चीड़ के फलों की टोकरी (रूसी कहानी) : कोंस्तांतीन पाउस्तोव्स्की

Cheedh Ke Phalon Ki Tokri (Russian Story in Hindi) : Konstantin Paustovsky

उस शरद्काल में स्वरकार एडवर्ड ग्रीग बरगेन के समीप के वन-प्रदेश में रह रहा था। यों तो सभी वे वन जो पत्तों की सरसराहट और कुकुरमुत्तों की तीव्र गंध से भरपूर हों, मनमोहक और सुखद होते हैं, पर विशेष रूप से वे जो समुद्र तट और पहाड़ के दामन के संगम पर स्थित हों। इन वनों का संगीत लहरों के गीत के साथ मिलकर गूँजता है। इनके वृक्ष समुद्री धुन्ध की चादर ओढ़ते हैं। नम हवा में पनपने और दाढ़ी की भाँति शाखाओं से भूमि की ओर लटकनेवाली काई इन वृक्षों का श्रृंगार करती है। इन जंगलों में ही हम मन खुश करनेवाली प्रतिध्वनि सुन पाते हैं जो मिमस पक्षी की तरह किसी भी आवाज़ की नकश्ल करने और उसे पहाड़ी चोटियों के ऊपर से दूर तक पहुँचाने को उत्सुक रहती हैं।

ऐसे ही जंगल में एक छोटी-सी दो चोटियों वाली लड़की से ग्रीग की भेंट हुई। वह वनरक्षक की बेटी थी। उसके हाथ में एक टोकरी थी। वह चीड़ के फल बीन रही थी।

शरद् ऋतु का आरम्भ हो चुका था। यदि कोई दुनिया भर के सोने और ताँबे को इकट्ठा कर, उन्हें कूट-कूटकर अनगिनत सुन्दर पत्तों के रूप में बदल दे तो भी वे पहाड़ों के शरद्कालीन सौन्दर्य का बस अंशमात्र ही बन सकेंगे। चाहे उनपर कितनी ही नाजुक और बारीक कारीगरी की गयी हो, प्रकृति की रचना के सम्मुख वे कला-विहीन ही दिखायी देंगे, विशेषकर चलपूर्ण के उन पत्तों के सामने, जो पक्षी विशेष की चहक के उत्तर में सिहर उठते हैं।

‘‘नन्हीं गुड़िया, तुम्हारा क्या नाम है?’’ ग्रीग ने पूछा।

‘‘दाग्नी पीडरसेन,’’ लड़की ने दबी-दबी आवाज़ में जवाब दिया। आवाज़ में भय कम और संकोच अधिक था। फिर वह डरती भी तो क्यों? ग्रीग की आँखों में खुशी की चमक साफ़ दिखायी दे रही थी।

‘‘मुझे बहुत शर्म आ रही है कि तुम्हें देने को मेरे पास कोई छोटा-सा उपहार भी नहीं’’ ग्रीग ने कहा। ‘‘कोई रिब्बन, कोई गुड़िया, यहाँ तक कि मखमल का खरगोश तक नहीं।’’

‘‘मेरे पास घर पर एक पुरानी गुड़िया है,’’ लड़की ने उसे बताया। ‘‘वह मेरी माँ की होती थी। उसकी आँखें कभी तो ऐसे मुँदी हुई थी’’-और लड़की ने धीरे से अपनी आँखें मूँद लीं। जब उसने आँखें खोलीं तो ग्रीग ने देखा कि उसकी आँखें हरी-हरी हैं और उनमें जंगली पत्तों के सुनहरे रंग का पुट है।

‘‘अब वह अपनी आँखें खोलकर सोती है,’’ लड़की उदास मन से कहती गयी।

‘‘बूढ़े कभी अच्छी तरह से नहीं सोते। मेरे दादा को ही ले लीजिये, वे रात भर कराहते और बड़बड़ाते रहते हैं।’’

‘‘तुम्हें मालूम है दाग्नी,’’ ग्रीग ने कहा, ‘‘मुझे एक बात सूझी है। मैं तुम्हें एक बहुत बढ़िया उपहार दूँगा, अभी नहीं, दस बरस तक।’’

‘‘ओह, यह बहुत लम्बा अरसा है,’’ दाग्नी ने निराशा से अपने हाथ मलते हुए कहा।

‘‘हाँ, किन्तु मुझे अभी उसे बनाना है।’’

‘‘वह क्या उपहार होगा?’’

