चहल्लुम (कहानी) : गुलशेर ख़ाँ शानी
Chehallum (Hindi Story) : Gulsher Khan Shaani
अचानक फिर मरदाने में इतने जोर का कहकहा उठा कि मरियम चौंककर सीधी बैठ गई। अबकी बार सहना मुश्किल हो गया था। वह चाहती थी कि बस एक बार उन खुदा के बंदों को देख ले जो गमी का खाना खाने आए थे और मौका-महल का जिन्हें बिल्कुल ध्यान नहीं था। पर वह भी संभव नहीं हुआ। आँगन के बीचोंबीच मरदाने और जनाने को अलग-अलग करने के लिए एक बड़ा-सा परदा तना हुआ था, उस पार देखना सचमुच कठिन था।
कोई आध घंटे से लोग रह-रहकर हँस रहे थे; पर इस बार शायद किसी बात पर हँसी का दौर ऐसा चला कि कुछ लोग हँसते-हँसते खाँसने लगे।
'तौबा!' पान की पीक एक कोने में फेंककर हजियाइन दादी जनाने में बड़बड़ाई, 'ये मुए हँस किस बात पर रहे हैं?'
'मास्टर साहब के संगी-साथी हैं जी,' सर्किल साहब की बीवी ने जैसे उधर का पक्ष लेते हुए समझाया, 'हमउम्र आपस में मिल बैठते हैं हँसी-दिल्लगी चलती ही है।'
'ऐ, ऐसी भी क्या हँसी मुई?' हजियाइन दादी ने आँखें तरेरकर करारा जबाव दिया, 'कुछ तो मौके का ख्याल करना चाहिए! भई, चहल्लुम की दावत है, कोई वलीमा का खाना तो नहीं ...'
सर्किल साहब की बावी ने कुछ नहीं कहा। धीरे-धीरे दाहिनी जाँघ हिलाती हुई वह गोद में पड़ी बच्ची को थपकियाँ देने लगी। हजियाइन दादी थोड़ी देर मुँह चलाती हुई चुपचाप पान की लुगदी बनाती रहीं, फिर जैसे सबको सुनाती हुई बोलीं, 'हाSआँ... ठीक ही तो है! जिसकी जान गई उसकी गई। नसीब फूटे होंगे मरियम के! हमें-तुम्हें क्या? हम लोगों के लिए तो चहल्लुम भी जश्न हो जाता है...'
सुनकर दूर बैठी मरियम जैसे फिर उमड़ आई। काँपते होंठों को रोक-भींचकर वह अपनी रुलाई रोकना चाहती थी लेकिन हजियाइन दादी ने मानो भीतर के घाव को छू दिया था। जल्दी-जल्दी पीछे का पल्लू टटोलकर उसने मुँह में ठूँस लिया और निःशब्द रोने लगी।
जनाने में अब बिल्कुल गिनी-चुनी औरतें रह गई थीं - कुछ घर-घराने की, कुछ दूर दराज की रिश्तेदार और एक दो वे जो काम-काज के लिए आग्रहपूर्वक ठहरा ली गई थीं। थोड़ी देर पहले घर में जो गहमा-गहमी व भाग-दौड़ मची थी उसका अब नाम भी न था। यों वातावरण में बिरयानी की महक अब भी थी। फर्श पर आए-गए लोगों के निशान धीरे-धीरे मिट रहे थे। कुएँ के पास लगातार धुल रहे बर्तनों के पटके जाने की खनाक-खनाक की आवाज आ रही थी। उसके बगल वाले घूरे पर झूठी थालियों से निकला हुआ जख्मी खाना जमा हो रहा था।
सभी अपने-अपने में लगे हैं। मरियम ने धुँधलाई आँखों से देखकर सोचा, कोई किसी को नहीं देख रहा! किसी को ख्याल नहीं कि मरियम कहाँ बैठी है। कोई नहीं जानता कि उसकी अभागी बेटी गुलशन किस अँधेरे कोने में मुँह ढाँके पड़ी है।
रायपुर वाली ननद हँस-हँसकर काम कर रही थीं। उनकी जवान ब्याहता लड़की ने उम्दा साड़ी पहन रखी थी। जब बह किसी से मुस्कराकर बातें करती तो उसके कान के झुमके झिल-मिला उठते। मरदाने में बैठे मास्टर साहब के दोस्तों को थोड़ी-थोड़ी देर में किसी-न-किसी चीज की जरूरत पड़ती थी। जल्दी करने के लिए जब मास्टर साहब खुद परदे के इस पार आ जाते तो उन्हें देखकर विश्वास ही नहीं होता, चेहरे से यह बिल्कुल नहीं लगता कि अभी कुछ दिन पहले, उनके साले का इंतकाल हुआ है। अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तेदार, हमदर्द और अपने-पराए से लेकर बर्तन साफ करने वाली बड़ी बी तक - सब जैसे उस घटना को भूल गए हैं। जैसे उन्हें यह भी याद नहीं कि अभी कुछ दिनों पहले सबके सब किस बात पर रो रहे थे! जैसे यह भी नजर की ओट हो गया है कि शाम छह बजे से लेकर अब तक ये जो सैंकड़ों लोग आए-गए उसका आधार क्या है...
