चतुर रत्नावती : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Chatur Ratnavati : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक ग़रीब व्यक्ति था। उसकी रत्नावती नाम की एक लड़की थी। लगता मानो एक ही साँचे में ढली हो। उसके रूप से अँधेरा कमरा रोशन हो जाता। राज्य के अनेक व्यक्ति उससे विवाह करना चाहते थे। रूप जितना था गुण उससे ज़्यादा। उसने घर के पिछवाड़े में पच्चीस हाथ गहरा गड्ढा खुदवाकर शर्त रख दी कि जो भी उस गड्ढे को धन-संपदा से भर देगा, उससे ही विवाह करूँगी। यह बात सुनकर सभी बिदक गए। विवाह करेंगे तो क्या माँग कर खाएँगे? धन-संपत्ति सब उसके द्वार पर उलट देंगे तो सिर्फ़ ख़ूबसूरत औरत को लेकर क्या झक मारेंगे?
उस गाँव में एक सौदागर का लड़का था। उसका नाम था नवाब। वह अनाथ था। आगे अघा न पीछे पघा, बस उड़ता फिरता। रत्नावती का रूप देखकर वह पगला गया। घर में जो भी रुपया, पैसा, रत्न, माणिक, मुक्ता था सब लेकर रत्नावती के उस गड्ढे में डाल दिया, फिर भी वह गड्ढा नहीं भरा। ज़मीन, जायदाद सब बेचकर उस गड्ढे को भर दिया और रत्नावती से शादी करके सुख से रहने लगा।
सौदागर का लड़का नवाब था। घी खाकर दूध में हाथ धोता था। रत्न पलंग में मोटे गद्दे पर नींद लेता था। सिर्फ़ रत्नावती के लिए सब त्याग करके झोंपड़ी में रहा। ज़मीन पर सोया और रत्नावती का मुखड़ा देखकर सब दुःख भुला दिया।
रत्नावती ख़ूब चालाक थी। वह तो सिर्फ़ मन को परख रही थी। पति का इतना दुःख उससे देखा न गया। बाज़ार से बढ़िया कपड़े लाकर ख़ूब सुंदर पोशाक बनाई और पति के हाथ में देकर पाँच सौ में बेचकर आने के लिए कहा। नवाब पोशाक लेकर पूरे राज्य में घूमा। जो भी इतनी सुंदर पोशाक देखता, पूछता, “कितने की है?” पर नवाब कोई जवाब न देकर आगे बढ़ जाता।
इसी तरह करते वह राजदरबार में हाज़िर हुआ। राजा ने इतनी सुंदर पोशाक देखकर उन्हें आएगी या नहीं, ये परख लिया। फिर नवाब से पूछा, “सच बता। इस पोशाक को कहाँ से लाया है?” नवाब बोला, “महाराज, मेरी पत्नी रत्नावती ने यह पोशाक सिलकर मुझे बेचने के लिए दी है। इसका दाम पाँच सौ रुपए दी है।”
रत्नावती की सुंदरता की चर्चा राजा के कानों में भी पहुँची थी। अब इस पोशाक को देखकर उनका मन बेकरार हो गया। तुरंत नवाब को बाँधकर बंदीगृह में डाल दिया। मालिन को बुलाकर कहा, “जा रत्नावती को आज लाकर मुझे देगी तो तुझे इस राज्य में रहने दूँगा, नहीं तो एक गाल में चूना, दूसरे में कालिख पोतकर राज्य से भगा दूँगा।” मालिन यह बात सुनकर तुरंत वाहन लेकर रत्नावती के पास पहुँची। वहाँ पहुँचकर झूठे आँसू टपकाते हुए बोली, “बेटी, तेरा पति आज दरबार में कपड़ा बेचने आया था। राजा का प्रधान हाथी आज आठ दिन हो गया पागल की तरह घूम रहा है। उसने तेरे पति को आज सूँड़ से उठाकर अपने पाँव से रौंद डाला। ओहो, ख़ून की नदी बह रही है। व्याकुल होकर तुझे याद कर रहा है। तुझे साथ ले जाने के लिए राजा ने वाहन भेजा है।” नवाब की बात सुनकर रत्ना के दिमाग़ ने काम नहीं किया। रोते-रोते वह मालिन के साथ जाकर वाहन में बैठ गई। मालिन ने राजमहल के द्वार पर वाहन रोका। राजा तो राह ताक रहे थे। जैसे ही रत्ना मिली उसे ले जाकर एक सुनसान घर के भीतर रखकर बाहर से ताला बंद कर दिया। अब रत्ना को सारी बातें समझ में आ गईं। वह अनजाने भय से घिर गई। अपनी बेवक़ूफ़ी के चलते तो घर से यूँ चली आई। अब क्या उपाय है?