‘‘समय आने पर तुम स्वयं ही जान जाओगी।’’

‘‘क्या उसे बनाने में दस बरस ही लगेंगे? क्या आप अपने जीवन में केवल पाँच या दस छः ही खिलौने बना सकते हैं?’’ दाग्नी ने कुछ नाराज होते हुए पूछा।

ग्रीग सोच में पड़ गया।

‘‘ऐसी बात नहीं,’’ उसने अनिश्चित-सा उत्तर दिया। ‘‘हो सकता है उसे बनाने में केवल कुछ दिन ही लगें। किन्तु यह छोटे बच्चों को देने की वस्तु नहीं। मेरे उपहार केवल बालिगों के लिए होते हैं।’’

दाग्नी ने उसकी कोहनी को छुआ और अनुनय करते हुए कहा:

‘‘मैं उसे तोड़ूँगी नहीं, विश्वास कीजिये। दादा के पास शीशे की बनी एक नाव है। मैं उसे साफ़ करती हूँ और आज तक मैंने उसका कोई छोटा-सा भाग भी नहीं तोड़ा।’’

‘‘निश्चित ही दाग्नी ने मुझे निरुत्तर कर दिया है।’’ और यह सोचकर ग्रीग ने ऐसे मौकों पर बुजुर्गों द्वारा प्रयोग में लाए जानेवाले साधारण नुस्खे से काम लिया:

‘‘तुम अभी बहुत छोटी हो और इसलिए बहुत-सी बातें अभी तुम्हारी समझ के परे की हैं। सब्र करना सीखो। और अब तुम यह अपनी टोकरी मुझे उठा लेने दो। यह तुम्हारे लिए बहुत भारी है। मैं घर तक छोड़ आऊँगा और रास्ते में हम अन्य किसी विषय पर बातचीत करेंगे।’’

दाग्नी ने आह भरी और टोकरी ग्रीग को दे दी। वह वास्तव में ही भारी थी क्योंकि चीड़ के राल-भरे फल साधारण देवदार के फल से कहीं अधिक भारी होते हैं। जब वृक्षों के पीछे वनरक्षक की झोंपड़ी दिखायी देने लगी तो ग्रीग ने कहा:

‘‘अच्छा, तो दाग्नी, बाकी रास्ता तुम स्वयं तय कर लो। हाँ, पर नार्वे में दाग्नी पीडरसेन के नामवाली अनेक नन्ही लड़कियाँ हैं। तुम्हारे पिता का प्रारम्भिक नाम क्या है?’’

‘‘हगेरूप,’’ दाग्नी ने जवाब दिया। ‘‘आप भीतर क्यों नहीं चलते?’’ माथे पर बल डालकर उसने पूछा। ‘‘हमारे घर में एक कढ़ा हुआ मेजपोश है, लाल बिल्ली है, और शीशे की नाव है। दादा उसे आपको हाथ में उठा लेने देंगे।’’

‘‘धन्यवाद, मैं इस समय तुम्हारे साथ नहीं चल सकता। अच्छा नमस्कार दाग्नी।’’

ग्रीग ने नन्ही लड़की के सिर को प्यार से थपथपाया और समुद्र की ओर चल दिया। दाग्नी सिकुड़ी हुई भौंहों के नीचे संजीदा आँखों से उसे देर तक खड़ी देखती रही। उसकी बाँह में टोकरी टेढ़ी लटकी हुई थी और इसलिए चीड़ के कुछ फल नीचे गिर गये।

