चार बेटे (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Char Bete (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

बुढ़ऊ टस से मस नहीं हो रहे थे ।

बड़े-बड़े देवता, ज्ञानी ऋषि-मुनि समझा कर हार गये पर बुढ़ऊ कहते ही रहे, "मैं उस कुलटा का मुँह नहीं देखूँगा । हर तीजा पर रतजगा करती थी, रोज़ पूजा-पाठ करती थी, उपवास और व्रत करती थी और वरदान माँगती थी कि मुझे जनम-जनम में यही पति मिलें । बड़ी पतिव्रता बनी फिरती थी । अब मेरी आँखें खुलीं । उसने मुझे जीवन-भर धोखा दिया । हाय रे तिरिया चरित्र !"

पचहत्तर वर्ष पूरे करके बुढ़ऊ हाल ही में पुण्य - प्रताप से स्वर्ग आये । यों स्वर्ग-प्राप्ति के लिए पुण्य आवश्यक नहीं है; कभी-कभी सिफ़ारिश से या 'फ्लूक' में स्वर्ग मिल जाता है, इसके भी उदाहरण हैं । अजामिल डाकू ने ज़िन्दगी भर तो नरक की तैयारी की, पर मरते वक्त अपने बेटे 'नारायण' को पुकारा । नारायण समझे कि मुझे स्मरण किया है । बस, उसे सीधा स्वर्ग भेज दिया । नाम की बड़ी कमज़ोरी होती है बड़ों में ।

बुढ़ऊ कैसे आये, यह नहीं कहा जा सकता, पर उन्होंने यहाँ स्वर्ग में भी अपने लिए नरक निर्मित कर लिया था । आदमी क्या नहीं बना लेता । गेहूँ से रोटी भी बना लेता है और शराब भी ।

बुढ़िया उनसे एक माह पहले ही आ गयी थी । पृथ्वी पर लोगों का विश्वास था कि यह सच्ची पतिव्रता का लक्षण है । वह पहले पहुँच गयी और जब वहाँ चूल्हा-चक्की जमा लिये, तब बुढ़ऊ भी पहुँच गये ।

यह सच था कि वे आदर्श पति-पत्नी थे । पचास साल तो कोई फ़रिश्ते के साथ भी नहीं काट सकता । पर इतने लम्बे दाम्पत्य-जीवन में आपस में उनमें कभी भी झगड़ा नहीं हुआ । गृहस्थ धर्म की एक ज़रूरी रस्म पत्नी को पीटने की होती है, पर बुढ़ऊ ने इस पवित्र प्रथा के निर्वाह के लिए भी कभी बुढ़िया को गुलाब की छड़ी तक से नहीं हुआ ।

पर यहाँ आये एक महीना ही हुआ था कि बुढ़ऊ ने बुढ़िया को गालियाँ देकर घर से निकाल दिया । पृथ्वी पर तो काम के मारे लड़ने की फ़ुरसत नहीं मिलती थी, पर यहाँ तो अनन्त निठल्लापन था । खूब कलह हुई । बुढ़ऊ ने पत्नी को पहले तो गालियाँ दीं, पर जीवन में कभी इसका अभ्यास न होने के कारण, जब गाली नहीं सूझती, तो वे हाथ चला देते । बुढ़िया बेचारी हाथ जोड़ती, पाँव पकड़ती, क़समें खाती पर पति का क्रोध बढ़ता ही जाता । आखिर बुढ़ऊ ने उसे घर से निकाल दिया और स्वयं एक कोने में माथा ठोंक कर बैठ गये ।

जब साधारण देवता मनाते - मनाते हार गये, तब इन्द्र आये । बोले, "बाबा, जानते हो, यह स्वर्ग है ? " मन का दर्द था इन शब्दों में ।

बुढ़ऊ ने क्रोध से कहा, “हाँ, जानता हूँ । मुझे यहाँ बुलाकर कोई अहसान नहीं किया है । अपने पुण्य की दम पर आया हूँ ।”

इन्द्र नरम पड़ गये । कहने लगे, "सो तो ठीक है, पर मेरे कहने का मलतब है कि यहाँ ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता ।"

बुढ़ऊ बड़ी कटु हँसी हँसे । उत्तर दिया, "यह भी जानता हूँ कि यहाँ कुलटाओं को घर में रखना शोभा देता है । पर मैं तुम्हारी चाल नहीं चलूँगा । उस कुलटा का मैं नाम भी नहीं सुनना चाहता ।"

