार को पहचान। अपने घोड़े को याद कर। तुझे तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।
बाकी खाँ : (व्यंग्यपूर्वक) हम पर अहसान-फरामोश होने की तोहमत लगाना जायज नहीं है, रानी साहिबा। कोई बेवकूफ भी समझ सकता है कि हम चाहें तो इस वक्त आपका सिर कलम कर सकते हैं। फिर भी हम आपको जान बचाने का मौका दे रहे हैं। यह हमारे अहसान मानने का सबूत नहीं है क्या?
कालकुमरि : क्षत्राणी मृत्यु से नहीं बेइज्जती से डरती है। मगर तू इस बात को समझ नहीं सकता। तू चाहता है, हम औरंगजेब के पैरों में झुककर, अपने सम्मान और स्वाभिमान को गिरवी रखकर जीवन की भीख माँगें और बदले में तेरा महत्त्व तेरे जहाँपनाह की नजर में बढ़ जाए। मगर तेरी यह इच्छा कभी पूरी नहीं होगी, बाकी खाँ।
बाकी खाँ : (समझाते हुए) रानी साहिबा को हमारे बारे में शायद बहुत सारी गलतफहमियाँ हैं। मगर हम इतने बुरे नहीं है, जितना आप हमें समझती हैं। हम अब भी दिल से चाहते हैं कि इस बियाबान में आपकी लाश जंगली जानवरों की दावत का सामान न बने।
कालकुमरि : गलतफहमी मुझे तेरे बारे में नहीं, तुझे अपने बारे में है। बुंदेलखंड के क्षत्रियों की तलवार की चमक तूने बहुत देखी है। एक बार मेरे हाथ भी तू देख चुका है। मगर लगता है, वह तुझे याद नहीं है। तू निर्लज्ज और कायर आदमी है। तभी तो दस हजार सिपाहियों को पच्चीस ठाकुरों के सामने खड़ा करके डींग हाँक रहा है तू! है अगर तुम में हिम्मत तो आ, तू अकेला आ जा मेरे सामने तलवार लेकर! फिर कर ले फैसला कि किसमें कितनी ताकत है। तू तो मर्द है। एक स्त्री तुझे चुनौती दे रही है। आ जा मेरे सामने!
बाकी खाँ : इन बातों से कोई फायदा नहीं है, रानी साहिबा, हम अब भी आपको एक मौका देने को तैयार हैं।
कालकुमरि : (घृणा से थूककर) मैं थूकती हूँ तुम पर और तुम्हारे मौके पर। वीरो! आगे बढ़ो और दिखा दो इस कायर को कि बुंदेलखंड के खून में बिजली किस तरह तड़पती है!
(सभी सरदार ‘बुंदेलखंड की जय’ का तुमुलनाद करते हैं। सब में असीम जोश है। कालकुमरि बाकी खाँ पर झपटती है।)
बाकी खाँ : (पीछे हटकर सँभलते हुए) इस औरत का गुरूर अब भी सातवें आसमान पर है। (चिल्लाकर, आदेशात्मक स्वर में) खबरदार! इस औरत को जिंदा पकड़ लो। (मुगल सैनिक ‘अल्ला हो अकबर’ का नारा लगाते हैं। घमासान युद्ध छिड़ जाता है।)
कालकुमरि : (बाकी खाँ पर वार करते हुए) बाकी खाँ, सँभल! आज तू अपनी मौत से लड़ रहा है।
(बाकी खाँ ढाल पर वार को रोकता है। कालकुमरि को कुछ मुगल सैनिक घेरने की कोशिश करते हैं। वह तड़पकर घूमती है और तलवार के एक ही वार से दो सैनिकों को धराशायी कर देती है। बाकी खाँ अवसर देखकर दूसरी ओर जाने लगता है।)
कालकुमरि : (चिल्लाकर) भाग कहाँ रहा है कायर! एक ही वार से डर गया?
(मुगल सैनिक कालकुमरि को फिर घेर लेते हैं। वह फुर्ती से पीछे हटकर घेरे में से निकल जाती है। इस दौरान वह पुनः दो सैनिकों को धराशायी कर देती है। उसके बाल खुल जाते हैं। वह बाकी खाँ की ओर लपकती है। तभी उसकी दृष्टि चंपतराय की ओर बढ़ते हुए सैनिक पर पड़ती है।)
कालकुमरि : (जोर से) सावधान बहादुरो, दुश्मन चारपाई की ओर बढ़ रहा है। (वह स्वयं चारपाई की ओर बढ़ती है। काली के रौद्र रूप की तरह उसका चेहरा लाल हो गया है। रास्ते में प्रतिरोध का प्रयत्न करते मुगल सैनिकों को वह काट देती है।)
कालकुमरि : (चारपाई के निकट पहुँचकर) एक निहत्थे व्यक्ति पर हमला करके तुम लोग बहादुरी दिखाना चाहते हो!
(वह मारकाट चालू कर देती है। दो ठाकुर भी चारपाई के निकट पहुँच जाते हैं। चंपतराय विवशतापूर्वक दाँत किटकिटाता है। ठाकुर भी त्वरित गति से तलवार घुमाते हैं। मुगल सैनिकों का घेरा टूट जाता है।)
कालकुमरि : शाबाश बहादुरो, अंतिम साँस तक दुश्मन को इसी तरह मजा चखाते चलो।
(मुगल सैनिकों का एक बड़ा दल इन सबको घेर लेता है। दोनों ठाकुर लड़ते हुए खेत हो जाते हैं। कालकुमरि और भी अधिक क्रुद्ध होकर शेरनी की तरह सैनिकों पर टूट पड़ती है। घेरा छोटा होता जाता है। कालकुमरि की बाईं बाँह जख्मी हो जाती है। उसमें से खून बहने लगता है। कालकुमरि घाव की चिंता न कर चंपतराय की ओर मुड़ती है।)
कालकुमरि : (प्रफुल्लित स्वर में) हे ईश्वर! मुझे क्षमा करना।
(कालकुमरि हाथ साधकर चंपतराय पर तलवार का वार करती है। मामूली सा तड़पकर चंपतराय शांत हो जाता है। तलवार को वह अपनी ओर लपकते मुगल सैनिकों पर तिरछा करके फेंकती है। फिर तुरंत कमर से कटार निकालकर अपना पेट चीर देती है और चंपतराय के चरणों में गिर जाती है। बढ़ते हुए कोलाहल के बीच परदा गिरता है।)