उधर राजा ने नवाब को जान से न मारकर पाँच सौ रुपए देकर विदा कर दिया। नवाब ने घर पहुँचकर देखा कि रत्नावती नहीं है। “रत्नावती, मुझे छोड़कर कहाँ चली गई?” कहकर ख़ूब रोया। इधर-उधर बहुत ढूँढ़ा, पर कहीं भी उसे न पाकर आख़िर में पागल हो गया।
अब राजा ने रत्नावती से विवाह करना चाहा। रत्नावती ने देखा कि कोई उपाय नहीं बचा है। अगर राज़ी नहीं होगी तो क्या राजा उसे छोड़ देंगे? पर मन में उपाय सोचकर बोली, “अगर राजा इस दासी को अपने श्रीचरण में जगह देंगे तो इससे बढ़कर भाग्य भला और क्या होगा मेरा। झोंपड़ी छोड़कर इतने बड़े राजमहल में रहूँगी। राज्य के राजा को अपने पति के रूप में पाऊँगी। उस भिखमंगे से मेरा क्या वास्ता?”
पर मेरा एक व्रत है। चार महीने तक किसी मर्द की छाँव मेरे शरीर पर नहीं पड़ेगी। हर दिन सुबह दीन-दुखियारों को कुछ दान-ख़ैरात करूँगी। ब्राह्मण को भोजन कराऊँगी, अखंड दीप जलाकर शिव जी को पूजूँगी। इसलिए मुझे कुछ धन दीजिए और एक अलग मकान मेरे लिए बनवा दीजिए। आज से जिस दिन चार महीने पूरे होगे, उस दिन में आपकी रानी बनूँगी। राजा उसकी भोली बातों में आ गए। उन्हें क्या पता था कि इन बातों में कोई पेंच था। गाँव के मुहाने पर एक महल बनवा दिया। दासी, नौकरानी, धन-रत्न सब रखवा दिए। रत्नावती वहीं रहने लगी। पहरेदार लगवा दिए। उधर रत्नावती रास्ता ढूँढ़ने लगी। एक दासी को अपनी तरफ़ करके उसके हाथ नवाब को ख़बर भिजवाई कि, “कल आधी रात को तुम आना, दोनों राज्य छोड़कर चले जाएँगे।”
पहरेदार को यह बात पता चल गई। ठीक समय पर आकर उसी जगह वह छुपकर खड़ा हो गया। दो घोड़े तैयार खड़े थे। एक पर रत्नावती चढ़ी और नवाब को दूसरे पर बैठने का इशारा करके उसने घोड़े की लगाम को ढीला छोड़ दिया। नवाब घोड़े पर चढ़ने जा रहा था कि पहरेदार उसे ढकेलकर ख़ुद घोड़े पर बैठकर घोड़े को चाबुक मारा। रत्नावती तो आगे बढ़ गई थी, इसलिए उसे कुछ पता नहीं चला।
पौ फटने तक वे उस राज्य से दूर एक दूसरे राज्य में पहुँच चुके थे। अब उसने लंबी साँस लेकर पीछे मुड़कर देखा तो उसका गला सूख गया। नवाब वहाँ नहीं था, पहरेदार उसका पीछा कर रहा है। आसमान से गिरे खजूर पर अटके, अब क्या करे। ठीक है जो हो गया सो हो गया। आगे का देखना होगा। ऐसा सोचकर पहरेदार से बोली, “इस विदेश में मैं एक अकेली स्त्री भला क्या कर सकती हूँ? चलो हम दोनों कहीं घर बनाकर साथ रहेंगे।” इसी तरह बातें करते दोनों आगे बढ़ते रहे। सुनसान मैदान था। कहीं कोई घर नज़र नहीं आ रहा था।
