चीलों का लोकतंत्र (व्यंग्य रचना) : डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’

Cheelon Ka Loktantra (Hindi Satire) : Dr. Mukesh Garg Aseemit

शहर में चीलों की संख्या अब बढ़ गई है। जहाँ देखो वहाँ चीलों की चहल-पहल नजर आती हैं। कौवे तो जैसे गायब ही हो गए हैं। बड़ी परेशानी हो रही है। तीये की बैठक में घंटों बैठे रहते हैं। एक कौवा नहीं फटकता । लोग कोसते रहेते है ‘पापी है भाई, इसकी तो कौवे भी खीर नहीं खा रहे है ।‘अब इन्हें कौन समझाए भाई तुम्हारी भी खीर खाने के लिए कौवे अब नहीं आयेंगे ! पहले कौवे की कांव कांव से घर ,द्वार और मुंडेर गुंजायमान रहती थी । मुंडेर भी तो रही नहीं न, बहुमंजिली इमारतें बन गयी है । मुंडेर खाली नहीं है । कौंवो को बैठने के लिए जगह ही नहीं है ! विरहनी को भी अब कौवे के संदेश का कोई इंतज़ार नहीं है । कौवे की चोंच भी सोने से मुंडाई नहीं जा रही ,दाल भात नहीं खिलाया जा रहा है ! कौवे इक्के दुक्के दिख भी जाएँ तो उन्हें भगाया जा रहा है , उन्हें मुंडेर पर बैठने ही नहीं दे रहे हैं ! चीलों की तादाद एकदम बढ़ गयी, उन्हें कोई भगाने की हिम्मत नही कर सकता । आम आदमी की फितरत वैसे भी राशन का सडा गेहूं खाकर,चूहे जैसी हो गयी है । चुनावी राजनीति के बिछाए जाल में फंसी मछलियों की तरह । चील का खाना यही तो है ।चूहे और मछली भरपूर मिल रहे हैं तो जाहिर है चीलों की की तादाद तो बढ़ेगी ही ! चीलें तो कोई संदेश लेकर भी नहीं आती। चुचाप आती है,दबे पाँव ।चील बिना बुलाए ही आती है । उन्हें खीर भी नहीं चाहिए। खीर... ! भला ये भी कोई खाना है । चील को वो खाना पसंद है ,जिसे नोंचा जा सके, चबाया जा सके, जिस पर दरिन्दगी दिखा सकें । इतने सारे चूहे हैं,जाल में तड़पती मछलियाँ है तो खीर का क्या खाना। मुंडेरों पर तनी इमारतों पर चील बैठी हैं, खिड़कियों दरवाजों पर, घर के अंदर बाहर ,ऑफिस हर जगह । बस मौका मिला नहीं की झपट्टा मारने के लिए तैयार । आकाश में मंडराती रहती हैं। आपदाएं भी तो अवसर बनकर आती है । बारिश खूब आ गयी , तो पीछे पीछे बाढ़ भी आ गई है , लो चील फिर मंडराने लगी है। बारिश आई है शहर में तालाब बन गया है, अवसरवादियों ने मछली के बीज डाल दिए है ,जाल भी डाल दिए है । खूब खाने को मिलेगा । चील का स्वर्णिम युग तो अब आया है।

कौवे ऊँचा उड़ना नहीं जानते । काले कलूटे ,न कोई डील न कोई डौल ,बस कांव कांव कर माथा खाते रहते हैं । दूध ,भात ,खीर के दीवाने । दो वक्त की रोटी नून और तेल का तो जुगाड़ है नहीं ,इन्हें खिलाओ खीर । अब पिया भी विदेश गया तो गया, इंतज़ार किसे है भाई । अब पहले जैसी विरहनी नहीं रही , अब तो विरहनीयों को विदेश जाने का इंतज़ार रहता है । अधूरी प्रेम कहानियाँ पति के विदेश जाने पर ही हैप्पी एंडिंग लेती है । कौवा नखरे करने लग गया ,नखरे किसी को पसंद नहीं । चीलें हैं उन्हें देखो कोई इनविटेशन की जरूरत नहीं, बस मौकें की तलाश में है । आपकी हर आपदा में आपके पास चली आएंगी । बाढ़ ,सूखा ,रेल एक्सीडेंट ,लैंड स्लाइड ,रोड एक्सीडेंट्स या अस्पताल कहीं भी जहाँ मौत का तमाशा हो ,चीलें तैयार बैठी हैं । नेताजी ने चुनाव नजदीक आते ही चीलों के झुंड के झुंड छोड़ दिए है । सरकारी, अर्धसरकारी, गैर सरकारी सभी महकमे में चीलें ही बैठने लगी है ।सब जगह बस नोंचने खाने को तैयार । नीचे मछलिया है वो वो तैर रही है ,बाहर निकल नहीं सकती, बाहर निकलेंगी तो मर जायेंगी । मछलियों का दायरा फिक्स है , घर से ऑफिस और ऑफिस से घर का दायरा है । तैरते रहो ,अपनी खैर मनाते रहो ,आखिर बचोगे कैसे ।बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी ।