इन्द्र समझ गये कि इनकी बुद्धि में विकार आ गया है । बुद्धि को अप क्षेत्र से बाहर मान कर इन्द्र ने देवों के गुरु बृहस्पति को उन्हें समझाने भेजा ।

बृहस्पति बुद्धिमान् थे, इसलिए बड़ी नम्रता से कहा, “बाबा, आप जैसा धर्मात्मा यहाँ शताब्दियों बाद आया है । वरना यहाँ असंख्य पापी छल से प्रवेश कर जाते हैं ।"

प्रशंसा की दवा से बुढ़ऊ का पित्त कुछ शान्त हुआ ।

बृहस्पति ने कहा, " पर आप व्यर्थ का झंझट क्यों खड़ा करते हैं ? थोड़े समय तो यहाँ आपको रहना है । फिर तो आप जंगल दफ़्तर के बाबू के रूप में संसार में भेजे जायेंगे ।"

"क्यों ?” बुढ़ऊ ने बड़ी चिन्ता से पूछा ।

बृहस्पति ने समाधान किया, "इसलिए कि आप जैसे कर्मशील व्यक्ति का निर्वाह इन आलसियों में कैसे होगा । इसीलिए कहता हूँ कि जब थोड़े ही दिन यहाँ रहना है, तो क्यों आपस में झगड़ते हो ? उसे बुला लो ।”

बुढ़ऊ की ढीली पड़ती हुई भृकुटि फिर तन गयी । बोले, "नहीं, यह हरगिज़ नहीं हो सकता ।"

बृहस्पति ने पैंतरा बदला । बोले, “आप नहीं मानेंगे, तो आपके जीवन -कर्मों की जाँच होगी । तब कहीं यह मालूम हुआ कि आपके पचास बघा पाँच सौ कैसे हो गये और जिस मकान में आप रहते थे, उसके आसपास के मकान भी आपके क़ब्जे में कैसे आ गये, तो ज़रा उलझन में पड़ जाओगे । इसलिए मेरी सलाह है कि निभा लो ।"

बुढ़ऊ को गुस्सा आया । कहने लगे, "यह धमकी किसी और को देना । मैंने जो कुछ कमाया, मेहनत और ईमानदारी से । कह दिया कि मैंने उस कुलटा को हमेशा के लिए त्याग दिया । बस, अब मैं कुछ नहीं सुनना । चाहता ।"

बृहस्पति ने उसी प्रकार शान्ति से कहा, “देखो बाबा, तुम्हारे त्यागने से कुछ नहीं होगा । बुढ़िया पतिव्रता है और उसने अपनी भक्ति से यह वरदान पा लिया है कि तुम्हीं सात जनमों तक उसके पति होगे ।"

बुढ़ऊ ने त्यौरी बदलकर कहा, "ऐसा नहीं हो सकता । यह धाँधली है। ऐसी धाँधली तो मैंने हमारे यहाँ की कचहरी में भी नहीं देखी । सुनो, मेरे साथ यह धाँधली नहीं चलेगी ।"

बृहस्पति ने फिर पैंतरा बदला, "बात यह है कि तुम्हारे मन में सन्देह समा गया है । पर सन्देह की भी दवा है । तुम बुढ़िया की अग्नि परीक्षा ले लो । अग्नि परीक्षा की प्रथा तो सनातन है । त्रेता में भगवती सीता ने भी अग्नि परीक्षा दी थी ।"

बुढ़ऊ भी एक ही काँइयाँ थे । बृहस्पति को पकड़ा - "फिर भी राम ने उन्हें त्याग तो दिया ।"

बृहस्पति ने समाधान किया, "इसलिए थोड़े त्यागा कि उन्हें सीता पर विश्वास नहीं था; बल्कि इसलिए कि वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे और उन्हें एक आदर्श उपस्थित करना था। पर आपके सामने तो आदर्श वग़ैरह की झंझट है ही नहीं । आप अग्नि परीक्षा ले कर उसे स्वीकार करो ।”

बुढ़ऊ ने कहा, "अग्नि परीक्षा में भी विश्वास नहीं है । जब लड़के ही कहते हैं, तब बात झूठी नहीं हो सकती ।"

बृहस्पति अब तनिक खीझ उठे । बोले, "क्या कहते हैं लड़के ? और आपको यहाँ कौन बता जाता है ?"

