चील की बेटी : असमिया लोक-कथा

Cheel Ki Beti : Lok-Katha (Assam)

बहुत पुरानी बात है। एक राज्य में एक धनवान कुम्हार रहता था। उसके पास ढेर सारी संपत्ति थी पर उनकी देखभाल करने के लिए एक भी बेटा नहीं था। उसकी पत्नी बार-बार बेटी को जन्म देती थी, जिससे वह तंग आ चुका था। उस जमाने में बेटे और बेटी में फर्क किया जाता था। परिवार में बेटों की अहमियत ज्यादा थी। इस बार भी कुम्हार की पत्नी माँ बनने वाली थी। बच्चे के जन्म का समय करीब आने पर पत्नी जब रिवाज के अनुसार मायके जाने लगी तो पति ने कहा- “इस बार भी अगर बेटी लेकर आई, तो मैं तुझे मुडई (व्यापारी) को बेच दूंगा।”

पति की बात सुनकर पत्नी डर गई। भाग्य के फेर देखो, इस बार भी एक सुंदर कन्या का ही जन्म हुआ। लड़की देखकर कुम्हारिन के हाथ-पाँव फूल गए। किसी को कछ खबर होने से पहले ही उसने दिल पर पत्थर रखकर उस नवजात शिशु को एक बर्तन में डालकर ढक्कन लगा दिया और नदी में बहा दिया। बर्तन पानी के लहरों में हिलोरे खाता हुआ बह चला।

एक धोबी नदी में कपड़े धो रहा था। उसने पानी की मजधार में बहकर आते हुए एक बर्तन को देखा। धोबी तैरता हुआ बर्तन के पास गया। अंदर देखने की उत्सुकता से उसने बर्तन का ढक्कन खोल दिया। अंदर सोई एक नवजात बच्ची को देखकर उसकी आँखें खुली की खुली रह गई। वह जब बर्तन को हाथ से घसीटते हुए नदी के किनारे की ओर लौट रहा था, अचानक आसमान में उड़ती मादा चील उस पर झपटी और बच्ची को झट से उठाकर उड़ चली। धोबी देखता रह गया। चील बच्ची को पीपल के पेड़ के ऊपर बने अपने घोंसले पर ले गई। उस सुंदर छोटी बच्ची को देखकर चील की ममता जाग उठी। वह उसे खा न सकी। उसने उसे अपनी बेटी की तरह पाल-पोस कर बड़ी करने का निश्चय किया। अब रोज जहाँ भी अच्छी खाने की चीज देखती है, चील उसे झपटकर ले आती है और बेटी को खिलाती है।

चील की बेटी धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। किसी के घर में जब लोग अच्छे कपड़े धोकर धूप में सूखने के लिए बाहर डाल देते, चील उसे उठाकर ले आती और बेटी को पहनाती। एक दिन राजा की बेटी जब नदी में नहाने गई तो उसने अपने गहने उतारकर किनारे पर रख दिए। चील मौका देखकर उन्हें भी उठा लाई और बेटी को पहनने के लिए दे दिया। इस तरह कंघी, सिंदूर, आईना, सुगंधित तेल का डिब्बा, आदि लड़की के सामान जहाँ मिलते, वह उठाकर ले आती और अपनी बेटी को देती।

धीरे-धीरे पीपल के पेड़ पर ही चील की बेटी बड़ी होने लगी और एक खूबसूरत युवती बन गई। चील को उसकी चिंता होने लगी।

चील ने एक दिन अपनी बेटी से कहा- “तू अब बड़ी हो गई है। मैं तुझे छोड़कर रोज दूर चली जाती हूँ। तुझे कोई नुकसान पहुँचाए, यह चिंता मुझे खाए जाती है। मुझे हर पल डर लगा रहता है। अब से अगर कोई मुसीबत आए या तुझे डर लगे तो यह गीत गाना, मैं झट तुम्हारे पास उड़कर आ जाऊँगी।”

“आहतर पात लरे कि सरे, चिलनी आई मोर आगते परे।।”

(अर्थ-पीपल के पत्ते हिले और डोले, मेरी चील मैया मेरे आगे आ जाए।)