देशी चीलें तो मंडरा ही रही है अब तो विदेश से भी इम्पोर्टेड चीलें आ रही है ।नयी नयी प्रजातियों की चील बाजार में मंडरा रही है ,इसे नया नाम दिया है ‘आर्थिक उदारीकरण ‘। विदेशी नीति पर तालियाँ बज रही है ।वसुधैव कुटुम्बकम की आड़ में पड़ोस की चीलें भी घुस आयी है । इन्हें विशेष संरक्षण दिया जा रहा है । देशवासीयों को बताया जा रहा है इनके भरण पोषण की जिम्मेदारी भी तुम्हारी है ,आखिर खुद का ही पेट भरना,ये तो मानवता की निशानी नहीं है ।

लगता है जल्दी ही चील को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर देंगे । मोर ढंग से उड़ नहीं सकता । टाँगे कमजोर , पंख इतने भारी । बिलकुल बुद्धीजीवी सा लगता है । बुद्धीजीवी की खासियत है उसकी टाँगे कमजोर और पंख भारी होते है । बुद्धीजीवी के पंख इतने भारी की वो उड़ नहीं सकता , सिर्फ अपने पंख फैला सकता है ,दिखा सकता है कि ‘देखो मेरे पंख, तालिया बजाओ’। लेकिन जब चील झपट्टा मारता है तो इन भारी पंखों से उड़ नहीं सकता । धरी रह जायेगी सारी बुद्धिमता । अब चीलों को उड़ना भी आता है, झपट्टा मारना भी ,वो बुद्धीजीवी जैसे भारी पंखों पर विशवास नहीं करते ।उसका काम है बस झपट्टा मारना । जहा मौका मिले ,जब मौका मिले । उसे न सावन का इंतज़ार, न मेघा का इंतज़ार । सूखा पड़े या बाढ़ आये , उसके लिए तो उसका भोजन मिलेगा ,हर हाल में मिलेगा , क्यूंकि उसे झपट्टा मारना आता है।

चीलों की फौज शहर में, विभिन्न क्षदम भेषों में, टूट पड़ने को तैयार ।सत्संगो , पंडालों में .रैलियों में .भीड़ में .रेलवे स्टेशन, पुल, सड़क, अस्पताल सब जगह चीलों का अम्बार । आम आदमी चूहा और मछली के रूप में इनके भोजन के लिए तैयार। लोकतंत्र में चीलों का ये तांडव चल रहा है। आपदा में अवसर ढूंढने वाले, कमीशन खोर, नेता, अफसर, घोटाले बाजों का यह गठजोड़ । राजनीति के इस चौराहे पर चीलों के इस रूप में नेता और अफसर नजर आते हैं, जिनके लिए जनता की समस्याएँ महज एक मौका हैं, अपनी जेबें भरने का। उनकी भूख अटूट है, और उनके द्वारा खाया जा रहा है लोकतंत्र का बोझ ये अदना सा चूहा और मछली जैसा जीव ।

जहां चुनाव के समय नेता वादों की बारिश करते हैं, वहाँ उनके झूठ की बाढ़ भी आती है। चीलों के लिए तो जैसे भूख मिटने के लिए ही आती है त्रासदी । जनता की दुर्दशा पर वे मंडराते हैं, उसकी आस्था और विश्वास को तार-तार करते हैं। यही नहीं, विश्वासघात की इस उड़ान में वे अपने आश्वासन के पंख दिखाकार लोकतंत्र की हवा में उड़ने का ढोंग करते हैं, पर उनकी नियत हमेशा साफ दिखाई देती है।

यह चीलों का लोकतंत्र है, जहां नेता और अफसर अपने स्वार्थ के लिए आम जनता को चूहा और मछली समझ कर उनका उपयोग करते हैं। ये वही चीलें हैं जो अवसर की राह देखती हैं, और जब भी मौका मिलता है, वे बिना किसी शर्म के उसे अपने लाभ के लिए उडती चली आती हैं।

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