छातों की हड़ताल : बांग्लादेश की लोक-कथा
Chhaton Ki Hartaal : Lok-Katha (Bangladesh)
बरसात का मौसम आया और बीत गया। बादल घुमड़ घुमड़कर कई बार आए, पर बिन बरसे ही जाने कहाँ चले गए। इस बार छातों ने लम्बी नींद ली। पिछली बरसात के बाद से जो सोए तो सोते ही रहे। उन्हें किसी ने नींद से नहीं जगाया।
एक छाते की नींद अपने आप टूट गई। उसे जुकाम था क्योंकि पिछली बार उसे बाहर से घर में आने के बाद गीला ही बन्द करके रख दिया गया था। वह एक अन्धेरे कोने में रखा हुआ था। छाते की सीलन दूर नहीं हुई थी। उसमें से बदबू आने लगी। उसने सोचा बाहर खुली धूप में जाऊँगा तो ताजी हवा और धूप में सीलन दूर हो जाएगी - सिर का दर्द और जुकाम दूर हो जाएगा। छाता अपने मालिक से नाराज़ था । वैसे यह शिकायत अकेले एक छाते की नहीं थी । लगभग सभी को अपने मालिकों से कोई न कोई शिकायत थी। बरसात में लोग छातों को लेकर निकलते और छाते स्वयं बारिश में भीगकर लोगों को भीगने से बचाते । पर घर लौटने के बाद प्रायः ही लोग छातों को लापरवाही से कोने में पटक देते। लोगों को छातों की याद अगली बारिश के समय ही आती थी । यह बात तो गलत थी ।
छातों ने मनुष्यों की इस लापरवाही के बारे में आपस में बात की और फैसला हुआ - हड़ताल। छातों द्वारा हड़ताल के फैसले के बारे में मनुष्य कुछ नहीं जान सके। भला कैसे जानते !
इस बार बारिश आई तो छाते हड़ताल पर चले गए । सब लोगों ने अपने भूले-बिसरे छाते निकाले और घरों से बाहर निकले, पर यह क्या! किसी का भी छाता नहीं खुला। लोगों ने बन्द छातों को खोलकर बारिश से बचना चाहा, पर उन्हें भीगना पड़ा। छातों ने हड़ताल जो कर दी थी। हर कहीं बच्चे, बड़े-बूढ़े अपने हाथों में बन्द छाते लिये हुए बारिश में भीग रहे थे । छातों की मरम्मत करने वालों के पास खूब भीड़ लग गई। लेकिन कारीगरों की हर कोशिश के बाद भी छातों का मुँह बन्द ही रहा । सब हैरान थे ।
यह देखकर लोग कुछ डर गए। उन्हें लगा कहीं छतरियों में भूत-प्रेत न आ बैठे हों। इसलिए लोगों ने दुकानों से नए छाते खरीदने चाहे, पर आश्चर्य । इससे भी काम न बना। नई छतरियों ने भी खुलने से इन्कार कर दिया । कई लोगों ने डरकर अपने छाते सड़क पर छोड़ दिए। जरूर कहीं कोई गड़बड़ थी, वरना छाते इस तरह बन्द कैसे हो जाते !
छाते खुश थे। उनकी हड़ताल सफल रही थी। छाते सोच रहे थे - 'हमने लापरवाह मनुष्यों को सही पाठ पढ़ाया है ।' तेज बारिश में एक बूढ़ा अपनी बीमार बेटी के साथ कहीं जा रहा था। छाते के न खुल पाने के कारण वे दोनों बुरी तरह भीग गए। लड़की भीगने से और भी ज्यादा बीमार हो गई। उसका बूढ़ा पिता भीग जाने से काँपने लगा । और वही दोनों क्यों, ऐसे अनेक बड़े और बच्चे थे जो इस तरह भीगकर बीमार हो गए थे।
"बापू, मुझे चक्कर आ रहा है। ठण्ड लग रही है।" लड़की ने पिता से कहा। वह बोला—“बिटिया, शायद मुझे भी बुखार चढ़ गया है। दोपहर में तो कहीं कोई वैद्य भी नहीं मिलेगा।" बूढ़े के हाथ में लटकते बन्द छाते ने दोनों की बातें सुनीं तो उसे दुख हुआ । सोचने लगा- 'यह तो ठीक नहीं हुआ। लोगों को उनकी लापरवाही का दण्ड देने का यह तरीका शायद ठीक नहीं।' पास में एक दूसरा आदमी हाथ में बन्द छाता लिये खड़ा था । बूढ़े के छाते ने अपने साथी को बूढ़े और लड़की की तबीयत खराब होने के बारे में बताया।
दूसरे छाते ने कहा- “मैं भी यही सोच रहा हूँ, दोस्त ! लापरवाही का यह दण्ड सबको देना ठीक नहीं। निश्चय ही ऐसे लोग भी हैं जो अपने छातों को सावधानी से रखते हैं। हमारी हड़ताल से उन्हें बेकार परेशानी हुई है ।"
आखिर छातों ने आपस में बातें करके अपनी हड़ताल वापस लेने का फैसला किया। जैसे चमत्कार हुआ। जो छाता जहाँ था, वह झटके से अपने आप ही खुल गया । कोई छाता बन्द न रहा। लोगों ने अपने-अपने छातों को झाड़-पोछकर धूप में रख दिया, फिर बन्द करने लगे तो छाते आसानी से बन्द भी हो गए। अब छातों को बन्द करने और खोलने में कोई परेशानी नहीं थी । लोग पहले छातों के न खुलने से जितने परेशान थे उतने ही खुश नजर आने लगे।
फिर बारिश हुई तो लोग छाते लेकर घरों से बाहर निकल आए। छाते एक-दूसरे से कह रहे थे - "यह हड़ताल का फैसला सही नहीं रहा । जाने कितने लोग भीगने से बीमार हो गए हैं।"
बूढ़ा घर में बेटी के साथ चुपचाप बैठा था। उसका छाता भी खुल गया था। छाता सोच रहा था—‘हमारा काम लोगों को धूप और बरसात से बचाना है। हमें अपना काम करते रहना चाहिए।' छाते को उस छोटी लड़की पर दया आ रही थी, जो भीगने से बीमार हो गई थी। वह कह रहा था - "ईश्वर, इस गुड़िया को जल्दी ठीक कर दो। इसे यों पानी में भिगोने की गलती अब मैं कभी नहीं करूँगा।”