थोड़ा पीछे खिसककर मरियम ने खंभे पर सिर टेक दिया। अब उसके चेहरे पर अँधेरा पड़ गया था। वह सबको देख रही थी, केवल उसी पर किसी की निगाह न थी। उसने सुबकियों में सना हुआ एक लंबा निःश्वास लिया, और धीरे-धीरे आँसू ढालने लगी।
क्या सचमुच यह सारी चहल-पहल चहल्लुम की ही है और वह भी उसके मियाँ की? क्या वास्तव में सिराज मियाँ अब कभी लौटकर नहीं आएँगे? क्या मरियम उन्हें देख सकेगी? गुलशन क्या सच ही अनाथ हो गई है? और अगर यह सच है, तो उसके ये सारे अपने-पराए ऐसे क्षणों में भी इतने दूर-दूर क्यों लगते हैं?
पर नहीं मरियम ने सोचा, हजियाइन दादी की बात अभी चाहे मरहम का काम करे, हकीकत में वह सच नहीं है। भला सही अर्तों में किसी के बी दुख का सहभागी कौन होता है? संवेदना प्रकट करना एक बात है और उसे ज्यों का त्यों भोगना दूसरी! अभी कुछ दिनों पहले जब खुद उसकी बहन का शौहर गुजर गया तो और लोगों के साथ मातमपुर्सी करने मरियम भी गई थी। बहन धाड़े मार-मारकर रो रही थी, जोर-जोर से छाती कूट रही थी। और बिलख-बिलखकर खुदा का गिला कर रही थी। उसके साथ-साथ बहुत से लोग रोए, मरियम को भी रोना आया पर थोड़ा देर बाद बहन का रोना खुद उसे भी खलने लगा था। बुढ़ियों की तरह उसने समझाया था, 'चुप कर, ओ हुस्ना! अल्लाह पर कोई जबरदस्ती तो है नहीं; और खुदा के वास्ते न सही, बच्चों के वास्ते सब्र कर! अभागिन, रोना तो तुझे अब जिंदगी भर है...'
