चींटी (पिम्पुड़ी-ओड़िया कहानी) : गोपीनाथ मोहंती

Cheenti (Oriya Story) : Gopinath Mohanty

धीरे-धीरे-धीरे सबसे ऊपर पहुँचने के लिए एक के बाद एक चलते जा रहे थे दोनो पाँव, दर्द के मारे पैरों की पिंडली और जांघे मानो फट रही हो। छाती के अंदर जैसे धुरमुस चल रहा हो। सिर के ऊपर टोपी की फाँक से पसीना बह रहा था बारिश के पानी की तरह, हाफ पैंट और हाफ़ कमीज़ भीग चुके थें फिर भी शरीर चल रहा था मानो कोई पीछे से धकेल रहा हो, लग रहा था जैसे हवा के झोंकें धक्के मार रहे हो। पहाड़ के शिखर पर पहुँचकर रमेश रूक गया।

सघन पेड़ों से भरा जंगल काफ़ी नीचे रह गया था। ऊपर से दिख रहा था घनघोर काला जंगल जैसे कि पाताल तक उतर रहा हो। चारों तरफ़ ऊपर नंगी चट्टानें, किनारे-किनारे घास के मैदान और चहुँ ओर विस्तृत आकाश।

पहाड़ चढ़ना ख़ूब कठिन काम होता है, उसने स्वयं इस बात को मान लिया था,मगर साथी मित्रों को यह बात बतलाने में शर्म अनुभव हो रही थी। उम्र में वही सबसे जवान, बाक़ी लोग बूढ़े या अधेड़ उम्र के, इसके अलावा वह अधिकारी है, जितना भी कष्ट मिले होठों पर दाँत भींचकर काठ की तरह कठोर रहना उसका कर्तव्य बनता है। उल्टा उन लोगों से वह कहता है, “क्या आप लोग इतना ज़ल्दी थक गए? ”

दुबला-पतला सुंदर-सा जवान, पाँवों में जूते पहने हुए नुकीले धारदार पत्थरों पर कूदते- फाँदते आगे निकल जाता है हमेशा की तरह।

इंजिन की तरह सीं- सीं करता हुआ ऊपर चढ़ता आ रहा था चपरासी बिनू, जहाँ ओड़िशा का रहने वाला रमेश उसका इंतज़ार कर रहा था। बिनू का भारी-भरकम शरीर जैसे-जैसे पास आता जा रहा था, वैसे-वैसे उतना ही बड़ा होता जा रहा था, जैसे कि एक मटमैले रंग का बड़ा कुकुरमुत्ता। उसके नीचे काला-कलूटा, मोटा-तगड़ा ठिगना एक आदमी। नाक में और कान में सोने की बालियाँ, शरीर पर पहने हुए कोट-पेंट, पीठ पर ताने हुए बंदूक और कंधे पर लटकाए हुए फ्लास्क। बिनू ऊपर पहुँचकर हाँफने लगा। चिल्लाने लगा-“ऐ, तेरे मेरे वादुड़े”

रमेश के पीछे वह चपरासी साइन-बोर्ड की तरह खड़ा हो गया।

नीचे से समवेत स्वर में एक गीत सुनाई पड़ रहा था। गीत के बोल थे “बाइले, बाइले।”

सबसे आगे एक, उसके बाद दो उनके पीछे एक साथ आठ भार ढोने वालो के चेहरें ऊँची-ऊँची घास के अंदर से दिखाई देने लगे, कोपीन पहने हुए सभी कंध आदिवासी नंगे बदन। गाना बंद हो गया। बिनू चिल्लाने लगा- “आलसी कहीं के, कितनी भी गाली देने से भी आगे नहीं बढ़ते हैं।”

“बूढ़े हो गए हैं, हुजूर।” किसी एक ने उत्तर दिया, शुरू हो गया उन लोगों का हँसी-मज़ाक़ का दौर, कुछ ही दूर पर बैठे-बैठे बीड़ी चुट्टा लगाने लगे।

फ्लास्क खोलकर बिनू ने चाय थमाई। एक आँवले के पेड़ के नीचे बैठकर चाय पीते-पीते रमेश ने पूछा, “और कभी इस रास्ते से गुज़रे थे बिनू?”

“दो साल पहले एक बार आया था और उससे पहले तो कई बार।”

"कोई और अधिकारी इस रास्ते से पैदल गुज़रे थे? "

“कुछ आए थे, सर ! यही तो है शार्टकट रास्ता हाट के लिए, इसलिए कभी-कभार आना जाना हो जाता था।”

रमेश का आत्म-अभिमान दब गया। बचपन से आज तक सबसे आगे रहने में उसको आनंद मिला था। यही तो एक मात्र उपाय था अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए। उत्तरी बालेश्वर के किसी एक गाँव में एक दरिद्र परिवार में उसका जन्म हुआ था। गाँव के स्कूल में ही अटक कर रह गए उसके कई दोस्त और कुछ दोस्त कॉलेज में पहुचने से पहले। उसके गाँव से वह अकेला ही कॉलेज तक पहुँचा। वह भी संभव हुआ था छात्रवृत्ति मिलने की वजह से। हर साल इनामस्वरुप मिली किताबें, अच्छे अंक आने से छात्रवृत्ति और मैडल, केवल इतनी ही तो थी उसके जीवन की सफलता। यही सब यादें लेकर वह गर्वित था। एक दिन उसे सरकारी नौकरी मिल गई। अपरिचित लोग परिचित होने के लिए उसे प्रणाम करने लगे, चपरासी सलाम ठोकने लगे, इंश्योरेंस एँजेट जग्गी बाबू शाम की चाय के लिए निमंत्रण देने लगे, शादी के लिए जान पहचान वाले पीछे लगने लगे। सहपाठी उमेश ने तो यहाँ तक पूछ लिया, “भाई, तुम्हारी शादी के बारे में किस से बात करनी होगी, कहो? ”

नमस्कार, नमस्कार, चारों तरफ़ नमस्कार।

व्यक्तिगत उद्यम को परखने में पहले जीत, फिर आत्म-अभिमान और धीरे-धीरे बन गया उसका आत्म-विश्वास। रमेश को लगने लगा कि वह भी कुछ है।

उसके चारों तरफ़ असंख्य लोग, जो कुछ भी नहीं थे। फिर भी कभी-कभी उसे भीतर-ही-भीतर एक टीस अनुभव होती थी, जितना भी आगे रहने पर जब वह देखता कि उससे पहले कोई और वहाँ पहुँच चुका है। जब देखो, उसके आगे कुछ लोग और उनकी तुलना में उसकी स्थिति कुछ भी नहीं।

