चौखट (उड़िया कहानी) : सरोजिनी साहू

Chaukhat (Oriya Story) : Sarojini Sahu

(लेखिका की यह कहानी उनके "चौका" शीर्षक कहानी संग्रह में संकलित है. नारी मानसिकता के विभिन्न पहलुओं को उजागर करनेवाली इस कहानी में नारी के मन में छिपे हुए संवेदना-बोध का बखूबी चित्रण किया गया है जो पाठक को एक नई अनुभूति से परिचित करवाती है.. लेखिका की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति, मानवीय संवेदनाओं की सही पहचान तथा कथा-शैली पर मजबूत पकड़ इस कहानी को एक उत्कृष्ट पर्याय पर ला खड़ी करती है. इस कहानी का अंग्रेजी अनुवाद "थ्रेसहोल्ड" शीर्षक से सुश्री इप्सिता षडंगी ने किया है और लेखिका की अंग्रेजी कहानी संकलन "वेटिंग फॉर मन्ना" में संकलित हुआ है. आशा है, पाठकों को यह कहानी पसंद आएगी।)

वे लोग अभी घर के दरवाजे से बाहर भी नहीं निकले होंगे कि काली बिल्ली ने उनका रास्ता काटा। उन लोगों में सबसे आगे इप्सिता, मध्य में माँ तथा सबसे पीछे पिताजी थे। पिताजी माँ से कहने लगे, “रुक जाओ, काली बिल्ली ने रास्ता काटा है, चलो, वापस भीतर लौट चलें, थोड़ी देर बाद जाएँगे।”

यूँ भी इप्सिता बिल्ली द्वारा रास्ते काटे जाने का अंधविश्वास नहीं मानती थी और वह बिल्ली तो घर में रहते-रहते उनकी पालतू बिल्ली की तरह ही बन चुकी थी।

पिताजी पहले की अपेक्षा ज्यादा गंभीर दिखाई देने लगे, जब कि माँ के चेहरे पर किसी भी तरह के भाव नहीं आए। परन्तु इप्सिता के मन में ख्याल आया, शायद हो सकता है आज मनोज से उसकी मुलाकात न हो पाए। यद्यपि वह परीक्षा देने जा रही थी और उस समय उसे केवल परीक्षा के अच्छे या बुरे होने के बारे में ही सोचना चाहिए था।

इप्सिता ने अपने माँ, पिताजी, भाई-बहिन की नजरबंदी में बड़ी मुश्किल से दो महीने ही गुजारे थे। जब पिताजी को सब-रजिस्ट्रार ऑफिस से कोर्ट-नोटिस देखकर आए उनके वकील मित्र ने खबर दी, तब वह विचलित हो उठे थे। माँ ने केवल यही कहा था, “आखिर में तुमने यही कारनामा किया।” ऐसे इप्सिता भी मन-ही-मन एक तरह से सिमट गई थी। कुछ दिनों के बाद उसने देखा, उसके चारों तरफ एक अदृश्य चार-दीवारी बन गई है, जहाँ से बाहरी दुनिया की खबरें मिलना असंभव था । यहाँ तक कि मनोज को भेजी हुई चार चिट्ठियों में से एक ही चिट्ठी उसे मिलती थी। मनोज की रजिस्टर्ड चिट्ठियाँ अधिकतर पिताजी ही हस्ताक्षर करके ले लेते थे। इप्सिता सब कुछ जानते हुए भी मुँह खोलकर अपनी चिट्ठियाँ नहीं माँग पाती थी। उसे ऐसा लगने लगा था मानो उसके चारों ओर दिन-रात कोई-न-कोई षड़यन्त्र रचा जा रहा हो। और आखिरकार जब उसकी विधि स्नातक अन्तिम वर्ष की परीक्षा नजदीक आई तब उसके परिजन इस बात को लेकर अधिक चिन्तित हो उठे कि उसे परीक्षा में बैठने दिया जाय अथवा नहीं। उस समय इप्सिता पूर्णतया हताश हो चुकी थी। उसे ऐसा लग रहा था मानो उसे इस कैदी जीवन से शायद कभी मुक्ति नहीं मिल पाएगी। भुवनेश्वर से बड़े भाई को बुलाया गया था। माँ-पिताजी और बड़े भैया ने मिलकर इस विषय पर विचार-विमर्श किया था। बड़े भैया का कहना था कि उसे परीक्षा दे देनी चाहिए। यह उचित रहेगा कि वह अपनी पढ़ाई पूरी कर ले। ये सारी बातें इप्सिता से गुप्त रखी गई थी, लेकिन किसी तरह से इप्सिता उनकी योजनाएँ और अन्य कार्यक्रमों के बारे में पूर्णरुपेण जान चुकी थी. मन ही मन खीझते रहने पर भी इप्सिता को यह सोचकर राहत मिली थी कि उसके साथ परीक्षा हॉल में माँ तो नहीं जा पाएगी, तब किसी न किसी तरह वह मनोज से मुलाकात कर लेगी।

