चरित्रहीन (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Charitraheen (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

एक

पछाँह जैसे बड़े नगर में इन दिनों जाड़े का मौसम आ गया था। रामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य किसी एक शुभ कार्य के लिए धन संग्रह करने इस शहर में आये थे। उनके भाषणों की सभा में उपेन्द्र को सभापति बनना होगा, और उस पद की मर्यादा के अनुकूल जो कुछ कर्त्तव्य है, उनका भी अनुष्ठान पूरा करना होगा, इसी प्रस्ताव को लेकर एक दिन सबेरे कालेज के विद्यार्थियों का दल उपेन्द्र के पास पहुँच गया।

उपेन्द्र ने पूछा - “शुभ कार्य क्या है, ज़रा मैं भी तो सुनूँ।”

उन लोगों ने बताया कि अभी तक इस बात को वे भी नहीं जान पाये। स्वामी जी ने कहा है, इसी बात को वे सभा मे ठीक तरह से समझाकर बतायेंगे और सभा बुलाने की तैयारी और आवश्यकता बहुत अंशों में इसी के लिए है।

उपेन्द्र आगे कोई प्रश्न बिना पूछे इस बात पर सहमत हो गये। ऐसी थी उनकी आदत। विश्वविद्यालय की परीक्षाओं को उन्होंने इतनी अच्छी तरह उत्तीर्ण कर लिया था कि छात्रों की मण्डली में उनकी प्रतिष्ठा की कोई सीमा नहीं थी। इसे वे जानते थे इसलिए, काम-काज, आपद-विपद में वे लोग जब कभी आ जाते थे, तब वे उनके निवेदन और अनुरोधों की उपेक्षा, उनके प्रति ममता के कारण नहीं कर सकते थे। विश्वविद्यालय की सरस्वती को पार करके अदालत की लक्ष्मी की सेवा में नियुक्त हो जाने के पश्चात भी, लड़कों के जिमनास्टिक के अखाड़े से लेकर फुटबाल, क्रिकेट और डिबेटिंग क्लब तक के ऊँचे स्थान पर उनको ही बैठना होता था।

लेकिन इस स्थान पर सिर्फ़ चुपचाप बैठे रहना ही नहीं था, कुछ बोलना आवश्यक था। एक लड़के की ओर देखकर उन्होंने कहा, “कुछ बोलना तो अवश्य पड़ेगा। सभापति बनकर सभा के उद्देश्य के सम्बन्ध में एकदम ही अनभिज्ञ रहना तो मुझे अच्छा नहीं लगता, क्या कहते हैं आप लोग?”

बात तो ठीक थी। लेकिन उनमें से किसी को भी कुछ मालूम नहीं था। बाहर के आँगन में, फूलों से लदे एक पुराने अड़हुल के पेड़ के नीचे, लड़कों का यह दल जब उपेन्द्र को बीच में बैठाकर दुनिया के सभी सम्भव-असम्भव अच्छे कामों की सूची तैयार करने में व्यस्त हो उठा था, उसी समय दिवाकर के कमरे से एक आदमी सबकी नज़रों से बचकर बाहर चला आया। दिवाकर उपेन्द्र का ममेरा भाई है। बचपन में मातृ-पितृहीन होकर मामा के घर रहकर गुज़ारा कर रहा था। बाहर की एक छोटी-सी कोठरी में पढ़ना-लिखना और रात को सोना था। अवस्था प्रायः उन्नीस की थी। एफ़.ए. उत्तीर्ण करके वह बी. ए. में पढ़ रहा था।

इस भगोड़े पर उपेन्द्र की ज्यों ही नज़र पड़ी त्यों ही उन्होंने पुकारकर कहा, “सतीश, तू भागा कहाँ जा रहा है? इधर आ!’

पकड़ में आ जाने पर सतीश भयभीत सा पास आकर खड़ा हो गया। उपेन्द्र ने पूछा, “इतने दिन तुम थे कहाँ?”

अपने अप्रतिभ भाव को छोड़ सतीश हँसकर बोला, “इतने दिन मैं यहाँ था ही नहीं, उपेन भैया। अपने चाचा के यहाँ इलाहाबाद गया हुआ था।”

बात ठीक तरह पूरी भी न हो सकी थी कि एक युवक, जिसकी दाढ़ी-मूँछ सफ़ाचट थी, टेढ़ी माँग, चश्माधारी था, आँखों को तनिक दबाकर दाँत निकालकर बोल उठा, “मन के दुख के कारण ही क्या सतीश?”

हाईस्कूल की परीक्षा में इस बार भी उसे भेजा नहीं गया, इस बात को सभी जानते थे। इसलिए यह बात ऐसी भद्दी सुनायी पड़ी कि सभी उपस्थित लोग लज्जा से मुँह नीचे झुकाकर मन ही मन छीः छीः करने लगे। अपने परिहास का उत्तर न पाने के कारण युवक की हँसी गायब हो गयी। लेकिन सतीश अपना हँसता हुआ चेहरा लेकर बोला, “भूपति बाबू, मन रहने से ही मन में दुख होता है। पास करने की आशा कहिए या इच्छा ही कहिए, मैंने ठीक तरह होश सम्भालते ही छोड़ दी थी। केवल बाबूजी ही छोड़ नहीं सके थे। इस कारण मन के दुख से किसी को यदि घर छोड़ना पड़े तो उसका ही छोड़ना उचित होता, फिर भी वे अटल रह अपनी वकालत करते रहे हैं! लेकिन तुम कुछ भी क्यों न कहो, उपेन भैया, इस बार उनकी आँखें खुल गयी हैं।”

सब लोग हँस पड़े। इसमें हँसने की कोई बात नहीं थी। लेकिन भूपति बाबू के अभद्र परिहास से सतीश नाराज़ नहीं हुआ। इससे सभी को सन्तोष हुआ।

उपेन्द्र ने पूछा, “क्या इस बार तूने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया?”

सतीश ने कहा, “मैंने उसे कब पकड़ रखा था कि आज छोड़ देता? मैंने नहीं उपेन भैया, लिखने-पढ़ने के धन्धे ने ही मुझे पकड़ रखा था। इस बार मैं आत्मरक्षा करूँगा। ऐसे देश में जाकर रहूँगा जहाँ स्कूल ही न हो।”

उपेन्द्र ने कहा, “लेकिन कुछ करना तो आवश्यक है, मनुष्य एकदम चुपचाप रह भी नहीं सकता। यह भी ठीक नहीं है।”

सतीश बोला, “नहीं, चुपचाप नहीं बैठूँगा। इलाहाबाद से एक नया मतलब प्राप्त कर आया हूँ। इस बार अच्छी तरह प्रयत्न करके देखूँगा कि उसका मैं क्या कर सकता हूँ।”

विस्तारित विवरण सुनने के लिए सभी उत्सुक हो रहे हैं देखकर वह लज्जायुक्त हँसी के साथ बोला - “मेरे गाँव मे जिस तरह मलेरिया है, उसी तरह हैजा भी है। पाँच-सात गाँवों में ठीक वक़्त पर शायद एक भी डाक्टर नहीं मिलता। मैं उसी स्थान पर जाकर होमियोपैथी चिकित्सा शुरू कर दूँगा। माँ अपनी मृत्यु के पहले मुझे कई हज़ार रुपये दे गयी हैं। वह रक़म मेरे पास है। उन्हीं से अपने गाँव के घर पर बैठकखाने में एक चिकित्सालय खोल दूँगा। हँसो मत, उपेन भैया, तुम देख लेना, इस काम को मैं अवश्य करूँगा। बाबूजी को मैंने राज़ी कर लिया है। एक महीना बीत जाने के बाद ही मैं कलकत्ता जाकर होमियोपैथी स्कूल में दाखि़ल हो जाऊँगा।”

उपेन्द्र ने पूछा, “एक महीने के बाद ही क्यों?”

सतीश ने कहा, “कुछ काम है। दक्खिन टोले में नवनाट्य समाज को तोड़कर एक लफड़ा निकल पड़ा है। हमारे विपिन बाबू उस दल के नायक हैं। तार पर तार भेजकर उन्होंने ही मुझे बुलाया है। मैंने कह दिया है कि उनकी कन्सर्ट पार्टी को ठीक करके ही किसी दूसरे कार्य में जुटूँगा।”

यह सुनकर सभी ठहाका मारकर हँसने लगे। सतीश भी हँसने लगा। थोड़ी देर में हँसी का वेग जब कुछ शान्त पड़ गया तब सतीश बोला, “एक बंसीवादक का अभाव था, इसीलिए मैं आज दिवाकर के पास आया था। अगर नाटक की रात को वह मेरा उद्धार कर दे तो और अधिक दौड़-धूप नहीं करनी पड़ेगी।”

उपेन्द्र ने पूछा, “वह कहता क्या है?”

सतीश ने कहा, “वह कहेगा ही क्या? कहता है कि परीक्षा नज़दीक है। यह बात मेरे दिमाग़ में घुसती नहीं उपेन भैया, कि दो साल तक पढ़ने-लिखने के बाद दी जाने वाली परीक्षा किस तरह लोगों की एक ही रात की अवहेलना से नष्ट हो जाती है। मैं कहता हूँ, जिनकी सचमुच ही नष्ट हो जाती है, उनकी वह नष्ट हो जाये तो उचित ही है। इस तरह पास करने की मर्यादा जिनके लिए हो उनको ही रहे, मेरे लिए तो नहीं है। तुम इस बात से रुष्ट न हो सकोगे उपेन भैया, मैं तुम को जितना जानता हूँ ये लोग उसका चौथाई भी नहीं जानते। जिमनास्टिक अखाड़े से लेकर फुटबाल, क्रिकेट तक बहुत दिन मैंने तुम्हारी शागिर्दी की है, साथ-साथ घूमकर बहुत दिन, बहुत तरह से, तुम्हारा समय नष्ट होते मैंने देखा है, अनेक परीक्षाओं में भाग लेते भी तुमको देखा है और विधिपूर्वक स्कालरशिप के साथ तुम्हें पास करते भी देखा, लेकिन किसी दिन तुमको परीक्षा की दुहाई देते नहीं सुना।”

इस बात को यहीं दबा देने के उद्देश्य से उपेन्द्र ने कहा, “मुझे तो बाँसुरी बजाना नहीं आता।”

सतीश ने कहा, “मैं भी अक्सर यही बात सोचता हूँ। संसार की यह चीज़ तुमने क्यों नहीं जाना, मुझे इस पर आश्चर्य होता है। लेकिन छोड़ो इस बात को - दुपहरिया की धूप में तुम लोगों की यह बैठक किसलिए?”

जाड़े की धूप की तरफ़ पीठ किये माथे पर चादर लपेटकर इन लोगों की यह बैठक ख़ूब ही जम गयी थी। दिन इतना चढ़ आया है इस ओर किसी ने भी लक्ष्य नहीं किया था। सतीश की बात से समय का ध्यान आते ही सभी चौंककर खड़े हो गये। सभा भंग होते ही भूपति ने पूछा, “उपेन्द्र बाबू, तब क्या होगा?”

उपेन्द्र ने कहा, “मैंने तो कह दिया है, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन तुम लोगों के स्वामीजी का उद्देश्य अगर पहले ही कुछ मालूम हो जाता तो अच्छा होता। एकदम मूर्ख की तरह जाने में संकोच लगता है।

भूपति ने कहा, “लेकिन एक भी बात वे नहीं बताते। बल्कि ऐसा कहते हैं, जो जटिल और दुर्बोध्य हैं, उसको विशद रूप से साफ़ तौर से समझाकर बताने का अवसर और सुविधा न मिलने तक बिलकुल ही न बताना अच्छा है। इससे अधिकांश समय सुफल के बदले कुफल ही होता है।”

चलते-चलते बातचीत हो रही थी। इतनी देर में सभी बाहर आ खड़े हुए।

सतीश ने कहा, “क्या बात है उपेन भैया?”

उपेन्द्र को बाधा देकर भूपति बीच में बोल पड़ा, “सतीश बाबू, आपको भी चन्दे के खाते में दस्तख़त करना पड़ेगा। इसका कारण इस समय हम लोग ठीक तौर से बता न सकेंगे। परसों अपराद्द में कालेज के हाल में स्वामीजी खुद ही समझाकर बतायेंगे।” सतीश ने कहा, “तब तो मेरा समझना नहीं होगा भूपति बाबू। परसों हम लोगों का रिहर्सल होगा। मेरे अनुपस्थित रहने से काम न चलेगा।”

आश्चर्य में पड़कर भूपति ने कहा, “यह कैसी बात आप कह रहे हैं सतीश बाबू! थियेटर की मामूली हानि होने के डर से ऐसे महान कार्य में आप सम्मिलित न होंगे। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?”

सतीश बोला, “लोग न सुनने पर भी बहुत सी बातें कहते हैं। बात यह नहीं है। बात आप लोगों को लेकर है। कुछ भी जानकारी न रहने पर भी आप लोग सन्देह छोड़ इस अनुष्ठान को जीतना महान कहकर विश्वास कर सके हैं यदि मैं उतना न कर सकूँ तो मुझे आप लोग दोष मत दीजियेगा। बल्कि, जिसको मैं जानता हूँ, जिस काम की भलाई-बुराई को समझता हूँ, उसकी उपेक्षा करके, उसको हानि पहुँचाकर, एक अनिश्चित महत्व के पीछे-पीछे दौड़ना मुझे अच्छा नहीं मालूम देता।”

उपस्थित छात्र-मण्डली में आयु और शिक्षा की दृष्टि से भूपति ही सबसे अधिक श्रेष्ठ थे, इसलिए वे ही बातचीत कर रहे थे। सतीश की बात सुनकर उन्होंने हँसकर कहा, “सतीश बाबू, स्वामी जी की तरह महान व्यक्ति अच्छी ही बात कहेंगे, उसका उद्देश्य अच्छा ही होगा, इस पर विश्वास करना तो कठिन नहीं है।”

सतीश ने कहा, “व्यक्ति विशेष के लिए यह कठिन नहीं है, यह मैं मानता हूँ। यही देखिये न, हाईस्कूल पास कर लेना कोई कठिन काम नहीं है, फिर भी पास करना तो दूर की बात; तीन-चार वर्षों में मैं उसके पास तक भी पहुँच न सका। अच्छा, बताइये तो स्वामी जी नामक मनुष्य को पहले कभी आपने देखा है, या इनके सम्बन्ध में किसी दिन आपने कुछ सुना है।”

किसी को भी कुछ मालूम नहीं है, यह बात सभी ने स्वीकार किया।

सतीश बोला, “यह देखिये, एक गेरुआ कपड़े के अलावा उनका और कोई सर्टिफिकेट नहीं है, फिर भी आप लोग पागल-से हो उठे हैं, और स्वयं अपने काम का नुकसान कर उनका भाषण मैं सुनना नहीं चाहता, इसके लिए आप नाराज़ हो रहे हैं।”

भूपति ने कहा, “पागल क्या यों ही हो रहे हैं। ये गेरुआ वस्त्रधारी संसार को बहुत कुछ दे गये हैं। जो कुछ भी हो, मैं नाराज़ नहीं होता, दुख अनुभव करता हूँ। संसार की सभी वस्तुएँ सफाई और गवाही साथ लेकर हाज़िर नहीं हो सकतीं, इस कारण अगर उन्हें झूठ समझकर छोड़ देना पड़े तो बहुत-सी अच्छी चीज़ों से ही हम लोगों को वंचित रह जाना पड़ेगा। आप ही बताइये, जिस समय आप संगीत में सा-रे-गा-मा साधते थे, उस समय आपको कितने रस का स्वाद मिलता था? उसकी कितनी अच्छाई-बुराई आपकी समझ में आयी थी?”

सतीश बोला, “मैं भी यही बात कह रहा हूँ। संगीत का एक आदर्श यदि मेरे सामने न रहता, मीठे रस का स्वाद पीने की आशा यदि मैं न करता, तो उस दशा में इतना कष्ट उठाकर मैं सा-रे-गा-मा को साधने नही जाता। वकालत के पेशे में रुपये की गन्ध अगर आप इतने अधिक परिमाण में नहीं पाते, तो एक बार फेल होते ही, रुक जाते, बार-बार इस तरह जी-तोड़ मेहनत करके क़ानून की किताबों को कण्ठस्थ नहीं करते। उपेन भैया भी शायद किसी स्कूल में अध्यापकी पाकर ही इतने दिनों में सन्तुष्ट हो गये होते।”

उपेन्द्र हँसने लगे, लेकिन भूपति का मुँह लाल हो गया। एक खोंचे का जवाब दस गुना करके दिया था। यह बात वे सभी समझ गये।

क्रोध दबाकर भूपति ने कहा, “आपके साथ बहस करना बेकार है। एक ही वस्तु की अच्छाई-बुराई कितने तरह से हो सकती है, शायद इसे आप नहीं जानते।”

सब लोग रास्ते के किनारे उकड़ूं बैठ गये थे। सतीश उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला, “क्षमा कीजिये भूपति बाबू! छः तरह के प्रमाणों और छत्तीस प्रकार के प्रत्यक्षों की आलोचना इतनी धूप में सही नहीं जा सकती। इससे तो अच्छा यही है कि संध्या के बाद आप बाबूजी की बैठक में आइयेगा, जहाँ आँधी रात तक तर्क-वितर्क चल सकेंगे। प्रोफ़ेसर नवीन बाबू, सदर आला गोविन्द बाबू, और घर के भट्टाचार्यजी तक ऐसे ही विषयों पर आधी रात तक बहस किया करते हैं। उनके पास वाले कमरे में मैं रहता हूँ। हेरफेर के दाँव-पेंच की बातों से मेरे कान अभी तक पूरे पके तो नहीं हैं, लेकिन मुझ पर रंग चढ़ने लगा है। लेकिन असमय में पेड़ों के नीचे गिरकर, सियार-कुत्तों के पेट में जाना मैं नहीं चाहता। इसलिए इस विषय को छोड़कर अगर और कुछ कहना हो तो कहिये, नहीं तो आज्ञा दें, चलूँ।”

सतीश का हाथ जोड़कर बातें करने का तरीक़ा देखकर सभी हँसने लगे। नाराज़ भूपति दोगुने उत्तेजित हो उठे। क्रोध के आवेश मे तर्क का सूत्र खो गया, और ऐसी दशा में जो मुँह से निकलता है उसी की गर्जना करके वे कह उठे, “मैं देख रहा हूँ आप ईश्वर को भी नहीं मानते।’

यह बात बहुत ही असम्बद्ध और बच्चों की-सी निकल पड़ी। स्वयं भूपति बाबू के भी कानों में यह बात खटके बिना न रह सकी।

भूपति के लाल चेहरे पर एक बार तीक्ष्ण दृष्टि डालकर फिर उपेन्द्र के चेहरे की तरफ़ देख सतीश खिलखिलाकर हँस पड़ा और भूपति की तरफ़ देखकर वह बोला, “आपने ठीक ही किया है भूपति बाबू, ‘चोर-चोर’ के खेल में दौड़ने में लाचार हाने पर ‘खड्डों’ को छू देना ही अच्छा होता है।”

इस अपवाद से आगबबूला होकर भूपति ज्यों ही उठ खड़े हुए त्यों ही उपेन्द्र ने हाथ पकड़कर कहा, “तुम चुप रहो भूपति, मैं अभी इस मनुष्य को ठीक करता हूँ। ‘खड्डों, को छू देना, ठिकाने जा पहुँचना, ये सब कैसी बातें हैं रे सतीश! वास्तव में मेरा तेरे जैसा संशयी स्वभाव है, इससे सन्देह हो सकता है कि तू ईश्वर तक को भी नहीं मानता।”

सतीश ने आश्चर्य प्रकट कर कहा, “हाय रे मेरा भाग्य! मैं ईश्वर केा नहीं मानता! खूब मानता हूँ! थियेटर का खेल समाप्त होने के बाद आधी रात को क़ब्रिस्तान के पास से लौटता हूँ! कोई भी आदमी नहीं रहता, विश्वास के ज़ोर से छाती का खून बर्फ़ बन जाता है। तुम लोग अच्छे आदमी हो इसका ख़बर नहीं रखते। हँस रहे हो उपेन भैया, भूत-प्रेत मानता हूँ, और ईश्वर को मैं नहीं मानता?”

उसकी बात सुनकर क्रुद्ध भूपति भी हँसने लगे। बोले, “सतीश बाबू, भूत का भय करने से ही ईश्वर को स्वीकार करना होता है ये दोनों बातें क्या आपके विचार से एक ही हैं?”

सतीश ने कहा, “हाँ, बिल्कुल एक ही हैं। आसपास रख देने से पहचानने का उपाय नहीं हैं। केवल मेरे निकट ही नहीं, आपके निकट भी यही बात लागू है, उपेन भैया के निकट भी बल्कि, जो भी लोग शास्त्र लिखते हैं, उनके निकट भी! वह एक ही बात है। नहीं मानते तो अलग बात है, लेकिन मान लेने के बाद जान नहीं बचती है। चोट-वोट में, आफत विपद में, बहुत तरह से मैंने सोचकर देख लिया है, वाग्वितण्डा भी खूब सुन लिया है।, लेकिन जो अन्धकार था, वही अन्धकार है। छोटा-सा एक निराकार ब्रह्म मानो, या हाथ-पाँव धारी तैंतीस करोड़ देवताओं को ही स्वीकार करो - कोई युक्ति नहीं लगती। सभी एक ही जंजीर में बँधे हुए हैं। एक को खींचने से सभी आकर उपस्थित हो जाते हैं। स्वर्ग-नरक आ जायेंगे, इहकाल-परकाल आ जायेंगे, अमर आत्मा आ जायेगी, तब क़ब्रिस्तान के देवताओं को किस चीज़ से रोकोगे? कालीघाट के कंगालों की तरह। चुपके-चुपके तुम किसी एक आदमी को कुछ देकर क्या छुटकारा पा जाओगे? पल भर में जो जहाँ था, वहीं से आकर तुमको घेर लेंगे? ईश्वर को मानूँ और भूत से डरूँ नहीं...?” ऐसा नहीं हो सकता भूपति बाबू।”

जिस ढंग से उसने बातें कीं उससे सभी ठठाकर हँसने लगे। दो छोटे बच्चों के हास्य कोलाहल से रविवार का अलस दोपहर चंचल हो उठा।

उपेन्द्र की पत्नी सुरबाला से प्रेरित दूर खड़ा भूतो अपने मन में भुनभुना रहा था। वह भी हल्के भाव से हँसने लगा।

झगड़े के जो बादल घिर आये थे, इस सब हँसी की आँधी से न जाने कहाँ विलीन हो गये।

किसी को होश नहीं आ रहा कि दुपहरिया बहुत पहले बीत चुकी है और इतनी देर हो जाने से घर के भीतर भूख-प्यास से बेचैन नौकरानियाँ आँगन में चिल्लाहट मचा रही थीं और रसोईघर मे रसोइया काम छोड़ देने के दृढ़ संकल्प की बार-बार घोषणा कर रहा था।

दो

तीन महीने के बाद कलकत्ता के एक मकान में एक दिन सबेरे नींद टूटने पर सतीश ने करवटें बदलते हुए अचानक यह निश्चय कर लिया कि आज स्कूल न जाऊँगा। वह होमियोपैथिक स्कूल में पढ़ रहा था। ग़ैरहाज़िर रहने की इस प्रतिज्ञा ने उसके तन में अमृत की वर्षा कर दी और दम भर में उसने अपने विकल मन को सबल बना डाला। वह प्रसन्नचित्त बैठ गया और तम्बाकू के लिए चीख़-पुकार करने लगा।

सावित्री कमरे में आकर पास ही फ़र्श पर बैठ गयी। हँसते हुए उसने पूछा, “नींद खुल गयी बाबू?”

सावित्री इस बासा की नौकरानी और गृहिणी दोनों हैं। चोरी नहीं करती थी इसलिए खर्च के रुपये-पैसे सब उसी के पास रहते थे। एकहरा बदन अत्यन्त सुन्दर गठन। उम्र इक्कीस-बाईस की होगी, लेकिन चेहरा देखने से और भी कम उम्र की मालूम होती थी। सावित्री सफ़ेद वस्त्र पहनती थी, और दोनों होंठ पान और तम्बाकू के रस से दिन-रात लाल बनाये रहती थी। वह हँसकर बातचीत करना तो जानती ही थी, उस हँसी का मूल्य भी ठीक उसी तरह समझती थी। गृहसुख से वंचित डेरे के सभी लोगों पर उसके मन में आन्तरिक स्नेह-ममता थी। फिर भी, कोई उसकी प्रशंसा करता तो वह कहती कि आदर न करने की दशा में आप लोग मुझे रखेंगे क्यों बाबू! इसके अलावा घर जाकर स्त्रियों से निन्दा करके कहेंगे, डेरे पर ऐसी नौकरानी है जो भर पेट दोनों वक्त खाने को भी नहीं देती। उस अपयश की अपेक्षा थोड़ी-सी मेहनत अच्छी है। यह कहकर वह हँसती हुई अपने काम को चली जाती थी। डेरे में एक सतीश ही ऐसा था, जो उसका नाम लेकर पुकारता था। जब तब उसके साथ हँसी-मज़ाक करता था और कभी इनाम भी दे देता था। उसका भी सतीश पर स्नेह कुछ अधिक मात्रा में था। सारा दिन सभी काम-काजों में व्यस्त रहने पर भी इसीलिए सदा एक आँख और एक कान सुगठित सुन्दर युवक की तरफ़ लगाये रहती थी। बासा के सभी लोग इस बात को जानते थे और कोई-कोई कौतुक के साथ इसका इशारा करने से भी बाज नहीं आते थे। सावित्री जवाब न देकर, मुस्कराती हुई काम पर चली जाती थी। सतीश ने कहा, “हाँ नींद खुल गयी।” इतना कहकर तकिये के नीचे से उसने एक रुपया निकालकर उसके सामने फेंक दिया।

सावित्री ने रुपया उठाकर कहा, “सबेरे फिर क्या ले आने की ज़रूरत हो गयी?”

सतीश ने कहा, “सन्देश! लेकिन मेरे लिए नहीं। अभी तुम रख लो, रात को अपने बाबू के लिए ख़रीदकर ले जाना।”

सावित्री ने नाराज़ होकर रुपये को बिछौने पर फेंककर कहा, “रख लीजिये अपने रुपये को। मेरा बाबू सन्देश नहीं खाता।” रुपये को फिर फेंककर अनुरोध के स्वर में सतीश ने कहा, “मेरे सिर की सौगन्ध सावित्री, इस रुपये को तुम किसी प्रकार भी वापस न कर सकोगी। मैंने सचमुच ही तुम्हारे बाबू को सन्देश खाने के लिए दिया है।”

सावित्री ने मुँह उदास बनाकर कहा, “जब-तब आप स्त्रियों की तरह सिर की सौगन्ध दिलाते रहते हैं, यह बड़ा अन्याय है। बाबू-वाबू मेरे नहीं हैं। मेरे बाबू आप लोग हैं।” सतीश ने हँसकर कहा, “अच्छा दे दो रुपया। लेकिन बताओ, मेरे सिवा अगर और कोई बाबू हो तो मैं उसका सिर खाऊँ।”

सावित्री हँसकर बोली, “मेरा बाबू क्या आप का सौत है जो सिर खा रहे हैं?”

सतीश ने कहा, “मैं उनका सिर खा रहा हूँ, या वे ही मेरा सिर खा रहे हैं? बल्कि मैं तो उनको सन्देश खिला रहा हूँ।”

सावित्री ने अपनी हँसी को रोककर कहा, “नौकर-नौकरानियों के साथ इस तरह बातचीत करने से छोटे आदमियों को प्रश्रय मिल जाता है, फिर वे मुंह लग जाते हैं, ज़रा समझ-बूझकर बातें करनी होती हैं बाबू, नहीं तो लोग निन्दा करते हैं।” यह कहकर रुपया उठा लिया और फिर कमरे से बाहर चली गयी। थोड़ी ही देर बाद फिर लौटकर बोली -

“इस समय क्या बनेगा?”

भोजन सम्बन्धी सभी बातों में सतीश एक गुणवान आदमी है, इसका परिचय सावित्री पहले ही पा चुकी थी। इसी के लिए प्रतिदिन प्रातःकाल वह एक बार आ जाती थी और सतीश की आज्ञा लेकर चली जाती थी, और खुद ही खड़ी रहकर महाराज से सभी कामों को ख़ूब अच्छी तरह पूरा करा लेती थी। इसी समय नौकर तम्बाकू दे गया था, सतीश फिर एक बार करवट लेकर बोला, “जो मन हो वही बनवाओ।”

सावित्री बोली, “क्रोध भी है, देखती हूँ।”

दीवाल की तरफ़ मुँह फेरकर तम्बाकू खींचते हुए सतीश बोला, “पुरुष ही ठहरा, क्रोध क्यों नहीं रहेगा? आज मैं भोजन भी नहीं करूँगा।”

सावित्री बोली, “शायद और कहीं ठिकाना लग गया है। किन्तु कुछ भी हो, सतीश बाबू, स्कूल आपको जाना पड़ेगा, यह कहे देती हूँ।”

इतने थोड़े समय के बीच ही नियमित रूप से स्कूल जाने की बात फिर सतीश को भार-सा बनकर दबाता जा रहा था, और तरह-तरह के बहाने, तरह-तरह के कारण निकालकर उसने अनुपस्थित होना शुरू कर दिया था। आज उस बहानेबाजी की पुनरावृत्ति का सूत्रपात होते ही वह समझ गयी।

सतीश हड़बड़ाकर उठ बैठा और बनावटी क्रोध के स्वर में बोला, “शुभ कार्य के शुरू में ही टोको मत।”

सावित्री ने कहा, “यह तो आप कहेंगे ही। लेकिन एण्ट्रेंस पास करने में चौबीस साल बीत गये, यह डाक्टरी पास करने में चौसठ साल बीत जायेंगे।”

सतीश ने क्रोध भाव से कहा, “झूठी बात मत कहो सावित्री। मैंने एण्ट्रेंस पास नहीं किया?”

सावित्री हँसने लगी। बोली, “इसको भी पास नहीं किया?”

सतीश ने गरदन हिलाकर कहा, “नहीं। ईर्ष्यालु मास्टरों ने मुझे पास करने के लिए परीक्षा में बैठने ही नहीं दिया।”

सावित्री कपड़े से मुँह को दबाकर हँसती हुई बोली - “तो क्या इसकी भी वही हालत होगी?”

“किसकी?”

“इस डाक्टरी की?”

सतीश ने कहा, “अच्छा सावित्री, गधों की तरह जितने लोग हैं, वे परीक्षा पास करके क्या करते हैं, तुम बता सकती हो?”

सावित्री हँसी के वेग को दबाकर बोली, “गधों की तरह, लेकिन गधे हैं नहीं। जो लोग वास्तव में गधे हैं, वे पास ही नहीं कर सकते।”

सतीश ने दरवाज़े के बाहर झाँककर एक बार देख लिया। फिर स्थिर भाव से बैठ गया और गम्भीर होकर बोला, “अगर कोई सुन लेगा तो वह सचमुच ही निन्दा करेगा। मेरे मुँह पर ही मुझे गधा कह रही हो। इसकी सफाई नहीं दी जा सकती।”

हाय रे! कर्मों के दोष से आज सावित्री घर की सेविका है। इसी कारण वह इस आघात को सहकर बोली, “ठीक ही तो है।” यह कहकर वह चली गयी।

सतीश फिर आलसी की भाँति बिछौने पर लेट गया। उसके मन में कर्मविहीन समूचे दिन का जो चित्र उज्ज्वल होकर उठ रहा था, सावित्री की बातों की चोट से उसका अधिकांश मलीन हो गया, और मन की जिस व्यथा को लेकर सावित्री स्वयं चली गयी, वह भी उसकी छुट्टी के आनन्द को बढ़ाकर नहीं गया। यद्यपि वह मन ही मन समझ गया, आज फिर नागा करने से लाभ नहीं होगा, तो भी कुछ न करने का लोभ भी वह छोड़ न सकने पर आलस्य भरे विरक्त चेहरे से बिछौने पर ही लेट रहा। लेकिन ठीक समय पर स्नान के लिए तक़ाज़ा आ पड़ा; सतीश उठा नहीं, बोला - “जल्दी क्या है? आज मैं बाहर जाऊँगा नहीं।”

सावित्री ने कमरे में घुसकर कहा, “यह नहीं हो सकता। आपको स्कूल जाना ही पड़ेगा। जाइये, स्नान करके भोजन कीजिये।”

सतीश ने कहा, “तुमको क्या मेरा संरक्षक नियुक्त किया गया है जो तंग कर रही हो। आज मैं पादमेकम् न गच्छामि।”

सावित्री तनिक हँसकर बोली, “नहीं जाना है तो स्नान तो कर लीजिये। आपके आलस्य से नौकर-नौकरानियों को दुख होता है, इसे क्या आप नहीं देखते?”

सतीश ने कहा, “ये कैसे नौकर-नौकरानियाँ हैं जो नौ बजते न बजते ही दुख पाने लगते हैं। अब इस डेरे को ही बदल देना पड़ेगा। अन्यथा यह शरीर ठीक नहीं रहेगा।”

सावित्री ने हँसकर कहा, “तब तो मुझे ही बदल देना पड़ेगा।” लेकिन तुरन्त ही वह बात को दबाकर बोल उठी, “तब तक आप को इसी डेरे का नियम मानकर चलना पड़ेगा, स्कूल में भी जाना पड़ेगा। उठिये, दिन चढ़ता जा रहा है।” इतना कहकर सतीश की धोती और अंगोछा स्नानघर में रख आने के लिए चल गड़ी।

सतीश नियमित संध्या-वन्दन किया करता था। आज वह स्नान करके आया और पूजा के आसन पर बैठकर देर करने लगा। सावित्री दो-तीन बार आकर देख गयी और दरवाज़े के बाहर से पुकारती हुई बोली, - “अब देर क्यों, परोसा हुआ भात ठण्डा होकर पानी हो रहा है। स्कूल जाना नहीं पड़ेगा। दो कौर खाकर हम लोगों को ज़रा रिहाई तो दीजिये।” सतीश और भी पाँच मिनट चुपचाप बैठा रहा, फिर खड़ा होकर बोला, “संध्या-पूजा के समय गड़बड़ी मचाने से जानती हो, क्या होता है?”

सावित्री ने कहा, “गंगाजली और पंचपात्र सामने रखकर ढोंग रचाने से क्या होता है, जानते हैं?”

सतीश ने आँखें फैलाकर कहा, “मैं ढोंग रच रहा था! कदापि नहीं।”

सावित्री कुछ कहने जा रही थी, फिर रुक गयी। उसके बाद बोली, “यह तो आप ही जानते हैं। लेकिन आपको भी तो किसी दिन इतनी देरी नहीं होती थी। जाइये, भात परोस दिया गया है।” यह कहकर चल दी।

आज जाड़े के मधुर मध्याह्न में डेरा निर्जन और निस्तब्ध था। इस डेरे में रहने वाले सभी नौकरी करते हैं। वे लोग दफ़्तर गये हैं। रसोइया घूमने गया है, बिहारी बाज़ार से सौदा लाने गया है, सावित्री की भी कोई आहट-आवाज़ नहीं सुनायी पड़ती। सतीश ने अपने कमरे में पहले दिवा-निद्रा की मिथ्या चेष्टा की। फिर उठकर बैठ गया और कुछ सोचने लगा। सिरहाने की खिड़की बन्द थी। उसको खोलकर सामने की खुली छत की तरफ़ देखते ही इसी क्षण उसने उसको बन्द कर लिया। छत के एक छोर पर बैठकर सावित्री अपने बाल सुखा रही थी और झुककर कोई पुस्तक देख रही थी। खिड़की खोलने, बन्द करने की आवाज़ से उसने चौंककर माथे पर आँचल डालकर खड़ी होकर देखा, खिड़की बन्द हो गयी थी। थोड़ी देर बाद उसने कमरे में प्रवेश कर कहा, “बाबू, आप मुझे बुला रहे थे?”

सतीश ने कहा, “नहीं। नहीं बुलाया।”

“आपके लिए पान और जल ले आऊँ?”

सतीश ने सिर हिलाकर कहा, “ले आओ।”

सावित्री ने पान और जल लाकर बिछौने पर रख दिया और फ़र्श पर बैठते हुए कहा,

“जाऊँ, आपके लिए तम्बाकू लाऊँ।”

सतीश ने पूछा, “बिहारी कहाँ है?”

“बाज़ार गया है।” कहकर सावित्री चली गयी और थोड़ी देर के बाद तम्बाकू भरकर ले आयी। बोली, “आज झूठ-मूठ आपने नागा कर दिया।”

सतीश ने कहा, “यही सत्य है। मेरा स्वभाव कुछ स्वतंत्र है, इसलिए बीच-बीच में ऐसा न करने से बीमारी पकड़ लेती है। इसके सिवा मैं विधिवत डाक्टर बनना भी नहीं चाहता। इधर-उधर की कुछ बातें सीखकर अपने गाँव के मकान पर एक बिना पैसे वाला मुफ़्त दवाखाना खोल दूँगा। चिकित्सा के अभाव से देश-गाँव के ग़रीब दुखी हैजे की बीमारी से उजड़ते जाते हैं, उन लोगों की चिकित्सा करना ही मेरा उद्देश्य है।”

सावित्री ने कहा, “बिना पैसे की चिकित्सा में शायद अच्छी तरह सीखने की आवश्यकता नहीं है। अच्छे डाक्टर केवल बड़े आदमियों के लिए होते हैं, और ग़रीबों के लिए गँवार? लेकिन ऐसा भी होगा कैसे? आपके चले जाने से विपिन बाबू भारी कठिनाई में पड़ जायेंगे?” विपिन बाबू का ज़िक्र होने से सतीश लज्जित होकर बोला, “मेरे जैसे मित्र उनको बहुत मिल जायेंगे। इसके अलावा अब मैं वहाँ जाता भी नहीं।”

सावित्री ने आश्चर्य के साथ पूछा, “जाते नहीं हैं! तो फिर उनको गाना-बजाना सिखाता कौन है?”

सतीश ने चिढ़कर कहा, “गाना-बजाना क्या मैं सिखाता हूँ?’

सावित्री बोली, “क्या मालूम बाबू, लोग यही कहते हैं।”

“कोई नहीं कहता, यह तुम्हारी मनगढ़न्त बात है।”

“आपको विपिन बाबू का मुसाहिब कहते हैं। यह भी क्या मेरी मनगढ़न्त बात है?”

यह बात सुनकर सतीश आपे के बाहर हो उठा। विपिन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध का बाहर के लोगों की चर्चा का विषय होने पर उसका फल साधारणतः क्या होता है इसकी जानकारी उसको थी। कलकत्तावासी विपिन की सांसारिक अवस्था और उसके आमोद-प्रमोद की अपर्याप्त साज सरंजाम के बीच प्रवासी सतीश का स्थान लोगों की दृष्टि से नीचे ही उतर आयेगा, सतीश के दिल का यह सन्देह सावित्री की तीक्ष्ण प्रहार से बिल्कुल ही उग्र मूर्त धारण करके बाहर निकल आया। वह दोनों नेत्रों के सतेज बनाकर गरज उठा, “मैं मुसाहिब हूँ? कौन कहता है, बताओ तो?”

मन ही मन मुस्कराकर सावित्री बोली, - “किसका नाम बताऊँ? जाऊँ, राखाल बाबू का बिछौना धूप में डाल आऊँ।”

“बिछौना छोड़ो, नाम बताओ!”

“कुमुदिनी।” सावित्री ने हँसकर कहा।

सतीश ने आश्चर्य में पड़कर कहा, “उसको तुम किस तरह जान गयी?”

सावित्री बोली, “उन्होंने मुझे काम करने के लिए बुला भेजा था।”

“तुमको? साहस तो कम नहीं है। तुमने क्या कहा?”

“अभी तक मैंने कुछ कहा नहीं है, सोच रही हूँ, वेतन ज़्यादा है, काम कम है, इसीलिए लोभ हो रहा है।”

सतीश की आँखों से आग की चिनगारियाँ निकलने लगीं। उसने कहा, “यह है विपिन की करतूत! तुम्हारा नाम वह अक्सर लेता रहता है।”

सावित्री ने हँसी को दबाकर कहा, “लेते हैं? तब तो मालूम पड़ता है मेरे ऊपर दिल लग गया है?”

सावित्री की ओर क्रूर दृष्टि से देखने के बाद सतीश ने कहा - “लगवाता हूँ। सौ रुपये जुर्माना देने के बाद से किसी को आज तक पीटा नहीं, “अच्छा तुम जाओ!”

सावित्री चली गयी। राखाल के बिछौने को धूप में डालकर झटपट वापस आकर खिड़की के सूराख से झाँककर उसने देखा, सतीश कुरता पहन चुका है और बक्स में से एक बण्डल नोट जेब में रख रहा है। सावित्री दोनों चौखटों पर हाथ रखकर रास्ता रोककर खड़ी हो गयी। बोली, “कहाँ जाइयेगा?”

“काम है, रास्ता छोड़ दो।”

“क्या काम है, सुनूँ तो।”

सतीश ने नाराज़ होकर कहा, “हटो!”

सावित्री हटी नहीं। हँसकर बोली, “भगवान ने आप को किसी गुण से वंचित नहीं रखा है। इसके पहले आप जुर्माना भी दे चुके हैं।”

सतीश ने आँखें तरेर लीं, कुछ बोला नहीं।

सावित्री बोली, “यह आपका भारी अन्याय है। कहाँ मैं काम करूँ, कहाँ न करूँ, यह मेरी इच्छा पर है, आप क्यों झगड़ा करना चाहते हैं।”

सतीश बोला, “मैं झगड़ा करूँ या न करूँ यह मेरी इच्छा की बात है, तुम क्यों रास्ता रोक रही हो?”

सावित्री ने हाथ जोड़कर कहा, “ज़रा इन्तज़ार कीजिये मेरे आने पर जाइयेगा!”

सतीश ज्यों ही लौटकर खटिया पर बैठ गया, त्यों ही सावित्री ने बाहर जाकर दरवाज़े की जंजीर चढ़ा दी। धीरे-धीरे कहती गयी, “जब तक आप शान्त न होइयेगा, दरवाज़ा न खोलूँगी। नीचे जा रही हूँ।” यह कहकर वह नीचे चली गयी। बाहर न जा सकने के कारण सतीश अपने कुरते को ज़मीन पर फेंककर चित लेट गया।

विपिन के साथ उसका परिचय इलाहाबाद में हुआ था। कलकत्ता जाकर यथेष्ट घनिष्ठ हो जाने पर भी इस डेरे में उसका जब-तब आना-जाना बढ़ता चला जा रहा था। इसे वह अनुभव कर रहा था। सावित्री की बातों से वह कारण बिल्कुल ही सुस्पष्ट हो उठा। सतीश का मित्र और बड़ा आदमी होने से इस डेरे में उसका बहुत सम्मान था। सतीश की अनुपस्थिति में भी उसके प्रति आदर-सत्कार की जिससे त्रुटि न होने पाये, इसका भार सतीश ने सावित्री को सौंप दिया था। इस आदर-सत्कार को विपिन बाबू पूरी मात्रा में वसूल करते जा रहे थे, यह ख़बर डेरे पर लौट आने पर सतीश जब-तब पा रहा था। अपने मन की इस सरल उदारता की तुलना में विपिन की उस भद्दी क्षुद्रता ने भारी कृतघ्नता की भाँति आज उसको बाँध दिया और सभी निमंत्रण-आमंत्रण, सौन्दर्य, घनिष्ठता एक ही पल में उसके लिए विष के समान बन गये। बाहरी तौर से वह चुपचाप बना रहा, लेकिन मर्मान्तक क्रोध, पिंजड़े में बन्द सिंह पशु की भाँति उसके हृदय में इस कोने से उस कोने तक घूमने लगा। एक घण्टे के बाद वापस आने पर सावित्री ने खिड़की के बाहर से धीरे-धीरे पूछा, “क्रोध शान्त हो गया बाबू?”

सतीश चुप रहा।

दरवाज़ा खोलकर सावित्री कमरे में आकर बोली, “अच्छा, यह कैसा अत्याचार है, बताइये न?”

सतीश ने किसी तरफ़ न देखकर पूछा, “कैसा अत्याचार?”

सावित्री ने कहा, “सभी अपनी भलाई खोजते हैं, मैं भी अगर कहीं कोई अच्छा काम पाऊँ, तो उसमें आप नाराज़ क्यों होते हैं?”

सतीश ने उदास भाव से कहा, “नाराज़ क्यों होऊँगा? तुम्हारी इच्छा होगी तो ज़रूर जाओगी।”

सावित्री ने कहा, “फिर मेरे नये मालिक को मारने-पीटने की तैयारी आप क्यों कर रहे हैं?”

सतीश बोला, “यदि तुम्हारी चीज़ को कोई भुलावा देकर ले जाय, तुम क्या करोगी?” “लेकिन मैं क्या आपकी चीज़ हूँ?” कहकर सावित्री हँस पड़ी।

सतीश ने लजाकर कहा, “धत! यह बात नहीं है, लेकिन...।”

सावित्री ने कहा, “लेकिन की अब ज़रूरत नहीं है, मैं जाऊँगी नहीं।”

सतीश का कुरता धरती पर पड़ा था, सावित्री ने उसको उठा लिया और जेब से नोटों का बण्डल निकाल लिया। बक्स में चाभी लगी हुई थी, नोटों को अन्दर रखकर ताला बन्द करके चाभी अपेन रिंग में पहनाते हुए बोली, “मेरे ही पास रहेगी। रुपये की ज़रूरत पड़ने पर माँग लेना।”

सतीश ने कहा, “अगर तुम चोरी करो तो?”

सावित्री हँस पड़ी, आँचल में बँधे हुए चाभियों के गुच्छे को पीठ पर फेंककर बोली, “मैं चोरी करूँगी तो आपको कोई चोट न पहुँचेगी।”

सतीश सावित्री के चेहरे की तरफ़ थोड़ी देर तक ताकता रहा। उस क्षणकाल की दृष्टि से उसने क्या देख लिया, वही जानता है, चौंककर वह बोल उठा, “सावित्री, तुम्हारा घर कहाँ है?”

“बंगाल में।”

“इससे ज़्यादा और कुछ न बताओगी?”

“नहीं।”

“घर कहाँ है, भले ही न बताओ, जाति क्या है, यह तो बताओ।”

सावित्री ने तनिक हँसकर कहा, “यह जान लेने से भी क्या होगा? मेरे हाथ का पकाया भात तो आप खायेंगे नहीं।”

थोड़ी देर तक सोचकर सतीश बोला, “सम्भव नहीं है। लेकिन ज़ोर के साथ बिल्ककुल ‘नहीं’ भी मैं नहीं कह सकता।”

अपनी चमकीली आँखों को सतीश के चेहरे पर डालकर क्षण भर बाद ही वह हँस पड़ी।

बालिका की तरह सिर हिलाकर अपने कण्ठ स्वर में अनिर्वचनीय प्यार घोलकर बोली, “नहीं कर नहीं सकते, क्यों, बताइये न?”

सतीश के सिर पर मानो भूत सवार हो गया। उसकी छाती का रक्त उथल-पुथल करने लगा। वह बोल उठा, “क्यों, मैं नहीं जानता सावित्री, लेकिन तुम पकाकर दोगी तो मैं खाऊँगा नहीं, यह कह देना कठिन है।”

“कठिन है? अच्छा, यह एक दिन देख लिया जायेगा। ओह! राखाल बाबू का तकिया धूप में डालना भूल गयी।” कहकर चल पड़ी।

“एक बात सुनती जाओ।” कहकर सतीश एकाएक सामने की ओर झुक पड़ा और हाथ बढ़ाकर उसके आँचल का छोर उसने थाम लिया। अपनी आँखों से बिजली की वर्षा करती सावित्री बोली, “छिः! आ रही हूँ।” और झटके से आँचल छुड़ा लेने के बाद ओझल हो गयी।

अचानक मानो कोई एक काण्ड हो गया। उसका यह अकस्मात त्रासयुक्त पलायन, यह दबे हुए कण्ठ की ‘आ रही हूँ’ की आवाज़ और इस आँख की बिजली ने वज्राग्नि की तरह सतीश की समस्त दुर्बुद्धि को एक ही पल में जलाकर राख बना डाला। कुत्सित लज्जा के धिक्कार से उसका सारा शरीर शूल से बिंधे हुए साँप की भाँति मरोड़-मरोड़कर उठने लगा। उसके मन में यह ख़्याल आया कि इस जन्म में वह फिर सावित्री को अपना मुँह न दिखा सकेगा। किसी ज़रूरत से वह फिर आ न जाय इस आशंका से वह उसी क्षण एक शाल खींचकर तूफ़ान के वेग से बाहर निकल गया। तीन-चार सीढ़ियाँ बाकी ही थीं कि उसी समय सतीश ने सावित्री के कण्ठ की आवाज़ फिर सुन ली। वह रसोईघर से दौड़कर चली आयी थी और पुकारकर कह रही थी, “खाना खाकर घूमने जाइये बाबू, वरना वापस आने में देर होने से सब नष्ट हो जायेगा।

मानो सुनायी ही नहीं पड़ा, इस भाव से सतीश बाहर चला गया।

दूसरे दिन प्रातःकाल जिस समय सावित्री रसोई के बारे में पूछने के लिए गयी, सतीश ने धीरे-धीरे कहा, “मन में कुछ ख़्याल मत करना।”

सावित्री ने आश्चर्य के साथ पूछा, “क्या ख़्याल मन में न लाऊँगी?”

सतीश सिर झुकाकर चुप हो रहा।

मीठी हँसी हँसकर सावित्री ने कहा, “अच्छा, जो कुछ भी हो, मेरे पास समय नहीं है - क्या रसोई बनेगी, बताइये न?”

“मैं नहीं जानता - तुम्हारी जो इच्छा हो।”

“अच्छा!” कहकर सावित्री चली गयी, उसने द्वितीय प्रश्न नहीं पूछा।

दो घण्टे के बाद लौटकर बोली, “कैसा काण्ड मचा रखा है, बताइये तो! आज भी ‘पादमेंकम् न गच्छामि’ ही रहेगा?”

सतीश फिर भी चुप रहा।

सावित्री ने कहा, “नौ बज चुके हैं।”

समय बीत जाने की ख़बर से सतीश रत्तीभर भी घबराहट न दिखाकर बोला, “बज जायें, मुझे और कुछ अच्छा नहीं लग रहा है।”

आलस्य में बेकार समय नष्ट करना सावित्री बिल्कुल ही सह नहीं सकती थी। इसी कारण वह कुछ दिनों से भीतर ही भीतर कुपित असहिष्णु होती जा रही थी। ज़रा रूखे कण्ठ से उसने पूछा, “क्या अच्छा नहीं लग रहा है? पढ़ने जाना?”

सतीश भी स्वयं मन ही मन चिढ़ता जा रहा था। जवाब नहीं दिया। उसके चेहरे की तरफ़ देखकर सावित्री यह समझ गयी, और एक क्षण चुप रहकर अपने कण्ठ के स्वर को कोमल बनाकर बोली “लिखना-पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा है! अब शायद औरतों का आँचल पकड़कर खींचातानी करना अच्छा लग रहा है। स्कूल जाइये। बेकार उपद्रव मत कीजिये।” उसके तिरस्कार में यद्यपि हार्दिक स्नेह और एकान्त कल्याणेच्छा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था किन्तु बातों के तरीके ने सतीश के सर्वांग में मानो केवाँच पोत दिया।

देखते-देखते उसकी आँखें और चेहरा क्रोध से लाल हो उठा। वह बोला, “जो भी बात मुँह में आती है, तुम वह कह डालती हो। प्रश्रय पा लेने पर केवल कुत्ते ही सिर नहीं चढ़ जाते, मनुष्य को भी वह बात याद दिलानी पड़ती है।”

“यह तो है गाली-गलौज!” सावित्री पल भर चुप रही, फिर कण्ठ-स्वर को और धीमा कर बोली, “पड़ता तो है ज़रूर! नहीं तो आपको ही याद दिलाने की क्यों ज़रूरत पड़ेगी कि यह है भले आदमियों का मकान, वृन्दावन नहीं है।”

इतना कहकर वह तेज़ कदम बढ़ाये चली गयी। आश्चर्य से सतीश स्तम्भित हो रहा। सावित्री उसको इस तरह बींध सकती है, इस बात को तो वह अपने मन में स्थान भी नहीं दे सकता था। कुछ देर तक एक ही दशा में बैठा रहकर वह हठात उठ खड़ा हुआ और किसी तरह स्नान-भोजन करके पढ़ने के बहाने बाहर निकल गया।

उस दिन उसका अपमान से आहत चित्त उसकी प्रवृत्तियों पर शासन करने लगा और वह जितना ही अपने अचिन्तनीय अद्भुत व्यवहार का तात्पर्य खोजकर भी न पा सका, उतना ही उसके मन में एक बात बार-बार चक्कर काटने लगी। किसलिए उसने आँचल पकड़ लिया था, कौन-सी बात उसको कहने की आवश्यकता पड़ी थी और सावित्री इस तरह भागकर न चली जाती तो वह क्या कहता? क्या करता? उसका अपदस्थ क्रुद्ध अन्तःकरण निरन्तर इस तिक्त प्रश्न को लेकर सावित्री से अधिक निष्ठुर भाव से उसे बींधने लगा। इसी प्रकार सारा दिन वह अपने ही हथियार से स्वयं क्षतविक्षत होकर संध्या समय गंगाजी के किनारे जाकर निर्जीव की भाँति एक पत्थर पर बैठ गया।

कल जिस समय सावित्री के सामने मन की दुर्बलता अचानक प्रकट हो जाने पर वह लज्जा के मारे मकान से लम्बी साँस भरता हुआ भाग गया था, इस समय उस लज्जा में मानो कुछ मिठास मिली हुई थी। मानो आड़ में रहकर किसी ने उसमें भाग ले लिया था लेकिन आज सावित्री के व्यंग्य-वचन की आग से उस रस की अन्तिम बूँद तक सूख गयी और निस्संग लज्जा बिल्कुल ही शुष्क कठिन होकर उसके हृदय में बद्धमूल होकर बैठ गयी। उस दिन उसके आत्मसम्मान ने केवल सिर झुका दिया था, आज वह उसके कन्धे पर टूट पड़ा, फिर सबसे बढ़कर यह दुख चोट पहुँचाने लगा कि इस स्त्री से उसने इतने दिन जितने परिहास किये हैं, उन सभी का आज एक गन्दा अर्थ निकाला जायेगा। कल प्रातःकाल तक सचमुच ही उसके परिहास में व्यंग्य के अलावा कोई दूसरा अर्थ नहीं था, निर्जन मध्याह्न के इतने ही असमय के बाद उस बात को तो जबान पर लाने का भी अब मार्ग नहीं रहा। आसक्ति बहुत दिनों से छिपी हुई दशा में प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी, यह बात तो सावित्री किसी तरह भी विश्वास न करेगी। वह कहेगी, इसके मन में यही बात थी! लेकिन उसके मन में तो कुछ भी नहीं था। इस सत्य को समझाकर बता देने का सुअवसर उसको कब मिलेगा? वह अच्छा लड़का नहीं है, इसकी लज्जा भी उसको बहुत अधिक नहीं थी लेकिन पाखण्डी का अपवाद वह कैसे सहेगा, उसने मन-ही-मन कहा, “यदि वह चोर है तो चोर की तरह सेंध काटते समय ही रंगे हाथों क्यों न पकड़ लिया गया। सावित्री मानो मन-ही-मन हँसकर कहेगी, यह साधु जटा कमण्डल पीठ पर लादे त्रिशूल से सेंध काट रहा था, पकड़ा गया है। इस अपवाद की कल्पना उसको जलाने लगी। इसी प्रकार बैठे रहने पर रात कितनी बीत गयी, इसको वह जान भी न सका। कब भाटा समाप्त होकर ज्वार का पानी उसके पैरों से टकराने लगा, कब कलकत्ता गैस की रोशनी से उज्ज्वल हो उठा, कब सिर के ऊपर काले आसमान में तारे झिलमिलाने लगे, इसका पता नहीं चला। जाड़े को कोप होने से जब उसको जाड़ा लगने लगा और उस पर चटकल की घड़ी में जब बारह बज गये तब सतीश उठ पड़ा और अपने घर की तरफ़ रवाना हो गया। कुछ क्षण के लिए मानो वह अपनी काल्पनिक बातों को भूल गया था, लेकिन चलते-चलते मकान की दूरी जितनी ही घटने लगी, उसका मन फिर उसी अनुपात से छोटा होने लगा। अन्त में गली के मोड़ के पास आ जाने पर उसके क़दम उठ ही नहीं रहे थे। धीरे-धीरे किसी तरह वह मकान के दरवाज़े के सामने आकर चुपचाप खड़ा रहा। कहीं भी कोई जाग रहा है, ऐसा मालूम नहीं हुआ। और यद्यपि वह जानता था कि इतनी रात को सावित्री अवश्य ही अपने घर लौट गयी होगी तो भी दरवाज़ा खटखटाने, पुकारने का साहस उसको नहीं हुआ। भय होने लगा कि कहीं वही आकर दरवाज़ा न खोल दे। ठीक उसी समय किवाड़ आप ही खुल गये। एक क्षण सतीश चुप रहा। फिर बोला, “कौन? बिहारी?”

“हाँ बाबू!”

“सब खा चुके?”

“जी, हाँ!”

“नौकरानी चली गयी?”

“जी हाँ, मुझे बैठे रहने को कहकर अभी चली गयी।”

यह सुनकर सतीश मानो बच गया। खुश होकर उसको दरवाज़ा बन्द करने को कहकर ऊपर चला गया।

बिहारी आकर बोला, “बाबू आपका खाना?”

“खाना रहने दो बिहारी, मैं खाकर आया हूँ।”

बिहारी ने कहा, “आपके लिए पान और जल इस मेज़ पर रखा है।”

“अच्छा, तू जाकर सो जा।”

बिहारी चला गया। सतीश बिछौने पर पड़कर सो गया।

झगड़ा कर चुकने के बाद सावित्री का भी मन अच्छा नहीं था। सतीश की कटक्ति क्लेश देता रहा। इसलिए दिन में किसी समय एकान्त में क्षमा-याचना कर लेने की आशा में शाम हो गयी, तब आशा आशंका के रूप में परिणत होने लगी। वह जानती थी कि इस कलकत्ता में विपिन के यहाँ जाने के सिवा सतीश के लिए और कोई स्थान नहीं है। इसलिए सबसे पहले यह भय उत्पन्न हो गया कि वह उस दल में सम्मिलित हो गया होगा। क्रमशः रात बढ़ने लगी। सतीश नहीं आया। वह और कहीं जा सकता है ऐसा विचार भी उसके मन में नहीं आया। सन्देह दृढ़ होकर जब विश्वास में परिणत हो उठा, तब प्रतीक्षा करना भी उसके लिए असम्भव हो उठा। वास्तव में उसको घृणा होने लगी कि क्षमा माँगने के लिए वह ऐसे आदमी की राह देख रही है। इस कारण बिहारी को बैठने को कहकर सावित्री बड़ी रात को घर लौट गयी। अपने घर जाकर वह बिस्तर पर लेट तो रही, लेकिन आँखों में नींद नहीं आयी! सारा शरीर बेचैनी से सबेरा होने की प्रतीक्षा में छटपटाने लगा। कमरे में रखी घड़ी में एक-एक कर सब घण्टें बज गये - जागती हुई वह सब सुन रही थी। प्रभात के लिए और प्रतीक्षा न कर सकने पर अँधेरा रहते ही वह कपड़े बदलकर, हाथ-मुँह धोने के पश्चात चल पड़ी। रास्ते में उस समय मारवाड़ी स्त्रियाँ गाते-गाते गंगा स्नान करने जा रही थीं। सावित्री ने कहा, “गंगा मैया, जाकर सब अच्छा ही देखूँ।” उसके दोनों होंठ काँपने लगे। आँसू से दोनों आँखें भर गयीं और इस कल्पित आशंका से अपने सम्पूर्ण मन को भर वह राह में तेज़ क़दम से चलते-चलते हज़ारों बार मन ही मन उच्चारण करने लगी, “सकुशल रहें। जो ही मन हो, करें लेकिन अच्छे रहें”। मकान पर पहुँचने पर पुकारने के बाद बिहारी ने दरवाज़ा खोलने के साथ ही कहा, “सतीश बाबू बड़ी रात को आये और मालूम नहीं कहाँ से खाना खाकर आये।” यह ख़बर पहले देने की ज़रूरत है, यह बात इस बूढे़ से छिपी नहीं थी। सावित्री ऊपर जा रही थी, ठिठककर खड़ी हो गयी। भौंहों को सिकोड़कर उसने कहा, “शायद बाबू ने खाया नहीं?”

“नहीं, उनका खाना तो ढँका हुआ रखा है।”

सावित्री ‘हूँ’ कहकर ऊपर चली गयी। उसका दुश्चिन्ता से ग्रस्त मन निर्भय होने के साथ फिर ईर्ष्या से जल उठा।

प्रातः दिन चढ़ आने पर जब सतीश की नींद टूटी, ठीक उस समय सावित्री आ खड़ी हुई। उसके मुँह की तरफ़ देख लेने के साथ ही सतीश ने सिर झुका लिया। कुछ देर बाद सावित्री ने कहा, “क्या रसोई बनेगी, यह जान लेने के लिए आयी हूँ।”

सतीश ने किसी ओर बिना देखे कहा - “रोज़ जो बनती है वही बनने दो।”

“अच्छा!” कहकर सावित्री जाने को तैयार होते ही फिर खड़ी हो गयी। बोली,

“लिखने-पढ़ने की तरह बाबू को क्या खाना-पीना भी अब अच्छा नहीं लगता?”

सतीश ने धीरे से कहा, “मैं खा आया था।”

उसने डर से झूठी बात कह दी। लेकिन कहाँ, इस बात को भी सावित्री ने घृणा के कारण नहीं पूछा। थोड़ी देर चुप रहकर बोली, “आज दो दिन से आप भागते हुए घूम रहे हैं किस बात के डर से, सुनूँ तो? मेरे कारण अगर असुविधा होती हो तो आप जवाब दे सकते हैं।”

सतीश ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “तुम्हारा अपराध क्या है? इसके अलावा मैं तो जवाब देने का मालिक भी नहीं हूँ, यह बासा तो केवल मेरा अकेले का नहीं है।”

सावित्री ने कहा, “अकेले का होता तो शायद जवाब दे देते। अच्छा, तो मैं खुद ही चली जा रही हूँ।”

सतीश चुप ही रहा। यह देखकर सावित्री मन ही मन और भी जल उठी, बोली, “मेरे जाने से आप खुश होते हैं? आपके पैरों पर गिरती हूँ सतीश बाबू, हाँ या नहीं, एक जवाब दीजिये।”

फिर भी सतीश चुप ही रहा। सावित्री इस बासे पर अपना कितना हक रखती है, इस बात को वह जानता था और इस प्रकार उसके चले जाने से कोई भी बात छिपी न रहेगी, तब सभी बातें एक मुँह से दूसरे मुँह में बढ़ते-बढ़ते कैसी घृणित आकृति धारण कर लेंगी, इसका निश्चित अनुमार करके वह डर गया। क्षण भर चुप रहकर उसने मीठे स्वर से कहा, “मुझे क्षमा करो सावित्री! जब तक मैं यहाँ हूँ, कम से कम तब तक तो कभी मत जाओ।” कोई दूसरा समय होता तो वह तुरन्त क्षमा कर देती, लेकिन सतीश के सम्बन्ध में वह शायद एक निराधार सन्देह का मन ही मन पोषण कर रही थी, इसलिए इस मृदु कण्ठ-स्वर को कपटाचरण समझकर वह निर्दय हो उठी, और उसके ही गले को अनुकरण करके वह उसी क्षण बोल उठी, “आप इतना आडम्बर करके क्षमा माँगकर साधु बनने जा रहे हैं, किसलिए? मुझ जैसी नीच स्त्री का आँचल पकड़कर ऐसा क्या आपने नया काम किया है कि लज्जा से बिल्कुल ही मरे हा रहे हैं। इससे अच्छा यह है कि आप अपने घर चले जाइये। लिखना-पढ़ना आप का काम नहीं है।”

जो सतीश अपने उग्र स्वभाव के कारण किसी की भी परवाह नहीं करता था, बातों को सह लेना जिसका स्वभाव नहीं था, वह इस समय इतने बड़े अपमान की बात से चुप हो रहा। उसका अपराधी मन भारी बोझ से दबे हुए बोझ ढोने वाले पशु की तरह इस प्रकार निरुपाय दशा में राह में संकोच से पड़ा हुआ था कि सावित्री के इस बार के निष्ठुर आघात से भी वह किसी तरह अपना मस्तक ऊपर उठाकर खड़ा न हो सका। किन्तु सावित्री भी चौंक उठी। उसकी स्पर्धा क्रोध को भी पार कर गयी, यह बात उसके अपने कानों में भी जा लगी। बड़ी देर तक वह चुपचाप खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे बाहर निकल गयी।

तीन

सावित्री आज भी काम-धन्धों में व्यस्त रहती हुई दिन-भर उत्कण्ठित बनी रही। सतीश यदि कल की तरह आज भी क्रोध करता अथवा एक भी बात का जवाब देता तो अच्छा होता, लेकिन उसने कुछ भी नहीं किया। उदास मुख से नियमानुसार भोजन करके पढ़ने चला गया और ठीक समय पर लौट आकर चुपचाप अपने कमरे में बैठा रहा। आड़ में रहकर सावित्री सब कुछ लक्ष्य करने लगी, लेकिन किसी तरह का बहाना करके भी आज उसके कमरे में घुसने का उसने साहस नहीं किया। प्रतिदिन संध्या के बाद वह उसके कमरे में झाड़ू लगा आती थी, आज बिहारी को भेज दिया और संध्या के बाद वही बत्ती जला आया।

नित्य इसी समय राखाल बाबू के कमरे में शतरंज का अड्डा जमता था, आज भी जम गया। सामने की खुली छत पर कोई भी नहीं था। सावित्री इधर-उधर देखकर अपने सारे संकोच को बलपूर्वक हटाकर चुपके-चुपके पैर बढ़ाती हुई सतीश के कमरे में जा पहुँची। सतीश बिछौने पर चित लेटा हुआ शायद छत की कड़ियों को गिन रहा था। अब उठकर बैठ गया। सावित्री, ने कहा, “आपके लिए संध्या-पूजा का स्थान ठीक कर दूँ।”

सतीश ने कहा, “अच्छा, कर दो।”

फिर सावित्री को चुप हो जाना पड़ा। लेकिन कुछ देर बाद ही वह बोल उठी, “अच्छा, लोग क्या कहेंगे बताइये तो?”

सतीश ने कुछ जवाब न दिया।

सावित्री बोली, “आपने मुझे रहने को कहा, लेकिन स्वयं कैसा उत्पात मचा रहे हैं, बताइये तो?”

सतीश ने गम्भीर भाव से कहा, “मैंने कोई भी उत्पात नहीं मचाया; केवल चुपचाप पड़ा हुआ हूँ।”

सावित्री बोली, “यही चुपचाप पड़ा रहना तो सबसे अधिक बुरा है। जब सभी चुपचाप पड़े नहीं हैं तब आपके चुपचाप पड़े रहने से ही चर्चा होने लगेगी, यही क्या आपकी इच्छा है?” थोड़ी देर चुप रहकर वह फिर बोली, “वही जो चुभोकर घाव कर देने की कहावत है, आप ठीक वही कर रहे हैं। दोष नहीं है, फिर भी दोषी बनकर बैठे हुए हैं। इस बात को लेकर पाँच आदमी कानाफूसी करेंगे, हँसी-मज़ाक करेंगे, यह आप सह सकेंगे, मुझसे तो सहा न जायेगा। मुझे यहाँ से चला जाना पड़ेगा।”

सतीश ने मन में सोचा, “दोष क्या, मैंने तो कुछ भी नहीं किया?”

सावित्री ने कहा, “नहीं! अच्छी तरह विचार कर देखिये तो, मन आप ही आप साफ़ हो जायेगा। मेरे सम्बन्ध में आपकी तरह दोष.....।” सावित्री फिर कुछ बोल न सकी। दौड़ता हुआ घोड़ा अचानक गहरे खन्दक के किनारे जाकर अपने दोनों पैरों को गड़ाकर जिस तरह जी-जान से रुककर खड़ा हो जाता है, सावित्री की चलती हुई जबान ठीक उसी तरह रुक गयी। उसकी इस आकस्मिक निस्तब्धता से आश्चर्य में पड़ा हुआ सतीश ज्यों ही मुँह ऊपर उठाकर देखने लगा त्यों ही आपस में आँखें लड़ गयीं। अपनी लज्जा से सावित्री आप ही मर गयी। वह जो यही बात कहने गयी थी कि उसकी तरह नारी के सम्बन्ध में इस प्रकार के अपराध में लज्जा का कारण नहीं है, इस लज्जा से उसके केश तक काँप उठे।

सतीश कोई बात कहने जा रहा था, लेकिन सावित्री ने उसको रोककर कहा, “चुप रहिये, आप भी समझ लें। झूठ-मूठ तिल का ताड़ बनाकर कष्ट मत भोगिये। ऐ बिहारी, बाबू के लिए संध्या-पूजा का स्थान ज़रा जल्दी से धो डालो, मैं देर से आसन लिए खड़ी हूँ।”

बिहारी किसी बात से इसी तरफ़ आ रहा था, तुरन्त जल लाने के लिए जब वह लौट गया, तब सावित्री ने लांछित अपमान के स्वर में कहा, “आपके बर्ताव से आज दो दिनों से मैं कितनी परेशान हो उठी हूँ, इसको क्या आप आँखें उठाकर एक बार देख भी नहीं पा रहे हैं? आश्चर्य है!”

उसकी इतनी शीघ्रता में कही हुई बातों को ठीक से समझ लेने का अवकाश सतीश को मिला नहीं, तो भी उसके अन्दर की ग्लानि मानो स्वच्छ होकर चली आयी और दूसरे ही क्षण क्षमा पाये हुए अपराधी की भाँति पछतावे क स्वर में उसने कहा, “लेकिन मैंने क्या तुम्हारा अपमान नहीं किया?”

सावित्री ने कहा, “न समझने से मैं आपको समझाऊँगी कैसे? सौ बार, हज़ार बार कहती हूँ, उससे मेरी तरह की स्त्रियों को कोई अपमान नहीं होता। कृपा करके शान्त हो जाइये, केवल इतनी ही विनती आपसे आपके चरणों में कर रही हूँ।”

सतीश कुछ कहने जा रहा था, लेकिन सावित्री अपनी दोनों भौंहों को सिकोड़कर संकेत में मना करके बोली, “बिहारी आ गया!”

बिहारी लोटे में पानी लेकर आ गया था। सावित्री ने उसके हाथ से लोटा लेकर, कमरे के एक कोने को अच्छी तरह धोकर आँचल से पोंछकर सतीश से कहा, “आप जाइये, हाथ-पाँव धोकर संध्या करने के लिए बैठ जाइये। पूजा की सामग्री आदि उस ताख में है।” इतना कहकर सतीश के दुर्विष पूर्ण हृदय-भार को चुपचाप दूर करती हुई बिहारी को साथ लेकर वह धीरे-धीरे बाहर चली गयी।

ध्यान लगाकर सांध्यकृत्य समाप्त करके उठने के साथ ही सतीश ने देखा, इस बीच कोई चुपके से बाहर आकर आसन बिछाकर उसके लिए भोजन रख गया है। यद्यपि कमरे में कोई नहीं था, तो भी वह निश्चित रूप से समझ गया कि वह अकेला नहीं है। आसन पर बैठकर उसने कहा, “अभी इतना अधिक खा लेने से फिर तो रात को न खा सकूँगा।” बाहर से उत्तर आया, “खाना भी न पड़ेगा, विपिन बाबू के यहाँ से आदमी निमन्त्रण दे गया है।”

सतीश हँस पड़ा। बोला, “जाओ, जलाओ मत, मैं कहीं भी जा न सकूँगा।”

सावित्री आड़ से ही बोली, “ऐसा कैसे होगा। कह गये हैं, शायद कहीं जाना होगा, आप जानते ही होंगे और न जाने उन लोगों का सब कुछ भरभण्ड हो जायेगा। गाना-बजाना।” “होने दो।” इतना कहकर सतीश इस विषय की चर्चा बन्द करके चुपचाप भोजन करने लगा और समाप्त हो जाने पर बिछौने के सिरहाने बत्ती लाकर भले लड़के की भाँति एक डाक्टरी कि किताब खोलकर लेट गया। लेकिन उस तरफ़ किसी भी दशा में मन न लग सका। उसका व्याकुल मन बन्धन से छूटे हुए घोड़े की तरह बेकार सर्वत्र दौड़ने लगा। रसोई को ढककर रसोइया महाराज बिहारी से गांजा मँगवा रहा था और राखाल बाबू के कमरे में शतरंज खेल का कोलाहल बढ़ता ही जा रहा था।

सतीश ने पुकारा, “सावित्री!”

सावित्री उस समय भी चौखट के बाहर बैठी थी, बोली, “कहिये!”

सतीश बोला, “विपिन बाबू के निमंत्रण में जाना महापाप है। बिना समझे पाप कर डाला है अवश्य, लेकिन समझकर न करूँगा।”

सावित्री ने बाहर से पूछा, “पाप क्यों?”

सतीश ने कहा, “मैं जानता हूँ किस स्थान पर उनके गाने-बजाने की तैयारी चल रही है। केवल उस स्थान पर जाना ही पाप का काम है।”

“ठीक बात है। ऐसे स्थान पर न जायें।”

सतीश उत्तेजित होकर बोला, “सचमुच ही न जाऊँगा। लेकिन वे लोग सहज ही में मुझे छुटकारा देंगे, ऐसा मालूम नहीं होता। इसीलिए तुम्हें पहले से सावधान कर दे रहा हूँ, अगर कोई आये तो कह देना मैं घर पर नहीं हूँ, रात को भी न जाऊँगा। समझ गयी न!”

सावित्री बोली, “समझ गयी।”

सतीश ने अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया सोचकर एक गहरी साँस ली। क्षणभर चुप रहकर सतीश ने कहा, “कहाँ से तेज हवा आ रही है सावित्री, खिड़कियाँ बन्द कर दो।”

सावित्री आकर खिड़कियाँ बन्द करने लगी। सतीश एकटक देखता रहा। देखते-देखते अकस्मात कृतज्ञता से उसका हृदय भर गया। बोला, “अच्छा, सावित्री, तुम अपने को नीच स्त्री क्यों कहा करती हो?”

सावित्री बोली, “जो बात सच है, वह क्या कहूँगी नहीं?”

सतीश ने कहा, “यह बात किसी तरह भी सच नहीं है, तुम गले तक गंगाजल में खड़ी होकर बोलोगी तो भी मैं विश्वास न करूँगा।”

सावित्री मुस्कराकर बोली, “क्यों नहीं करोगे?”

“यह नहीं मालूम। शायद सच नहीं है, इसीलिए। नीच की तरह तुम्हारा व्यवहार नहीं है, बातचीत का तरीक़ा नहीं हैं, आकृति नहीं है, इतना लिखना-पढ़ना भी तुमने कहाँ सीखा?”

वह फ़र्श पर दूर बैठी थी। सावित्री हँसकर बोली, “इतना, कितना सुनूँ तो?”

सतीश कुछ करने ही जा रहा था कि खुली पुस्तक को एक ओर रख थमक गया। बाहर से जूतों की आवाज़ आ रही थी। दूसरे ही क्षण उन्मत्त कण्ठ से पुकार आयी, “सतीश बाबू!” सतीश जान गया, यह विपिन का दल है उसको ही पकड़ने आया है। और कोई बात उसने नहीं सोची। बत्ती बुझाकर झट सो रहा। पास ही फ़र्श पर बैठी हुई सावित्री व्याकुल भाव से बोली, “यह क्या कर डाला?”

दूसरे ही क्षण अँधेरे दरवाज़े के सामने दो मूर्तियाँ आकर खड़ी हो गयीं। एक ने कहा, “यही तो कमरा है सतीश बाबू का!”

दूसरे ने कहा, “नौकर ने कहा कि बाबू कमरे में हैं।”

पहले व्यक्ति ने क्रोध करके कहा, “कमरे में तो अँधेरा है। कोई भला आदमी क्या कभी शाम को डेरे पर रहता है? तुम्हारा जितना.....।”

दूसरा व्यक्ति उसके उत्तर में धीमी आवाज़ में कुछ कहकर जेब टटोलकर दियासलाई निकाल कर बत्ती जलाने को तैयार हुआ।

इधर बिछौने के भीतर सतीश के शरीर का खून पानी हो गया। वह विलायती कम्बल ओढ़कर पसीने से तरबतर होने लगा, और फ़र्श के ऊपर सावित्री लज्जा और घृणा से काठ-सी बनकर बैठ रही।

दीपशलाका जल उठी। ‘यहाँ यह कौन बैठा हुआ है?’ पहले व्यक्ति ने ज्यों ही कमरे में घुसकर ढूँढ़कर बत्ती जलायी त्यों ही वह उठ खड़ी हुई।

दूसरे व्यक्ति ने कुछ हटकर खड़े होकर पूछा, “कहाँ हैं सतीश बाबू।”

सावित्री इशारे से बिछौना दिखाकर चली गयी। उसके चले जाने के साथ ही दोनों मतवालों ने ठठाकर हँसना शुरू किया। उस हँसी की आवाज़ और उसका अर्थ सावित्री के कानों में जा पहुँचा, और कम्बल में पड़ा हुआ सतीश बार-बार अपनी मृत्यु की कामना करने लगा।

उन लोगों ने सतीश को खींचकर उठा लिया, और बलपूर्वक पकड़कर उसे ले चले और जब तक इन लोगों की विकट हास्य-ध्वनि मकान के बाहर पूर्णरूप से विलीन न हो गयी तब तक सावित्री एक अँधेरे कोने में दिवाल पर माथा धरकर वज्राहत की भाँति कठोर होकर खड़ी रही।

लेकिन उस मकान का कोई भी कुछ न जान सका। रसोईघर में रसोइया महाराज अभी गांजे की चिलम खत्म करके इसमें मोक्ष प्रदान करने की आश्चर्यजन शक्ति वेद में किस तरह लिखी हुई है, यही बात भक्त बिहारी को समझाकर कह रहा था, और उस कमरे में राखाल बाबू का दल हड्डी का पासा मनुष्य की चिल्लाहट सुन सकता है या नहीं इसकी ही मीमांसा में लगा था।

बाहर आकर तीनों एक गाड़ी पर बैठ गये। इन लोगों की उन्मत्त हँसी को सहन न कर सकने के कारण सतीश ने तीखे स्वर से कहा, “या तो आप लोग चुप हो रहिये, या माफ़ कीजिये, मैं उतर जाऊँ।”

पहला व्यक्ति “अच्छा” कहकर भयंकर रूप से हँस पड़ा और उसका साथी उसको धमकाकर रुक जाने को कहकर उससे भी अधिक ज़ोर लगाकर हँस उठा। इन दोनों शराबियों के साथ बात करना बेकार समझकर सतीश निष्फल क्रोध से खिड़की से बाहर झाँकने लगा।

रात में अँधेरे में सावित्री चुपचाप बैठी हुई थी, शायद कल की लज्जाजनक घटना की वह मन ही मन आलोचना कर रही थी। उसी समय बिहारी आकर बोला, “माँजी सबका खाना हो चुका, महाराजजी आपको जलखावा के लिए बुला रहे हैं।”

सावित्री ने उदास भाव से कहा, “आज मैं खाऊँगी नहीं, बिहारी।”

बिहारी सावित्री को स्नेह करता था, सम्मान करता था। चिन्तित होकर उसने पूछा, “खाओगी क्यों नहीं माँ, क्या तबीयत ठीक नहीं है?”

“ठीक है, किन्तु खाने की इच्छा नहीं है। तुम लोग जाकर खा लो।”

बिहारी ने कहा, “तो चलो, तुम को पहुँचा आऊँ।”

सावित्री ने कहा, “अच्छा चलो। लेकिन एक बात है बिहारी, सतीश बाबू अभी तक लौटकर आये नहीं हैं, तुम लोग जागते रह सकोगे न?”

बिहारी घबराकर बोला, “मैं! लेकिन मेरी कमर में तो वह गठिया दर्द....।”

“तब क्या होगा बिहारी?”

बिहारी ने तनिक सोचकर कहा, “रसोइया महाराज को हुकुम देकर.......।”

सावित्री ने झटपट कहा, “यह नहीं होगा बिहारी। ब्राह्मण आदमी को मैं जाड़े में कष्ट न दे सकूँगी।”

इच्छा न रहने पर भी बिहारी कुछ देर चुप रहकर बोला, “अच्छा, तो मैं ही रह जाऊँगा। चलो, तुमको पहुँचा आऊँ।”

सावित्री उठ खड़ी हुई। दो-एक कदम आगे बढ़कर रुककर वह बोली, “ज़रूरत नहीं है बिहारी, तुम जाओ, खा लो, मैं उसके बाद ही जाऊँगी।”

बिहारी के चले जाने पर सावित्री उसी स्थान पर वापस बैठ गयी, और अँधेरे आकाश की तरफ़ देखकर चुप हो रही। आज सतीश के सम्बन्ध में उसके मन में यथेष्ट आशंका थी। वह शराबियों के हाथ में पड़ गया है, इस घटना को अपनी आँखों से देखकर उसको किसी तरह भी घर वापस जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। यद्यपि उसकी ही बुद्धिहीनता से घोर लांछित होकर जलन से छटपटाते हुए उसने खूब भोर में ही काम छोड़ देने का दृढ़ निश्चय कर लिया था, तथापि आज रातभर के लिये इस आदमी को मन ही मन क्षमा न करके, उसकी अवश्यम्भावी दुर्दशा का कोई एक उपाय किये बिना वह किसी प्रकार भी अपने घर जाने को तैयार न हो सकी। बिहारी खाकर आया तो उसने कहा, “तुम सोने के लिए चले जाओ बिहारी, मैं ही यहाँ रहती हूँ।”

बिहारी ने आश्चर्य से कहा, “तुम क्या अपने घर जाओगी नहीं?”

“बाबू को लौट आने दो। उसके बाद क्या तुम मुझे पहुँचाने न जा सकोगे?”

“पहुँचा क्यों न सकूँगा? अवश्य ही पहुँचा सकूँगा।”

“तो फिर वही अच्छा है। मैं ही यहाँ हूँ, तुम जाकर सो जाओ।”

बिहारी के खुश होकर चले जाने पर सावित्री वहाँ ही एक रैपर ओढ़कर बैठ गयी। दोनों शराबी जो कुछ देख गये हैं, उसे वे लोग खोलकर कर देंगे ही इसमें भी उसको लेशमात्र भी सन्देह नहीं रहा। विपिन बाबू कैसा आदमी है, यह बात सावित्री जानती थी। वह इस बात को अवश्य सुनेगा और इस मकान में जबकि उसका आना-जाना है, तब कोई भी जाने बिना न रहेगा। उसके बाद फिर किस मुँह से सतीश एक क्षण भी रहेगा। इस निन्दा की लज्जा वह किस तरह सहेगा। संयोगवश, जो कुछ हो गया, वह तो हो ही गया। अपने सम्बन्ध में वह यहीं तक सोचकर रुक तो गयी, लेकिन बार-बार आलोचना करके भी सतीश के सम्बन्ध में कोई उपाय खोजने पर उसे नहीं मिला।

धीरे-धीरे रात बढ़ने लगी, लेकिन सतीश दिखायी नहीं पड़ा। किसी पड़ोसी के मकान की घड़ी में टन्-टन् करके दो बज गये। निस्तब्ध गम्भीर रात्रि में वह आवाज़ साफ़ सुनायी पड़ी। अस्तव्यस्त बहने वाली ठण्डी हवा खुली छत के ऊपर से आकर उसकी दोनों आँखों को नींद से दबाने लगी, तो भी वह जागती रह कर बाहर दरवाज़े पर कान लगाये रही। इस तरह लेटकर, बैठकर, समय बिताने पर जब रात अधिक नहीं रही तब एक गाड़ी की आवाज़ से वह चौंककर ज्यों ही उठ बैठी, त्यों ही समझ गयी कि गाड़ी उसी मकान के सामने खड़ी हुई है। सावित्री चुपचाप नीचे उतर गयी और दरवाज़े के पास जाकर सावधान होकर खड़ी हो गयी। पीछे कोई दूसरा आदमी न हो, इस भय से एकाएक द्वार खोल देने का उसको साहस नहीं हुआ। देर होने लगी, किसी ने दरवाज़ा खटखटाया नहीं। जो गाड़ी आयी थी वह भी लौट गयी। अकस्मात आशंका से परिपूर्ण होकर सावित्री ने तेज़ी से सिटकनी खोल दी। सतीश बाहर की चौखट पर ओठंग कर पीले मुख, बन्द किये बैठा हुआ था। उसके कपड़े और चादर पर कीचड़ भरा था, माथे पर लहू की रेखा को पास ही गैस के प्रकाश से देख लेने पर सावित्रि रोने लगी। सामने आकर घुटने टेककर वह बैठ गयी। अपने हाथों से सतीश के मुँह को ऊपर उठाकर बोली, “बाबू, चलिये ऊपर।”

सतीश ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, मैं अच्छी तरह हूँ।”

सावित्री ने आँख पोंछकर कहा, “कहीं चोट तो नहीं लगी?

“नहीं लगी है, ठीक हूँ।”

“यह तो रास्ता है, घर चलिए।”

सतीश ने पहले की तरह सिर हिलाकर कहा, “नहीं, जाऊँगा नहीं, अच्छी तरह हूँ।”

सावित्री ने डाँटकर कहा, “उठिये, कह रही हूँ।”

डाँट खाकर सतीश विह्वल लाल आँखों से थोड़ी देर तक देखता रहा, उसकी तरफ़ अपने दोनों हाथ बढ़ाकर बोला, “अच्छा चलो।”

तब उसके कन्धे पर हाथ टेककर सतीश उठ खड़ा हुआ और बहुत कष्ट से हिलते-डुलते अँधेरे में सीढ़ियों से चढ़कर कमरे में जाकर लेट गया। भर्राई आवाज़ से वह बोला, “सावित्री, मैं तुम्हारा ऋण किसी जन्म में भी न चुका पाऊँगा।”

सावित्री ने कहा, “अच्छा, आप सो रहिये।” सतीश उठकर बोला, “क्या? मैं सोऊँगा? कभी नहीं।”

सावित्री पुनः धमकाती हुई बोली, “फिर?”

थोड़ी देर लेटे रहने के बाद बोला, “लेकिन तुम्हारा ऋण.....।”

सावित्री “अच्छा” कहकर उठ गयी और चिराग़ उसके पास लाकर जख़्म की जाँच करके उसको धोकर उसने पूछा, “गिर कहाँ गये थे।”

सतीश सिर हिलाकर बोला, “नहीं, गिरा तो नहीं।”

सावित्री ने व्यथित कण्ठ से कहा, “फिर कभी शराब न पीजियेगा नहीं तो आपके पैरों पर सिर पटककर मर जाऊँगी।”

सतीश ने तुरन्त कहा, “अब कभी न पीऊँगा।”

“मुझे छूकर शपथ लीजिये।” कहकर अपना दायाँ हाथ बढ़ा दिया।

सतीश ने अपने दोनों हाथों से उसके शीतल हाथ को खींचकर कहा, “शपथ ले रहा हूँ।”

सावित्री अपना हाथ खींचकर बोली, “याद रहेगी न यह बात?”

“याद न रहने पर तुम दिला देना।”

“अच्छा; मैं जा रही हूँ, आप सो रहिये।” इतना कहकर सावित्री धीरे से किवाड़ बन्द करके बाहर जा खड़ी हुई। शुक्रतारे की तरफ़ देखकर सावित्री अपने दोनों हाथ जोड़कर रोती हुई बोली, “देवता! तुम साक्षी रहना।”

उस समय अन्धकार स्वच्छ होता जा रहा था। उसे भेदकर बैलगाड़ियों तथा पड़ोस के मैदा-कारख़ाने की सीटी की आवाज़ें आ रही थीं। सावित्री नीचे उतरकर रसोई में एक कोने में रैपर ओढ़कर सो रही। थोड़ी ही देर में गहरी नींद में खो गयी।

चार

दिन के दस बजने के बाद किसी तरह स्नान-पूजा समाप्त करके दिवाकर रसोईघर के सामने खड़ा होकर पुकारने लगा - “ऐ महाराजजी, जल्दी भात परोसिये, काफ़ी दिन चढ़ आया है।”

पास ही भण्डारघर था। उसकी आवाज़ सुनकर उसकी ममेरी बड़ी बहन महेश्वरी बाहर आकर बोली, ‘ऐ दीबू, मैं तेरी प्रतीक्षा कर रही हूँ, भैया, ठाकुरजी की पूजा तो कर आओ! सारा इन्तज़ाम कर आयी हूँ, मेरे राजा भइया।”

महेश्वरी इस घर की बड़ी लड़की है और मालकिन है। चार वर्ष पहले विधवा होकर पिता के घर आ गयी है।

दिवाकर स्तम्भित हो गया। कुछ देर चुप होकर बोला, “मैं यह काम न कर सकूँगा। मेरे कॉलेज का पहला घण्टा ख़राब हो जायेगा।”

महेश्वरी हँसकर बोली, “तेरा पहला घण्टा ख़राब हो जायेगा, इसलिए क्या ठाकुरजी की पूजा नहीं होगी?”

दिवाकर ने पूछा, “भट्टाचार्यजी कहाँ हैं? उनको क्या हो गया है?”

महेश्वरी बोली, “वह बाबूजी के साथ चौसर खेलने के लिए बैठे हुए हैं। अब कितना दिन चढ़ने पर वे उठेंगे, इसका ठिकाना क्या है?”

दिवाकर ने कहा, “मझले भैया से कह दो, आज उनकी कचहरी बन्द हैं।”

महेश्वरी ने कहा, “कल से धीरेन्द्र की तबीयत ठीक नहीं है। वह स्नान करेगा नहीं, पूजा करेगा तो किस तरह?”

“तब तुम छोटे भइया से कहो। वह बारह बजने के बाद कचहरी के लिए निकलते हैं, अभी उनको बहुत देर है।”

महेश्वरी ने दुःखी होकर कहा, “तू कैसा तर्क करने लगता है, इसका कोई ठिकाना ही नहीं। कल रात को उपेन थियेटर देखने गया था, अभी तक वह सोकर नहीं उठा। अभी तक न मुँह धोया और न चाय पी। रात भर जागने से क्या उसकी तबीयत ठीक है? इसके सिवा वह किसी दिन पूजा करता है जो आज पूजा करेगा?”

इधर रसोइया भात परोसकर पुकार रहा था। दिवाकर ने कहा, “किसी काम से एक न एक बाधा आ पड़ने से प्रायः मेरा पहला घण्टा जाता रहता है, मैं परीक्षा दूँगा तो कैसे?” महेश्वरी का क्रोध बढ़ता जा रहा था, वह बोली, “परीक्षा न देने से भी काम चल सकता है, देवता की पूजा न होने से चल नहीं सकता। तुम्हारे साथ तर्क करने का वक्त मेरे पास नहीं है, और भी काम है।”

रसोइया चिल्लाकर बोला, “दिवाकर बाबू, भात परोसकर मैं खड़ा हूँ जल्दी आइये।” महेश्वरी ने झिड़ककर कहा, “तुमको कुछ भी समझ नहीं है महाराज! मैं इसको पूजा के लिए भेज रही हूँ, तुम इसे पुकार रहे हो। भात ले जाओ, पूजा करके आने पर देना।” कह कर भण्डारघर में चली गयी।

दिवाकर कुछ देर चुप रहा, फिर धीरे-धीरे ऊपर चला गया। वहाँ पूजा की सामग्री थी। घर में शालिग्राम शिला की प्रतिष्ठा हुई थी। उसकी नित्य पूजा के लिए एक पुजारी नियुक्त हैं। वह इसी घर में रहते हैं। मालिक शिव प्रसाद की तरह उनकी भी चौसर की तरफ़ दिलचस्पी है। कुछ दिन हुए शिव प्रसाद सरकारी नौकरी से पेंशन लेकर अपने पछाह वाले मकान पर आकर रहने लगे हैं। सबेरे चाय पी लेने के बाद ही पुजारीजी की बुलाहट होती है, ‘भूतो, भट्टाचार्यजी को एक बार बुलाओ। एक बाजी हो जाये।” बाद को एक बाजी, दो बाजी करते-करते दिन चढ़ जाता है, पुजारी जी को पूजा करने का समय नहीं मिलता। महेश्वरी नौकर को भेजा करती थी, लेकिन उठता हूँ, करते-करते भी उठना नहीं होता था - पूजा का समय बहुत बीत जाता था, किसी को होश नहीं रहता था। इन दिनों पिता की तबीयत ठीक नहीं है, फिर भी खेल की धुन में लगे रहते हैं इस ख़्याल से अब महेश्वरी पुजारीजी को नहीं बुलाती - इनसे-उनसे जिस किसी से, अर्थात दिवाकर से पूजा करा लेती है।

प्रायः चाय पीने का अभ्यास और अवकाश दिवाकर को नहीं था। क्योंकि इस समय उसको नौकर के साथ बाज़ार जाना पड़ता था। आज बाज़ार से लौटकर नित्यकर्म पूरा करके वह भात खाने के लिए आया था।

दिवाकर पूजा के लिए चला गया। लेकिन आसन पर बैठकर सोचने लगा, दूसरे के घर में रहने का यही सुख है। यद्यपि अच्छी तरह होश सम्भालने के बाद ही दूसरे के घर में रहता आया है, और उसे अनके दुःखों को सह लेने की आदत भी पड़ गयी है, लेकिन मनुष्य की जो वस्तु किसी दुःख से भी नहीं मरती - वही भविष्य की आशा - आघात खाकर उसके हृदय से बाहर निकल सिर उठाकर खड़ी हो गयी। क्रोध से उसकी सारी देह जल रही थी, सिंहासन से ठाकुरजी को उतारकर उसने ताम्रकुण्ड के ऊपर फेंक दिया, और मंत्र पढ़े बिना शरीर पर जल डालकर भीगे हुए देवता को उठाकर रख दिया। फूल चढ़ाने, तुलसीपत्र सजाकर रखने, घण्टी बजाने आदि हाथ के काम अभ्यास के अनुसार होने लगे अवश्य, किन्तु विद्वेष की जलन से उसके कण्ठ से एक भी मंत्र नहीं निकला।

इस तरह पूजा का तमाशा ख़त्म करके जब उठ खड़ा हुआ, तब यह ध्यान आया कि पूजा बिल्कुल नहीं हुई, फिर से पूजा करने बैठ जाऊँ या नहीं, यह दुविधा एक बार उसके मन में जाग उठी, किन्तु उसके साथ ही उसको यह बात याद पड़ गयी कि कॉलेज का पहला घण्टा बीत रहा है, वह तेज़ क़दमों से सीढ़ियों से नीचे उतरकर सीधे बाहर जा रहा था, महेश्वरी ने भण्डारघर से उसे देखा तो बुलाकर कहा, “बिना भोजन किये जा रहा है?”

“भोजन का समय नहीं है।”

महेश्वरी ने कहा, “तो कॉलेज से कुछ समय पहले ही लौट आना। ब्राह्ममण ठाकुरजी, दिवा बाबू के लिए सब ठीक रहे।”

दिवाकर ने कोई उत्तर न दिया। वह अपनी बाहरी कोठरी में आकर कपड़े पहनने लगा तो नेत्रों में जल भर आया।

सामने के बैठक से उस वक्त तक शतरंज खेलने की हुंकार आ रही थीं अचानक पीछे से दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आयी।

दिवाकर ने पीछे घूमकर देखा - नौकरानी खड़ी है। नेत्र पोंछकर उसने पूछा, “क्या बात है?”

नौकरानी बोली, “छोटी बहू ने आपको बुलाया है।”

“चलो, मैं आ रहा हूँ।”

सुरबाला अपने कमरे के सामने ही दिवाकर की प्रतिक्षा कर रही थी। दिवाकर ने आकर कहा, “क्या बात है?”

सुरबाला प्रकट रूप से नहीं, आड़ में रहकर बाते करती थी। सिर के कपड़े को ज़रा खींचकर बोली, “ज़रा कमरे में आओ।”

इतना कहकर कमरे में जाकर उसने दिखा दिया - फ़र्श पर आसन बिछा हुआ था, एक कटोरा दूध, तश्तरी में दो-चार सन्देश रखे हुए थे। सुरबाला ने कहा, “खाकर ही कॉलेज जाना।”

दिवाकर चुपचाप खाने के लिए बैठ गया।

पास ही बिछौने पर उसके छोटे भाई उपेन्द्रनाथ उस समय भी निद्रित मनुष्य की भाँति लेटे हुए थे। दिवाकर के खाना खाकर चले जाने के बाद ही सिर ऊपर उठाकर पत्नी को बुलाकर कहा, “यह फिर क्या?”

सुरबाला भोजन किये स्थान को साफ़ कर रही भी, चौंककर बोली, “क्या तुम जाग रहे हो?”

“दो घण्टे से जाग रहा हूँ, ग्यारह बचे तक कोई मनुष्य सो सकता है?”

सुरबाला हँसकर बोली, “तुम सब कर सकते हो। वरना कोई मनुष्य क्या ग्यारह बजे तक पड़ा रह सकता है?”

उपेन्द्र ने कहा, “सभी नहीं कर सकते, लेकिन मैं कर सकता हूँ। इस का कारण यह है कि लेटकर पड़े रहने जैसी अच्छी वस्तु मैं कुछ भी जगत में नहीं देख पाता। कुछ भी हो, दिवाकर के....।”

सुरबाला ने कहा, “बबुआजी नाराज़ होकर बिना खाये कॉलेज जा रहे थे, इसी से मैंने उनको बुलाया था।”

“इसका कारण?”

सुरबाला ने कहा, “क्रोध होता ही है। उस बेचारे को प्रातः पढ़ने का समय नहीं है - बाज़ार जाना, लौटकर ठाकुरजी की पूजा करनी पड़ती है। किसी दिन ग्यारह-बारह बजे आता है। बताओ तो किस समय वह खाना खाये और किस समय पढ़ने जाये?”

“बात ठीक समझ में नहीं आयी? भट्टाचार्य को बुखार है क्या?”

सुरबाला ने कहा, “बुखार क्यों होगा! बाबूजी के साथ चौसर पर बैठे हैं! और उनका भी क्या दोष है? बाबूजी के बुलाने पर वह ना तो कर सकते नहीं।”

उपेन्द्र ने कहा, “यह तो वह नहीं कर सकते, लेकिन पहले वह नौकर के साथ सबेरे बाज़ार जाया करते थे न?”

सुरबाला बोली, “कुछ दिनों तक शौक़ करके जाया करते थे। नहीं तो बबुआजी को ही रोज़ जाना पड़ता है।”

उस दिन ठाकुरजी की पूजा नहीं हुई, यही सोचते-सोचते दिवाकर अप्रसन्न रूप से धीरे-धीरे कॉलेज जा रहा था। मकान में अभी-अभी जो सब घटनाएँ हो गयीं, उस आलोचना को छोड़कर उसे बड़ी चिन्ता यह थी कि ठाकुरजी की पूजा आज नहीं हुई। बहुत दिनों की बहुत असुविधाओं के रहते हुए भी इस काम की अवहेलना नहीं की थी, करने की बात भी मन में किसी दिन उठी नहीं थी। खासकर आज की बात सोचकर मन में पीड़ा अनुभव करने लगा। यद्यपि युक्ति तर्कों से वह बारम्बार अपने मन को सान्त्वना देने लगा कि भगवान केवल एक ही स्थान में आबद्ध नहीं है, इसलिए एक स्थान से भोग न लगा तो भी अन्यत्र लगा होगा। लेकिन वही जो उनके बिना खाये हुए गृहदेवता अपनी नित्यपूजा और भोग से वंचित होकर क्रोधायुक्त मुख सिंहासन पर बैठे रह गये, उसकी प्रतिहिंसा की आशंका उसके मन से किसी प्रकार भी हटना नहीं चाहती थी।

कालेज आने पर पता लगा कि प्रोफ़ेसर की तबीयत ख़राब हो जाने के कारण पहले घण्टे में क्लास नहीं लगी - सुनकर दिवाकर को खुशी हुई। परीक्षा निकट आ रही है इस कारण छात्रों ने हाजिरी के हिसाब के लिए कॉलेज के क्लर्क को तंग कर डाला है। आज दूसरे छात्र जब इसी उद्देश्य से ऑफ़िस के कमरे की तरफ़ जाने की तैयारी कर रहे थे, तब दिवाकर भी तैयार हो गया। लेकिन ऑफ़िस के सामने आकर ठाकुरजी की पूजा न करने की बात याद करके वह ठिठककर खड़ा हो गया।

एक ने उससे पूछा, “खड़े क्यों हो गये?”

दिवाकर ने उत्तर दिया, “आज रहने दो।”

“रहने दो क्यों, चलो आज देख लें।”

“नहीं, रहने दो।” - कहकर वह लौट गया। हाजिरी के सम्बन्ध में उसके मन में बहुत सन्देह था, उस सन्देह की मीमांसा करने का साहस आज उसे नहीं हुआ।

भोजन न करके आने पर भी उसको घर लौटने की कोई जल्दी नहीं थी। छुट्टी के बाद कॉलेज के फाटक के पास आकर उसने देखा, बी.ए. क्लास के छात्रों का दल दूर खड़ा तर्क-कोलाहल कर रहा है, दिवाकर दूसरी ओर मुँह फेरकर हट गया, और जो रास्ता सीधा गंगाजी की तरफ़ गया है, उसी तरफ़ चल दिया। टूटा हुआ पक्का घाट, मुर्दे के कंकाल की भाँति पड़ा हुआ है। किसी दिन इसका शरीर था, सौन्दर्य था, प्राण था, जगह-जगह पड़ी हुई टूटी-फूटी ईंटों के ढेर यही बात कह रहे थे। और कुछ नहीं कहते। तब किसने बनवाया था, कौन लोग आकर बैठते थे, कौन लोग स्नान करते थे, कहीं भी कोई साक्षी मौजूद नहीं है। जाड़े के दिनों की पतली गंगा उसी के किनारे से अविराम समुद्र की ओर चली जा रही है। किनारे पर खेतों में जौ के बाल सिर उठाकर धूप की गरमी और गंगाजी की वायु सेवन कर रहे हैं। उसके ही एक तरफ़ रेतीला तंग रास्ता पकड़कर चलता हुआ दिवाकर घाट पर आ पहुँचा। ईंटों के ढेर के पास जूता खोलकर रख दिया। उसके बाद पंजाबी कुरते को उतारकर भारी जिल्ददार किताबों से दबा दिया। फिर जल में उतरकर हाथ-मुँह धोकर सिर पर गंगाजी का जल छिड़ककर उसने बिना खाये हुए गृह देवता को स्मरण किया। आदि से अन्त तक सभी मंत्रों को सावधानी से उच्चारण करके गंगाजी में जलांजलि प्रवाहित करके प्रणाम करके जब वह उठा, तब उसके हृदय का बोझ बहुत हलका हो गया था। कुरता पहनकर, किताब लेकर जब वह चला तब दिन ढल रहा था। उस उक्त भी हिन्दुस्तानी स्त्रियाँ घाट के एक किनारे पर बैठकर सिर पर सज्जी मिट्टी मल रही थीं।

पाँच

छोटी बहू सुरबाला के पिता ने ठेकेदारी के काम में काफ़ी दौलत पैदा करके आजकल बक्सर वाले मकान में रहने लगे। उनकी दो लड़कियाँ थीं। सुरबाला बड़ी थी, और शची छोटी। शची की अभी तक शादी नहीं हुई थी, बक्सर में पिता के घर पर ही रहती थी।

पिता के घर में सुरबाला को पशुराज के नाम से पुकारते थे। यह नाम उसके पितामह ने रखा था। मुहल्ले के अन्धे-लंगड़े, बिल्ली-कुत्ते, बिलायती चूहे, कबूतर, गौरैया मिलकर प्रायः सौ से अधिक प्राणी उसके आश्रय में पलते थे। उनमें से किसी को भी किसी दिन ममतावश वह छोड़ न सकी। अभी तक वे शची की कृपा से पल रहे हैं। सुरबाला के नाम का विवरण महेश्वरी जानती थी, उसके द्वारा यहाँ भी वह नाम प्रचलित हो गया था। जो लोग बड़े थे, वे संक्षेप में पशु कहकर पुकारते थे, नौकर-नौकरानी भी कोई तो पशु बहू, कोई छोटी बहूजी कहकर पुकारती थी।

काफ़ी रात को काम-काज हो चुकने पर सुरबाला जब कमरे में आयी तो उपेन्द्र ने कहा, “पशु, बाबूजी ने शची के लिए वह खोजकर ठीक करने के लिए तकाजे का पत्र लिखा है। शची आयु में तुमसे कितनी छोटी है, मालूम है?”

सुरबाला ने कहा, “मालूम क्यों नहीं है। मेरे बाद एक भाई होकर सौरी में ही चल बसा, उसके बाद ही शची का जन्म हुआ। इस प्रकार वह मुझसे आयु में छः-सात वर्ष छोटी है?”

“इस हिसाब से तो उसकी आयु बारह-तेरह वर्ष की होगी।”

“इतनी तो होगी ही। दुबली-पतली होने के कारण ही केवल इतने दिनों तक क्वारी रखी गयी। मेरी तरह बड़े-बड़े हाथ-पाँव वाली होती तो भारी कठिनाई होती।”

उपेन्द्र हँसकर बोला, “कठिनाई किस लिए? तुम्हारे बाबूजी को तो रुपये की कमी नहीं है, रुपये रहने से सभी वस्तुएँ सुलभ हो जाती हैं। तुम्हारे समय में मैं जिस तरह हड़बड़ाकर जा पहुँचा था, उस तरह हड़बड़कर जाने वाले आदमियों की संसार में कमी नहीं है।” सुरबाला ने कहा, “क्या तुम बाबूजी के रुपये देखकर गये थे?”

“तुम्हारे सामने ‘नहीं’ कहने से ही प्रतिष्ठा है, लेकिन झूठी बात ही कैसे कहूँ?”

“लेकिन यह झूठ है।”

“झूठी बात क्यों?”

“असत्य होने के कारण ही असत्य बात है। तुम जब-तब कहते रहते हो अवश्य, लेकिन तुम बाबूजी का रुपया देखकर नहीं गये थे। बाबूजी के पास रुपये रहते या नहीं रहते, तुमको जाना ही पड़ता। मैं जिस जगह, जिस घर जन्म लेती, मुझे लाने के लिए तुमको वहाँ जाना ही पड़ता, समझे?”

उपेन्द्र ने गम्भीरता धारण कर कहा, “कुछ-कुछ समझ रहा हूँ। लेकिन मान लो, अगर तुमने कायस्थ के घर में जन्म लिया होता तो?”

सुरबाला हँसकर बोली, “वाह, खूब कहा तुमने! ब्राह्मण के घर की कन्या क्या कभी कायस्थ के घर जन्म लेती है? इसी दिमाग़ को लेकर तुम वक़ालत करते हो?”

उपेन्द्र ने गम्भीर होकर कहा, “यह भी ठीक है। शायद इस कारण उन्नति नहीं हो रही है।”

सुरबाला अपनी बातों से व्यथित होकर सान्त्वना के स्वर में जल्द बोली, “उन्नति क्यों नहीं होगी, खूब उन्नति होगी। लेकिन कुछ देर हो सकती है, यही न। लेकिन मैं यह भी कहती हूँ, तम्हारी उन्नति की ज़रूरत ही क्या है।” हँसकर बोली, “बारह से चार बजे तक मेरे सामने हाजिर रहने से मैं तुमको पाँच सौ रुपये के हिसाब से दे सकती हूँ। बाबूजी मुझे हर महीने ढाई सौ रुपये भेजते हैं और ढाई सौ उनसे माँग लूँगी।”

उपेन्द्र ने कहा, “मान लिया कि तुम ले लोगी, लेकिन मुझको क्या करना पड़ेगा? बारह बजे से चार बजे तक तुम्हारे सामने खड़ा रहना पड़ेगा?”

सुरबाला बोली, “हाँ, यदि तुम खड़े न रह सके तो बैठ भी सकते हो।”

“और बैठ नहीं सकने पर लेट नहीं जाऊँगा? क्या कहती हो?”

सुरबाला मुसकराकर बोली, “सो नहीं कर सकोगे। बैठ न सकने पर फिर खड़ा हो जाना पड़ेगा। हाकिम के सामने बेअदबी करने से तुमको फाइन देना पड़ेगा।”

“फाइन न दे सकने पर?”

“नज़रबन्द रहना पड़ेगा। चार बजने के बाद भी तुम बाहर न जा सकोगे, समझ गये?”

उपेन्द्र से सिर हिलाकर कहा, “समझ गया, हाकिम कुछ सख़्त है, नौकरी बची रह सके तो यही गनीमत!”

सुरबाला ने अपनी दोनों कोमल भुजाओं से पति के गले को घेरकर कहा, “हाकिम सख़्त नहीं है। तुम्हारी नौकरी सुरक्षित रहेगी, एक दिन केवल परीक्षा करके ही देख लो न।” कुछ देर बाद सुरबाला ने अपने को मुक्त कर लेने के बाद पूछा, “बाबूजी के पत्र का उत्तर दोगे?” उपेन्द्र ने कहा, “खोजने की आवश्यकता नहीं है। पात्र खुद ही हाजिर हो जायेगा, यही उत्तर दूँगा।”

“छिः! यह कैसी बात! उनके साथ परिहास करना उचित है?”

“इतनी देर से क्या तुम मेरे साथ परिहास कर रही थीं!”

सुरबाला घबराकर बोली, “देखो, मैंने परिहास नहीं किया। लेकिन बाबूजी को यह बात लिखने की आवश्यकता नहीं है, सचमुच ही मैं विश्वास करती हूँ कि शची के लिए वर ठीक हो ही चुका है इसके अलावा अन्य कोई मार्ग नहीं है। लेकिन तुम्हारे ही मुँह से यह बात सुन लेने से बाबूजी नाराज़ होंगे।”

उपेन्द्र हँसकर बोला, “वास्तव में शची के लिए वर ठीक हो चुका है। उन को मैं भी जानता हूँ और तुम भी जानती हो।”

सुरबाला ने उत्सुक होकर पूछा, “कौन है, बताओ तो।”

उपेन्द्र बोला, “अभी नहीं। सब ठीक-ठाक करने के बाद बताऊँगा।”

सुरबाला ने थोड़ी देर चुप रहकर कहा, “अच्छा! लेकिन एक बात तुमको मैं बता दूँ, शची में एक दोष को छिपाकर वह ठीक करना उचित नहीं है। उससे फल अच्छा न होगा।”

उपेन्द्र ने घबराकर पूछा, “दोष क्या है?”

सुरबाला ने कहा, “बताती हूँ। शायद बाबूजी की इच्छा उस दोष को गुप्त रखने की है। नहीं तो वह खुद ही तुमको बता देते। शची देखने-सुनने में लिखने-पढ़ने में अच्छी ही है, बाबूजी के पास रुपये भी है। लेकिन क्या तुमने शची को ठीक तरह देखा नहीं है?”

उपेन्द्र बोला, “देखा है, लेकिन अच्छी तरह देख लेने का साहस....।”

“तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। पहले मेरी बात सुन लो। उसके बाद जैसी खुशी हो, जवाब देना। तुम तो जानते ही हो, शची बचपन से ही दुबली-पतली है। दो-तीन बार भारी बीमारियों से मरते-मरते बची है। एक बार उसकी बीमारी तो अच्छी हो गयी लेकिन दायाँ पैर नीचे से ऊपर तक फूलकर पक गया। डाक्टर ने शल्योपचार करके उसको बचा लिया अवश्य, लेकिन पैर सीधा नहीं हुआ। उसी समय से वह ज़रा लंगड़ाकर चलती हे। डाक्टर ने कहा था, ‘उम्र बढ़ जाने पर वह अच्छी हो सकती है।’ लेकिन इस आश्वासन पर विश्वास करके कौन विवाह करने को तैयार होगा। जो सचमुच ही अच्छा लड़का है, उसके लिए अच्छी लड़की भी मिल जायेगी, जान-बूझकर वह शची जैसी लड़की से शादी न करेगा। और जो लड़का धन के लोभ से राजी होगा वह कुपात्र होगा।”

उपेन्द्र ने ध्यानपूर्वक सुनकर कहा, “मैंने तो शची को कई बार देखा है, लेकिन किसी दिन लंगड़ाकर चलते नहीं देखा।”

सुरबाला हँसकर बोली, “पुरुषों को कौन-सी चीज़ दिखायी पड़ती है! लेकिन स्त्रियों की आँखों को तो धोखा देना चल नहीं सकता, वे तो एक ही क्षण में दोष जान लेती हैं।”

उपेन्द्र ने कहा, “लेकिन उसको तो स्त्रियों के साथ शादी न करनी पड़ेगी कि स्त्रियों की आँखों से डरना पड़ेगा।”

“यह कैसी बात! धोखा देकर शादी कराने की इच्छा रहने पर तो अन्धी लड़की की भी शादी की जा सकती है लेकिन बाद को!”

उपेन्द्र कुछ सोच रहे थे, बोले नहीं।

सुरबाला फिर बोली, “पिछली दुर्गापूजा के समय हमारे बक्सर के मकान पर ठीक उसी तरह की बातें हुई थीं। बुआजी और माँ दोनों ने ही कहा था कि शादी के पहले इन सब आलोचनाओं की आवश्यकता नहीं है। हो जाने के बाद दामाद को बता देने से ही काम चल जायेगा।”

उपेन्द्र ने कहा, “ठीक ही तो है।”

“नहीं, ठीक नहीं है। मैं कहती हूँ कि सास-ननद को छोड़ अकेले दामाद को विश्वास में लेने से काम नहीं चलता। शची को जो पति मिलेगा वह उसको प्रेम करेगा ही। लेकिन एक तुच्छ त्रुटि के कारण पहले ही यदि वह उसकी विद्वेषभरी दृष्टि में पड़ जायेगी तो किसी दिन सुख से घर-गृहस्थी न कर सकेगी।”

उपेन्द्र ने कहा, “कर सकेगी। क्योंकि दिवाकर तुम्हारी बहिन को लापरवाही से न रखेगा, तुम अथवा बहिन भी शची को झिड़कियाँ न सुनावेंगी।”

यह बात सुनकर सुरबाला चुप हो गयी। बहुत देर तक स्थिर भाव से बैठी रहकर वह बोली, “तुम क्या बबुआ के साथ शादी....!”

उपेन्द्र ने कहा, “हाँ।”

“लेकिन बाबूजी तो सहमत न होंगे!”

“क्यों?”

“उसके माँ-बाप नहीं है, घर-द्वार नहीं है, कुछ भी नहीं है।”

उपेन्द्र ने संक्षेप में कहा, “सब है, क्योंकि मैं हूँ।”

सुरबाला ने कहा, “तो भी बाबूजी राजी न होंगे।”

उपेन्द्र ने कहा, “तुम भी राजी नहीं होगी, असल बात शायद यही है।”

उपेन्द्र चुप रहकर दूसरी तरफ़ करवट बदलकर अत्यन्त नीरस कण्ठ से बोले, “अच्छा, रात बहुत हो गयी, अब तुम सो जाओ।”

उस रात को सुरबाला बड़ी देर तक जागती रही। एकाएक जब उसको निश्चित रूप से मालूम हो गया कि पतिदेव नि£वघ्न सो रहे हैं, तब उसके दोनों नेत्रों में गर्म जल भर उठा। पति के स्नेह पर वह सन्देह नहीं रखती, लेकिन रोते-रोते वह यही बात सोचने लगी कि इन सात-आठ वर्षों के घनिष्ठ मिलन के बाद भी क्यों वह इस मनुष्य का स्वभाव समझ न सकी! पहले पहल उसने अनेक बार मन में विचार किया था कि इस मनमौजी मनुष्य के मिज़ाज़ का कुछ भी ठीक नहीं है। किस समय किस कारण से इसका क्रोध उमड़ पड़ेगा, वह जान लेने या समझ लेने का उपाय नहीं हैं। लेकिन अन्त में एक बार पूछताछ कर इतनी ही बात वह समझ सकी थी कि इसको पूरे तौर से समझने की शक्ति मुझे किसी दिन हो या न हो, इसका कोई काम या इसकी कोई भी बात अकारण या अनिश्चित प्रकृति के मनुष्यों की-सी नहीं है। विशेष रूप से इसी कारण इस दुर्बोध पति को लेकर उसके मन में भय और चिन्ता की कोई सीमा नहीं थी। मन में चोट खाकर वह जब-तब यही दुःख किया करती थी कि भगवान ने उसके भाग्य को यदि ऐसा अच्छा ही बना डाला तो उस समय के अनुसार चलने योग्य बुद्धि, उन्होंने उसको क्यों नहीं दी? आज भी वह मन ही मन इस बात की आलोचना कर अन्दर ही अन्दर इसका कारण खोजने लगी। उतना ही अपना कोई दोष न पाकर हताश हो गयी। बहन के बारे में बहन की यह स्वाभाविक आशंका किस वजह से दोषपूर्ण है, इसका जवाब वह किसी प्रकार खोज नहीं सकी। बाहर जाड़े की लम्बी अँधियारी रात स्तब्ध थी और कचहरी का घण्टा एक के बाद एक क्रम से बजता गया।

छः

अगले दिन दोपहर के बाद महेश्वरी भोजन करने के लिए बैठी तो उपेन्द्र कमरे में घुसकर पास ही फ़र्श पर बैठ गया। महेश्वरी ने उसकी तरफ़ ध्यान से देखकर कहा, “मझली बहू, उपेन के लिए आसन बिछा दो।”

उपेन्द्र ने कहा, “आसन रहने दो दीदी, तुमसे एक बात पूछने आया हूँ।”

बात सुनने के लिए महेश्वरी उसके मुँह की ओर ताकने लगी।

उपेन्द्र ने कहा, “ससुरजी ने शची के लिए वर ठीक करने के लिए परसों एक पत्र लिखा है। तुम लोगों की सारी बातें जानती हो, इसलिए मैं पूछ रहा हूँ कि शची के शरीर में क्या

कोई दोष है?”

महेश्वरी के पति ने स्वास्थ्य बिगड़ जाने पर अन्त में क़रीब चार-पाँच साल बक्सर में प्रैक्टिस की थी। वहाँ रहते समय सुरबाला के पिता का ही एक मकान किराये पर लेकर आस-पास रहती थी, इसलिए दोनों परिवारों में अत्यन्त घनिष्ठता हो गयी थी। सुरबाला के विवाह का सम्बन्ध महेश्वरी ने ही ठीक किया था। महेश्वरी एक क्षण उपेन्द्र के मुँह की ओर ताकती ही रहकर बोली, “पशु क्या कहती है?”

“वह कहती है, शची कुछ लंगड़ी है।”

महेश्वरी ने तनिक हँसकर कहा, “लंगड़ी नहीं है। बचपन में शल्योपचार होने से वह बायें पैर से कुछ खींचकर चलतीं थी - इतने दिनों में शायद वह ठीक हो गया हो।”

“और कोई दोष नहीं है?”