कम से कम पहाड़ चढ़ते समय तो ऐसा लगता था कि उसके सभ्य समाज से इस रास्ते तक आने वाला वह ही पहला व्यक्ति है। सच नहीं होने पर भी कल्पना में उसको आनंद मिलता था। चाय देते- देते बिनू कहने लगा, “इस पहाड़ी के ऊपर एक बार बड़े साहिब ने कैम्प लगाया था। हम लोग यहाँ पाँच दिन तक रूके थे। लग रहा था जैसे एक शहर यहाँ बस गया हो। शिकार, नाच-गाना और कितनी सारी बातें।”

हाँ कितने साहिब आए और गए, फिर भी लग रहा है, यह जंगल हमेशा ऐसे ही गुप्प अँधेरे में डूबा हो।

“उस समय का जंगल और अब कहाँ बचा, सर।” बिनू ने कहा।

“घनघोर जंगल था जानवरों से भरा हुआ, ख़त्म हो गया वह जंगल। सब काट लिया कंध लोगों ने। यहीं आस-पास के इलाक़ों में कंध लोगों के कई गाँव थे। जंगल उजड़ गया, बाघ इंसानों को खाने लगे। कंध गाँव छोड़कर भाग गए।”

“आजकल जंगल नहीं है तो फिर ये सब क्या है? ”

“कट जाने के बाद फिर से बढ़ गया है। जितना भी बढ़ने से भी वह जंगल और कहाँ मिलेगा।”

आदमी आया, जंगल में घुसा और चला गया, फिर आया है। जंगल पहाड़ों में भी उसके सुख-दुख की धारा मिटी नहीं, घने जंगल के नीचे पत्थरों से टकराती हुई झरने की पतली धारा की तरह।

इतना सब कुछ सुनने के बाद रमेश की आत्म-चेतना उदास होकर धूमिल हो गई।

नीचे गिरे टूटे बिस्कुट के चूरे को खाने के लिए चींटियों की एक पंक्ति लग गई थी। अचंभित होकर रमेश ने उस ओर देखा। हँसते हुए मन ही मन कहने लगा “केवल इंसान ही नहीं चींटियाँ भी, चार हज़ार फ़ुट पर्वत के ऊपर इंसानों के घर की साथी चींटियाँ भी रहती हैं।” छोटी-सी चींटी ने उसको पहाड़ चढ़ने का असली उद्देश्य याद दिला दिया। खड़ा होकर वह पूछने लगा, “बिनू, चावल की तस्करी पकडेंगे न? ”

“वह कैसे छोड़ देंगे, सर? जिधर से जाए चावल तो पहुँचेगा कष्व वालसा हाट में। अभी तो दस बज रहे है। इस ढलान को पार करते ही हम लोग वहाँ पहुँच जाएँगे उस जगह पर दो बजने से पहले। उसके बाद एक-एक को रंगे हाथों पकडेंगे। कहाँ जाएँगे बदमाश? ”

“तब तो आगे बढ़ो, और देर करने में फ़ायदा क्या? ” विश्राम नहीं मिलेगा यह जानकर बिनू विरक्त हो गया, लेकिन करे तो क्या, कोई ऊपाय भी नहीं। जितनी मालूम थी चार-पाँच कंध बोलियाँ बोलते हुए रौब से कंध लोगों पर चिल्लाने लगा, “हे, तेरे बेरे हाला मुड़े (चलो,चलो )”

कंध लोग गुर्राने लगे। अच्छी बात, थोड़ा भी आराम नहीं, दौड़ते रहो। बंदर भगाने जैसे आदिम कंध भाषा में बिनू और उसके पूर्वजों को गाली देने लगे। जानते थे उनकी वह भाषा किसी के समझ में आने वाली नहीं है। ये लोग केवल आदेश देंगे “बोझ उठाओ, पानी लाओ, लकड़ी काटो।” इतनी बात समझाने के लिए इन लोगों को कंध भाषा आती है और बिनू को भी। इसके अलावा खुले मन से कंध भाषा में गाली दो, कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। आपस में बात करने लगे-“अच्छे पागल लोग हैं। इस प्रदेश का चावल उस प्रदेश के लोग ख़रीद रहे हैं। इसलिए पूरे जंगल को तहस-नहस कर चूहे पकड़ने जा रहे हैं। भूख तो सभी को लगती हैं। उसमें यह प्रदेश वह प्रदेश की बात कहाँ? जिसकी जो ज़रूरत, वह ख़रीदेगा। इसमें अपराध की बात कहाँ? किसका है यह देश? कौन पैदा करता है चावल? नहीं, नहीं, इनका न्याय कुछ हटकर है। इनके न्याय में दारू बनाना गुनाह, दो दिन तक बोझ ढोते-ढोते थककर बैठ जाओ तो गुनाह।”

त करने का समय नहीं, चपरासी गरियाने लगा, साहिब आगे निकल गया। कंध लोग उठकर खड़े हो गए। ख़ुद के सारे आरोपों को गीतों में पिरोकर गाने लगे। उसके बाद बारी-बारी से एक ही कोरस- “बाइले, बाइले।”

सामने सघन जंगल, उसके नीचे पहाड़ी ढलान, उसमें छिपी सुरंगों की तरह नीचे की ओर उतरती पगडंडी। पीछे की तरफ़ से आ रहे कंध लोगों का समवेत संगीत रमेश को हर्षित कर रहा था। कितना मधुर ! क्या होगा उसका अर्थ? ज़रूर कोई जातीय गाथा होगी।

“बिनू !” रमेश चिल्लाया।

मन ही मन गाली देते हुए चट्टान के बाद चट्टान नापते हुए डगमगाते पांवों से बिनू उसके सामने हाज़िर हो गया। उसकी उम्र पचपन, सिर के बीचोबीच चाँद, छ दाँत गिर चुके थे, इस उम्र में पहाड़ चढ़ना उसके लिए प्रतिकूल था। उसके शरीर को चाहिए आराम, धीरे-धीरे क़दम भरना लेकिन यह जवान अधिकारी काफ़ी ज़ल्दबाज़ी कर देता था। ख़ुद पागल और दूसरों को भी पागल बनाने की कोशिश करता। बिनू के घर में कोई अभाव नहीं था, लेकिन नौकरी चली जाने से दबदबा ख़त्म हो जाएगा, उसका रूतबा हरण हो जाएगा और वह एक सामान्य देशी आदमी बनकर रह जाएगा। ज़िंदगी भर शेरों के पीछे घूम-घूमकर उसने लोमड़ी की तरह देशी लोगों के ऊपर राज किया था। ख़ुद भी अब एक देशी आदमी बन जाएगा, सोच लेने से वह डर जाता था। उसी डर से बिनू पहाड़ पर चढ़ता था।

“बिनू, ये लोग बहुत मधुर गीत गा रहे है? ”

“बहुत ही मधुर, सर !”

“इसका अर्थ क्या है? ”

एक विद्वान की तरह अपनी पगड़ी सजाते मुँह का पान किनारे में ले जाते हुए कंध गीत का अर्थ बतलाते हुए बिनू ने कहा, “यह चैत पर्व का गीत है सर !”

“इसका अर्थ क्या है? ”

“केवल धांगडियों (जवान लड़कियों) की बात सर ! वही पुरानी बात जैसे कि तुम्हें देखकर तड़प रहा मेरा मन हे जाईफूल ! तुम कब मेरे घर आओगी, हे जाईफूल।” बिनू ने हँसते हुए कहा।

रमेश ने पूछा “क्या रोज़ाना ये लोग यही गीत गाते हैं? ”

“ हर रोज़,हाँ, सर !”

“बाइले का अर्थ जाईफूल? ”

“ठीक कह रहे हैं सर ! इस तरह से धीरे-धीरे सीखेंगे तो बहुत ज़ल्दी ही इनकी भाषा सीख जाएँगे।”

ख़ुश होकर रमेश ने पूछा, “जितना बूढ़ा होने पर भी क्या ये लोग यही गीत गाते हैं? ”

“नहीं सर, हमारे देश में कोई बूढ़ा नहीं होता है।”

रमेश मन ही मन याद करने लगा, बाइले का मतलब जाई फूल। कंध लोग केवल प्रेम के गीत गाते हैं। रमेश को सहज ही बूद्धू बनाकर बिनू भी ख़ुश हो गया।

गीत-गीत में कंध आदिवासी चपरासी और अधिकारियों को गाली देते-देते अपनी दुर्दशा का बखान करते हुए आगे बढ़ने लगे। रास्ते में हाट की ओर जाने वाले दूसरे कंध आदिवासी सामने आ जा रहे थे। गीत सुनकर ख़ूब हँसते थे और उसका मजा उठाते थे क्योंकि इसी दुख के तो वे भी समभागी थे।

गीत गुनगुनाते-गुनगुनाते जुबान लड़खड़ाने से चुप हो जाते थे आदिवासी। तब चिल्लाने लगता था बिनू, “हेले, गाना गाओ, गाना गाओ।”

हमारे देश में कोई बूढ़ा नहीं होता हैं अपनी यह बात बिनू के सामने एक नया रूप लेकर खड़ी हो गई। उसकी छोटी बीवी, पहले से दो बीवियाँ है, फिर भी एक साल पहले ही वह उसके घर में आई थी, ज़्यादा ‘कन्या-सूना’ देकर उसके माँ-बाप को ख़ुशकर दूसरे व्यक्ति के हाथ से एक तरह से छुड़ाकर ले आया है वह उस गौरी को। इस जंगल प्रदेश में छीनकर ले आना ही बहादुरी का काम है, ऐसे काम में आदमी जानवरों से आगे निकल जाता है। लेकिन बिनू की इस बहादूरी के पीछे था जीवन का एक विक्षोभ। उसके पास था आम का एक बगीचा, ज़मीन, घर गाय-गोरू सभी है। अभाव था तो औलाद का। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही थी, वैसे-वैसे बच्चे की कमी उसे खटकने लगी थी। रास्ते भर उसको गौरी की याद सता रही थी। दोनो सौतनें उसका ख़्याल रख रही होंगी या नहीं? मन नहीं मानने से इस प्रदेश में बीवी छोड़कर कहीं ओर चली जाती है। गौरी का मन दुखी तो नहीं हो रहा होगा, और वह लुच्चा -लफंगा चपरासी जिसका नाम बीसी, संबंध में खींचतान कर बिनू का पोता लगता है, खास दादी के साथ हँसी-मज़ाक़ करने के लिए आता है और प्रहर के प्रहर वहाँ बिताता है। क्या कर रहा होगा वह?

“बिनू !”

“सर !”

“अच्छा पहले चावल की यह तस्करी रोकी नहीं जाती थी ? चोरी- छुपे तेलंगाना के सीमावर्ती इलाक़े तक पार करने के लिए कहीं तो चावल को इकट्ठा कर रखना पड़ता होगा। इन हाट-बाट से क्या लेना-देना? वहीं से व्यापारी लोग ख़रीदते होंगे सारा चावल। कोरापुट से निकले हुए चार दिन बीत चुके थे, बहुत सारे गाँवों में घूम चुके थे, कई जगह देख चुके थे मगर कहीं भी तो चावल-चोरी का काम दिखाई नहीं पड़ा। बात क्या है? ”

“सर ! अगर एक साथ ज़्यादा चावल का लेन-देन होता तभी तो दिखाई पड़ता।” विरक्त होकर इस बात को कहने के बाद बिनू को पश्चाताप होने लगा। उसने ख़ुद अपनी ज़मीन से सौ मण चावल की पैदावार ज़्यादा भाव में बाहर पार की थी। बिनू इस बात पर आश्वस्त था कि जिस समाज में लोग अपने विचारों के अनुसार पैरों पर खड़े होंगे, ख़ुद के सींग से मिट्टी खोदेंगे, वहाँ दूसरों को ढकेलना, दूसरों के पैर खींचना, दूसरों के कंधों पर चढ़ना, दूसरों को धोख़ा देकर आगे बढ़ना इत्यादि सारे गुण एक उद्यमी के पास अपने आप आ जाते हैं। नहीं तो, बड़ा आदमी बनना असंभव है। जहाँ ख़ुद के लिए ख़ुद के अलावा कोई नहीं, वहाँ सबके लिए कल्याणकारी नियम को एक चतुर आदमी ही तोड़ सकता है। इस बात को बिनू उचित मानता है, लेकिन पकडे जाने का डर भी रहता है। बात को घुमाते हुए बिनू ने कहा, “सर, एक साथ ज़्यादा चावल बाहर पार करने में किसी एक आदमी का हाथ नहीं है। अगर ऐसा होता तो ज़रूर हमारे ध्यान में आता।। सर, हाट में जाएँगे तब पता चलेगा, कोई पांच सेर तो कोई दस सेर चावल ख़रीद कर ले जा रहा है।”

इस प्रकार से तलहटी में रहने वाले सैकड़ों लोग ख़रीददारी करते हैं। दो कोस की दूरी पर तेलंगाना की सीमा, वहीं पर बैठे होंगे साहूकार, बैलगाडियाँ खड़ी होंगी, चावल रखने के बोरें और पास में होगी नोटों की थैलियाँ। साहूकार के पैसों से ये आदिवासी लोग चावल ख़रीदते होंगे, जमा करते होंगे, और बोरियों से भरी जाती होंगी फिर बैलगाड़ियाँ और वहाँ से विशाखापट्टनम, पार्वतीपुरम, बोबीली, मकुआ इत्यादि जगहों पर। व्यापारियों की बात कुछ अलग होती हैं, सर !