रत्नावती बोली, “भूख-प्यास से मेरा बुरा हाल है। गाँव-घर का कोई नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा है। तुम इस ऊँचे पेड़ पर चढ़कर देखो शायद कोई गाँव दिख जाए।” पहरेदार घोड़े से उतरकर बड़ी मुश्किल से पेड़ पर चढ़ा। रत्ना ने देखा कि वह तो लंगड़ा है। तब झट म्यान में से तलवार निकालकर उसके घोड़े पर वार किया, और ख़ुद अपना घोड़ा दौड़ाकर वहाँ से चंपत हो गई। पहरेदार पेड़ पर चढ़कर उसे देखता रह गया।
उस राज्य के राजकुमार और मंत्री का लड़का दोनों दोस्त थे। दोनों में इतना मेल था कि दोनों के बीच से हवा भी नहीं गुज़र पाती। दोनों साथ शिकार करने जा रहे थे। उसी समय देखा कि एक दिव्य सुंदरी घोड़े पर बैठकर सरपट भागी जा रही है। दोनों उसके पीछे घोड़ा दौड़ाने लगे। मंत्री का लड़का आगे बढ़कर रास्ता रोककर खड़ा हो गया। उसके रूप को देखकर दोनों विभोर। राजकुमार बोला, “मित्र, यह युवती सिर्फ़ मेरे लिए है।”
मंत्री का लड़का बोला, “कैसे? मैंने उसे पहले पकड़ा है, इसलिए यह मेरी है। तब दोनों में लड़ाई होने लगी। दोनों का झगड़ा देखकर रत्नावती बोली, “सुनो! मैं जंबूदेश की राजकन्या हूँ। मेरे लायक़ कोई वर न मिलने के कारण, अपना मनपसंद वर ख़ुद ढूँढ़ने निकली हूँ। क़िस्मत से तुम दोनों से भेंट हो गई। तुम दोनों तो सुंदरता में एक से बढ़कर एक हो। अब मैं किसे वरण करूँ? फिर भी जो बुद्धि और बल से श्रेष्ठ होगा, मैं उसे वरमाला पहनाऊँगी। मैं अपना यह रत्न अँगूठी इस कुएँ में डाल रही हूँ। जो उसे पहले लाकर मुझे देगा, मैं उससे शादी करूँगी।”
इतना कहकर उसने अँगूठी निकालकर कुएँ में डाल दी। राजकुमार और मंत्री का बेटा दोनों अपनी पगड़ी-पोशाक निकालकर कुएँ में कूद गए। उधर चालाक रत्ना ने क्या किया कि दोनों के घोड़ों का क़त्ल कर दिया। मंत्री के लड़के की पोशाक में आग लगा दी और राजकुमार की पोशाक ख़ुद पहनकर अपने घोड़े पर चढ़कर वहाँ से उड़नछू हो गई। मंत्री का लड़का और राजकुमार भीगे बदन ऊपर आए तो देखा रत्ना नहीं है। पोशाक नहीं है। दोनों घोड़े मरे पड़े हैं। शर्म से दोनों एक-दूसरे से नज़रें नहीं मिला सके। सिर झुकाकर चुपचाप रहे।
चलते-चलते रत्ना एक अन्य राज्य में पहुँची। भूख से उसका पेट जल रहा था, प्यास से गला सूखने लगा था। गाँव के मुहाने पर स्थित कुएँ से पानी पीकर एक बरगद के पेड़ के नीचे घोड़े को बाँधकर ख़ुद बैठकर सुस्ताने लगी। मन-ही-मन बैठकर सोचने लगी, बुद्धि के ज़ोर से जाने कितनी आपदाओं से बच गई। अब ईश्वर जाने क़िस्मत में और क्या लिखा है?