यद्यपि वह अन्धविश्वासी नहीं थी, मगर बिल्ली के रास्ता काटकर चले जाने से उसके मन में एक अज्ञात आशंका उत्पन्न हो गई थी। पाँच-सात मिनट विराम लेने के बाद पिताजी उनको बस में बैठाकर चले गए थे। जब तक बस वहाँ से रवाना नहीं हुई, तब तक पिताजी गंभीर मुद्रा में थे। इप्सिता का अपराधी मन पिताजी के गांभीर्य का सामना नहीं कर पा रहा था।

बस रवाना होने के बाद इप्सिता को खूब हल्का लगने लगा था। वह काफी दिनों के बाद उन्मुक्त हवा और रोशनी में बाहर निकली थी। बस की खिड़की का काँच सरकाकर उसने अपने केश उड़ने पर भी, जी भरकर प्राकृतिक हवा का आनन्द लिया। रास्ते में आने वाले हरे पेड़ों के झुरमुट, पर्वत श्रृंखलाएँ और नीले आसमान को निहारने लगी। उसका मन किसी रोमांटिक हिन्दी फिल्म के गीत गुनगुनाना चाहता था, लेकिन बस का माहौल देखते हुए उसने स्वयं पर नियंत्रण कर लिया।

मनोज ने लिखा था कि उसके घर में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है। वे लोग कभी भी किसी भी हालत में इप्सिता को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। क्या वास्तव में वे लोग इतने स्वतंत्र विचारधारा के हैं? या मनोज ने उसका मन रखने के लिए ऐसा लिखा है? न जाने ऐसा क्यों अनुभव होने लगा था कि मनोज के कहने के अंदाज से, उसके चेहरे पर झलकते एक विश्वसनीय वायदे से, उसे एक सुरक्षा की अनुभूति होती थी जब वह मनोज के साथ होती थी।

मनोज की चिट्ठी पाते ही इप्सिता ने अपने मन को दृढ़ करने की कोशिश की। वह बार-बार किसी एक अनजाने भय से काँप उठने के बाद भी खुद को बार-बार सम्भाल लेती थी। कटक आने के बाद इप्सिता ढंग से सो भी नहीं पाई थी। विचित्र प्रकार की हताशा उसके मन में पैदा हो गई थी। अस्थिर मन से दिन भर वह ऊपर से निचली मंजिल, निजली मंजिल से ऊपरी मंजिल, सोफे से खाट, खाट से खिड़की आती-जाती रही। यद्यपि उसे प्यास नहीं लग रही थी, तब भी वह बार-बार पानी पी रही थी। जबकि उसे भूख लग रही थी, पर वह खाना नहीं खा पा रही थी। मानो सब गड़बड़ हो गया है, उलझनें बढ़ गई हो। उसे कुछ भी आसान, सुंदर और सरल लग नहीं रहा था।

अस्थिरता के इस वातावरण में भी सबसे छिपाकर उसने अपनी सोने की भारी चेन उतारकर पतली चेन पहन ली थी, यही नहीं, छोटी बहिन के कान के झूमके रखकर दो छोटे-छोटे टाप्स पहन लिए थे तथा हाथों में केवल काँसे की चूड़ियाँ, ताकि किसी को यह कहने का मौका न मिले कि जाते समय वह बहुत कुछ माल लेकर चली गई है। यह बात सत्य थी कि अपनी पेटी तैयार करते समय किसी तरह उसने अपनी मनपसंद शुद्ध सिल्क की साड़ियाँ रख ली थी।