तब वह क्या जानती थी कि इतनी जल्दी ऐसे जुमले उसे भी एक दिन सुनने पड़ेंगे और तभी उसकी असलियत का पूरा-पूरा अहसास हो सकेगा।
फिर बहन के शौहर की बात यों भी अलग थी। वह अच्छा-खासा, जवान तंदुरुस्त और मिलनसार आदमी था। चार दिनों के बुखार से अचानक चल बसेगा, यह किसी ने कल्पना भी न की थी; अतः उसके हमदर्दों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक थी।
सिराज मियाँ दूसरी तरह के आदमी थे। स्वभाव से दब्बू, अड़ियल तथा नशे के शौक के कारण अलग-थलग रहने वाले। शायद यही नशा था जिसने उन्हें अंत में कहीं का नहीं रखा और एक दिन मरियम को माथा पकड़कर बैठ जाना पड़ा। प्राइवेट मोटर कंपनी की नौकरी थी। न सुबह का ठिकाना था, न शाम का। वहीं कहीं से शायद ये पीने-पिलाने का रोग ले आए थे जो धीरे-धीरे करके उनकी जान ही ले गया।
'ऊँट रे ऊँट, तेरी कौन-सी कलम सीधी?' अक्सर सिराज मियाँ हँसकर कहते, खास तौर पर तब जब मरियम उनके पीने का विरोध करके कसमें खिलाती और जोर-जोर से रोने लगती।
'न पीता था तो क्या और पीने ही लगा तो क्या?' वह समझदारों जैसी हँसी हँसकर दलीलें रखते। 'यों भी आगे-पीछे के लिए है कौन?' एक गुलशन है यों वह भी वक्त आने पर अपने घर चली जाएगी। रह गए वही हम मियाँ-बीवी...'
लेकिन मियाँ-बीवी बने रहने के लिए भी पैसों के अलावा भी कई चीजें चाहिए थीं। विशेषकर अच्छी सेहत और स्वस्थ शरीर, जिसका सिराज मियाँ के पास अभाव था। निहायत काला रंग, चेहरे के ऊबड़-खाबड़ नक्श, दुबला-पतला लिफाफिया बदन और बीमार-बीमार सी आँखें - सिराज मियाँ की यही हुलिया थी।
इस पर अब शराब के सितम ने उन्हें उस हाल पर पहुँचा दिया था जहाँ से लौटकर वापस आना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं होता। धीरे-धीरे उनका शरीर खोखला होता गया और दुनिया-जहान की बीमारियों न उन्हें एक-साथ घेर लिया। यहाँ तक कि बात-बात में वह केवल दवाओं और इंजेक्शन के सहारे चलने लगे...
वह महीनों बीमार रहते और किसी को दिखाई भी देते तो हाँफते हुए और बदहवास दवाखानों या अस्पतालों के आसपास। ऐसे शरीर का उठ जाना किसी के लिए ताज्जुब की बात न थी।
हैरत तो इस बात पर थी कि सिराज मियाँ ने एकाएक धोखा दिया। जब लंबी-लंबी बीमारियाँ आईं, माँ-बेटी दोनों आस तोड़ बैठीं और रिश्तेदार भी ऊबने लगे थे और मरियम की मरी हुई आशाओं में कोपलें फूट आई थीं।...
ऊपर से देखने पर कुछ भी नहीं था। तबीयत में भी न तो कोई गड़बड़ी और न खराबी। एक दिन शाम को लौटे तो परेशान रहे। मालूम हुआ कि उनका तबादला जगदलपुर से बाहर कर दिया गया था। वह जाना नहीं चाहते थे। दूसरी सुबह अचानक रायपुर निकल गए। पैसे माँगते वक्त केवल इतना कहा, 'मम्मो, अपनी बदली का आर्डर रद्द करवाने के लिए रायपुर जा रहा हूँ।'
लंबे सत्ताईस बरसों की ब्याही जिंदगी का अंतिम जुमला बस यही था। फिर मरियम ने अपनी आँखों से कुछ नहीं देखा सिवाय इसके कि एक रात रायपुर से चलने वाली बस जाकर उनके घर के सामने खड़ी हो गई, तीन-चार लोगों ने सिराज मियाँ का शव उतार दिया और अलग हट गए...