“व्यापारियों के हाथ में पड़ने से पहले हमें उस चावल को पकडना होगा।” गंभीर मुद्रा में रमेश ने कहा।

उसकी आँखों में चमक थी शिकारी आँखों की तरह।

मन में एक ही बात- हमारे चावल वे लोग क्यों ले जाएँगे? जैसे कि यह बात उसके व्यक्तिगत अधिकार में हस्तक्षेप हो।

‘हमारा’ कहते ही उसकी समझ में एक ही बात कौंधती है - वह एक ओड़िया आदमी है, उसके पीछे ओडिशा का समृद्ध इतिहास। उस इतिहास में पडोसी राज्यों के ऊपर शासन, युद्ध विजय और साम्राज्य-विस्तार। अतीत के धूल-धुसरित टूटे-फूटे ईंटों के ढेर में से लौट आती है वर्तमान की बेबसी, मन के अरमानों को शांत करने के लिए सारा दोष पड़ोसियों के ऊपर थोप देता था।

“खा खाकर बर्बाद कर दिया पूरे राज्य को। बाक़ी क्या बचा है जो? ” जंगल के रास्ते पर शिकार खेलने की बात याद आ जाती है वह भी चावल का शिकार करने की।

“पकड़ में आ जाए तो ...” दांत भींचते हुए रमेश ने कहा। अगर पकड़ भी लेगा तो क्या कर लेगा? वह ख़ुद भी नहीं जानता है।

तेज़ी से नीचे की तरफ़ जाते समय रास्ते में माघ-महीने की गर्मी बसंत की अनुभूति करा देती थी, जिधर देखने से हरे-भरे पेड़-पौधों की शोभा। ढलान के अंत में रास्ते के किनारे तलमाल गाँव। आम का बगीचा, खेत-खलिहान, कतारबद्ध घर। वहाँ से गुज़रते समय बच्चें खड़े होकर देख रहे थे। अनजान लोगों को देखकर कुछ बच्चों ने रोना शुरु कर दिया, माँ को पुकारते-पुकारते दौड़कर चले गए। वही था संकेत, बाड़ों से सटे, खूंटों से बंधे बछड़े चौंककर रंभाने लगे। औरतें अपने आपको छुपाते हुए इधर-उधर टुकर-टुकर ताका झांकी करने लगी। एक-एक कर गाँव के लोग धीरे-धीरे नज़दीक आने लगे। रमेश को लगा, यह दृश्य उसने पहले कहीं देखा था। उसके पाँव अपने आप आगे बढ़ने लगे, छायादार पेड़ों के तले रुककर उसने पीछे देखा। एक भारी भरकम कपोल-कल्पित भूत की तरह खड़ा था पहाड़। हाँफते हुए आ रहा ता बिनू। दौडते हुए आ रहे थे पिट्टू कंध आदिवासी।

“यहाँ पीने को अच्छा पानी मिलेगा, बिनू? ”

“मिलेगा, सर !” तत्परता से पेटी खोलकर एक गिलास लेकर गाँव की तरफ़ चल पड़ा बिनू। कंध पिट्टू बैठकर पसीना पोंछने लगे। रमेश इंतज़ार करने लगा।

कुछ ही देर बाद कहीं से एक रस्सी से बुना खाट वहाँ लाया, एक आदमी लोटा भर गरम दूध लाकर सामने खड़ा हो गया, एक दूसरा आदमी ले आया पके केलों का एक गुच्छा।

तेलुगु, ओड़िया, कुंडादोरा मिलकर गाँव के सात वाशिंदे आकर विनय भाव से कहने लगे-

“धूप तेज़ पड़ रही है। कृपा कुछ देर यहाँ आराम कर लें और थोड़ा बहुत नाश्ता ले लें, नहीं तो गाँव के लोगों का मन दुखी हो जाएगा।”

“आराम !” रमेश हँसकर कहने लगा।

रास्ते भर इसी तरह के निमंत्रण। चारों तरफ़ जंगल, बीच के आदमी जैसे सहारे के लिए आदमी को ही खोजने लगता है। रुक जाओ, आराम कर लो, एक रात हमारे गाँव में। वहीं परिचित पेड़ों की छाया, आधे पुआल के छप्पर के बीच में से धीरे-धीरे ऊपर की ओर चूल्हे का उठते हुआ धुआँ, छोटे-मोटे कामों में व्यस्त आदमी और औरतें। वह स्वयं तो उन सब से अलग है, जंगल से अलग, पहाड़ के ऊपर खड़ा होकर भी पहाड़ से भिन्न।

आगे तो बढ़ना ही होगा। कुछ दूर तक पीछे छूटे गाँवों की माया लगी रहेगी, फिर उड़ जाएगी हवा में।

पानी लेकर तब तक वहाँ पहुँच गया बिनू। पानी पीने के बाद रमेश ने कहा, “चलो, चलते हैं।”

इस बार एक बुढ़िया ने उनका रास्ता रोक दिया। हँसते-हँसते उसने कहा, “ऐसे समय बिना कुछ खाए-पीए चले जाओगे बेटे, पास में यदि माँ होती तो क्या इस तरह बिना कुछ खिलाए पिलाए जाने देती? इस गाँव में तुम्हारी कोई माँ-बहिन नहीं है? ”

सब हँसने लगे। वह बुढ़िया कंध तेलगू मिश्रित कुंडा डोरा जाति की थी। इस गाँव में तुम्हारी माँ बहिन नहीं है? रमेश की आँखों के ऊपर जैसे कि एक परत जमा होने लगी।

