चरित्रहीन (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
Charitraheen (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay
उनतालीस
क्षय रोग से ग्रस्त पत्नी को लेकर उपेन्द्र पाँच-छः महीने तक नैनीताल में रहकर अभी कुछ दिन हुए बक्सर आये हैं। यह है सुरबाला की अन्तिम इच्छा। उस दिन, संध्या के बाद स्निग्ध दीपक के प्रकाश में बड़ी देर तक मौन देखते रहने के बाद यह परलोक की यात्री धीरे-धीरे पति के हाथ पर अपना दायाँ हाथ रखकर बोली, “तुम्हारी बातों पर अब किसी दिन सन्देह नहीं होता। आज मुझे एक बात सच्चाई के साथ बता दोगे? भुलावे में नहीं डालोगे?”
उपेन्द्र ने स्त्री के मुँह पर झुककर कहा, “कौन बात पशु?”
सुरबाला पलभर चुप रहकर बोली, “तुमको मैं फिर पाऊँगी तो?”
उपेन्द्र ने स्त्री के माथे पर से रूखे बालों को हटाकर शान्त दृढ़ स्वर से कहा, “अवश्य पाओगी।”
“अच्छा कितने दिनों में पाऊँगी? मैं तो शीघ्र ही जा रही हूँ, लेकिन उतने दिनों तक कहाँ तुम्हारे लिये बैठी रहूँगी?”
“स्वर्ग में रहोगी। वहाँ से मुझे बराबर देख सकोगी।”
“लेकिन मैं अकेली किस तरह रहूँगी? अच्छा, सभी डाक्टर जवाब दे चुके हैं? ऐसी कोई दवा नहीं है जिससे मैं बचूँ? मेरे चले जाने से तुमको बहुत कष्ट होगा।”
एक बूँद आँसू का जल किसी प्रकार भी उपेन्द्र सम्भाल न सके, टप करके सुरबाला के ललाट पर चू पड़ा।
उसके सम्पूर्ण हृदय को मथ कर शिकवा फूट निकली - भगवान पति के हृदय में तुमने केवल इतना प्यार ही दिया, लेकिन इतनी भी शक्ति नहीं दी कि स्नेहास्पद को एक दिन भी अधिक पकड़ रखें।
सुरबाला अपने दुबले हाथ को उठाकर पति की आँखें पोंछकर बोली, “तुम्हारी रुलाई मैं सह नहीं सकती, मेरी और एक बात मानोगे?”
उपेन्द्र ने गर्दन हिलाकर कहा, “मानूँगा।”
सुरबाला ने कहा, “तब तो मेरी छोटी बहन शची के साथ छोटे बाबूजी का ब्याह कर देना। मैंने बहुत दिनों से उनको देखा नहीं है, दो-चार दिनों में पढ़ाई की कौन बड़ी हानि हो जायेगी, एक बार कलकत्ता से आने के लिए तार दे दो न।”
उपेन्द्र की छाती में फिर एक बाण बिंध गया। दिवाकर को सुरबाला कितना प्यार करती थी, इसे वह जानते थे। पर उसकी अन्तिम इच्छा पूरी करने का कोई उपाय नहीं है, दिवाकर की परम कीत्रि को बहुत दिनों तक उन्होंने अपनी स्त्री से छिपा रखा था, आज भी उसको प्रकट नहीं किया। तार देने के अनुरोध को बातों से बहलाकर बोले, “लेकिन उसके साथ शची का ब्याह करने की राय तो पहले तुम्हारी नहीं थी पशु। केवल मेरी सम्मति से ही अन्त में तुमने अपनी राय दी थी। अब मेरा अपना विचार भी बदल गया है। शची के लिए बहुत अच्छे विवाह सम्बन्ध मैं ठीक कर दूँगा, लेकिन इस ब्याह की आवश्यकता नहीं है सुरो।”
सुरबाला ने कहा, “नहीं, यह नहीं होगा, छोटे बबुआ जी के साथ ही शची का ब्याह कर देना।”
उपेन्द्र आश्चर्य में पड़कर बोले, “क्यों बताओ तो?”
सुरबाला ने कहा, “उसका मुँह देखकर तुम किसी दिन फिर हमारे लिए पराये न हो सकोगे, इसके अतिरिक्त वह मकान में रहेगी तो तुमको भी देख सकेगी।”
उपेन्द्र ने अन्यमनस्क होकर कहा, “अच्छा, यदि असम्भव न हुआ तो कर दूँगा।”
इसके तीन दिन बाद ख़बर पाकर उपेन्द्र के मना करने पर भी माहेश्वरी आ गयी। सुरबाला ने उनकी गोद में सिर रखकर कहा, “मेरे चले जाने पर उनके ऊपर ज़रा निगाह रखना बहन, मैं तो जाती हूँ, वह फिर भी ब्याह न करेंगे, लेकिन भारी कष्ट होगा। तुम सभी लोग उनको देखना, तुम लोगों से यही मेरी अन्तिम विनती हैं” यह कहकर उसकी आँखों से आँसू झरने लगे।
माहेश्वरी उसकी छाती पर औंधी गिरकर रो उठी, मुँह से एक भी बात न निकाल सकी।
इसी प्रकार और भी तीन-चार दिन बीत गये। उसके बाद एक दिन सबेरे पति की गोद में माथा रखकर, समूचे मुहल्ले को शोक-समुद्र में निमग्न करके वह पति-साध्वी स्वर्ग को चली गयी।
उपेन्द्र शान्त और स्थिर भाव से पत्नी का अन्तिम संस्कार पूरा करके महेश्वरी को साथ लेकर अपने घर लौट आये। उपेन्द्र के पिता शिवप्रसाद बाबू पुत्र के लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो गये थे। लेकिन अब लड़के का मुँह देखकर बहुत कुछ आश्वस्त हुए। मन ही मन बोले, “नहीं, जितना मैें डर गया था, उतना नहीं है।” यहाँ तक कि उन्होंने निकट भविष्य में एक और सुन्दर बहू घर में लाने की आशा को भी हृदय में स्थान दिया। लेकिन अन्तर्यामी ने सम्भवतः छिपे रहकर बूढ़े के लिए उस दिन लम्बी साँस ली थी।
कुछ ही दिनों के बाद उपेन्द्र को कोर्ट के लिए घर से निकलते देखकर शिवप्रसाद ने अत्यन्त सन्तोष का अनुभव किया, यहाँ तक कि आनन्द की अधिकता से पुत्र को कुछ क्षण के लिए अपने पास बुलाकर संसार की अनित्यता के विषय में बहुत-सी हितकर बातें कहकर अन्त में बोले, “उपेन्द्र, तुमको और क्या समझाऊँ बेटा, तुम स्वयं ही सब कुछ जानते हो, सब समझते हो। इस संसार में कुछ भी चिरस्थायी नहीं है, आज जो है कल वह नहीं रहेगा, सब ही माया है। इस बात को सदा स्मरण रखना बेटा, कभी भविष्य को नष्ट मत करना। प्राणपण से उन्नति करने का यही तो समय है। कौन किसका है? शास्त्रों में लिखा है, ‘चलाचलमिदम् सर्व कीत्रिर्यस्य स जीवति!’ अर्थात सम्मान कहो, प्रतिष्ठा कहो, सब कुछ है रुपया। रुपया कमाने पर ही सब कुछ निर्भर है। देखो न सतीश के बाबूजी किस प्रकार रुपया रख गये हैं बताओ तो?” यह कहकर गम्भीर भाव से वह सिर हिलाने लगे। उपेन्द्र मुँह झुकाये चुपचाप सब सुनकर ‘जैसी आज्ञा’ कहकर कचहरी चले गये।
कचहरी में सतीश के भैया से भेंट हो गयी। उन्होंने इस दुर्घटना के लिए अत्यन्त दुख प्रकट करके अन्त में सतीश की चर्चा छेड़ दी। उपेन्द्र की धारणा थी कि सतीश पिता की मृत्यु के बाद से घर पर ही है, लेकिन अब उसने सुन लिया कि वह घर पर तो है अवश्य, लेकिन यहाँ नहीं, गाँव के घर पर है। टुनू बाबू सतीश के सौतेले बड़े भाई हैं। किसी दिन भी उन्होंने सतीश को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा, एक घर में रहते हुए भी कभी उसका समाचार तक भी लेने की आवश्यकता उन्होंने नहीं समझी। वस्तुतः सतीश के साथ उनका सम्बन्ध नहीं था, यह कहना भी अनुचित नहीं है। पिता की मृत्यु होने से आधे का हिस्सेदार बनकर वह भैया की और भी विषदृष्टि में पड़ गया है। वह बोले, “इसके बीच ही प्रायः तीस हजार रुपया खर्च करके उसने खूब बड़ी दो डिस्पेंसरियाँ खोल दी हैं, सौ रुपये मासिक वेतन पर डाक्टर रख लिया। इसके अतिरिक्त मकान तक को भी अस्पताल में परिणत कर दिया है।”
उपेन्द्र ने सहज भाव से कहा, “हाँ यह उसकी इच्छा बहुत दिनों से थी, केवल रुपये के अभाव से ही वह इतने दिनों तक यह काम न कर सका था।”
टुनू बाबू ने व्यंग्य करके तनिक हँसकर कहा, “ऐसा तो मुझे भी जान पड़ता है उपेन। लेकिन केवल डिस्पेंसरी खोलने की इच्छा ही तो तुम जानते थे, उसके साधन-भजन का अर्थ तो तुम नहीं जानते भैया।”
उपेन्द्र ने आश्चर्य में पड़कर पूछा, “साधन-भजन कैसा?”
टुनू बाबू बोले, “यही जैसे चक्र, कारण, पंचमकार इत्यादि। केवल फिलानथ्रपिस्ट नहीं है जी, ‘सतीश स्वामी’ अब एक उच्चकोटि के साधक हैं, गेरुआ वस्त्र पहनते हैं, बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूँछ है, रुद्राक्ष की माला, ललाट पर सिन्दूर का तिलक, सदा ही घूमते हुए नेत्र। उसका एक हस्ताक्षर लेने के लिए रासबिहारी को मैंने भेजा था, वह तो डर के मारे दो दिन पास तक जा नहीं सका था, और इस चिट्ठी को पढ़कर देखो, उसके नौकर बिहारी ने मेरे पास लिख भेजी है, अभी तक उत्तर नहीं दिया गया है, इसलिए पाकेट में ही यह घूम रही है।” यह कहकर उन्होंने एक पीले रंग का मुड़ा हुआ काग़ज़ निकालकर उपेन्द्र के सामने रख दिया।
निरुपाय होकर बिहारी ने सतीश के बड़े भाई के पास उपाय करने की याचना करके चिट्ठी लिखवा ली है। आदि से अन्त तक चिट्ठी पढ़ी न जा सकी लेकिन जितनी पढ़ी गयी, उतनी ही ने उपेन्द्र को बड़ी देर तक स्तम्भित कर रखा।
उसके बचपन का सुहृद्, उसका दायाँ हाथ, उसका छोटा भाई, वही सतीश आज अधःपतन के इतनी निम्नस्तर पर उतर गया है कि गाँव में खुले रूप से यह सब वीभत्स कीत्रियाँ करके घूमते रहने में लज्जा अनुभव न कर इस बात पर गर्व कर रहा है कि वह धर्म-साधना कर रहा है। सम्भवतः उस कुलटा दासी से भी सहयोग कर लिया है। इसके अतिरिक्त बिहारी की चिट्ठी के भाव से यह भी समझने में आता है कि गाँव के कुछ निकम्मे लोग भी उसके साथ जुट गये हैं।
उपेन्द्र अन्यमनस्क होकर चिट्ठी पाकेट में डालकर कचहरी से घर लौट आये। टुनू बाबू को लौटा देने की बात उसको स्मरण न रही।
बिहारी ने चिट्ठी डाक में छोड़ दी। आरम्भ में कई दिनों तक वह स्वयं टुनू बाबू की प्रत्याशा में उतावला हो रहा था। बाद को एक उत्तर के लिए अधीर होकर दिन बिताने लगा। लेकिन दिन पर दिन बीत गये, नहीं आये बड़े बाबू, नहीं आया उनका उत्तर।
विशेषतः ‘थाको बाबा’ के अत्याचार से ही बिहारी परेशान हो उठा है। ये हैं तांत्रिक साधु सिद्ध पुरुष। सतीश के मंत्रगुरू हैं। आठों पहर मदिरा और गांजा सेवन करने से स्वभाव दुर्वासा से भी उग्र हो चला है। मुँह इतना खराब हैं कि केवल क्रोध करने की दशा में ही नहीं, उनकी स्वाभाविक मानसिक अवस्था की बातचीत में भी कानों में उँगली देनी पड़ती है।
लेकिन यही है सम्भवतः तांत्रिक सिद्धी का लक्ष्य। इसके अतिरिक्त सतीश के गुरू भी तो हैं। बिहारी अपनी ओर से इनके प्रति कम श्रद्धा-भक्ति नहीं रखता था। लेकिन पहले ही बताया जा चुका है कि सतीश के किसी प्रकार के अनिष्ट की गन्ध पाते ही बिहारी हिताहित का ज्ञान खो बैठता है।
गुरु बाबा के प्रशिक्षण में सतीश और उसके दल के निशीथ की निभृत चक्रसाधना और उससे भी निभृत अनुसांगिक अनुष्ठान इतने दिनों तक बिहारी ने किसी प्रकार सहन कर लिया था, लेकिन जिस दिन मदिरा और गांजा का प्रसाद दिया गया, उस दृश्य को यह बूढ़ा नौकर किसी तरह भी सह न सका। सतीश की अनुपस्थिति में वह कमरे में घुसकर उनकी पदधूलि लेकर हाथ जोड़ भक्तिपूर्वक बोला, “बाबा, आप दिन के समय फिर कभी बाबू को गांजा-शराब मत पिलाइयेगा।”
आग में घृताहुति पड़ गयी। बाबा एक क्षण में सातवें सुर पर चढ़कर चिल्ला उठे, “तू साला मदिरा कहता है!”
बिहारी ने विनीत स्वर से कहा, “क्या जानूँ बाबा, हमारे देश में तो उसे मदिरा ही कहते हैं।”
बाबा ने कहा, “मदिरा! लेकिन साले, इससे तेरा क्या बनता-बिगड़ता है? तू बोलने वाला कौन है!”
बिहारी भी असहिष्णु हो उठा था, उसने भी दृढ़ स्वर से कहा, “मैं हूँ बाबू का नौकर।”
“वाह रे मेरे नौकर!” कहकर बाबाजी अश्लील गाली-गलौज सुनाकर दाँत कटकटाकर बोल उठे, “लेकिन मैं हूँ तेरे बाबू का भी बाबा, यह तू जानता है?”
बिहारी बैठा हुआ था। झटपट उठा और चिल्लाकर बोला, “ख़बरदार! मेरे सामने तुम ये सब बातें मत कहो, बताये देता हूँ।”
थाको बाबा तो योंही दिन-रात प्रायः बदहवास ही रहा करते थे, बिहारी के तिरस्कार से बिल्कुल ही कर्त्तव्य-ज्ञान से शून्य हो गये। बोले, “तू क्या करेगा रे साले!” यह कहकर सामने की खड़ाऊँ उठाकर बिहारी की सिर ताककर उन्होंने ज़ोर से फेंक दिया। बिहारी की नाक से रक्त की धारा बहने लगी और क्षणमात्र में ही उसके हृदय के किसी अज्ञात स्थान से चालीस साल पहले का गरम खून बिल्कुल ही मस्तिष्क में चढ़ गया। पल भर में उसने कमरे के कोने से बाबा का हाथ लम्बा त्रिशूल बाबा के माथे पर तान दिया। डरकर अपने दोनों हाथ सामने रखकर बाबा कुत्ते की तरह चिल्ला उठे और उस अमानुषिक चिल्लाहट से बिहारी भी सम्भल गया। वह हाथ का त्रिशूल यथास्थान रखकर नाक का खून पोंछते-पोंछते चला गया।
एक घण्ठा बीत जाने पर सतीश ने पूछा, “क्या यह सच है?”
बिहारी ने कहा, “हाँ!” लेकिन उसने अपने रक्तपात का उल्लेख नहीं किया।
सतीश क्षण भर चुप रहकर बोला, “तुझे अब मैं इस घर में न रहने दूँगा। दो सौ रुपये लेकर तू अपने घर चला जा, मैं तेरा वेतन हर महीने तेरे घर भेज दिया करूँगा।”
बिहारी ने सिर झुकाकर कहा, “जो आज्ञा!”
उसने दुख प्रकट नहीं किया, क्षमा-याचना नहीं की, दो सौ रुपये चादर के छोर में बाँधकर, मालिक के चरणों की धूलि माथे पर चढ़ाकर संध्या के पहले ही गाँव छोड़कर चला गया।
जब तक वह दिखायी पड़ता रहा, सतीश ऊपर के बरामदे से उसकी ओर निहारता रहा। क्रमशः विधुपाल की दुकान की ओट में जब वह ओझल हो गया तब वह लम्बी साँस लेकर बोला, “जाने दो, इतने दिनों बाद बिहारी भी चला गया!”
इस बार आश्विन के प्रथम सप्ताह में ही महामाया की पूजा है। अभी उसमें विलम्ब है, लेकिन सतीश की मित्र-मण्डली में अभी से ही आलोचना चल रही है कि इस बार देवी की पूजा में क्या-क्या करना चाहिये। महाअष्टमी के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिये। लेकिन भादो के मध्य में मलेरिया का प्रकोप अत्यन्त बढ़ गया। यहाँ तक कि दो-चार सान्निपातिक ज्वर के कारण डाक्टर की भी दौड़-धूप आरम्भ हो गयी।
आज कई दिनों से सतीश की तबियत अच्छी नहीं है। बिहारी जिस दिन चला गया, उसी रात को उसने ज्वर का लक्षण स्पष्ट अनुभव किया। सम्भवतः एकादशी के कारण ऐसा हो गया है सोचकर उसने दूसरे दिन सबेरे उसे उड़ा देना चाहा, लेकिन जो यथार्थ में है, जिसका भार है, उसे इस तरह सहज में उड़ाया नहीं जा सकता। सारा दिन उसको मानना ही पड़ा कि वह स्वस्थ नहीं है।
तीनों दिनों के बाद पूर्व प्रथानुसार चतुर्दशी की रात को ही धूमधाम से पूजा की तैयारी हुई थी, लेकिन सतीश ने स्वयं सम्मिलित होना अस्वीकार किया। तीसरे पहर गुरु बाबा ने आकर सतीश के माथे पर शान्ति का जल छिड़ककर कमण्डल दिखाकर हँसते हुए कहा, “बेटा, इस पर यम का भी अधिकार नहीं है। इसके अतिरिक्त तुम्हीं तो मूलाधार हो, तुम्हारे न रहने से तो सब ही चौपट है।”
गुरुजी की बात को सतीश टालता नहीं था। इसीलिए अपनी इच्छा के विरुद्ध ही वह सहमत हो गया। वास्तव में बिहारी को विदा करने के बाद से कुछ भी उसे अच्छा नहीं लग रहा था। यद्यपि किसी प्रकार उसको विश्वास नहीं होता था कि बिहारी बिल्कुल ही चला गया है, फिर न आयेगा, तथापि जितना शीघ्र हो सके, उसको फिर पाने के लिए उसका हृदय व्याकुल हो उठा। इसके अतिरिक्त एक और चिन्ता उसको भीतर-ही-भीतर कष्ट दे रही थी। कौन जाने, बिहारी अपने घर ही गया है या हम लोगों के पश्चिम वाले मकान पर गया है। कहीं ऐसा न हो कि सारी बातों का प्रचार करके कोई बखेड़ा मचाने की चेष्टा कर रहा हो या और कोई चाल चल रहा हो। जो भी हो, उसे फिर एक बार आँखों से देखे बिना सतीश किसी प्रकार भी चैन नहीं पा रहा था।
संध्या के पूर्व ही दुमंजिले के कमरे में एकर्ता होकर दो-एक प्याले पी लेने पर सतीश का वह निर्जीव भाव कट गया था। लेकिन फिर भी हृदय की ग्लानि उसे भीतर-ही-भीतर पीड़ा दे रही थी। ठीक उसी समय पास के कमरे में बिहारी की आवाज़ सुनकर सतीश पुलकित हो उठा और आश्चर्य से चौंक पड़ा।
उसने पुकारा, “बिहारी है क्या रे?”
बिहारी दरवाज़े के निकट आकर श्रद्धा के साथ बोला, “जी हाँ, क्या आज्ञा हैं?”
गुरु बाबा का चेहरा काला पड़ गया। उन्होंने कहा, “यह कमबख़्त फिर आ गया बेटा? साला इस कमरे में घुस क्यों आया?”
इसी कमरे में उनके निथीशचक्र का आयोजन हो रहा था।
सतीश ने इन सब प्रश्नों का उत्तर न देकर बिहारी से पूछा, “क्या तू अपने घर नहीं गया था रे?”
“जी नहीं, मैं काशी गया था।”
“काशी? काशी क्यों गया था?”
“माँजी को लाने।”
सतीश चौंक उठा। बिहारी किसको ‘माँ’ कहता है, सतीश यह जानता था। उसने कहा, “वह क्या काशी में रहती है?”
“जी हाँ!”
“तू उसका पता-ठिकाना जानता था?”
बिहारी ने कहा, “नहीं! लेकिन मैं जानता था, माँजी जहाँ कहीं भी क्यों न हों, विश्वनाथ बाबा के मन्दिर में किसी दिन भेंट हो ही जायेगी।”
“भेंट हुई थी?”
“जी हाँ!”
सतीश के हृदय के अन्दर हलचल-सी मचने लगी। कुछ क्षण शान्त रहकर अपने को सम्भालकर रूखे स्वर से उसने कहा, “लेकिन मुझे ख़बर न देकर वहाँ जाना तेरा अच्छा काम नहीं हुआ। उन स्त्रियों में मान-सम्मान, लज्जा-शरम कुछ भी नहीं है। तेरे जैसे अहमक को पाकर यदि वह तेरे साथ चली आती, तो आज तू किस विपत्ति में पड़ जाता, बता तो?”
बिहारी चुपचाप खड़ा रहा।
सतीश तब आप ही आप फिर कहने लगा, “घर में घुसने तो देता ही नहीं फाटक के बाहर से ही दरबान में निकलवा देता। उसको लेकर इतनी रात को तू कैसी विपत्ति में पड़ जाता, सोच तो ले भला, क्या अकारण ही लोग तुझे गँवार ग्वाला कहते हैं। कालीचरण, ज़रा ठीक से एक प्याला दे देना भैया।”
आज्ञा मिलते ही कालीचरण ने मूलसाधक के हाथ में एक प्याला दे दिया।
बिहारी ने कहा, “बाबू, माँजी आपको बुलाती हैं।”
सतीश प्याला मुँह में लगाने जा रहा था। चौंककर बोला, “कौन बुला रही है? तूने क्या कहा है?”
बिहारी बोला, “माँजी।”
सतीश हतबुद्धि की भाँति हाथ की प्याली को पीकदानी में उड़ेलकर बोला, “तेरे साथ आयी है क्या? तो तूने पहले क्यों नहीं बताया?”
बिहारी ने उसका उत्तर न देकर फिर कहा, “वह इसी क्षण आपको बुला रही हैं।”
सतीश ने धीमे स्वर में कहा, “तू जाकर कह दे बिहारी, बाबू को बुखार आ गया है, इसीलिये बाहर के कई इष्ट-मित्र उनको देखने आये हैं। आध घण्टे बाद आऊँगा, जा कह दे।”
बिहारी ने अपने हाथ से दरवाज़े की ओर संकेत से दिखाकर धीरे से कहा, “माँजी यहीं तो खड़ी हैं, एक बार बाहर चले आइये।”
सतीश ने चौंककर उँगली के संकेत से पूछा, “इसी कमरे में?”
बिहारी ने गर्दन हिलाकर कहा, “हाँ, यहीं तो हैं।”
सतीश झटपट दो-चार लौंग-इलायची मुँह में डाल उठ पड़ा। धीरे-धीरे बाहर जाकर उसने देखा कि उसके पास के दरवाज़े की आड़ में ही सावित्री के आँचल का छोर दिखायी पड़ रहा है। वह अपने कानों से सब बातें सुन चुकी है, इसमें कुछ भी सन्देह उसे नहीं रहा। उसकी इच्छा हो रही थी कि मूर्ख बिहारी के गाल पर अच्छी तरह दो थप्पड़ जमा दे। सावित्री ने झाँककर धीरे से कहा, “भीतर आओ!”
इस कण्ठ-स्वर के सुर से मानो उसके हृदय के सब तार बँधे थे। सभी एक ही साथ बज उठें। उसके कमरे में घुसतें ही सावित्री ने कहा, “तुम कह रहे थे कि बुखार हो आया है?”
सतीश ने सिर हिलाकर कहा, “बुख़ार तो आ ही गया है!”
“कहाँ, देखूँ?” कहकर सतीश के पास आकर हाथ बढ़ाकर उसके ललाट का ताप अनुभव करके वह चौंक पड़ी। बोली, “हाँ सचमुच ही बुखार है। शरीर मानो जल रहा है। आओ, मैं बिछौना बिछा देती हूँ, चलो कमरे में सो रहो। बिहारी, बाबू के कमरे में जाकर बत्ती जला दे।” यह कहकर तिमंजिलें की सीढ़ियो की ओर बढ़ चली। उसने इसघर में आते ही बाबू का शयन-गृह बिहारी से पूछ लिया था।
पलंग पर बिछौना तैयार ही था। केवल आँचल से ज़रा झाड़ते ही सतीश शान्त बालक की भाँति नेत्र बन्द करके लेट गया। सिरहाने और पैरों की ओर की दोनों खिड़कियाँ बन्द करके उसने बिहारी से पूछा, “साधु बाबा किस कमरे में रहते हैं?”