'हाय-हाय, ऐसा ना करो, आपा!' देग के पास रायपुर वाली ननद किसी से मिन्नत भरे स्वर में कह रही थी, 'तुमने मेरी बात न रखी तो बेहद अफसोस होगा।'
आँसू देखकर मरियम उधर देखने लगी। हालाँकि दावत पर आई अधिकतर औरतें कभी की जा चुकी थीं लेकिन उनमें से कुछ जानबूझकर ठहरा ली गई थीं। ठहरकर अंत में खाने का मतलब साफ है। ऐसे नसीब वाले एक तो आम लोगों के साथ मिलकर खाने की जहमत से बचते हैं, दूसरे आखिर का खाना और किस्म का होता है। ऐसे लोगों के लिए फर्श अलग, दस्तरख्वान अलग, खाना भी वह जो खासतौर से अलगाकर रख लिया जाता है और कई तरह के उम्दा सालनों के साथ मेहमानों को दिया जाता है।
उस औरत की ऊँची कीमत की उम्दा साड़ी... बदन के जेवर और अलैक-सलैक की बेपरवाही से मरियम को विश्वास हो गया है कि वह ऐसी ही मेहमान होगी। ननद के इसरार का जवाब देते हुए उसने मुस्करारकर कहा 'मैंने भाईजान के लिए रख दिया है। जानती हूँ, आखिर वह नहीं ही आएँगे! अर्ज सिर्फ इतनी है कि इन्कार न करो?' और तुम्हें ढोना भी नहीं पड़ेगा। मैं साथ में बड़ी बी को भेज रही हूँ...'
मरियम की आँखों की कोर में दो बूँदें अटकी थरथरा रही थीं। पलक झपककर उन्हें धीरे से ढालती हुई वह दीवार से टिक गई। सिराज मियाँ की बहन क्या यही है? उसने लौटते हुए मेहमान, खाने की बर्तन उटाए बड़ी बी और ननद की ओर देखकर सोचा, भाई की लाश के सामने उस दिन जो बेतहाशा सिर धुन रही थी वह औरत इसमें कहाँ छिपी बैटी है? क्या यहाँ से वहाँ तक केवल दस्तूर ही दस्तूर है?
वह दिन आज भी ज्यों का त्यों नजरों के सामने आकर खड़ा हो जाता है। दो-तीन माह से ननद जगदलपुर आकर ठहरी हुई थीं। सिराज मियाँ की लंबी बीमारियों का जमाना था। और जमीन जायदाद को लेकर भाई-बहन में मलाल भी आ गया था। उस दिन सिराय मियाँ अस्पताल से लौटे तो जाने क्या मन में आया कि सीधे बहन के पास जा बैठे। यों उनकी आदत न थी पर बड़ी देर तक वे हँस-हँसकर इधर-उधर की या बीमारी तथा अपनी की बातें करते हुए। और उसी सिलसिले में बोले :
'और आज डाक्टर ने क्या कहा, जानती हो?' कहने लगा, 'सिराज मियाँ, तुम्हारी जिंदगी वाकई बड़ी लंबी है; वरना ऐसी-ऐसी बीमारियों में फँस कर भी तुम निकल आते यह मुमकिन न था।'
खुदा मालूम, जाने या अनजाने नद के मुँह से अचानक निकल गया, 'तुम्हें जाने-अनजाने क्या होने को है? मरने वाले ऐसे नहीं होते...'
बस, बात इतनी थी। लेकिन मरियम के सामने आकर सिराज मियाँ बच्चों की तरह रो पड़े थे। कहा, 'देखती हो, मैं घर वालों के लिए ही भारी हो गया हूँ! और तो और, बहन भी चाहती है कि मैं मर जाऊँ...'
सुनकर मरियम भी रोई, गुलशन भी और बात आई-गई हो गई। उसके दिन ही उन्हें तबादले का आर्डर मिला, और एक दिन बाद वह रायपुर चले गए। वहाँ हफ्ते-भर रहकर क्या किया, खुदा जाने! एक सुबह अचानक जगदलपुर के लिए बस में आ बैठे पर वह सफर आधी राह में ही टूट गया। कांकेर पहुँचने पर कंडक्टर ने चाय के लिए उन्हें जगाया, तो उनका सिर एक ओर लटक गया। वह मर चुके थे!
सिराज मियाँ के निर्जीव शरीर के सामने उस दिन यही कह-कहकर ननद रोती थी कि भैया ने माफी माँगने का भी वक्त नहीं दिया। हाय अल्लाह, इस सदमे को किस तरह ढोऊँ!
वही सदमा, चहल्लुम आते न आते, क्या इस कदर धुँधला गया कि...
