चतुरी चाचा से मुलाक़ात (निबंध) : विवेकी राय
Chaturi Chacha Se Mulakat (Hindi Nibandh) : Viveki Rai
पलक मारते ही मैं चतुरी चाचा के यहाँ पहुँच गया। देखता हूँ कि चाचा जनेरा
अगोर रहे हैं। काफ़ी ऊँचा मचान है। मचान पर टोपी की तरह एक छोटी-सी पलानी
पड़ी हुई है। मचान पर चढ़ाने के लिए सीढ़ी नहीं बनी है, बल्कि खम्भे के
बाँस की बड़ी-बड़ी गिरहों पर पैर रखकर चढ़ने का प्रबन्ध है। खूब सरकस का
काम है। कहीं पैर बिचल गया तो चारों खाने चित। बुढ़ौती में भी काफ़ी
फ़ुर्ती है ! रात-दिन में कई बार ऊपर जाना और नीचे उतरना होता होगा। अब
उनसे बातें करने के लिए हमें भी इसी बीहड़ चढ़ाई पर से गुज़रना होगा।
मचान खेत में था। घुसते ही मानो भूख लग गयी। भुट्टे की सोंधी सुगन्ध और
उसका स्वर्गीय स्वाद मन में भरने लगा। ललचायी निगाहों से तने हुए जनेरे के
पौधों में लगी हुई जटाधारी बालियों को देखा। हाँ, यह जटा क्यों ? अजी यह
जैसे रेशमी, मुलायम और सुनहरी केशराशि है, जो आँखों में गड़कर मन को
पुलकित कर देती है ! हरे पीले और सूखे छिलकेवाली बालियाँ, कई कई परत छिलके
को छेदकर गुलाबी दन्त-पंक्तियों-से झलरते दाने !
तभी हवा का एक झोंका आया। पौधे झूम गये। पत्तियों के साथ अठखेलियाँ करता
हुआ, हरहराता हुआ पवन निकल गया। जनेरे की जय-जयकार करता झण्डे की तरह ऊपर
का धाना मोचा (फूल) लहरा उठा। कुछ दोहरी बाल वाली पेड़ियों के नख़रे बाद
तक चलते रहे। ये मदमत्त वन-कन्या जैसे यौवन-भार सँभाल नहीं पाती हैं। हवा
के इशारे पर लचक-लचक जाती हैं। पत्तियों का आँचर इधर-उधर उड़-उड़ जाता है।
इधर चाचा की मचान भी कम नहीं। वह भी हवा की ताल पर बल खाती हुई मरमराने
लगी। ऊपर आकाश में तभी चिड़ियों का एक दल सर्र से निकल गया। मुझसे छू-छूकर
पौधे खड़खड़ाने लगे। मानो वे अपने मालिक को किसी अजनबी के खेत में घुसने
की सूचना दे रहे हों। वह मालिक भी ऐसा जो पौधों के इन इशारों को बूझता है,
क्योंकि तभी आहिस्ते से गम्भीर आवाज़ में मचान पर से किसी ने
पूछा-‘‘के टघरल आवत बा हो ?’’
आपका ही नाम तो चतुरी चाचा नहीं है ?’’ मचान के समीप
जाकर मैंने पूछा।
‘‘जी, नीक नाम बा जे चतुरी चाचा तो हम ही हैं, हुकुम
?’’
‘‘ऐसे ही भेंट मुलाक़ात के लिए आया
हूँ।’’
‘‘अच्छा, डाँकि आओ।’’
अब हमें नीचे से ‘डाँककर’ यानी कूदकर ऊपर जाना था।
चाचा की
भाषा पर तबीयत खिल उठी। यहाँ मचान पर सीढ़ी से, सरलता से और शराफ़त से चढ़
जाना नहीं था, बल्कि मचान के बाँस की उन प्राकृतिक खूँटियों के सहारे
लंगूर की तरह लपककर डाँक जाना था। हाथ से बाँस पकड़कर खूँटी पर पैर दिया
ही था कि चाचा का प्रसिद्ध मेटा दिखाई पड़ा। शीतल जल की आशा में पैर खींच
लिया। उचित ही था कि प्यास बुझाकर पहाड़ पर जाऊँ। ढकनी उठाकर देखा। मेटा
पानी से भरा था। सवेरे का ही भरकर रख दिया गया है, रात तक काम आएगा। पास
ही पड़ा था एक चीनी मिट्टी का भग्न प्याला। यह प्याला काई लगे पुराने
मिट्टी के मेटे के साथ खूबमेल खा रहा था। जब पास ही में सावधानी से रखी
गयी अरहर की सूखी लकड़ियों की आँच पर ताज़ी-ताज़ी दूधा की बाल
चुरमुर-चुरमुर सेंककर नमक-मिर्चा के साथ स्वाद से उड़ाई जाती होगी और
मन-भर छक लेने पर जब प्याले का ठण्डा पानी होठों से लगाया जाता होगा तो उस
मज़े के आगे नमकीन चाय के मज़े पानी भरते होंगे। कैसे स्वर्गीय वैभव के
बीच रहता है यह चतुरी चाचा !
मुझे वहाँ बिखरी पड़ी राख की ढेरी में से 56 प्रकार के मधुर व्यंजनों की
गन्ध आने लगी यह कूड़ा नहीं, वातावरण का एक प्रधान अंग है। उसमें आग
सुगबुगा रही है। धुएँ की एक क्षीण रेखा आकाश की ओर नाना प्रकार की
आकृतियाँ बनाती हुई उठ रही है। आग और नमक समाप्त हो जाये तो किसान के पास
रह ही क्या जाएगा ! आग इज़्ज़त है और नमक नियामत है। दरवाज़े पर कउड़े में
आग है यानी वहाँ हाथी बँधा हुआ है। स्वागत का सिपाही हुक़्क़ा बिना आग के
निर्जीव है। चिलम भी ठण्डी रहेगी और तम्बाकू का वह धुआँ ! ओफ़्, वह तो बस
आग का खेल है। यहाँ की सोंधी मिट्टी, सोंधी हवा, सोंधी भुट्टे की महक,
सोंधा स्वाद और सबके ऊपर तम्बाकू का धुआँ। गाँव की ये विभूतियाँ हैं।
यह एक कोने में मेटी में भरा तम्बाक़ू रखा है। यह चिलम औंधी पड़ी है। उसी
पर टिका हुआ हुक़्का करवट सोया हुआ है। यह चाचा की
‘कठनही’
है। देहाती चप्पल है। अजब कछुए सी शक्ल है। वास्तव में उसका नाम
‘कठपनहीं’ यानी काठ का जूता है।
‘प’ शब्द घिसकर
उड़ गया और बन गया कठनही; या हो सकता है काठ को नाथकर बनाये जाने के कारण
इसका नाम कठनही पड़ा हो। बात सत्य है। ऊपरवाले भाग में पैर को रोकने के
लिए तीनों छंदों में रस्सियाँ बँधी हैं। पूरा भारी मज़बूत यानी जूता जाति
का भैंसा है। टूटने का नाम नहीं। टूटेगा क्या ? रस्सी टूटी, बस चट दूसरी
लगा दी। मरम्मत में पाँच मिनट भी नहीं लगे।
पानी पी चुका। मुँह पोंछ रहा था कि चाचा ने टोका,
‘‘यह क्या
किया आपने ? छूछा पानी करेजा लगता है। ऊपर यहाँ भेली रखी थी।
भला
कहिए ?’’
उनकी बात ख़त्म होते-होते एक ज़ोर लगाकर मैं अब उनके सामने था। चरण छू
लिया। ‘‘मालिक बनाये रखें ! कहिए कुशल समाचार ? कहाँ
से आपका
आना हुआ और क्या कहकर आपको लोग पुकारते हैं ?’’
‘‘जी, कंचनपुर के मनबोध मास्टर आपकी सेवा में हाजिर
हैं ?’’
‘‘मास्टरजी, आपने बड़ी कृपा की ! यहाँ कौन आता है ?
घुरहू,
निरहू, फेंकू, चेखरू और मँगरू। क्या सुनने को मिलता है ? घास-भूसा,
चोरी-चमारी, निन्दा-चुगली, दुखरा-धन्धा, और अण्ट-सण्ट बेकार बातें। धन्य
है आजका दिन ! सज्जन का सत्यसंग ईश्वर की कृपा से मिलता
है।’’
‘‘मगर चाचाजी, न तो मैं सज्जन ही हूँ और न
सत्संग का पात्र ही हूँ। काहे से कि मैं मास्टर हूँ।
‘‘ठीक बोलते हो। आज मास्टर होना पापा हो गया है। आज
वह गुरु नहीं, दो कौड़ी का नौकर है।’’
‘‘नौकर यानी सेवक भी वह कहाँ है ? वह अपना कर्तव्य
पालन भी कहाँ कर पाता है ?’’