एक दिन एक सौदागर उसी रास्ते से जा रहा था। गर्मी से राहत पाने के लिए वह उस पीपल की छाँव में बैठ गया। अचानक एक लंबा बाल उसके हाथ में आ गिरा। उसने चारों ओर नजर फेरकर ऊपर देखा तो चील की संदरी बेटी दिख गई। वह उस समय कंघी कर रही थी। उसने कभी किसी इंसान को नहीं देखा था। जब सौदागर ने उसे सवाल पूछना शुरू कर दिया कि ‘तुम कौन हो, अप्सरा या पिशाचिनी हो, जो पेड़ के ऊपर रहती हो, इंसान हो तो पेड़ पर चढ़ी क्यों हो’…? उसकी बात सुनकर वह डर गई गाना गाकर चील माँ को बुलाने लगी। बेटी की आवाज सुनते ही चील उसी वक्त वहाँ पहुँची और बेटी को बड़े प्यार से बुलाने का कारण पूछा। बेटी ने बिना कुछ कहे नीचे खड़े आदमी की ओर इशारा किया। चील माँ ने उस जवान एवं सुंदर आदमी को देखकर सोचा कि अगर इसके साथ मेरी बेटी की शादी हो जाए तो मेरी चिंता दूर हो जाएगी। वह नीचे उड़कर सौदागर के पास आई और उसे अपनी बेटी के बारे में सब कुछ बता दिया।

सौदागर ने कहा- “मैं एक रईस हूँ पर मेरी पहले से ही सात पत्नियाँ हैं। अगर तुम्हें इस बात से कोई आपत्ति नहीं है तो मैं तुम्हारी सुंदर बेटी से शादी करने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि उसे बड़े सुख एवं प्यार से रखूगा और कभी कोई कष्ट नहीं दूंगा।”

चील माँ कुछ देर के लिए सोचती रही फिर अपनी बेटी को समझा-बुझाकर पेड़ के नीचे नीचे ले आई। उसने अपनी बेटी का हाथ सौदागर के हाथों में सौंप दिया। उसने माँ से बिछड़ने के गम में रोती-बिलखती हुई बेटी से कहा- “जब भी तुझे मेरी जरूरत होगी, वह गाना गाकर मुझे बुलाना, मैं उसी वक्त हाजिर हो जाऊँगी।”

सौदागर चील की सुंदर बेटी को घर ले गया और बहुत ही प्यार-जतन से उसके साथ जीवन बिताने लगे। यह बात उनकी पहली पत्नियों को सहन नहीं हुई और वे चील की बेटी से ईर्ष्या करने लगीं। वे छल-कपट से उसे कष्ट पहुँचाने लगीं। एक दिन सातों पत्नियों ने आकर उसे सबके लिए भात (खाना, खासकर चावल) बनाने को कहा। चील की बेटी की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। खाना बनाना तो दूर, उसने आज तक किसी को भात बनाते हुए भी नहीं देखा था। उसे कुछ नहीं सूझा। रोती बिलखती वह घर के पीछे लगे केले के पौधों के बीच छिपकर चील माँ को बुलाने लगी। झट से चील उसके आगे हाजिर हो गई और बड़े प्यार से बुलाने का कारण पूछा।

बेटी ने कहा- “माँ, मेरी सात सौतों ने मिलकर मुझे अकेले ही सबके लिए भात बनाने को कहा है लेकिन मुझे तो कुछ नहीं मालूम। अगर मैंने नहीं बनाया तो वे मेरे पति के आगे मेरी चगली करके मझे नकसान पहँचाएँगी।”

चील माँ ने कहा- “बेटी, तू मत डरना। मैं जैसा बताती हूँ, तू वैसे ही करती जा। एक बर्तन में पानी डालकर उसमें एक चावल डाल देना। दूसरे बर्तन में भी पानी डालकर एक साग (पत्तेदार सब्जी) का पत्ता डाल देना। दोनों बर्तनों पर ढक्कन लगाकर नीचे एक-एक लकड़ी देकर तू घर से बाहर आकर बैठी रहना। देखना, दोनों बर्तनों में अक्षय भात और सब्जी तैयार मिलेगी।” ऐसा कहकर चील उड़ गई। बेटी ने ठीक वैसा ही किया। रसोई तैयार होने के बाद उसने अपनी सौतों को भात खाने बुलाया। सात सौतों ने अपनी-अपनी थालियों के नीचे एक छेद करके रखा था। जैसे ही वह भात और अंजा (सब्जियों का रस) परोसती, छेद से सारा रस बह जाता। दुबारा कहतीं- “भात खत्म हो गया है, और लाओ।” अक्षय बर्तन से खाना परोसने के कारण खत्म नहीं हो रहा था। अंत में सातों सौत हारकर शर्म से उठकर चली गई।