रत्नावती जिस राज्य में पहुँची थी, वहाँ के राजा की मौत हो चुकी थी। राजा की कोई संतान नहीं थी। अब राजगद्दी पर कौन बैठेगा? हाथी सोने का कलश लेकर एक राज्य से दूसरे राज्य में घूम रहा था। जिसके सिर पर सोने के कलश का पानी हाथी उड़ेलेगा, पूरे राज्य की प्रजा उसे अपना राजा मानेगी। इस तरह पूरी रात बीत चली। हाथी के पीछे लोग चलते रहे। उसी समय हाथी ने जाकर रत्नावती के सिर पर कलश का पानी उड़ेल दिया। लोग जय-जयकार करते हुए रत्नावती को राजा बनाकर राजमहल ले गए। अंदर की बात किसी को पता नहीं थी। रत्नावती राजा बनकर प्रजा को पाल रही थी।
उधर जिस राजा ने रत्नावती का अपहरण करवाया था, वह उसे याद करते-करते पागल समान हो गया। प्रजा ने उस राजा को हटाकर नया राजा चुन लिया। राजगद्दी छिन जाने के बाद वह राजा रत्नावती को ढूँढ़ने निकला। उधर नवाब रत्ना को न पाकर ढूँढ़ता फिर रहा था। दोनों अब साथ मिलकर रत्ना को ढूँढ़ने निकले। रास्ते में चलते-चलते उनकी लंगड़े से भेंट हो गई। उससे सारा हाल सुना। लंगड़ा बोला, “भाई मुझे भी साथ ले चलो। मैं भी तुम लोगों के साथ मिलकर उसे ढूँढूँगा।” इस तरह तीनों ने कुछ दूर चलने के बाद राजकुमार और मंत्री के लड़के को देखा। दोनों पागलों की तरह रत्ना को ढूँढ़ रहे हैं। इन तीनों से सारी बातें सुनने के बाद वे बोले, चलो हम दोनों भी साथ चलेंगे। इसी तरह पाँचों साथ मिलकर आगे बढ़ने लगे। चलते-चलते जिस राज्य में रत्नावती राजा बनकर शासन कर रही थी उस राज्य में पहुँचे।
रत्ना ने संतरी लगा रखा था और आदेश दिया था कि जहाँ से भी कोई विदेशी आए उसे पकड़कर राजमहल ले आना। संतरी इन पाँचों को पकड़कर ले आया। रत्ना ने आड़ में रहकर उन पाँचों को पहचाना।
अपनी एक मूर्ति बनाकर महल के द्वार पर रखवाई थी रत्ना ने। संतरी को कहकर उन सब को उसी मूर्ति के पास भेज दिया। उधर ख़ुद होशियारी से उन सब की बात सुनने लगी कि कौन क्या कह रहा है। वह पाँचों एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे। यह मूर्ति यहाँ कैसे आई? संतरी से पूछा, तो उसने कहा, “यह हमारे नए राजा की मूर्ति है।” उसकी बात सुनकर सब जान गए थे कि रत्ना यहाँ राज कर रही है।
राजा बोले, “तू इतनी चालाक निकली। पहरेदारों की आँख में धूल झोंककर तू भाग गई? तेरे कारण से मेरा मान महल सब गया। आख़िर में अपना राज्य छोड़कर मैं तुझे ढूँढ़ रहा हूँ और तू यहाँ राजा बनकर मौज कर रही है? तुझे अभी सामने पाता तो टुकड़ों में काटकर तेरे ख़ून से माथे पर टीका लगाता। तब जाकर मेरे मन को ठंडक मिलती।”