किसी की आहट से सहसा मरियम ने पलटकर देखा।
जो शरीर पास आकर ठिठक गया था, उसके घुटनों से लेकर नीचे तक का गरारा उतना ही परिचित था जितनी कि स्वयं गुलशन और उसके शरीर से हर क्षण उठने वाली हल्दी मसाले की गंध...
'अम्मा!' एक स्वर उभरकर मरियम के पास बैठ गया। गुलशन ही थी। वैसे माहौल में ऐसी फँसी हुई आवाज और किसकी होती? बाल उसके वीरान-वीरान, कपड़ों पर ढेरों सलवटें, आँखें सूजी हुईं और बाएँ गाल पर चारपाई के बान के गड़ने का चिह्न...
'चलकर थोड़ा-बहुत खा लो!' पास बैठकर गुलशन ने उठे हुए घुटने पर चेहरा रख लिया और दूसरी ओर देखती हुई यूँ बोली जैसे किसी और से कह रही हो।
किसी ने पेट्रोमैक्स उठाकर उसकी जगह बदल दी थी। अब वह ऐसी जगह रख दिया गया था कि उसका प्रकाश नीचे से लेकर ऊपर तक फैल गया था। आँगन या पड़ोस के कई पेड़ जो पहले अंधों की तरह अँधेरे में खड़े थे, अब साफ देखे जा सकते थे। न रोकी जाए तो रोशनी कहाँ-कहाँ नहीं पहुँचती?
सचमुच, किसी का कुछ नहीं गया, एकटक अपनी बेटी की ओर देखते हुए मरियम के मन में आया। और तो और, एक हद तक स्वयं उसका अहित भी उस सीमा तक नहीं हुआ जिसके पार उसकी अभागी बेटी गुलशन खड़ी है। मरियम का जी एकाएक दोहरी करुणा से भर गया। वाकई इस बदनसीब का अब क्या होगा?
'तू तो बेकार मरी जाती है, मम्मो।' सिराज मियाँ ने कई बार लाड़ में भरकर कहा था, 'आज घर-घर कुँआरी लड़कियाँ बैठी हैं। मैं कईओं को जानता हूँ, जो अनब्याही ही बूढ़ी हो गईं। कम से कम उनसे तो मेरी बेटी के नसीब अच्छे हैं, क्या हुआ जो पान की रस्म के बाद रिश्ता टूट गया। लड़की अच्छी हो, हजार लड़के मिलते हैं...'
एक-दो साल पहले निहायत धूम-धाम से गुलशन के 'पान' हुए थे, लेकिन वह रिश्ता बन नहीं पाया। लड़के वालों ने कोई नुक्स निकालकर संबंध तोड़ लिया और शादी नहीं हो पाई।
वैसे भी मिराज मियाँ ने सही बात नहीं कही थी। अच्छी लड़की से जो मुराद उनकी थी, वह गुलशन के सामने कतई गलत थी, फिर भी मरियम ने कभी विरोध नहीं किया। जैसे मन-ही-मन उस झूठी तसल्ली से आश्वस्त होकर वह बैठ गई हो कि गुलशन में रूप न हो, काली-कलूटी ही सही, लेकिन निश्चय ही अच्छी लड़कियों में उसका शुमार होनी ही चाहिए।
'और पैसों की फिक्र? अरे तौबा करो, यह फिक्र उन्हें हो जिनकी कई बेटियाँ बैठी हों। हमें क्या ले-देकर एक ही तो है... और पैसों की कमी मुझे होगी नहीं मम्मो! मैं मर भी गया तो मेरी जेब से पैसे निकलेंगे...'