‘‘हाँ,’’ ग्रीग ने सोचा, ‘‘मैं इसके लिए कुछ विशेष स्वररचना करूँगा और आवरण पृष्ठ पर यह छपवाऊँगा: ‘वनरक्षक हगेरूप पीडरसेन की बेटी दाग्नी पीडरसेन के अठारह वर्ष की होने पर समर्पणार्थ।’’

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बरगेन में अपने घर लौटने पर ग्रीग ने हर वस्तु को वैस ही पाया जैसे वह छोड़ गया था। ध्वनि को जज्ब करनेवाली सभी वस्तुएँ जैसे कि दरी, परदे और गद्देदार नर्म फर्नीचर आदि, कभी की हटायी जा चुकी थीं। केवल एक पुराना सोफा पड़ा रह गया था। इस पर एक साथ दस मेहमान बैठ सकते थे और इससे अलग होने को राजी न हो सका था।

उसके मित्र कहा करते थे कि यह मकान एक लकड़हारे के झोंपड़े की भाँति सूना है। फर्क केवल इतना था कि यहाँ एक पियानो था।

सफ़ेदी की हुई इन दीवारों के घेरे में एक कल्पना-प्रधान व्यक्ति मनमोहक ध्वनियां सुन सकता था: कभी अंधकार में गरजता हुआ उत्तरीय सागर और उसके ऊपर से सीटियां बजाती तेज हवा और कभी चिथड़ों की बनी गुड़िया को सुलाती हुई किसी नन्ही लड़की की आवाज़।

ग्रीग का पियानो उतनी ही तत्परता से प्रेम के राग गाता था जितनी तत्परता से नई और महान चीज़ों के लिए मानवीय आत्मा की आकांक्षा का गीत। ग्रीग की उँगलियों के नीचे लहराते हुए पियानो के काले और सफ़ेद पर्दे हँसा सकते थे, रुला सकते थे, उनसे गर्जन-ध्वनि पैदा हो सकती थी और रोष ध्वनि भी। अथवा वह शून्य में भी खोकर रह जाती थी।

तब गहरी निस्तब्धता को बेधती हुई स्वर की अन्तिम गूँज में मानो सिंडरेला अपनी बहनों की उपेक्षा के कारण व्यथित होकर सिसक उठती।

पियानो के पर्दों से दूर हटकर ग्रीग उस आवाज़ को तब तक सुनता रहता जब तक कि वह रसोईघर में जाकर, जहाँ पिछले कई वर्षों से एक झींगुर रह रहा था, समाप्त नहीं हो जाती थी। उस नीरवता में पानी के नल की टप-टप भी, समयमापी की भाँति लयबद्ध सुनी जा सकती थी। हर कश्तरा मानों इस बात पर जोर देता हुआ लगता कि समय किसी मनुष्य की प्रतीक्षा नहीं करता और इसलिए जो कुछ भी करना हो शीघ्र करना चाहिए।

दाग्नी पीडरसेन के लिए स्वरचना करने में ग्रीग को एक महीने से अधिक समय लगा।

जाड़ा आया। धुन्ध छाई और उसने मकानों को अपनी चादर में लपेट लिया। सात महासागरों में घूमकर लौटे हुए जहाज अब जंग-आलूदा होकर लकड़ी के घाटों के समीप भाप उगलते हुए खड़े थे।

फिर बर्फ़ के फूल बरसे। ग्रीग अपनी खिड़की से बर्फ़ के फूलों को नीचे आते और वृक्षों की चोटियों पर जमते हुए देख सकता था।

संगीत की गहराई को शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। शब्दों में शायद ऐसी क्षमता ही नहीं है। ग्रीग ने स्वरों में लड़की के बचपन का वर्णन किया। जब वह स्वरों को लिपिबद्ध कर रहा था तो उसने एक हरी चमकीली आँखों वाली लड़की को अपनी ओर दौड़कर आते देखा। खुशी में उसने अपनी बाँहें उसके गले में डाल दीं और अपना गर्म-गर्म गाल उसके सफ़ेद खूँटियों से भरे गाल पर टिका दिया। ‘‘धन्यवाद!’’ उसने कहा, यद्यपि वह तब तक यह नहीं जानती थी कि किस लिए उसको धन्यवाद दे रही है।