‘‘भैया ! क्या कोई कर्तव्य पालन करेगा ! लिखा है :
‘भूखे भजन न होहिं गुपाला, लेहु आपनी कण्ठी माला
!’’
‘‘मगर चाचाजी, यह कण्ठी माला उतारकर रख देने का ताव
भी
अध्यापक में कहाँ रह गया है ? गरीबी ने, भूख ने उसकी मन-बुद्धि, आत्मा और
स्वतन्त्रता को एकदम पीसकर ठण्डा कर दिया है।’’
‘‘तभी तो कहा जाता है कि लौना में करसी : बरतन में
बोरसी, वैसी मुदर्रिसी’’
‘‘क्या लाख रुपये की बात कही आपने चाचाजी। करसी न
बलेगी, न
जलेगी : न आँच, न तेज-वैसे धुँधुआती रहेगी। ऐसी ही दमघोट ज़िन्दगी है
अध्यापक की बोरसी ज़िन्दगी-भर जलती रहेगी, किसी महत्त्व के काम में आएगी
नहीं। आलसी लोग जाड़े में लेकर तापते रहेंगे और ज़रा से धक्के में टूट
जाएगी-ऐसा ही भाग्य मिला है अध्यापक को।’’
‘‘क्यों नहीं, यही देखो : आज एक मास्टर को उतना ही
पैसा दिया
जाता है जितने में एक साधारण आदमी केवल अपना निजी ख़र्च किसी प्रकार
कठिनाई से चला सकता है और उसे बना दिया जाता है साधारण से ऊँचा पूरा सफेद
पोश ! दे दिया जाता है जगत्-गुरु का ऊँचा दरजा। अब सारा जीवन वह इस जाल
में छटपटाते हुए जिस प्रकार काटता है, प्रत्यक्ष है। क्या तुमने एक कहावत
सुनी है ? सुनो, कहा है कि ‘करें मास्टरी दुइ जने खायँ, लरिके
सब
निनिअउरे जायँ।’’
‘‘सोलह आना सत्य चाचा ! अध्यापक जब मरने लगता है तब
अपने
बाल-बच्चों से कह जाता है कि और चाहे जो करना परन्तु मुदर्रिसी को दूर से
ही सलाम करना।’’
‘‘भाई मनबोध, मैं तो सौ बात का एक बत्ता जानता हूँ।
आज
अध्यापक भूखा है, शिक्षा सूखी है-देश में सरसता आवे कहाँ से
?’’
‘‘सचमुच देश की हालत खराब होती चली जा रही
है।’’
इसके बाद मेरी और चाचा की वार्ता राजनीति पर आ गयी। जमकर बातचीत चली।
राजनीति से धर्म, समाज, गृह-शिक्षा से होते होते वार्ता पाक-शास्त्र पर आ
गयी।
कहनेवाला एक। सुननेवाला एक। परम एकान्त। कल्पना-सी पलानी। भावुकता-सी
मचान। खेत के ऊपर हवा में किसी कवि के अन्तःकरण-सा वह उन्मुक्त परन्तु
रुचिकर प्रकोष्ठ। रमणीयता का चारों ओर प्रसार। जब-जब भाषा मुखरित होती वह
एकान्त जैसे खिल उठता।
चाचा ने कहा, ‘असल चीज़ है भोजन। यही आरोग्य का जनक है और यही
रोग
की जड़ है। देखो, क्वार द्वार पर आ गया। घर-का घर-खाट पर दिखाई पड़ेगा।
जानते हो क्यों ? यह पेट है कि इसमें दोनों जून लोग ठूँसते ही चले
जाएँगे।’’
‘‘तब क्या आजकल भोजन करना ही नहीं चाहिए
?’’
‘‘हाँ...आँ....आँ....! यही तो कह रहा हूँ। सुनो-
‘‘सावन मास बिआरू न कीजै,
भादो बिआरी का नाम न लीजै।
क्वार के दोउ पाख,
किसी तरै जीव राख।’
अर्थात् सावन भादों में रात का भोजन न करो। क्वार में एकदम दोनों समय भोजन
न करके किसी प्रकार अपने प्राणों की रक्षा करो।’’
अब हमारी समझ में आया कि भोजन की वेला क्यों यों ही बीत गयी। पूछा,
‘‘तो क्या आप एक ही समय भोजन करते हैं
?’’
‘‘तब क्या ? वैद्यकशास्त्र में बातें झूठी कही हैं ?
और एक
बात और है। आपको बताता हूँ मास्टर साहब। आप कोई तिलकहरू नहीं हैं। किसान
आदमी दोनों जून खाने लगे तो कहाँ से अटेगा ?’’
परन्तु मुझे तो उस समय भूख लगी थी। अनायास मेरे मुँह से निकल गया,
‘‘और कोई अतिथि आ जाए तब ?’’
चाचा चौंक पड़े। बोले, ‘‘अरे राम-राम, तबकी बात और है
! देखो,
न, बात-बात में खाने का वक्त निकल गया। हमें तो ध्यान ही न रहा। शाम हो
चली। अब आपको कुछ खिलाना चाहिए। ओ मूसन ! ओ मूसन ! कहाँ गया रे ?
देखिए
मनबोधजी, इस छोकरे ने तंग कर दिया है। अभी नीचे आहट मिल रही थी, न जाने
किधर सरक गया ! वंश के ओज (कमी) से है, नहीं तो बइला (खदेड़) देते। लमेर
(आवारा) की तरह घूमा करता है। यहाँ रहता तो अगोरता। हम लोग दरवाज़े पर
चलते। अच्छा, कोई प्रबन्ध करता हूँ।’’
चाचा नीचे उतरकर गये। एक लड़के को पकड़ लाये और बोले,
‘‘इस
लड़के के साथ आप दरवाज़े पर चलिए। मूसन आता है तो मैं आता हूँ। देर नहीं
होगी।’’
मैं चतुरी चाचा के बैठकख़ाने में पहुँचा। अभी ठीक तरह से बैठ भी नहीं सका
था कि भीतर से एक लड़के और एक स्त्री की दिलचस्प वार्ता कानों में पड़ी।
मैंने अनुमान किया कि एक चाचा का लड़का मूसन है और दूसरी उसकी माँ है।
लड़का जल्दी में घबराया हुआ-सा बोल रहा था। उसने कहा-
‘‘देखो माँ, जब पिताजी खेत में मूसन-मूसन कहकर
चिल्लाने लगे
तो मैं नीचे से धीरे से सरक आया। वे इस समय कहते कि जाओ घर से खाना लाओ।
भला इस समय तुम कहाँ से देतीं ?’’
‘‘चुप रहो, हरामजादा ! तुम बाप-बेटे नम्बरी हो। उस
शरीफ़ आदमी
को खाने बिना डाह दिया। सवेरे का आया मचान पर टँगा है। अपने मन में क्या
कहता होगा ? हाँ, आगे बताओ। क्या कहा तुम्हारे पिता ने
?’’
‘माँ, पिताजी ने कहा कि क्वार के महीने में खाना नहीं खाया जाता
है।
उन्होंने यह भी कहा कि किसान अगर दोनों जून खाने लगेगा तो डीह पर रहना
कठिन हो जाएगा।’’
‘‘अच्छा ! यह भी कहा ? आने दे ! कहाँ है रे बेलना !
दाढ़ीजार
यह नहीं देखता कि पोर-पोर सरकता यह मूसन बेटा नटई-भर का हो गया !
साल-दो-साल में इज्ज़त पानी बची रही तो आने-जाने वालों से मोल मोलाई होगी।
यही बान रही तो मुँह दिखाना दूलभ हो जाएगा।’’
मैं बैठक में झूठ-मूठ का खाँसने लगा, ताकि भीतर समझ जाएँ कि कोई बाहरी
आदमी बैठक में आया है। मेरा खाँसना सुनकर मूसन ने समझा कि पिताजी आ गये और
अपनी माँ से बोला, ‘‘लो माँ, पिताजी आ गये, पूछ लो
!’’
मूसन की माँ हहास बाँधकर बेलना लिये दौड़ पड़ी। मैं घबरा उठा और चारपाई से
कूदकर जो भागा तो चौखट से ठोकर खाकर गिर पड़ा।
चोट खाकर मैं हड़बड़ा गया और आँख खुली तो देखता हूँ कि स्कूल के कक्षा भवन
में हूँ। तीसरा घण्टा चल रहा है। चतुरी चाचा की चटपटी चिट्ठी मेज पर सामने
खुली पड़ी है। अचानक झपकी आ जाने के कारण फुरसत पाकर छात्रों में से कुछ
गप लड़ा रहे हैं और कुछ निकलकर मटर-गश्ती कर रहे हैं।