क्या अपने आने वाले दिनों के बारे में आदमी इस हद तक सही बात कह सकता है? जनाजे का गुस्ल देने के लिए जब मिराज मियाँ के बदन के कपड़े फाड़े गए तो निचली बनियान में से सचमुच तीन सौ रुपए निकले थे। यों थोड़े पैसे घर में भी थे और कफन-दफन उन्हीं से हुआ, लेकिन बाद के सारे कामों में वही रुपए काम आए। खास तौर पर चहल्लुम की दावत में बस्ती के इतने सारे लोग कभी न बुलाए जाते यदि वह तीन सौ न होते।
यों मरियम ने इतने बड़े पैमाने पर दस्तूर निभाने की बात नहीं सोची थी। उसका ख्याल था कि फतिहा के बाद दस-पाँच फकीरों को खिला देना काफी होगा; लेकिन ननद का रुख दूसरा था। उसने सीधे तो कुछ नहीं कहा पर गोल-मोल बातों का मतलब यही था कि कस्बे के पुराने वाशिंदे होने के नाते भैया की सभी से मेल-मुलाकात और राह-रस्म थी। उन्हीं के आखिरी काम में सारे लोग न बुलाए गए तो बिरादरी के लोग क्या कहेंगे? वह जैसे ताना था कि जिस शौहर के साथ जिंदगी के इतने बरस गुजारे उसी के आखिरी काम के लिए मरियम कंजूसी करना चाहती है...
'अम्मा!'
अबकी बार मिन्नत-भरे स्वर के साथ ही अपनी बाँह पर मरियम को गुलशन का स्पर्श भी महसूस हुआ।
बाहर मरदाने में फिर किसी ने पेट्रोमैक्स उठा लिया था। उसकी आधी रौशनी परदे को लाँघकर इधर कूँद गई थी और पेड़ों पर का प्रकाश रेशमी खोल की तरह नीचे उतर चुका था। उसी उजाले में मरियम ने देखा कि गुलशन का सारा चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ है और पपोटे थर्रा रहे हैं। उसने धीरे से अपना हाथ बढ़ाया। चाहती थी कि बेटी को सांत्वना दे; पर एक गोला-सा उमड़कर गले में फँस गया। अंत में बड़ी कठिनाई से दाँत-होंठ भीचकर उसने अपने को जब्त किया और बोली, 'और सब लोगों ने खा लिया?'
'हाँ...'
'तुम्हारी फूफी?'
'वह भी... चलो अम्मा, कब तक भूखी बैठी रहोगी?'
खनाक! - कुएँ के पास बरतन धोने वाली फिर कोई रकाबी पटकी शायद। उससे थोड़ी देर घूरे पर जख्मी खाने का छेर लगा हा था। इर्द-गिर्द कुत्ते मँडरा रहे थे। मरदाने से रह-रहकर हँसी का शोर उठ रहा था। उन आवाजों से मरियम ने अंदाज लगाया कि खाना हो गया और मास्टर साहब पान दे रहे हैं।
'और यह खाना देखो,' अचानक बिरयानी की देग में कफगीर डालकर कोई चिल्लाया। शायद ननद ही थी। जोर से पुकारकर बोली, 'ए गुलशन, जरा मास्टर साहब को बुलाना तो! और फिर वह कफगीर चलाती हुई बड़बड़ाने लगी, 'खुदा जाने बस्ती में दावत नहीं पहुँची या लोग आए नहीं... और कितनी बार कहा कि डेढ़ मन की बिरयानी बहुत होती है, पर मेरी कोई सुने तब न। या अल्लाह, यहाँ तो एक-चौथाई देग भरी पड़ी है! यह कौन खाएगा?'
गुलशन चुपचाप उठकर वहाँ से चली गई। उसके लौटते हुए शरीर को देखते-देखते मरियम का मन फिर करुणा से भर आया।
जब गुलशन आँखों से ओझल हो गई तो एक बार देग पर से फिसलती हुई उसकी निगाह घूरे पर टिक गई जहाँ जख्मी बिरयानी का ढेर लगा हुआ था। थोड़ी देर वह लगातार उस ढेरी की ओर देखती हुई सोचती रही - 'उन जैसे अकेलों के लिए तीन सौ रुपए क्या कम होते हैं?'
फिर अचानक मन में उठे किसी ख्याल को जबरदस्ती दबाती हुई वह रोने लगी :
'खुदाया, मुझ लालची और जाहिल औरत को माफ कर!' बेटी की ममता में मैं कभी-कभी अंधी हो जाती हूँ...'