चौकी-चौका -बंदर (कहानी) : कमलेश्वर
Chauki-Chauka & Bandar (Hindi Story) : Kamleshwar
चौकी-चौका
एक पण्डित जी घर के चबूतरे पर चौकी लगाकर बैठते थे। मोहल्ले के
लोग कभी धर्म पर, कभी स्वास्थ्य पर, कभी ध्यान योग पर उनके
उपयोगी प्रवचन सुनते थे। उसी चौकी पर लोग दान-दक्षिणा रख देते थे।
उसी से पण्डित जी का खर्चा चलता था।
एक दिन वे स्वास्थ्य और भोजन पर बोल रहे थे। तरकारियों के
गुण-दोष बता रहे थे। बैंगन के बारे में उन्होंने बताया कि इस तरकारी
में दोष ही दोष हैं। उन्होंने विस्तार से बैंगन के दोषों को गिनवाया।
प्रवचन समाप्त हुआ तो पण्डित जी ने उस दिन की दक्षिणा चौकी से
उठाई और भोजन के पटले पर आकर बैठ गए।
पण्डिताइन ने भोजन की थाली सामने रखी। उसमें दाल-रोटी और
चटनी थी।
-आज कोई तरकारी नहीं बनाई?-पण्डित जी ने पण्डिताइन से
पूछा।
-बनाई तो थी, पर फेंक दी।
-फेंक काहे को दी?
-आपका प्रवचन सुनकर...आज हमने बैंगन की तरकारी ही बनाई
थी। आपने इसके दोष ही दोष गिनाए तो हमने सोचा बैंगन का सेवन
हानिकारक है, इसलिए फेंक दी।
-अरे भागवान! हम तो सुननेवालों को देखकर सोच-समझ कर
बोलते हैं। आज वह नुक्कड़ वाला मोटा हलवाई भी प्रवचन सुनने आया
था...सब्जी बाजार में जब भी वो मिला तो मैंने हमेशा उसे बैंगन ज़रूर
खरीदते देखा। मैं समझ गया कि बैंगन उसे बहुत पसन्द है। मोटापे के
कारण वो तरह-तरह की व्याधियों से घिरा तो रहता ही है। हमने तो
यही सोच-समझकर बैंगन के दोष गिना दिए। वह दक्षिणा भी अधिक दे
गया।
पंडिताइन अवाक् उनकी बात सुन रही थीं।
-प्रवचन का यही तो चमत्कार है भागवान! हमें उचित-अनुचित से
क्या लेना-देना...बात ऐसी कहो जो मन के गड्ढे में पानी की तरह समा
जाए। तुम तो मूरख हो मूरख, भागवान! उठा के बैंगन की तरकारी फेंक
दी।
-तो और क्या करती?
-अरे चौकी की बात चौकी की बात है, उसका चौके से क्या
लेना-देना?
बंदर
: आदमी बंदर की औलाद है!
: बंदर से भी पूछ लो, उसे यह रिश्ता मंजूर है या नहीं!
(‘महफ़िल’ से)