‘‘तुममें सूरज की गर्मी और प्रातःकालीन समीर की शीतलता है। तुम्हारा हृदय बहार की सुगन्धि से भरपूर एक सफ़ेद फूल की भाँति है,’’ ग्रीग ने अपनी कल्पना में लड़की से कहा। ‘‘मैंने ज़िन्दगी को देखा-समझा है। जीवन के बारे में लोगों की धारणा को मैं अधिक महत्व नहीं देता। मैं तो यही मानता हूँ कि ज़िन्दगी एक अद्भुत और अमूल्य वस्तु है। मैं बूढ़ा आदमी हूँ, किन्तु मैंने तरुणों को अपना जीवन, प्रतिभा और कार्य, खुले दिल से समर्पित किया है। और शायद इसीलिए, दाग्नी, मैं तुमसे अधिक खुश हूँ।

‘‘तुम उत्तरी भूभाग की मध्य-ग्रीष्म की रहस्यमयी अर्द्धशुभ्र रात हो। तुम कल्याण की साकार मूर्ति हो। तुम उषा की आभा हो और मेरा हृदय तुम्हारी आवाज़ की गति के साथ-साथ स्पन्दित होता है। वे जो तुम्हारी आँखें देखती हैं, वे जो तुम्हारे हाथ छूते हैं, वे जो तुम्हें खुशी देती हैं, वे जो तुम्हें विचारवान बनाती हैं, वे सभी चीज़ें तुम्हारे लिए कल्याणकारी हों, मंगलमयी हों।’’

यह कुछ था जो ग्रीग ने अपने मन में सोचा और पियानों के पदों पर दौड़ती हुई उसकी उँगलियों ने इन्हें स्वरबद्ध किया।

ग्रीग को सदैव यह भ्रम रहता था कि इधर-उधर छिपकर गुप्तचर उसकी बातें सुना करते हैं-वृक्षों पर बैठे नीले रंग की छोटी चिड़ियाँ, नशे की हालत में बन्दरगाह में झूमते हुए मल्लाह, पड़ोस में रहनेवाली धोबिन, झींगुर, आकाश से गिरते हुए रुएँदार बर्फ़ के कण और अपना पुराना फ्राक पहने हुए सिंडरेला। प्रत्येक गुप्तचर उसके संगीत को अपने ढंग से सुनता था। नीली चिड़ियाँ जोश में आकर टी-वित-विट का शोर करने लगतीं, किन्तु उनकी आवाज़ में पियानों की गूँज न डूबती। मल्लाह द्वार की पैड़ियों पर बैठक सुनते और सुबकने लगते। धोबिन अपनी झुकी हुई कमर को सीधा करती, अपनी लाल हुई छलछलाती आँखों को पोंछती और मंत्रमुग्ध सी अपना सिर हिलाती। झींगुर पक्के चूल्हे के एक सूराख से बाहर निकलकर संगीत निर्माता को छिप-छिपकर देखता। उस छोटे-से घर से उड़ रही संगीत की स्वर्णिम लहरों में अपने को डुबो देने के लिए बर्फ़ के फूल हवा में ही ठहरे रहते। और सिंडरेला मुस्कराती हुई उस फर्श को ताकती। उसके नंगे पावों के समीप ही शीशे के सैंडलों की जोड़ी पड़ी होती। सैंडल ग्रीग के पियानो की स्वर-लहरियों के साथ ताल देने लगते।

ग्रीग ऐसे श्रोताओं को, शिष्ट और सज-धजकर कन्सर्ट में आनेवाले श्रोताओं से अधिक उत्तम समझता था।