एक दिन सातों सौतों ने मिलकर चील की बेटी को गोहाली (गायों को रखने का घर) साफ करने को कहा। उसे कहाँ साफ-सफाई की आदत थी! उसने तो कभी कुछ नहीं किया। वह गोहाली में गायों के बीच जाकर रोती हुई चील माँ को बुलाने लगी। चील माँ रोज की तरह झट से बेटी के पास पहुँची और बड़े प्यार से बुलाने का कारण पूछा। बेटी ने अपनी परेशानी बताई।

चील माँ बोली- “तू झाडू की एक काठी लेकर गोहाली के इस छोर से दूसरी छोर तक फेरती जा। देखना, पूरा गोहाली साफ हो उठेगा।”- कहकर चील माँ उड़ चली। माँ के कहे अनुसार बेटी ने काम किया और देखा कि गोहाली एकदम चमक उठा है। सौदागर चील की बेटी के काम-काज को देखकर और प्रसन्न हुआ और ज्यादा प्यार करने लगा।

इस तरह दिन बीतने लगे। हर साल की तरह बोहाग बिहु आ गया। सौदागर ने अपनी पत्नियों को कपास देकर कहा- “बिहु में पहनने के लिए सुला (कमीज), सुरिया (धोती), कपड़े और गामुसा (गमछा) बना देना। कौन कितना सुंदर कपड़े बुन सकती है, मैं देखना चाहता हूँ।”

सातों पत्नियाँ कपास को धोकर, धुनकर, सूत निकालकर ताँत में कपड़े बुनने लगीं मगर चील की बेटी को यह सब कुछ नहीं आता था। वह रोनी सूरत लिए कपास हाथ में लिए बैठी रही। सात सौतों ने सोचा- “इस बार यह बुरी तरह फँसी। कपड़ा न दे पाने पर सौदागर इसे क्या करेगा, पता नहीं।” और मन ही मन खुश होने लगी। उधर बिहु के दिन करीब आने लगे। चील की बेटी घर के पीछे केले के बगीचे में छिपकर माँ को बुलाने लगी। इस बार भी चील माँ ने उपाय दिया। कहा- “तू चिंता मत कर। जब तक मैं जीवित हूँ, तुझे कुछ नहीं होने दूंगी। तू चार बाँस के चूंगे (लंबे टुकड़े) ले आ और सबमें थोड़े कपास भरकर उनका मुँह बंद कर देना। बिहु के दिन जब तेरा पति तुझसे कपड़ा माँगेगा, तब उन्हें ये चुंगे दे देना।” कहकर चील माँ उड़ चली।

चील की बेटी ने कपास को हाथ तक न लगाया। यह देखकर सौतों को बड़ा मजा आया।

बिहु के दिन पति के पैरों को छूकर प्रणाम करके एक-एक कर सातों पत्नियों ने उन्हें सुंदर कपड़े दिए और बदले में पति का प्रेम और आशीर्वाद पाया। चील की बेटी ने चार चुंगे उनके हाथ में थमा दिए। कपड़ों के बदले चुंगे को देखकर सातों पत्नियाँ ठहाके मारकर हँसने लगीं। सौदागर को भी गुस्सा आया। कहने लगा- “ये सब क्या हैं? तेरे बुने हुए कपड़े कहाँ हैं?”उसने छोटी पत्नी को फटकार लगाई। चील की बेटी ने विनम्रता से कहा”इन्हें खोलकर देखिए।”

जैसे ही सौदागर ने बाँस के चूँगों का ढक्कन खोला, एक से बढ़कर एक सुंदर कपड़े निकल आए। महीन बुनाई देखकर वह अपनी छोटी पत्नी पर और ज्यादा मोहित हो गया। उसने वही कपड़े पहने और बिहु का उत्सव धूमधाम से मनाया। धीरे-धीरे सात पत्नियों को पता चला कि एक मादा चील आकर उसे सब कुछ सिखा जाती हैं। उन लोगों ने चुपके से वह गाना भी सीख लिया और एक दिन धोखे से चील को बुलाकर डंडे से पीट-पीट कर उसे मार डाला। चील की बेटी को इसकी कोई खबर नहीं हुई। अब जब भी वह चील माँ को बुलाती, वह नहीं आती थी। ऐसा कई बार होने पर उसने समझ लिया कि उसकी सौतों ने मिलकर चील माँ को मार डाला। वह कमरे में बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी। चील माँ वापस नहीं आई।