लंगड़ा बोला, “मुझे पेड़ पर चढ़ाकर तू भाग गई। तुझे सामने पाता तो एक लात में तेरी खोपड़ी उड़ा देता।”
राजकुमार और मंत्री का लड़का बोले, “दोनों मित्रों के बीच झगड़ा लगाकर हमें अपने जाल में फँसाकर तू भाग गई? घोड़ा नहीं, पोशाक नहीं किस मुँह से हम राज्य वापस लौटते? राजा का लड़का, मंत्री का लड़का होकर भी योगी की तरह मारे-मारे फिर रहे हैं। सामने जो पाते तो तुझे भी वैसे ही नंगा करके नाक, कान काटकर एक गाल में चूना दूसरे में कालिख पोतकर राज्यभर में घुमाते।”
नवाब की आँख से बस आँसू बहने लगा। वह रोते हुए बोला, “आहा! तेरे जैसी पत्नी क्या मुझे और मिलेगी? इस राज्य में मेरा और तेरा मिलन होगा नहीं। तेरे लिए मैं गंगा में डूब जाऊँगा।” इतना कहकर उसने मूर्ति को थोड़ा सा सहला दिया और मन मारकर वहीं बैठ गया।
रत्ना ने संतरियों से कहा, जाने किस देश से यह चोर या तस्कर आए हैं। राज्य में उत्पात मचाएँगे, उन्हें बाँधकर ले आओ। पाँचों को बाँधकर लाया गया। राजा की तरफ़ इशारा करके रत्ना बोली, “इसे धीरे-धीरे टुकड़ों में काटकर इसका ख़ून ले आओ, मैं टीका लगाऊँगी।
लंगड़े को दिखाकर बोली, “इसका सिर मेरे सामने ही लात मारकर भुरता बना दो”
राजकुमार और मंत्री के लड़के की तरफ़ इशारा करके बोली, “दोनों के एक-एक गाल की दाढ़ी बनाकर नाक, कान काटकर, एक गाल में चूना और दूसरे में कालिख पोतकर राज्य से बाहर निकाल दो।”
जिसने जैसा कहा था उसका फल उसे वैसे ही मिल गया। नवाब को राजमहल के अंदर ले जाया गया। सुगंधित तेल लगाकर उसे नहलाया गया। पीतांबरी पहनाया गया और चंदन, फूल से उसे सजाकर तैयार कराया गया। फिर राजमहल के इष्ट देवी के मंदिर में उसे ले जाया गया। वहाँ जाकर देवी को प्रणाम क्या करता, सिर से पैर तक वह काँप उठा। अब उसका समय पूरा हुआ। उसे यहीं बलि दे दी जाएगी।
मौत के समय लोग देवी-देवता को याद करते हैं, पर नवाब बस रत्ना का नाम जपने लगा, “तेरा चेहरा मैं देख नहीं पाया। मुझे क्यों छोड़कर चली गई?” उसी समय रत्ना आकर उसके पैरों पर गिर गई।
दिव्य वेशभूषा में थी रत्ना। सोना, चाँदी, हीरा, नीलम जैसे आठ रत्नों के अलंकार से उसका तन झिलमिला रहा था। नवाब को आगोश में लेकर बोली, “ओहो! मेरे लिए जाने कितने दुःख तुमने सहे?” इतना कहकर अपने सिर से मुकुट निकालकर पति के सिर पर पहना दिया। उस दिन से नवाब उस देश का राजा होकर प्रजा को पालने लगा। दोनों सुख से राज करने लगे।
(साभार : ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)