अपने आपको चिल्लाकर कहने लगा- “नहीं, नहीं, नहीं जाना होगा बहुत काम बाक़ी है।” ख़ुद को घसीटते हुए आगे बढ़ने लगा। पीछे रह गई उस बुढ़िया की वात्सल्यमयी मूरत। सचमुच, माँ के लिए कोई जाति या भाषा नहीं होती, वह सिर्फ माँ होती है।

भूल गया था वह चावल-चोरी पकड़ने की बात, लेकिन कुछ ही दूरी पर हाट की तरफ़ जाते हुए लोगों को बोरों में चावल ले जाते उसने देखा, तब फिर उसको याद आने लगा।

“बिनू, यहाँ से कितनी दूर पड़ता है वह हाट? -

"पहुँच गए, सर, लगभग पहुँचने वाले हैं।"

"होशियार ! कोई आवाज़ नहीं निकालेगा।"

"नहीं, सर, अरे ! कंध लोगों गीत गाना बंद कर दो। कोई भी हल्ला नहीं करेगा, चुपचाप आगे बढ़ते जाओ।" हँसते हुए बिनू कंध आदिवासी लोगों की तरफ़ चला गया जैसे कि जंगल में आखेट की तलाश में जा रहा हो। बाहर तो सब चुपचाप थे, मगर उनके मन के अंदर थी भयंकर हलचल। रमेश तेज़ी से आगे वाली कारवाई के बारे में सोचने लगा। चावल-तस्कर पकड़ने से ही काम नहीं चलेगा, उसका पूरा स्थायी बंदोबस्त करके ही जाएगा रमेश। रिपोर्ट बनाएगा। प्रशंसा पाएगा। प्रशंसा पाने से उसकी पदोन्नति होगी। परीक्षा में सफलता जैसा यह भी एक पुरस्कार था। इसका सही मायने में हक़दार था रमेश, नहीं तो क्यों घूमता रहता जंगल में, धूप-सर्दी झेलते हुए कांगो-अफ्रीका में भूगर्भ-शास्त्री लिविंगस्टोन की तरह। वह गया था एक नदी का स्त्रोत खोजने के लिए, रमेश जा रहा था चावल-तस्करी के मूल का आविष्कार करने। सोचकर वह ख़ुश हो गया। अपनी दक्षता को परखकर स्वयं अभिभूत-सा हो गया।

कुछ दूर आगे रास्ते के किनारे पेड़ के नीचे एक परिवार रसोई बनाकर खाना खा रहा था। एक छोटा-सा बच्चा ज़मीन पर औंधे मुँह लेटा हुआ, हाथ-पैर छिटकाकर रो रहा था। सूखे बालों वाली एक दुबली-पतली औरत खाने की पत्तल से उठकर झूठे हाथों से छाती के ऊपर से फटे कपड़े हटाते हुए दूध पिलाने के लिए दौड़ते हुए आगे आई। माँ के स्तन सूखे कपड़ों की पोटली की तरह झूल रहे थे। बच्चे को छाती से चिपकाकर नवागंतुक की तरफ़ ताकने लगी, जैसे कि शर्म नाम की कोई चीज़ नहीं रही हो, केवल बचे थे सिर पर मुट्ठी भर शुष्क बाल और उदास-सी दो आँखें। उन उदास आँखों में बातचीत करने के लिए कोई इच्छा न थी और न ही किसी के विकास को लेकर कोई उम्मीद। दुनिया के लिए खुले बदन रहने पर भी अंतदृष्टि, काफ़ी नीचे तक, जीवन शक्ति के तल तक जहाँ आख़िरी क्षुधा मिट जाती है, अंतिम वात्सल्य वहाँ संतान को ढक लेता है। तीन और खाना खा रहे थे, बूढ़ा, बूढ़ी और उनका जवान बेटा। केवल अस्थिपंजर पर लटकती चमड़ी, भीतर की ओर धंसी आँखें और मुट्ठी भर सिर पर बाल, चमकती आँखें। सियाल पत्तों के ऊपर भात-चावल दिखी दे रहा था। भात खाने की तरह नहीं बल्कि कुत्तों की तरह ठूँस- ठूँसक रखा रहे थे। पेड़ के नीचे टूटा-फूटा सामान, पिचकी हुई डेगची, हाँडी और चूल्हा। सारा का सारा दृश्य जैसे कि एक ही बार में रमेश को काटने दौड़ रहा था।

“-बिनू, कौन है ये लोग? ”

“तलहटी में रहने वाले तेलगू लोग हैं, सर ! पेट की ख़ातिर जंगल में इधर-उधर घूमते रहते हैं।”

“घर कहाँ? ” बिनू ने पूछा।1

तीन बार पूछने के बाद खाने की पत्तलों से मुँह उठाए बिना विरक्त भाव से बूढ़े ने कहा, “सीमाचलम”

बिनू ने रमेश को समझा दिया, ये तीस कोस दूर से आए हैं, सीमा चलम से !

“पहले तो सीमाचलम ओडिशा के अंदर आता था।”

याद हो आया ओड़िशा का इतिहास, पहाड़ की तरह खड़ा हो गया सामने, मिट्टी के ढेर की तरह छोटा हो गया, झरना बनकर मिल गया उसी भूखी-प्यासी युवती की दोनों आँखों में।

बच्चे को दूध पिलाते हुए लाड़ कर रही है। उनका गाँव अब ओड़िशा में नहीं आता है, धरती पर है। उनके गाँव में आदमी है, मगर खाने को भात नहीं।

“इस तरह बहुत सारे आदमी भटकते रहते हैं, सर। न जंगल से डर है और न ही जंगली जानवरों से। इनकों सबसे ज़्यादा डर अपने पेट से हैं।”

“सही बात है, सही बात है।” कंध पिट्ठुओं में से किसी एक ने कहा।

कंध आदिवासी लोग अब रमेश के पास पहुँच चुके थे। बूढ़े कंध ने कहा- “भूख और दुख के समय में सब बराबर हो जाते हैं। देखिए, हमें भी अब भूख लगने लगी हैं। कहाँ पर मिलेगा खाना, यह पता नहीं।”

चुपचाप रमेश आगे बढ़ गया। अचानक उसे लगने लगा जैसे कि उसका सारा उद्देश्य बिगड़ने लगा हो। वह न्याय देना चाहता था, लेकिन भूल गया था न्याय की परिभाषा। वह हमेशा प्रचलित क़ानून को तवज्जो देते हुए सही मार्ग पर चलता था, सिर झुकाकर स्वीकार किया लिखित कायदों को। नियमों के ख़िलाफ़ सोचना भी उसके लिए अपराध से कम नहीं था। अभी भी ठीक वह उसी तरह से है। कभी-कभी उसने अनुभव किया,