एक बार सौदागर व्यापार करने नाव लेकर निकला। जाते समय बार-बार अपनी सातों पत्नियों को चील की बेटी का खयाल रखने की हिदायत दी। पति के सामने तो वे अच्छी बनने का नाटक कर रही थीं पर उनके जाते ही चील की बेटी को घर से निकालने की योजना बनाने लगीं। सातों मिलकर भोली-भाली चील की बेटी को एक व्यापारी के हाथों बेच दिया। उसे बहला-फुसलाकर आईना, कंघी, सिंदूर आदि खरीदने के बहाने व्यापारी के नाव में बिठा दिया और योजना के अनुसार व्यापारी भी सुंदर लड़की पाकर नाव लेकर चला गया। नदी किनारे अपने घर ले जाकर व्यापारी ने उसे सूखी मछली की रखवाली करने को कहा। एकदिन मछली के पास बैठी चील की दुखी बेटी अपनी चील माँ को याद करती हुई गाने लगी-

“कुमारणी आए मुक उतुवाई दिले, सिलनी आए मुक दांगी धरिले।
साउदर कवरे मक बिया कराले. सात सतीनिए मक मोडइट बेसिले,
मुडइए मुक शुकान माच रखिया पातिले।।”

(अर्थ- कुम्हारिन माँ ने बहा दी, चील माँ ने उठा लिया। सौदागर कुँवर ने शादी कर ली, सातों सौत ने व्यापारी को बेचा, व्यापारी ने सूखी मछली की रखवाली करने को कहा।)

नाव में सामान भरकर सौदागर उसी नदी के रास्ते से घर वापस आ रहा था। उसने अपनी छोटी पत्नी की आवाज पहचान ली और तुरंत नाव लेकर उसके पास गया। उसकी आपबीती सुनकर उसे बहुत दुख हुआ और उसे अच्छी तरह नहलाकर नया रिहा, मेखला-चादर (असमीया महिला की वेशभूषा) पहनाया। उसने एक बड़े लकड़ी के बक्से में साँस लेने हेतु दो छेद किया। उसके अंदर चील की बच्ची को रखकर घर ले आया। सातों पत्नियाँ पति को नाव में ढेर सारा सामान लाते देखकर फूली न समाई और उनके स्वागत के लिए सज-धजकर बाहर आ गई। सौदागर ने पूछा- “मेरी छोटी पत्नी, चील की बेटी नहीं दिख रही हैं। वह कहाँ है?”

उन्होंने जवाब दिया- “वह अपनी मायके गई है।”

सौदागर ने कहा- “मेरा मन कह रहा है कि तुम लोगों ने उसके साथ जरूर कुछ बुरा किया है। कौन सच कह रहा है और कौन झूठ, अभी पता चल जाएगा।”

सौदागर ने घर के पीछे एक लंबी गर्त खुदवाई और उस पर नुकीली लकड़ी, काँटे आदि डाल दिए। उसके एक छोर से दूसरी छोर तक पतली एड़ी सूत (असम की विशेष प्रकार की पतली मगर मजबूत सूत) बाँधकर सातों पत्नियों को उस पर चलने का आदेश देते हुए कहा- “जो भी इस एड़ी सूत पर चलकर गर्त को पार करेगी, वही निर्दोष साबित होगी।” एक-एक कर सौदागर की छह पत्नियाँ उस गर्त पर गिरकर परलोक सिधार गईं। सातवीं पत्नी सच में निर्दोष थी। इसलिए वह सूत पर से चलती हुई गर्त के पार जा पाई। जिस वक्त सौदागर की छह पत्नियाँ चील की बेटी को बेच रही थीं, उस वक्त वह पाकघर (रसोई घर) में भात बना रही थी। उसे इस षडयंत्र के बारे में कुछ मालूम न पड़ा।

सौदागर ने लकड़ी के बक्से से चील की बेटी को बाहर निकाला और दोनों पत्नियों के साथ सुखी जीवन बिताने लगा। उन छह पत्नियों को उनकी करनी की सजा मिल गई।

(साभार : डॉ. गोमा देवी शर्मा)

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