चंद्रकांता संतति (उपन्यास) खंड 2 - सातवाँ भाग : देवकीनन्दन खत्री
Chandrakanta Santati (Novel) : Devaki Nandan Khatri
बयान - 1
नागर थोड़ी दूर पश्चिम जाकर घूमी और फिर उस सड़क पर चलने लगी जो रोहतासगढ़ की तरफ गई थी।
पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि नागर का दिल कितना मजबूत और कठोर था। उन दिनों जो रास्ता काशी से रोहतासगढ़ को जाता था, वह बहुत ही भयानक और खतरनाक था। कहीं-कहीं तो बिल्कुल ही मैदान में जाना पड़ता था और कहीं गहन वन में होकर दरिन्दे जानवरों की दिल दहलाने वाली आवाजें सुनते हुए सफर करना पड़ता था। इसके अतिरिक्त उस रास्ते में लुटेरों और डाकुओं का डर तो हरदम बना ही रहता था। मगर इन सब बातों पर जरा भी ध्यान न देकर नागर ने अकेले ही सफर करना पसन्द किया, इसी से कहना पड़ता है कि वह बहुत ही दिलावर, निडर और संगदिल औरत थी। शायद उसे अपनी ऐयारी का भरोसा या घमण्ड हो क्योंकि ऐयार लोग यमराज से भी नहीं डरते और जिस ऐयार का दिल इतना मजबूत न हो, उसे ऐयार कहना भी न चाहिए।
नागर एक नौजवान मर्द की सूरत बनाकर तेज और मजबूत घोड़े पर सवार तेजी के साथ रोहतासगढ़ की तरफ जा रही थी। उसकी कमर में ऐयारी का बटुआ, खंजर, कटार और एक पथरकला1 भी था। दोपहर होते-होते उसने लगभग पच्चीस कोस का रास्ता तय किया और उसके बाद एक ऐसे गहन वन में पहुंची जिसके अन्दर सूरज की रोशनी बहुत कम पहुंचती थी, केवल एक पगडंडी सड़क थी जिस पर बहुत सम्हलकर सवारों को सफर करना पड़ता था क्योंकि उसके दोनों तरफ कंटीले दरख्त और झाड़ियां थीं। इस जंगल के बाहर एक चौड़ी सड़क भी थी, जिस पर गाड़ी और छकड़े वाले जाते थे। मगर घुमाव और चक्कर पड़ने के कारण उस रास्ते को छोड़कर घुड़सवार और पैदल लोग अक्सर इसी जंगल में से होकर जाया करते थे, जिससे इस समय नागर जा रही है, क्योंकि इधर से कई कोस का बचाव पड़ता था।
1. पथरकला उस छोटी - सी बन्दूक को कहते हैं जिसके घोड़े में चकमक लगा होता है जो रंजक पर गिरकर आग पैदा करता है।
यकायक नागर का घोड़ा भड़का और रुककर अपने दोनों कान आगे की तरफ करके देखने लगा। नागर शहसवारी का फन बखूबी जानती और अच्छी तरह समझती थी, इसलिए घोड़े के भड़कने और रुकने से उसे किसी तरह का रंज न हुआ बल्कि वह चौकन्नी हो गई और बड़े गौर से चारों तरफ देखने लगी। अचानक सामने की तरफ पगडंडी के बीचोंबीच में बैठे हुए शेर पर उसकी निगाह पड़ी जिसका पिछला भाग नागर की तरफ था अर्थात् मुंह उस तरफ जिधर नागर जा रही थी। नागर बड़े गौर से शेर को देखने और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। अभी उसने कोई राय पक्की नहीं की थी कि दाहिनी बगल की झाड़ी में से एक आदमी निकलकर बढ़ा और फुर्ती के साथ घोड़े के पास आ पहुंचा, जिसे देखते ही वह चौंक पड़ी और घबड़ाहट के मारे बोल उठी, ''ओफ, मुझे बड़ा भारी धोखा दिया गया!'' साथ ही इसके वह अपना हाथ पथरकले पर ले गई, मगर उस आदमी ने इसे कुछ भी करने न दिया। उसने नागर का हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींचा और एक झटका ऐसा दिया कि वह घोड़े के नीचे आ रही। वह आदमी तुरन्त उसकी छाती पर सवार हो गया और उसके दोनों हाथ कब्जे में कर लिए।
यद्यपि नागर को विश्वास हो गया कि अब उसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती तो भी उसने बड़ी दिलेरी से अपने दुश्मन की तरफ देखा और कहा -
नागर - बेशक, उस हरामजादी ने मुझे पूरा धोखा दिया, मगर भूतनाथ, तुम मुझे मारकर जरूर पछताओगे। वह कागज जिसके मिलने की उम्मीद में तुम मुझे मार रहे हो, तुम्हारे हाथ कभी न लगेगा क्योंकि मैं उसे अपने साथ नहीं लाई हूं। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मेरी तलाशी ले लो, और बिना वह कागज पाए मेरे या मनोरमा के साथ बुराई करना तुम्हारे हक में ठीक नहीं है इसे तुम अच्छी तरह जानते हो।
भूतनाथ - अब मैं तुझे किसी तरह नहीं छोड़ सकता। मुझे विश्वास है कि वे कागजात, जिनके सबब से मैं तुझ जैसी कमीनों की ताबेदारी करने पर मजबूर हो रहा हूं, इस समय जरूर तेरे पास हैं तथा इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि कमलिनी ने अपना वादा पूरा किया और कागजों के सहित तुझे मेरे हाथ फंसाया। अब तू मुझे धोखा नहीं दे सकती और न तलाशी लेने की नीयत से मैं तुझे कब्जे से छोड़ ही सकता हूं। तेरा जमीन से उठना मेरे लिए काल हो जायगा क्योंकि फिर तू हाथ नहीं आवेगी।
नागर - (चौंककर और ताज्जुब से) हैं, तो क्या वह कम्बख्त कमलिनी थी, जिसने मुझे धोखा दिया! अफसोस, शिकार घर में आकर निकल गया। खैर, जो तेरे जी में आवे कर, यदि मेरे मारने में ही तेरी भलाई हो तो मार, मगर मेरी एक बात सुन ले।
भूतनाथ - अच्छा कह, क्या कहती है थोड़ी देर तक ठहर जाने में मेरा कोई हर्ज भी नहीं।
नागर - इसमें तो कोई शक नहीं कि अपने कागजात, जिन्हें तेरा जीवन-चरित्र कहना चाहिए, उन्हें लेने के लिए ही तू मुझे मारना चाहता है।
भूतनाथ - बेशक ऐसा ही है। यदि वह मुट्ठा मेरे हाथ का लिखा हुआ न होता तो मुझे उसकी परवाह न होती।
नागर - हां, ठीक है, परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि मुझे मारकर तू वे कागजात न पावेगा। खैर, जब मैं इस दुनिया से जाती ही हूं तो क्या जरूरत है कि तुझे भी बर्बाद करती जाऊं मैं तेरी लिखी चीजें खुशी से तेरे हवाले करती हूं, मेरा दाहिना हाथ छोड़ दे, मैं तुझे बता दूं कि मुझे मारने के बाद वे कागजात तुझे कहां से मिलेंगे।
भूतनाथ इतना डरपोक और कमजोर भी न था कि नागर का केवल दाहिना हाथ जिसमें हर्बे की किस्म से एक कांटा भी न था, छोड़ने से डर जाय, दूसरे उसने यह भी सोचा कि जब यह स्वयं ही कागजात देने को तैयार है तो क्यों न ले लिये जायं, कौन ठिकाना इसे मारने के बाद कागजात हाथ न लगें। थोड़ी देर तक कुछ सोच-विचारकर भूतनाथ ने नागर का दाहिना हाथ छोड़ दिया जिसके साथ ही उसने फुर्ती से वह हाथ भूतनाथ के गाल पर दबाकर फेरा। भूतनाथ को ऐसा मालूम हुआ कि नागर ने एक सूई उसके गाल में चुभो दी, मगर वास्तव में ऐसा न था। नागर की उंगली में एक अंगूठी थी, जिस पर नगीने की जगह स्याह रंग का कोई पत्थर जड़ा हुआ था, वही भूतनाथ के गाल में गड़ा, जिससे एक लकीर-सी पड़ गई और जरा खून भी दिखाई देने लगा। पर मालूम होता है कि वह नोकीला स्याह पत्थर, जो अंगूठी में जड़ा हुआ था, किसी प्रकार का जहर-हलाहल था, जो खून के साथ मिलते ही अपना काम कर गया क्योंकि उसने भूतनाथ को बात करने की मोहलत न दी। वह एकदम चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और नागर उसके कब्जे से छूटकर अलग हो गई।
नागर ने घोड़े की बागडोर, जो चारजामे में बंधी हुई थी खोली और उसी से भूतनाथ के हाथ-पैर बांधने के बाद एक पेड़ के साथ कस दिया, इसके बाद उसने अपने ऐयारी के बटुए में से एक शीशी निकाली, जिसमें किसी प्रकार का तेल था। उसने थोड़ा तेल उसमें से भूतनाथ के गाल पर उसी जगह जहां लकीर पड़ी हुई थी, मला। देखते-ही-देखते उस जगह एक बड़ा फफोला पड़ गया। नागर ने खंजर की नोक से उस फफोले में छेद कर दिया, जिससे उसके अन्दर का कुल जहरी पानी निकल गया और भूतनाथ होश में आ गया।
नागर - क्यों बे कम्बख्त, अपने किये की सजा पा चुका या कुछ कसर है तूने देखा, मेरे पास कैसी अद्भुत चीज है। अगर हाथी भी हो तो इस जहर को बर्दाश्त न कर सके और मर जाय, तेरी क्या हकीकत है!
भूतनाथ - बेशक ऐसा ही है और अब मुझे निश्चय हो गया कि मेरी किस्मत में जरा भी सुख भोगना बदा नहीं है।
नागर - साथ ही इसके तुझे यह भी मालूम हो गया कि इस जहर को मैं सहज ही में उतार भी सकती हूं। इसमें सन्देह नहीं कि तू मर चुका था, मगर मैंने इसलिए तुझे जिला दिया कि अपने लिखे हुए कागजों का हाल दुनिया में फैला हुआ तू स्वयम् देख और सुन ले, क्योंकि उससे बढ़कर कोई दुःख तेरे लिए नहीं है, पर यह भी देख ले कि उस कम्बख्त कमलिनी के साथ मैंने क्या किया, जिसने मुझे धोखे में डाला था। इस समय वह मेरे कब्जे में है, क्योंकि कल वह मेरे घर में जरूर आकर टिकेगी! अहा, अब मैं समझ गई कि रात वाले अद्भुत मामले की जड़ भी वही है। जरूर ही इस मुर्दे शेर को रास्ते में तूने ही बैठाया होगा।
भूतनाथ - (आंखों में आंसू भरकर) अबकी दफे मुझे माफ करो, जो कुछ हुक्म दो, मैं करने को तैयार हूं।
नागर - मैं अभी कह चुकी हूं कि तुझे मारूंगी नहीं, फिर इतना क्यों डरता है
भूतनाथ - नहीं-नहीं, मैं वैसी जिन्दगी नहीं चाहता, जैसी तुम देती हो, हां यदि इस बात का वादा करो कि वे कागजात किसी दूसरे को न दोगी तो मैं वे सब काम करने को तैयार हूं, जिन्हें पहले इनकार करता था।
नागर - मैं ऐसा कर सकती हूं, क्योंकि आखिर तुझे जिन्दा छोडूंगी ही, और यदि मेरे काम से तू जी न चुरावेगा तो मैं तेरे कागजात भी बड़ी हिफाजत से रखूंगी। हां खूब याद आया - उस चीठी को तो जरा पढ़ना चाहिए जो उस कम्बख्त कमलिनी ने यह कहकर दी थी कि मुलाकात होने पर मनोरमा को दे देना।
यह सोचते ही नागर ने बटुए में से एक चीठी निकाली और पढ़ने लगी। यह लिख हुआ था -
''जिस काम के लिए मैं आई थी, ईश्वर की कृपा से वह काम बखूबी हो गया। वे कागजात इसके पास हैं, ले लेना। दुनिया में यह बात मशहूर है कि उस आदमी का जहान से उठ जाना ही अच्छा है, जिससे भलों को कष्ट पहुंचे। मैं तुमसे मिलने के लिए यहां बैठी हूं।''
नागर - देखो नालायक ने चीठी भी लिखी तो ऐसे ढंग से कि यदि मैं चोरी से पढूं भी तो किसी तरह का शक न हो और इसका पता भी न लगे कि यह भूतनाथ के नाम लिखी गई है या मनोरमा के, स्त्रीलिंग और पुल्लिंग को भी बचा ले गई है। उसने यही सोच के चीठी मुझे दी होगी कि जब यह भूतनाथ के कब्जे में आ जायगी, और वह इसकी तलाशी लेगा तो यह चीठी उसके हाथ लग जायगी, और जब वह पढ़ेगा तो नागर को अवश्य मार डालेगा, और फिर तुरत आकर मुझसे मिलेगा, जिससे वह किशोरी को छुड़ा ले। अच्छा कम्बख्त, देख, मैं तेरे साथ क्या सलूक करती हूं।
भूतनाथ - अच्छा, इतना वादा तो मैं कर ही चुका हूं कि हर तरह से तुम्हारी ताबेदारी करूंगा और जो कुछ तुम कहोगी, बेउज्र बजा लाऊंगा, अब इस समय मैं तुम्हें एक भेद की बात बताता हूं, जिसे जानकर तुम बहुत प्रसन्न होओगी।
नागर - कहो, क्या कहते हो शायद तुम्हारी नेकचलनी का सबूत यहीं मिल जाय।
भूतनाथ - मेरे हाथ तो बंधे हैं, खैर, तुम ही आओ मेरी कमर से खंजर निकालो। उसके साथ एक पुर्जा बंधा है, खोलकर पढ़ो और देखो, क्या लिखा है
नागर भूतनाथ के पास गई और उसकी कमर से खंजर निकालना चाहा, मगर खंजर पर हाथ पड़ते ही उसके बदन में बिजली दौड़ गई और वह कांपकर जमीन पर गिरते ही बेहोश हो गई। भूतनाथ पुकार उठा - ''वह मारा!'' उस तिलिस्मी खंजर का हाल जो कमलिनी ने भूतनाथ को दिया था, पाठक बखूबी जानते ही हैं, कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं। इस समय वही खंजर भूतनाथ की कमर में था। उसकी तासीर से नागर बिल्कुल बेखबर थी। वह नहीं जानती थी कि जिसके पास उसके जोड़ की अंगूठी न हो, वह उस खंजर को छू नहीं सकता।
अब भूतनाथ का जी ठिकाने हुआ, और वह अपने छूटने का उद्योग करने लगा, परन्तु हाथ-पैर बंधे रहने के कारण कुछ न कर सका। आखिर वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा, जिससे किसी आते-जाते मुसाफिर के कान में आवाज पड़े तो वह आकर उसको छुड़ावे।
दो घण्टे बीत गए, मगर किसी मुसाफिर के कान में भूतनाथ की आवाज न पड़ी और तब तक नागर भी होश में आकर उठ बैठी।
बयान - 2
हम ऊपर लिख आए हैं कि राजा वीरेन्द्रसिंह तिलिस्मी खंडहर से (जिसमें दोनों कुमार और तारासिंह इत्यादि गिरफ्तार हो गए थे) निकलकर रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए तो तेजसिंह उनसे कुछ कह-सुनकर अलग हो गए और उनके साथ रोहतासगढ़ न गए। अब हम यह लिखना मुनासिब समझते हैं कि राजा वीरेन्द्रसिंह से अलग होकर तेजसिंह ने क्या किया।
एक दिन और रात उस खंडहर के चारों तरफ जंगल और मैदान में तेजसिंह घूमते रहे, मगर कुछ काम न चला। दूसरे दिन वह एक छोटे से पुराने शिवालय के पास पहुंचे, जिसके चारों तरफ बेल और पारिजात के पेड़ बहुत ज्यादा थे, जिसके सबब से वह स्थान बहुत ठंडा और रमणीक मालूम होता था। तेजसिंह शिवालय के अन्दर गए और शिवजी का दर्शन करने के बाद बाहर निकल आए, उसी जगह से बेलपत्र तोड़कर शिवजी की पूजा की, और फिर उस चश्मे के किनारे जो मन्दिर के पीछे की तरफ बह रहा था, बैठकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इस समय तेजसिंह एक मामूली जमींदार की सूरत में थे, और यह स्थान भी उस खण्डहर से बहुत दूर न था।
थोड़ी देर बाद तेजसिंह के कान में आदमियों के बोलने की आवाज आई। बात साफ समझ में नहीं आती थी इससे मालूम हुआ कि वे लोग कुछ दूर पर हैं। तेजसिंह ने सिर उठाकर देखा तो कुछ दूर पर दो आदमी दिखाई पड़े जो उसी शिवालय की तरफ आ रहे थे। तेजसिंह चश्मे के किनारे से उठ खड़े हुए और एक झाड़ी के अन्दर छिपकर देखने लगे कि वे लोग कहां जाते और क्या करते हैं। इन दोनों की पोशाकें उन लोगों से बहुत-कुछ मिलती थीं जो तारासिंह की चालाकी से तिलिस्मी खंडहर में बेहोश हुए थे और जिन्हें राजा वीरेन्द्रसिंह साधु बाबा (तिलिस्मी दारोगा) के सहित कैदी बनाकर रोहतासगढ़ ले गए थे, इसलिए तेजसिंह ने सोचा कि ये दोनों आदमी भी जरूर उन्हीं लोगों में से हैं जिनकी बदौलत हम लोग दुःख भोग रहे हैं अस्तु, इन लोगों में से किसी को फंसाकर अपना काम निकालना चाहिए।
तेजसिंह के देखते-ही-देखते वे दोनों आदमी वहां पहुंचकर उस शिवालय के अन्दर घुस गये और लगभग दो घड़ी के बीत जाने पर भी बाहर न निकले। तेजसिंह ने छिपकर राह देखना उचित न जाना। वह झाड़ी में से निकलकर शिवालय में आये मगर झांककर देखा तो शिवालय के अन्दर किसी आदमी की आहट न मिली। ताज्जुब करते हुए शिवलिंग के पास तक चले गये मगर किसी आदमी की सूरत दिखाई न पड़ी। तेजसिंह तिलिस्मी कारखानों और अद्भुत मकानों तथा तहखानों की हालत से बहुत-कुछ वाकिफ हो चुके थे इसलिए समझ गए कि इस शिवालय के अन्दर कोई गुप्त राह या तहखाना अवश्य है और इसी सबब से ये दोनों आदमी गायब हो गये हैं।
शिवालय के सामने की तरफ बेल का एक पेड़ था। उसी के नीचे तेजसिंह यह निश्चय करके बैठ गए कि जब तक वे लोग अथवा उनमें से कोई एक बाहर न आयेगा तब तक यहां से न टलेंगे। आखिर घण्टे भर के बाद उन्हीं में से एक आदमी शिवालय के अन्दर से बाहर आता हुआ दिखाई पड़ा। उसे देखते ही तेजसिंह उठ खड़े हुए, निगाह मिलते ही झुककर सलाम किया और तब कहा, ''ईश्वर आपका भला करे, मेरे भाई की जान बचाइए!''
आदमी - तू कौन है और तेरा भाई कहां है
तेजसिंह - मैं जमींदार हूं, (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी के दूसरी ओर मेरा भाई है। बेचारे को एक बुढ़िया व्यर्थ मार रही है। आप पुजारीजी हैं, धर्मात्मा हैं, किसी तरह मेरे भाई को बचाइए। इसीलिए मैं यहां आया हूं। (गिड़गिड़ाकर) बस, अब देर न कीजिए, ईश्वर आपका भला करे!
तेजसिंह की बातें सुनकर उस आदमी को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और बेशक ताज्जुब की बात भी थी, क्योंकि तेजसिंह बदन के मजबूत और निरोग मालूम होते थे, देखने वाला कह सकता था कि बेशक इसका भाई भी वैसा ही होगा, फिर ऐसे दो आदमियों के मुकाबले में एक बूढ़ी औरत का जबर्दस्त पड़ना ताज्जुब नहीं तो क्या है!
आखिर बहुत-कुछ सोच-विचारकर उस आदमी ने तेजसिंह से कहा, ''खैर चलो देखें वह बुढ़िया कैसी पहलवान है।''
उस आदमी को साथ लिए हुए तेजसिंह शिवालय से कुछ दूर चले गए औेर एक गुंजान झाड़ी के पास पहुंचकर इधर-उधर घूमने लगे।
आदमी - तुम्हारा भाई कहां है
तेजसिंह - उसी को तो ढूंढ़ रहा हूं।
आदमी - क्या तुम्हें याद नहीं कि उसे किस जगह छोड़ गए थे
तेजसिंह - राम-राम, कैसे बेवकूफ से पाला पड़ा है! अरे कम्बख्त, जब जगह याद नहीं तो यहां तक कैसे आए!
आदमी - पाजी कहीं का! हम तो तेरी मदद को आए और तू हमें ही कम्बख्त कहता है!
तेजसिंह - बेशक तू कम्बख्त बल्कि कमीना है, तू मेरी मदद क्या करेगा जब तू अपने ही को नहीं बचा सकता
इतना सुनते ही वह आदमी चौकन्ना हो गया और बड़े गौर से तेजसिंह की तरफ देखने लगा। जब उसे निश्चय हो गया कि यह कोई ऐयार है, तब उसने खंजर निकालकर तेजसिंह पर वार किया। तेजसिंह ने वार बचाकर उसकी कलाई पकड़ ली और एक झटका ऐसा दिया कि खंजर उसके हाथ से छूटकर दूर जा गिरा। वह और कुछ चोट करने की फिक्र में था कि तेजसिंह ने उसकी गर्दन में हाथ डाल दिया और बात-की-बात में जमीन पर दे मारा। वह घबड़ाकर चिल्लाने लगा, मगर इससे भी कुछ काम न चला क्योंकि उसकी नाक में बेहोशी की दवा जबर्दस्ती ठूंस दी गई और एक छींक मारकर वह बेहोश हो गया।
उस बेहोश आदमी को उठाकर तेजसिंह एक ऐसी झाड़ी में घुस गए जहां से आते-जाते मुसाफिरों को वे बखूबी देख सकते मगर उन पर किसी की निगाह न पड़ती। उस बेहोश आदमी को जमीन पर लिटा देने के बाद तेजसिंह चारों तरफ देखने लगे और जब किसी को न पाया तो धीरे से बोले, ''अफसोस, इस समय मैं अकेला हूं, यदि मेरा कोई साथी होता तो इसे रोहतासगढ़ भिजवाकर बेखौफ हो जाता और बेफिक्री के साथ काम करता! खैर कोई चिन्ता नहीं, अब किसी तरह काम तो निकालना ही पड़ेगा।''
तेजसिंह ने ऐयारी का बटुआ खोला और आईना निकालकर सामने रखा, अपनी सूरत ठीक वैसी ही बनाई जैसा कि वह आदमी था, इसके बाद अपने कपड़े उतारकर रख दिए और उसके बदन से कपड़े उतारकर आप पहन लेने के बाद उसकी सूरत बदलने लगे। किसी तेज दवा से उसके चेहरे पर कई जख्म के दाग ऐसे बनाये कि सिवाय तेजसिंह के दूसरा कोई छुड़ा ही नहीं सकता था और मालूम ऐसा होता था कि ये जख्म के दाग कई वर्षों से उसके चेहरे पर मौजूद हैं। इसके बाद उसका तमाम बदन एक स्याह मसाले से रंग दिया। इसमें यह गुण था कि जिस जगह लगाया जाय वह आबनूस के रंग की तरह स्याह हो जाय और जब तक केले के अर्क से न धोया जाय वह दाग किसी तरह न छूटे चाहे वर्षों बीत जायं।
वह आदमी गोरा था मगर अब पूर्ण रूप से काला हो गया, चेहरे पर कई जख्म के निशान भी बन गये। तेजसिंह ने बड़े गौर से उसकी सूरत देखी और इस ढंग से गर्दन हिलाकर उठ खड़े हुए कि जिससे उनके दिल का भाव साफ झलक गया। तेजसिंह ने सोच लिया कि बस इसकी सूरत बखूबी बदल गई, अब और कोई कारीगरी करने की आवश्यकता नहीं है और वास्तव में ऐसा ही था भी, दूसरे की बात तो दूर रही यदि उसकी मां भी उसे देखती तो अपने लड़के को कभी न पहचान सकती।
उस आदमी की कमर के साथ ऐयारी का बटुआ भी था, तेजसिंह ने उसे खोल लिया और अपने बटुए की कुल चीजें उसमें रखकर अपना बटुआ उसकी कमर से बांध दिया और वहां से रवाना हो गये।
तेजसिंह फिर उसी शिवालय के सामने आए और एक बेल के पेड़ के नीचे बैठकर कुछ गाने लगे। दिन केवल घण्टे भर बाकी रह गया था जब वह दूसरा आदमी भी शिवालय के बाहर निकला। तेजसिंह को जो उसके साथी की सूरत में थे, पेड़ के नीचे मौजूद पाकर वह गुस्से में आ गया और उनके पास आकर खूब कड़ी आवाज में बोला, ''वाह जी बिहारीसिंह, अभी तक आप यहां बैठे गीत गा रहे हैं।''
तेजसिंह को इतना मालूम हो गया कि हम जिसकी सूरत में हैं उसका नाम बिहारीसिंह है। अब जब तक ये अपनी असली सूरत में न आवें, हम भी इन्हें बिहारीसिंह के ही नाम से लिखेंगे, हां कहीं-कहीं तेजसिंह लिख जायं तो कोई हर्ज भी नहीं।
बिहारीसिंह ने अपने साथी की बात सुनकर गाना बन्द किया और उसकी तरफ देख के कहा -
बिहारीसिंह - (दो-तीन दफे खांसकर) बोलो मत, इस समय मुझे खांसी हो गई है, आवाज भारी हो रही है, जितना कोशिश करता हूं उतना ही गाना बिगड़ जाता है। खैर तुम भी आ जाओ और जरा सुर में सुर मिलाकर साथ गाओ तो!
हरनामसिंह - क्या बात है! मालूम होता है, तुम कुछ पागल हो गये हो, मालिक का काम गया जहन्नुम में और हम लोग बैठे गाया करें!
बिहारीसिंह - वाह, जरा-सी बूटी ने क्या मजा दिखाया। अहा-हा, जीते रहो पट्ठे! ईश्वर तुम्हारा भला करे, खूब सिद्धी पिलाई।
हरनामसिंह - बिहारीसिंह, यह तुम्हें क्या हो गया तुम तो ऐसे न थे!
बिहारीसिंह - जब न थे तब बुरे थे, अब हैं तो अच्छे हैं। तुम्हारी बात ही क्या है, सत्रह हाथी जलपान करके बैठा हूं। कम्बख्त ने जरा नमक भी नहीं दिया, फीका ही उड़ाना पड़ा। ही-ही -ही-ही, आओ एक गदहा तुम भी खा लो, नहीं-नहीं सूअर, अच्छा कुत्ता ही सही। ओ हो हो हो, क्या दूर की सूझी! बच्चाजी ऐयारी करने बैठे हैं, हल जोतना आता ही नहीं, जिन्न पकड़ने लगे। हा-हा-हा-हा-हा, वाह रे बूटी, अभी तक जीभ चटचटाती है - लो देख लो (जीभ चटचटाकर दिखाता है)।
हरनामसिंह - अफसोस!
बिहारीसिंह - अब अफसोस करने से क्या फायदा जो होना था वह तो हो गया। जाके पिण्डदान करो। हां, यह तो बताओ, पितर-मिलौनी कब करोगे मैं जाता हूं तुम्हारी तरफ से ब्राह्मणों को नेवता दे आता हूं।
हरनामसिंह - (गर्दन हिलाकर) इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम पूरे पागल हो गए हो। तुम्हें जरूर किसी ने कुछ खिला-पिला दिया है।
बिहारीसिंह - न इसमें सन्देह न उसमें सन्देह, पागल की बातचीत हो जाने दो क्योंकि तुम लोगों में केवल मैं ही हूं सो हूं, बाकी सब पागल। खिलाने वाले की ऐसी-तैसी, पिलाने वाले का बोलबाला। एक लोटा भांग, दो सौ पैंतीस साढ़े तेरह आना, लोटा निशान। ऐयारी के नुस्खे एक से एक बढ़के याद हैं, जहाज की पाल भी खूब ही उड़ती है। वाह, कैसी अंधेरी रात है। बाप रे बाप, सूरज भी अस्त होना ही चाहता है। तुम भी नहीं हम भी नहीं, अच्छा तुम भी सही, बड़े अकिलमन्द हो, अकिल, अकिल, मन्द, मन्द, मन्द। (कुछ देर तक चुप रहकर) अरे बाप रे बाप, मैया री मैया, बड़ा ही गजब हो गया, मैं तो अपना नाम भी भूल गया! अभी तक तो याद था कि मेरा नाम बिहारीसिंह है मगर अब भूल गया, तुम्हारे सिर की कसम जो कुछ भी याद हो। भाई यार-दोस्त मेरे, जरा बता तो दो, मेरा नाम क्या है
हरनामसिंह - अफसोस, रानी मुझी को दोष देंगी, कहेंगी कि हरनामसिंह अपने साथी की हिफाजत न कर सका।
बिहारीसिंह - ही ही ही ही, वाह रे भाई हरनामसिंह, अलिफ बे ते टे से च छ ज झ, उल्लू की दुम फाख्ता...!
हरनामसिंह को विश्वास हो गया कि जरूर किसी ऐयार की शैतानी से जिसने कुछ खिला या पिला दिया है, हमारा साथी बिहारीसिंह पागल हो गया, इसमें कोई सन्देह नहीं। उसने सोचा कि अब इससे कुछ कहना-सुनना उचित नहीं, इसे इस समय किसी तरह फुसलाकर घर ले चलना चाहिए।
हरनामसिंह - अच्छा यार, अब देर हो गई, चलो घर चलें।
बिहारीसिंह - क्या हम औरत हैं कि घर चलें! चलो जंगल में चलें। शेर का शिकार खेलें, रंडी का नाच देखें, तुम्हारा गाना सुनें और सबके अन्त में तुम्हारे सिरहाने बैठकर रोएं। ही ही ही ही...!
हरनामसिंह - खैर, जंगल ही में चलो।
बिहारीसिंह - हम क्या साधु-वैरागी या उदासी हैं कि जंगल में जायें! बस, इसी जगह रहेंगे, भंग पीएंगे, चैन करेंगे, यह भी जंगल ही है। तुम्हारे जैसे गदहों का शिकार करेंगे, गदहे भी कैसे कि बस पूरे अन्धे! (इधर-उधर देखकर) सात-पांच बारह, पांच तीन, तीन घण्टे बीत गये अभी तक भंग लेकर नहीं आया, पूरा झूठा निकला मगर मुझसे बढ़के नहीं! बदमाश है, लुच्चा है, अब उसकी राह या सड़क नहीं देखूंगा! चलो भाई साहब चलें, घर ही की तरफ मुंह करना उत्तम है, मगर मेरा हाथ पकड़ लो, मुझे कुछ सूझता नहीं।
हरनामसिंह ने गनीमत समझा और बिहारीसिंह का हाथ पकड़ घर की तरफ अर्थात् मायारानी के महल की तरफ ले चला। मगर वाह रे तेजसिंह, पागल बनके क्या काम निकाला है! अब ये चाहे दो सौ दफे चूकें मगर किसी की मजाल नहीं कि शक करे। बिहारीसिंह को मायारानी बहुत चाहती थी क्योंकि इसकी ऐयारी खूब चढ़ी-बढ़ी थी, इसलिए हरनामसिंह उसे ऐसी अवस्था में छोड़कर अकेला जा भी नहीं सकता था। मजा तो उस समय होगा जब नकली बिहारीसिंह मायारानी के सामने होंगे और भूत की सूरत बने असली बिहारीसिंह भी पहुंचेंगे।
बिहारीसिंह को साथ लिए हरनामसिंह जमानिया1 की तरफ रवाना हुआ। मायारानी
1. जमानिया - इसे लोग जमनिया भी कहते हैं। काशी के पूरब गंगा के दाहिने किनारे पर आबाद है।
वास्तव में जमानिया की रानी थी, इसके बाप-दादे भी इस जगह हुकूमत कर गए थे। जमानिया के सामने गंगा के किनारे से कुछ दूर हटकर एक बहुत ही खुशनुमा और लम्बा-चौड़ा बाग था जिसे वहां वाले 'खास बाग' के नाम से पुकारते थे। इस बाग में राजा अथवा राज्य कर्मचारियों के सिवाय कोई दूसरा आदमी जाने नहीं पाता था। इस बाग के बारे में तरह-तरह की गप्पें लोग उड़ाया करते थे, मगर असल भेद यहां का किसी को भी मालूम न था। इस बाग के गुप्त भेदों को शाही खानदान और दीवान तथा ऐयारों के सिवाय कोई गैर आदमी नहीं जानता था और न कोई जानने की कोशिश कर सकता था, यदि कोई गैर आदमी इस बाग में पाया जाता तो तुरन्त मार डाला जाता था, और यह कायदा बहुत पुराने जमाने से चला आता था।
जमानिया में जिस छोटे किले के अन्दर मायारानी रहती थी उसमें से गंगा के नीचे-नीचे एक सुरंग भी इस बाग तक गई थी और इसी राह से मायारानी वहां आती-जाती थी, इस सबब से मायारानी का इस बाग में आना या यहां से जाना खास-खास आदमियों के सिवाय किसी गैर को न मालूम होता था। किले और इस बाग का खुलासा हाल पाठकों को स्वयं मालूम हो जायेगा इस जगह विशेष लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। हां, इस जगह इतना लिख देना मुनासिब मालूम होता है कि रामभोली के आशिक नानक तथा कमला ने इसी बाग में मायारानी का दरबार देखा था।
जमानिया पहुंचने तक बिहारीसिंह ने अपने पागलपन से हरनामसिंह को बहुत ही तंग किया और साबित कर दिया कि पढ़ा-लिखा आदमी किस ढंग का पागल होता है। यदि मायारानी का डर न होता तो हरनामसिंह अपने साथी को बेशक छोड़ देता और हजार खराबी के साथ घर ले जाने की तकलीफ न उठाता।
कई दिन के बाद बिहारीसिंह को साथ लिए हुए हरनामसिंह जमानिया के किले में पहुंच गया। उस समय पहर भर रात जा चुकी थी। किले के अन्दर पहुंचने पर मालूम हुआ कि इस समय मायारानी बाग में है, लाचार बिहारीसिंह को साथ लिए हुए हरनामसिंह को उस बाग में जाना पड़ा और इसलिए बिहारीसिंह (तेजसिंह) ने किले और सुरंग का रास्ता भी बखूबी देख लिया। सुरंग के अन्दर दस-पन्द्रह कदम जाने के बाद बिहारीसिंह ने हरनामसिंह से कहा -
बिहारीसिंह - सुनो जी, इस सुरंग के अन्दर सैकड़ों दफे हम आ चुके और आज भी तुम्हारे मुलाहिजे से चले आये, मगर आज के बाद फिर कभी यहां लाओगे तो मैं तुम्हें कच्चा ही खा जाऊंगा और इस सुरंग को भी बर्बाद कर दूंगा, अच्छा, यह बताओ कि मुझे कहां लिए जाते हो?
हरनामसिंह - मायारानी के पास।
बिहारीसिंह - तब तो मैं नहीं जाऊंगा क्योंकि मैं सुन चुका हूं कि मायारानी आजकल आदमियों को खाया करती है, तुम भी तो कल तक तीन गदहियां खा चुके हो! मायारानी के सामने चलो तो सही, देखो मैं तुम्हें कैसे छकाता हूं, ही ही ही, बच्चा तुम्हें छकाने से क्या होगा, मायारानी को छकाऊं तो कुछ मजा मिले! भज मन राम चरन सुखदाई! (भजन गाता है)।
बड़ी मुश्किल से सुरंग खतम की और बाग में पहुंचे। उस सुरंग का दूसरा सिरा बाग में एक कोठरी के अन्दर निकलता था। जिस समय वे दोनों कोठरी के बाहर हुए तो उस दालान में पहुंचे, जिसमें मायारानी का दरबार होता था। इस समय मायारानी उसी दालान में थी, मगर दरबार का सामान वहां कुछ न था, केवल अपनी बहिन और सखी-सहेलियों के साथ बैठी दिल बहला रही थी। मायारानी पर निगाह पड़ते ही उनकी पोशाक और गम्भीर भाव ने बिहारीसिंह (तेजसिंह) को निश्चय करा दिया कि यहां की मालिक यही है।
हरनामसिंह और बिहारीसिंह को देखकर मायारानी को एक प्रकार की खुशी हुई और उसने बिहारीसिंह की तरफ देखकर पूछा, ''कहो, क्या हाल है'?
बिहारीसिंह - रात अंधेरी है, पानी खूब बरस रहा है, काई फट गई, दुश्मन ने सिर निकाला, चोर ने घर देख लिया, भूख के मारे पेट फूल गया, तीन दिन से भूखा हूं, कल का खाना अभी तक हजम नहीं हुआ। मुझ पर बड़े अन्धेर का पत्थर आ टूटा, बचाओ! बचाओ!
बिहारीसिंह के बेतुके जवाब से मायारानी घबड़ा गई, सोचने लगी कि इसको क्या हो गया जो बेमतलब की बात बक गया। आखिर हरनामसिंह की तरफ देखकर पूछा, ''बिहारी क्या कह गया मेरी समझ में न आया!''
बिहारीसिंह - अहा हा, क्या बात है! तुमने मारा हाथ पसारा, छुरा लगाया खंजर खाया, शेर लड़ाया गीदड़ काया! राम लिखाया नहीं मिटाया, फांस लगाया आप चुभाया, ताड़ खुजाया खून बहाया, समझ खिलाड़ी बूझ मेरे लल्लू, हा हा हा, भला समझो तो!
मायारानी और भी घबड़ाई, बिहारीसिंह का मुंह देखने लगी। हरनामसिंह मायारानी के पास गया और धीरे से बोला, ''इस समय मुझे दुख के साथ कहना पड़ता है कि बेचारा बिहारीसिंह पागल हो गया है, मगर ऐसा पागल नहीं है कि हथकड़ी-बेड़ी की जरूरत पड़े क्योंकि किसी को दुःख नहीं देता, केवल बकता बहुत है और अपने-पराये का होश नहीं है, कभी बहुत अच्छी तरह भी बातें करता है। मालूम होता है कि वीरेन्द्रसिंह के किसी ऐयार ने धोखा देकर इसे कुछ खिला दिया।''
मायारानी - तुम्हारा और इसका साथ क्योंकर छूटा और क्या हुआ कुछ कहो तो हाल मालूम हो।
हरनामसिंह - पहले इनके लिए कुछ बन्दोबस्त कर दीजिये फिर सब हाल कहूंगा। वैद्यजी को बुलाकर जहां तक जल्द हो इनका इलाज कराना चाहिए।
बिहारीसिंह - यह काना-फुसकी अच्छी नहीं, मैं समझ गया कि तुम मेरी चुगली खा रहे हो। (चिल्लाकर) दोहाई रानी साहिबा की, इस कम्बख्त हरनामसिंह ने मुझे मार डाला, जहर खिलाकर मार डाला, मैं जिन्दा नहीं हूं, मैं तो मरने बाद भूत बनकर यहां आया हूं, तुम्हारी कसम खाकर कहता हूं, मैं अब वह बिहारीसिंह नहीं हूं, मैं कोई दूसरा ही हूं, हाय-हाय, बड़ा गजब हुआ। या ईश्वर उन लोगों से तू ही समझियो जो भले आदमियों को पकड़कर पिंजरे में बन्द किया करते हैं।
मायारानी - अफसोस, इस बेचारे की क्या दशा हो गई, मगर हरनामसिंह, यह तो तुम्हारा ही नाम लेता है, कहता है हरनामसिंह ने जहर खिला दिया!
हरनामसिंह - इस समय मैं इसकी बातों से रंज नहीं हो सकता, क्योंकि इस बेचारे की अवस्था ही दूसरी हो रही है।
मायारानी - इसकी फिक्र जल्द करनी चाहिए। तुम जाओ, वैद्यजी को बुला लाओ।
हरनामसिंह - बहुत अच्छा।
मायारानी - (बिहारी से) तुम मेरे पास आकर बैठो। कहो, तुम्हारा मिजाज कैसा है?
बिहारीसिंह - (मायारानी के पास बैठकर) मिजाज मिजाज है, बहुत है, अच्छा है, क्यों अच्छा है सो ठीक है!
मायारानी - क्या तुम्हें मालूम है कि तुम कौन हो
बिहारीसिंह - हां, मालूम है, मैं महाराजाधिराज श्री वीरेन्द्रसिंह हूं। (कुछ सोचकर) नहीं, वह तो अब बुड्ढे हो गये, मैं कुंअर इन्द्रजीतसिंह बनूंगा क्योंकि वह बड़े खूबसूरत हैं, औरतें देखने के साथ ही उन पर रीझ जाती हैं, अच्छा अब मैं कुंअर इन्द्रजीतसिंह हूं। (सोचकर) नहीं नहीं नहीं, वह तो अभी लड़के हैं और उन्हें ऐयारी भी नहीं आती, और मुझे बिना ऐयारी के चैन नहीं, अतएव मैं तेजसिंह बनूंगा। बस यही बात पक्की रही, मुनादी फिरवा दीजिए कि लोग मुझे तेजसिंह कहके पुकारा करें।
मायारानी - (मुस्कुराकर) बेशक ठीक है, अब हम भी तुमको तेजसिंह ही कहके पुकारेंगे।
बिहारीसिंह - ऐसा ही उचित है। जो मजा दिन भर भूखे रहने में है वह मजा आपकी नौकरी में है, जो मजा डूब मरने में है वह मजा आपका काम करने में है।
मायारानी - सो क्यों?
बिहारीसिंह - इतना दुःख भोगा, लड़े-झगड़े, सिर के बाल नोंच डाले, सब-कुछ किया, मगर अभी तक आंख से अच्छी तरह न देखा। यह मालूम ही न हुआ कि किसके लिए किसको फांसा और उस फंसाई से फंसने वाले की सूरत अब कैसी है!
मायारानी - मेरी समझ में न आया कि इस कहने से तुम्हारा क्या मतलब है?
बिहारीसिंह - (सिर पीटकर) अफसोस, हम ऐसे नासमझ के साथ है, ऐसी जिन्दगी ठीक नहीं, ऐसा खून किसी काम का नहीं। जो कुछ मैं कह चुका हूं जब तक उसका कोई मतलब न समझेगा और मेरी इच्छा पूरी न होगी, तब तक मैं किसी से न बोलूंगा, न खाऊंगा, न सोऊंगा, न एक न दो न चार, हजार-पांच सौ कुछ नहीं, चाहे जो हो मैं तो देखूंगा!
मायारानी - क्या देखोगे?
बिहारीसिंह - मुंह से तो बोलने वाला नहीं, आपको समझने की गौ हो तो समझिए।
मायारानी - भला कुछ कहो भी तो सही।
बिहारीसिंह - समझ जाइए।
मायारानी - कौन-सी चीज ऐसी है जो तुम्हारी देखी नहीं है।
बिहारीसिंह - देखी है मगर अच्छी तरह देखूंगा।
मायारानी - क्या देखोगे?
बिहारीसिंह - समझिए!
मायारानी - कुछ कहो भी कि समझिये-समझिये ही बकते जाओगे।
बिहारीसिंह - अच्छा एक हर्फ कहो तो कह दूं।
मायारानी - खैर, यही सही।
बिहारीसिंह - कै कै कै कै!
मायारानी - (मुस्कुराकर) कैदियों को देखोगे
बिहारीसिंह - हां हां हां, बस बस बस, वही वही वही।
मायारानी - उन्हें तो तुम देख ही चुके हो, तुम्हीं लोगों ने तो उन्हें गिरफ्तार किया है।
बिहारीसिंह - फिर देखेंगे, सलाम करेंगे, नाच नचावेंगे, ताक धिनाधिन नाचो भालू (उठकर कूदता है)।
मायारानी बिहारीसिंह को बहुत मानती थी। मायारानी के कुछ ऐयारों का वह सरदार था और वास्तव में बहुत ही तेज और ऐयारी के फन में पूरा उस्ताद भी था। यद्यपि इस समय वह पागल है तथापि मायारानी को उसकी खातिर मंजूर है। मायारानी हंसकर उठ खड़ी हुई और बिहारीसिंह को साथ लिए हुए उस कोठरी में चली गई जिसमें सुरंग का रास्ता था। दरवाजा खोलकर सुरंग के अन्दर गई। सुरंग में कई शीशे की हांडियां लटक रही थीं और रोशनी बखूबी हो रही थी। मायारानी लगभग पचास कदम के जाकर रुकी, उस जगह दीवार में एक छोटी-सी आलमारी बनी हुई थी। मायारानी की कमर में जो सोने की जंजीर थी, उसके साथ तालियों का एक छोटा-सा गुच्छा लटक रहा था। मायारानी ने वह गुच्छा निकाला और उसमें की एक ताली लगाकर यह आलमारी खोली। आलमारी के अन्दर निगाह करने से सीढ़ियां नजर आईं जो नीचे उतर जाने के लिए थीं। वहां भी शीशे की कन्दील में रोशनी हो रही थी। बिहारीसिंह को साथ लिए हुए मायारानी नीचे उतरी। अब बिहारीसिंह ने अपने को ऐसी जगह पाया जहां लोहे के जंगले वाली कई कोठरियां थीं, और हर एक कोठरी का दरवाजा मजबूत ताले से बंद था। उन कोठरियों में हथकड़ी-बेड़ी से बेबस, उदास और दुःखी केवल चटाई पर लेटे अथवा बैठे हुए कई कैदियों की सूरत दिखाई दे रही थी। ये कोठरियां गोलाकार ऐसे ढंग से बनी हुई थीं कि हर एक कोठरी में अलग-अलग कैद करने पर भी कैदी लोग आपस में बातें कर सकते थे।
सबसे पहले बिहारीसिंह की निगाह जिस कैदी पर पड़ी वह तारासिंह था जिसे देखते ही बिहारीसिंह खिलखिलाकर हंसा और चारों तरफ देख न मालूम क्या-क्या बक गया जिसे मायारानी कुछ भी न समझ सकी, इसके बाद बिहारीसिंह ने मायारानी की तरफ देखा और कहा -
''छिः छिः, मुझे आप इन कम्बख्तों के सामने क्यों लाईं मैं इन लोगों की सूरत नहीं देखा चाहता। मैं तो कै देखूंगा कै, बस केवल कै देखूंगा और कुछ नहीं, आप जब तक चाहें यहां रहें मगर मैं दम भर नहीं रह सकता, अब कै देखूंगा कै, बस कै देखूंगा बस कै केवल कै!''
'कै-कै' बकता हुआ बिहारीसिंह वहां से भागा और उस जगह आकर बैठ गया जहां मायारानी से पहले-पहल मुलाकात हुई थी। बिहारीसिंह की बदहवासी देखकर मायारानी घबड़ाई और जल्दी-जल्दी सीढ़ियां चढ़ कैदखाने का ताला बन्द करने के बाद अपनी जगह पर आई, जहां लम्बी-लम्बी सांसें लेते बिहारीसिंह को बैठे हुए पाया। मायारानी की वे सहेलियां भी उसी जगह बैठी थीं, जिन्हें छोड़कर मायारानी कैदखाने की तरफ गई थी।
मायारानी ने बिहारीसिंह से भागने का सबब पूछा, मगर उसने कुछ जवाब न दिया। मायारानी ने कई तरह के प्रश्न किए, मगर बिहारीसिंह ने ऐसी चुप्पी साधी कि जिसका कोई हिसाब ही नहीं। मालूम होता था कि यह जन्म का गूंगा और बहरा है, न सुनता है न कुछ बोल सकता है। मायारानी की सहेलियों ने भी बहुत कुछ जोर मारा मगर बिहारीसिंह ने मुंह न खोला। इस परेशानी में मायारानी को बिहारीसिंह की हालत पर अफसोस करते हुए घंटा भर बीत गया और तब तक वैद्यजी को जिनकी उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी, अपने साथ लिए हुए हरनामसिंह भी आ पहुंचा।
वैद्यराज ने इस अनोखे पागल की जांच की और अन्त में यह निश्चय किया कि बेशक इसे कोई ऐसी दवा खिलाई गई है, जिसके असर से पागल हो गया है, और यदि इसी समय इसका इलाज किया जाय तो एक ही दो दिन में आराम हो सकता है। मायारानी ने इलाज करने की आज्ञा दी और वैद्यराज ने अपने पास से एक जड़ाऊ डिबिया निकाली जो कई तरह की दवाओं से भरी हुई हमेशा उनके पास रहा करती थी।
वैद्यराज को उस अनोखे पागल की जांच में कुछ भी तकलीफ न हुई। बिहारीसिंह ने नाड़ी दिखाने में उज्र न किया और अन्त में दवा की वह गोली भी खा गया जो वैद्यराज ने अपने हाथ से उसके मुंह में रख दी थी। बिहारीसिंह ने अपने को ऐसा बनाया जिससे देखने वालों को विश्वास हो कि वह दवा खा गया, परन्तु उस चालाक पागल ने गोली दांतों के नीचे छिपा ली, और थोड़ी देर बाद मौका पा इस ढब से थूक दी कि किसी को गुमान तक न हुआ।
आधी घड़ी तक उछल-कूद करने के बाद बिहारीसिंह जमीन पर गिर पड़ा और सबेरा होने तक उसी तरह पड़ा रहा। वैद्यराज ने नब्ज देखकर कहा कि यह दवा की तासीर से बेहोश हो गया है, इसे कोई छेड़े नहीं, आशा है कि जब इसकी आंख खुलेगी तो अच्छी तरह बातचीत करेगा। बिहारीसिंह चुपचाप पड़ा ये बातें सुन रहा था। मायारानी बिहारीसिंह की हिफाजत के लिए कई लौंडियां छोड़ दूसरे कमरे में चली गई और एक नाजुक पलंग पर जो वहां बिछा हुआ था सो रही।
सूर्योदय से पहले ही मायारानी उठी और हाथ-मुंह धोकर उस जगह पहुंची जहां बिहारीसिंह को छोड़ गई थी। हरनामसिंह पहले ही वहां जा चुका था। बिहारीसिंह को जब मालूम हो गया कि मायारानी उसके पास आकर बैठ गई है तो वह भी दो-तीन करवटें लेकर उठ बैठा और ताज्जुब से चारों तरफ देखने लगा।
मायारानी - अब तुम्हारा क्या हाल है?
बिहारीसिंह - हाल क्या कहूं, मुझे ताज्जुब मालूम होता है कि मैं यहां क्योंकर आया, मेरी आवाज क्यों बैठ गई, और इतनी कमजोरी क्यों मालूम होती है कि मैं उठकर चल-फिर नहीं सकता!
मायारानी - ईश्वर ने बड़ी कृपा की, जो तुम्हारी जान बच गई, तुम तो पूरे पागल हो गये थे, वैद्यराज ने भी ऐसी दवा दी कि एक ही खुराक में फायदा हो गया। बेशक उन्होंने इनाम पाने का काम किया। तुम अपना हाल तो कहो, तुम्हें क्या हो गया था?
बिहारीसिंह - (हरनामसिंह की तरफ देखकर) मैं एक ऐयार के फेर में पड़ गया था, मगर पहले आप कहिए कि मुझे इस अवस्था में कहां पाया?
हरनामसिंह - आप मुझसे यह कहकर कि तुम थोड़ा-सा काम जो बच रहा है उसे पूरा करके जमानिया चले जाना, मैं कमलिनी से मुलाकात करके और जिस तरह होगा, उसे राजी करके जमानिया आऊंगा-खंडहर वाले तहखाने से बाहर चले गये, परन्तु काम पूरा करने के बाद मैं सुरंग के बाहर निकला तो आपको शिवालय के सामने पेड़ के नीचे विचित्र दशा में पाया। (पागलपने की बातचीत और मायारानी के पास तक आने का खुलासा हाल कहने के बाद) मालूम होता है आप कमलिनी के पास नहीं गये
बिहारीसिंह - (मायारानी से) जैसा धोखा मैंने अबकी खाया, आज तक नहीं खाया। हरनामसिंह का कहना सही है। जब मैं सुरंग से निकलकर शिवालय से बाहर हुआ तो एक आदमी पर नजर पड़ी जो मामूली जमींदार की सूरत में था। वह मुझे देखते ही मेरे पैरों पर गिर पड़ा और गिड़गिड़ाकर कहने लगा कि ''पुजारी महाराज, किसी तरह मेरे भाई की जान बचाइए!'' मैंने उससे पूछा कि ''तेरे भाई को क्या हुआ है' उसने जवाब दिया कि ''उसे एक बुढ़िया बेतरह मार रही है। किसी तरह उसके हाथ से छुड़ाइये।'' वह जमींदार बहुत ही मजबूत और मोटा-ताजा था। मुझे ताज्जुब मालूम हुआ कि वह कैसी बुढ़िया है, जो ऐसे-ऐसे दो भाइयों से नहीं हारती! आखिर मैं उसके साथ चलने पर राजी हो गया। वह मुझे शिवालय से कुछ दूर एक झाड़ी में ले गया, जहां कई आदमी छिपे हुए बैठे थे। उस जमींदार के इशारे से सभी ने मुझे घेर लिया और एक ने चांदी की एक लुटिया मेरे सामने रखकर कहा कि ''यह भंग है इसे पी जाओ।'' मुझे मालूम हो गया कि यह वास्तव में कोई ऐयार है जिसने मुझे धोखा दिया। मैंने भंग पीने से इनकार किया और वहां से लौटना चाहा, मगर उन सभी ने भागने न दिया। थोड़ी देर तक मैं उन लोगों से लड़ा, मगर क्या कर सकता था क्योंकि वे लोग गिनती में पन्द्रह से कम न थे। आखिर में उन लोगों ने पटककर मुझे मारना शुरू किया और जब मैं बेदम हो गया तो भंग या दवा जो कुछ हो मुझे जबर्दस्ती पिला दी, बस इसके बाद मुझे कुछ भी खबर नहीं कि क्या हुआ।
थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब की बातें कहकर बिहारीसिंह ने मायारानी का दिल बहलाया और इसके बाद कहा, ''मेरी तबीयत बहुत खराब हो रही है, यदि कुछ देर तक बाग में टहलूं तो बेशक जी प्रसन्न हो, मगर कमजोरी इतनी बढ़ गई है कि स्वयं उठने और टहलने की हिम्मत नहीं पड़ती।'' मायारानी ने कहा, ''कोई हर्ज नहीं, हरनामसिंह सहारा देकर तुम्हें टहलावेंगे, मैं समझती हूं कि बाग की ताजा हवा खाने और फूलों की खुशबू सूंघने से तुम्हें बहुत कुछ फायदा पहुंचेगा।''
आखिर हरनामसिंह ने बिहारीसिंह को हाथ पकड़के बाग में अच्छी तरह टहलाया और इस बहाने से तेजसिंह ने उस बाग को तथा वहां की इमारतों को भी अच्छी तरह देख लिया। ये लोग घूम-फिरकर मायारानी के पास पहुंचे ही थे कि एक लौंडी ने जो चोबदार थी, मायारानी के सामने आकर और हाथ जोड़कर कहा, ''बाग के फाटक पर एक आदमी आया है और सरकार में हाजिर होना चाहता है। बहुत ही बदसूरत और काला-कलूटा है, परन्तु, कहता है कि मैं बिहारीसिंह हूं, मुझे किसी ऐयार ने धोखा दिया और चेहरे तथा बदन को ऐसे रंग से रंग दिया कि अभी तक साफ नहीं होता!''
मायारानी - यह अनोखी बात सुनने में आई कि ऐयारों का रंगा हुआ रंग और धोने से न छूटे! कोई-कोई रंग पक्का जरूर होता है मगर उसे भी ऐयार लोग छुड़ा सकते हैं। (हंसकर) बिहारीसिंह ऐसा बेवकूफ नहीं है कि अपने चेहरे का रंग न छुड़ा सके!