बिहारी के पास का कमरा दिखा देने पर सावित्री ने कहा, “उनकी क्या-क्या वस्तुएँ हैं, वहाँ नीचे रख आओ बिहारी। बाहर तो कितने ही कमरे खाली पड़े हैं, उनमें से किसी एक में वह खूब अच्छी तरह रह सकते हैं।” बिहारी चला जा रहा था। सावित्री ने पुकारकर कहा, “और बाबू को जो लोग देखने आये थे, उनको भी जाने को कह देना। कहना, बाबू को
खूब ज्वर आया है, अब नीचे उतर न सकेंगे।”
सतीश किसी बात में भी सम्मिलित नहीं हआ। मुँह छिपाये लेटा रहा।
बिहारी वीर की भाँति दर्प दिखाता हुआ आदेश का पालन करने चल पड़ा। उसके चले जाने पर सावित्री ने कहा, “अब तुम उठना मत। मैं खाने-पीने की व्यवस्था ठीक करके आती हूँ।” यह कहकर द्वार बन्द करके वह दबे पाँव चली गयी। उसे भय था कि साधु बाबा विद्रोह कर बैठेंगे। इसीलिये वह छिपे तौर से दरवाज़े की आड़ में जा खड़ी हुई थी।
दूसरे ही क्षण उस ओर के दरवाज़े से प्रवेश करके बिहारी ने ज़ोर से कहा, “माँजी ने कहा, है, आप लोग घर चले जाइये। बाबू का ज्वर बढ़ गया है, आज वह नीचे न उतरेंगे।” फिर बाबाजी को लक्ष्य करके बोला, “महाराजजी, तुम्हारी चीज़-वस्तु, नीचे निवारण के कमरे के पास वाले कमरे में रख देने की आज्ञा माँजी ने दे दी है। तुमको वहीं रहना पड़ेगा।”
बाबा ने उग्रता नहीं दिखायी। उन्होंने शान्त भाव से पूछा, “माँजी कौन हैं बिहारी?”
बिहारी ने कड़े स्वर से उत्तर दिया, “इस पूछताछ की तुम्हें क्या आवश्यकता है, महाराजजी? जो कह रहा हूँ, वही करो।” मन-ही-मन बोला, ‘कौन है, इसका पता तुमको लग जायेगा। बिना पैसा खर्च किये ही शराब-गांजा पीकर खड़ाऊँ मारने की कसर कल मैं निकालूँगा।’
सभी हतबुद्धि बुद्धि की भाँति एक-दूसरे के मुँह की ओर ताकने लगे और उठने की तैयारी करने लगे। कोई भी समझ न सका कि क्या बात है। लेकिन आदेश जब सच्चे आदेश के रूप में अकुण्ठित रूप से निकल आता है, तो वह किसी के ही मुँह से क्यों न आया हो, लोग निश्चित रूप से समझ जाते हैं कि उसको न मान लेने से काम नहीं चलेगा।
बिहारी ने रसोईघर में जाकर देखा सावित्री रसोइया महाराज से दूध गरम कराने का उद्योग कर रही है। उसने कहा, “रात हो गयी, अभी तक तो तुमने स्नान-संध्या पूजा नहीं की। दिन भर गाड़ी में एक बूँद पानी तक तुमने नहीं पिया। चलो, पहले तुमको स्नान की जगह दिखा दूँ तब तक बाबू का दूध गरम हो जायेगा।” यह कहकर वह सावित्री को एक प्रकार बलपूर्वक ही ले गया।
उसको भेजकर बिहारी ने बाबू के लिए तम्बाकू चढ़ाया। हाथ में गुड़गुड़ी लेकर चुपके से किवाड़ ठेलकर बाबू के कमरे में चला गया। सतीश चुपचाप पड़ा हुआ था। आँखें खोलकर बोला, “कौन? बिहारी है क्या?”
“हाँ बाबू, तम्बाकू चढ़ाकर लाया हूँ।”
“यहाँ आ। वह कहाँ है रे?”
बिहारी ने कहा, “अभी तक एक बूँद पानी उनके मुँह में नहीं गया है। इसीलिए जबरन स्नान करने के लिए भेजकर तब आया हूँ बाबू!”
सतीश ने कहा, “अच्छा किया है लेकिन तुझे मैं ढूँढ रहा था बिहारी।”
बिहारी घबरा उठा, “क्यों बाबू, इस समय तबियत कैसी है?”
सतीश ने सिर हिलाकर कहा, “अच्छी नहीं बिहारी। इसलिए मैं तुझे ढूंढ रहा था। दरवाज़े में सिटकनी लगाकर मेरे पास आकर ज़रा बैठ।”
बिहारी दरवाज़ा बन्द करके शंकित चित्त से मालिक के पैरों के पास आकर भूमि पर घुटने के बल बैठ गया।
सतीश ने पूछा, “अच्छा बिहारी, तू ग्रहकोप मानता है?”
बिहारीने आश्चर्य से कहा, “ग्रहकोप? ग्रहों का कोप भला मैं न मानूँगा? पोथी-पत्र का लिखा क्या कभी झूठ हो सकता है बाबू?”
सतीश ज़रा चुप रहकर बोला, “इस बार मेरा एक बहुत बड़ा ग्रहकोप है बिहारी।”
बिहारी सिहर उठा, बोला, “नहीं, नहीं, ऐसी बात आप मत कहिये बाबू।”
सतीश ने दो बार सिर हिलाकर कहा, “मुझे पता लग गया है बिहारी, यह ज्वर मेरा अन्तिम ज्वर है, इस बार मैं बचूँगा नहीं।”
पलभर में बिहारी मालिक के दोनों पैर पकड़कर बोल उठा, “इस बात को मुँह से मत निकालिये बाबू, आपकी सारी विपत्ति लेकर मैं ही मर जाऊँ तो ठीक हो। मेरी परमायु लेकर आप जीवित रहिये बाबू, नहीं तो हम सभी लोग मर जायेंगें।” यह कहते-कहते बिहारी ज़ोर से रोने लगा।
सतीश ने गम्भीर होकर कहा, “मरने-जीने की बात तो ठीक बतायी नहीं जा सकती बिहारी, यदि मैं न भी बचूं, तुझसे मैं जो कुछ पूछता हूँ, सच-सच बतायेगा तो?”
बिहारी ने रोते-रोते कहा, “मैं आपके पाँव छूकर, शपथ खा रहा हूँ बाबू, एक भी बात मैं झूठ न बोलूँगा।”
“ कुछ भी तू छिपायेगा नहीं, बता।”
“नहीं बाबू, कुछ भी नहीं।”
तब सतीश ने कहा, “अच्छा बैठ जा।”
बिहारी आँखें पोंछकर अपनी जगह पर बैठ गया। सतीश ने पूछा, “सावित्री तुझे कहाँ मिली, बता तो?”
“यह तो मैं कह चुका हूँ, काशी में।”
“वहाँ विपिन बाबू के साथ तेरी भेंट हुई थी?”
बिहारी जीभ काटकर घृणा के साथ बोल उठा, “राम! राम वह हरामज़ादा हम लोगों का कौन है कि उससे भेंट होती बाबू।”
सतीश ने कहा, “लेकिन तूने तो अपनी आँखों से उनको उसके बिछौने पर...!”
बिहारी ने दोनों हाथ उठाकर सतीश की बात पूरी भी न होने दी। एकाएक अत्यन्त उत्तेजित होकर अपने गालों पर, मुँह पर कई चपतें जड़कर कहने लगा, “उसका दण्ड यही है! यही! यही! तो भी बिना जाने ही कह दिया था इसलिए अब पाँच आदमियों के सामने मुँह दिखा सकता हूँ, नहीं तो मेरी यह जीभ इतने दिनों में सड़कर गिर गयी होती।”
सतीश ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “क्या हो गया रे तुझे!”
बिहारी तब लज्जित होकर स्थिर भाव से बैठ गया और एक-एक करके सारी बातें कहने लगा। कुछ भी उसने बढ़ाया नहीं। एक बात भी छिपायी नहीं।
स्वयं जो कुछ जानता था, मोक्षदा के मुँह से, चक्रवर्ती से जो कुछ सुन चुका था, सावित्री से जो-जो बातें जान सका था, सब एक-एक करके उसने स्पष्ट रूप से सुना दीं।
सतीश पत्थर की मूर्ति की भाँति स्तब्ध होकर बैठा रहा। बिहारी के मुँह में भी अब कोई बात नहीं रही।
बहुत देर के बाद सतीश ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, “इतने दिनों से ये सब बातें तूने बतायी क्यों नहीं बिहारी?”
बिहारी ने कहा, “कितने ही दिनों से बताने के लिए मेरी छाती मानो फटती जा रही थी बाबू, लेकिन किसी तरह मुँह खोल नहीं सकता था।”
“क्यों, सुनूँ तो?”
‘माँजी ने ही सिर की शपथ दिलाकर मना कर दिया था बाबू।”
सतीश फिर कुछ देर चुप रहकहर बोला, “अच्छा, मान लेता हूँ कि यही बात है, लेकिन उस दिन रात को सावित्री अपने ही मुँह से कह गयी थी कि वह विपिन के अतिरिक्त और किसी को नहीं चाहती, उनके ही साथ वह चली जा रही है। उसका क्या अर्थ है बताओ तो?”
बिहारी बोला, “यह बात मैं स्वयं भी समझ नहीं सकता बाबू। फिर भी मैं ठीक जानता हूँ यह झूठ है! झूठ! बिल्कुल झूठ है! यदि यह झूठ न हो तो मेरा एक भी लड़का न बचे बाबू। माँजी के जाते समय रोकर मैंने कहा था - क्यों इस मिथ्या कलंक के बोझ को तुमने स्वयं ही अपने सिर पर उठा रखा माँ? तो भी माँजी ने मुझे बता देने की आज्ञा नहीं दी स्वयं भी रोते-रोते उन्होंने मुझसे कहा - बिहारी, मेरे सिर की शपथ है भैया, ये सब बातें बाबू से तुम मत कहना। वे मुझसे घृणा करें, और कभी मेरा मुँह न देखें वही मेरे लिए अच्छा होगा, तो भी उनसे मत बताना कि मैं अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारकर चली जा रही हूँ।”
यह कहकर उस रात की करुण स्मृति की पीड़ा से बिहारी टपटप आँसू गिराकर रोने लगा।
लेकिन स्वामी की आँखों से भी आँसू की धारा बह रही थी, बूढ़ा नौकर यह देख न सका।
बहुत देर बाद सतीश ने धीरे से आँसू पोंछकर कहा, “तू समझ नहीं सकता बिहारी, लेकिन मैं समझ गया हूँ कि किसलिए उसने अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मार दी थी। लेकिन असत्य की तो जीत नहीं होती बिहारी।”
तभी द्वार पर हाथ का आघात पड़ा, “यह क्या! दरवाज़ा बन्द करके सो गये क्या? सिटकनी खोल दो।”
बिहारी ने स्वामी के मुख की ओर देखा। लेकिन स्वामी नेत्र बन्द करके चुपचाप लेटे रहे।
बाहर से फिर आवाज़ आयी, “दरवाज़ा खोल न। हाथ जल गया है।”
बिहारी ने उठकर दरवाज़ा खोल दिया और वहाँ से चुपचाप चला गया।
चालीस
कटोरी में गरम दूध लिए सावित्री ने कमरे में आकर तिपाई पर झट से रख दिया। वह सफ़ेद चमकती हुई रेशमी साड़ी पहने थी, स्नान करने से लम्बे भीगे बाल पीठ पर लहराकर नीचे लटक रहे थे, कई छोटी-छोटी लटें मुँह पर ललाट पर आ पड़ी थीं। सतीश ने कनखियों से उसको देखा। उसको एकाएक जान पड़ा मानो उसने सावित्री को आज ही पहले-पहल देखा हो।
लेकिन वह सतीश के भीगे नेत्रों को उस दीपक के क्षीण प्रकाश में देख न सकी। तनिक और भी उसके निकट आकर मुस्कराकर बोली, “दरवाज़ा बन्द करके मालिक-नौकरों में क्या परामर्श हो रहा था, सुनूँ तो! इस बेहया आफत को किस प्रकार बाहर निकाल दिया जाय, यही न?”
सतीश कुछ नहीं बोला। कहीं बातें कहने से भीतर की दुर्बलता पकड़ में न आ जाये, इस भय से वह चुप ही रहा।
सावित्री ने कहा, “बचपन में बिल्ली के गले में घण्टी बाँधने की कहानी तुम पढ़ चुके हो न? मैं भी देखना चाहती हूँ कि घण्टी बाँधने के लिए कौन आगे आता है। तुम स्वयं या तुम्हारे वह साधूजी?”
इस पर भी सतीश ने कोई बात नहीं कहीं, जैसे चुप पड़ा था वैसे ही पड़ा रहा।
एक कुर्सी खींचकर सावित्री पास ही बैठ गयी। लेकिन इस बार उसका परिहासयुक्त स्वर गम्भीर हो उठा। बोली, “तमाशा छोड़ो। बात क्या है मुझे समझा सकते हो, उपेन भैया के साथ तुमने झगड़ा किया, अन्त में सुनती हूँ कि सरोजिनी के साथ भी झगड़ा करके तुम चले आये। वह तो किसी दिन मिट ही जायेगा, मैं जानती हूँ। लेकिन यह क्या हो रहा है। मेरा शरीर छूकर तुमने शपथ खायी थी, शराब न छुओगे। शराब तो भाड़ में जाये, गांजा भी पीने लगे हो। वह भी लुक-छिपकर साधारण रूप से नहीं, कितने ही अभागों के झुण्ड बटोरकर गेरुआ वस्त्र पहनकर तंत्र-मंत्र का ढोल पीटकर खुल्लम-खुल्ला छाती फुलाकर पीना चल रहा है।”
सावित्री के मुँह से सरोजिनी का नाम सुनकर सतीश का शरीर जल उठा। वह समझ गया कि बिहारी ने कुछ भी बताना शेष नहीं छोड़ा है। एक बार उसके होंठों पर यह बात आयी कि - तुम्हारे ही कारण मेरा यह सर्वनाश हुआ है। तुम ही मेरे शनिग्रह हो! लेकिन उस बात को दबाकर गम्भीर स्वर से उसने संक्षेप में कहा, “छाती फुलाकर शराब-गांजा पीने में दोष क्या है?”
“दोष क्या है, तुम नहीं जानते?”
“नहीं।”
“अच्छा, यदि नहीं जानते, तो यह तुम जानते हो कि मेरा शरीर छूकर तुमने प्रतिज्ञा की थी कि नहीं पियोगे?”
“तुम मेरी कौन हो कि कभी बरबस मुझे शपथ खिला ली थी तो वही एक बड़ी बाधा हो गयी।”
सावित्री ने किसी प्रकार हँसी दबाकर सिर हिलाकर कहा, “कोई नहीं हूँ मैं? बिल्कुल ही कोई नहीं?”
सतीश ने भी सिर हिलाकर कहा, “नहीं।”
“फिर शराब का गिलास पीकदानी में उँड़ेलकर इलायचीदाने चबाते-चबाते क्यों चले आये थे?”
“केवल तुम बकने-झकने लगोगी, इसी भय से।”
सावित्री ने हँसकर कहा, “फिर भी सावित्री कोई नहीं है। अच्छा, अब तनिक दूध पीकर सो जाओ।” यह कहकर वह उठ पड़ी और दूध की कटोरी हाथ में लेकर सतीश के सामने आ खड़ी हुई। सतीश ने आपत्ति नहीं की। वह उठ बैठा और सब दूध पीकर सो रहा। सावित्री कटोरी हाथ में लिए चली जा रही थी। सतीश ने पुकारकर पूछा, “तुम्हारी संध्या-पूजा हो चुकी?”
सावित्री ने घूमकर कहा, “हाँ।”
“क्या खाया?”
“अभी तक खाया नहीं। अब जाकर खा लूँगी।”
“सोओगी कहाँ?”
“देखती हूँ, फाटक के बाहर कोई स्थान है या नहीं, न होगा तो पेड़ के नीचे सो रहूँगी।”
यह कहकर वह आप ही आप हँसकर बोली, “अच्छा, यह बात मुँह से निकालते तुम्हें तनिक भी कष्ट नहीं होता? धन्य हो तुम!” यह कहकर अत्यन्त स्नेह से सतीश के ललाट पर लटके हुए बालों को हाथ से हटाते समय उसके ललाट का ताप अनुभव कर वह चौंक पड़ी। बिहारी ने कमरे में घुसते ही पूछा, “माँजी, तुम्हारा बिछौना...।”
सावित्री ने पास के कमरे को दिखाकर कहा, ‘इसी कमरे में मेरा बिछौना ठीक कर दो बिहारी, बाबू का ज्वर कुछ अधिक जान पड़ रहा है। मैं इसी पास वाली कोठरी में सोऊँगी। बीच का दरवाज़ा खुला रहेगा - तुमको भी आज इस कमरे के फ़र्श पर सोना होगा।”
सतीश से उसने कहा, “अब रात को जागते मत रहो तनिक सोने की चेष्टा करो।”
यह कहकर वह धीरे-धीरे द्वार बन्द करके चली गयी।
थोड़ी देर बाद साधारण-सा कुछ खा-पीकर सावित्री लौट आयी। वह पास वाली कोठरी मे ही एक चटाई बिछाकर लेट रही और उसकी दोनों थकी आँखें देखते-देखते गाढ़ी नींद से मुँद गयी।
बड़े तड़के ही नींद टूट जाने पर हड़बड़ाकर सावित्री उठ पड़ी और उस कमरे में जाकर उसने देखा कि सतीश पीड़ा से छटपटा रहा है। ललाट पर हाथ रखकर उसने देखा ज्वर के ताप से जल रहा है। उसके शीतल स्पर्श से सतीश ने आँखें खोल दीं। उसकी दोनों आँखें अड़हुल के फूल की तरह लाल हो उठी थीं।
ज्वर की दशा देखकर सावित्री भय के मारे उसी बिछौने पर झट से बैठ गयी, पूछने की शक्ति उसमें नहीं रह गयी थी।
सतीश ने उसका हाथ खींचकर अपने जलते हुए ललाट पर रखकर कहा, “मैं कल ही जान गया था। कल ही मैंने बिहारी से कहा था - यही ज्वर मेरा अन्तिम ज्वर है - इस बार न बचूँगा।”
ज्वर की पीड़ा से उसने इस प्रकार ये बातें हाँफते-हाँफते कहीं कि उसे सान्त्वना देने की बात तो दूर रही, रुलाई न रोक सकने के कारण सावित्री का ही गला रुँध गया। वह सारी रात निश्चिन्त होकर सोती रही इसी कारण मन ही मन सिर पीट लेने की इच्छा हुई। सतीश ने कहा, “मुझे यही एक भरोसा है कि तुम मेरे पास हो।” यह कहकर वह करवट बदलकर लेट रहा।
कल रात को उसने जिसको अभिमान और स्पद्र्धावश कहा था, “तुम मेरी कौन हो?” वह आज उसका सबसे बड़ा अवलम्ब है।
लेकिन थोड़ी देर बाद सतीश ने फिर करवट बदली। फिर सावित्री का हाथ खींचकर अपनी छाती पर रखकर बोला, “मैंने भी तो कुछ डाक्टरी पढ़ी है। मैं निश्चित जानता हूँ कि उस समय तक मुझे यह ज्ञान न रहेगा, लेकिन अभी तक मुझे खूब होश है, लेकिन इतना ज्ञान फिर मुझे न रह जाये तो उपेन भैया से कहना, उस दराज़ में मेरा वसीयतनामा है। मैं जानता हूँ वह मेरा मुँह न देखेंगे, लेकिन यह भी जानता हूँ कि मेरी मृत्यु के बाद वह मेरी अन्तिम इच्छा का अपमान भी न करेंगे। सावित्री, संसार में तुम्हारे अतिरिक्त उनसे बढ़कर मेरा और कोई स्वजन सम्भवतः नहीं है।”
वसीयतनामे का नाम सुनकर सावित्री आत्मविस्मृत सी हो गयी। इतने दिनों के उसके संयम का बाँध क्षणभर के आवेश में ही टूट गया। सतीश की छाती पर माथा रखकर वह बच्चे की तरह रोने लगी।
बिहारी लगभग सारी रात जागता रहा और भोर में सो गया था। वह चौंककर उठ बैठा और हतबुद्धि की भाँति निहारता रहा।
तब सतीश ने दोनों हाथों से बलपूर्वक सावित्री का मुँह ऊपर उठाया और क्षणभर टकटकी बाँधे निहारता रहा और उसकी दोनों आँखों से बहते हुए आँसू के श्रोत को अपने आग की तरह जलते हुए होठों से पोंछकर चुपचाप पड़ा रहा।
उसका मुँह, उसकी ठुड्डी दोनों सावित्री के अश्रुप्रवाह से डूब जाने लगे। उस प्रवाह ने उसके प्रचण्ड ज्वर के ताप को भी कितना शीतल कर दिया, यह अन्तर्यामी से छिपा नहीं रहा, लेकिन संसार में उस बूढ़े बिहारी के विस्मय-विमुग्ध नेत्रों के अतिरिक्त उसका अन्य कोई साक्षी नहीं रहा।
बाहर शरत का स्निग्ध प्रवाह उस समय प्रकाश से खिलखिला रहा था। सावित्री अपने को सम्भालकर उठ बैठी और आँचल से अपने नेत्र पोंछकर प्रियतम के मुँह से आँसू के चिद्द यत्नपूर्वक पोंछ डालने के बाद उठकर उसने कमरे के सब दरवाज़े और खिड़कियाँ खोल दीं। खोलते ही सुनहरी किरणों से सारा कमरा भर उठा।
बिहारी के नेत्रों से उस समय आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें झर रही थीं। सावित्री अपने मुँह का भाव सम्भालकर सहज कण्ठ से बोली, “डर क्या है बिहारी, मेरे रहते उनको कोई भय नहीं है, बाबू अच्छे हो जायेंगे। मैं बाबू के कपड़े बदलकर बिछौना बदल दूँ, तब तक तुम डाक्टर साहब को बुला लाओ।” यह कहकर वह फिर लौट गयी।
डिस्पेंसरी के डाक्टर साहब आकर भली प्रकार सतीश की जाँच करके मुँह बिगाड़कर बोले, “यह तो निमोनिया के लक्षण देख रहा हूँ। डर नहीं है, रोग अभी तक बढ़ा नहीं है।”
सान्त्वना देकर डाक्टर साहब अपने हाथों से दवा तैयार करने के लिए नीचे चले गये। सतीश ने पीड़ा से तनिक हँसकर सावित्री के मुँह की ओर देखकर कहा, “मैं तिलभर भी नहीं डरता।” यह कहकर तकिये के नीचे से चाभियों का गुच्छा निकालकर, दिखाकर उसने कहा, “इसे पहचान सकती हो सावित्री? अपनी इच्छा से किसी दिन जिसे तुमने आँचल से बाँधा था, आज मैं ही तुम्हारे आँचल में बाँध देता हूँ।” यह कहकर सावित्री के आँसू से भीगे आँचल को खींचकर धीरे-धीरे चाभियों का गुच्छा उसने बाँध दिया। फिर सन्तोष की साँस लेकर करवट बदलकर वह लेटा रहा।
सावित्री पर बिहारी का दृढ़ विश्वास था। उससे सान्त्वना पाकर वह प्रफुल्ल हो उठा, लेकिन वह तो कोई लड़का था नहीं। कुछ ही दिनों के बाद सावित्री का मुख देखकर वह मन ही मन डर गया। वह स्पष्ट देख रहा था इस कर्मनिष्ठ सहनशील रमणी के शान्त मुख पर एक पीली छाया क्रमशः गाढ़ी होती जा रही है।
आठ-दस दिनों के बाद एक दिन संध्या को सावित्री को एकान्त में पाकर उसने स्वाभाविक कण्ठ से पूछा, “माँजी, इस बूढ़े को भुलावे में डालकर क्या होगा? तुम्हारा वह कोमल हृदय जो कुछ सह लेगा उसको क्या इस बूढ़े की हड्डी न सह पायेगी? इससे तो यही अच्छा है कि सब बातें मुझसे खोलकर कह दो, मैं देखूँ यदि कुछ उपाय कर सकूँ।”
सावित्री ने स्थिर रहकर कहा, “तुमको अभी तक मैंने बताया नहीं बिहारी, लेकिन तुम्हारे नाम से उपेन बाबू के पास आज सबेरे मैंने चिट्ठी लिख दी है। दो दिन प्रतीक्षा करके देखती हूँ, यदि वह न आवें तो तुमको स्वयं एक बार उनके पास जाना होगा बिहारी।”
बिहारी ने उत्कण्ठित होकर कहा, “मुझसे पूछे बिना यह काम तूने क्यों किया माँ?”
“क्यों बिहारी, क्या वह न आवेंगे?”
बिहारी ने सिर हिलाकर धीरे से कहा, “वह आ भी सकते हैं, लेकिन एक बार मुझसे क्यों नहीं बता दिया माँ?”
“क्यों बिहारी?”
बिहारी संकोच से चुप रह गया। बात कहना आवश्यक था, लेकिन वह अत्यन्त अपमानजनक बात उसके मुँह से सहसा बाहर न निकल सकी।
सावित्री ने कहा, “इस समय उनका आना बहुत ज़रूरी है बिहारी!”
बिहारी ने बड़े कष्ट से संकोच दूर करके कहा, “यह तो मैं जानता हूँ माँ, लेकिन तुम्हारे उनके पास न रहने पर संसार के सब लोग यदि बाबू का बिछौना घेरे रहें तो भी उनको बचाया न जा सकेगा, इस बात पर तुम विचार क्यों नहीं करती माँ?”
सावित्री ने कहा, “मैंने सोचा है बिहारी। मैं घर में जहाँ भी हो, छिपी रहकर अपना काम करती रहूँगी, उपेन बाबू के आये बिना काम न चलेगा। इस विपत्ति में भला-बुरा भी क्या मैं नहीं समझती हूँ? नहीं, बिहारी, उनको आने दो।”
बिहारी ने सिर हिलाते हुए कहा, “उपेन बाबू की बात तो मैं नहीं जानता लेकिन बाबू की बात जानता हूँ। मैं मूर्ख अवश्य हूँ, लेकिन इन साठ वर्षों से तो संसार देख रहा हूँ! कितने पुरुष तुमसे अधिक भली-बुरी बात समझते हैं माँ? इसे जाने दो, तुम्हारे उनके पास से इस बार दूर जाने पर बाबू को अच्छा न कर सकूँगा, यह बात मैं तुम्हारे पाँव छूकर शपथ खाकर कह सकता हूँ। ऐसा कार्य तुम मत करो, तुम मेरे बाबू को छोड़कर और कहीं भाग न जाना।”
यह बात बिहारी की अपेक्षा सावित्री कुछ कम जानती थी, ऐसी बात नहीं है, लेकिन वह मौन रही। उसको अपने पास न पाने पर सतीश की विकलता कितनी बढ़ जायेगी इसे सतीश ही जाने, लेकिन इस भयंकर रोगशय्या पर पड़े रहने की दशा में सतीश को नेत्रों से ओझल करके सावित्री स्वयं भी कैसे जीवित रह सकेगी? उससे और सतीश से, उपेन की उसके प्रति घृणा छिपी नहीं थी। उनके आने पर स्वयं को छिपा ही रखना होगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इन सभी बातों पर उसने मन ही मन विचार करके देख लिया था। लेकिन जिसके कारण इतने दिन उसने इतना कष्ट सहन किया है, उसके कारण यह दुख भी सहेगी, वह सोचकर ही उसने सतीश की बीमारी का पूरा विवरण उपेन्द्र के पास लिख भेजा था, आने के लिए अनुरोध भी किया था।
सावित्री ने दृढ़ कण्ठ से कहा, “नहीं बिहारी, यह मैं न होने दूँगी। यदि वे परसों तक न आयेंगे तो तुमको स्वयं जाकर उनको लाना होगा।”
बिहारी ने मलिन मुख से कहा, “यह बात तुम क्यों कह रही हो माँ। मैं हूँ नौकर, जो आज्ञा होगी, मुझे करना पड़ेगा। लेकिन मैं भी तो मनुष्य हूँ। चोर की भाँति तुम्हारा छिपा रहना यदि मैं किसी दिन सह न सकूँ तो मुझे गाली न दे सकोगी माँ, यह मैं पहले ही बता देता हूँ।” यह कहकर वह उदास चित्त से चला गया।
लेकिन सावित्री की वह चिट्ठी उपेन्द्र को मिली ही नहीं। पिता और माहेश्वरी के बार-बार के अनुरोध से वह एक महीना पहले अपनी इच्छा के बिल्कुल ही विरुद्ध हवा-पानी बदलने के लिए पुरी जाने को बाध्य हुए थे। वहाँ किसी से परिचय न रहने के कारण प्रथम रात्रि तो उन्हें एक छोटे से होटल में काटनी पड़ी थी। इच्छा थी कि दूसरे दिन सबेरे कोई अच्छा स्थान ढूँढ लेंगे। लेकिन होटल के मालिक भुवन मुखर्जी ने उनकी पूरी आवभगत की, अलग कोठरी में बिछौना ठीक करा दिया और विश्वास दिलाया कि जितने दिन चाहे यहाँ रहने पर भी, सेवा में कोई त्रुटि न होगी।
सबेरे एक प्रौढ़ा स्त्री कमरे में झाड़ू देने आयी। उपेन्द्र का बार-बार निरीक्षण करके अन्त में उसने झाड़ू एक ओर फेंक दी और बोली, “बाबू को क्या कोई बीमारी हुई थी? बहुत ही निर्बल देख रही हूँ। पहले का वह चेहरा नहीं है, शरीर का वह रंग भी नहीं है।”
उपेन्द्र ने आश्चर्य के साथ पूछा, “तुम क्या मुझे पहचानती हो?”
उस स्त्री ने कहा, “मैं तो मोक्षदा हूँ, आपको नहीं पहचानती?”
उपेन्द्र को स्मरण आ गया कि यह वही मोक्षदा है जो बहुत दिन पहले सतीश के मकान में नौकरी करती थी, उन्होंने कहा, “तुम यहाँ नौकरी करती हो?”
मोक्षदा ने लज्जित होकर कहा, “नहीं... हाँ... हाँ... एक तरह की नौकरी ही तो है। मुखर्जी ने कहा था अब कलकत्ता में रहने से क्या लाभ? चलो, किसी तीर्थस्थान में चलकर रहो। जो भी हो एक होटल खोलकर...।
उपेन्द्र ने बीच में रोककर कहा, “होटल अच्छी तरह चल रहा है न?”
उनकी विरक्ति मोक्षदा से छिपी न रही। उसने कहा, “यों ही चल रहा है। बाबू, इस उम्र में मुझे नौकरी क्यों करनी होगी, और मुखर्जी का आश्रय ही कैसे छोड़ देती! सच कहा जाये तो एक तरह से मैंने ही लड़की को पाला-पोसा था। वह मुझे मौसी कहकर पुकारती थी, सच्ची मौसी की तरह मैंने उसे गोद में सदा रखा था, इस बात को कौन नहीं जानता। सावित्री ने कहा, “मौसी मुझसे यह सब न होगा।’ यही सही। मैंने बाबू लोगों के मेस में नौकरी लगा दी। वे लोग उसे नौकरानी नहीं समझते थे। घर की मालकिन की तरह मानते थे। न वह जाती, और न मुझे यह सब करना पड़ता। लेकिन जो कुछ भी कहो, हम लोगों के छोटे बाबू के ही कारण आज मुझे इतना दुख है।”
उपेन्द्र ने उत्सुक होकर पूछा, “छोटे बाबू कौन? सतीश?”
मोक्षदा ने सिर हिलाकर कहा, “हाँ छोकड़ी ने किस दृष्टि से छोटे बाबू को देखा कि उसके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग दिया? और इतना ही नहीं, छोटे बाबू को उसने अपना शरीर छूने भी नहीं दिया। विपिन बाबू लखपति जमींदार हैं। मेरे डेरे पर दिन-रात दौड़-धूप मचाकर पाँवों के तलवे तक घिसते रहे। सोना-चाँदी के जड़ाऊँ गहनों के लिए दस हजार रुपये रख देना चाहा, लेकिन छोकरी ने उनका मुँह तक भी नहीं देखा! कैसा तेज़ उस लड़की के चेहरे पर दिखायी पड़ रहा भैया, दस हजार रुपये की माया को फेंककर घर-द्वार, आवश्यक सामान वस्त्र तक छोड़कर एक साड़ी पहने चली गयी, और चेतला के किसी एक ब्राह्मण के घर छः महीने तक नौकरी करती रही। वहाँ काम करते-करते हड्डी-पसली तक निकल आयी। अन्त में वह कहाँ चली गयी, दुर्मा माता ही जानती है, अभागिनी मर गयी या जीती है!” यह कहकर मोक्षदा ने अपने पहले की स्मृति के आवेग से आँचल से आँखें पोंछ डालीं।
उपेन्द्र मौन होकर उसकी ओर निहारते रहे।
मोक्षदा ने आँखें पोंछकर रोने के स्वर से पूछा, “हाँ बाबू, छोटे बाबू अब कहाँ हैं? एक बार भेंट हो जाती तो मैं उनसे पूछती, उसका कोई समाचार जानते हैं या नहीं?”
उपेन्द्र ने मृदु स्वर से कहा, “सतीश इस समय कहाँ है यह मैं भी नहीं जानता। सुना है अपने गाँव के मकान पर है। अच्छा, यह सावित्री नाम की औरत कौन है मोक्षदा?”
मोक्षदा एक ही क्षण जल-भुनकर बोली, “कौन है? कुलीन ब्राह्मण की लड़की है। बाबू! असल कुलीन लड़की है। नौ वर्ष की उम्र में विधवा होकर घर में ही रहती थी। यही मुँहजला तुझसे ब्याह करूँगा, राज़रानी बनाऊँगा, कहकर फुसलाकर निकाल लाया, अन्त में हांड़ी की तरह उसे फेंककर भाग गया। मैं ही ऐसी हूँ कि इसका मुँह देखती हूँ - नहीं तो वह ब्राह्मण नहीं चमार है! चमार के हाथ का पानी पी सकते हैं, पर उसके हाथ का नहीं।”
उपेन्द्र समझ न सके कि वह क्या कह रही है। पूछा, “किसकी बात कह रही हो मोक्षदा?”
मोक्षदा ने उद्धत भाव से कहा, “मुँहजला भुवन मुखर्जी! नहीं तो तीनों लोक में ऐसा चमार दूसरा कौन है? यही उसकी बड़ी बहन का पति है, इसी का ऐसा काम!”
उपेन्द्र ने अत्यन्त आश्चर्य में पड़कर पूछा, “जिनका यह होटल है वे ही?”
मोक्षदा ने कहा, “हाँ बाबू, यही दरिद्र बदमाश आदमी।” इसके बाद अनुपस्थित मुखर्जी को सम्बोधन कर कहने लगी, “लेकिन तू उसका क्या कर सका! अथाह सागर में तूने उसे डुबो दिया, उसके अतिरिक्त किसी दिन उसका शरीर क्या तू छू सका? ले आकर, आज नहीं, कल करके एक महीना बिताकर जिस दिन तूने कहा कि ब्याह नहीं होगा, उसी दिन मुँह पर लात मारकर उसने तुझे दूर किया। नादान लड़की थी, बुद्धि कम थी, तो भी क्या, फिर कभी उसके घर की चौखट तक भी तू लाँघ सका। वह तो कोई मोक्षदा नहीं थी कि दो-चार प्रेम की बातें कहकर भुलावे में डाल देता, दस हजार रुपये के जड़ाऊ गहनों को लात मारकर चली गयी।”
उपेन्द्र बड़ी देर तक मौन रहकर बोले, “अपने मुखर्जी को एक बार बुला सकती हो, दो बातें उनसे पूछूँगा?”
मोक्षदा ने कहा, “वह बाज़ार गया है।” फिर ठहरकर बोली, “बीच में एक दिन रास्ते में चक्रवर्ती महाराज से भेंट हो गयी। वह रोता था और कहता था, उस मेरी बेटी को सभी प्यार करते थे। जैसा रूप था, वैसा ही गुण था, वैसी दया-माया भी उसमें थी!”
उपेन्द्र ने पूछा, “चक्रवर्ती महाराज कौन हैं?”
मोक्षदा ने कहा, “वह बाबू लोगों के डेरे पर रसोई बनाते थे। सभी बातें जानते थे। बिहारी के मुँह से सुनकर सब बातें उन्होंने मुझसे कहा। चेतला के एक ब्राह्मण के घर में काम करते समय बीमार पड़कर उसने छुट्टी माँगी। बाबू क्या सभी ब्राह्मण ऐसे निष्ठुर होते हैं? उसने कहा, “तुम्हारी दवा में सात रुपये खर्च हुए हैं। तुम देकर जाओ।’ उन रुपयों को चुकाने के लिए सावित्री पैदल ही सतीश बाबू के डेरे पर आयी। छोटे बाबू का स्वभाव खूब ऊँचा है। रुपया-पैसा माँगने पर वह जितना ही क्यों न हो, वह कभी ‘नहीं’ तो कहते ही नहीं। लेकिन उनका भाग्य ऐसा ही फूटा था कि उसी रात को कोई एक उनका मुँहजला मित्र अपने परिवार के साथ आ गया। दिन भर के बाद स्नान करके मेरी बेटी ज्यों ही घर में गयी, त्यों ही वे लोग आ पहुँचे। इष्टमित्र आ गये थे, तो रात भर रह जाते। सो नहीं क्रोध करके अपनी स्त्री का हाथ पकड़कर वापस चले गये। छोटे बाबू तो स्तम्भित हो गये। लेकिन मेरी सावित्री बड़ी अभिमानिनी लड़की है। क्या वह अपमान सह सकती थी? पानी तक न पीकर बेटी जो चली गयी, फिर तो कोई उसकी ख़बर नहीं मिली।”
उपेन्द्र स्तब्ध होकर बैठे रहे। उस रात का निष्ठुर इतिहास नेत्रों के आगे स्पष्ट हो उठा और बार-बार यही ध्यान आने लगा, मोक्षदा की कही यदि आधी भी सच हो तो जिसके नाम से वह घृणा करते आये हैं, वह कैसी अद्भुत नारी है!
मोक्षदा अपने काम पर चली गयी, लेकिन उपेन्द्र वहीं चुपचाप गूंगे की तरह बैठे रहे। छः महीने पहले वह ये सब बातें सुनते भी नहीं थे। जो असत्य है, जो मिथ्या है, लेशमात्र भी कलंक से कलुषित है, वह सर्वदा ही उनके लिए विषवत त्याज्य है। सतीश को जो छोड़ सका है, मोक्षदा की बातों से उसकी आँखों की पलकें भारी हो गयीं और दृष्टि धुँधली हो गयी। उसका संगमरमर-सा शुभ्र हृदय पत्थर की तरह कठोर था, फिर क्यों आज एक अज्ञात नारी की कलंकित प्रणय-वेदना की कथा सुनकर उस निष्कलंक शुभ्रता पर छाया आ पड़ी, इस पर विचार कर देखने से ज्ञात हो जाता है कि यह दुर्बलता उसी पत्थर के बीच दबी हुई थी। केवल सुरबाला जब उनकी आधी शक्ति हरण करके चली गयी, तब सुयोग पाकर ये ही सब विशाल झरने की भाँति उसकी पत्थर सदृश छाती को भेदकर बाहर निकल आये हैं। सुरबाला उनको कितना शक्तिहीन बना गयी है, यह बात जान लेने पर उपेन्द्र आज भयभीत हो जाते हैं।
लेकिन उस ओर उनका लक्ष्य नहीं था। वह केवल शून्य दृष्टि से सामने की ओर निहारते हुए बैठे रहे और किसी अनजान सावित्री के प्रेम का इतिहास उनकी सुरबाला की उन अनिर्वचनीय करुण दोनों आँखों की भाँति उनकी आँखों पर आँखें रखकर स्थिर हो गया।
उनको चेत हुआ भुवन मुखर्जी का कण्ठ-स्वर सुनकर। उसने आहट देकर कमरे में घुसकर कहा, “बाबू, आपने क्या मुझे बुलाया था?”
उपेन्द्र ने कहा, “बैठो! तुम सावित्री को जानते हो?”
मुखर्जी ने सिर झुकाकर कहा, “हाँ जानता हूँ।”
“उसके सम्बन्ध में तुम जो कुछ जानते हो, मुझे बता सकते हो?”
“जी हाँ, बता सकूँगा।” यह कहकर इस निर्लज्ज मनुष्य ने अपने गम्भीर अपराध का इतिहास एक-एक करके बता दिया। अन्त में बोला, “मैं भी भले आदमी का लड़का हूँ बाबू, लेकिन पहले यदि मैं उसे पहचान सकता, तो इस मार्ग में कदम रखकर रसोईदार ब्राह्मण का काम करके दिन बिताने न पड़ते। केवल मेरी यही धारणा है कि शरीर में प्राण रहते कोई भी उसका बिगाड़ न कर सकेगा।”
उपेन्द्र ने पूछा, “उसके प्रति तुम्हारा क्या विचार है?”
मुखर्जी ने कहा, “फिर भी मैं यह कह सकता हूँ कि वह भ्रष्ट नहीं हुई है।”
उसको विदा कर उपेन्द्र पूर्ववत निर्जीव मूर्ति की भाँति बैठे रहे। केवल उनका मन लगातार यह कहकर उन्हें कोसने लगा, तुमने अच्छा नहीं किया उपेन, अच्छा नहीं किया। जो निरुपाय नारी इतने बड़े प्रलोभनों को अनायास ही जीतकर चली जा सकती है, उसका अपमान करने का तुम्हें अधिकार नहीं था।
उसी दिन अपराह्न में उपेन्द्र भुवन मुखर्जी के यहाँ से चले गये।
लेकिन किसी प्रकार भी समुद्र की जलवायु उन्हें खड़ा न कर सकी। ज्यों-ज्यों दिन चढ़ता जाता था आँख-मुँह में जलन होने लगती थी, और ज्वर भी आ जाता था। और प्रतिदिन उन्हें तिल-तिल करके परलोकवासिनी पतिहीन सुरबाला के निकट ही ले जाने को बढ़ा जा रहा है, यही मानो वह अपने हृदय में स्पष्ट अनुभव करने लगे।
इस प्रकार समुद्र तट के इस निर्जन स्थान में उनकी इस लोक की अवधि जब प्रतिदिन समाप्त होने लगी तब एक दिन प्रातः की डाक से बिहारी की चिट्ठी घर के पते से पुनः भेजी जाने पर उपेन्द्र के हाथ में आ पहुँची।
जिसका स्मरण आते ही उनकी छाती में सुई चुभ जाने की भाँति पीड़ा होने लगती थी, अपने उसी चिरकाल के मित्र का अपमान, उसे त्याग देने का दुख उनके हृदय में दिन-पर-दिन कितना बढ़ता जा रहा था, इसे केवल अन्तर्यामी ही जान रहे थे, लेकिन जब उसी मित्र की बीमारी का समाचार लेकर बिहारी के पत्र ने चिकित्सा और शुश्रूषा की अभावपूत्रि का निवेदन किया, तब अनेक दिनों बाद उपेन्द्र के सूखे होंठों पर हँसी आ गयी। वह बेचारा तो जानता नहीं है कि जिसके जीवन के दिन अब गिने जाने की दशा पर आ पहुँचे हैं, उसी के हाथ में एक और मनुष्य की सेवा का भार सौंपना चाहता है! फिर भी उपेन्द्र उसी दिन अपना सामान बाँधकर पुरी से रवाना हो गये।
इकतालीस
ज्योतिष ने हाईकोर्ट से वापस लौटकर घर में पाँव रखते ही देखा कि सामने के बरामदे में दो आरामकुर्सियों पर शशांक और सरोजिनी दोनों आमने-सामने बैठकर बातचीत कर रहे हैं।
शशांक उठ खड़ा हुआ और हँसकर लापरवाही से बोला, “आज काम-काज कुछ जल्दी पूरा हो गया। मैंने सोचा कि यहाँ ही चाय पीकर एक साथ ही क्लब चले जायेंगे।”
“अच्छा, अच्छा!” कहकर ज्योतिष अपनी हँसी को दबाकर घर के अन्दर चला गया।
सरोजिनी भैया के साथ अन्दर जाने की तैयारी करने लगी तो ज्योतिष घूमकर खड़ा हो गया और बनावटी भत्र्सना के स्वर से बोला, “अतिथि को अकेला छोड़कर, यह तेरी बुद्धि कैसी हो गयी है सरोजिनी?”
सरोजिनी लाल मुँह किये फिर कुर्सी पर बैठ गयी। बहन की यह लज्जा ज्योतिष की आँखों से छिपी न रही।
माँ के आदेश से उसे कचहरी से लौट आने पर कपड़े बदलकर हाथ-मुँह धोकर जलपान करना पड़ता था। माँ से भेंट होते ही उसने कहा, “शशांक आये हैं, आज जलपान की वस्तुएँ बाहर ही भेज दो ना।”
माँ ने कहा, “अच्छा! सरोजिनी सम्भवतः बाहर है?”
ज्योतिष ने सिर हिलाकर बताया। फिर कुछ चुप रहकर बोला, “अच्छा माँ, ऐसा आदमी तुम्हारी समझ में कहीं है, जिसमें कोई दोष न हो, केवल गुण ही गुण हों?”
इस प्रश्न को जगततारिणी प्रसन्नचित्त से ग्रहण न कर सकीं। बोलीं, “क्यों तू मुझसे बार-बार यही बात पूछता रहता है ज्योतिष? मैं तो अनेक बार कह चुकी हूँ, अब मुझे कोई आपत्ति नहीं। तू अच्छा समझे तो उसके ही हाथ में सरोजिनी को सौंप दे न।”
ज्योतिष ने कहा, “दोष के बिना कोई मनुष्य नहीं है माँ। मैंने अनेक प्रकार से विचार करके देख लिया है, सरोजिनी दुखी न रहेगी। इसके अतिरिक्त वह बड़ी भी हो चुकी है। उसकी सम्मति के बिना काम करना भी उचित नहीं है।” यह कहकर उसने देखा कि सरोजिनी आकर धीरे-धीरे भैया की पीठ के पास खड़ी हो गयी है।
माँ भण्डारघर के भीतर से ही बातें कर रही थीं, इसीलिये कन्या के आने का उन्हें पता न चला। ज्योतिष की बात के उत्तर में उन्होंने विरक्ति के स्वर में कहा, “यह बात तो मैंने कभी नहीं कही ज्योतिष, कि इस लड़की का ब्याह उसकी सम्मति के बिना ही हो। मेरी जो इच्छा थी, उसे जब तुम दोनों भाई-बहन ने मिलकर पूरा न होने दिया, तभी क्या लड़की के मन का भाव मैं नहीं समझ गयी बेटा। मैं सब समझती हूँ। समझकर ही तो मुँह बन्द किये बैठी हूँ। अब मुझे झूठमूठ का उलाहना देना व्यर्थ है ज्योतिष।” यह कहकर वह जलपान की वस्तुएँ सजाने लगीं। संकोच से, लज्जा से सरोजिनी गड़ सी गयी लेकिन माँ को कुछ भी ज्ञात न हुआ। ज्योतिष के उत्तर देने के पूर्व ही वह अपनी बात की पुनरावृत्ति के रूप में फिर कहने लगी, “जिसको देने से तुम्हारी बहन सुखी रहे उसे ही दे दो बेटा। मेरी सम्मति अब बार-बार जानने की आवश्यकता नहीं है। मेरा मत है, तुमसे कहे देती हूँ।”
बहन के अत्यन्त संकोच से ज्योतिष स्वयं बड़ा ही संकुचित हो रहा था। फिर जबरन मुस्कराकर बोला, “लेकिन मत प्रसन्न मन से देना चाहिये माँ।”
जगततारिणी ने कहा, “प्रसन्न मन से ही दे रही हूँ बेटा, प्रसन्न मन से ही दे रही हूँ। मुझे अब तुम लोग तंग मत करो।”
ज्योतिष ने क्षणभर मौन रहकर सोचकर स्थिर किया कि बात जब यहाँ तक पहुँच गयी है तब माँ की विरक्ति रहते भी आज ही इसका निर्णय कर लेना ठीक है। क्योंकि, उनके क्लब में लाइब्रेरी में आजकल प्रायः ही इस बात की चर्चा हो रही है। पर उचित क्या होगा यह बात भी समझ में नहीं आ रही है। घर में यह बात प्रायः ही उठ जाती है, लेकिन इसी प्रकार रुक जाती है - आगे बढ़ने नहीं पाती। शशांक को भी इस तरह अनिश्चिित अवस्था में बहुत दिनों तक छोड़कर रखा नहीं जा सकता। इसीलिए वर-कन्या के सुनिश्चित इच्छा के विरुद्ध माँ की स्पष्ट अनिच्छा को ज्योतिष ने सिर पर धारण करके जो कुछ भी हो, इसी क्षण निश्चय कर डालने के लिए कहा, “तो मैंने सोच लिया है माँ कि दो-चार इष्ट मित्रों के सामने रविवार को ही यह बात पक्की हो जाये। क्या कहती हो?”
माँ ने कहा, “अच्छा तो है।”
सरोजिनी धीरे-धीरे अपने कमरे में चली गयी।
रविवार को सबेरे से ही ज्योतिष का बैठकखाना इष्टमित्रों से भरता जा रहा था। नवदम्पति को विवाह-सम्बन्धी बात पक्की हो जाने पर वहीं दोपहर के भोजन का भी आयोजन किया गया था। आज शशांक की वेशभूषा में ही केवल विशेष सजावट नहीं दिखायी पड़ रही थी, बल्कि उसके अंग-अंग से ऐसी कुछ श्री फूट उठी थी, जिससे वह अत्यन्त सुन्दर दिखायी दे रहा था। कई स्त्रियाँ भी उपस्थित थीं, लेकिन उपस्थित नहीं थी केवल सरोजिनी। बेयरे से बुलवाने के बाद ज्योतिष स्वयं जाकर उसके कमरे के दरवाज़े पर कराघात करके शीघ्र आने के लिए अनुरोध कर आया था। किसी दूसरे दिन उसके इस व्यवहार की गणना अपराध में की जा सकती थी, लेकिन आज उसे क्षमा पाने का अधिकार है, जानकर भी अतिथिगण केवल स्नेहपूर्ण कौतुक से ज्योतिष को डाँट रहे थे।
उसके बाद अनेक बुलाहट पुकार आने पर लगभग दस बजे जब सरोजिनी उपस्थित हुई तब उसका मुख देखकर सभी आश्चर्य में पड़ गये। उसका मुँह पीला पड़ गया था, नेत्रों के नीचे स्याही छा गयी थी, मानो सारी रात वह एक क्षण भी नहीं सोयी। ज्योतिष निर्वाक होकर केवल बहन के मुख की ओर निहारता हुआ बैठा रहा। बहन की आकृति देखकर वह मानो हतबुद्धि हो गया। लेकिन इसकी अपेक्षा भी सौ गुना बड़ा विस्मय क्षणभर बाद ही उसके भाग्य में बदा था, इसे वह जानता नहीं था। वह विस्मय मानो उपेन्द्र की छाया लेकर घर के अन्दर आ गया। ज्योतिष ने चौंककर कहा, “उपेन्द्र हो क्या?”
सरोजिनी ने कहा, “उपेन्द्र बाबू!”
वस्तुतः दिन का समय न रहता तो सम्भवतः ये लोग पहचान ही न सकते। सहसा अपनी आँखों को मानो विश्वास नहीं होता, मानो सोचा ही नहीं जाता कि मनुष्य का चेहरा इतना बदल सकता है। उपेन्द्र एक कुर्सी पर बैठकर बोले, “शरीर अच्छा नहीं है, पुरी से आ रहा हूँ। आज यहाँ क्या है?”
सरोजिनी ने आकर उपेन्द्र का हाथ अपने हाथ में लेकर उनके मुँह की ओर देखकर कहा, “क्या कोई बीमारी हो गयी है उपेन बाबू?” कहते ही उसकी दोनों आँखें अश्रुपूर्ण हो गयीं। उपेन्द्र ने अपने मुरझाये हुए होंठों पर हँसी लाकर कहा, “बीमारी तो कोई नहीं है बहन।”
उपेन्द्र ने आज यही पहले-पहल सरोजिनी को बहन कहकर सम्बोधित किया। सरोजिनी ने झटपट आँखों के आँसू पोंछकर कहा, “चलिये, उस कमरे में चलकर बैठें।” यह कहकर उनका हाथ पकड़कर उस जनाकीर्ण कमरे से वह धीरे-धीरे बाहर चली गयी और उसके साथ ही इस कमरे का आनन्दोत्सव मानो बुझ-सा गया। ज्योतिष ने आकर जब सरोजिनी से कहा, “उपेन्द्र थोड़ी देर तक विश्राम करें, तुम एक बार उस कमरे में तो चलो।”
सरोजिनी ने सिर हिलाकर उसी क्षण कहा, “नहीं, आज रहने दो।”
जगततारिणी ने समाचार पाकर कमरे में घुसकर रोने के स्वर में कहा, “कैसे इतना दुबला हो गया। लेकिन और कहीं तुम्हारा रहना न होगा उपेन, मेरे ही यहाँ रहकर डाक्टर को दिखाना पड़ेगा। नहीं तो यह बीमारी अच्छी न होगी।”
सरोजिनी ने ज़ोर देकर कहा, “हाँ उपेन भैया, तुमको हम लोगों के यहाँ ही रहना होगा।” उसने भी आज ही पहले-पहल उपेन्द्र को भैया कहकर पुकारा। उपेन्द्र चिकित्सा कराने के लिए पुरी से चले आये हैं, यह बात पूछे बिना ही सब लोग समझ गये थे।
उपेन्द्र ने हँसकर कहा, “वापस लौटकर हो सका तो आप लोगों के ही यहाँ रहूँगा, लेकिन आज मुझे एक घण्टे के भीतर ही छोड़ देना होगा।”
जगततारिणी ने आश्चर्य से कहा, “आज ही, इसी क्षण? क्यों उपेन?”
उपेन ने सतीश की बीमारी का उल्लेख करके उसके दातव्य का, चिकित्सालय आदि का समाचार जितना जानता था, सुनाकर जेब से बिहारी की चिट्ठी को निकालकर सरोजिनी के हाथ में देकर कहा, “साढे़ ग्यारह बजे टेªन है, जो कुछ भी हो थोड़ा सा खा-पीकर उसी से मुझे जाना पड़ेगा। यदि लौटकर आ सका तो आप लोगों के ही आश्रय में रहूँगा।”
जगततारिणी का मातृ हृदय पिघल उठा। उनके नेत्रों में फिर आँसू दिखायी पड़े। सतीश को वह मन ही मन अत्यन्त स्नेह करती थी। वही सतीश आज बीमार पड़ा है लेकिन उपेन्द्र यह शरीर लेकर उनकी सेवा करने चला है सुनकर उनकी छाती फटने लगी। वह आँखें पोंछते-पोंछते उपेन्द्र के खाने की व्यवस्था करने के लिए कमरे से बाहर चली गयी।
सरोजिनी ने चिट्ठी को आदि से अन्त तक दो बार पढ़ डाला, फिर उसे लौटाकर वह कुछ क्षण तक स्तब्ध होकर बैठी रही। उसके बाद बोली, “तुम्हारे साथ मैं भी चलूँगी उपेन भैया!”
उपेन्द्र ने कहा, “इतना दिन चढ़ आने पर व्यर्थ ही स्टेशन जाकर क्या करोगी बहन?”
सरोजिनी ने कहा, “स्टेशन नहीं, सतीश बाबू के घर। मुझे तुम अपने साथ ले चलो।”
उपेन्द्र ने अवाक होकर कहा, “पागल हो गयी हो क्या? तुम वहाँ कैसे जाओगी?”
“तुम्हारे साथ।”
उपेन्द्र ने कहा, “छिः! यह क्या हो सकता है? ये लोग तुमको क्या जाने देंगे? और तुम भी वहाँ क्यों जाओगी?”
सरोजिनी ने दृढ़ता से सिर हिलाकर केवल कहा, “नहीं मैं जाऊँगी अवश्य।” यह कहकर वह चली गयी।
आफिस के कमरे में कोच पर बैठे ज्योतिष एकान्त में शशांक से बातचीत कर रहा था, सम्भवतः इसी विषय पर आलोचना हो रही थी। सरोजिनी ने धीरे-धीरे जाकर भैया की पीठ के पास खड़ी होकर उनके कन्धे पर हाथ रखा। ज्योतिष चौंक उठे, मुँह फेरकर बोले, “क्या है रे सरोजिनी?”
सरोजिनी ने भैया के कानों के पास मुँह ले जाकर धीरे से कहा, “सतीश बाबू बहुत बीमार हैं।”
ज्योतिष ने सिर हिलाकर दुखित होकर कहा, “यही तो मैंने भी सुना है। उपेन इसी ग्यारह बजे की गाड़ी से जा रहा है क्या?”
सरोजिनी ने कहा, “हाँ, मैं भी उनके साथ जाऊँगी।”
ज्योतिष ने चौंककर कहा, “तुम जाओगी? कहाँ जाओगी?”
सरोजिनी ने कहा, “वहीं।”
ज्योतिष उसकी ओर घूमकर बैठ गया, बोला, “वहाँ कहाँ? सतीश के घर पर क्या?”
सरोजिनी ने कहा, “हाँ!”
शशांक दोनों आँखें विस्फारित करके निहारता रह गया। ज्योतिष ने उत्तेजित स्वर से कहा, “तू पागल हो गयी क्या रे? तू क्यों जायेगी?”
सरोजिनी ने शान्त दृढ़ कण्ठ से कहा, “मैं न जाऊँगी तो कौन जायेगा? नहीं भैया, वे बहुत बीमार हैं। मुझे जाना ही होगा।” और कुछ वह बोल न सकी, रुलाई से गला रुँध जाने के कारण वह भैया के कन्धे पर मुँह छिपाकर सिसक-सिसककर रोने लगी।
ज्योतिष के नेत्रों पर से बहुत दिनों का एक काला परदा प्रचण्ड आँधी के आ जाने से पलभर में फटकर उड़ गया। कुछ क्षण वह मौन बैठा रहा, फिर बहन के माथे पर हाथ रखकर धीरे-धीरे सहलाते हुए बोला, “अच्छा, जा। साथ में दासी और दरबान जायें। वह किस दशा में रहता है पहुँचकर तुरन्त ही तार भेज देना। कल-परसों तक मैं भी डाक्टर को साथ लेकर आ जाऊँगा।” यह कहकर उसने ज्यों ही उसको सामने खींच लाने की चेष्टा की त्यों ही सरोजिनी दोनों हाथों से मुँह ढँककर कमरे से दौड़ती हुई भाग गयी।
शशांक ने मूढ़ की भाँति निहारते रहने के बाद वही प्रश्न किया, “सतीश बाबू बीमार हैं तो वह क्यों जायेंगी, यह तो मैं समझ नहीं सका ज्योतिष बाबू? यह सब क्या बात है, बताइये तो?”
ज्योतिष के कानों में यह प्रश्न पहुँचा या नहीं, बताना कठिन है। वह मानो स्पष्ट देखकर आवेश में उठने वाले मनुष्य की भाँति कहते-कहते बाहर चला गया, “उसके लिये यह इतनी व्याकुल हो उठेगी यह तो मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। वह कहती है एक तरह, करती है कुछ दूसरी तरह - ये सब कैसी बातें हैं।”
स्टेशन से उतरकर उपेन्द्र ने जिस भद्र युवक से सतीश के गाँव का मार्ग पूछा - भाग्य से वह उसी की डिस्पेंसरी का कम्पाउण्डर था। उसके किसी काम से स्टेशन आया था। अपने बाबू के ही मकान पर ये लोग जाने वाले हैं, सुनकर, वह दौड़-धूप करके केवल एक पालकी सरोजिनी के लिए ठीक कर सका और उपेन्द्र से बोला, “वह महेशपुरी दिखायी पड़ रहा है, चलिये न बातचीत करते-करते पैदल ही चलें! जाने में आध घण्टा भी न लगेगा। नहीं तो बैलगाड़ी से जाने में बहुत देर लगेगी।”
उपेन्द्र की अवस्था पैदल चलने की नहीं थी। लेकिन बैलगाड़ी के भय से उन्होंने पैदल चलना ही स्वीकार कर लिया।
सरोजिनी को पालकी में बैठाकर और दरबान तथा दासी को उसके साथ करके उपेन्द्र उसके साथ रवाना हो गये। उसकी अवस्था सत्रह-अठारह वर्ष से अधिक नहीं थी - खूब चतुर और फुत्रीला था। नाम एककौड़ी था। उसे आशा थी, अपने पास किये डाक्टर साहब के साथ और एक साल तक रहने से वह भी अलग प्रैक्टिस कर सकेगा। उसके मत से डाक्टरी कोई विद्या नहीं है, केवल हाथ में थोड़ा-सा यश रहना चाहिये। नहीं तो जिसे बचना है, वह बचता है जिसको मरना है, वह किसी प्रकार भी नहीं बचता।
उपेन्द्र ने उससे कहा कि इस विषय में उसके साथ कोई मतभेद नहीं है, इसके बाद उन्होंने पूछा, “तुम्हारे बाबू अब कैसे हैं?”
एककौड़ी ने कहा, “बाबू? आज बाईस दिन हुए, वह तो अच्छे हो गये हैं। महाशय सभी दवाइयाँ मैंने ही दी है।” कहकर उसने कई बार अपनी छाती आप ही ठोकी।
उपेन्द्र ने बहुत कुछ निश्चिन्त होकर पूछा, “बीमारी क्या बहुत बढ़ गयी थी एककौड़ी बाबू?” एककौड़ी ने कहा, “बहुत। वह तो मर ही गये थे। माँजी आ नहीं जातीं तो वह शिवजी के लिए भी असाध्य रोग था। होगा नहीं महाशय जी, दिन-रात थाको बाबा के साथ रहकर शराब और गांजा। कालीजी को सिद्ध कर रहे थे न? इन सब बातों पर क्या हम डाक्टर लोग विश्वास करते हैं महाशय! हम लोग हैं साइण्टिफिक मैन। लेकिन माँजी ने आते ही थाको बाबा की बाबागिरी ख़तम कर दी, खींचकर उनका त्रिशूल फेंक दिया। उस क़मबख़्त ने कई दिनों तक क्या कम उपद्रव किया? विश्वास कीजिये, सबको बाबू मारने-खदेड़ने दौड़ता था। एक दिन साधारण सी बात पर मेरे ऊपर ऐसा दाँत कटकटा दिया महाशय। लेकिन मैं तो बहुत ही भला आदमी हूँ, किसी से मैं झगड़ा-विवाद करना नहीं चाहता। नहीं तो दूसरा कोई होता तो उस बदमाश का सिर काट लेता।” कहकर एककौड़ी ने अपना छाता आकाश में उछाल दिया।
उपेन्द्र ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “माँजी कौन है?”
एककौड़ी ने कहा, “यह क्या मैं जानता हूँ महाशय! सभी लोग कहते हैं माँजी, मैं भी कहता हूँ माँजी।”
उपेन्द्र ने कहा, “उनको तुमने देखा है?”
एककौड़ी ने कहा, “हाँ, मैं एक प्रकार से देखता ही तो हूँ।”
उपेन्द्र ने पूछा, “उनकी उम्र क्या होगी बता सकते हो?”
एककौड़ी ने सोचकर कहा, “सम्भवतः चालीस-पचास की होंगी नहीं तो दूसरा कोई क्या बाबू को नियंत्रण में रख सकता था महाशय? डाक्टर साहब तो कहते हैं कि वह न आतीं तो सब समाप्त हो चुका था।”
एककौड़ी के साथ उपेन्द्र जब सतीश के घर पहुँचे तब दिन डूब ही रहा था। सरोजिनी पहले ही पहुँच गयी थी। फाटक के बाहर बरगद के पेड़ के नीचे उनकी पालकी रखवाकर दरबान प्रतीक्षा कर रहा था। सामने ही दातव्य चिकित्सालय था, वहाँ लोगों की बहुत भीड़ लगी हुई थी।
एककौड़ी सबको साथ लिये नीचे के बैठकखाने में बिठाकर बिहारी को बुलाने गया, लेकिन उससे भेंट नहीं हुई। डाक्टर साहब भी बाहर रोगी देखने के लिए गये हुए थे। सभी लोग भीड़ लगाकर उसके लिए प्रतीक्षा कर रहे थे।
उपेन्द्र को इन माँजी के विषय में अत्यन्त सन्देह था, इसलिए सरोजिनी को वहीं रुकने के लिए कहकर वह सीधे सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गये।
सतीश बिछौने पर सो रहा था। उसके सिरहाने बैठकर सावित्री ध्यान से काग़ज़ देख रही थी। उस ओर से खुली खिड़की से सूर्यास्त की लाल आभा फ़र्श पर बिखर रही थी।
ऐसे ही समय में दरवाज़े का भारी परदा हटाने की आवाज़ सुनकर सावित्री ने मुँह ऊपर उठाकर देखा एक अपरिचित भले आदमी आ गये हैं।
घबराहट के साथ माथे का घूँघट ऊपर खींचकर उठकर खड़ी होने की चेष्टा करते ही आगन्तुक ने निकट आकर कहा, “आप उठिये मत, मैं हूँ उपेन। आप सावित्री हैं न!”
सावित्री ने सिर हिलाकर बताया, “हाँ।” लेकिन भय से, लज्जा से, संकोच से वह मानो मर-सी गयी।
उपेन्द्र ने पूछा, “सतीश सो रहा है? अब कैसा है?”
सावित्री ने पहले की ही तरह सिर हिलाकर बताया, “अच्छा है।”
उपेन्द्र तब धीरे-धीरे आकर पलंग के कोने पर बैठ गये। अपना कर्त्तव्य उन्होंने पहले ही निश्चित कर लिया था। बोले, “मुझे वह चिट्ठी आपने ही लिखी थी, यह मैं अब समझ गया हूँ। मुझे आने के लिए लिखकर अपने सुख-दुख अपने भले-बुरे को आपने कितना तुच्छ बना दिया था, आप यह मत समझिये कि इन बातों को मैं समझता नहीं हूँ। इससे तो अपना परिचय है।”
सावित्री को ऐसा जान पड़ा मानो वह स्वप्न देख रही हो। यह मानो कोई दूसरा ही व्यक्ति है, सतीश का वह उपेन भैया नहीं है।
उपेन्द्र ने थोड़ी देर तक मौन रहकर कहा, “तुमसे मैं उम्र में बड़ा हूँ। तुमको मैं सावित्री कहकर पुकारूँगा। तुम मुझे भैया कहकर पुकारना। आज से तुम मेरी छोटी बहन हो।”
सावित्री ने चुपचाप उठकर उपेन्द्र के पाँवों के पास झुककर प्रणाम किया और दोनों हाथ बढ़ाकर उपेन्द्र के जूते का फीता खोलते-खोलते सिर झुकाये हुए पूछा, “आने में इतनी देर क्यों हुई? चिट्ठी क्या ठीक समय पर नहीं मिली?”
उपेन्द्र ने सावित्री के काम में बाधा नहीं दी। सहज भाव से बोले, “नहीं बहन, मिली नहीं। परसों पुरी में तुम्हारी चिट्ठी पाकर चला आ रहा हूँ लेकिन तुमको एक बहुत ही कठिन काम करना है बहन...” यहीं पर उपेन्द्र के मुँह की बात रुक गयी।
सावित्री ने जूते खोलकर एक ओर रख दिये। मोज़ा खोलते-खोलते उसने पूछा, “कौन काम है भैया?”
फिर भी उपेन्द्र चुप ही रहे। इसके बाद मानो ज़ोर लगाकर भीतर का संकोच दूर करके बोले, “लेकिन तुम्हारे अतिरिक्त और किसी में यह काम करने की शक्ति नहीं है। इस काम को एक और कर सकती थी, वह थी सुरबाला।”
सावित्री चुपचाप प्रतीक्षा कर रही है, देखकर उपेन्द्र ने कहा, “सरोजिनी का नाम सुना है?”
सावित्री ने सिर हिलाकर कहा, “सुना है।”
“सम्भवतः सब कुछ सुन चुकी हो?”
सावित्री ने उसी प्रकार सिर हिलाकर बताया, उसे सब कुछ मालूम है।
तब उपेन्द्र ने धीरे-धीरे कहा, “सतीश की बीमारी की बात सुनकर उसे किसी प्रकार भी रोका नहीं जा सका। मेरे साथ वह भी चली आयी है। नीचे के कमरे में बैठी हुई है। उसका कोई उपाय करो बहन।”
सावित्री शीघ्रता से उठ खड़ी हुई। बोली, “वह आयी है। मैं अभी जाकर... लेकिन मैं क्या उसके पास जा सकती हूँ भैया?”
इस संकेत को उपेन्द्र समझ गये। दोनों आँखें फैलाकर मुक्त कण्ठ से बोल उठे, “तुम जा नहीं सकती? मेरी छोटी बहन क्या संसार में किसी भी स्त्री से छोटी है कि कहीं भी उसे सिर ऊँचा करके खड़ी रहने में संकोच होगा? मेरी बहन होना क्या संसार में साधारण परिचय है बहन?”
सावित्री और न रुकी। पलभर में उसका सिर उपेन्द्र के दोनों पाँवों पर गिर पड़ा। बार-बार उन दुबले-पतले दोनों पाँवों की धूल सिर पर चढ़ाकर जब वह उठ खड़ी हुई तब उसके मुँह पर आवरण नहीं था। दोनों आँखों से आँसू झर रहे थे। आँसू से भीगे हुए उस मुख पर नारी चरित्र की वृहत महिमा उपेन्द्र टकटकी बाँधे निहारने लगे।
आँखे पोंछकर जब सावित्री कमरे से बाहर आयी तब उपेन्द्र ने पीछे से कहा, “जिसको बहन कहकर अपना परिचय दोगी, उससे कहना कि हम दोनों भाई-बहन ने आज तक कभी संसार में छोटा काम नहीं किया है।”
सावित्री के चले जाने पर उन्होंने सोये हुए सतीश की ओर देखकर पुकारा, सत्तू! ओ सतीश!”
सतीश की नींद टूट गयी। हड़बड़ाकर वह उठ बैठा। आँखें मलकर निहारता रहा।
“तेरा उपेन भैया हूँ, मुझे तू पहचान नहीं रहा है?”
“उपेन भैया!” सतीश विह्वल नेत्रों से निर्वाक होकर निहारता रहा।
“क्यों रे, अभी तक तू मुझे पहचान न सका?”
सतीश ने मानो नींद के नशे में बात कही। मानो अभी तक उसका नशा टूटा नहीं था - इस प्रकार के रुख से बोला, “पहचान गया। तुम आ गये उपेन भैया!”
“हाँ भाई, मैं आ गया हूँ।”
“तो अपने पाँवों को एक बार ऊपर उठाओ न उपेन भैया। बहुत दिनों से तुम्हारे पाँवों की धूल सिर पर मैं चढ़ा नहीं सका हूँ।”
उपेन्द्र ने दोनों हाथ बढ़ाकर अपने मित्र को छाती से लगा लिया। कुछ देर तक अचेतन मूर्ति की भाँति दोनों एक-दूसरे की छाती से लगे रहे। फिर उपेन्द्र ने धीरे-धीरे कहा, “अब और देरी मत कर सतीश, ज़रा जल्द रोगमुक्त हो जा भाई, मेरे बहुत से काम तेरे लिए पड़े हुए हैं।”
“कौन काम उपेन भैया?” कहकर सतीश ने किसी के पाँवों की आहट सुनकर पीछे की ओर देखा तो स्तम्भित हो गया। सावित्री का हाथ पकड़े सरोजिनी चली आ रही थी।
वह एक बार उपेन्द्र की ओर देखकर फिर एक बार अच्छी तरह आँखें मलकर इन दोनों रमणियों के मुँह को चुपचाप निहारता रहा। वह अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर पा रहा है, यह बात उपेन्द्र और सावित्री दोनों ही समझ गये।
सरोजिनी क्षणभर सतीश के कंकाल जैसे पीले मुख की ओर देखकर जल्दी से आगे बढ़कर उसके पाँवों के पास बिछौने पर औंधी पड़कर अपनी रुलाई के वेग को रोकने लगी। किसी ने कोई बात नहीं कही। लेकिन इस रुलाई के भीतर बड़ी वेदना और क्षमा-याचना थी, वह किसी को समझना शेष नहीं रहा। सतीश चुपचाप मूर्ति की भाँति बैठा रहा। उसके हृदय का एक अंश अव्यक्त आनन्द की बाढ़ से जिस प्रकार तरंगित हो उठने लगा, दूसरा अंश उसी प्रकार कठिन समस्या के घात-प्रतिघत से भीत और क्षुब्ध हो उठा। बहुत देर किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकली। संध्या के अन्धकारपूर्ण शान्त कमरे में केवल सरोजिनी की दुर्निवार रुलाई का वेग उसके प्राणपण से दबा रखने के कारण रह-रहकर और भी उच्छवसित हो उठने लगा। वह नीरवता भंग हुई उपेन्द्र के कण्ठ-स्वर से। उन्होंने सरोजिनी के माथे पर धीरे-धीरे अपना दाहिना हाथ फेरकर कहा, “अपराध चाहे जिससे भी क्यों न हुआ हो सतीश, मेरी इस बहन को तू आज क्षमा कर दे। उसके हृदय के भीतर के अनेक दिनों से संचित दुखों ने आज तेरी सेवा के लिए ही मेरे साथ उसे भेज दिया है। लेकिन सावित्री बहन, इस प्रकार मुँह उदास बनाये खड़ी रहने से तो काम ही न चलेगा। तुम्हारे इस मरणोन्मुख भाई के अनेक उत्पातों और बोझों को आज से तुमको ही सहन करना पड़ेगा बहन। आओ, मेरे पास आकर बैठो।”
सावित्री का नाम सुनकर सरोजिनी लज्जा, पीड़ा, वेदना सब कुछ भूलकर मुँह ऊपर उठाकर खड़ी हो गयी, इतनी देर तक वह उसे उपेन्द्र की कोई आत्मीय ही समझ रही थी। सावित्री चुपचाप आकर उपेन्द्र के निकट भूमि पर बैठ गयी। उपेन्द्र ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा, “तुम यह ख़्याल मत करना बहन कि तुमसे क्षमा माँगकर मैं तुम्हारी अमर्यादा करूँगा। लेकिन सतीश, तू मुझे क्षमा कर दे। तेरा जितना अपमान, जितना अनिष्ट मैंने किया है, सब भूल जा भाई।”
सतीश क्या कहता। वह अवाक होकर टकटकी लगाये निहारता रहा।
उपेन्द्र ने म्लान हँसी हँसकर कहा, “मैं समझ गया हूँ सतीश, तुम लोग क्या सोच रहे हो। सोच रही हो कि गम्भीर उपेन भैया बच्चों की तरह बक क्यों रहा है! लेकिन तुम लोग तो जानते नहीं हो भाई, कितने दिनों तक तुम लोगों के उपेन भैया का मुख एकदम ही मूक हो गया था। इसीलिए जितनी बातें इकट्ठी हो गयी थीं, सभी आज मतवाले की तरह बाहर निकल रही है।”
उपेन्द्र के वार्तालाप के ढंग से सतीश का हृदय एक प्रकार की अज्ञात आशंका से उथल-पुथल मचाने लगा, कई एक बात उसने जान भी लेनी चाही, लेकिन न तो उसे प्रश्न ही स्मरण पड़ा, न तो उसके मुँह से बात ही निकली वह जैसे निहार रह था वैसे ही निहारता रहा।
दूसरे ही क्षण सरोजिनी के मुँह की ओर देखकर उपेन्द्र ने सतीश से कहा, “तुम अच्छे हो जाओ। आशीर्वाद देता हूँ, तुम सुखी बनो - मैं अपनी इस बहन को लेकर चला जाऊँगा।” यह कहकर उपेन्द्र ने धीरे-धीरे सावित्री के सिर पर उँगली से थपथपाकर कहा, “तुम्हारे अतिरिक्त मेरा भार लेने वाला कोई नहीं है बहन। और जैसी बीमारी है और किसी को अपने पास बुलाने का साहस भी नहीं होता। होना उचित भी नहीं। केवल तुम्हारी तरह जिसका जीवित रहना दूसरों की भलाई के लिए है, अपनी बहन को ही अपने को सौंप दे सकता हूँ। चलोगी बहन, मेरे साथ? सतीश को छोड़ जाने में कष्ट होगा। होने दो। उसकी अपेक्षा भी कितना अधिक दुख, कष्ट भगवान मनुष्य से सहाते हैं तब उसे सही मनुष्य बना देते हैं।”
सतीश के मन में इतनी देर का वही भूला हुआ प्रश्न मानो बिजली की भाँति नाच उठा। वह सहसा बोल पड़ा, “उपेन भैया, हमारी भाभी कैसी हैं? उनकी बीमारी सुनकर ही मैं चला आया था।”
उपेन्द्र ने एक क्षण के लिए दाँतों से होंठों को ज़ोर से दबाया। उसके बाद अपने अभ्यास के अनुसार ऊपर की ओर देखकर बोले, “पशु अब नहीं है, चली गयी।”
सरोजिनी चिल्ला उठी, “सुरबाला भी नहीं है?”
“नहीं।”
सतीश मोटे तकिये पर कुहनी टेककर मूर्च्छा से आहत हुए की भाँति शून्य दृष्टि से बैठा देखता रहा।
“सुरबाला नहीं है, वह चली गयी।” यह बात उपेन्द्र के मुँह से सहज ही में निकल पड़ी। लेकिन यह ‘नहीं’ रहना कैसा है। यह ‘जाना’ कैसा जाना है सतीश से अधिक कौन जानता है! सरोजिनी की अपेक्षा किसने अधिक देखा है। सावित्री की अपेक्षा किसने अधिक सुना है।”
फिर भी सुरबाला नहीं है, वह मर गयी है। सतीश के मुँह की ओर देखकर उपेन्द्र ने हँसकर कहा, “भगवान ने ले लिया, उसकी फिर नालिश क्या! लेकिन इस समय यदि दिवाकर पास रहता! माँ-बाप नहीं हैं, बचपन से पाल-पोसकर इतना बड़ा किया, वह भी जाने कहाँ चला गया। मालूम नहीं, मरने से पूर्व एक बार उसे देख पाऊँगा या नहीं।”
सतीश ने उसी प्रकार मूर्च्छाहत की भाँति पूछा, “दिवा का क्या हुआ उपेन भैया?”
उपेन ने कहा, “क्या जाने उसका क्या हुआ। कलकत्ता में हारान बाबू के घर में रहकर पढ़ने को ठीक कर दिया था। यह अत्यन्त लज्जा की बात किसी से कही भी नहीं जाती, कहने की इच्छा भी नहीं होती। घर के लोग आज तक जानते हैं कि वह कलकत्ता में पढ़ रहा है, सुरबाला उसको बहुत स्नेह करती थी, उस बेचारी ने मरने के पूर्व उसे देखना चाहा था, लेकिन उसकी यह साध भी मैं पूरी न कर सका। हारान बाबू की स्त्री के साथ वह कहाँ चला गया, इसका कुछ पता नहीं है।”
तीनों श्रोता एक ही साथ अव्यक्त कण्ठ से “क्या!” कहकर चिल्ला उठे, स्पष्ट रूप से कुछ भी समझ में नहीं आया।
इसके बाद सभी चुप रहे। समूचा कमरा एक शून्य श्मशान की भाँति नीरव हो गया।
कोई भी उपेन्द्र के मुँह की ओर निहार भी न सका। लेकिन प्रत्येक को ही यह ज्ञात होने लगा कि उन लोगों का इतने दिनों का दुख-कष्ट मान-अभिमान मानो इस आकाशभेदी वेदना के सामने अत्यन्त तुच्छ हो गया है।
सावित्री, सतीश से सभी बातें सुन चुकी थी। सभी बातें वह जानती थी। वह सोचने लगी, इस विपुल शून्यता को इस मनुष्य ने किस वस्तु से भर रखा है! इस व्यथा को वह किस तरह अपने प्रतिदिन की जीवन यात्रा में ढोता फिरता है। कलेजे के भीतर इतनी हाहाकर, पर बाहर से कोई शिकायत नहीं। किसने इनका सुख-दुख इतना सहज और सुसह बना दिया है?”
उसने पाँवों पर धीरे-धीरे हाथ फेरते-फेरते कहा, “भैया, इन सब बीमारियों में तुम्हारे लिए पहाड़ की हवा खूब अच्छी होगी, ठीक है न?”
उपेन्द्र ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा, “हाँ बहन, यही बात तो डाक्टर भी कहते हैं, लेकिन भगवान जिसको बुलाते हैं, उसको कुछ भी फायदा नहीं करता। जाना ही पड़ता है।”
सावित्री ने कहा, “कुछ भी हो भैया, लेकिन हम लोग पहाड़ पर ही जाकर रहें।”
उपेन्द्र ने हँसकर कहा, “अच्छा, ऐसा ही करना।”
महामाया की पूजा निकट आ गयी और सतीश के स्वस्थ होने के पूर्व ही बंगालियों के सर्वश्रेष्ठ आनन्दोत्सव के दिन सुख-स्वप्न की भाँति बीत गये। और भी कुछ दिन यहाँ रहने की बात थी, लेकिन उपेन्द्र के शरीर की अवस्था देखकर सावित्री ने त्रयोदशी के दिन को यात्रा करने का दिन निश्चित कर लिया। उपेन्द्र की आपत्ति के विरुद्ध उसने हठ करके कहा, “यह नहीं होगा भैया। सतीश बाबू की बीमारी अब नहीं है। उनका शरीर सबल हो जाने तक प्रतीक्षा करने से तुमको मैं ढूँढकर न पाऊँगी। परसों हम लोगों को यहाँ से जाना होगा। तुम बाधा मत दो भैया।”
उपेन्द्र ने मुस्कराकर कहा, “अच्छा, देखा जायेगा। लेकिन ऐसा होने से क्या तुम मुझे ढूँढकर पा जाओगी बहन?”
सावित्री तर्क न करके चली गयी। उपेन्द्र के दिन यहाँ शान्ति से बीत रहे थे, इसलिए जाने के लिये उनको कोई शीघ्रता नहीं थी। यात्रा का दिन इतना निकट है, यह भी सम्भवतः उन्होंने विश्वास नहीं किया, लेकिन सतीश का मुँह सूख गया, क्योंकि इस हठ के साथ उसका घनिष्ठ परिचय था। इसे वह भली प्रकार जानता था कि वह कोई बाधा नहीं मानती। जो कोई उसके सम्पर्क में है, उसी को अब तक दबकर रहना पड़ता है। इसीलिये त्रयोदशी किसी प्रकार भी न टलेगी। इसमें उनके मन में तनिक भी सन्देह नहीं रहा, लेकिन सामने ही बिहारी ने जब सजल नेत्रों से पूछा, “अब कितने दिनों में दर्शन दोगी माँ,” तब भी सतीश चुप रहा।
सावित्री ने सतीश के मुँह की ओर कनखियों से देखकर गम्भीरता से कहा, “तुम्हारे बाबू का जिस दिन विवाह होगा बिहारी, उसी दिन फिर भेंट होगी। अवश्य तुम्हारे बाबू यदि कृपा करके बुलायेंगे तब।”
लगभग दस दिन पूर्व सरोजिनी को ले जाने के लिये जब ज्योतिष स्वयं आये थे, तभी उपेन्द्र की मध्यस्थता में विवाह की बात पक्की हो गयी थी।
सतीश ने कुछ भी आपत्ति नहीं की। स्थिर हो गया था कि उसका समयाशौच बीत जाने पर ही विवाह हो जायेगा। सावित्री ने उसी बात की ओर संकेत किया और सतीश ने मौन रहकर सुन लिया।
जाने के दिन उपेन्द्र ने चिन्ता में पूछा, “तेरी तबियत क्या अच्छी नहीं है सतीश? कल से क्यों तू बहुत ही उदास दिखायी पड़ रहा है।”
सतीश ने उदास कण्ठ से कहा, “नहीं, खूब अच्छी तरह तो हूँ।”
उपेन्द्र के चले जाने पर सावित्री कमरे में आयी। उसकी दोनों आँखें लाल थीं, पलकें भीगकर भारी हो गयी थीं, उसकी ओर देखने से ही ज्ञात हो गया। सिर की शपथ की बात बार-बार स्मरण दिलाकर उसने कहा, “बात रखोगे?”
सतीश ने कहा, “रखूँगा।”
“शराब-गांजा हाथ से भी न छुओगे?”
“नहीं।
“मुझसे पूछे बिना तंत्र-मंत्र की ओर भी नहीं जाओगे?”
“नहीं।”
“जितने दिनों में शरीर एकदम ठीक न हो जायेगा, तब तक दो दिन के अन्तर से चिट्ठी लिखते रहोगे?”
“लिखूँगा।”
“उसमें कोई बात नहीं छिपाओगे?”
“नहीं।”
“तो अब मैं जा रही हूँ।” कहकर सावित्री शीघ्रता से नमस्कार करके बाहर चली गयी। सतीश बिछौने पर बैठा हुआ था, लेट गया। विदा करने के लिए नीचे उतरने की चेष्टा नहीं की।
बाहर दो पालकियाँ तैयार थीं। पास खड़े रहकर उपेन्द्र डाक्टर साहब के साथ धीरे-धीरे बातचीत कर रहे थे। मोटी चादर से सारा शरीर ढककर सावित्री धीरे-धीरे ज्योंही दूसरी पालकी में जाने लगी, त्योंही बिहारी ने दौड़ते हुए आकर चुपके से कहा, “एक बार लौट चलो माँ, बाबू विशेष काम से बुला रहे हैं।”
सावित्री लौट गयी। उपेन्द्र ने बातें करते-करते उस पर लक्ष्य किया।
सावित्री को ठीक इसी बात का भय था। कमरे में प्रवेश करके उसने देखा, सतीश दूसरी ओर मुँह किये लेटा है। बिछौने के निकट जाकर हँसी का मन करके उसने कहा, ‘बात क्या है? हम लोगों की ट्रेन छुड़वा दोगे क्या?”
सतीश ने मुँह फेरकर हाथ बढ़ाकर सावित्री की चादर को ज़ोर से पकड़कर कहा, “बैठो। तुमको जाने न दूँगा। यह मेरा गाँव है, मेरा मकान है, मेरी इच्छा के विरुद्ध तुमको ज़बर्दस्ती कोई ले जा सके, यह सामर्थ्य दस उपेन्द्रों में भी नहीं है।”
सावित्री अवाक हो गयी। उसने देखा, सतीश की आँखों में एक ऐसी तीव्र हिंस्र दृष्टि है जो किसी प्रकार भी स्वाभाविक नहीं कही जा सकती।
सावित्री समझ गयी, ज़बर्दस्ती करने से काम न चलेगा। बिछौने के एक छोर पर बैठकर भर्त्सना के स्वर में उसने कहा, “छिः! छिः! यह कैसी बात तुम कह रहे हो, वह तो मुझे बरबस नहीं ले जा रहे हैं। उनकी स्त्री नहीं है; भाई नहीं है, तुम नहीं हो - इतनी बड़ी भयंकर बीमारी में सेवा करने वाला कोई नहीं है, इसीलिए तो वह तुमसे माँगकर मुझे ले जा रहे हैं। इसको क्या जबरन ले जाना कहते हैं?” जबरन ले जाना कहते हैं?”
सतीश ने ज़ोर से सिर हिलाकर कहा, “यह झूठी बात है, बहलाना है। वह अपने मित्र ज्योतिष बाबू का मुँह देखकर ही केवल तुमको मेरे पास से हटा लेना चाहते हैं। इधर दो दिनों से दिन-रात भली प्रकार सोच-विचारकर मैंने देख लिया है, जो मौन रहकर सहता रहता है, सभी उसके ऊपर अत्याचार करते हैं। इसका कोई कारण क्यों न हो, मैं तुमको जाने न दूँगा। कुछ भी हो, इस बात को लेकर तर्क-वितर्क करके मैं माथा खपाना नहीं चाहता। बिहारी से कहलवा दो कि तुम्हारा जाना न होगा। बिहारी...।”
सावित्री ने अपने हाथ से उसका मुँह दबाकर कहा, “तुम क्या पागल हो गये हो? अच्छा, मान लेती हूँ कि उनका मतलब अच्छा नहीं है, लेकिन तुम ही मुझे लेकर आज क्या करोगे, बताओ तो भला?”
सतीश ने क्षण भर मौन रहकर कहा, “यदि मैं कहूँ कि तुमसे ब्याह करूँगा?”
सावित्री ने कहा, “यदि मैं कहूँ कि इस काम में मेरा मत नहीं है।”
सतीश ने कहा, “तुम्हारे मतामत से कुछ नहीं होता।”
सावित्री ने भयभीत होकर हँसकर कहा, “क्या तुम जबरन मुझसे ब्याह करोगे?” यह कहकर अपने मुँह की हँसी को गम्भीरता में परिणत करके ललाट पर से रूखे बालों का स्नेह से धीरे-धीरे हटाती हुई बोली, “छिः! ऐसी बात कभी भ्रम से भी विचार में मत लाना। मैं हूँ विधवा, मैं हूँ कुलत्यागिनी, मैं हूँ समाज में लांछिता, मुझसे ब्याह करने का दुख कितना बड़ा है, इसे तुम तो समझते ही नहीं हो, लेकिन जो जन्म से ही शुद्ध है, शोक की आग ने जिन्हें जलाकर हीरे की तरह निर्मल बना दिया है, वह समझ गये हैं इसीलिए इस हतभागिनी को आश्रय देने के लिए ही अपने साथ लिये जा रहे हैं। उनकी मंगल-कामना को आज तुम आवेग में रहने के कारण देख न सकोगे, लेकिन इसी कारण उन पर झूठ-मूठ दोषारोपण करके तुम अपराधी न बनो।” यह कहते-कहते आँखों से आँसू लुढ़क पड़े।
आँखों के ये आँसू आज सतीश को शान्त न कर सके। वह और भी उत्तेजित होकर बोला, “झूठ है। तुमने इसी प्रकार अपने को मुझसे अलग रखकर मेरा सर्वनाश किया है। उपेन भैया ने ही कहा है, तुम संसार में किसी की अपेक्षा छोटी नहीं हो, यह सच है।”
सावित्री ने कहा, “नहीं, यह बात नहीं है। भैया अब समाज से परे हैं, इस लोक से परे हैं, उनके मुँह की जो बात सच है, दूसरे के मुँह दूसरे की आवश्यकता के अनुसार सच नहीं है। तुम कहोगे, सच हो या झूठ, मैं समाज को नहीं चाहता, मैं तुमको चाहता हूँ। लेकिन मैं तो यह नहीं कह सकती। समाज मुझे नहीं चाहता, यह मैं जानती हूँ, श्रद्धा के बिना प्रेम टिक नहीं सकता। समाज जिस स्त्री को उसके सम्मान का आसन नहीं देता, किसी भी स्वामी का सामथ्र्य नहीं कि अपने बल से उसके उस आसन को बचाकर रख सके। अजी, इस असाध्य साधना की चेष्टा मत करो।”
सतीश दोनों हाथ से सावित्री के दोनों हाथ ज़ोर से दबाकर बोल उठा, “सावित्री, इन सब बातों को सुनने का धैर्य आज मुझमें नहीं है, समझने की शक्ति भी नहीं है। आज केवल मुझे छूकर तुम यह सच बात सीधे तौर से कह दो कि तुम मुझे प्यार करती हो या नहीं?” यह कहकर वह मानो समस्त इन्द्रियों को, समूचे शरीर तक को, उन्मत करके सावित्री के मुँह की ओर निहारता रहा।
इन अत्यन्त व्यग्र व्यथित दोनों नेत्रों की ओर देखकर सावित्री की आँखों से फिर आँसू झरने लगे। उसने कहा, “प्यार करती हूँ या नहीं, नहीं तो किस बल से तम्हारे ऊपर इतना ज़ोर है? जिसके लिए मेरा इतना सुख है, मेरा इतना बड़ा दुख है? अजी, इसीलिए तो तुमको मैंने इतना दुख दिया, लेकिन किसी प्रकार अपना यह शरीर तुमको दे न सकी।” यह कहकर आँचल से अपनी आँखें पोंछकर बोली, “आज मैं तुमसे कोई बात न छिपाऊँगी। यह मेरा शरीर आज तक नष्ट अवश्य नहीं हुआ है, लेकिन तुम्हारे पाँवों में सौंप देने की योग्यता भी तो इसमें नहीं है। इस शरीर से जो मैंने इच्छापूर्वक बहुतों का मन मोहित किया है, यह बात मैं किसी प्रकार भी भूल न सकूँगी। इससे चाहे जिसकी सेवा हो, पर तुम्हारी पूजा न हो सकेगी। आज किस प्रकार तुमको वह बात समझाऊँ। इतना प्यार यदि तुम्हें न करती तो इस प्रकार तुमको छोड़कर आज मुझे जाना न पड़ता।” यह कहकर सावित्री ने बार-बार आँखें पोंछीं।
सतीश स्तब्ध भाव से कुछ पड़ा रहा फिर एकाएक बोल उठा, “तो मैं और कुछ नहीं चाहता लेकिन तुम्हारा मन? इससे तो तुमने किसी को कभी मोहित नहीं किया, यह तो मेरा है।”
“नहीं। इससे किसी दिन किसी को मैंने मोहित करना नहीं चाहा, यह तुम्हारा ही है। यहाँ तुम ही चिरकाल से प्रभु हो।” यह कहकर उसने छाती पर हाथ रखकर कहा, “अन्तर्यामी जानते हैं, जितने दिन मैं जीवित रहूँगी, जहाँ, जिस दशा में रहूँगी, चिर दिन तुम्हारी ही दासी बनी रहूँगी।”
सतीश ने तुरन्त उसका हाथ अपने दायें हाथ में लेकर कहा, “भगवान का नाम लेकर तुमने यह जो स्वीकृति दे दी है, यही मेरे लिए यथेष्ट है, इससे अधिक मैं कुछ नहीं चाहता।”
उसकी बातों के ढंग से सावित्री मन ही मन फिर शंकित हो उठी।
ऐसे ही समय में बिहारी ने दरवाज़े के बाहर से पुकारकर कहा, “माँजी, बाबू ने कहा है - अब तो देर हो रही है।”
“चलो, आ रही हूँ,” कहकर सावित्री उठ रही थी, सतीश ने उसे ज़ोर से पकड़कर कहा,
“कभी तुमसे मैंने कुछ नहीं माँगा। आज जाते समय मुझे एक भिक्षा देती जाओ।”
“मेरे पास क्या है जो मैं तुमको दूँगी? लेकिन क्या चाहिए, बताओ।”
सतीश ने कहा, ‘मैं यह भिक्षा चाहता हूँ, यदि कोई कभी हम दोनों के सम्बन्ध की बात पूछे तो मेरा स्वामित्व स्वीकार करोगी, बताओगी?”
सावित्री को इसी बात का डर था, फिर भी इस अद्भुत अनुरोध से हँस पड़ी। बोली, “क्यों, बताओ तो गवाहों के बल से अन्त में मुझे घर में डाल तो नहीं दोगे?”
सतीश ने कहा, “तुम्हारे हृदय में रहने वाले अन्तर्यामी ही मेरे साक्षी हैं, दूसरे साक्षी की मुझे आवश्यकता नहीं है। और बाहर के बल से अन्त में तुमको घर में डाल लूँगा यही डर तुमको है? लेकिन अपने ज़ोर से आज ही यदि मैं तुमको घर में डाल लूँ तो कौन मुझे रोकने वाला है, बताओ तो?”
सावित्री ने फिर कुछ नहीं कहा।
सतीश ने कहा, “तुम्हारा जहाँ-तहाँ अपनी ही इच्छा के अनुसार रहना मुझे पसन्द नहीं है।”
सावित्री का मुख उत्तरोत्तर पीला पड़ता जा रहा था, लेकिन इस अवस्था में सतीश को उत्तेजित करने के भय से वह मौन रही। सतीश बोला, “उपेन भैया हैं, पत्थर के देवता। अगर रक्त-माँस के देवता होते तो मैं साथ न भेजता। अच्छा, आज जा रही हो तो जाओ, लेकिन जान पड़ता है कि वहाँ अधिक दिनों तक तुम्हारे रहने से मुझे सुविधा न होगी।”
“तुम्हारी जैसी इच्छा!” कहकर सावित्री नमस्कार करके चली गयी।
बयालीस
सन्ध्या को साढ़े पाँच बजे लकड़ी के कारखाने से छुट्टी पाने पर दिवाकर अराकान की एक सड़क पर जा रहा है। धूल से, धुएँ से, लकड़ी के बुरादे से उसका सम्पूर्ण शरीर भर उठा है। गले पर चादर नहीं है, कुर्ता फटा और मैला है। धोती की भी वही दशा है। दायें पाँव के जूते की एड़ी घिस जाने से चट्टी-सी बन गयी है, बायें पाँव का अँगूठा जूता के बाहर से दिखायी पड़ रहा है। सारा दिन पेट में अन्न नहीं गया है। इसी दश में हाँफते-हाँफते वह मकान वाली के मकान में आ पहुँचा। चार रुपए मासिक किराये पर वह निचले तल्ले की एक कोठरी में रहता है। पतले बरामदे के एक कोने में रसोई बनती है। एक ओर लकड़ी, उपलों, पानी की बाल्टी आदि आस-पास रखी हुई हैं।
दिवाकर के पाँवों की आहट पाकर पास की एक कोठरी से मकान वाली ने निकलकर कड़े स्वर से कहा, “आ गये, अच्छा हुआ! यह सब तुम लोग क्या कर रहे हो बाबू! रसोई-पानी नहीं, नहाना-खाना नहीं, रात-दिन केवल झगड़ा, लड़ाई दाँत पीसना। यह तो हमारे घर की लक्ष्मी को हटाने का उपाय कर रहे हो तुम लोग।”
दिवाकर उदास मुख से सिर झुकाये रहा। वह दोपहर को खाना खाने आया था, पर किरणमयी के साथ झगड़ा करके बिना नहाये-खाये अपने काम पर चला गया था। लेकिन उसकी अवस्था देखकर मकान वाली का क्रोध ठण्डा नहीं हुआ। उसने फिर कहा, “यह तो तुम्हारी ब्याही हुई स्त्री भी नहीं है बाबू कि इस पर इतना ज़ोर-जुलुम चला रहे हो। जैसे निकालकर ले आये थे, वैसे ही उसने भी अपना धर्म रखा है। अब तो तुम्हारी भी नौकरी लग गयी है। अब तुम अलग हो जाओ। अब उसको दुख क्यों देते हो बाबू? ऐसी जवान औरत खाये-पिये बिना सूखकर काँटा बन गयी।” थोड़ी देर तक मौन रहकर वह बोली, “नहीं तो इसकी चिन्ता ही क्या है। वही मोड़ पर जो मारवाड़ी बाबू है, वह रोज़ ही मेरे पास आदमी भेजता है। कहता है, सोने से सारा शरीर मढ़ दूँगा। और तुमको भी औरत के लिए चिन्ता क्या है बाबू? भात बिखेर देने से क्या कौए का अभाव रहता है? जाओ। हट जाओ, मेरी बात मानो। कई दिनों से कह रही हूँ तुम लोगों में मेलजोल अब नहीं होगा।”
दिवाकर ने बीच ही में रोककर कहा, “रहने दो। मेरी बात उठाने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन उनका भी क्या यही मत है? तुम ही उनकी मन्त्रणी हो क्या?”
ठीक उसी समय किरणमयी अपनी कोठरी से बाहर निकल आयी। अवस्था के परिवर्तन से मनुष्य का शारीरिक, मानसिक सब प्रकार का परिवर्तन कितना शीघ्र हो जाता है यह देखने से अवाक रह जाना पड़ता है।
आज उसकी ओर देखकर कौन कहेगा यह वही सौन्दर्य की प्रतिमा किरणमयी है। छः मास पूर्व वही एक दिन समाज के धर्म को व्यंग्य करके मनुष्यत्व को पददलित करके, एक नासमझ युवक को सौन्दर्य और प्रेम के मोह में फाँस कर उसे सब प्रकार की सार्थकताओं से दूर करके ले आयी थी, वही धोखाधड़ी की रस्सी स्वयं किरणमयी के ही गले में पड़ गयी है।
पाप के साथ निष्फल क्रीड़ा करते रहने के कारण दिवाकर के हृदय से जो वासना का राक्षस निकल पड़ा है, उससे आत्मरक्षा करने के लिए दिन-रात लड़ाई करती हुई किरणमयी आज घायल हो चुकी है।
उसके सिर के बाल सूखे, इधर-उधर बिखरे हुए हैं, वस्त्र मैला है, फटा-पुराना है। मुँह पर एक प्रकार की सूखी हुई क्षुधा मानो निराशा की चरम सीमा को पहुँच गयी है। सम्पूर्ण शरीर की श्रीहीनता देखने से दुख होता है। मूर्तिमयी अलक्ष्मी की भाँति वह धीरे-धीरे आकर बरामदे में एक खम्भे पर टिककर दोनों की ओर देखती हुई चुपचाप खड़ी हो गयी।
उसे देखते ही भूख से व्याकुल दिवाकर गरज उठा।
निर्लज्जता की सीमा नहीं रही। वह मुँहज़ोर दिवाकर आज घर भर के लोगों के सामने ऐसी भाषा में चिल्ला-चिल्लाकर बोल सकता है, इस पर विश्वास करना सरल नहीं है, लेकिन वास्तव में उसने यह जो कहा, “क्या भाभी, यही बात है? अब मारवाड़ी, मुसलमान, बर्मी, मद्रासी, इनकी ही आवश्यकता है क्या? ओह, इसीलिए दिन-रात झगड़ा हो रहा है, इसीलिए मैं आँखों का जहर हो गया हूँ?”
किरणमयी पहले तो जैसे कुछ समझी ही नहीं, इसी भाव से केवल उसकी ओर निहारती रही। लेकिन उसका उत्तर दिया मकान वाली ने। वह थोड़ा-सा और आगे बढ़कर हाथ हिलाकर आँख-मुँह मटकाकर बोली, “वह क्यों न चाहेगी, बताओ। हम लोग तो गृहस्थी की कुलवधू हैं नहीं कि एक आदमी को पकड़कर बैठी रहेंगी। हम लोग हैं सुख के कबूतर, एकदम स्वतंत्र। जहाँ जिसके पास सुख मिलेगा, सोना-दाना मिलेगा, उसके पास चली जायेंगी। इसमें लज्जा ही क्या, और छिपाना क्यों?”
दिवाकर ने क्रोध से जलकर उसको धमकाकर कहा, “तू चुप रह मौगी। जिससे पूछ रहा हूँ वही बोले।”
इस बार मकान वाली बारूद की तरह भभक उठी। मरने को तैयार-सी होकर बोली, “मेरे ही मकान में रहकर मुझे ही मौगी कह रहा है। निकल जा मेरे मकान से।”
दिवाकर भी क्रुद्ध हो उठा। छः महीने पूर्व अपने बहुत बड़े दुःस्वप्न में भी सम्भवतः यह कल्पना करना सम्भव न होता कि वह एक अछूत गणिका द्वारा इतना अपमानित होने के बाद भी कमर कसकर तू-तू मैं-मैं कहकर झगड़ा कर सकता है? लेकिन वह तो अब उपेन्द्र सुरबाला के स्नेहपूर्ण आदर-प्यार से पोषित होने वाला दिवाकर रह नहीं गया है। इसीलिए वह भी नेत्र लाल करके गरज उठ, “क्या! मुझे निकल जाने को कहती है? क्या तू किराया नहीं लेती?”
मकान वाली ने भी वैसे ही गरज कर कहा, “वाह! बड़ा आया है किराया देने वाला! तुझे धिक्कार है, तुझे तो गले में डालने को भी रस्सी नहीं जुटती रे! कहती हूँ, निकल, नहीं तो झाड़ू माकर निकाल दूँगी।”
“अच्छा, निकलवा रहा हूँ!” कहकर दिवाकर ने दाँत पीसकर पागल की भाँति दौड़कर किरणमयी को धक्का लगा दिया। सारा दिन भूख-प्यास से थकी किरणमयी उस धक्के को सम्भाल न सकी। पहले तो वह रंग की एक खाली बाल्टी पर जा गिरी। फिर वहाँ से लुढ़ककर उपलों की दौरी पर मुँह के बल जा गिरी।
उन्मत्त दिवाकर बोला, “जा, निकल जा! कौन है तेरा मारवाड़ी, दूर हो!” यह कहकर वह घर के अन्दर घुस गया।
मकान वाली भयंकर रूप से चिल्ला उठी। कारख़ाने से अभी-अभी लौटने वाले मजदूरों का दल हाथ-मुँह की कालिख धो रहा था, चिल्लाहट से चौंककर हाथ का साबुन फेंककर वे दौड़ पड़े। मकान वाली नकनकाकर पुकार मचाने लगी, “बहू को मार डाला रे! इस बदमाश छोकरे को तुम लोग मारते-मारते निकाल बाहर करो, फिर मेरे घर में न आने पाये।”
मकान वाली के कहने पर ये लोग कमरे में घुसने को ज्योंही तैयार हुए, त्यों ही किरणमयी माथे का घूंघट खींचकर उठकर बैठ गयी और दृढ़ स्वर से बोली, “झगड़ा-वगड़ा किसके घर में नहीं होता? मेरे शरीर पर हाथ लगा है तो तुम लोगो का क्या? तुम लोग अपने घर जाओ।” यह कहकर वह तुरन्त उठ खड़ी हुई और कमरे में जाकर किवाड़ बन्द कर लिए।
बल-विक्रम दिखाने का सुयोग खोकर लोग उदास मन से लौट गये। मकान वाली बाहर खड़ी होकर गाल पर हाथ रखकर बोली, “विचित्र बात है!”
दरवाज़ा बन्द करके किरणमयी ने दियासलाई से बत्ती जलाई। लकड़ी का घर चौड़ा न रहने पर भी लम्बा था। एक ओर मूँज से बुनी चारपाई पर दिवाकर का बिछौना है, दूसरी ओर काठ के फ़र्श पर किरणमयी का बिछौना लपेटा हुआ है। पाँव की ओर कुछ मिट्टी के बरतन एक के ऊपर एक करके रखे हुए हैं और उसी कोने में लकड़ी के सिकहरे पर रर्सो की हांड़ी, कड़ाही, कलछुल आदि रखे हुए हैं। यहीं उनकी गृहस्थी के सामान हैं।
बत्ती जलाकर किरणमयी दरवाज़े के पास फ़र्श पर स्थिर होकर बैठ गयी। किसी के मुँह से र्को बात न निकली। चारपाई पर दिवाकर सिर झुकाये चुपचाप बैठा था। इसी प्रकार बड़ी देर तक दोनों मौन बैठे रहे। फिर धीरे-धीरे उठकर किरणमयी आकर सामने खड़ी होकर सहज भाव से बोली, “हांड़ी में भात रखा है, परोस देती हूँ, चलो, खा लो।”
दिवाकर ने रुँधे गले से कहा, “नहीं।”
उसके गले के स्वर से जान पड़ा कि वह अब तक रो रहा था।
किरणमयी ने कहा, “नहीं, क्यों? सारा दिन तुमने कुछ खाया नहीं। आज न खाने पर भी कल तो खाना ही होगा। खाने-पहनने में क्रोध करने से काम नहीं चलता। मैं भात परोस देती हूँ।”
दिवाकर उत्तर तक न दे सका। लज्जा तथा पश्चाताप से वह जल रहा था। सचमुच ही वह किरणमयी को प्यार करता था।
यहाँ आने के बाद से बहुत दिनों तक बाहर के लोगों के जानने पर भी, अन्दर ही अन्दर बहुत ही गुप्त रूप से दोनों के बीच आसक्ति और विरक्ति का जो संग्राम प्रतिदिन चल रहा था, उसका प्रत्येक आघात दिवाकर चुपचाप सह रहा था। कुछ दिनों से यह लड़ाई प्रकट और अत्यन्त घोर हो जाने पर भी ऐसी उत्तेजना बहुत बार हुई थी। लेकिन अब से पूर्व किसी दिन उसने इस प्रकार आत्मविस्मृत होकर पाशविक आचरण नहीं किया था। वास्तव में, किसी कारण से, किसी भी अत्याचार के कारण वह किरणमयी के शरीर पर हाथ उठा सकता है, और सचमुच ही उसने अभी-अभी उठा दिया है, इसे वह अब तक ठीक प्रकार से मन में समझ नहीं पा रहा था। इसीलिए कमरे में घुसकर वह स्वप्नाविष्ट की भाँति बिछौने पर आ बैठा था। लेकिन थोड़ी ही देर बाद जब किरणमयी ने अपनी सभी लाँछनाओं को झाड़ फेंककर मकान में लोगों के आक्रमण और उत्पीड़न से उसे बचा लिया और कमरे में घुसकर अन्दर से किवाड़ बन्द कर दिया तब उसको होश आ गया। किरणमयी का अनुरोध समाप्त भी नहीं हुआ था कि लहरें जिस प्रकार पहाड़ की जड़ पर टकराती हैं, उसी प्रकार उस रमणी के पाँवों पर मुँह के बल गिरकर उच्छ्वसित आवेग से वह रो उठ। बोला, ‘मैं पशु हूँ। मुझे क्षमा कर दो भाभी।”
किरणमयी ने निर्विकार स्तब्ध रहकर पहले की ही भाँति सहज कण्ठ से कहा, “केवल तुम्हारा ही दोष नहीं है। मनुष्य मात्र को ही ये सब काम पशु बना देते हैं। मुझे भी पशु बना देने में एक तिल भी कसर नहीं रखी है बबुआ।”
दिवाकर ने ज़ोर से सिर हिलाकर कहा, “नहीं, नहीं। और किसी की बात से मुझे मतलब नहीं है भाभी। लेकिन मेरे आज के इस आचरण का प्रायश्चित कैसे होगा? मुझे बता दो। मैं वहीं करूँगा।”
किरणमयी ने कहा, “इसमें अपराध ही क्या है। क्या सुना नहीं है, क्रोध में मनुष्य मनुष्य की हत्या तक कर डालता है। तुमने तो केवल धक्का लगा दिया है। मैंने क्या अपराध नहीं किया? सब दोष क्या केवल तुम्हारा ही है। लेकिन जाने दो इन बातों को। सभी अभियोगों का आज अन्त हो गया। इससे भविष्य में तुमको भी आवश्यकता न पड़ेगी, मुझे भी नहीं। अब जाओ, हाथ-मुँह धोकर खाने बैठ जाओ। मैं खड़ी भी नहीं रह सकती।”
दिवाकर धीरे-धीरे उठ बैठा। किरणमयी के कण्ठ-स्वर से वह समझ गया था कि वह और बातें करना भी नहीं चाहती।
सारा दिन उपवास करने के बाद दिवाकर खाना खाकर बाहर मुँह धोने गया। उसके मन की ग्लानि भी घटती जा रही थी। मुँह धोकर प्रसन्नचित्त से कमरे में आकर कुछ आश्चर्य में पड़कर उसने देखा, किरणमयी ने उसका बिछौना समेटकर नीचे रख दिया है। उसने पूछा, “नीचे क्यों उतार दिया?”
किरणमयी ने अविचलित स्वर से कहा, “पहले बताने से सम्भवतः तुम्हारा खाना नहीं होता, इसलिए नहीं कहा, आज से हम लोगों की फिर कभी भेंट मुलाकात नहीं होगी। बहुत रात नहीं हुई है। आज कालीबाड़ी में जाकर सो रहो, कल सुविधा के अनुसार एक डेरा ढूँढ़ लेना। और यदि इस देश में न रहना चाहो तो परसों स्टीमर छूटेगा। मैं रुपया दे दूँगी, घर लौट जाना। सारांश यह है कि तुम्हारी जो इच्छा हो वही करो। मेरे साथ अब तुम्हारा कोई सम्बन्ध न रहेगा।”
दिवाकर हतबुद्धि की भाँति सुनता जा रहा था। उसको जान पड़ रहा था कि किरणमयी का ममताहीन एक-एक शब्द मानो पत्थर के टुकड़ों की भाँति उन दोनों के बीच सदा से लिए लिए एक अभेद्य दीवार खड़ी कर रहा है।
उसकी बातें समाप्त होने पर उसने कहा, “और तुम?”
“मेरी बात सुनने से तुमको कुछ भी लाभ नहीं, फिर भी यदि इस देश में रहोगे तो कल-परसों तक सुन ही लोगे!”
दिवाकर ने कह, “तो मकान वाली की बात ही सच है? वही गँवार मारवाड़ी...।”
किरणमयी ने कड़े स्वर से उत्तर दिया, “हो सकता है! लेकिन और जो कुछ भी हो, तुम्हारे कन्धे पर निर्भर होकर नीचे के मार्ग में उतर पड़ी थी, इसीलिए उसकी अन्तिम सीमा तक तुम्हारे ही आश्रय में उतरना पड़े तो यह ज़रूरी नहीं है। मेरी तबियत ठीक नहीं है, अब सोने जाती हूँ, और तुम व्यर्थ देर मत करो। कल सबेरे तुम्हारी चीज़ें तुम्हारे पास भेज दूँगी।”
दिवाकर ने कहा, “इतनी जल्दी? आज रात को मुझे यहाँ रहने न दोगी?”
“नहीं।”
दिवाकर ने थोड़ी देर तक रुके रहकर कहा, “तो क्या केवल मेरा सर्वनाश करने के लिए ही मुझे इस विपत्ति में खींच लायी थी? किसी दिन तुमने प्यार भी नहीं किया?”
किरणमयी ने कहा, “नहीं। लेकिन तुम्हारी नहीं, एक और मनुष्य का सर्वनाश कर रही हूँ, ऐसा सोचकर ही मैंने तुम्हारा नुकसान किया है। और मेरा? जाने दो मेरी बात। आदि से अन्त तक सब मुझसे भूलें ही हुई हैं। और इन्हीं भूलों के लिए आज मैं पाँव पड़कर तुमसे क्षमा माँग रही हूँ बबुआजी।”
इस निर्विकार पत्थर की प्रतिमा की भाँति उस मुख की ओर देखकर दिवाकर ने लम्बी साँस लेकर कहा, “मेरे सर्वनाश की धारणा तुमको नहीं है, इसीलिए तुम इतनी सरलता से क्षमा माँग सकती हो। लेकिन इस सर्वनाश की अपेक्षा भी आज मेरा प्रेम बहुत बड़ा है। इसीलिए अभी तक मैं जीवित हूँ नहीं तो छाती फट जाने से मैं मर गया होता। लेकिन एक बात तुम मुझे समझा कर कहो। जिसके पास तुम जाओगी उसको भी तो तुम प्यार नहीं करती, सम्भवतः उसे तुम पहचानती भी नहीं। तो भी मुझे छोड़कर तुम वहाँ क्यों जाना चाहती हो? मैंने तो किसी दिन तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं किया। लेकिन सचमुच ही क्या तुम जाओगी।”
किरणमयी ने सिर हिलाकर कहा, “सचमुच ही जाऊँगी।” इसके बाद वह बड़ी देर तक भूमि की ओर निहारती रही, फिर मुँह ऊपर उठाकर बोली, “नहीं, आज मैं कुछ भी छिपाऊँगी नहीं। मैं भगवान को नहीं मानती, न आत्मा को मानती हूँ। यह सब मेरे लिए व्यर्थ है। एकदम असत्य है। मैं मानती हूँ केवल इहकाल को और इस शरीर को। जीवन में केवल एक व्यक्ति के सामने मैंने हार मानी थी, वह थी सुरबाला। लेकिन जाने दो इस बात को, सच कहती हूँ बबुआजी, मैं मानती हूँ केवल इहकाल को और इस सुन्दर शरीर को। लेकिन मेरा ऐसा फूटा भाग्य है, इसी से अनंग की भाँति पतंग को भी मैंने मोहित करना चाहा था।” यह कहकर लम्बी साँस छोड़कर किरणमयी चुप हो गयी।
दो क्षण चुप रहकर उसने मानो सहसा जागकर कहा, “उसके बाद एक दिन, जिस दिन सचमुच ही मैंने प्यार किया बबुआ, उसी दिन मैं जान गयी, क्यों मेरा सारा शरीर इतने दिनों तक इसके लिए उत्कण्ठित होकर प्रतीक्षा कर रहा था।”
दिवाकर ने व्यग्र होकर कहा, “किसके लिए भाभी?”
किरणमयी हँसकर मानो अपने मन में ही कहने लगी, “मैंने सोचा था, मेरे इस प्रेम की तुलना सम्भवतः तुम्हारे स्वर्ग में भी नहीं है, लेकिन वह स्वर्ग टिक न सका। उस दिन महाभारत की कहानियों के विषय में जिस स्त्री से मैं हार आयी थी, फिर उसी से हार मान लेनी पड़ी। प्रेम के द्वन्द्व में भी सिर झुकाकर मैं चली आयी। मोह का नशा हट गया, मैंने स्पष्ट देख लिया कि उसको सौन्दर्य के भुलावे में टालने का सामथ्र्य मुझमें नहीं है।”
दिवाकर को एक बार ऐसा जान पड़ा कि उसका निविड़ अन्धकार मानो स्वच्छ होता चला जा रहा है।
किरणमयी कहने लगी, “उस स्त्री से एक विषय सीखने का मुझे लोभ हुआ था, वह था अपने पति को प्यार करना, सम्भवतः मैं सीख भी सकती थी, लेकिन ऐसा फूटा भाग्य है कि वह मार्ग भी दो दिनों में बन्द हो गया। अच्छी बात है, तुमने क्या पूछा था बबुआ, तुमको मैं प्यार क्यों नहीं करती? प्यार तो किया था अवश्य। लेकिन में उम्र में बड़ी हूँ इसीलिए जिस दिन तुम्हारे उपेन भैया मेरे हाथ में तुमको सौंप गये थे, उसी दिन से मैंने तुमको छोटे भाई की तरह प्यार किया था। इसीलिए तो छः महीने से अपनी ही छलना से मैं क्षत-विक्षत हो रही हूँ। तुम्हारी आँखों की भूख से, तुम्हारे मुँह की प्रार्थना से मेरा सारा शरीर घृणा से, लज्जा से काँप उठता है, इसे क्या तुम एक दिन भी समझ न सके बबुआ? जाओ, अब तुम हट जाओ। मुझे पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक कुछ भी न रहे, लेकिन इस शरीर पर तुम्हारी लोलुप दृष्टि मैं अब सह नहीं सकती।” यह कहकर उसने बिछौना उठाकर दिवाकर के सामने फेंक दिया, और बोली, “अब तुम पर मेरा विश्वास नहीं रहा। मेरा एक और छोटा भाई आज भी जीवित है। उसी सतीश का मुँह देखकर मुझे तुमसे आत्मरक्षा करनी पड़ेगी। तुम जाओ।”
दिवाकर फिर दुबारा कुछ न कहकर बिछौना उठाकर बाहर के अन्धकार में विलीन हो गया।
तैंतालीस
सबेरे किरणमयी थके अलसाये शरीर से काम कर रही थी। कामिनी मकान वाली आकर दरवाज़े के सामने खड़ी होकर खूब हँसकर बोली, “चला गया छोकरा? आफत दूर हुई। कल तो मुझे मारने को ही तैयार हो गया था! अरे तेरा काम है औरत रखना? बकरों से यदि जौ पर दंवरी चल सकती तो लोग बैल क्यों पालते?”
किरणमयी ने पूछा, “किसने कहा कि वह चला गया?”
मकान वाली ने हँसकर आँखें मटकाकर कहा, “लो, अब नखरा करने की आवश्यकता नहीं है। किसने कहा? मैं हूँ मकान वाली, मुझसे कहेगा कौन? मैंने अपने कानों से सुना है। नहीं तो क्या इतने दिनों तक मैं यह मकान रख सकती थी? किस समय इसे पाँच भूत मिलकर खा गये होते, यह क्या तुम जानती हो?”
किरणमयी चुपचाप घर का काम करने लगी। उत्तर न पाकर मकान वाली स्वयं कहने लगी, “मैं तो इतने दिनों से कह रही थी बहू कि निकाल बाहर करो इस आफत को। यह नहीं, रहने दो, कहाँ जायेगा? अरे कहाँ जायेगा, यह मैं क्या जानूँ इतना सोचते रहने से तो काम नहीं चलता। खाओ-पहनो, सुगन्धित तेल लगाओ, सोना-दाना शरीर पर चढ़ाओ, साथ ही साथ मौज उड़ाओ, ऐसा करोगी नहीं, तो देश की दुनिया से बाहर यह कैसा दलिद्दर प्रेम करना है बेटी?”
किरणमयी ने केवल एक बार मुँह ऊपर उठाकर अपनी आँखें झुका लीं। मकान वाली ने समझा कि उसकी बहुदर्शिता की उपदेशावाली काम कर रही है। “और यह क्या बेटी, तुम्हारा प्रेम करने का समय है? अभी तो चढ़ी जवानी है, इस समय तो दोनों हाथ से लूटोगी। इसके बाद दो पैसे हाथ में रखकर चैन से बैठना, उमर चढ़ जाने पर प्रेम करना। तुमको मना कौन करता है? हाथ में पैसे रहने पर क्या छोकड़ों का अभाव रहेगा? कितने चाहिए? तब तो दोनों पाँव एकत्र करके उठ न सकोगी।”
किरणमयी अन्यमनस्क थी। क्या पता सभी बातें उसके कानों में पहुँची या नहीं। लेकिन उसने कोई बात नहीं कही।
मकान वाली को अपने घर का काम-धन्धा करना था। इसीलिए वह देर न कर सकने के कारण दोपहर को फिर आने को कहकर चली गयी।
इस मकान में रहने वाले प्रायः सभी कारखाने में नौकरी करते हैं। सबेरे काम पर जाते हैं, दोपहर को खाने की छुट्टी मिलने पर घर चले जाते हैं, और स्नान-भोजन करके फिर काम पर चले जाते हैं। सन्ध्या के कुछ ही पूर्व उन्हें छुट्टी मिलती है।
आज भी सबेरे उनके काम पर चले जाने पर दो-ढाई बजे के बाद मकान वाली आकर फिर दरवाज़े के पास ही खड़ी हो गयी। मधुर कण्ठ से उसने कहा, “खाना-पीना हो गया बहू! क्या रसोई बनी थी?”
किरणमयी ने आज चूल्हे में आग तक नहीं जलायी थी। मकानवाली के पूछने पर बोली, “हां हो गया है। आओ, बैठो।”
मकानवाली दरवाज़े के पास बैठ गयी। वह कमरे में घुसते ही समझ गयी थी कि किरणमयी का मन ठीक नहीं है। इसलिए सहानुभूति के स्वर में बोली, “यह तो होगा ही बेटी, दो दिन मन खराब रहेगा। एक पशु-पक्षी को पालने-पोसने से मन कैसा उदास हो जाता है और यह तो आदमी है। जैसे भी हो, छः-सात महीने तक उसके साथ घर-गृहस्थी भी तो चलानी पड़ी। यह दशा दो-चार दिन ही रहेगी, फिर तो कोई नाम तक नहीं लेता बहू, आँखों से बहुत-सी ऐसी घटनाएँ मैंने देखी हैं।”
किरणमयी ने बरबस हँसकर कहा, “यह तो सच ही है।”
मकान वाली ने आँखें मुँह नचाकर कहा, “सच नहीं है? तुम ही बताओ न बेटी, क्या सच नहीं है? फिर नया आदमी आये, नये ढंग से आमोद-प्रमोद करो। बस, सब ठीक हो जायेगा। क्या कहती हो, यही बात है न?”
किरणमयी ने सिर हिलाकर सम्मति तो अवश्य प्रकट कर दी लेकिन इस प्रकार इच्छा के विरुद्ध उसके वार्तालाप से उसका चित्त उद्भ्रान्त होता जा रहा था।
एकाएक मकान वाली ने आँखें-मुँह सिकोड़कर कण्ठ स्वर को धीमा करके कहा, “अच्छी बात स्मरण पड़ गयी बहू, उस गँवार मनुष्य के पास तो मैंने सबेरे ही ख़बर भेज दी थी। उससे तो अब सहा नहीं जाता, कहता है लोग काम पर चले जायेंगे। तो दोपहर को ही आऊँगा। कौन जाने, वह इसी समय न आ जा...।’
किरणमयी ने भयभीत होकर कहा, “यहाँ क्यों?”
मकान वाली ने इस बात को अत्यन्त कौतुकजनक समझकर बनावटी क्रोध दिखाकर कहा, “मर जा छोकरी, वह न आयेगा तो क्या तू वहाँ जायेगी? तेरी बातें सुनने से तो हँसते-हँसते पेट की अँतड़ी तक टूट जाती हैं।” यह कहकर सूखी हँसी की छटा से लुढ़ककर बिल्कुल ही किरणमयी के ऊपर जा गिरी। किरणमयी ने कोई बात नहीं कही, केवल थोड़ा-सा सरककर बैठ गयी। मकानवाली ने आत्मीयता के आवेश में आज पहले पहल उसे ‘तू’ कहकर सम्बोधन किया था।
लेकिन सखीत्व का यह अत्यन्त घनिष्ठता बढ़ाने वाला सम्भाषण इस नीच औरत के मुँह से निकलकर किरणमयी के हृदय के भीतर जाकर एकदम तीर की भाँति बिंध गया। उसके हृदय में आज भी जो महिमा मूच्र्छाहत की भाँति पड़ी हुई थी, इस एक ही शब्द के आघात से उसकी नींद टूट गयी। और क्षण भर में भद्र कुलवधू की लुप्त मर्यादा उसके मन में प्रदीप्त हो उठी। लेकिन फिर भी, अपने को सम्भालकर चुप रही।
मकान वाली ने इस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। वह अपनी ही झक में कहने लगी, “तू देख लेना बहू, छः महीने में यदि मैं तेरा भाग्य न पलट दूँ, तो मेरा नाम कामिनी मकान वाली नहीं। तू केवल मेरे कहने के अनुसार चलना। मैं और कुछ भी नहीं चाहती।” किरणमयी को ज्ञात हुआ, मानो यह स्त्री उसके कानों की समस्त स्नायुशिओं को जलती हुई सँड़सी से खींचकर निकाल रही है। लेकिन मना करने की बात उसके मुँह से नहीं निकली। केवल चुपचाप वह सुनती रही।
मकान वाली ने कहा, “गँवार मारवाड़ी है, दो पैसे पास हैं, जोश में आ गया है, दोनों हाथों से दुह ले। उसके बाद वह कमबख्त चला जाये भाड़ में। और कितने ही आ फंसेंगे। तूने इस प्रकार अपने को बना रखा है, नहीं तो तेरा रूप क्या साधारण रूप है बहू।” उस समय बाहरी बरामदे से किसी के टूटे गले से पुकार आयी, “मकान वाली!”
“अब तो जाती हूँ,” कहकर मकान वाली जाने लगी, लेकिन किरणमयी ने दोनों हाथ बढ़ाकर उसका आँचल ज़ोर से पकड़कर कहा, “नहीं-नहीं, यहाँ किसी प्रकार भी नहीं, इस कमरे में कोई भी आने न पाये।”
मकान वाली ने हतबुद्धि होकर कहा, “क्यों, कोई है यहाँ?”
किरणमयी ने कहा, “कोई रहे या न रहे, यहाँ नहीं, किसी प्रकार भी नहीं...।”
आगन्तुक का पद-शब्द क्रमशः निकट आने लगा।
मकानवाली ने कहा, “तू तो अब किसी की कुलवन्ती बहू नहीं है। लोग तेरे घर में आयेंगे, बैठेंगे इसमें डर किसका है, सुनूँ तो? तू है वेश्या।”
किरणमयी चिल्ला उठी, “क्या हूँ मैं? मैं वेश्या हूँ?”
उसको जान पड़ा जैसे आग की धारा उसके पैरों के तलवे से उठकर उसके मस्तक को छेदती हुई बाहर निकल गयी।
उसकी लाल आँखें और तीव्र कण्ठ-स्वर से मकान वाली ने विस्मित हो चिढ़कर कहा, “वह नहीं तो और क्या? नखरा देखने से शरीर जलने लगता है। अब हम लोग जो हैं, तुम भी वही हो। भला आदमी आ रहा है। ले, घर में बैठा।”
इस भले आदमी से मकान वाली पहले ही रुपया ले चुकी थी और भी कुछ पाने की आशा कर रही थी। भला आदमी दरवाज़े के निकट खड़ा हो गया और दाँत निकालकर हँसकर बोला, “क्यों मकान वाली, सब ठीक है?”
मकान वाली ने अपना आँचल खींचकर विनय के साथ कहा, “सब तुम लोगों की मेहरबानी है। जाओ, कमरे में जाकर बैठो। मैं पान लगाकर ला रही हूँ।” ज़रा हँसकर बोली, “अब तो यह घर-द्वार सब तुम्हारा ही है बाबूजी, इसे अच्छी तरह सजाना पड़ेगा, यह मैं बताये देती हूँ।”
“अच्छा-अच्छा, यह सब हो जायेगा।” यह कहकर वह आदमी ज़रा भी संकोच न करके कमरे में घुसकर खटिया पर बैठने लगा।
किरणमयी की स्नायु-शिराओं में लोहे से भी कड़ी दृढ़ता थी, इसीलिये इतनी देर तक वह सहन कर सकी थी, लेकिन अब न कर सकी। उसके रूप-यौवन पर लुब्ध इस अपरिचित हिन्दुस्तानी ग्राहक के कमरे में घुसते ही वह बेहोश होकर वायु झोंके से उखड़े हुए केले के वृक्ष की भाँति भूमि पर गिर पड़ी।
वह मनुष्य चौंककर देखने लगा और इस आकस्मिक विपत्ति के आने से हतबुद्धि सा हो गया। मकान वाली की चिल्लाहट से मकान की सभी स्त्रियों की कच्ची नींद टूट गयी, तुरन्त ही वे दौड़कर चली आयीं और कोई जल लाकर, कोई पंखा लाकर उस अभागिनी की शुश्रूषा करने में लग गयी।
और मकान वाली दरवाज़े पर बैठकर ऊँचे स्वर से लगातार घोषणा करने लगी कि इस काम में उसने अपने बाल पका दिये, लेकिन आज तक इस तरह के नखरे और ढोंग न सीख सकी। आज तक भी नागर को देखकर दाँत लगाने की युक्ति उसने नहीं सीखी।
एकाएक इस दुर्घटना के बीच फिर एक नयी गड़बड़ी सुनायी पड़ी। ख़बर मिली कि मुख्य द्वार पर कोई एक नया बाबू आया है, और दिवाकर तथा भाभी कहकर बड़ा शोरगुल मचा रहा है। नौकर से मकान वाली इस आगन्तुक बाबू का विशेष परिचय पूछ रही थी कि उसी समय एक लम्बे शरीर का पुरुष एक बहुत बड़ा चमड़े का बैग हाथ में लिये सामने आकर गम्भीर स्वर में पुकार उठा, “भाभी!”
उसके दायें हाथ की में एक हीरे की अँगूठी सूर्य की किरणों से चमक उठी। मकान वाली ने आदर के साथ खड़ी होकर पूछा, “किसको खोज रहे हैं?”
“दिवाकर यहाँ रहता है?”
मकान वाली ने कहा, “नहीं।”
“मेरी भाभी? किरणमयी किस कमरे में रहती हैं?”
मकान वाली के साथ ही साथ और भी दो-चार स्त्रियाँ गर्दन बढ़ाकर देख रही थीं। उनमें से किसी ने कहा, “वही तो मूर्च्छित होकर पड़ी हुई है जी।”
“मूर्च्छित हुई है? कहाँ? देखूँ!” कहकर आगन्तुक सज्जन भीड़ को ठेलकर कमरे में जा पहुँचा।
बेहोश किरणमयी उस समय भी भूमि पर पड़ी हुई थी। सारा शरीर पसीने से तर हो रहा है - आँखें मुँदी है, चेहरा पीला पड़ गया है, बाल भीगे बिखरे हुए हैं, शरीर का कपड़ा खिसक गया है...।
आगन्तुक था सतीश। उसकी दृष्टि उस हिन्दुस्तानी पर जा पड़ी। इस समय वह पास आकर टकटकी लगाये किरणमयी को देख रहा था। सतीश ने विस्मित और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पूछा, “ऐं तू कौन है?”
उसकी ओर से मकान वाली ने उत्तर दिया, “अहा! ये तो हमारे मारवाड़ी बाबू हैं। वही तो...।”
लेकिन परिचय देना समाप्त होने के पूर्व ही सतीश ने उस व्यक्ति को दरवाज़ा दिखाकर कहा, “बाहर जाओ।”
मारवाड़ी के पास रुपये हैं, यह है नवीन प्रेमि, विशेषतः इतनी स्त्रियों के सामने वह हीन भी नहीं हो सकता। इसलिए साहस के साथ उसने कहा, “क्यों?’
असहिष्णु सतीश ने तख्ते की फ़र्श पर ज़ोर से पैर पटककर धमकाकर कहा, “बाहर जाओ, उल्लू!”
सब लोगों के साथ मकान वाली तक चौंक उठी। और फिर कुछ न कहकर मारवाड़ी बाहर चला गया।
सतीश किरणमयी के शरीर को उसके खिसके हुए कपड़े ढककर एक पंखा लेकर ज़ोर से हवा करने लगा और दोनों को घेरकर उपस्थित स्त्रियाँ विचित्र कलरव करने लगीं। इन लोगों की तरह-तरह की आलोचना से थोड़ी ही देर में सतीश बहुत सी बातें जान गया। मकान वाली क्षोभ और अत्यन्त आश्चर्य प्रकट करके बार-बार कहने लगी, “इतनी बड़ी उमर बीत जाने पर भी ऐसी औरत मैंने कभी नहीं देखी कि वेश्या कहने से वह आँखें उलटकर दाँत लगाकर बेहोश हो जाये।”
कुछ देर के बाद होश आने पर किरणमयी माथे का कपड़ा सम्भालकर उठ बैठी। क्षणभर देखती रहकर क्षीण स्वर से बोली, “बबुआजी!”
सतीश ने प्रणाम करके पाँवों की धूलि सिर पर चढ़ाकर कहा, “हाँ भाभी, मैं ही हूँ। लेकिन बात क्या है, बताओ तो। जैसा पहनावा है वैसा ही घर-द्वार है, वैसी ही शरीर की शोभा है - कौन कहेगा कि यही हैं सतीश की दीदी! मानो कहीं की एक अनाथ पगली है। लड़कपन तो बहुत किया, अब कल के जहाज से घर चलो।” स्त्रियों की ओर देखकर कहा, “अब तुम लोग जाओ।”
किरणमयी निश्चल पत्थर की मूर्ति की भाँति मुँह झुकाये निहारती रही। उसके हृदय की बात अन्तर्यामी ही जानें। लेकिन बाहर से कुछ भी प्रकट नहीं हुआ। स्त्रियों के बाहर चले जाने पर सतीश ने कहा, “वह सुअर कहाँ हैं भाभी!”
किरणमयी ने मुँह ऊपर उठाये बिना ही कहा, “इतने दिनों तक तो यहीं था, कल रात को दूसरी जगह चला गया है।”
“क्यों?”
“मैंने चले जाने को कहा था, इसलिए।”
“लेकिन बुलाने से क्या एक बार आयेगा नहीं?”
“बुलाकर देखती हूँ।” यह कहकर किरणमयी बाहर जाकर घर के नौकर को कालीबाड़ी भेजकर फिर लौट आयी। बोली, “तुम आओगे, यह बात मेरे लिए स्वप्न से भी बाहर की बात थी बबुआ।”
सतीश ने कहा, “मेरा आना क्या मेरे लिये भी स्वप्न से अतीत की बात नहीं है भाभी?”
“यह तो है ही।” कहकर किरणमयी फिर गर्दन झुकाये बैठी रही। उसको बहुत सी बातें जानने की आवश्यकता थी। सतीश अपने घर की दासी से पता लगाकर आया है, यह समझना कठिन नहीं है, लेकिन एकाएक इतने दिनों के बाद पता लगाकर लौटा ले जाने के लिए इतनी दूर आने का यथार्थ कारण अनुमान करना सचमुच ही कठिन था। लेकिन आने का कारण सतीश ने स्वयं ही प्रकट कर दिया। बोला, “कल जहाज छूटेगा। मैं तुम लोगों को लिवा ले जाने के लिए आया हूँ, भाभी।”
किरणमयी ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “उपेन बबुआ ने भेजा है? बहुत अच्छा, दिवाकर को ले जाओ। मैं प्रार्थना करती हूँ वह चला जाये तो अच्छा है।”
सतीश ने कहा, “केवल दूसरों की आज्ञा पूरी करने के लिए ही इतनी दूर नहीं आया हूँ, अपनी ओर से भी मुझे इसकी आवश्यकता है। सोचती हो तो फिर इतने दिनों के बाद क्यों? मुझे कोई पता ही नहीं मिलता था। उसके बाद बाबूजी मर गये, स्वयं मैं भी जाने वाला ही था, सम्भवतः कभी भेंट ही न होती।”
किरणमयी ने मुँह ऊपर उठाकर देखा। उसकी दोनों आँखों से संसार का समस्त स्नेह मानो सतीश के शरीर पर बरस पड़ा। क्षणभर के बाद वह करुण कण्ठ से बोली, “मैं किसके पास जाऊँगी बबुआ, मेरा अपना कौन है?”
“मेरे पास चलोगी भाभी, मैं हूँ।”
“लेकिन मुझे आश्रय देना क्या अच्छा होगा?”
सतीश ने कहा, “तुमको स्मरण नही है भाभी? बहुत दिन पूर्व इस भले-बुरे का सदा के लिए निश्चय हो चुका था, जिस दिन तुमने छोटा भाई कहकर पुकारा था। यदि तुमने कोई अन्याय किया होगा तो उसका उत्तर तुम दोगी, लेकिन मेरी जवाबदेही यही है कि मैं तुम्हारा छोटा भाई हूँ - तुम्हारा विचार करने का मुझे अधिकार नहीं है।”
ये बातें सुनकर किरणमयी का मन करने लगा कि कहीं भागकर एक बार जी भरकर रो ले, लेकिन अपने को सम्भालकर कहा, “लेकिन बबुआ, समाज तो है?”
सतीश ने बीच में रोककर कहा, “नहीं, नहीं है। जिसके पास रुपया है, जिसके शरीर में बल है, उसके विरुद्ध समाज नहीं रह सकता। ये दोनों वस्तुएँ मुझे कुछ परिमाण में मिल गयी हैं भाभी।”
उसके बातें कहने के ढंग से किरणमयी को हँसी आ गयी। फिर कुछ मौन रहकर बोली, “बबुआ, रुपया और शरीर के बल से तुम समाज को भले ही न मानो, लेकिन अपनी अश्रद्धा के साथ से इस पापिष्ठा को बचाओगे किस प्रकार?”
सतीश आवेश के साथ बोल उठा, “मैंने लिखना-पढ़ना नहीं सीखा है, मैं हूँ गँवार, मूर्ख आदमी भाभी, इतने तर्कों का उत्तर भी मैं नहीं दे सकता। इतनी छान-बीन करके भले-बुरे का हिसाब भी मैं करना नहीं जानता। और यह क्या सतयुग है कि दुनिया भर के लोग उपेन भैया की भाँति युधिष्ठिर बन जायेंगे? यह तो है कलिकाल, अन्याय, कुकर्म तो लोग करेंगे ही, इनका लेखा-जोखा लिखकर कौन बैठा हुआ है? मेरा विचार उलटा है, उसे चाहे तुम अच्छा कहो या बुरा कहो भाभी, मैं देखता हूँ कि कौन क्या काम करता है, हारान भैया की मृत्यु के समय तुम्हारी वह पति-सेवा तो मैंने अपनी आँखों से देखी थी। वही तुम अब असती हो जाओगी, इस बात पर मैं मर जाने पर भी विश्वास न कर सकूँगा। चाहे जो कुछ भी हो, मैं तुमको लेकर ही जाऊँगा। बीमारी ने मुझे ज़रा सुस्त तो अवश्य बना दिया है, फिर भी इस मुहल्ले के लोगों में सामथ्र्य नहीं है कि तुमको सहायता देकर मेरे हाथ से तुम्हें छीन ले। कल तुमको कन्धे पर उठाकर मैं जहाज पर अवश्य चढ़ाऊँगा चाहे तुम कितनी ही आपत्ति क्यों न करो।”
किरणमयी हँस पड़ी। अपराध की समस्त कालिमा धुल के मिट गयी। सरल स्निग्ध हँसी की छटा से समूचा मुँह खिल उठा। क्षणभर के लिए जान पड़ा, मानो कोई भी निन्दनीय कार्य उसने नहीं किया, केवल रुष्ट होकर दो दिन के लिए ससुराल से अपने मैके चली आयी थी। स्नेहमय देवर लौटा ले जाने के लिए प्रार्थना कर रहा है।
उसी समय किवाड़ के बाहर से पुकारकर दिवाकर कमरे में आया। उसने कहा, “मुझे तुमने बुलवाया था?” यह कहने के साथ ही खटिया पर उसकी दृष्टि पड़ी। वह इस प्रकार चौंक पड़ा मानो भूत देखने से कोई चौंक पड़ता है। बाहर के उजाले से कमरे के अन्धकार में प्रवेश करके उसने पहले सतीश को नहीं देखा था। अब पहचानकर उसका चेहरा पीला पड़ गया।
सतीश ने हँसकर कहा, “मैं उपेन भैया नहीं हूँ, सतीश भैया हूँ - कुकर्मों का राजा। बैठ, उपेन भैया का परवाना लेकर आया हूँ, कल प्रातः ही साढ़े छः बजे के पहले पहला जहाज छूटेगा, स्मरण रखना।”
दिवाकर वहीं बैठ गया, दोनों घुटनों के बीच मुँह छिपाकर बड़ी देर के बाद उसने कहा, “मैं न जाऊँगा, सतीश भैया!”
सतीश ने कहा, “तेरी मिट्टी जायेगी। उपेन भैया की आज्ञा है - जीवित या मृत विद्रोही दिवाकर का सिर चाहिये ही।”
दिवाकर ने कहा, “तो उसका सिर ही ले जाना सतीश भैया। उसे मैं सबेरे छः बजे के भीतर ही लाकर दे दूँगा।”
सतीश ने एक प्रकार की आवाज़ निकालकर कहा, “अरे बाप रे! लड़के का क्रोध तो देखा। लेकिन तू जायेगा क्यों नहीं?”
दिवाकर ने कहा, “तुम क्या पागल हो सतीश भैया? संसार में क्या मुझे कोई हक है जिसके पास मैं अब जाकर सिर ऊँचा करके खड़ा हो सकूँ?”
सतीश ने कहा, “ठीक है। सिर ऊँचा करने में आपत्ति हो तो झुकाकर ही खड़ा रहना। लेकिन तुझे जाना तो होगा ही। अरे तूने ऐसा कौन-सा बहुत बुरा काम किया है कि लज्जा से मरता जा रहा है? इतने ही दिनों में जो सब विचित्र कर्म मैंने कर डाले हैं, वहाँ चलकर, उन सबका हाल सुन लेना। पंचमकार तभी सब। भूतसिद्धि, वैताल सिद्धि - इन सबका नाम तुमने सुना है कभी? ले, चल, उपेन भैया अब वही उपेन भैया नहीं हैं। हम पाँच आदमियों ने मिलकर उनको एक तरह से ठीक बना दिया है। भाभी, जो कुछ ले चलना है, ले लो मैं टिकट खरीदने जा रहा हूँ।”
उसकी अन्तिम बात किरणमयी के कानों में खटक गयी। उसने पूछा, “ठीक बना देने का क्या अर्थ है बबुआ?”
सतीश ने हँसकर कहा, “चलने पर ही तुम देख सकोगी भाभी।”
उसकी सूखी हँसी को लक्ष्य कर क्षणभर मौन रहकर किरणमयी ने कहा, “लेकिन मैंने तो तुमको कह दिया बबुआ, मैं न जा सकूँगी।”
दिवाकर ने भी दृढ़ स्वर से कहा, “मैं भी किसी प्रकार नहीं जाऊँगा सतीश भैया, तुम झूठमूठ मेरे लिए रुपया नष्ट मत करो।”
सतीश उठने जा रहा था, हताश भाव से बैठ गया। उपेन्द्र की बीमारी की बात अब तक उसने छिपा रखी थी, लेकिन अब छिपा रखना सम्भव नहीं रहा। उसने कहा, “मैं बड़े गर्व के साथ कह आया हूँ कि उन लोगों को लाऊँगा ही। मेरी बात तुम लोग भले ही न रखो, लेकिन उन्होंने क्या तुम लोगों के प्रति कोई ऐसा बड़ा अपराध किया है, कि उनको यह कष्ट तुम लोगों को देना पड़ेगा? मेरे अकेले लौट जाने से उनको कितना दुख होगा, यह तो मैं अपनी आँखों से ही देख आया हूँ। दिवाकर, ऐसा अधर्म मत कर रे! तुझे देखने के लिए ही उनका प्राण अभी अटका हुआ है, नहीं तो बहुत पहले ही चला गया होता।” दोनों सुनने वाले एक ही साथ धीरे से चीख़ उठे।
सतीश कहने लगा, “इसी माघ के अन्त में यक्ष्मा रोग से जब पशु भाभी स्वर्ग को सिधार गयी, तभी समझ गया कि उपेन भैया भी चले जायेंगे। लेकिन उनके जाने की इतनी शीघ्रता है यह बात हम लोगों में से कोई भी नहीं जानता था। वे बाराबर से ही कम बातें करते हैं, स्वर्ग का रथ बिल्कुल ही दरवाज़े पर न आने तक उन्होंने एक भी ख़बर नहीं दी कि उनका सब कुछ तैयार है। तुझे डर नहीं है रे दिवाकर, निर्भय होकर तू चल। हमारे वह उपेन भैया अब नहीं हैं। अब सहश्रों अपराधों को भी वह अपराध नहीं मानते, केवल मुस्कराते रहते हैं। छिः! छि! इस धूल-बालू पर इस प्रकार तुम मत लेटो भाभी। अच्छा, हम लोग बाहर जा रहे हैं, तुम लेटो, उठो मत।” यह कहकर झटपट उठकर सतीश उसके पाँवों को ज़ोर से छूकर ही समझ गया कि किरणमयी बेहोश होकर पड़ी हुई है, स्वेच्छा से भूमि पर लेटी हुई नहीं है।
सतीश और दिवाकर दोनों ही एक दूसरे के मुँह की ओर निहारते स्तब्ध भाव से खेड़े रहे। कुछ देर बाद सतीश ने धीरे से कहा, “ठीक यही भय था मुझे दिवाकर। मैं जानता था कि यह ख़बर वे सह न सकेंगी। दिवाकर ने चकित होकर सतीश के मुँह की ओर देखा। सतीश ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “इतने निकट रहकर भी तुझे मालूम नहीं हुआ दिवाकर? और भय होता है कि सम्भवतः भाभी को मार डालने के लिये ही ले जा रहा हूँ। लेकिन तो भी ले जाना ही पड़ेगा। इस संसार में दो आदमी इस शोक को सह न सकेंगे। लेकिन एक तो स्वर्ग में है, और दूसरी... लेकिन जा, तू पानी ले आ दिवाकर। मैं हवा करता हूँ, यह क्या रे! तू कुछ बोलता क्यों नहीं?”
एकाएक दिवाकर सिर से पैर तक काँप उठा। दूसरे ही क्षण वह अचेतन किरणमयी के पैरों पर औंधा होकर कहने लगा, “ मैं सब समझ गया हूँ भाभी, तुम मेरी पूज्यनीया गुरुजन हो। तो फिर क्यों इतने दिन छिपाकर तुमने मुझे नरक में डुबोया। मैं इस महापाप से कैसे छुटकारा पाऊँगा भाभी!”
चौवालीस
उपेन्द्र ने कहा था, “सावित्री, मेरी इन थोड़ी-सी हड्डियों को गंगाजी में डाल देना बहन, बहुत-सी ज्वालाओं से जल रहा हूँ, कुछ भी तो ठण्डा हो सकूँगा।”
सावित्री को वह आजकल कभी तो ‘तुम’ कभी ‘तू’ जो भी मुँह से निकलता था, वही कहकर पुकारते थे। सावित्री ने उनकी इस अन्तिम इच्छा और अन्तिम चिकित्सा के लिए कुछ दिन हुए, कलकत्ता के जोड़ासांको मोहल्ले में एक मकान किराये पर ले रखा था। आज संध्या के बाद वर्षा की एक झड़ी हो गयी थी, पर आकाश के बादल फटे नहीं थे। उपेन्द्र ने बहुत देर के बाद अपनी थकी हुई दोनों आँखें खोलकर कहा, “सामने की खिड़की तू ज़रा खोल दे बहन, उस बड़े तारे को एक बार देख लूँ।”
सावित्री ने उसके माथे पर से रूखे बालों को धीरे-धीरे हटाते हुए मृदु स्वर से कहा, “शरीर में ठण्डी हवा लगेगी भैया।”
“लगने दो न बहन! अब उससे मुझे भय क्या है?”
आज ही केवल उसको भय नहीं है ऐसा नहीं, जिस दिन सुरबाला चली गयी, उसी दिन से नहीं है; लेकिन इसीलिये सावित्री का भय तो दूर नहीं हुआ है। जब तक साँसा तब तक आशा’ सम्भवतः यही उसे मान्य है। इसी कारण जबकि मृत्यु सिरहाने के पास उसके साथ समान आसन जमाकर बैठ गयी है, तब भी वह तुच्छ हवा को नाक के अन्दर आने देने का साहस नहीं कर पा रही है। अनिच्छुक कण्ठ से उसने कहा, लेकिन तारा तो दिखायी नहीं पड़ता भैया, आकाश में तो बादल छाये हुए हैं।”
उपेन्द्र ने दोनों मलिन नेत्रों को उत्साह से विस्फारित करके कहा, “बादल? आह! असमय का बादल बहन, खोल दे, खोल दे एक बार देख लूँ फिर तो देख न सकूँगा।” बाहर ठण्डी हवा बड़े वेग से बह रही थी। सावित्री ने ललाट पर, छाती पर हाथ रखकर देखा, ज्वर बढ़ रहा है। प्रार्थना करके वह बोली, “अच्छे हो जाओ, बादल तो कितने ही देखोगे भैया। बाहर आँधी चल रही है, आज मैं खिड़की न खोल सकूँगी।”
उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उपेन्द्र ने रुष्ट होकर कहा, “भला चाहती है तो खोल दे सावित्री, नहीं तो बरसात के दिनों में जब बादल उठेंगे, तब तू रो-रोकर मरेगी यह मैं कहकर ही जा रहा हूँ। मैं अब देखने का समय न पाऊँगा।”
सावित्री ने फिर कोई प्रतिवाद नहीं किया। उसने एक बूँद आँखों का आँसू पोंछकर उठकर खिड़की खोल दी।
उस खुली खिड़की के बाहर उपेन्द्र टकटकी बाँधे देखते रहे। आकाश के किसी अदृश्य छोर से रह-रहकर बिजली चमक उठती थी। उसकी चमक की छटा से सामने के गाढ़े काले बादल झलक उठते थे। उन्हें देखते-देखते उपेन्द्र की साध किसी प्रकार भी मिट नही रही है, ऐसा जान पड़ रहा था।
सावित्री स्वयं भी एक छड़ पकड़कर उसी ओर देखती हुई मौन खड़ी थी। उपेन्द्र की दृष्टि एकाएक उस पर पड़ गयी तो मन ही मन हँसकर वह बोले, “बन्द कर दे, बन्द कर दे, खिड़की बन्द करके मेरे पास आकर बैठ। लेकिन इतनी माया तो अच्छी नहीं है बहन! तनिक भी हवा शरीर पर तू लगने देना नहीं चाहती, लेकिन मेरे चले जाने पर तू क्या करेगी बता तो?”
सावित्री खिड़की बन्द करके पास आकर बैठ गयी। बोली, “तुम तो कह चुके हो कि मुझे काम देकर जाओगे। मैं जीवन भर उसी को करती रहूँगी। तुम मेरी आँखों के सामने ही दिन-रात रहोगे?”
“कर सकोगी?”
सावित्री ने धीरे से कहा, “कर क्यों न सकूँगी भैया। तुम्हारी बात के लिए तो वह ‘नहीं’ न कहेंगे।”
उपेन्द्र ने हँसते हुए कहा, “वह कौन? सतीश?”
सावित्री सिर झुकाये मौन ही रही।
उपेन्द्र ने उसके सलज्ज मौन मुख की ओर देखकर लम्बी साँस लेकर कहा, “सावित्री, सतीश मेरा कौन है, यह दूसरों के लिए समझना कठिन है। बाहर से जो दिखायी पड़ता है, उससे तो वह मेरा साथी है, मेरा आजन्म का सखा है। लेकिन जो सम्बन्ध दिखायी नहीं पड़ता, उससे सतीश मेरा छोटा भाई है, मेरा शिष्य है, मेरा सदा सेवक है। उसी रात को बहन, यदि तू अपना पूरा परिचय देकर हम लोगों को लौटा ले जाती तो सम्भव है, मेरा अन्तिम जीवन इतने दिन दुख में न बीतता। दिवाकर भी सम्भवतः मुझे इतनी व्यथा देने का सुयोग न पा सकता।”
अश्रुभरे नेत्रों से सावित्री ने कहा, “मैंने तुम लोगों को लौटाना चाहा था भैया, लेकिन किसी प्रकार भी उन्होंने मुझे जाने नहीं दिया, दोनों चौखटों पर हाथ रखकर मेरा मार्ग उन्होंने रोक दिया। कहा, “उनके सामने जाने से उनका अपमान करना होगा।”
“उनकी इच्छा।” कहकर उपेन्द्र चुप हो गये।
घर पर उपेन्द्र के पिता शिवप्रसाद गठिया रोग से श य्या पर पड़े हुए थे। गृहस्थी का काम-धन्धा छोड़कर माहेश्वरी उनके साथ न आ सकी थी। लेकिन मझले भाई अभिभावक बनकर कलकत्ता के डेरे पर थे। उनके और एक दूसरे मनुष्य के पैरों की आहट सीढ़ी पर सुनायी पड़ीं।
दूसरे ही क्षण वह कविराज को साथ लिये कमरे में आ गये। कविराज ने उपेन्द्र की नाड़ी देखकर ज्वर की परीक्षा करके ज्यों ही दवा बदलने का प्रस्ताव किया, त्यों ही उपेन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा, “इसके लिए तो मुझे क्षमा करें वैद्यजी। आपसे छिपा तो कुछ नहीं है। तो फिर जाते समय और क्या दुख दीजियेगा?”
बूढ़े चिकित्सक के नेत्र भर आये। बोले, “हम लोग हैं चिकित्सक, अन्तिम क्षण तक हमें निराश न होना चाहिये बेटा। इसके अतिरिक्त भगवान यदि सारी आशाएँ समाप्त कर दे फिर भी कष्ट दूर करने के लिए दवा तो चाहिये ही।
उपेन्द्र और प्रतिवाद न करके चुप हो गया।
“तब दवा बदलकर प्रयोगविधि बताकर चिकित्सक चला गया। उनको भरोसा तो रंचमात्र भी न था। बल्कि आज वे खूब अच्छी तरह जान गये कि रोगी की मृत्यु का समय क्षण-प्रतिक्षण तीव्र गति से निकट आ रहा है।”
तीन दिन बाद सोमवार को सबेरे सावित्री एक तार हाथ में लिये आयी और बोली, “कल प्रातःकाल वे लोग जहाज पर चढ़ चुके हैं।”
“किसी का नाम सतीश ने नहीं दिया है? कहाँ है, देखूँ?”
उपेन्द्र के पसारे हुए हाथ पर सावित्री ने तार रख दिया।
तार के काग़ज़ को उन्होंने उलट-पुलटकर देखा फिर सावित्री को लौटाकर एक लम्बी साँस ली।
जाते समय सतीश उससे एकान्त में कह गया था कि किरणमयी से भेंट हो जाने पर जैसे ही होगा, वह उसको अवश्य लौटा लायेगा। अपना भाई-बहन का सम्बन्ध भी बताकर गया था।
इस परम आश्चर्यमय रमणी को एक बार देखने का कौतूहल सावित्री को बहुत दिनों से था, लेकिन नासमझ सतीश कहीं उसको इस घर में ही न ले आये, यह आशंका भी उसको थी। उसने कहा, “वे सब ओर से विचार करके काम नहीं करते, मुझे भय होता है भैया कि वे किरणमयी भाभी को यहीं न ले आयें।”
उपेन्द्र के होठों पर वेदना की सूखी हँसी दिखायी पड़ी। उन्होंने कहा, “इस घर में वह आयेगी क्यों बहन? इस देश में यदि वह लौट भी आये तो समझना होगा कि उसका दूसरा कारण है। लेकिन वह तो सावित्री नहीं है, वह तो कोई नासमझ नहीं है, तेरी तरह वह लोक और परलोक को समान बनाकर नहीं बैठी है, वह क्यों जान-बूझकर इस भयंकर व्याधि के गर्त में गिरने आयेगी, बता तो।”
सावित्री ने आँखें झुकाकर बड़े कष्ट से आँसू रोके। अपने को सम्भालकर उपेन्द्र ने फिर कहा, “एक आश्चर्य की बात तो यह देख सावित्री, किसी समय उसने सचमुच ही मुझसे प्रेम किया था।”
यह सुनकर सावित्री सचमुच ही आश्चर्य में पड़ गयी। क्योंकि यह बात उसने सतीश के मुँह से भी नहीं सुनी थी। “तो क्या वह बात सच नहीं थी भैया?”
उपेन्द्र ने कहा, “वह बात भी सच थी बहन। वह एक अद्भुत बात है। तुझे और सुरबाला को न जान लेने से मुझे ज्ञात होता कि ऐसी सेवा भी सम्भवतः और कोई स्त्री नहीं कर सकती। पति को इतना अधिक प्यार करना भी सम्भवतः किसी के सामर्थ्य में नहीं है।”
सावित्री ने कहा, “लेकिन यह तो छलना नहीं हो सकती।”
उपेन्द्र ने सहमति जताकर कहा, “नहीं, छलना तो नहीं है, उसने तो कभी किसी की दिखाना नहीं चाहा, उसकी पति-सेवा के साक्षी केवल भगवान ही थे और हम दोनों - सतीश और मैं।”
थोड़ी ही देर के बाद उनको डाक्टर अनंगमोहन की बात स्मरण पड़ गयी। स्थिर रहकर वह बोले, “आज तो मेरा किसी पर क्रोध नहीं, घृणा नहीं, विद्वेष नहीं, विराग नहीं, आज मुझे बड़ी व्यथा के साथ ऐसा ख़्याल आ रहा है कि वह सारा जीवन केवल इधर-उधर टटोलती हुई ही घूमती रही है, लेकिन किसी दिन उसे कुछ भी नहीं मिला। उसने मुझे भी कभी प्यार नहीं किया। कुछ भी प्यार करती तो क्या इतनी व्यथा दे सकती? दिवाकर हम लोगों का क्या था, इसे तो वह जानती थी। उसके हाथ में ही तो मैं उसे सौंप गया था।
मैंने सोचा था, मेरे स्नेह की वस्तु को वह भी स्नेह की दृष्टि से देखेगी। ओह! कितनी बड़ी भूल मुझसे हुई थी!”
उपेन्द्र ने कुछ देर तक मौन रहकर कहा, “इसीलिये सोच रहा हूँ, सतीश बिना सोचे-समझे उसको साथ लिये यहीं कहीं न आ पहुँचे।”
सावित्री ने कहा, “नहीं, यह किसी प्रकार भी न हो सकेगा भैया। अपनी बहन के रहने की व्यवस्था वे कहीं करें, लेकिन यहाँ नहीं।”
उपेन्द्र कोई बात कहने ही जा रहे थे, लेकिन मुँह की बात मुँह में ही रह गयी। अघोरमयी किसी प्रकार बीमारी की ख़बर पाकर उपेन्द्र के गुणों की प्रशंसा करते हुए रोते-रोते कमरे में आ गयी।
इस बीमारी की भयंकरता की उनको विशेष कुछ धारणा नहीं थी। फिर भी, यह कहकर वह विलाप करने लगीं, “मुझ मुँहजली का जबकि भीख माँगते फिरने का समय आ गया है, और जबकि बिना खाये सूखकर मर जाना ही अनिवार्य हो गया है तब उपेन्द्र की सभी विपत्तियों को लेकर मैं ही क्यों नहीं मर जाती!”
उपेन्द्र ने इतने दुख में भी हँसकर कहा, “तुमको खाना क्यों न मिलेगा मौसी?” सावित्री को दिखाकर कहा, “मेरे जाने पर भी, अपनी इस बहन को रख जाता हूँ, यह तुम लोगों को कष्ट न देगी।”
अभी तक सावित्री पर नज़र नहीं पड़ी थी अघोरमयी की। उपेन्द्र के कहने पर कठोर परिश्रम और मानसिक पीड़ा के कारण क्लांत, श्रीहीन बहन की ओर देखकर उसके कौतूहल व विस्मय की सीमा नहीं रही, लेकिन निवृत्ति के लिये उन्होंने मुँह खोला ही था कि काम के बहाने सावित्री कमरे से चली गयी।
वृहस्पतिवार को दिन में दस-ग्यारह बजे सतीश जहाजघाट पर उतरकर गाड़ी किराये पर ले रहा था। उसने देखा कि बिहारी खड़ा है। मालिक को देखकर उसने पास आकर प्रणाम किया। किरणमयी पास ही खड़ी थी। बिहारी को सन्देह हुआ कि यह वह ही है। उसने इसके पहले कभी देखा नहीं था, केवल सुना था कि वह असाधारण सुन्दरी है। लेकिन मैले-कुचैले कपड़े पहने इस साधारण स्त्री में सौन्दर्य का विशेष कुछ भी न देखकर उसने समझा कि यह कोई दूसरी ही स्त्री हैं उसने धीरे-धीरे कहा, “माँजी, बाबू ने कहा है, यदि वह बहू आ गयी हों तो उसे और कहीं रखकर दो आदमी डेरे पर आयें, उसको साथ लेकर न आयें।”
सतीश भूख-प्यास और थकावट से यों ही दुखी हो रहा था। बिहारी का यह अपमानजनक प्रस्ताव किरणमयी के मुँह पर ही सुनकर वह जल उठा, बोला, “क्यों? उनको पेड़ के नीचे छोड़कर हम लोग उनके घर जायेंगे? जाकर कह दे, हम लोग वहाँ जाना नहीं चाहते।”
बिहारी का मुख उदास हो गया। किरणमयी ने निकट आकर रूखी हँसी हँसकर कहा, “यह तो ठीक बात है बबुआ। इसमें रुष्ट होने की तो कोई बात ही नहीं है। अब बाबू कैसे हैं बिहारी?”
बिहारी के उत्तर देने के पूर्व ही सतीश ने और भी रुष्ट होकर कहा, “तुझे किसने यह बात कहने के लिए भेजा है? सावित्री ने? देखता हूँ, उसका दिमाग़ बहुत चढ़ गया है।”
सावित्री के प्रति इस कड़ी बात को सुनकर बिहारी ने व्यथित होकर किरणमयी के मुँह की ओर देखकर कहा, “आप ठीक कह रही हैं माँजी। बाबू बिना समझे ही क्रोध कर रहे हैं। इन सब बीमारियों में कोई भी क्या वहाँ जाना चाहेगा? उपेन्द्र बाबू ने कल रात को सावित्री को बुलाकर स्वयं ही कहा था, डरने की बात नहीं है, किरणमयी मेरी बीमारी का नाम सुनकर इस मकान में ही क्यों, इस मुहल्लें में भी न आयेगी। सावित्री की तरह सभी को मरने जीने...।”
किरणमयी का मुख वेदना से एकदम विकृत हो गया। उसने कहा, “यह बात क्या बाबू ने कही थी बिहारी?”
बिहारी सिर हिलाकर उत्साह से कोई बात कहने ही जा रहा था कि सतीश ने धमकाकर कहा, “तू चुप रह। अभागा कहीं का!”
धमकी खाकर बिहारी सहम गया। किरणमयी ने कहा, “उस पर रुष्ट होने से क्या होगा बबुआ?” उसके बाद बिहारी की ओर देखकर कहा, - ‘अपने बाबू से कहो, भय की बात नहीं है। उनकी आज्ञा पाये बिना मैं वहाँ न जाऊँगी।” फिर सतीश से कहा, “बबुआ, आज मुझे किसी होटल में रखकर क्या कोई छोटा-सा मकान किराये पर नहीं मिल सकता?”
सतीश ने उत्तेजित होकर कहा, “कलकत्ता शहर में मकान की क्या चिन्ता है भाभी! एक घण्टे में सब ठीक कर दूँगा। आ रे दिवाकर, ज़रा जल्दी-जल्दी चल।” यह कहकर उसने किरणमयी को गाड़ी पर चढ़ा दिया और स्वयं कोचबक्स पर चढ़ बैठा।
गाड़ी के चले जाने पर क्षुब्ध और लज्जित बिहारी उदास मुख से धीरे-धीरे मकान की ओर चला गया।
सुविधा मिलते ही सावित्री भोर में झटपट गंगाजी में जाकर डुबकी लगा आती थी। सतीश के लौट आने के बाद, इधर लगाकर कई दिनों से वह प्रतिदिन ही गंगा स्नान करने जाती है।
चार-पाँच दिन बाद, एक दिन सबेरे स्नान-पूजा करके उठते ही उसने देखा, फाटक पर कुछ हल्ला-गुल्ला मचा हुआ है। एक बूढ़े ब्राह्मण स्नान करने के बाद नामावली ओढ़े मंत्र जपते-जपते घर जा रहे थे, कहीं से एक पगली ने आकर उनका मार्ग रोक लिया। कहीं छूकर गंगा-स्नान का सब पुण्य वह मिट्टी में न मिला दे, इस भय से बूढ़े घबरा गये। पगली विनय के साथ अद्भुत प्रश्न कर रही थी, “महाराज, आप भगवान पर विश्वास करते हैं? उनको पुकारने से वे आते है? कैसे आप लोग उन्हें पुकारते हैं? मैं पुकार नही सकतीं? मुझे विश्वास क्यों नही होता?”
प्रत्युत्तर में ब्राह्मण छूतछात के भय से संकुचित होकर कह रहे थे, “देख, अभी पहरेदार को पुकारता हूँ। राह छोड़ दे।”
दो-चार प्रौढ़ा स्त्रियाँ भी खड़ी होकर कौतुक से देख रही थीं। उनमें से किसी ने कहा, “यह पागल नहीं है। इसने रात भर शराब पी है।”
यह सुनकर पगली ने कातर होकर कहा, “मैं भले घर की लड़की हूँ, मैं शराब नहीं पीती। वहीं तो मेरा घर है। मैं केवल तुम लोगों से हाथ जोड़कर पूछती हूँ, क्या सचमुच ही भगवान है? तुम लोग क्या उनका चिन्तन कर सकती हो, उनकी भक्ति कर सकती हो? मैं क्यों नहीं कर सकती? मैं परसों से उनको कितना पुकार रही हूँ।” यह कहते-कहते उसकी दोनों आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।
सावित्री ने भी उसे पागल समझा, लेकिन फिर भी, इस अपरिचिता उन्मादिनी के अश्रुजल से भीगी हुई व्याकुल प्रार्थना उसके सैकड़ों दुखों को वेदना से परिपूर्ण हृदय पर मानो हाहाकार करके जा पड़ी और पलभर में उसकी भी दोनों आँखें आँसू से भर गयीं। पगली की दृष्टि एकाएक इस ओर पड़ते ही बूढ़े को छोड़कर सावित्री के सामने आकर वह बोली, “तुम भी तो संध्या-वन्दना करती हो, तुम मुझे बता सकती हो?”
चारों ओर भीड़ हो रही है, देखकर सावित्री ने झट से उसका हाथ पकड़ लिया। ज्यों ही उसने उसका हाथ पकड़ लिया त्यों ही उसने चौंककर कहा, “आपने मुझे छू दिया।”
सावित्री ने कहा, “इसमें कोई दोष नहीं है। आप मेरे घर चलिए, मार्ग में चलते-चलते आपका उत्तर दूँगी।” यह कहकहर उस अभागिनी का हाथ पकड़े वह सड़क तक चली गयी।
दो-एक बात कहते ही समझ गयी कि यह स्त्री पागल नहीं है, लेकिन किसी ओर मन लगाने योग्य, मन की अवस्था भी इसकी नहीं है। बातचीत के बीच में ही वह एकाएक बोल उठी, “मैं भगवान से दिन-रात प्रार्थना करती हूँ कि उनके प्रति मैंने अपराध किये हैं इसीलिये उनकी बीमारी मुझे देकर उनको अच्छा कर दो। अच्छा बहन, ऐसा क्या हो सकता है? उपवास करके दिन-रात पुकारते रहने से क्या वास्तव में ही उनको दया आती है? तुम जानती हो?” कहकर उसने तीव्र दृष्टि से सावित्री के मुँह की ओर देखा।
सावित्री की समझ में नहीं आया कि इसका क्या उत्तर देना चाहिये। उसने कहा, “जाती हूँ, गंगा स्नान करके आती हूँ। गंगा-स्नान करने से बहुत पाप कट जाते हैं।” कहकर उत्तर के लिये प्रतीक्षा न कर चली गयी।
पैंतालीस
सावित्री के नेत्रों से सावन की धारा की भाँति आँसू की धारा बह रही है। आज उसकी ही गोद पर उपेन्द्र ने मृत्युशय्या बिछा दी है। दुबले-पतले ठण्डे पाँवों पर मुँह रखकर दिवाकर चुपचाप भीतर ही भीतर रोता हुआ अपने हृदय का असह्य दुख प्रकट कर रहा है। उसका परिताप, उसकी व्यथा अन्तर्यामी के अतिरिक्त और कौन जानेगा? उसे और कौन जानेगा? उस ओर कमरे में माहेश्वरी भूमि पर पड़ी हुई करुण कण्ठ से रो रही है। इस घोर दुख से भरे शोक में केवल सतीश ही अकेला स्थिर भाव से बैठा हुआ है।
आज प्रातःकाल से ही उपेन्द्र के मुँह से रह-रहकर रक्त गिर रहा है। हजार प्रयत्न करने पर भी उसे रोका न जा सका। साँस क्रमशः भारी और तीव्र होती जा रही थी। उसी का दुस्सह क्लेश सहकर उपेन्द्र नेत्र बन्द किये हुए चुपचाप पड़े हुए थे। एक बार नेत्र खोलकर सावित्री के मुँह की ओर देखकर उन्होंने अस्फुट स्वर से पूछा, “रात कितनी है बहन, यह क्या बीतेगी नहीं?”
सावित्री ने आँचल से उनके होंठों पर से रक्तरेखा को पोंछकर झुककर कहा, “अब अधिक नहीं है भैया! क्या बहुत कष्ट हो रहा है?”
उपेन्द्र ने कहा, “नहीं बहन, सबको जैसा होता है वैसा ही हो रहा है, अधिक क्यों होगा?”
ज़रा चुप रहकर उन्होंने इसी प्रकार कहा, “सतीश भाभी का क्या पता नहीं लगा?” आज चार दिनों से किरणमयी एकदम लापता हैं। कलकत्ता पहुँचने के दिन ही सतीश पास ही एक मकान किराये पर लेकर एक नौकरानी रखकर सब आवश्यक प्रबन्ध ठीक कर आया था। लेकिन उपेन्द्र की बीमारी बहुत बढ़ जाने से वह दो-तीन दिनों तक स्वयं आकर खोज ख़बर न ले सका। तीन दिनों के बाद जाकर उसने देखा कि किरणमयी ने किसी वस्तु को छुआ तक नहीं है। नयी हांडी खरीदकर वह जहाँ रख आया था, वहाँ उसी अवस्था में पड़ी हुई है। चूल्हे में कालिख का दाग़ भी नहीं है।
नौकरानी ने आकर कहा, “काम किसका करूँ बाबू? बहू उस दिन जो आयी, खिड़की की छड़ पकड़े राह की ओर निहारती हुई बैठी रही, फिर तो वह उठी ही नहीं, स्नान भी नहीं किया, मुँह में पानी तक भी नहीं डाला। बिछाया बिछौना पड़ा रहा, सोई भी नहीं। उसके बाद कल सबेरे से तो उसे देख भी नहीं रही हूँ। साज-सामान को जो कुछ करना हो करो बाबू, मैं सूने घर में पहरा न दे सकूँगी।”
यह सुनकर सतीश माथे पर हाथ रखकर थोड़ी देर तक बैठा रहा। अन्त में दासी के हाथ में और पाँच रुपये देकर लौट आया। तभी से आदमी भेजकर पता लगाने में उसने त्रुटि नहीं की, लेकिन कुछ भी फल नहीं हुआ।
सभी बातें उपेन्द्र के कानों तक पहुँच चुकी थीं।
अत्यन्त व्यथा के साथ बीच-बीच में सावित्री के मन में यह बात उठ खड़ी होती थी कि उस दिन प्रातःकाल गंगाघाट पर उसने जिसे देखा था, कहीं वही किरणमयी तो नहीं है? लेकिन किरणमयी तो असाधारण सुन्दरी है। उस पगली में भी सुन्दरता थी, लेकिन उसे सुन्दरी तो कहा नहीं जा सकता। लेकिन वह क्यों चली गयी, कहाँ गयी, किसलिये गयी?
उपेन्द्र के उत्तर में सतीश ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं।”
फिर उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया और दूसरे ही क्षण वह तन्द्रा से आच्छन्न हो गये। इस प्रकार शेष रात बीत गयी।
दिन में दस बजे के लगभग फिर एक बार नेत्र खोलकर, ग़ौर से देखकर, मानो पहचानकर वह क्षीण कण्ठ से बोले, “यह कौन है, सरोजिनी है?”
सरोजिनी भूमि पर घुटनों के बल बैठकर बिछौने में मुँह छिपाकर रोने लगी। उपेन्द्र ने धीरे-धीरे दायाँ हाथ उठाकर उसके माथे पर रखकर कहा, “तुम आ गयी बहन? तुमको ही मैं मन ही मन ढूँढ रहा था, लेकिन किसी प्रकार भी स्मरण नहीं कर पा रहा था - आज न आने से सम्भवतः भेंट भी न होती।” यह कहकर वह मानो कुछ देर तक कोई चिन्ता करने लगे। स्पष्ट ही ज्ञात हो गया कि अब सभी बातें स्मरण करने की शक्ति ही नहीं है। एकाएक मानो स्मरण पढ़ते ही उन्होंने पुकारा, “सतीश कहाँ है रे?”
सतीश उस ओर की खिड़की पकड़े बाहर की ओर देखता हुआ चुपचाप खड़ा था। पास आने पर उपेन्द्र ने कहा, “तुम लोगों का ब्याह आँखों से देख जाने का समय नहीं मिला सतीश, लेकिन मेरी इस लक्ष्मी रूपिणी बहन को तू कभी दुख नहीं देना। अपना हाथ एक बार दे तो रे।” यह कहकर उन्होंने कंकाल सदृश हाथ को ऊपर उठाया। सावित्री के झुके मुँह की ओर देखकर क्षणभर के लिये सतीश की छाती धड़क उठी। लेकिन दूसरे ही क्षण उपेन्द्र के काँपते हुए हाथ को अपने बलिष्ठ दायें हाथ से पकड़ लिया।
उपेन्द्र ने मन ही मन जगततारिणी की बात स्मरण करके कहा, “तू सरोजिनी को तो जानता है। उनको मैंने वचन दिया था कि अपने सतीश भाई को मैं तुमको दूँगा! देखना रे, मेरे मर जाने के बाद कोई यह बात न कह सके कि तूने मेरी बात नहीं मानी।”
सतीश अपने आँसू रोक न सका। रोकर बोला, “नहीं उपेन भैया, कोई भी यह बात न कहेगा कि तुम्हारी बातों की अवज्ञा मैंने की है, लेकिन फिर भी छिपाने से तो काम न चलेगा - सभी बातें खोलकर बता देने की तो मुझे आवश्यकता है। मैं अच्छा नहीं हूँ, मुझमें बहुत से दोष हैं, मैं बहुत से अपराधों का अपराधी हूँ - इस पर भी किस प्रकार सरोजिनी ग्रहण करेंगी। बल्कि तुम मुझे यह अधिकार देकर जाओ कि किसी के भय से, किसी लोभ से, किसी दुर्बलता से उसको मैं अस्वीकार न करूँ जिसने मुझे प्यार करना सिखाया है।” यह कहकर उसने ज्योंही सावित्री के मुँह की ओर मुँह घुमाया, चारों आँखें मिल गयीं। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आँखें झुका लीं।
उपेन्द्र हँस पड़े, बोले, “आज भी क्या वह बात मेरे लिये जान लेना शेष है सतीश? मैं सब जानता हूँ। सब जानकर ही मैं तुम लोगों को एक करके जाना चाहता हूँ।” सतीश बोला, “लेकिन मुझे लेकर सरोजिनी सुखी हो सकेंगी?” उत्तर देने की इच्छा से उपेन्द्र ने सतीश के मुँह की ओर देखा। देखते ही सावित्री उच्छवसित आवेग से बोल उठी, “यह भार तो मैंने अपने ऊपर ले लिया भैया। तुम निश्चिन्त रहो।”
उपेन्द्र चुप रहे। वह केवल उसके मुँह की ओर ताकते रहे।
कुछ देर बाद बोले, “आसक्ति का बन्धन अब तुम्हारे लिये नहीं है सावित्री। दुर्भाग्य ने यदि तुमको कुल के बाहर ही निकाल दिया है बहन, तो तुम फिर उसके भीतर जाने की चाह मत करना, मेरा अनुरोध है।”
सुनकर सावित्री पत्थर की मूर्ति की भाँति नेत्र झुकाये बैठी रही। आज सतीश एक और का है, उस पर उसका तनिक भी अधिकार नहीं रहा। उसकी भावनाओं को, उसकी वासनाओं की, उसके परम सुख की, चरम दुख की, उसकी दुस्सह वेदना की आज उसके नेत्रों के सामने ही समाप्ति हो गयी, लेकिन उसने लम्बी साँस तक भी न निकलने दी। व्यथा से छाती के अन्दर ऐंठन पैदा होने लगी। लेकिन सब सहने वाली वसुमती जैसे अपने हृदय की दुर्गम अग्नि ज्वाला को सहती है ठीक उसी प्रकार सावित्री शान्त मुँह से सब सहकर स्थिर बैठी रही।
उपेन्द्र ने कहा, “मैं समझ रहा हूँ बहन, लेकिन भार सम्भाल न सकती तो क्या मैं तुझे यह भार दे जाता?”
प्रत्युत्तर में सावित्री ने केवल उनके माथे के ऊपर पड़े हुए बालों को हटा दिया।
एकाएक सतीश चिल्ला उठा, “ऐं, यह तो भाभी हैं!”
सावित्री ने चौंककर मुँह उठाकर देखा, यह तो वही गंगाघाट की पगली है, बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई अत्यन्त सावधानी से कमरे में आ रही है। पलभर में कमरे के लोग चकित हो गये।
किरणमयी के रूखे बाल मुँह पर, ललाट पर, पीठ पर, सर्वत्र बिखरे पड़े थे। साड़ी फटी हुई मैली थी, चितवन शून्य थी - यह मानो उन्माद शोक-मूर्ति धारण करके एकाएक कमरे में आ खड़ी हुई है।
सतीश की ओर देखकर धीरे-धीरे कहा, “खोजते-खोजते मुझे मकान मिलता ही नहीं था बबुआ। कितने ही लोगों से मैंने पूछा - कोई भी न बता सका कि मकान कहाँ है। आज मैं कालीबाड़ी से आ रही थी, भाग्य से बिहारी से भेंट हो गयी - इसी से उसके पीछे आ सकी?”
उपेन्द्र की ओर घूमकर उसने पूछा, “आज कैसे हो बबुआजी?”
उपेन्द्र ने हाथ हिलाकर बताया, “अच्छा नहीं हूँ।”
किरणमयी ने अत्यन्त वेदना के साथ कहा, “आह! मैं मर जाऊँ! सुरबाला अब नहीं है, सुनकर रोते-रोते मैं मर रही हूँ। वही तो मेरी गुरुआनी थी। उसी ने तो मुझसे कहा था, भगवान है।”
एकाएक उसकी आँखें दिवाकर के पीले चेहरे पर जा पड़ी। तुरन्त ही बोल उठी, “अहा! तुम ऐसे लज्जित क्यों हो रहे हो बबुआ, तुमको क्या इन लोगों ने लज्जित किया है?” यह कहकर उसने उपेन्द्र की ओर तीव्र दृष्टि निक्षेप करके कहा, “इसको तुम लोग दुख मत देना बबुआ, मेरे हाथ में जैसे तुमने इसे सौंप दिया था, उस सत्य को मैंने एक दिन के लिए भी नहीं तोड़ा - उसकी प्राणपण से रक्षा करती आयी हूँ। लेकिन, अब मेरे पास समय नहीं है - फिर तुम लोग इनको वापस ले लो।”
फिर एकाएक शान्त होकर स्निग्ध कण्ठ से बोली, “मेरे आँचल में काली माई का प्रसाद बँधा हुआ है बबुआ, थोड़ा-सा खाओगे? सम्भवतः अच्छे हो जाओगे। सुना है, इस तरह कितने ही लोग अच्छे हो गये हैं।”
एक दिन जिस रमणी के रूप की सीमा नहीं थी, विद्याबुद्धि का भी अन्त नहीं था, यह क्या वही किरणमयी है। आज वह क्या कह रही है, वह स्वयं भी नहीं जानती।
सतीश और सह न सका ‘ओह!’ कहकर कमरे से चला गया और इतने दिन बाद उपेन्द्र के नेत्रों से किरणमयी के लिए आँसू लुढ़क पड़े।
किरणमयी ने झुककर आँचल से उन आँसुओं को पोंछकर कहा, “आह! बबुआजी, अच्छे हो जाओगे।”
सावित्री पर उसकी दृष्टि पड़ी। उसे अच्छी प्रकार क्षणभर देखकर कहा, “उस दिन गंगाघाट पर तुम्हीं से भेंट हुई थी न! ज़रा हट न जाओगी जिससे कि तुम्हारी ही तरह मैं भी बबुआ के पास बैठूँ!”
सरोजिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “मुझे तो पहचानती हो?”
किरणमयी ने कहा, “पहचानती क्यों नहीं, तुम तो सरोजिनी हो।”
सरोजिनी ने कहा, “चलो भाभी, हम लोग उस कमरे में चलकर ज़रा बातचीत करें।” यह कहकर वह उसे पास के कमरे में खींच ले गयी।
कमरे के बाहर जाते ही उपेन्द्र अचेत हो गये। सम्भवतः वेदना और चोट उन्हें असह्य हो गयी थी। सावित्री वैसे ही उनको गोद में लिये बैठी रही। पानी तक मुँह में डालने के लिए वह न उठी।
दोपहर का सारा समय बेहोशी की दशा में बीत गया। लेकिन संध्या के बाद ज्वर बढ़ जाने के साथ ही साथ उनकी चेतना लौट आयी।
नेत्र खोलते ही उनकी दृष्टि पड़ी सावित्री पर। क्षीण स्वर से बोले, ‘तू बैठी हुई है बहन! तुझे छोड़कर जाने की बात स्मरण आते ही मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं सावित्री!
सावित्री ने रोककर कहा, “मुझे भी अपने साथ-साथ ले चले भैया!”
उपेन्द्र ने उसका उत्तर ने देकर सतीश से कहा, ‘भाभी कहाँ हैं?”
सतीश ने कहा, “नीचे सो रही हैं। मेरी नजर में ही है।”
“दृष्टि में ही बराबर रखना भाई, जितने दिनों में फिर उनका स्वभाव ठीक न हो जाये। लेकिन तुझे कोई भय नहीं है सतीश। उनके हृदय में कितना बड़ा आघात दुस्सह हो उठा है, उसे समझने की शक्ति हम लोगों में नहीं है, लेकिन वह आघात जितना ही प्रचण्ड क्यों न हो, वह इतनी बड़ी बुद्धि को चिर दिन आच्छन्न करके न रख सकेगा।”
सतीश बोला, ‘यह तो मैं जानता हूँ, उपेन भैया। फिर तुम्हारे दिवाकर का भी भार मैं ही लेता हूँ यदि विश्वास करके तुम दे जाओ?”
प्रत्युत्तर में उपेन्द्र हँसने की चेष्टा करके करवट बदलकर लेट रहे। बहुत-सी बातों ने बहुत-सी उत्तेजनाओं ने जीवन-दीप के अन्तिम बचे-खुचे तेल को भी जलाकर समाप्त कर दिया। थोड़ी देर में देखा गया मुँह से रक्त बह रहा है, साँस है या नहीं, सन्देह की बात है।
सब लोगों ने पकड़कर उनको नीचे उतार दिया। उपेन्द्र के निष्छल जर्जर प्राण अपनी सुरबाला की खोज में निकल पड़े।
तभी सभी गला फाड़-फाड़कर रो पड़े। उनके गगनभेदी त्रेणी से घर काँप उठा। लेकिन
नीचे के कमरे में किरणमयी उद्वेग-रहित अपमान से सो रही थी।