बुढ़ऊ ने कहा, "क्या कहते हैं, यह तो मुझसे नहीं कहा जायेगा । परसों मेरे गाँव से रघुनाथ धोबी आया है, उसी ने मुझे बताया कि लड़के ऐसा कहते हैं ।”

रघुनाथ 'धोबी तुरन्त बुलाया गया । वह वही कपड़े पहने था जो बृहस्पति ने उसे धोने के लिए दिये थे। पर बृहस्पति बुद्धिमान् थे, इसलिए देख कर भी चुप रहे ।

उससे पूछा, "क्या नाम है तेरा ?"

"रघुनाथ मालिक !"

"कब यहाँ आया ?"

"परसों मालिक ! उसी दिन आपके कपड़े धोने को लाया था ।"

"सो तो दिख रहा है । क्यों रे तूने यह क्या आग लगा दी ?"

धोबी कुछ बोलने वाला ही था कि बृहस्पति ने बुढ़ऊ से पूछा, "बाबा, तुम्हारा नाम क्या है ?"

बुढ़ऊ ने कहा, “जानकीनाथ | "

बृहस्पति चौंके । कोई पुरानी बात उन्हें स्मरण हो आयी । बोले, “सब उलझन तुम्हारे नाम ने खड़ी की है । त्रेतायुग से धोबी इस नाम के पीछे पड़ा है । तुम धोबी की बात हरगिज़ न मानना ।"

रघुनाथ ने कहा, “महाराज, मेरी तो जात ही बदनाम है । जब से मेरे उस पुरखे ने सीता माता को झूठा कलंक लगाया, तब से हमारा बड़ा निरादर हो रहा है । पर मैं क्या करूँ ? बिना बताये भी नहीं बनता । आप ही बताइए - आप अगर चालीस साल तक बाबा के कपड़े धोते और यहाँ आने पर बाबा आपसे बेटों का समाचार पूछते तो क्या आप न बताते ?"

बृहस्पति को अपना इस प्रकार उदाहरण के लिए उपयोग अच्छा नहीं लगा, पर वे बुद्धिमान् थे, इसलिए चुप रहे । कहा, " तो तूने ऐसा क्या कह दिया इनसे ?"

रघुनाथ ने बयान दिया, “महाराज, बाबा तो साक्षात् देवता थे । सारा इलाक़ा अभी तक इनके गुण गाता है । चार बेटे हैं । जैसे पिता वैसे ही लड़के । राम, लछमन, भरत, शत्रुघन समझ लो । माता - पिता की बड़ी सेवा करने वाले । लोग कहते हैं कि सरवन कुमार के बाद अब ये लड़के हुए हैं। और वह माँ भी साक्षात् लक्ष्मी । ऐसा अच्छा घराना कहीं नहीं था । जब बाबा यहाँ आये, तो लड़के तीन दिन तक तो सुध-बुध भूले रहे । पर पाँचवें दिन बेटों में बहस छिड़ गयी कि बाप का श्राद्ध कौन करे । याने पैसा कौन लगाये । भगवान् की दया से और बाबा के पुण्य - प्रताप से चारों लड़के मज़े में हैं । दो नौकरी करते हैं और दो धन्धा करते हैं । पर हर एक कहने लगा कि मैं पैसा नहीं लगाऊँगा । तब किसी सयाने ने समझाया कि कोई एक पैसा लगा कर श्राद्ध कर दे और पीछे बाबा की जायदाद में से उतना ले ले। इस पर एक ने पैसा लगाया । श्राद्ध हुआ । अब वह बोला कि मेरे दस हज़ार लग गये । दूसरे कहने लगे कि मुश्किल से दो हज़ार लगे होंगे । फिर झगड़ा शुरू हो गया । तब एक-दो सयानों ने बीच में पड़कर पाँच हज़ार पर समझौता कराया । बाबा का श्राद्ध क्या हुआ, नीलाम हो गया । अब जायदाद का झगड़ा शुरू हुआ । चारों में खींचतान होने लगी । हर एक ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा हड़पने की कोशिश करने लगा । अहा ! कैसा प्रेम था भाइयों में । पर अब आपस में दुश्मन हो गये । जिस दिन मैं आया उसके एक दिन पहले तो ग़जब ही हो गया । क्या हुआ महाराज, कि दो लड़कों ने कचहरी में अरजी दी है कि बाबा के लड़के हम दो ही हैं, इसलिए जायदाद हममें बँटनी चाहिए । कुल इतनी बात है । यही सब समाचार मैंने बताये इन्हें । पर बाबा अब उस बेचारी साध्वी बुढ़िया से पूछते हैं कि बता बाक़ी दो लड़के किसके हैं !

  • मुख्य पृष्ठ : हरिशंकर परसाई के हिन्दी व्यंग्य, कहानियाँ, संस्मरण
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां