चंगुल में गर्दन : पंचतंत्र

किसी वन में एक विशाल सरोवर था। उसमें तरह-तरह के जीव-जन्तु रहते थे। उन्हीं जन्तुओं में एक बगुला भी था। जवानी के दिनों में तो उसकी गर्दन में इतनी लोच, नजर में ऐसा पैनापन और चोंच में ऐसी पकड़ हुआ करती थी कि भूले-भटके भी कोई मछली उसके पास पहुँच जाती तो उसकी चोंच में दबकर उसके पेट की ओर सरक जाती थी। अब वह बूढ़ा हो चला था और हर तरफ से निढाल-सा हो चुका था। बस एक चीज बची हुई थी। यह थी उसकी चालाकी। अब इसी का भरोसा था।

एक दिन वह सरोवर के किनारे बैठकर रोने लगा। दूसरे जीवों ने बहुत पूछा पर वह बताने का नाम न ले। रोता चला जा रहा था, रोता चला जा रहा था। आँसू थमते ही न थे। उसको किसी ने इससे पहले इस तरह रोते नहीं देखा था इसलिए सभी को हैरानी हो रही थी। हैरानी इसलिए भी हो रही थी कि मछलियाँ उसके पास तक चली आ रही थीं। फिर भी वह उनकी ओर देख तक नहीं रहा था। अब केंकड़ा आदि कुछ जीव एक शिष्टमण्डल बनाकर उसके पास आये और बार-बार यह जानने का हठ करने लगे कि वह रो क्यों रहा है।

अब लम्बी उसाँस लेता हुआ वह भरे गले से बोला, “प्यारे, मैंने अब वैराग्य ले लिया है। अब मछलियों को तो नहीं ही खाऊँगा और कुछ खाये-पिये बिना ही उपवास करते हुए मैं अपने प्राण दे दूँगा। यह निश्चय करके मैं यहाँ बैठा हूँ। तुम लोगों ने तो देखा ही होगा कि पास आयी मछलियों को भी मैं उलटकर नहीं देख रहा हूँ।”

अब केकड़े की उत्सुकता और बढ़ गयी। उसने पूछा, “आपके इस तरह एकाएक वैराग्य लेने का कोई कारण तो होगा? हमें भी बताइए न!”

बगुले ने कहा, “बच्चे, मैं इसी सरोवर में पैदा हुआ, यहीं बड़ा हुआ, यहीं पर बूढ़ा भी हो गया। अब जो जीवन जीना और भोगना था वह तो मैं जी और भोग चुका। मुझे अपने लिए तो कोई दुख हो ही नहीं सकता। दुख तो इस सरोवर के प्राणियों के लिए हो रहा है।”

अब श्रोताओं का कुतूहल और प्रबल हो उठा। उनके कुछ और जिज्ञासा करने के बाद उसने बताया कि उसने किसी से सुना है कि इस साल बहुत भयंकर सूखा पड़नेवाला है। उस सूखे में यह सरोवर तो सूख जाएगा और सभी प्राणियों को तड़प-तड़प कर मरना पड़ेगा। उसी की कल्पना करके उसे रोना आ रहा था।

केकड़े ने पूछा, “किससे सुनी है आपने यह बात?”

बगुले ने उत्तर दिया, “ज्योतिषियों को बात करते सुना था। उनका कहना था कि इस साल शनि रोहिणी के शकट का भेदन कर रहा है और फिर उसका योग शुक्र से होगा। तुमने वराहमिहिर की वह उक्ति तो सुनी ही होगी कि यदि शनि रोहिणी के शकट का भेदन करता है तो बारह वर्ष तक बरसात नहीं होती। कहते हैं रोहिणी के शकट का भेदन हो जाने पर पृथ्वी अपने को पापिनी समझने लगती है, इसलिए शुद्धि करने के लिए भस्म और राख मलकर कापालिक का वेश अपना लेती है।”

पृथ्वी के कापालिक वेश धारण करने की बात केकड़े की समझ में नहीं आयी तो उसने बगुले से इसे कुछ समझाकर बताने को कहा।

उसकी इस सरलता पर इस दुख के बीच भी बगुले को हँसी आ गयी, “मतलब इसका यह है भानजे कि इस विकराल सूखे के प्रभाव से धरती रेगिस्तान का-सा रूप ले लेती है। जहाँ देखो वहाँ धूल और राख उड़ती दिखाई देती है और जगह-जगह मरे हुए लोगों के कपाल और पंजर बिखरे दिखाई देते हैं मानो धरती ने मुण्डमाला पहन रखी हो।”

केकड़े ने पूछा, “क्या सचमुच ऐसा हो सकता है?”

बगुला बोला, “ज्योतिषी की बात है, झूठी तो हो नहीं सकती। ज्योतिषियों का तो कहना है कि शनि तो दूर, यदि चन्द्रमा भी रोहिणी के शकट का भेदन करे तो प्रलय की-सी स्थिति उपस्थित हो जाती है। लोग बेहाल होकर अपने बच्चों तक को मारकर खा जाते हैं। यदि कहीं चुल्लू दो चुल्लू पानी मिला भी तो सूर्य की दहकती किरणों से इस तरह उबल रहा होता है कि उसके पीने पर प्यास बुझने के स्थान पर और भड़क उठती है। लगता है पानी नहीं आग पी रहे हैं।

“तो मुझे चिन्ता तो इसी बात को लेकर है कि जल्द ही इस तालाब का पानी सूखकर घट जाएगा और फिर पूरी तरह सूख जाएगा। जिन जीवों के साथ मैं पैदा हुआ, जिनके साथ खेलता-खाता हुआ बड़ा हुआ, वे सभी पानी के बिना मर जाएँगे। उनका वियोग मैं अपनी आँखों से देख नहीं पाऊँगा। यही सोचकर रो रहा था। यही सोचकर मैं यह आमरण उपवास का व्रत ठानकर बैठा हूँ। इस समय दूसरे छोटे सरोवरों के जीवों को उनके अपने सगे-सम्बन्धी बड़े सरोवरों में ले जा रहे हैं। कुछ बड़े जानवर, जैसे मगर, घड़ियाल, गोह और दरियाई हाथी अपने पाँवों चलकर दूसरे बड़े तालाबों में जा रहे हैं। इस सरोवर के प्राणियों को कोई चिन्ता ही न हो जैसे। वे निश्चिन्त पड़े हुए हैं। यही सोचकर तो मुझे और भी रोना आ रहा है कि यहाँ तो न कोई किसी का नाम लेनेवाला रह जाएगा, न पानी देनेवाला।”

शिष्टमण्डल ने यह बात सुनी तो उसने यह बात चारों ओर फैला दी। इस समाचार का फैलना था कि सारे जानवर डर से काँपने लगे। मछलियों और कछुओं ने तो घबराहट में उससे अपने बचाव का उपाय भी पूछना शुरू कर दिया, “मामा जी, क्या हमारे प्राण किसी तरह बच सकते हैं?”

बगुले ने कहा, “यहाँ से कुछ ही दूर पर एक बहुत गहरा जलाशय है। उसमें खाने के लिए सेवार आदि तो भरा ही हुआ है, पानी इतना अधिक है कि बारह वर्ष की तो बात ही अलग, यदि चौबीस वर्ष तक भी वर्षा न हो तो भी वह न सूखे। यदि कोई मेरी पीठ पर बैठ जाए तो मैं उसे वहाँ पहुँचा भी सकता हूँ।”

अब तो उसकी साख यूँ जम गयी कि सारे जलचर उससे अपना सम्बन्ध निकालने लगे। उसे भाई, चाचा, ताऊ, मामा कहकर पुकारते हुए इस बात का आग्रह करने लगे कि सबसे पहले वह उन्हें ही ले जाए। वह बदमाश भी उन्हें पीठ पर चढ़ाकर ले जाता और वहाँ से कुछ ही दूरी पर स्थित एक चट्टान पर पहुँचते ही उन्हें नीचे गिरा देता और आराम से खाता रहता और फिर वापस आ जाता। लौटने पर वह जिन जीवों को ले जा चुका रहता था उनके विषय में तरह-तरह की कहानियाँ गढ़कर दूसरे जीवों का जी खुश कर देता। इसी तरह उसके दिन कटते रहे।

एक दिन उससे केकड़े ने कहा, “मामा जी, सबसे पहले तो आपने यह बात मुझसे कही थी और मुझे ही भूल गये। मुझसे पहले दूसरे जानवरों को ले जा रहे हो। आज तो आपको मुझे लेकर चलना ही होगा।”

केकड़े की बात सुनकर बगुला सोचने लगा, बात तो यह भी ठीक है। इतने समय से लगातार मछलियों का ही मांस खाते-खाते मेरा भी मन ऊब चुका है। आज स्वाद बदलने के लिए इसको गटकूँगा। यह सोचकर उसने केकड़े को अपनी पीठ पर बैठा लिया और उस चट्टान की ओर उड़ चला। अभी दोनों वहाँ पहुँच भी नहीं पाये थे कि केकड़े ने दूर से ही उस स्थान को देख लिया, जहाँ मछलियों के काँटों के ढेर के ढेर पड़े हुए थे। अब सारा खेल उसकी समझ में आ गया। उसने बड़े भोलेपन से पूछा, “मामा, अब वह सरोवर कितनी दूर रह गया? मुझे तो लगता है आप मुझे ढोते-ढोते थक भी चले हैं।”

बगुले ने सोचा, पानी का यह जीव अब आसमान में क्या कर पाएगा। वह हँसकर बोला, “भानजे, कैसा सरोवर और कैसी थकान। इस समय तो तुम अपने देवी-देवताओं को मनाओ। मैं अब तुम्हें इस चट्टान पर पटककर चट कर जाऊँगा।”

उसका इतना कहना था कि केकड़े ने अपने चंगुल से उसकी गर्दन धर दबोची और वह वहीं टें बोल गया।

अब केंकड़ा किसी तरह घिसटता-लुढ़कता उस सरोवर में लौटा। अब सभी जलचर उसे घेरकर पूछने लगे, “अरे कुलीरक, तू वापस क्यों आ गया? इतना समय हो गया और वह मामा भी नहीं आया। बात क्या हुई? इतना विलम्ब क्यों हो रहा है? हम लोगों की बारी कब आएगी?”

उनकी बात सुनकर केंकड़ा हँसने लगा। उसने सारी कथा उन्हें कह सुनायी और अन्त में कहा, “यह रही उसकी गर्दन। इसे मैं साथ ही लेता आया कि तुम लोगों को विश्वास दिला सकूँ। अब डरने की कोई बात नहीं। जो हुआ सो भले के लिए ही हुआ। अब भविष्य में कोई ज्योतिषियों और ग्रहों का नाम लेकर हमें बहका नहीं सकेगा। और भविष्य के खतरे दिखाकर उनसे बचाने के नाम पर हमें लूटकर खा नहीं सकेगा।”

जलचरों की समझ में तो यह बात आ गयी पर मनुष्यों की समझ में यह बात कभी नहीं आ सकेगी। पर मैं ठहरा सियार और तुम ठहरे पक्षियों में सबसे चौकस पक्षी, हम आदमियों जितने मूर्ख तो हो नहीं सकते।

कौआ और कौवी को अपनी बड़ाई सुनकर खुशी हुई, पर यह बात तो वे पहले से जानते थे कि मनुष्य बुद्धि के मामले में उनसे उन्नीस पड़ता है और अपने बच्चों को सिखाता है कि जैसे कौआ चौकन्ना रहता है उसी तरह तुम भी रहा करो। इस समय तो उन्हें काले साँप से छुटकारा चाहिए था और इसकी सलाह चाहिए थी। इसलिए कौआ कुछ उतावली में आ गया, “भाई, यह तो बताओ कि उस काले साँप से छुटकारा कैसे मिलेगा?”

सियार ने कहा, “तुम ऐसा करो कि किसी पास के नगर में चले जाओ और वहाँ किसी राजा, साहूकार या जमींदार के यहाँ से कोई कीमती हार या माला उठा लाओ और साँप के उस कोटर में डाल दो। जो लोग तुम्हारा पीछा करते हुए आएँगे और हार को उस कोटर में गिरते देखेंगे तो वे जब हार निकालने चलेंगे तो पहला काम उस काले साँप को मारने का ही करेंगे। तुम्हारा कण्टक ही कट जाएगा।”

सियार की बात सुनकर कौआ और कौवी दोनों उड़ चले। कौवी ने देखा कि किसी सरोवर में राजा के रनिवास की रानियाँ अपने सोने और मोती के हार और वस्त्र आदि किनारे रखकर जलविहार कर रही हैं। कौवी ने एक झपट्टा मारा और सोने की एक माला लेकर उड़ चली। अब जो रानियों की रखवाली के लिए आये हुए बूढ़े और जनखे थे, वे लाठी लेकर पीछे-पीछे दौड़ पड़े। कौवी ने योजना के अनुसार उस सोने की माला को कोटर में डाल दिया और दूर जाकर एक डाली पर बैठकर तमाशा देखने लगी। होना तो वही था जिसका सियार ने पहले ही अनुमान करा दिया था। जब वे कोटर के पास पहुँचे तो भीतर से साँप की फुफकार सुनाई दी। उन्होंने डण्डे से मार-मारकर उसका कीमा बना दिया। सोने की माला लेकर वे तो वापस लौट गये। इधर कौआ अपनी घरवाली के साथ आराम से रहने लगा और निश्चिन्त होकर अण्डे देने और बच्चे पालने लगा।

इस कथा को सुनाने के बाद दमनक बोला, “मैं इसीलिए कह रहा था कि उपाय से जो सम्भव है वह पराक्रम से भी सम्भव नहीं है। बुद्धिमान आदमी के लिए कोई काम असम्भव नहीं है। कहते हैं कि जिसके पास बुद्धि है बल भी उसी के पास है। बुद्धिहीन के पास भला बल हो भी कैसे सकता है?

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