उस समय उसे पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि उस घर में उसकी अपनी भी कुछ चीजे हैं। अब तक उसने अपने भाई-बहनों को ले कर इस संदर्भ में कभी नहीं सोचा था। उसकी कुछ अपनी किताबें भी हैं, उनके अतिरिक्त भगवान की एक तस्वीर भी। कुछ संग्रह किए हुए पेंटिंग बक्से तथा कुछ मूर्तियाँ भी। कभी शौकिया तौर पर जमा करके रखे किस्म-किस्म के पत्थर, कुछ ग्रीटिंग कार्ड तो कुछ चिट्ठियाँ, जिन्हें साथ ले जाना कतई संभव नहीं था। उसने उन्हें उसी तरह छोड़ दिया।

बाहर प्रस्थान करने से एक दिन पहले शाम को अपने दो मंजिले मकान की छत पर खड़ी होकर इप्सिता अपने अतीत को याद करने के लिए अपने प्रिय शहर को निहार रही थी। शायद परीक्षा के दौरान वह मनोज के साथ उसके गाँव चली जाएगी। हो सकता है वह वापस इस शहर में कभी लौटकर नहीं आ पाए। पिताजी का स्वभाव ऐसा था कि भले ही वह पूरी तरह से टूट जाएँगे पर किसी भी हालत में झुकेंगे नहीं। शायद इप्सिता के भाग्य में इस शहर को दोबारा इस छत पर खड़े हो कर देखना नहीं लिखा होगा। शहर की विभिन्न दुकानों से वह साड़ियाँ, इमिटेशन ज्वेलरी, पुस्तकें या छतरी तक नहीं खरीद सकेगी। यहाँ तक कि इस शहर के रिक्शों में बैठने का आनन्द भी नहीं उठा पाएगी। यहाँ के लगने वाले मेले और त्योहारों का आनन्द नहीं ले सकेगी। सम्भवतः उसे खुद को इस शहर के लोगों से भी छिप-छिपाकर रखना पड़ेगा। यह सोचते ही इप्सिता का मन भारी हो गया। वह इस तरह से रोने लगी जैसे शादी के उपरान्त विदाई के समय कोई दुल्हन रो रही हो।

कटक के बादामबाड़ी बस स्टेशन पहुँचते-पहुँचते साँझ ढल गई थी। जैसे ही इप्सिता बस से उतरी, उसकी निगाह मनोज पर पड़ी। वह पान की दुकान के आगे खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था और अभी तुरन्त आई उनकी बस की ओर देख रहा था। मनोज को वहाँ देखकर इप्सिता घबरा गई। माँ की ओट में रहकर वह मनोज की नजर से बचना चाहती थी। किन्तु उसे याद आ गया कि अगर माँ ने मनोज को देख लिया तो एक और बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। मनोज को माँ की नजर से बचाने के लिए इप्सिता फिर माँ के आगे आ गई और आगे बढ़कर रिक्शेवाले से किराया तय करने लगी। बादामबाड़ी से रानीहाट तक का किराया ज्यादा माँगने पर भी इप्सिता रिक्शेवाले की बात मानकर रिक्शे में बैठ गई।

एक अजीब उत्कंठा और भय से इप्सिता के ह्मदय की धड़कने बढ़ गई थी। एक बार उसने देखा मनोज का रिक्शा उनके रिक्शे से आगे निकल गया था। मनोज ने हूड़ का पर्दा उठाकर एक बार इप्सिता की तरफ नजरें डाली। इप्सिता का चेहरा डर के मारे पीला पड़ गया। उस समय उसे मनोज पर भी क्रोध आ रहा था। यदि माँ ने मनोज को देख लिया तो इप्सिता के लिए परीक्षा हॉल में जाना भी सम्भव नहीं होगा। यह तो किस्मत अच्छी थी कि माँ ने मनोज को तो शायद देखा नहीं था या फिर उस समय उसने वहाँ मनोज की मौजूदगी की उम्मीद ही नहीं की होगी। इधर-उधर की बातों में माँ को उलझाए रखकर उसने मानसिक तनाव के साथ रानीहाट में रह रहे मौसा के घर पहुँचकर राहत की साँस ली। यह तो अच्छा था कि मनोज का रिक्शा कहीं आस-पास दिखाई नहीं दे रहा था।

मौसी ने काफी देर खटखटाने के बाद दरवाजा खोला। घर के अन्दर एक धुँधली रोशनी प्रकाशित हो रही थी। “अन्दर आइए” कहकर मौसी ने बुलाया “तुम्हारे मौसा की तबीयत पिछले पन्द्रह दिनों से ठीक नहीं है। तुम्हारी चिट्ठी मिली थी लेकिन साँस की बीमारी की वजह से उठ-बैठ तक नहीं पाते, इसलिए तुम्हारे मौसाजी जबाब नहीं दे सके” मौसी ने कहा।

इप्सिता ने खाट पर सोए हुए मौसा को चरण स्पर्श कर अभिवादन किया। उसे साँस फूलने की धड़-धड़ आवाज ऐसे सुनाई दे रही थी मानो शरीर को फाड़कर वह आवाज बाहर निकलना चाहती हो।

माँ और मौसी बैठकर आपस में अपने सुख-दुःख की बातें कर रही थीं। इप्सिता बाथरुम में हाथ-मुँह धोकर साड़ी बदलकर तैयार हो गई थी। थोड़ी सी चाय पीने की इच्छा होने पर भी शर्म के मारे वह मौसी को कह नहीं पा रही थी। इधर-उधर घूमते हुए वह सोच रही थी कि शहर के बीचोबीच यह मकान होने के बावजूद भी कितना खामोश है! केवल दो कमरों में लाइटें जल रही थीं, बाकी सब कमरे बन्द पड़े थे। मानों ये दोनों कमरे मौसा-मौसी के लिए पर्याप्त हो, बाकी के कमरे पूजा या गर्मी की छुट्टियों मे जब कभी बहू-बेटे, नाती- नातिने आते होंगे तभी उनके लिए ये कमरे खोले जाते होंगे।

मौसी माँ से कह रही थी, उन्हें भी गाँव जाना था, मगर जब तक तुम्हारे मौसा की दवाइयाँ पूरी नहीं हो जाती है तब तक जाना नहीं हो पाएगा। इस समय होमियोपैथी के डॉक्टर शिवबाबू का उपचार चल रहा है।

घर से बाहर निकलकर इप्सिता दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गई। वहाँ से वह बाहर की सड़क की तरफ देखने लगी। अचानक उसकी निगाहें चौराहे के दूसरी तरफ फुटपाथ पर पड़ी। देखते ही वह चौंक उठी। क्या वह मनोज है? उसे देखते ही वह तेजी से दौड़ती हुई घर के अन्दर लौट आई। उसे मन ही मन मनोज के ऊपर गुस्सा आ रहा था। आखिरकार उसे मेरी विवशता और मेरा डर क्यों समझ में नहीं आ रहा? ऐसी क्या बात वह कहना चाहता है जिसके लिए वह बादामबाड़ी से पीछा करते हुए यहाँ तक आ पहुँचा? इप्सिता के दिल की धड़कने भय से बढ़ रही थी। अपनी पेटी से किताब निकालकर वह अपने चेहरे का भय और उद्वेग छुपाना चाह रही थी। परन्तु उसके मन में इच्छा हो रही थी कि वह दौड़कर मनोज के पास चली जाए। था ही कितनी दूर वह? चौराहे के इस ओर से उस ओर तक की दूरी ही तो थी। वह उसके पास जाकर कह आती, “तुम्हें जो भी कुछ कहना है कह दो, मगर इस चौराहे पर खड़े होकर मुझे परेशान मत करो। क्या तुम्हें मेरे भीतर फड़फड़ा रहे पंखों की आवाज सुनाई नहीं पड़ती?”

माँ ने आकर चाय दी और पूछा “पढ़ाई कर रही हो?” इप्सिता ने सिर हिला कर हामी भरी।

“अच्छा , मैं चलती हूँ मौसी के काम में कुछ हाथ-बँटा लूँ। कुछ रोटियों बनवा लूँ। वह बूढ़ी है कितना काम कर पाएगी” माँ ने कहा। जैसे ही वह जाने लगी इप्सिता ने कहा “मैं जरा बाहर जाकर टूथ पेस्ट खरीदकर आती हूँ, घर से लाना भूल गई थी।”

माँ समझ नहीं पाई कि क्या जवाब दें। शायद उसको लगा मानो अचानक उसके सामने कोई समस्या आकर खड़ी हो गई हो। माँ ने बड़े दुःख भरे स्वर में कहा “टूथ पेस्ट रखना कैसे भूल गई?”

उसके बाद वह अन्दर वाले कमरे में चली गई। एक चक्कर काटने के बाद वह लौटकर बोलने लगी “ठीक है चल, मैं भी अपने लिए एक शीशी ब्राह्मी तेल ले आऊँगी।”

इप्सिता इस बात को अच्छी तरह जानती है कि इस समय माँ को ब्राह्मी तेल की कोई आवश्यकता नहीं है। वह तो सिर्फ बहाना है। वह इप्सिता को अकेले नहीं जाने देना चाहती, इस भय से कि उसकी मुलाकात मनोज से न हो जाए। अभी तक माँ ने मनोज के बारे में कुछ भी नहीं कहा था। यह तक नहीं पूछा, उसका स्वभाव कैसा है, वह करता क्या है। वह केवल मनोज को पहचानती भर थी। माँ उसके रास्ते में कभी भी रूकावट नहीं बनी। ना ही उसने कभी टोका और ना हीं कभी मनोज के साथ संबंध बढाने के बारे में हिदायत ही दी। फिर भी इप्सिता इस चीज को अच्छी तरह जानती थी कि माँ भी उसके इस विवाह के लिए सहमत नहीं थी, क्योंकि पिताजी इस शादी के लिए राजी नहीं थे । इप्सिता यह अच्छी तरह जानती थी कि माँ भले ही कुछ भी न कहे पर उसकी खोजी निगाहें हमेशा उसका पीछा करती रहती हैं । उसे यह सब बड़ा अटपटा लगता था। केवल वह इन चीजों का अनुभव कर सकती थी, मगर कह नहीं सकती थी। उसे जेठ मास की उमस की तरह बेहद घुटन भरे माहौल का अनुभव हो रहा था।

इप्सिता को समझ में नहीं आ रहा था, वह अपना प्रस्ताव कैसे वापस ले। किस मुँह से कहे कि उसे पेस्ट की जरूरत नहीं है? किस तरह माँ के मन में वह विश्वास पैदा करेगी। जैसे जैसे वह खुद को असहाय अनुभव करने लगती, वैसे वैसे उसका गुस्सा और नाराजगी अपने घरवालों पर बढ़ती जाती। फिर भी एक सफल अभिनेत्री की तरह स्वाँग भरते हुए वह माँ से कहने लगी, “रहने दो माँ, अभी काम चल जाएगा। कल तुम्हारे दातून से ही दाँत साफ कर लूँगी। अगर इस समय हम बाहर गए तो मौसी बुरा मान जाएँगी। अभी हमें उनके काम में हाथ बँटाना चाहिए।”

इप्सिता को रातभर ठीक से नींद नहीं आई। वह पूरी रात इधर-उधर के ख्याल, तरह-तरह के सपने देखती रही जैसे कि वह रात, रात न होकर कोई भीड़ भरी गली का रास्ता हो। सुबह उठने पर सिर भारी-भारी लग रहा था, तब भी वह आठ बजे परीक्षा देने चल पड़ी। माँ उसे दरवाजे तक छोड़ने भी आई थी तथा जाते समय उसने लौटने का समय भी पूछ लिया था।

इप्सिता रिक्शे में जाते समय पूरी राह चारों ओर देख रही थी। वह खुश थी यही सोचकर कि मनोज से मुलाकात हो जाएगी। लेकिन कहाँ था मनोज? कॉलेज गेट के पास रिक्शेवाले को पैसे देते समय भी उसने चारो तरफ देखा था। यहाँ तक कि परीक्षा हॉल में घुस जाने तक भी वह चारो तरफ देख रही थी। लेकिन मनोज उसे कहीं नहीं दिखाई दिया.। क्या मनोज उससे नाराज है? क्या मनोज रातों-रात खुर्दा लौट गया? इप्सिता उसे कैसे समझाए, उसे देखने की ललक, उससे बातें करने की उसकी सारी कोशिशें विफल हुई हैं। अंदर ही अंदर ही वह एक तरह की अकुलाहट का हर समय अनुभव करने लगी।

परीक्षा देकर इप्सिता सही समय पर मौसी के घर लौट आई थी। उसके बाद अगले चार दिन भी वह ठीक साढे ग्यारह बजे लौट आई। अंतिम परीक्षा के दिन माँ ने गाँव लौटने की सारी तैयारी करना शुरु कर दी थी। एक दिन पहले उन्होंने कुछ खरीददारी भी कर ली थी। स्नान करने के बाद माँ ने अपने और इप्सिता के कपड़े अच्छी तरह निचोड़ लिए थे, ताकि जल्दी सूख जाएँ।

इप्सिता को लग रहा था कि उसका कटक आना मानो व्यर्थ हो गया। उसको मिली यह आजादी मानो सही अर्थों में आजादी ही नहीं थी। उनमें हुई उस गलतफहमी के लिए वह किसी को भी उत्तरदायी नहीं ठहरा पा रही थी। मनोज से एक प्रकार से रूठ जाने पर भी परीक्षा देते जाते समय वह पूरी राह देखती हुई जाती, शायद कहीं मनोज दिखाई पड़ जाए। कॉलेज गेट तक, गेट पर रिक्शेवाले को पैसे देने तक, परीक्षा हॉल में पहुँचने तक उसकी निगाहें मनोज को तलाशती रही।

अब तक परीक्षा शुरु हुए दो घंटे बीत चुके थे, मगर मनोज कहीं नहीं दिखाई दे रहा था। जैसे ही इप्सिता ने कॉपी से सिर ऊपर उठाया, वैसे ही उसने मनोज को देखा। वह हॉल के बाहर खड़ा था। इप्सिता को देखते ही वह मुस्कराया । अचानक इप्सिता अन्यमनस्क हो गई। वह पहले जैसा नहीं लिख पा रही थी। वह भूल गई कहाँ से लिख रही थी। पाँच लोगों के बीच में एक किताब रखकर वे सभी नकल मार रहे थे। किताब बीच में थी और वे लोग आमने-सामने तथा दाएँ-बाएँ बैठकर सिर-से-सिर जोड़कर लिखते जा रहे थे। उस प्रश्न का उत्तर काफी बड़ा था। इप्सिता लिखने में दूसरों से पिछड़ गई थी और तब तक दोस्तों ने पन्ना आगे पलट दिया। उसके पास बैठे परीक्षार्थियाँ में कोई भी जान पहचान का नहीं था। किससे कहती कि थोड़ा ठहर जाओ, मेरा उत्तर अभी तक पूरा नहीं हुआ है।

मनोज अंदर आकर उसके पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। वह कहने लगा, कुछ सहायता करूँ? इप्सिता ने सिर हिलाकर मना कर दिया। उसने आधा ही लिखा था कि फिर उन्होंने पन्ना पलट दिया। “दूसरी किताब ले आऊँ? कितने नंबर के प्रश्न का उत्तर चाहिए?”

इप्सिता ने कहा, “और किताब नहीं मिलेगी। हॉल में केवल तीन किताबें ही उपलब्ध हैं।”

हॉल में ऐसी अव्यवस्था थी कि उसमें मनोज पर किसी के संदेह होने का प्रश्न ही नहीं उठता था, फिर भी इप्सिता उस समय पूरी तरह से खुल नहीं पा रही थी। समय पूरा हो जाने पर भी वह सारे प्रश्नों का उत्तर नहीं लिख पाई। हॉल से निकलते समय मनोज ने कहा, “तुमसे एक सीरियस बात कहनी है।”

“कैसी बात?” इप्सिता ने पूछा। उसने सोचा शायद मनोज यह पूछेगा कि उस दिन वह मिलने क्यों नहीं आई।

लेकिन मनोज ने उस दिन के बारे में कुछ भी नहीं पूछा, बल्कि उसने उसके आगे एक ऐसा प्रस्ताव रखा जिसे सुनकर इप्सिता भीतर से काँपने लगी। मानो उसकी असली परीक्षा तो अब होगी। मनोज कहने लगा- “जरा सोचकर देखो। हो सकता है आज के बाद शायद तुम्हारे घर के लोग तुम्हे घर से बाहर ही निकलने न दें। ऐसा अवसर तुम्हें दोबारा नहीं मिलेगा। इतने दिनों तक जब तुम अपने घर वालों को समझा नहीं सकी, तो क्या सोचती हो कि वे लोग अपने आप तुम्हारी शादी के लिए राजी हो जाएँगे?”

इप्सिता की आँखों के आगे वे सभी दृश्य आने लगे जब वह अपने गाँव जाकर लंबे दिन, लंबी रातें बिताएगी। उसे लग रहा था कि एक क्षण के बाद उसकी जिंदगी अर्थहीन होती चली जाएगी। और उसे दिन के दस बजे से तीन बजे तक केवल डाकिये का इंतजार रहेगा। खिड़की, बॉलकनी, छत से खाकी वर्दी धारी आदमी को अपने घर की तरफ आते देख, वह अपनी बैचेनी को छुपाए इधर-उधर भटक रही होगी जबकि चार में से एक ही चिट्ठी उसे मिलती रहेगी।

रिक्शे वाले को आवाज देने के बजाय इप्सिता मनोज के साथ चल पड़ी। टैक्सी में मनोज के कॉलेज के तीन अन्य अध्यापक दोस्त बैठे हुए इंतजार कर रहे थे। मानो सब कुछ मशीनवत हो गया। न कोई शहनाई, न कोई आतिशबाजी, न कोई मंत्रोच्चारण और न ही यज्ञाग्नि का पसीना। केवल काँपती अँगुलियों से हस्ताक्षर और कंठ से निकल रही अस्पष्ट आवाज की प्रतिज्ञा में शादी सम्पन्न हो गई।

उस समय तक एक से अधिक बज चुका था। इप्सिता ने तब तक किसी से भी बात नहीं की थी। उसे लग रहा था मानो पैरों तले जमीन खिसक गई हो। उसे लग रहा था जैसे वह कुछ चोरी करके भाग रही हो। उसने अपने चेहरे पर हाथ रख लिया तथा सुबक-सुबक कर रोने लगी। उसके रोने की यह आवाज सुनकर ड्राइवर ने एक बार पीछे मुड़कर देखा था। इप्सिता अकेलेपन का अनुभव कर रही थी। वह स्वयं को जितना अकेला पा रही थी, माँ को भी उतना ही अकेला पा रही थी।

उसे लग रहा था मानो भोली माँ एक बुद्धू की भाँति उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। दाल चावल ढककर खाना खाने के लिए उसका इंतजार कर रही होगी। मौसी के असंगत प्रश्नों से परेशान होकर मक्खियों को उड़ाकर खदेड़ने के बहाने बारम्बार दरवाजे तक जाकर उसे देख आती होगी। दूर से नजर आने वाले हर रिक्शे को इप्सिता का रिक्शा समझकर खुश होते-होते निराश हो जाती होगी। माँ यह भी सोचती होगी कि एक बार कॉलेज जाकर उसकी खबर ले लें। उसे कॉलेज में न पाकर माँ के दिल पर क्या गुजरेगी? वह क्या जवाब देगी मौसा-मौसी को? क्या मुँह दिखाएगी गाँव लौटकर सबके सामने? मानो सबके सामने माँ इप्सिता की तुलना में अधिक अपराधिन हो जाएगी।

पास पडोस, पिताजी, दादाजी, चाची, ताई भाई, बहन, रिश्तेदार सभी तरह-तरह के प्रश्न करते रहेंगे। माँ के दिल की असहायता इप्सिता के दिल में संचरित हो रही थी मानों। वह हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगी। उसे इस तरह रोते देख मनोज ने कहा, “छिः ! इस तरह रोने से बस के अंदर बैठे अन्य यात्री क्या सोचेंगे?”

इप्सिता फिर भी चुप नहीं हुई। उसकी हिचकियाँ और जोरों से बढ़ने लगी। उसे केवल यही लग रहा था कि उसकी कम पढ़ी-लिखी माँ अपने चिरपरिचित भोलेपन के साथ बार-बार दरवाजे से घर के अंदर, घर से दरवाजे तक आ-जा रही होगी। भगवान से मन्नते माँग रही होगी। इप्सिता की इच्छा हो रही थी कि काश ! एक बार वह अपने घर लौट जाती। तब वह न घर की रहती, और न ही बाहर की। हमेशा-हमेशा के लिए घर और बाहर के बीच वह चौखट बनकर रह जाती।

(अनुवादक : दिनेश कुमार माली)

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