“नहीं।”

सुनता हूँ कि ससुरजी की विपुल सम्पत्ति है। तुमको क्या जान पड़ता है दीदी?”

“मुझे भी यही जान पड़ता है।”

तब उपेन्द्र और कुछ पास खिसककर आ गया और अपने कण्ठ का स्वर कुछ धीमा बनाकर बोला, “तो मैं तुमको एक बात कहता हूँ दीदी। शची और उसकी बहिन दोनों ही जब भविष्य में सम्पत्ति की उत्तराधिकरिणी होंगी, तब इतनी बड़ी सम्पत्ति हाथ से निकल जाने देना बुद्धिमानी का काम नहीं है।”

महेश्वरी ने हँसकर कहा, “बात तो ठीक ही है, लेकिन उपाय ही क्या है सुनूँ तो?”

इतना कहकर वह हँस पड़ी।

उपेन्द्र बोला, “हँसने की बात नहीं है। पशु के चिढ़ने के लिए यह बात मैंने नहीं कही। मैंने दिवा के बारे में सोच लिया है।”

सुनते ही महेश्वरी का चेहरा उतर गया। वह दिवाकर को सह नहीं सकती थी। उपेन्द्र ने कहा, “क्या कहती हो बहिन?”

महेश्वरी मुँह झुकाए किसी चिन्ता में रहने का स्वांग दिखाकर भात परोस रही थी, मुँह ऊपर उठाकर हँसकर बोली, “अच्छी बात तो है।”

उपेन्द्र ने कहा, “केवल अच्छी बात कह देने से तो काम नहीं चलेगा बहिन, यह काम तुम्हारा ही है। पशु की शादी तुमने ही की थी, अब वह कहती है उसकी तरह सौभाग्यवती सभी हों। मेरा विश्वास है, तुम जिसमें हाथ डालोगी, उसमें ही सोना फलेगा।”

महेश्वरी ने कहा, “लेकिन शची में ज़रा-सा दोष तो है?”

उपेन्द्र ने कहा, “है, इसलिए तुमसे हाथ डालने के लिए कर रहा हूँ। तुम्हारे पुण्य से सब दोष मिट जायेंगे।”

उपेन्द्र की बातों से महेश्वरी की दिल पसीजता जा रहा था। उसने कहा, “लेकिन उपेन, दिवाकर का मिज़ाज़ मेरी समझ में नहीं आता। घर में रहते हुए भी वह मानो घर छोड़ने वाला पराया है। इसी कारण डर लगता है, पीछे कहीं इतनी ही त्रुटि को लेकर अन्त में एक भारी अशान्ति न खड़ी हो जाये, फिर एक बात और है, क्या दिवाकर राजी होगा?”

“होगा क्यों नहीं दीदी! इस संसार में उसका अपना तो कोई भी नहीं है। यह सुविधा छोड़ देना केवल मूर्खता ही नहीं, पाप भी है।”

महेश्वरी हँसकर बोली, “यह क्या तुम्हारा वक़ालत का पेशा है उपेन कि केवल मुवक्किल के रुपयों पर दृष्टि रखकर और सब तरह से मुँह फेर लोगे, पसन्द-नापसन्द भी तो कुछ है।”

उपेन्द्र बोला, “है तो रहने दो, दीदी। जो लोग इसी को लेकर उलट-फेर करना चाहते हैं वे भले ही करें, लेकिन हम लोग उस दल में जाना नहीं चाहते। और शची जैसी लड़की जिसे पसन्द न हो उसका तो विवाह करना चल ही नहीं सकता।”

उपेन्द्र की व्यग्रता को देखकर महेश्वरी ने कहा, “शायद वह आज कॉलेज नहीं गया!

एक बार उससे ही पूछकर देख लो न, उसकी क्या राय है? शायद वह अपनी कोठरी में ही है।”

“है? अरे कौन है वहाँ? भूतो? एक बार दिवाकर बाबू को बुला दे, कहना कि जीजी बुला रही है।”

थोड़ी ही देर बाद दिवाकर के कमरे में घुसते ही उपेन्द्र बोल उठे, “तेरी शादी की बात मैंने ठीक कर दी है दिवाये परीक्षा के बाद तिथि निश्चित की जायगी! बहिन, भट्टाचार्यजी से पत्र देखने को कह देना, और बाबूजी से पूछकर एक बार उनकी राय भी तो जान लेना। शची के साथ ब्याह होगा, सुनकर वे बहुत खुश होंगे। तू मुँह बाये क्या देख रहा है? तेरी छोटी भाभी की छोटी बहिन है शची - उसको तूने देखा नहीं हैं? देखा नहीं है तो शची को देखने की आवश्यकता भी नहीं है। अभी थोड़ी ही देर पहले मैं बहिन से कह रहा था कि वैसी लड़की को जो पसन्द नहीं करता, उसे शादी ही नहीं करनी चाहिए। बचपन में बायें पैर में घाव की चीरफाड़ हुई थी, इसलिए उस पैर को ज़रा खींचकर चलती थी। उस बात पर अभी-अभी मैं बहिन से कहने जा रहा था कि ज़रा-सा दोष, थोड़ी सी त्रुटि, यदि आत्मीय होकर दिवाकर क्षमा नहीं कर सकता तो, दूसरा कोई कैसे करेगा? इसके अलावा छोटे-मोटे दोष को लेकर हल्ला-गुल्ला मचाना तो उच्च शिक्षा का फल नहीं है, यह तो नीचता है। निर्दोष त्रुटिहीन इस जगत में कोई चीज़ मिलती ही नहीं, ऐसी चीज़ की आशा करके बैठे रहना और पागलपन एक ही बात है, दिवा इस को समझता है। और तुमसे कहता ही क्या है बहिन, दिवाकर के साथ शादी होगी, सुन लेने पर सुरबाला के आनन्द की सीमा ही नहीं रहेगी। ओह! शायद तेरा समय नष्ट हो रहा है। तो इस समय तू जा, मैं भी ससुरजी को पत्र लिखता हूँ।” इतना कहकर उपेन्द्र उठे और महेश्वरी को इशारा करके चले गये। महेश्वरी मुँह नीचा किये भात चलाने लगी और दिवाकर अवाक होकर खड़ा रहा। बड़ा तूफ़ान जैसे खर-पतवार, धूल-बालू सब उड़ाकर ले जाता है, उपेन्द्र वैसे ही विविघ्नबाधा, आपत्ति अस्वीकृति को अपनी इच्छा के अनुसार उड़ाकर लेते गये। मौन होकर दोनों यही सोचने लगे। बहुत देर तक भी जब कोई बात नहीं उठी, तब दिवाकर बोला, “यह सब क्या है जीजी?”

महेश्वरी ने बिना मुँह ऊपर उठाये कहा, “सब तो तूने सुन ही लिया?”

दिवाकर ने पूछा, “इतनी हड़बड़ी क्यों?”

महेश्वरी ने कहा, “शची के विवाह की उमर बीत रही है और अगले वर्ष एकदम ही लगन नहीं है!”

इसके बाद दिवाकर के दिमाग़ में कोई भी बात नहीं आयी, किन्तु उसको याद आया कि उपेन्द्र इस समय पत्र लिख रहे हैं। थोड़ी देर बाद ही आवश्यक पत्र को लेकर नौकर डाकखाने दौड़ जायेगा। वह किसी दिन भी विवाह न करेगा यही उसके जीवन का संकल्प रहा है। वह संकल्प इस तरह एकाएक एक लमहे में उड़ता चला जा रहा है। यह स्मरण आते ही वह घबराकर उपेन्द्र के कमरे की ओर चला गया। कमरे में घुसते ही सुरबाला अपने अप्रसन्न मुँह पर सिर का कपड़ा खींचकर आलमारी के किनारे हट गयी। उपेन्द्र मेज़ के पास काग़ज़-क़लम लेकर बैठे हुए थे। मुँह उठाकर उन्होंने पूछा, “फिर क्या?” दिवाकर जो कुछ कहने आया था, उसको अच्छी तरह सोचने-विचारने का समय भी उसे नहीं मिला और आँचल का एक छोर आलमारी के एक तरफ़ दिखायी देने लगा। वह चुपचाप खड़ा रहा।

उपेन्द्र ने पूछा, “क्या है रे?”

दिवाकर ने कुछ कहकर आलमारी की तरफ़ दृष्टि फेरी।

उपेन्द्र ने उस संकेत को देखते हुए भी नहीं देखा, बोले, “मेरे पास वक़्त नहीं है दिवा...।”

दिवाकर ने पास आकर कहा, “इतनी जल्दबाजी किसलिए?”

उपेन्द्र बोले, “नहीं, जल्दीबाजी तो नहीं है। अब भी जैसे ही हो, क़रीब दो महीने का वक़्त है, तेरा इम्तहान हो जाने पर...।”

“तो फिर आज ही पत्र लिखने की क्या आवश्यकता है? कुछ दिन बाद लिखने से भी तो काम चल सकता है।”

“चल सकता है। लेकिन कुछ दिन बाद लिखने से क्या सुविधा होगी?”

दिवाकर ने धीरे से कहा, “सोच-विचार कर देख लेना उचित है।”

उपेन्द्र ने कहा, “उचित तो है ही! तुम ब्याह की चिन्ता में सोच-विचार करो, तुम्हारे इम्तहान की चिन्ता मैं करूँ.....।”

“लेकिन ऐसा दायित्व ग्रहण करने के पहले...।”

“विज्ञ व्यक्ति की भाँति कुछ कहना आवश्यक हे, अच्छा तुम कुर्सी पर बैठ जाओ। सोच-विचार करके क्या देखना चाहते हो, मैं भी तो सुनूँ?”

दिवाकर चुप ही रहा।

उपेन्द्र ने कहा, “देखो दिवाकर, कोई भी बात क्यों न ली जाय, अन्त तक सोच-विचार करना मनुष्य की शक्ति में नहीं है। कितने ही बड़े विद्वान पण्डित क्यों न हों, अन्तिम फल भगवान के हाथ से ही लेना पड़ता है। फिर भी, पहले से जो कुछ सोच-विचार करके देख लिया जा सकता है उसके लिए तो आधा घण्टा से अधिक समय नहीं लगता, कुछ दिनों का समय चाहते हो न?”

दिवाकर बोला, “सभी क्या इतनी जल्दी सोच-विचार कर सकते हैं?”

“कर सकते हैं, लेकिन यह याद रखने की आवश्यकता है, बिखरी हुई इधर-उधर की चिन्ताओं का अन्त भी नहीं है और उसकी मीमासा भी नहीं होती। दो-चार दिनों में ही क्यों, दो-चार वर्षों में भी निश्चय नहीं होता। फिर भी इस सम्बन्ध में मोटे तौर से जो कुछ लोग विचार करके देखते हैं, वह यही है कि प्रतिपादन कर सकूँगा या नहीं। लेकिन शची से ब्याह कर लेने पर यह चिन्ता तो तुमको किसी दिन भी करनी न पड़ेगी। दूसरी बात है नापसन्द की, गोकि निर्णय एक की ओर से दूसरा नहीं कर सकता। क्या तू यही बात सोच रहा है।”

शची की सुन्दरता का संकेत होने से दिवाकर को बहुत ही लज्जा मालूम हुई। वह बोल उठा, “नहीं, बिल्कुल नहीं।”

“तब तो ठीक ही हुआ। क्योंकि वह बात कितनी ही अन्तः सार-शून्य क्यों न हो, बाह्य आडम्बर ही तो है। पहले ही सुन्दरता की जो बात आ जाती है, वह मनुष्य के अन्दर और बाहर ऐसा जादू कर देती है कि उसकी अच्छाई-बुराई का अत्यन्त सावधानी से निर्णय करना ही मुख्य वस्तु हो जाती है। असल में वह तो कुछ भी नहीं। जिस वस्तु को न पाकर लोग सारा जीवन हाय-हाय करते हैं वह आड़ में ही रह जाता है। पसन्द करने की जो सारी सामग्री है, उस वस्तु को प्राप्त न करने से संसार विफल हो जाता है, उसके ऊपर तो ज़ोर नहीं चल सकता, इसके लिए बिना परीक्षा के ही बिना विचार के ही भगवान की दुहाई देकर लोग ग्रहण करते हैं, और जो कुछ भी नहीं है, दो-चार दिनों में ही जो वस्तु नष्ट हो सकती है, नेत्र उठाकर देखने से ही जिसके दोष-गुण पकड़े जा सकते हैं उसकी परीक्षा का फिर कोई अन्त ही नहीं रहता। दिवाकर साढ़े पन्द्रह आना की ओर से यदि आँखें बन्द कर सकते हो, तो शेष दो पैसे के लिए गुरुजनों का अबाध्य होकर विरोध मत करो। मैं आशीर्वाद देता हूँ कि, तुम्हार भविष्य उज्जवल से उज्जवलतर हो। किसी दिन तुम इस बात को मत भूलना कि सुन्दरता ही मनुष्य के लिए सब कुछ नहीं है, या सिर्फ़ सुन्दरता का ज़िक्र करना ही विवाह का उद्देश्य नहीं है।”

दिवाकर सिर झुकाकर चुप हो रहा। उपेन्द्र भी बड़ी देर तक चुप रहकर अन्त में बोले, “तो अब तू यहाँ से जा।”

दिवाकर ने सिर झुकाकर धीरे-धीरे कहा, “मेरी रुचि नहीं है छोटे भैया, मुझे क्षमा करो। खासकर बड़े आदमी की लड़की.....।”

इस तरह के उत्तर ने पलभर के लिए उपेन्द्र को अभिभूत कर दिया। वह अल्पभाषी दिवाकर की बातों का गुरुत्व समझते थे। लेकिन किसी विषय में असफल होना भी उनका स्वभाव नहीं है। सामने के काग़ज़-क़लम को एक तरफ़ हटाकर बोले, “रुचि नहीं है! वह नहीं भी रह सकती है, लेकिन बड़े आदमी की लड़की का क्या अपराध है?”

दिवाकर ने कहा, “अपराध नहीं है, लेकिन मैं ग़रीब हूँ।”

उपेन्द्र ने कहा, “इसका मतलब तो यह है कि ग़रीब के घर की लड़की तुम्हारा जैसा सम्मान या भक्ति करेगी, धनवान की लड़की वैसा न करेगी। लेकिन मैं पूछता हूँ, स्त्री का सम्मान या भक्ति पाने की कितनी समझ तुमको है? यह जिद पकड़ लोगे कि ब्याह करोगे ही नहीं, तो वह दूसरी बात है, लेकिन दोष का भार दूसरे के कन्धे पर रखकर अपनी ग़रीबी को जिम्मेदार मत ठहराओ। पुराण-इतिहास तो पढ़ चुके हो। उनमें सीता-सावित्री प्रभृति साध्वी स्त्रियों का जो उल्लेख है, वे राजा-महाराजा के घरों की लड़कियाँ होते हुए भी किसी दरिद्र घर की लड़की की अपेक्षा गुणों में कम नहीं थी। बड़े लोगों के घरों की लड़कियों के विरुद्ध एक कहावत प्रचलित है, इसलिए उसको बिना विचार के ही मान लेना पड़ेगा इसका कोई कारण मुझे दिखायी नहीं देता।”

दिवाकर के अलावा एक और श्रोता अत्यन्त ध्यान लगाकर आड़ में रहकर सुन रही थी। उसके आँचल के छोर पर दृष्टि पड़ने के साथ ही उपेन्द्र बोल बैठे, “बड़े आदमी के घर की एक और लड़की इस मकान में ही है, इसका आधा रूप-गुण लेकर भी यदि शची आ जायेगी, तो किसी भी पति को अपना सौभाग्य ही मान लेना चाहिए।” कुछ देर चुप रहकर वह फिर बोले, “रुचि नहीं है। तूने कहा था!” बचपन में पाठशाला जाने की रुचि तुममें नहीं थी, यह देख चुका हूँ। धर्म-कर्म में किसी-किसी की रुचि नहीं रहती। जन्मभूमि पर किसी को अरुचि रहती है। इसका यह अर्थ नहीं कि इन्हें प्रश्रय दिया जाय।”

अचानक उसी समय आलमारी के पीछे से चूड़ियों की आवाज़ सुनकर चकित होकर दिवाकर उठ खड़ा हुआ। क्षण भर में उसने क्या निश्चय किया, यह वही जाने। सुरबाला के पास जाकर बोला, “भाभी, तुम कहो तो मैं छोटे भैया को पत्र लिखने को कह दूँ?” सुरबाला ध्यान से पति की बातें सुन रही थी। एक अनिर्वचनीय शान्ति और तृप्ति की तरंग उसकी समस्त इच्छाओं, समस्त कामनाओं और समस्त स्वतंत्रताओं को बहाकर पति की इच्छाओं के चरणों के नीचे आत्मसमर्पण करती जा रही थी। उसने कुछ भी निश्चय नहीं किया था, लेकिन आँचल से नेत्र पोंछकर पति को लक्ष्य करके एकान्त चित्त से कहा - “वह कभी झूठ नहीं बोलते। मैं कह रही हूँ बबुआ, तुम लोगों का भला होगा और मैं भी सुखी होऊँगी।”

दिवाकर ने उपेन्द्र के मुँह की ओर ध्यान से देखा। खुली खिड़की से काफ़ी प्रकाश उनके मुँह पर आ रहा था। उनके चेहरे पर न उद्वेग है और न दुश्चिन्ता। अत्यन्त पवित्र और मंगलमय प्रतीत हुआ।

दिवाकर ने कहा, “तुम जो अच्छा समझो, वही करो। मेरा समय नष्ट हो रहा है, मैं जा रहा हूँ।” इतना कहकर वह धीरे-धीरे बाहर चला गया। उसके चले जाने पर सामने की आरामकुर्सी पर आकर सुरबाला बैठ गयी। दोनों सजल नेत्रों को पति के मुँह पर रखकर बोली, “तुम क्षमा करो। मैंने गलत समझ लिया था, तुम जो कुछ करना चाहते हो उससे शची की भलाई होगी। इस बार तुम मुझे माफ़ कर दो।”

उपेन्द्र ने पत्र समाप्त करते हुए हँसकर कहा, “अच्छा!”

सात

उसके बाद से दिवाकर सिर्फ़ विवाह की बात सोचने लगा। शची कैसी है, क्या करती है, क्या सोचती है, क्या पढ़ती है, उसके साथ विवाह होने से कैसा व्यवहार करेगी, यही सब। रात के समय पढ़ने-लिखने में बहुत ही बाधाएँ पड़ने लगीं। आज उसका मन मतवाला हो उठा। स्पष्ट रूप से कुछ उपलब्ध न कर सका। केवल आकाश-कुसुम की तरफ़ मन उछलता रहा। किसी काम में मन न लगा।

परीक्षा के भय ने चाबुक की तरह जितनी बार उसको वापस लाकर पढ़ने में नियुक्त किया, उतनी बार ही वह उससे भागकर और दूसरी तरफ़ स्वप्नों की रचना करने लगा। बहुत देर तक इस विद्रोही मन के पीछे-पीछे दौड़-धूप करके कुछ भी न पा सकने पर दिवाकर अनुमान करने लगा कि उसका समय व्यर्थ नष्ट होता जा रहा है। लेकिन क्या ही अभूतपूर्ण परिवत्रन था! किस चीज़ के नशे ने उसको एकाएक ऐसा मतवाला बना दिया। उसका कारण ढूँढे जाने पर जो बात उसे याद पड़ गयी, अत्यन्त लज्जा के साथ दिवाकर ने उसका प्रतिवाद करके दृढ़ भाव से यही बात कही कि इसमें मेरी इच्छा नहीं है, अत्यन्त घृणा और अरुचि है! यदि पूजनीय किसी की मान की रक्षा करनी पड़े तो अत्यन्त उदास भाव से करेगा। इतना कहकर उसने दोगुने आग्रह के साथ ऊँचे स्वर से पढ़ना आरम्भ कर दिया।

लेकिन आज मन को संयम में रखना कठिन हो गया। जिस खेल के बीच से चला आ रहा है, जिस आकाश-कुसुम की आधी माला गूँथकर फेंक रखी है और बेबसी में सबक याद कर रहा है, उसको ख़त्म करने का अवसर वह प्रतिक्षण खोजता हुआ घूमने लगा। इसके अलावा यह जो कल्पना की वसन्ती हवा अभी-अभी उसके शरीर को स्पर्श कर गयी है - वह कितना मधुर है! उसके चारों ओर सौन्दर्य की सृष्टि हो रही थी, वह कितना सुन्दर है। सूर्य की ओर मुँह उठाकर आँखें बन्द कर लेने पर जिस प्रकार प्रकाश का संचार विचित्र वर्णों में अनुभव होता है, पढ़ने की तैयारी के बीच अस्पष्ट माधुर्य धीरे-धीरे उसके शरीर में व्याप्त होता गया। कण्ठ स्वर मन्द से मन्दतर और दृष्टि क्षीण से क्षीणतर होता गया। यह धड़पकड़, वाद-विवाद के बीच वह एक नये खेल में मशगूल हो गया। उसकी आँखों के सामने असंख्य प्रकाश, कानों के पास अगणित वाद्य और मन के बीच विवाह का विराट समारोह अवतीर्ण हो गया। इसके केन्द्रस्थल में अपने को दूल्हा के रूप में कल्पना कर रोमाँचित हो उठा। इसके बाद जो कुछ सुना था, जो कुछ देखा था, वह सब जादू की तरह मन के भीतर से विभिन्न रंगों में, बहुत तेज़ी से उड़ गया। कहीं भी वह स्थिर न रह सका, कुछ ठीक तौर से हृदयंगम न कर सका, केवल आश्चर्य-भरे पुलक से स्वप्नाविष्ट की भाँति स्तब्ध होकर बैठ गया।

आठ

विपिन के निमंत्रण से लौटकर आने के बाद दूसरे दिन आकण्ठ प्यास लिए सतीश नींद टूटने पर जब बिछौने पर उठ बैठा, तब दिन के दस बज चुके थे। तब भी उसका कमरा बन्द था। आज प्रातःकाल से ही मेघशून्य आकाश में धूप अत्यन्त प्रखर होकर उग चुकी थी, उस तेज़ गरमी से जंगले-दरवाज़े गरम हो जाने से इस बन्द कमरे का भीतरी भाग कैसा असहनीय हो उठा था, इसका पता स्वयं उसको न रहने पर भी उसका सारा शरीर इसका प्रमाण दे रहा था। पूरा बिछौना पसीने से भीग चुका था। सतीश उठ बैठा, और घबराकर सिरहाने की खिड़की खोल देने के साथ ही एक झलक धूप उसके चेहरे और शरीर पर पड़कर उसको एक क्षण में तपाकर चली गयी।

रात भर नशे में मतवाला रहने के बाद सबेरे दस बजे नींद टूटने की ग्लानि शराबी ही समझ पाते हैं। इस ग्लानि को दूर करने के लिए सतीश ने पुकारा, “बिहारी।”

बिहारी दौड़कर हाज़िर हुआ।

सतीश बोला, “जल्दी से एक गिलास पानी तो ले आ!”

बिहारी ने पूछा, “तम्बाकू देने की आवश्यकता न पड़ेगी?”

“नहीं, पानी ले आ।”

“स्नान नहीं कीजियेगा?”

“अभी नहीं, तू पानी ले आ।”

फिर भी बिहारी नहीं गया, बोला, “संध्या उपासना का?”

संध्या-उपासना के संकेत से सतीश आगबबूला होकर बोला, “बदमाश कहीं का! जा पानी ले आ!”

डाँट खाकर बिहारी पानी लाने के लिए नीचे चला गया। रसोईघर के बरामदे में बेठकर सावित्री सुपारी काट रही थी, मुस्कराहट के साथ उसने पूछा, “सतीश बाबू ने तम्बाकू देने को कहा है?”