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अठारह वर्षीय दाग्नी ने स्कूल की पढ़ाई समाप्त की। इस शुभ अवसर की खुशी मनाते हुए उसके पिता ने दाग्नी को क्रिस्तिआनिया में अपनी बहन मागदा के पास भेज दिया। बच्ची को कुछ नया देखना और आनन्द लेना चाहिये। (अपने सुनहरे बालों को दो सुन्दर भारी जूड़ों में गूँथनेवाली आकर्षक दाग्नी अपने पिता के लए तो ‘‘बच्ची’’ ही थी।) उसे देखना चाहिये कि लोग कैसे रहते हैं। कौन जाने उसके लिए भविष्य के गर्भ में क्या है-हो सकता है कि कोई ईमानदार और प्यार करने वाला मगर कुद हद तक नीरस और कंजूस-साथ्ी उसके पल्ले पड़े। यह भी हो सकता है कि उसे गाँव की किसी दुगान या बरगेन के जहाजी दफ्तर में छोटी-मोटी नौकरी करनी पड़ती।

मागदा एक थियेटर में पोशाकें बनाती थी और उसका पति निल्ज़ वहीं बनावटी केश बनाने का काम करता था। थियेटर की छत के नीचे बने हुए उनके छोटे-से कमरे को एक तंग-सी सीढ़ी जाती थी। उनकी खिड़की से इबसेन का स्मारक चिद्द नज़र आता था। विभिन्न जातियों के झण्डों के कारण सजीव बनी खाड़ी भी दिखायी देती थी। खुली खिड़की से दिन भर जहाजों के भोंपुओं की आवाज़ सुनाई देती रहती। निल्ज फूफर भोंपू की आवाज़ सुनकर ही हर जहाज की पूरी तफसील बता देते थे-कोपेनहेगन से ‘नोरडेरने’, ग्लासगो से ‘स्काटिश वार्ड’ तथा बोरडेक्स से ‘जान आफ आर्क’ आया है इत्यादि।

सारा कमरा थियेटर में काम आनेवाली छोटी-मोटी चीज़ों से भरा पड़ा था। ज़रीदार कपड़े, रेशम के टुकड़े, रेशमी जाली, रिब्बन, फीते, शुतुरमुर्ग के परों की काली कलगी वाले टोप, जिप्सी दुशाले, श्वेत केश, काँसे की एड़ियों वाले जाँघों तक ऊँचे बूट, कटारें और टूटे हुए चाँदी के स्लीपर इधर-उधर फैले हुए थे। इनमें से कुछ वस्तुओं की या तो मरम्मत होनी थी या इन पर पैबन्द लगाने की जरूरत थी अथवा इन्हें साफ़ करने या इन पर इस्तरी फेरने की आवश्यकता थी। दीवार पर क़िताबों और पत्रिकाओं से फाड़ी हुई तस्वीरें लटकी हुई थीं। इनमें चैदहवें लुई के मुसाहिबों, जालीदार ‘‘टोकरों’’ के ऊपर साया पहने सुन्दरियों, घुड़सवारों, सरफान पहने रूसी स्त्रियों, मल्लाहों और फूलमालाएँ पहने डेनिश जलदस्यु-सरदारों के चित्र देखे जा सकते थे। कमरे में हर समय वारनिश और पेंट की गन्ध बसी रहती थी।

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दाग्नी अक्सर थियेटर देखने जाती। उसे नाटक बेहद पसन्द आते। पर वह उन्हें देखने के बाद सो न पाती और कभी-कभी तो बिस्तर में पड़ी-पड़ी रोती रहती।

मागदा फूफी चिन्तित हो उठती और यह कहकर सांत्वना देने का यत्न करती कि उसे रंगमंच की हर बात को यथार्थ न मान लेना चाहिए। दूसरी ओर निल्ज़ अपनी बीवी को बकवाद करनेवाली बुढ़िया बताता और कहता कि यदि इन बातों पर विश्वास न करना हो तो थियेटरों का लाभ ही क्या? इसलिए दाग्नी उनमें विश्वास करती रही।

एक दिन फूफी मागदा ने जरा तबदीली के विचार से एक कन्सर्ट में जाने का सुझाव दिया। निल्ज़ ने कोई आपत्ति नहीं की-‘‘क्या संगीत में प्रतिभा की झलक नहीं मिलती?’’

निल्ज़ भारी-भरकम, अस्पष्ट और उलझे-उलझाये शब्दों का प्रयोग पसन्द करता था। उसके अनुसार दाग्नी वृन्दवादन के प्रारम्भिक स्वरों जैसी थी। और उसने घोषणा की कि मागदा में लोगों का कायाकल्प करने की तिलस्मी शक्ति थी। क्या वह थियेटर के लिए पोशाकें नहीं बनाती थीं? और हरेक यह बात जानता है कि जब कोई लिबास बदल लेता है तो बिल्कुल बदला हुआ मनुष्य लगने लगता है। इस प्रकार जो अभिनेता कल एक खूनी खलनायक था, आज एक भावुक प्रेमी, कल एक दरबारी मसखरा और परसों राष्ट्र-नायक भी बन सकता है।

‘‘वाह रे झक्की दार्शनिक,’’ मागदा कहती। ‘‘मेरी प्यारी दाग्नी, इसकी बातों पर बिल्कुल कान मत दो। वह योंही बकबक करता रहता है और यह तक नहीं जानता कि क्या कह रहा है।’’

जून का महीना और उत्तरी प्रदेशों की शुभ्रनिशा का समय था। एक सार्वजनिक पार्क के खुले आँगन में कन्सर्ट का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। दाग्नी मागदा और निल्ज़ के साथ कन्सर्ट में गयी। दाग्नी के पास सिर्फ एक ही बढ़िया फ्रषक थी और सो भी सफ़ेद रंग की। वह उसे ही पहनना चाहती थी, पर निल्ज़ फूफा उसके हक में न थे। उनका आग्रह था कि एक सुन्दर लड़की को अपने वातावरण से भिन्न दिखायी देना चाहिये। उसने एक लम्बा-चैड़ा भाषण झाड़ा जो संक्षिप्त रूप में एक छोटी सी सलाह से अधिक कुछ न था कि साधारण रातों में श्वेत कपड़े पहनकर चमकना चाहिए, किन्तु श्वेत रातों में काले कपड़े पहनकर।

निल्ज़ फूफा से बहस करके कोई जीत न सकता था, इसलिए फूफी मागदा थियेटर के कपड़ों की अलमारी से एक काली मखमली पोशाक ले आई। जब दाग्नी ने उसे पहना तो फूफी मागदा यह मानने को विवश हो गयी कि ज़िन्दगी में एक बार तो निल्ज़ ने अक़्ल की बात की है। दाग्नी के स्वर्णाभ सौन्दर्य और लम्बी सुनहरी चोटियों की चमक के साथ काली मखमली पोशाक खूब जँच रही थी।

‘‘ज़रा इसे देखो तो,’’ निल्ज़ ने धीरे से मागदा से कहा। ‘‘बिल्कुल दुल्हन-सी लग रही है।’’

‘‘हाँ, दुल्हन-सी लग रही है।’’

‘‘हाँ, दुल्हन-सी,’’ मागदा धीरे से बुदबुदायी। ‘‘मुझे तुम्हारे साथ अपनी पहली भेंट की याद है, मगर पागल बनानेवाले किसी सुन्दर प्रेमी की तस्वीर मेरी आँखों के सामने नहीं उभर पाती। तुम तो बिल्कुल यों ही हो, महज बातूनी!’’ और उसने निल्ज़ का माथा चूम लिया।

सूर्यास्त होने के तत्क्षण बाद बन्दरगाह की पुरानी तोप चली, कन्सर्ट तभी शुरू हुई। न तो वाद्यवृन्द के वादकों ने और न ही वाद्यवृन्द चालक ने स्वरलिपि रखने की तिपाई के ऊपर लगी बत्ती जलायी। रात इतनी प्रकाशपूर्ण थी कि पार्क के पापलर वृक्षों में लगे लैम्पों को केवल समारोह की सजावट ही माना जा सकता था।

सिम्फनी-संगीत सुनने का दाग्नी का यह पहला अनुभव था और इसका उसके मन पर अज़ीब प्रभाव हुआ। उसके हृदय पर कुछ ऐसी तस्वीरें उभरीं मानों वह स्वप्न देख रही हो। सहसा भ् ौंचक्की-सी होकर उसने ऊपर की ओर देखा। शाम का सूट डटे पतले-दुबले उद्घोषक ने क्या उसके नाम की घोषणा की है?

‘‘आपने मुझे बुलाया है, फूफा?’’ उसने पूछा और जब उसने फूफा की आँखों में या तो आश्चर्य की या प्रशंसा की झलक देखी तो त्योरी चढ़ा लीं। फूफी मागदा ने भी उसे घूरा और अपने मुँह के पास रुमाल रख लिया।

‘‘क्या बात है?’’ दाग्नी ने पूछा। मागदा ने उसका हाथ दबाया और धीमे स्वर में कहा: ‘‘शी...शी, सुनो’’

दाग्नी ने उद्घोषक को कहते सुना:

‘‘मैं पीछे बैठे लोगों के लिए फिर दुहराता हूँ। हमारे प्रोग्राम का अगला आइटम एडवर्ड ग्रीग की वह विख्यात रचना है जिसे उन्होंने वनरक्षक हगेरूप पीडरसेन की पुत्री दाग्नी पीडरसेन की अठारहवीं वर्षगाँठ के लिए रचा था।’’

दाग्नी ने ऐसी गहरी साँस ली मानों उसका हृदय टीस उठा हो। बहुत कोशिश करने पर भी वह अपने आँसुओं को पी न सको। वह आगे की ओर झुक गयी और उसने अपने दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया।

हृदय में उठ रहे तूफान के कारण आरम्भ में तो वह कुछ भी न सुन सकी। पर तभी प्रातःकाल के समय जानवरों को हाँकनेवाले चरवाहे की बाँसुरी की आवाज़ सुनाई दी। इसके फौरन बाद अनेक तार-वाद्य यंत्रों की आवाज़ें गूँज उठीं। संगीत ऊँचा हुआ और तेज हवा की भाँति गर्जन करता हुआ वृक्षों की चोटियों को लाँघता, पत्तों को सरसराता, घास को लहराता और सागर की शीतल फुहार से श्रोताओं के मुँह को चूमता हुआ सा अनुभव होने लगा। दाग्नी ने महसूस किया कि यह तो उसके अपने जंगलों, अपने पहाड़ों का संगीत था। वह उस बाँसुरी की आवाज़ से भली-भाँति परिचित थी। सागर-तट पर सिर पटकनेवाली हहराती लहरों को भी वह खूब पहचानती थी। अब वह कुछ-कुछ शान्त हो चली थी।

शीशे की खिड़कियों वाले जहाज पानी का मंथन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। तेज हवा के झोंके, पालों को छूकर संगीत पैदा कर रहे थे। तब बहुत ही अस्पष्ट परिवर्तन के साथ जंगली फूलों के संगीत का भास कराती हुई हर्षपूरित छोटी-छोटी घण्टियाँ बजी। पक्षियों ने हवा में कलाबाजियाँ लगायीं। खेल में मस्त बच्चों का शोर सुनाई दिया। तब एक लड़की ने एक गीत गाया जिसका भाव यह था कि एक प्रेमी सुबह-सुबह खिड़की पर पत्थर फेंककर अपनी प्रेमिका को जगा देता है। दाग्नी ने यह गीत अपने जंगल में सुना था।

तो वह लम्बा और श्वेत केशों वाला व्यक्ति जो चीड़ के फलों से भरी उसकी टोकरी उठाकर ले गया था, जादू का असर रखने वाला महान संगीतज्ञ एडवर्ड ग्रीग था। दाग्नी को याद आया कि शीघ्रता से उपहार न बनाने के लिए कैसे उसने उसे डाँटा था-और हाँ, यह था वह उपहार जिसे उसने दस वर्ष बाद भेंट करने का वचन दिया था।

अब दाग्नी खुलकर रो रही थी। वह रो-रोकर अपना आभार व्यक्त कर रही थी। संगीत और उभरा और उसे नगर के ऊपर छाए बादलों और भूमि के बीच के शून्य केा स्वर-लहरी से पाट दिया। स्वर-लहरियाँ बादलों से टकरायीं। बादल छिन्न-भिन्न हो गये। आकाश में सितारे झिलमिलाने लगे।

अब संगीत के स्वरों ने एक आह्नान का रूप धारण किया। यह आह्नान था उस भू-भाग में प्रवेश करने का जहाँ प्रेम पर दुख की काली छाया नहीं पड़ती; जहाँ किसी की खुशी को लूटा नहीं जाता और जहाँ सूरज जगमगाती सुनहरी दैवी धर्ममाता के सिर पर सजे मुकुट की भाँति चमकता है। और तब सुरों के सुमधुर सम्मिश्रण से एक परिचित ध्वनि सुनाई दी: ‘‘तुम कल्याण की साकार मूर्ति हो। तुम उषा की आभा हो।’’

निस्तब्धता छा गयी। तब धीरे-धीरे जोर पकड़ती हुई तालियों की बाढ़-सी आ गयी। दाग्नी उठी और तेजी से पार्क के दरवाज़ों की ओर चल दी। सभी ने मुड़कर देखा-शायद कुछ को यह सूझ गया था कि यही दाग्नी पीडरसेन है जिसे ग्रीग ने अपना अमर संगीत समर्पित किया है।

‘‘वह मर चुका है,’’ दाग्नी ने सोचा। ‘‘ऐसा क्यों हुआ?’’ काश! वह एक बार फिर उससे मिल सकती, केवल एक बार। वह दौड़ती हुई उसके पास जाती, अपनी बाँहों को उसके गले में डाल देती, अपने आँसू भीगे गालों को उसके गालों से चिमटाते हुए केवल एक शब्द कहती, ‘‘धन्यवाद।’’

‘‘तुम किसलिए मुझे धन्यवाद दे रही हो?’’ वह पूछता।

‘‘मुझे मालूम नहीं,’’ वह उत्तर देती.. ‘‘इसलिए कि आपने मुझे याद रखा। आपकी इस कृपा के लिए। यह स्पष्ट करने के लिए कि जीवन कैसा प्यारा, कैसा अद्भुत है।’’

दाग्नी सूनी गलियों में घूमती रही। वह यह न जानती थी कि मागदा द्वारा भेजा गया निल्ज फूफा उसका पीछा कर रहा है। वह एक शराबी की भाँति थोड़ा झुका हुआ अपने नीरस जीवन में घटित इस अनहोनी घटना के बारे में बड़बड़ाता चला जा रहा था।

नगर पर अभी भी रात के धुँधलके की चादर पड़ी हुई थी। किन्तु उत्तर दिशा में दिखायी देने वाली उषाकाल की प्रथम स्वर्ण रेखाएँ खिड़कियों से झाँकने लगी थीं।

दाग्नी समुद्र-तट पर जा पहुँची जहाँ पानी गहरी निद्रा में सोया लगता था। कोई छोटी-सी लहर भी पानी की समतल सतह को विचलित नहीं कर रही थी। दाग्नी ने संसार के सौन्दर्य से अभिभूत होकर अपने हाथों को जोर से दबाया और गहरी साँस ली।

‘‘सुनो, हे जीवन। मैं तुमसे प्रेम करती हूँ,’’ उसने धीमे से कहा।

ज्योंही उसने जहाज की बत्तियों के प्रकाश को मटियाले पानी में धीरे-धीरे बढ़ते देखा, वह खुशी की उमंग में खिलखिलाकर हँस पड़ी।

कुछ दूरी पर खड़े हुए निल्ज ने वह हँसी सुनी और घर की ओर चल दिया।

‘‘वह ठीक-ठाक है,’’ उसने अपने मन को पुनः आश्वासन दिया। ‘‘वह अवश्य ही अपनी ज़िन्दगी में कुछ कर गुजरेगी।’’

('समय के पंख' में से)

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