लिखित क़ानून-क़ायदों और हकीकत में दूर-दूर तक संबंध नहीं, फिर अपने मन को सांत्वना देते हुए कि कर्तव्य पालन कितना कठोर होता है और उनका अनुसरण करना और ज़्यादा। भूख की खातिर एक आदमी ने चोरी की,एक साल के बच्चे को छाती से चिपकाए गर्भवती स्त्री कचहरी के सामने लुढक-लुढककर रोई, उसकी देख-रेख करने वाला कोई नहीं लेकिन चोर आदमी को तो सलाखों के पीछे जाना ही होगा। कोई-कोई तो पाँच-पाँच बार जेल जा चुका है, अब किसी के बगीचे से एक कद्दू चोरी करते हुए पकड़ा गया। नियमानुसार दंड में बढ़ोतरी होगी, इसलिए एक साल की क़ैद। बहुत ही कठोर है कर्तव्य की धारा और समूची पद्धति का परिपालन। लेकिन चावल तस्करों को पकड़ना होगा?

बाजार का शोरगुल सुनाई देने लगा, सड़े हुए चमड़े की दुर्गंध आने लगी। अचानक जंगल में से एक के बाद एक आदमी निकलने लगे, बोझा, भार, भार में बैठे छोटे बच्चे, उल्टे सिर से लटके हुए बड़ी तादाद में मुर्गे, बहुत प्रकार के सामान और चावलों की बोरियाँ।

कुछ देर दिखाई देने के बाद फिर जंगल से गायब हो जाते थे। नज़दीक में था शिकार। रमेश की धड़कनें बढ़ने लगी। पत्थरों पर कूदते हुए नीचे की तरफ़ जाते हुए रमेश ने कहा “बिनू, इस बार देखो क्या करता हूँ? ”

हाट दिखाई पड़ने लगा। चींटियों के झुंड की तरह आदमी। तरह-तरह के रंग, तरह-तरह की गंध, तरह-तरह की आवाज़ें। जानवरों की चमड़ी का धड़ल्ले से कारोबार हो रहा था। हवा में सडे हुए चमड़े की दुर्गंध ही दुर्गंध। कतारों में सूखी मछलियों की दुर्गंध। भिनभिनाती मक्खियाँ, भिनभिनाते आदमी। पास की झाड़ी में चोरी छुपे बेचे जा रही देशी दारु की दुर्गंध। घाव से भरे कुत्ते की तरह कुष्ठ रोगी। कंधों की रूखी पीठ पर बड़े-बड़े दाद के चकते, काले-काले बौने आदमी एक दूसरे से सटकर बैठे हुए थे। ठेलापेली करते ख़ूब सारे सुस्त बीमार आदमी और औरतें।

रमेश की नज़र पडी एक नवयुवती पर। चंपा फूल की तरह गोरी, गठीले हाथ और पाँव, वह थी कंध प्रदेश की एक सुंदर कन्या। गाल के एक तरफ़ बड़ी-सी रसौली, दूसरा गाल लाल चक-चक। वहाँ भी रोग। फिर भी बालों में उसने फूल सजा रखे थे। चने चबाते-चबाते अपनी चाल से यौवन की एक लहर खिलाती जा रही थी।

तिरछी निगाहों से देखते हुए वह आँखों से हँस रही थी, मानों कंध प्रदेश की प्यारी-सी युवती कह रही हो- आओ, मेरे साथ खेलो।

रमेश आँखें बंद करके हाट के बीचो-बीच पेड़ के तने के सहारे तनकर खडा हो गया। वह सुन रहा था हाट का शोरगुल। उसकी बंद आँखों में वही गाल वही रसौली, हँसती हुई आँखे, कंध युवती और पहाड़ के ऊपर खेलते हुए कंध बच्चे।

घने जंगल के अंदर आदमियों के झुंड, सांय-सांय करती हवा, चूल्हों की आग को बुझा नहीं पा रही थी। बेमौसमी अन्न की तरह आदमी। गाल पर व्रण-रसौली, कुष्ठ रोग वाले होठों पर हँसी और चने। बहुत ही मुश्किल से खिला था गुलाब का फूल, पर उसकी पंखुडियाँ कीड़ें लगने की वजह से विदीर्ण। भले ही पंखुडियाँ झर जाएगी, मगर हँसमुख तो हैं। बिनू फ्लास्क खोलकर एक कप में चाय निकालकर कहने लगा, ‘सर !’

रमेश ने अपनी आँखें खोली, उसके चारों तरफ़ भीड़ बढ़ती जा रही थी। कान के पास फुसफुसाकर बिनू कहने लगा, “चावल धड़ल्ले से बिक रहा है, सारे के सारे पकड़े जाएँगे, लेकिन यहाँ नहीं, हाट के उस तरफ़ एक घाटी है, हाट से निकलने के लिए एक संकरा रास्ता, किनारे में टापू की तरह एक ऊँचा स्थान है।”

उसने हँसते हुए कहना जारी रखा, “उसके ऊपर से कूद-कूदकर पकड़ लेंगे एक-एक को।”

एक तरफ़ रमेश को ले जाकर बिनू कुर्सी के ऊपर बिठाते हुए कहने लगा, “अब मैं जा रहा हूँ तथा उन्हें पकड़ने की सारी व्यवस्था करके आ रहा हूँ।”

हाट के एक तरफ़ संकरा रास्ता, दोनों तरफ़ ऊँचे दर्रे, दर्रों के ऊपर कहीं- कहीं एकाध आदमी बैठने की जगह उनमें से एक जगह पर रमेश बैठा रहा। उसके सामने एक घाटी में बसी हुई कंध बस्ती। बाहर रस्सी से बुने हुए कुछ खाट, कुछ कुत्ते। ख़ूब सारे बच्चें एक बड़े ढोल को ढम- ढम बजा रहे थे, एक घर के सामने एक बूढ़ा बैठकर उल्टी कर रहा था, उसकी पीठ पर हाथ फेर रही थी एक बूढ़ी। ज़रूर होगा मलेरिया बुखार। टूटी दीवारों के अवशेषों पर खड़ा होकर एक लड़का कुछ चीज़ चबा रहा था। उस बस्ती का दृश्य देखकर अपना समय पार कर रहा था। रुमाल लगाकर अपनी नाक से हाट की धूल को पोंछ रहा था। फिर चेहरे से पसीना पोंछने लगा। समय बढ़ता जा रहा था, माघ महीने की धूप भी बीतने लगी थी, हल्क़े मन के सामने केवल दिखाई पड़ रहा था साधारण बस्ती का चित्र और एक सरल जीवन यापन।

अचानक उस तरफ़ से सुनाई पड़ी रोने की आवाज़। हर घर से निकल पड़े लोग और दौड़ने लगे एक घर की तरफ़। ढोल बजाना बंद करके बच्चे भी दौड़ने लगे। उस घर के अंदर और सामने लोगों का जमघट। अपने गाल और छाती पीटते सभी लोग रोने लगे। धीरे-धीरे उनका रोना एक छंद बनता जा रहा था। समवेत मृत्यु का रोदन शुरु हो गया,

“अरे! अरे ! हातेयूं ! हातेयूं !”

(हाय ! हाय ! मर गया, मर गया।)

तभी बिनू आकर पहुँच गया, “सब व्यवस्था कर दी हैं, सर ! हाट में जितने सिपाही लगे हुए हैं, सभी को इस तरफ़ भगाकर ले आएँगे।”

“यह क्या हुआ, बिनू? ”

“कोई मर गया होगा, सर, मलेरिया से। इसमें क्या बड़ी बात है !”

रमेश के पीछे खड़ा हो गया बिनू।

रमेश ने उस रोने की तरफ़ ध्यान दिया। रोज़ नया, रोज़ पुराना। चक्र घूम रहा है जन्म, मृत्यु और प्रजनन का। सारा दृश्य पिघलकर बदलने लगा। आम के सामने दिखाई पड़ने लगा उत्तर बालेश्वर का अपना गाँव कांतिपुर। अपना घर, माँ-बाप, पडोस, जाने पहचाने बच्चें, बूढ़ें और लड़कियाँ। गाँव के श्मशान और गाँव के बीच का चंडी मंडप और मृत्यु, जन्म, प्रजनन। यहाँ की तरह वहाँ भी आरामप्रिय, शांतिप्रिय लोग, झगड़े-झंझट पैदा नहीं करते, बेचारे किसी की हानि नहीं करते हुए भी दुख भोगते हैं।

अरे ! अरे ! हातेयूं ! हातेयूं !

कितने गए, कितने आए। कितना सारा अंधकार। रात के अँधेरे में मशाल जलाकर गाँव वाले बुलाते हैं, “अँधेरे में आओ, उजाले में जाओ-उजाले में जाओ” और सामने में मृत्यु की समतल भूमि, वहाँ भाषा का भेद नहीं, देश की सीमा नहीं, सब बराबर और चिरन्तर।

पीछे खड़ा होकर बिनू भी अपने घर के बारे में सोच रहा था। घर में उसकी तीसरी छोटी पत्नी, क्या बीशी आ रहा होगा? तड़ाक से अपने गाल पर थप्पड़ मार दिया। रमेश ने देखा वह अपने गाल सहला रहा था। बिनू कहने लगा ”सर ! यहाँ बडे-बडे मच्छर हैं, काटते हैं तो दर्द होने लगता है।”

चौंक उठा रमेश। अपने चारों तरफ़ देखा। खटिया पर पड़े-पड़े काँप रहा था। खंजन-पक्षी की तरह निरीह आँखें, भालू की तरह काला चेहरा, शुरु होगा एक सौ तीन से, इच्छा होगी काटने की, मारने के लिए दौड़ाने को और गाली-गलौच करने को- उल्टी, बुखार, बुखार और उसके बाद...

जन्म, मृत्यु, प्रजनन, ...जन्म, मृत्यु- क़ानून कायदें सभी भूल जाते हैं। जन्म,मृत्यु आदमी।

चानक जैसे कि नई आँखों से देख रहा था रमेश। लोग जा रहे थे, ख़ूब सारे लोग। गुम हो रहे थे अँधेरे में, कभी ख़त्म ही नहीं होती उनकी कतारें। वे लोग चल रहे थे, जो रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। बंद हो रहा था हाट। चल रहे थे लोग जैसे कि हरेक को वह पहचानता हो। घर में अभाव, बाहर मुश्किलें। फिर भी चल रहे थे। होठों पर वही अज्ञात भाषा। कोई विभेद नहीं था उनकी जाति और भाषा में। उस गाँव के लोग इनके परिचित। कतारों में चलते-चलते चींटियाँ देख रही थीं सामने वाली चींटियों के चेहरे। सूखी आँखों में हँसी खिलाते हुए कह रही थीं, “तुम और हम एक बिरादरी के। पैरों से चलते हैं और हाथों से काम करते हैं। तुम्हारा हमारा एक देश में घर है भाई, इस धरती पर एक आकाश के तले, तुम्हारा शत्रु हमारा शत्रु, जो हमारे मुँह से निवाले छीन लेता है, पाँव से रौंद देताहै, हमारे ऊपर गरम राख फेंकता हैं।”

चींटियों की कतारें आगे बढ़ रही थीं, उनके मन के अंदर हँसी और आग मिलकर एक अखंडदीप जला रही थी।

बाहर हल्ला-गुल्ला हो रहा था। सिपाही आ रहे थे, उनके पीछे टोकरियाँ और बोरें पकड़े हुए कुछ लोग। पल भर में ही रमेश एक अधिकारी बन गया, खड़ा होकर सिपाहियों से सलामी ली। बिनू आगे की तरफ़ उछलते हुए कहने लगा, “झुंड के झुंड लोगों को पकड़कर ला रहे हैं।” एक सिपाही ने कहा, “यह देखिए, सर, ये लोग किस तरह चोरी-चुपके हाट से चावल लेकर भाग रहे थे निचले प्रदेश की तरफ़। ऊपर-ऊपर लाल सूखी मिर्चे, हल्दी और तंबाकू के पत्ते डाले गए हैं और नीचे रखा है चावल। इस प्रदेश का चावल ले जाएँगे और दूसरे देश में उपयोग में लाएँगे और वहाँ ऊँचे दामों में बेचेंगे। मुट्ठी भर चावल का प्रलोभन देकर लोगों का खून चूसेंगे।”

सामने में कंकालों की भीड़, लकड़ी के बंडल की तरह छाती का पिंजरा, शरीर की चमड़ी चमगादड़ की तरह झूलती हुई, कमर और पेट मानो चिपक गए हो, मुट्ठी भर सूखे बाल, छोटी-छोटी उदास आँखें। इंसान नहीं, इंसानों की प्रेतात्माए अपनी-अपनी भाषा में गुहार कर रही हो, चिल्ला रही हो, पेट और मुँह को दिखाकर अभिनय कर रही हो। लंबी लकड़ी की तरह हाथ हिला रहे हो।

उस तरफ़ की बस्ती में शायद लाश उठी होगी। धक्का-मुक्की करते कुछ लोग कभी आगे तो कभी पीछे की तरफ़ अपना सिर हिलाते हुए समवेत रोदन कर रहे हैं “अरे ! अरे ! हातेयूं ! हातेयूं !, पापू-” और दूसरी तरफ़ ऊँची- ऊँची चट्टानों के ऊपर अपना सिर पीटते हुए कुछ जीते-जागते प्रेत-

“ए बाबया, ए तंद्री ”

और सिपाहियों का गर्जन, ओड़िया भाषा में बिनू की चिल्लाहट, “ए, नाटक क्यों कर रहे हो, दिखाओ, दिखाओ, चावल दिखाओ।”

रमेश ने आँखें बंद कर ली। उसके मस्तिष्क में कई झंझावत उठ रहे थे, शरीर में पैदल चलने से पैदा हुई थकावट, पेट में भूख। आँखें बंद करते ही दिख जाती है कुछ तडपते बिलखते लोग, गालों पर रसौली, होठों पर हँसी और लटकती हुई चमड़ी, चकचक करती आँखें। वहाँ मृत्यु का रोदन, अभाव का आर्तनाद, आँखों की गुहाओं के अंदर आग और तूफ़ान। आँखें खोलते हुए रमेश ने देखा चल रहा है, रोना-धोना “ए बाबया, ए तंद्री ” (हे बाबू, हे मेरे बाप, देखो हमारी दुर्दशा) नज़र पड़ गई सामने खड़े ताड़-पेड़ की तरह एक लम्बे आदमी पर, दोनो लंबे हाथों को सिर के ऊपर उठाकर काँपता हुआ नीचे झुक गया, जैसे कि टुकड़े- टुकड़े होकर बिखर जाएगा उसी जगह पर। फटे रूखे गले से वह चिल्लाने लगा, “ए बाबया, ए तंद्री”

गिड़गिड़ाते हुए अपनी भाषा में करूणा की भीख माँगने लगा, भाषा समझ में नहीं आने पर भी उसकी भावभंगिमा को आसानी से समझा जा सकता था। नीचे ज़मीन पर सिर पीटते-पीटते अपने पाँवों की ओर हाथों को झुकाकर ऊपर ताकने लगा। उसके देखने का ढंग धीरे-धीरे पहचान में आने लगा था, जैसे कि रमेश का कोई पूर्व परिचित हो, सभी का परिचित हो, भूख से छटपटाने लगता है तो अपने भीतर से निकलकर दर्पण में से ताकने लगता है। रमेश को लगने लगा, सारे लोग जैसे कि उसके पूर्व परिचित हो उसके गाँव के लोग। शरीर की ओर उसका ध्यान नहीं जा रहा है। उसकी नज़रें तो सिर्फ उसके भावों की ओर थी, इसलिए उसे सब जाने-पहचाने लगते थे। सामने का यह आदमी जैसे कि उसकी अपनी सपना दादी हो, वैसे ही रूखे बिखरे बाल, ऐसे ही पागल की तरह जिद्दी, कंकालनुमा शरीर। रमेश ख़ुद ही क्लांत, भूखा, मृत्यु-विभीषिका के सामने भयभीत हो गया हो। वह जो बड़ी बड़ी मूछों वाला, झुकी कमर वाला बूढ़ा मानो वह हो कांतिपुर का अपंग लावारिस कुम्हार।

ये गठीले जवान कल थे रमेश के गाँव के, वे लोग उसके बगीचे के अंदर घुसकर कच्चे अमरूद चबा रहे थे, ये टूटी-फूटी नाव की तरह औरतें कल रमेश के गाँव की थीं, सवेरे-सवेरे हो हल्ला करते हुए पत्ते तोड़ने जंगल की ओर भागे जा रहे थे। रमेश आँखें घुमाते हुए सिर नीचे झुकाकर खड़ा हो गया, मुँह से सिर्फ दो शब्द निकले “भाग जाओ, चले जाओ।”

साहिब क्या कह रहा है? बिनायक चपरासी हड़बड़ाकर सोचने लगा। क्या सचमुच इनको चावल के साथ चले जाने को कह रहा है? आतुरता से कहने लगा, “ये क्या कह रहे हैं, सर? ”

रमेश का वह एक ही उत्तर, “छोड दो, समय हो रहा है, जाओ ज़ल्दी भाग जाओ।”

दुनियादारी का ठीक से अनुभव नहीं, कोमल-मन जवान लड़का नई-नई उगती मूँछें शेखचिल्लीकी तरह दिखने वाला यह आदमी अधिकारी नहीं हो सकता। अधिकारी का मतलब शेर-दिल आदमी, धत यह तो... बिनायक ओड़िया आदमी है, अपनी अनुभूति और इतिहास के पन्नें पलटने लगा। इस तरह के बहुत लोगों को देखा हैं अपने जीवन में। तिरछे के तिरछे रह गए उसके होंठ, न वह मुस्कराहट थी और न ही कोई विद्रूपता।

रमेश खड़ा था। उसके अवचेतन मन में न कोई इतिहास था और न कोई चक्रवर्ती राजा कपिलेन्द्र देव, न राजा पुरुषोत्तम देव, न कोणार्क, देश और जाति के अस्थि-पंजर से बने लोगों का कोई विशिष्ट रूप नहीं तो इतिहास का अर्थ क्या मायने रखता है। कुछ नहीं, चारों तरफ़ चीटियाँ ही चींटियाँ, भूखी चीटियाँ जीने के लिए निवाला ढोते हुए जा रही हैं, कतारों से निकलकर चीटियाँ इकट्ठी हो रही हैं एक नूतन अभियान के लिए- वे ज़िंदा रहना चाहती है।

ठंड लगने लगी, धूप ख़त्म हो गई, चारों तरफ़ कोहरा ही कोहरा, माघ महीने की कडाके की शीत को वह अनुभव करने लगा।

(अनुवाद : दिनेश कुमार माली)

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