बिहारी ने मुँह बनाकर कहा, “नहीं, पानी चाहिए।”

“स्नान किया नहीं, संध्या की नहीं, फिर पानी क्या होगा।”

बिहारी ने व्यथित होकर कहा, “मैं क्या जानूँ! हुक़्म हुआ कि पानी चाहिए, ले जा रहा हूँ।

सावित्री सरौता रखकर उठ खड़ी हुई। बोली, “अच्छा, मैं ही ले जा रही हूँ, तुम थोड़ी सी बर्फ़ ले आओ।”

बिहारी पैसे लेकर बर्फ़ लेने चला गया।

सावित्री ने ऊपर जाकर कहा, “जाइये, स्नान कर आइये, मैं तब तक संध्या का स्थान ठीक कर रखती हूँ।”

सतीश मन ही मन झुँझलाकर बोला, “कहाँ है बिहारी!”

सावित्री हँसी रोककर बोली, “वह बर्फ़ लेने गया है। बाबू, अपराध करके सजा भोगना अच्छा है, इससे प्रायश्चित हो जाता है। आप क्या संध्या-पूजा किये बिना किसी दिन पानी पीते हैं कि आज ही पानी के लिए हल्ला कर रहे हैं! जाइये, देर न कीजिये।”

सावित्री के सामने प्रतिवाद करना निरर्थक समझकर सतीश उठ पड़ा और तौलिया कन्धे पर रखकर स्नान करने के लिए चल दिया।

भोजन के बाद सतीश फिर एक बार ज्यों ही सो रहने की तैयारी करने लगा त्यों ही सावित्री आकर दरवाज़े के बाहर खड़ी हो गयी। उसको जैसे देखा ही नहीं है, ऐसा रुख दिखाकर सतीश दीवार की ओर मुँह फेरकर सो रहा।

सावित्री ने मन ही मन हँसकर कहा, “रात की सारी बातें बाबू को याद है या नहीं, यह जान लेने के लिए मैं आयी हूँ।”

सतीश चुप रहा।

सावित्री ने कहा, “नींद टूटने पर एक बार बुला लीजियेगा, उन सबको एक बार याद करा जाऊँगी।” इतना कहकर वह चली गयी।

पिछली रात की सारी घटनाएँ याद रखना सतीश के लिए सम्भव भी नहीं है, वे याद भी नहीं थीं। विपिन बाबू के जलसे से वह किस तरह आया था, किसके साथ आया था, आकर क्या किया था, वे सारी बातें उसके मन में इधर-उधर बिखर गयी थीं, और अस्पष्ट हो गयी थीं। इस अस्पष्टता को स्पष्ट कर कह देने की इच्छा, उसको बिल्कुल ही न रही हो, ऐसी बात नहीं है लेकिन एक अनिश्चित लज्जा उसको मानो किसी प्रकार भी क़दम बढ़ाने नहीं दे रही थी। उसको संध्याकाल की घटना ही याद थी। यही अब तक उसकी मेघाच्छन्न स्मृति के आकाश में शुक्रतारा की भाँति चमक रही थी, लेकिन अधिकतर ज्योतिष्मान दुष्ट ग्रह भी उस बादल की ओट में ही उगा हुआ है, उसकी ओर सावित्री के इंगित ने उँगली का संकेत करने के साथ ही उसकी नींद मरुभूमि की भाप की तरह उड़ गयी। कल संध्या को हतबुद्धि होकर उसने चिराग़ बुझा दिया था इसक फल अन्त तक किस तरह प्रकट होगा, उस सम्बन्ध में उसके मन में यथेष्ट उत्कण्ठा बनी हुई थी, फिर भी उसमें उसका दोष कुछ भी नहीं था, इस कारण उसको दुर्भाग्य कहकर वह एक तरह सान्त्वना प्राप्त कर रहा था और अपराध न करने में जो एक सच्ची शक्ति छिपी रहती है वह शक्ति उसके अनजाने में भी उसको प्रश्रय दे रही थी, लेकिन सावित्री इस समय जो बात कह गयी, जिस अन्धकार के बीच रास्ता दिखा गयी, उसके बीच प्रवेश करने का साहस उसको कहाँ था? उसका मतवाला बन जाने की अभिज्ञता थी ज़रूर, पर बेहोश हो जाने की अभिज्ञता वह कहाँ से लाता? वह किस तरह अनुमान करे कि उसने क्या किया था, क्या नहीं किया था! कितने ही मतवालों को कितने ही विचित्र कार्य करते हुए उसने अपने नेत्रों से देखा है, अब अपने बारे में किस काम को वह किस साहस से असम्भव कहकर दूर हटा देगा? इसीलिए सम्भव-असम्भव समस्या उसके लिए जितनी जटिल बनती गयी, उसका दुखी मन उतना ही सम्भव-असम्भव के बीच रेखा खींच देने के लिए प्रयत्न करने लगा। फिर उसके दिमाग़ से आग जल उठी। वह फिर एक बार उठ बैठा और जीवन में शराब न छूने की प्रतिज्ञा पुनः एक बार करके उसने प्रायश्चित किया।

खिड़की में से सतीश ने पुकारा, “बिहारी!”

बिहारी राखाल बाबू के बिछौने को धूप में डाल रहा था, आवाज़ सुनकर वह पास आकर खड़ा हो गया।

सतीश ने कहा, “अच्छा, तू जो काम कर रहा है, कर। सावित्री से कह दे, एक गिलास पानी दे जाये।”

बिहारी ने कहा, “मैं ही ला देता हूँ, वह अभी संध्या-पूजा कर रही हैं।”

सतीश ने आश्चर्य में पड़कर पूछा, “क्या, संध्या कर रही है!”

“जी हाँ, वह तो नित्य करती हैं। एकादशी के दिन एक बूँद पानी भी नहीं पीती, मछली भी नहीं खाती, भले घर की लड़की है न।”

सतीश ने आश्चर्य के साथ पूछा, “भले घर की? क्या कह रहा है?”

“हाँ बाबू, भले घर की ।” इतना कहकर बिहारी पानी लाने जा ही रहा था कि सतीश ने पुकारकर पूछा, “सावित्री यदि रात को भात नहीं खाती तो क्या खाती है?”

“और क्या खायेंगी बाबू, कुछ रहने से किसी दिन थोड़ा सा जल भी पी लेती हैं - न रहने पर कुछ भी नहीं खाती-पीतीं।”

“बासे का और कोई यह बात जानता है?”

“बिहारी ने कहा, “रसोइया महाराज जानता है, मैं जानता हूँ और कोई नहीं जानता।

उन्होंने बताने की मनाही कर रखी है।”

सतीश ने कहा, “अच्छा तू जाकर पानी ले आ।”

बिहारी के दो-एक क़दम जाते ही सतीश ने फिर पुकारा, “बिहारी!”

“जी।”

“भले घर की है, तूने यह बात कैसे जानी?”

“जानता हूँ बाबू। भले घर की लड़की है। केवल किस्मत के चक्कर से - ”

“अच्छा, अच्छा, तू जा पानी ले आ।”

बिहारी के चले जाने पर सतीश बिछौने पर औंधा होकर लेट रहा। सावित्री केा साधारण दासी की श्रेणी में मानने से उसके मन में एक तरह की व्यथा पहुँची थी। किसलिए उसका मन हीनता और गुप्त लांछना के दबाव से चुपचाप सिर झुका लेता था, उसको वह कुछ भी समझने में समर्थ नहीं हो रहा था। आज बिहारी के मुँह से केवल इतना ही परिचय पाकर आनन्दपूर्ण आश्चर्य से ही नहीं, बल्कि उसका समूचा मन मानो किसी अपरिचित के बाहुपाश से अकस्मात मुक्ति पाकर पवित्र होकर बच गया। उसने बिहारी की बात को सम्पूर्ण सत्य कहकर ग्रहण करने में एक क्षण की दुविधा भी नहीं की।

पानी लाने में विलम्ब हो रहा है सोचकर वह थोड़ी देर तक चुप हो रहा तो भी बिहारी दिखायी न पड़ा। प्यास के मारे उसे कष्ट मालूम होने लगा। फिर एक बार बिहारी को बुलाने की इच्छा करके वह जैसे ही उठ बैठा, वैसे ही उसने देखा कि पानी का गिलास लिये सावित्री आ रही है। इस आचार-परायण अभागिनी को उसने आज नयी आँखों से देखा और उस क्षणभर के दृष्टिपात से ही उसका हृदय करुणा और श्रद्धा से भर उठा। जो बात किसी दूसरे समय उसके मुँह से निकलने में रुकावट पड़ती, इस समय रुकावट नहीं पड़ी। पानी पीकर वह बोला, “बहुत बातें हैं।”

सावित्री चुपचाप देखती रही।

सतीश ने कहा, “पहली बात है, मुझे क्षमा करना पड़ेगा।”

सावित्री ने शान्त स्वर से पूछा, “दूसरी बात?”

सतीश ने कहा, “कल कब किस तरह मैं आया था, बताना पड़ेगा।”

सावित्री ने जवाब दिया, “रात के अन्तिम प्रहर में गाड़ी पर चढ़कर।”

“उसके बाद?”

“रास्ते पर ही सो रहने का प्रबन्ध किया था।”

“अच्छा काम नही किया। उठाकर कौन ले आया?”

“मैं।”

“और कौन था? इतने बड़े जड़ पदार्थ को किस तरह ऊपर उठाया गया?”

सावित्री ने हँसकर कहा, “आप डरें नहीं, बासा में किसी को कुछ मालूम नहीं।”

सतीश ने गहरी साँस लेकर कहा, “मैं बच गया। लेकिन तुम्हारे साथ मैंने किसी तरह का दुव्र्यवहार तो नहीं किया?”

“नहीं।”

“सतीश ने खुश होकर कहा, “तो फिर किस बात की याद दिला देना चाहती थीं?”

“आपकी शपथ। आपने शराब न छूने की शपथ ली थी।”

“शपथ मैं क्यों लेने गया? इस तरह दुर्बुद्धि तो मुझे होने की बात नहीं है।”

“शायद मेरी बात से हो गयी थी।”

सतीश ने अपने कण्ठ-स्वर को धीमा करके कहा, “मुझे याद आ रही है सावित्री, मैंने तुमको छूकर शपथ ली थी न?”

सावित्री निरुत्तर रही।

सतीश ने कहा, “यही होगा। लेकिन कल संध्या की बातें याद हैं।”

इस बार सावित्री हँस पड़ी। गर्दन हिलाकर बोली, “हाँ, है।”

“लोग जान लेंगे शायद, फिर क्या उपाय होगा?”

सावित्री ने सहसा गम्भीर होकर कहा, “होगा फिर क्या! किसी दूसरे बासा पर, या अपने घर चले, जाइये!”

“तुम?”

सावित्री के मुख पर किसी प्रकार की घबराहट नहीं दिखायी पड़ी। शान्त भाव से वह बोली, “मुझे चिन्ता नहीं। इस बासे के बाबू लोग रखें तो अच्छा ही है, न रखेंगे तो और कहीं काम की चेष्टा करके चली जाऊँगी। जहाँ मेहनत करूँगी, वहीं दो कौर खाना पा जाऊँगी। और कुछ कहना है?”

सतीश का समस्त मन जैसे पहाड़ से लुढ़ककर नीचे जड़ में गिरकर बिल्कुल ही चूर-चूर हो गया। उसके यहाँ रहने न रहने से सावित्री का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। इस सम्बन्ध में वह बिल्कुल ही उदासीन है। उसने गरदन हिलाकर बताया और उसको कोई बात कहनी नहीं है; क्योंकि सावित्री के इस निःशंक संक्षिप्त उत्तर के बाद और कोई प्रश्न ही उसके मुँह में नहीं आया। जबकि, कितनी ही बातें उसको कहनी थीं। सावित्री खाली गिलास लेकर चली गयी। सतीश चुपचाप बैठा रहा।

हाय रे मनुष्य का मन! यह किस चीज़ से टूट जाता है, किससे बन जाता है, इसका कोई तत्व खोजने पर नहीं मिलता। यह कितने आघात से बिल्कुल ही धरती पर लोट जाता है, फिर कितने प्रचण्ड आघात को भी हँसते हुए सह लेता है, इसका कोई हिसाब ही नहीं मिलता। फिर भी, इसी मन को लेकर मनुष्य के अहंकार की सीमा नहीं है। जिसको वश में नहीं किया जाता, जिसको पहचाना तक नहीं जाता, किस तरह अपना कहकर उसके मन को खुश रखा जा सकता है! कैसे उसे लेकर घर सम्भालने का काम चल सकता है।

सावित्री के चले जाने पर भी सतीश वैसे ही बैठा रहा। उसका हृदय दुख-कष्ट से नहीं, किसी प्रकार की एक जलन से मानो जलने लगा। जिसको प्यार करता हूँ, वह यदि प्यार न करे, यहाँ तक कि घृणा भी करे तो वह घृणा भी सही जा सकती है, लेकिन जिसका प्यार मुझको मिल गया है, ऐसा विश्वास हो जाने पर फिर उस विश्वास का टूट जाना ही सबसे शोचनीय अवस्था होती है! पूर्व स्थिति व्यथा ही देती है, लेकिन दूसरी स्थिति व्यथा भी देती है अपमान भी करती है। फिर इस व्यथा का प्रतिकार नहीं है, इस अपमान की शिकायत नहीं है। वेदना का कारण खोजने पर जब मिलता ही नहीं है तभी व्यथा ऐसी असहनीय हो जाती है।

बहरहाल, सावित्री के इस निश्चित और सरल कर्त्तव्य-निर्धारण ने सिर्फ़ एक बार उसके ही हृदय के चित्र को खोल नहीं दिया, उसने सतीश के हृदय के चित्र को भी खींचकर बाहर के प्रकाश में पहुँचा दिया। इन दोनों चित्रों को आसपास रखकर वह स्तम्भित हो रहा। उसने निश्चित रूप से जान लिया था, सावित्री प्यार करती है, वह प्यार नहीं करता। अब उसने देखा, ठीक उसका उल्टा; वह प्यार करता है, सावित्री नहीं करती। इस घृणित बात को स्वीकार करने में केवल लज्जा से ही उसका सिर नीचा नहीं हुआ, बल्कि अपने मन की इस नीच प्रवृत्ति से उसको अपने ऊपर घृणा उत्पन्न हो गयी। उसकी पिछली रात के सब काम लज्जाजनक थे इसमें सन्देह नहीं है; उसके जीवन में ऐसी अनेक रातों की अनेक लज्जाएँ जमा होकर पड़ी हुई हैं यह सच है। लेकिन इस नीचता की तुलना में वे सभी तुच्छ हो गयीं।

इस बासे में तो एक दिन ही रहना चल नहीं सकता। यहाँ रहने न रहने के सम्बन्ध में वह बिल्कुल ही उदासीन नहीं है, यह बात तो वह किसी तरह भी स्वीकार न कर सकेगा। वह कठोर प्रतिज्ञा कर बैठा कि वेदना के भारी बोझ से अगर उसका मन टूटकर टुकड़े-टुकड़े भी हो जाये तो भी नहीं। किसी प्रकार भी इस नीचता को प्रश्रय देकर वह नीचे के पथ में नहीं जायेगा।

दिन ढलता जा रहा था, लेकिन कमरे के अन्दर सतीश को इसका होश नहीं था। एकाएक बासे पर लौटने वाले केरानियों तथा पास-पड़ोस की आहट से वह चकित-सा होकर खिड़की के बाहर झाँक लेने के लिए बिछौना छोड़कर उठ पड़ा और उसी दम एक कुरता पहनकर चादर कन्धे पर डालकर नज़र बचाये चुपके से बाहर निकल गया। अभी तुरन्त ही हाथ-मुँह धोने का आग्रह लेकर सावित्री आ जायेगी और जलपान के लिए हठ करने लगेगी। आज उसको ज़रा सी भी भूख नहीं थी लेकिन सावित्री इस बात पर किसी तरह भी विश्वास न करेगी, अनुरोध करेगी, परेशान करेगी, हो सकता है कि अन्त में क्रोध करके चली जायेगी। यह सब मौखिक स्नेह के वागवितण्डा से आज पहली बार अपने को अकृत्रिम घृणा के साथ दूर हटा ले गया।

रास्ते में घूमते-घूमते संध्या के ठीक पहले एक गली के मोड़ पर एकाएक पीछे से उसने परिचित कण्ठ की पुकार सुनी “छोटे बाबू हैं क्या?”

सतीश खड़ा हो गया, बोला, “हाँ, मोक्षदा हो क्या?”

बहुत दिन पहले मोक्षदा उसके पछाँह के मकान में दासी का काम करती थी, छुट्टी लेकर कलकत्ता आने पर फिर वापस न जा सकी। उसने कहा, “हाँ बाबू, मैं हूँ। मेरा एक पत्र आप पढ़ देंगे?”

सतीश हँसकर बोला, “इतने बड़े शहर में एक पत्र पढ़वाने के लिए तुझे और कोई आदमी नहीं मिला दाई? पत्र कहाँ है?”

मोक्षदा ने कहा, “पत्र मेरे घर पर ही है बाबू। किसी अनजान आदमी से पढ़वाने का साहस नहीं हुआ। न जाने इसमें क्या लिखा हो। यों तो हमारे घर में ही एक लड़की है, वह पढ़ना-लिखना जानती है, लेकिन उसको भी आज दो दिन से नहीं देखा, इतनी अधिक रात को वह घर लौटती है कि वक़्त नहीं मिलता।”

सतीश ने पूछा, “कितनी दूर है तुम्हारा मकान?”

दासी ने कहा, “यहाँ से थोड़ी ही दूर है। बड़े रास्ते के उस तरफ़ एक गली में है। अगर अपना पता-ठिकाना बता दें, तो किसी को साथ लेकर कल मैं ही चली आऊँ और पत्र पढ़वा जाऊँ।”

सतीश ने ‘अच्छा’ कहकर अपना शोभा बाज़ार वाला पता बता दिया और कहाँ से किस तरफ़ जाना पड़ता है, समझाकर बताते-बताते राह चलने लगा। कुछ देर चलने के बाद दासी एक जगह अचानक खड़ी हो गयी और बोली, “कहने का साहस मुझे नहीं होता बाबू, अगर एक बार चरणों की धूलि आप दे दें, घर यहाँ से और अधिक दूर नहीं है।”

सतीश ने थोड़ी देर कुछ सोचकर कहा, “अच्छा, चलो।”

आज डेरे पर लौट जाने का उसका बिल्कुल ही मन नहीं था। रास्ते में घूमते-घूमते रात अधिक हो जाने पर सावित्री अपने घर चली जायेगी तो अपने डेरे पर लौट जाऊँगा, यह निश्चय करके ही वह बाहर निकला था। इसीलिए, सहज ही में सम्मति देकर, दो गलियों को पार करके वे दोनों मिट्टी के बने दुमंजिले मकान के सामने जा खड़े हुए।

“तनिक खड़े रहिये।” कहकर मोक्षदा अन्दर घुसी और शीघ्र ही एक मिट्टी के तेल की डिबिया हाथ में लिये लौट आयी और रास्ता दिखाती हुई सतीश को अपने साथ ले गयी। उस तरफ़ के कोने के कमरे में एक छोटे स्टूल पर डिबिया में बत्ती जल रही थी, उसी कमरे को दिखाकर उसने कहा, “ज़रा बैठिये, मैं तम्बाकू चढ़ा लाऊँ।”

इस छोटे से कमरे की सफाई देखकर सतीश ने आराम अनुभव किया। एक तरफ़ छोटी-सी चौकी पर मंजे-घिसे कितने ही पीतल-कांसे के बत्रन चमक रहे थे और उसके पास ही एक रस्सी पर कुछ कपड़े व्यवस्थित टंगे हुए थे। ताख़ पर एक टाइमपीस रखी थी, जिसमे आठ बजे थे। सतीश ने चौखट के बाहर जूते खोलकर रख दिये, चौकी पर बिछे हुए सफ़ेद बिछौने पर जाकर बैठ गया और कमरे के दूसरे असबाबों की मन ही मन जाँच करने लगा। पहले ही दृष्टि पड़ गयी एक छोटी सी आलमारी पर। उसमें कुछ पुस्तकें सजाकर रक्खी हुई थीं। सतीश उठकर गया और एक पुस्तक ले आया, और पहला पन्ना उलटने के साथ ही उसने देख लिया कि अंग्रेजी में भुवनचन्द्र मुखोपाध्याय लिखा हुआ है, उस पुस्तक को रखकर और तीन-चार पुस्तकें, वही एक नाम देखकर पुस्तकें यथास्थान रखकर वह फिर बैठ गया।

मोक्षदा हुक्के पर तम्बाकू चढ़ाकर ले आयी।

सतीश ने हुक्का थामकर कहा, “तुम्हारा कमरा बहुत साफ़-सुथरा है, उठने का मन नहीं होता।”

मोक्षदा ने मुसकराकर कहा, “उठियेगा क्यों बाबू, बैठिये। यह कमरा मेरा नहीं है, यह एक दूसरी लड़की का है।”

सतीश ने पूछा, “वह कहाँ हैं?”

मोक्षदा ने कहा, “वह बाबू लोगों के एक डेरे पर काम करती है। लौटने में प्रायः ही रात हो जाती है, इसीलिए कमरे की चाभी मेरे ही पास रहती है। मुझे मौसी कहकर पुकारती है।”

सतीश ने कहा, “भले ही पुकारती हो, लेकिन भुवन बाबू कब आयेंगे?”

दासी ने आश्चर्य में पड़कर पूछा, “कौन भुवन बाबू?”

“भुवन मुखर्जी - पहचानती नहीं हो?”

सहसा दासी ने दोनों भौंहें चढ़ाकर कहा, “ओह! हमारे मुखर्जी? नहीं, नहीं, उनको आना नहीं पड़ेगा।”

“क्यों? क्या मर गये हैं?”

दोनों आँखें चमकाकर मोक्षदा ने कहा, “नहीं, मर नहीं गये, लेकिन मर जाने से ही अच्छा होता। ठहरे ब्राह्मण, वर्णों के गुरु, हम लोगों के मस्तक के मणि हैं। नारायण तुल्य हैं, उनके प्रति अभक्ति नहीं करती, उनके चरणों की धूलि लेती हूँ, लेकिन किसी दिन भेंट होने पर तीन झाड़ू गिनकर मुँह पर मारूँगी, तभी मेरा नाम मोक्षदा है।”

सतीश हँसकर बोला, “क्रोध के आवेश में ब्राह्मण आदमी की अभक्ति करके कहीं मार मत बैठना! खूब भक्ति के साथ गिनकर मारोगी तो पाप न लगेगा। लेकिन वह हैं कौन?”

मोक्षदा ने कहा, “उस आदमी का परिचय क्या दूँ बाबू, वह आदमी नहीं जानवर हैं।

इस लड़की को जिस राह में वह बिठा गये, बाबू, यह कोई अपने आदमी का काम है? छि! छि! गले में डालने को रस्सी नहीं मिली?”

सतीश ने कौतूहल के साथ पूछा, “वह हैं कौन? उन्होंने क्या किया है?”

सहसा कमरे के बाहर से जवाब आया, “जिस आदमी को आप नहीं पहचानते, उनके विषय में सिर्फ़ जान लेने से क्या लाभ होगा?”

सतीश चौंक पड़ा।

मोक्षदा ने मुँह फेरकर कहा, “साबी है क्या? कब आयी तू?”

सावित्री ने कमरे में घुसकर कहा, “अभी आयी हूँ, बाबू को तुम कहाँ पा गयी मौसी?”

मोक्षदा ने कहा, “ये ही हमारे छोटे बाबू हैं, सावित्री? आज दो दिन हुए बहू जी का एक पत्र मुझे मिला है, उसको पढ़वा नहीं सकी, इसलिए कहा - अगर बाबू दया करके चरण-रज दे दें....।”

सावित्री ने कहा, “तो चरण-रज तुम्हारे कमरे में न देकर मेरे कमरे में क्यों?”

मोक्षदा ने नाराज़ होकर कहा, “तो फिर क्रोध क्यों करती हो सावित्री। मेरे कमरे में तो भले आदमी को बैठाया नहीं जा सकता, इसीलिए तेरे कमरे में बैठाया है। कितने बड़े घराने के ये लोग हैं, यह तो खुशी की बात है, नाराज़ क्यों हो रही है?”

सावित्री ने हँसकर कहा, “क्यों नाराज़ होऊँगी मौसी! लेकिन खाली चरण-रज लेने से तो पाप होता है। जलपान कराना उचित है - हाँ ब्राह्मण महाराज, क्या आपको भूख लगी है?” सतीश संकुचित हुआ बैठा था, सिर हिलाकर कहा, “नहीं।”

सावित्री के अशिष्ट प्रश्न से विरक्त होकर मोक्षदा ने कहा, “यह बात करने का कैसा तरीक़ा है सावित्री? भले आदमी के साथ क्या इस तरह बातें की जाती हैं?”

सावित्री ने बलपूर्वक हँसी दबाकर कहा, “यह कौन-सी ख़राब बात है मौसी? अच्छा, अब उनकी भूख के बारे में कुछ पूछूँगी ही नहीं, तुम दुकान से कुछ जलपान खरीद लाओ, तब तक मैं जगह ठीक कर रखती हूँ।”

मोक्षदा भुनभुनाती हुई बकते-बकते तेज़ कदम बढ़ाकर चली गयी तो सावित्री ने कहा, “कल रात से ही तो एक तरह उपवास ही चल रहा है। शाम को किस तरह आप भागकर चले आये, इसका भी पता मुझे नहीं चला। अब उठिये, संध्या-पूजा करके कुछ खा लीजिये। इस अरगनी पर धुले कपड़े हैं, पहिन कर मेरे साथ आइये, देर न करें, उठिये।”

सतीश ने सिर हिलाकर कहा, “मुझे भूख नहीं है।”

सावित्री ने कहा, “न रहने पर भी खाना पड़ेगा। इसका कारण है कि, भूख नहीं है, इस बात पर मैंने विश्वास नहीं किया, दूसरा कारण?”

सतीश ने अपने मुँह का भाव अत्यन्त कड़ा बनाकर कहा, “दूसरा कारण तो झूठ ही है, वही पहला सब कुछ है। सभी बातों में तुम्हारी जिद और ज़बर्दस्ती रहती है। इस जिद के सामने किसी का उपाय नहीं चलता।”

सावित्री ने मुँह ऊपर उठाकर ज़रा हँसकर कहा, “तो फिर झूठ-मूठ की चेष्टा क्यों कर रहे हैं?”

सतीश ने और भी गम्भीर होकर कहा, “यह बात नहीं है सावित्री! आज मेरी चेष्टा किसी तरह भी झूठ न होगी। या तो, अपना दूसरा कारण बताओ, नहीं तो सच कह रहा हूँ तुमसे, मैं किसी तरह भी यहाँ कुछ न खाऊँगा।”

सतीश की जिद देखकर सावित्री चुपचाप हँसने लगी। कुछ देर बाद धीरे-धीरे बोली, “मैं सोच रही हूँ, आज आप आ कैसे गये? आज है मेरा जन्मदिवस। जबकि आपने दासी के घर में चरण-रज दी है तब ख़ाली-ख़ाली आपको मैं नहीं छोड़ सकती।” इतना कहकर सावित्री सहसा रुक गयी, लेकिन उसके हृदय की गुप्त व्यथा उसी के कण्ठ-स्वर के मुक्त मार्ग से इस तरह अचानक सतीश के सामने आकर खड़ी हो गयी कि कुछ देर के लिए सतीश की बोधशक्ति अचल हो गयी। बुद्धिमती सावित्री इसको क्षणभर में अनुभव करके सभी बातों का सहज परिहास करके हँसकर बोली, “भगवान ने आज आपको मेरा अतिथि बनाकर भेजा है, इसलिए खाना भी पड़ेगा और दक्षिणा भी लेनी पड़ेगी। देखती हूँ, आज बिल्कुल ही जात नष्ट हो जायेगी।”

इतनी देर में सतीश की स्वाभाविक शक्ति लौट आयी थी। उसने पूछा, “सचमुच ही क्या आज तुम्हारा जन्मदिन है?”

सावित्री ने कहा, “सचमुच।”

सतीश ने कहा, “तो ऐसे दिन अगर मैं आ ही पड़ा हूँ तो दुकान की कुछ बासी मिठाइयाँ खाकर पेट न भराऊँगा। इसके अलावा ये सब चीज़ें तो मैं कभी खाता नहीं!”

सावित्री भी यह बात जानती थी। मन ही मन लज्जित होकर उसने कहा, “लेकिन अब तो रात हो गयी है!”

सतीश ने कहा, “हो जाये रात! आज डेरे पर वापस जाकर झिड़कियाँ तो खानी न पड़ेगी। फिर आज ज़्यादा रात होने से डरूँ क्यों? कुछ भी क्यों न हो, किसी प्रकार भी मैं नहीं खाऊँगा।”

“तुमसे पार पाने का कोई रास्ता नहीं है।” कहकर सावित्री उठकर चली गयी। सतीश बैठा हुआ था, अब लेट गया। यह सुन्दर कुटी और यह निर्मल सफ़ेद शय्या छोड़कर किसी तरह भी जाने की उसे इच्छा नहीं हो रही थी, फिर भी आत्मसम्मान को अक्षुण्ण रखकर बैठ रहने का भी कोई अच्छा-सा कारण नहीं मिल रहा था। अब खाना तैयार होने की देर की सम्भावना उसको भावी आसन्न कठिन उत्तरदायित्व में मानो छुटकारा दे गयी। चलते समय सावित्री बाहर से जंजीर चढ़ा गयी थी, इसको भी जैसे वह जान गया था, उसके ‘तुम’ सम्भाषण को भी उसने उसी तरह लक्ष्य किया था। निर्जन कमरे में ये नवलब्ध दो तथ्य, जादूगर और उसकी जादू की लकड़ी की तरह अपूर्व इन्द्रजाल की रचना करने लगे। आज ही दुपहरिया को जो सब प्यार के कूड़ा-कर्कट उसके मन के भीतर से भाटे के खिंचाव से बाहर की तरफ़ बह गये थे, ज्वार के उल्टे श्रोत से फिर वे एक-एक करके वापस आकर प्रकट होने लगे। आज ही दोपहर को आत्माभिमान के आघात की तीखी ज्वाला ने अपने मन की नीच प्रवृत्तियों की तरफ़ उसके नेत्रों को खोल दिया था, ज्वाला के ठण्डा होने के साथ ही साथ वे नेत्र आप ही आप बन्द हो गये। इसी तरह अपने को लेकर खिलवाड़ करते-करते किसी समय शायद वह ज़रा-सा सो गया था। एकाएक द्वार खुल जाने की आवाज़ से वह जाग उठा और देखा कि सावित्री मोक्षदा को साथ लिये कमरे में घुस रही है। मोक्षदा ने पत्र सतीश के हाथ में देकर कहा, “देखिये तो बाबू, बहू ने लिखा क्या है!”

सतीश ने पढ़कर कहा, “उन लोगों के लौटने में अभी दो महीने की देर है।”

मोक्षदा ने पूछा, “और कोई बात नहीं है?”

सतीश ने पत्र लौटाकर कहा, “नहीं, विशेष कुछ बात नहीं है।”

“मेरी तनखा के बारे में बाबू?”

“नहीं, वह बात नहीं लिखी है।”

रुपये की बात नहीं लिखी है सुनकर मोक्षदा ने मन ही मन अत्यन्त कुढ़कर पत्र के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, “यह बात रहेगी क्यों? रहेंगी जितनी सब बेकार की बातें! दीजिये पत्र। सावित्री कल पत्र का उत्तर लिख देना तो। हाँ, बाबू को खाना कब दोगी? रात नहीं हुई है क्या?” सावित्री ने कहा, “यह ठहरे, ब्राह्मण महाराज, संध्या-पूजा करेंगे या यों ही खा लेंगे?”

मोक्षदा ने कहा, “यह क्या अपने पुरोहित महाराज हैं, या बाबाजी हैं कि पूजा-आद्दिक करके खायेंगे?”

सतीश हँसकर बोला, “क्या दाई, तुम सब भूल गयी! मैं तो सदा ही संध्या-पूजा करता हूँ।”

मोक्षदा को शायद एकाएक बात याद पड़ गयी। झेंपकर बोली, “हाँ-हाँ, ठीक बात है।” सावित्री की तरफ़ घूमकर बोली, “देख तो बेटी, जल्दी बाबू के लिए जगह ठीक कर दे। तेरे घर में तो सब ही ठीक-ठाक है।” कहकर मोक्षदा चली गयी।

एक घण्टे के बाद सतीश के भोजन के वक़्त कमरे में कोई भी मौजूद नहीं था - अँधेरे बरामदे से यह देखकर मोक्षदा एकदम जल उठी। रसोईघर में जाकर देखा, सावित्री चुपचाप बैठी हुई है।

रुष्ट कण्ठ से उसने कहा, “यह तेरी कैसी बुद्धि है सावित्री? यह क्या कंगाली भोजन हो रहा है कि जो कुछ भी है, खाने के लिए सामने डालकर निश्चिन्त होकर बैठी हुई हो?” सावित्री कुछ सोच रही थी, चौंककर बोली, “आवश्यकता पड़ने पर वह खुद ही माँग लेंगे।”

“ऐसी बुद्धि न रहती तो फिर तू दासी का काम करने जाती! तू तो खुद ही नौकर-नौकरानी रख लेती!”

सावित्री ने हँसकर कहा, “खुद ही नौकरानी बनी हुई हूँ। इसमें भी क्या दोष है मौसी, मेहनत करके खाने में तो शर्म नहीं है!”

मोक्षदा ने कुपित होकर कहा, “कौन कहता है कि है। मेरी उम्र में भले ही न रहे, लेकिन तेरी उम्र में तो ज़रूर ही है। अच्छा रहे या न रहे, बाबू को जबकि खाने को कह दिया है, तब बैठकर खिलाओ। मनुष्य का भाग्य बदलने में अधिक देर नहीं लगती।”

सावित्री जाने को तैयार होते-होते ठिठककर खड़ी हो गयी, बोली, “क्या बक रही हो मौसी। वह सुन लेंगे तो?”

मोक्षदा ने तुरन्त ही अपना कण्ठ धीमा कर के कहा, “नहीं-नहीं, सुन लेंगे क्यों! और एक बात तुझसे कहे रखती हूँ बेटी। भगवान ने जो दो आँखें दी हैं, उन दोनों को ज़रा खोल रखना, घड़ी की चेन, हीरे की अँगूठी न रहने से ही किसी आदमी को छोटा मत समझ लेना।”

“अच्छा!” कहकर सावित्री हँसती हुई चली जा रही थी। मोक्षदा ने फिर पीछे से पुकारकर कहा, “सुनो तो सावित्री!”

सावित्री घूमकर खड़ी हो गयी, बोली, “क्या है?”

“मेरे कमरे में चल, एक ढाका की साड़ी निकाल दूँ, पहनकर जा।”

सावित्री ने हँसी रोककर कहा, “तुम निकाल लाओ मौसी, मैं अभी आ रही हूँ।”

सतीश का खाना प्रायः समाप्त हो आया था, सावित्री ने कमरे में घुसकर कहा, “आँखें बन्द करके खा रहे हो क्या?”

सतीश ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “नहीं।”

“लेकिन देखती हूँ दोनों आँखें तो नींद से ढलती जा रही हैं!”

असल में उसे कड़ी नींद आ रही थी। पिछली रात का उच्छृंखल अत्याचार आज असमय में ही उसकी आँखों की दोनों पलकों को भारी बनाता जा रहा था, सलज्ज हँसी से स्वीकार करके उसने कहा, “हाँ, बड़ी नींद आ रही है।”

सावित्री ने पूछा, “और कुछ चाहिए?”

सतीश तुरन्त बोल उठा, “कुछ नहीं, कुछ नहीं, मैं खा चुका।”

बाहर पैरों की आहट सुनकर सावित्री जान गयी कि मोक्षदा आकर खड़ी है, बोली, “बाबू, मुझे एक ढाका की साड़ी खरीद देनी पड़ेगी।”

वह कभी कुछ नहीं माँगती, इसलिए इस बात का मतलब न समझ सकने के कारण सतीश आश्चर्य में पड़ गया। मोक्षदा के आने का उसे पता नहीं था। उसने पूछा, “सचमुच ही चाहिए?”

“सचमुच ही तो!”

“कब पहनोगी?”

“आज पहनने की स्थिति नहीं है, इसलिए किसी दिन भी वह स्थिति नहीं होगी, ऐसी क्या बात है! इसके अलावा एक और बात है। मैं मेहनत करके खाती हूँ, इसके लिए मौसी दुःख कर रही थी। इसलिए सोच रही हूँ अब मेहनत करके न खाऊँगी - अब से बैठी-बैठी खाऊँगी।”

सतीश ने हँसकर कहा, “अच्छी बात तो है।”

“सिर्फ़ अच्छी बात होने से ही तो न होगा, उसके साथ एक नौकरानी न रहने से भी तो मान नहीं रहता - उसको भी आपको रख देना पड़ेगा।”

अपनी बात को वह ख़त्म भी न कर सकी - मुँह में आँचल ठूँसकर हँसी का वेग रोकने लगी।

मोक्षदा कोई कच्ची औरत नहीं थी। एक ही क्षण में सब कुछ समझकर कमरे में घुसकर उसने कहा, “बाबू, शायद सावित्री को पहचानते हैं?”

सावित्री की तरफ़ घूमकर बोली, “मौसी के साथ अब तक शायद मज़ाक हो रहा था? यह तो अच्छी बात है, खुशी की बात है। पहले कहने से ही तो काम हो जाता।” कहकर हँसकर वह चली गयी।

भोजन के बाद सतीश फिर एक बार बिछौने पर आकर बैठ गया। सावित्री डिब्बे में भरकर पान लायी और बँधे हुक्के पर तम्बाकू चढ़ाकर सतीश के हाथ में दे दिया, पैरों के पास धरती पर बैठकर एकाएक मुसकराकर सिर झुका लिया। सतीश के दिल में आँधी बहने लगी। सारे शरीर में रोंगटे खड़े होकर मानो जाड़ा लगने लगा। क्षणकाल के लिए उसको हुक्का खींचने की शक्ति तक नहीं रही। दो मिनट के बाद सावित्री ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “रात हो गयी, बासे पर नहीं जाओगे?”

सतीश ने सूखे कण्ठ से कहा, “नहीं जाऊँगा तो रहूँगा कहाँ?”

‘यहीं रहोगे। न जा सको तो ज़रूरत नहीं है - मौसी अभी तक जाग रही है। मैं उनके बिछौने पर ही सो जाऊँगी।”

एक क्षण के लिए सतीश चुप ही रहा लेकिन दूसरे ही क्षण अपने को सम्भालकर बिल्कुल ही खड़ा होकर कहा, “नहीं.... जा रहा हूँ।”

“अच्छा, और ज़रा बैठो।” कहकर सावित्री उठकर चली गयी और सतीश के जूते बाहर से उठा लायी और आँचल से पैर पोंछकर जूतों का फीता बाँधते-बाँधते धीरे-धीरे बाली,

“बासा के लोग अगर जान जायें तो?”

“जानेंगे कैसे?”

“मैं अगर बता दूँ?”

“तुम क्या बताओगी? बताने की कोई बात ही नहीं है।”

सावित्री ने हँसकर कहा, “कुछ भी नहीं है, सच कहते हो?”

सतीश निरुत्तर हो रहा।

सावित्री ने धीमे स्वर में कहा, “बताने की बात न रहने से कौन जाने आज मैं तुमको छोड़ सकती थी या नहीं।” यह कहकर वह एकाएक चुप हो गयी। लेकिन दूसरे ही क्षण प्रबल बेग से सिर हिलाकर बोल उठी, “नहीं, तुम बासे पर चले जाओ। अगर दुर्बुद्धि न छोड़ोगे तो एक दिन सब ही खोल दूँगी, बताये देती हूँ।”

यह कैसा रहस्य है! इसके अन्दर की बात ठीक न समझ सकने के कारण सतीश क्षणभर चुप रहकर खड़ा रहा। बोला, “भले ही बता दोगी बासे के लोग तो मेरे संरक्षक हैं नहीं।” सावित्री ने कहा, “जानती हूँ, नहीं हैं। लेकिन मेरी मौसी यह काम भी अनायास ही ले सकेगी। उसकी जबान को कैसे रोक रखोगे?”

मोक्षदा का नाम सुनकर सतीश मन ही मन डर गया, पर बोला, “रुपये देकर।” सावित्री ने कहा, “उससे केवल रुपया बरबाद होगा, काम नहीं होगा। इसके सिवा, मौसी को न हो रुपये से वश में कर लोगे, लेकिन मुझे क्या देकर वश में करोगे?”

सतीश तुरन्त बोल उठा, “प्रेम देकर!”

सावित्री के होंठों पर हँसी की रेखा दिखायी पड़ी, बोली, “इसको लेकर चार बार हो गये।”

“यानी?”

“यानी इसके पहले और भी तीन आदमियों ने इसी चीज़ को देना चाहा था।”

“तुमने लिया नहीं?”

“नहीं। कूड़ा-करकट जमा करके रखने के लिए मेरे पास जगह नहीं।”

सतीश स्थिर होकर बैठा रहा। सावित्री की व्यंग्य-भरी हँसी और उसके कण्ठ का स्वर कुछ भी उसके लक्ष्य से बच नहीं सका। इसीलिए उसकी दोपहर की बातें याद आ गयीं और याद आने के साथ ही प्रेम की नदी में ज्वार खत्म होकर भाटे का खिंचाव शुरू हो गया। सावित्री की बातों को उसने व्यंग्य समझ लेने की गलती नहीं की। कड़े स्वर में बोल उठा, ‘वे लोग हैं बेवकू़फ़! उन लोगों को ऐसी चीज़ देने का प्रस्ताव करना उचित था जिसको बक्स में उठा रखना किसी को कूड़ा-करकट न मालूम हो। मैं भी कम मूर्ख नहीं हूँ, क्योंकि मैं भी भूल गया था कि वह चीज़ तुम लोगों के लिए कितनी अवहेलना की चीज़ है। इतनी उम्र में इतनी बड़ी भूल हो जाना मेरे लिए उचित नहीं था! अच्छा मैं चलता हूँ।”

यह बात सावित्री को शूल की तरह बींध गया, “तुम लोगों के लिए” कहकर सतीश ने उसको किन लोगों के साथ अभिन्न बनाकर देखा, इसे समझना सावित्री को बाकी नहीं रहा। किन्तु परिहास को झगड़े में परिणत होते देखकर वह चुप रह गयी। सतीश रुक नहीं सका, बोला, “शिकारी बंसी में मछली को गूँथकर-नचाकर जैसे आनन्द मानता है, सम्भवतः इतने दिनों से मुझे लेकर तुम वही मज़ाक कर रही थीं न?”

सावित्री और सहन न कर सकी। बिजली की-सी गति से वह उठ खड़ी हुई, बोली, “बंसी में गूँथकर तुमको ही खींचकर उठाया जा सकता है - नचाकर उठाने लायक बड़ी मछली तुम नहीं हो।”

सतीश ने निष्ठुर भाव से व्यंग्य करके कहा, “नहीं हूँ मैं?”

सावित्री ने कहा, “नहीं हो।” उसके होंठ सिकुड़ गये।

सतीश के चेहरे की तरफ़ तीव्र दृष्टिपात करके वह कहने लगी, “दुश्चरित्र, मेरी तरह एक स्त्री को प्यार करके प्रेम की बड़ाई करने में तुमको लज्जा नहीं मालूम होती? जाओ तुम.... मेरे घर में खड़े होकर झूठमूठ मेरा अपमान मत करो।”

इस अपमान से सतीश और भी निर्दयी हो उठा। इस बार अक्षम्य कुत्सित व्यंग्य करके उसने कहा, “मैं दुश्चरित हूँ! किन्तु जो कुछ भी कहो सावित्री! तुम्हारा नाम तुम्हारे माँ-बाप ने सार्थक रखा था।”

सावित्री हटकर चली गयी, चौखट पकड़कर क्षणकाल स्थिर भाव से खड़ी रहकर बोली, “जाओ!” उसका चेहरा पीला बदरंग हो गया था।

अपमान और क्रोध की असहनीय जलन से उस तरफ़ नज़र तक भी न डालकर सतीश बोला, “किन्तु जाने के पहले एक बार फिर आँचल से पैर पोंछ न दोगी? अथवा और कोई खेल और कोई नाटक।”

एकाएक दोनों की आँखें लड़ गयीं।

सावित्री ने एक कदम आगे बढ़कर कहा, “तुम कसाई से भी निष्ठुर हो - तुम जाओ! तुम जाओ! तुम्हारे पैरों पर गिरती हूँ, न जाओगे तो सिर पटक कर मर जाऊँगी - तुम जाओ।”

उसके कण्ठ-स्वर की उत्तरोत्तर और अस्वाभाविक तीव्रता से अकस्मात सतीश डर गया, फिर एक भी बात न कहकर बाहर चला गया। किन्तु अँधेरे बरामदे में अन्त तक आकर उसे रुक जाना पड़ा। किस तरफ़ सीढ़ी है, किस तरफ़ रास्ता है, अँधेरे में कुछ भी दिखायी नहीं पड़ा था। जेब में हाथ डालकर उसने देखा, दियासलाई नहीं थी। इस निरुपाय अवस्था में पड़कर वह पाँच मिनट चुपचाप खड़ा रहा। फिर उसे सावित्री के कमरे की तरफ़ लौट आना पड़ा। बाहर से उसने देखा, सावित्री फ़र्श पर औंधी पड़ी हुई है, धीरे-धीरे उसने पुकारा, “सावित्री!” सावित्री ने उत्तर नहीं दिया, फिर पुकारने पर उत्तर न मिलने पर सतीश ने कमरे में जाकर सावित्री के माथे पर हाथ रखा। झुककर देखा, आँखें मुँदी हुई हैं और उसके मुँह में उँगली डालकर समझ गया, सावित्री मूर्च्छित हो गयी है। क्षणभर के लिए मन में एक भय और संकोच का उदय हो गया ज़रूर, किन्तु दूसरे क्षण सावित्री का अचेतन शरीर उठाकर बिछौने पर उसने लिटा दिया और चादर का एक हिस्सा गगरी के जल से भिगोकर मुँह पर, आँखों पर छिड़कने लगा। फिर पंखा हाथ में लेकर हवा झलने लगा। दो-तीन मिनट के बाद ही सावित्री ने आँखें खोलकर माथे पर का कपड़ा खींचकर करवट बदलकर कहा, “तुम गये नहीं?”

सतीश चुप रहकर हवा झलने लगा।

सावित्री बिछौने से उठकर चिराग़ हाथ में लेकर बाहर जा खड़ी हुई। बोली, “चलो, चलो तुम्हारे लिए दरवाज़ा खोल आऊँ।”

उसके बाद चुपचाप रास्ता दिखाती हुई वह नीचे उतर गयी और दरवाज़ा खोलकर किनारे खड़ी हो गयी।

मूर्च्छित सावित्री को बिछौने पर ले जकर लिटाने के लिए उसके अचेतन शरीर को जो गोद में लेना पड़ा था, उसी समय से सतीश मानो अन्यमनस्क-सा हो गया था। अब दरवाज़े के पास आते ही वह अपने में आ गया और कोई बात कहने के लिए मुँह ऊँचा उठा ही रहा था कि सावित्री बोल उठी, “नहीं, और एक बात भी नहीं, अपने शरीर को तुमने पहले ही नष्ट कर डाला है किन्तु वह तो किसी दिन जलकर खाक़ भी हो जायगा, किन्तु एक अस्पृश्य कुलटा को प्यार करके भगवान के दिये हुए मन के गाल पर अब स्याही मत पोत देना। या तो, तुम कल ही उस डेरे को छोड़कर चले जाओ या मैं वहाँ अब नहीं जाऊँगी।” इतना कहकर उत्तर की प्रतीक्षा न करके सावित्री ने दरवाज़ा बन्द कर दिया।

  • चरित्रहीन अध्याय (9-19)
  • शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की बांग्ला कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
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