बिहारीसिंह - रहिये-रहिये, मुझे शक पड़ता है कि शायद यह वही आदमी हो जिसने मुझे धोखा दिया, बल्कि ऐसा कहना चाहिए कि मेरे साथ जबर्दस्ती की। (लौंडी की तरफ देखकर) उसके चेहरे पर जख्म के दाग भी हैं
लौंडी - जी हां, पुराने जख्म के कई दाग हैं।
बिहारीसिंह - भौंह के पास भी कोई जख्म का दाग है
लौंडी - एक आड़ा दाग है, मालूम होता है कि कभी लाठी की चोट खाई है।
बिहारीसिंह - बस-बस, यह वही आदमी है, देखो जाने न पावे। चंडूल को यह खबर ही नहीं कि बिहारीसिंह तो यहां पहुंच गया है। (मायारानी की तरफ देखकर) यहां पर्दा करवाकर उसे बुलवाइये, मैं भी पर्दे के अन्दर रहूंगा, देखिए क्या मजा करता हूं। हां, हरनामसिंह पर्दे के बाहर रहें, देखें पहचानता है या नहीं।
मायारानी - (लौंडी की तरफ देखकर) पर्दा करने के लिए कहो और नियमानुसार आंखों पर पट्टी बांधकर उसे यहां लिवा लाओ।
लौंडी - वह यहां की हर एक चीज का पूरा-पूरा पता देता है और जरूर इस बाग के अन्दर आ चुका है।
बिहारीसिंह - पक्का चोर है, ताज्जुब नहीं कि यहां आ चुका हो! खैर, तुम लोगों को अपना नियम पूरा करना चाहिए।
हुक्म पाते ही लौंडियों ने पर्दे का इन्तजाम कर दिया और वह लौंडी जिसने बिहारीसिंह के आने की खबर दी थी, इसलिए फाटक की तरफ रवाना हुई कि नियमानुसार आंख पर पट्टी बांधकर बिहारीसिंह को बाग के अन्दर ले आवे और मायारानी के सामने हाजिर करे।
इस जगह इस बाग का कुछ थोड़ा-सा हाल लिख देना मुनासिब मालूम होता है। यह दो सौ बीघे का बाग मजबूत चहारदीवारी के अन्दर था। इसके चारों तरफ की दीवारें बहुत मोटी मजबूत और लगभग पच्चीस हाथ के ऊंची थीं। दीवार के ऊपरी हिस्से में तेज नोक और धार वाले लोहे के कांटे और फाल इस ढंग से लगे हुए थे कि काबिल ऐयार भी दीवार लांघकर बाग के अन्दर जाने का साहस नहीं कर सकते थे। कांटों के सबब यद्यपि कमन्द लगाने में सुभीता था। परन्तु उसके सहारे ऊपर चढ़ना बिलकुल ही असम्भव था। इस चहारदीवारी के अन्दर की जमीन जिसे हम बाग कहते हैं चार हिस्सों में बंटी हुई थी। पूरब की तरफ आलीशान फाटक था, जिसके अन्दर जाकर एक बाग जिसे पहला हिस्सा कहना चाहिए, मिलता था। इसकी चौड़ी-चौड़ी रविशें ईंट और चूने से बनी हुई थीं। पश्चिम तरफ अर्थात् इस हिस्से के अन्त में बीस हाथ मोटी और इससे ज्यादा ऊंची दीवार बाग की पूरी चौड़ाई तक बनी हुई थी जिसके नीचे बहुत-सी कोठरियां थीं जो सिपाहियों के काम में आती थीं। उस दीवार के ऊपर चढ़ने के लिए खूबसूरत सीढ़ियां थीं जिन पर जाने में बाग का दूसरा हिस्सा दिखाई देता था और इन्हीं सीढ़ियों की राह दीवार के नीचे उतरकर उस हिस्से में आना पड़ता था, सिवा इसके और कोई दूसरा रास्ता उस बाग में जिसे हम दूसरा हिस्सा कहते हैं, जाने के लिए नहीं था। बाग के इसी दूसरे हिस्से में वह इमारत या कोठी थी, जिसमें मायारानी दरबार किया करती थी या जिसमें पहुंचकर नानक ने मायारानी को देखा था। पहले हिस्से की अपेक्षा यह हिस्सा विशेष खूबसूरत और सजा हुआ था। बाग के तीसरे हिस्से में जाने का रास्ता उसी मकान के अन्दर से था जिसमें मायारानी रहा करती थी। बाग के तीसरे हिस्से का हाल लिखना जरा मुश्किल है तथापि इमारत के बारे में इतना कह सकते हैं कि इस तीसरे हिस्से के बीचोंबीच में एक बहुत ऊंचा बुर्ज था। उस बुर्ज के चारों तरफ कई मकान थे जिनके दालानों, कोठरियों, कमरों और बारहदरियों तथा तहखानों का हाल इस जगह लिखना कठिन है, क्योंकि उन सभी का तिलिस्मी बातों से विशेष सम्बन्ध है। हां, इतना कह सकते हैं कि उसी बुर्ज में से बाग के चौथे हिस्से में जाने का रास्ता था, मगर इस बाग के चौथे हिस्से में क्या-क्या है, उसका हाल लिखते कलेजा कांपता है। इस जगह हम उसका जिक्र करना मुनासिब नहीं समझते, आगे जाकर किसी मौके पर वह हाल लिखा जायगा।
जब वह लौंडी असली बिहारीसिंह को जो बाग के फाटक पर आया था, लेने चली गई तो नकली बिहारीसिंह अर्थात् तेजसिंह ने मायारानी से कहा, ''इसे ईश्वर की कृपा ही कहना चाहिए कि वह शैतान ऐयार, जिसने मेरे साथ जबर्दस्ती की और ऐसी दवा खिलाई कि जिसके असर से मैं पागल ही हो गया था, घर बैठे फंदे में आ गया।''
मायारानी - ठीक है, मगर देखना चाहिए, यहां पहुंचकर क्या रंग लाता है।
बिहारीसिंह - जिस समय वह यहां पहुंचे सबके पहले हथकड़ी और बेड़ी उसके नजर करनी चाहिए जिससे मुझे देखकर भागने का उद्योग न करे।
मायारानी - जो मुनासिब हो करो, मगर मुझे यह आश्चर्य जरूर मालूम होता है कि वह ऐयार जब तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव कर ही चुका और तुम्हें पागल बनाकर छोड़ ही चुका था तो बिना अपनी सूरत बदले यहां क्यों चला आया ऐयारों से ऐसी भूल न होनी चाहिए, उसे मुनासिब था कि तुम्हारी या मेरे किसी और आदमी की सूरत बनाकर आता।
बिहारीसिंह - ठीक, मगर जो कुछ उसने किया वह भी उचित ही किया। मेरी या यहां के किसी और नौकर की सूरत बनाकर उसका यहां आना तब अच्छा होता जब मुझे गिरफ्तार रखता!
मायारानी - मैं यह भी सोचती हूं कि तुम्हें गिरफ्तार करके केवल पागल ही बनाकर छोड़ देने में उसने क्या फायदा सोचा था मेरी समझ में तो यह उसने भूल की।
इतना कहकर मायारानी ने टटोलने की नीयत से नकली बिहारीसिंह अर्थात् तेजसिंह पर एक तेज निगाह डाली। तेजसिंह भी समझ गये कि मायारानी को मेरी तरफ से कुछ शक हो गया है और इस शक को मिटाने के लिए वह किसी तरह की जांच जरूर करेगी, तथापि इस समय बिहारीसिंह (तेजसिंह) ने ऐसा गम्भीर भाव धारण किया कि मायारानी का शक बढ़ने न पाया। थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं और इसके बाद लौंडी असली बिहारीसिंह को लेकर आ पहुंची। आज्ञानुसार असली बिहारीसिंह पर्दे के बाहर बैठाया गया। अभी तक उसकी आंखों पर पट्टी बंधी हुई थी।
असली बिहारीसिंह की आंखों से पट्टी खोली गई और उसने चारों तरफ अच्छी तरह निगाह दौड़ाने के बाद कहा, ''बड़ी खुशी की बात है कि मैं जीता-जागता अपने घर में आ पहुंचा। (हाथ का इशारा करके) मैं इस बाग को और अपने साथियों को खुशी की निगाह से देखता हूं। इस बात का अफसोस नहीं है कि मायारानी ने मुझसे पर्दा किया क्योंकि जब तक मैं अपना बिहारीसिंह होना साबित न कर दूं, तब तक इन्हें मुझ पर भरोसा न करना चाहिए, मगर मुझे (हरनामसिंह की तरफ देखकर और इशारा करके) अपने इस अनूठे दोस्त हरनामसिंह पर अफसोस होता है कि इन्होंने मेरी कुछ भी परवाह न की और मुझे ढूंढ़ने का भी कष्ट न उठाया। शायद इसका सबब यह हो कि वह ऐयार मेरी सूरत बनाकर इनके साथ हो लिया हो, जिसने मुझे धोखा दिया। अगर मेरा खयाल ठीक है तो वह ऐयार यहां जरूर आया होगा, मगर ताज्जुब की बात है कि मैं चारों तरफ निगाह दौड़ाने पर भी उसे नहीं देखता। खैर, यदि यहां आया तो देख ही लूंगा कि बिहारीसिंह वह है या मैं हूं। केवल इस बाग के चौथे भाग के बारे में थोड़े सवाल करने से ही सारी कलई खुल जायगी।''
असली बिहारीसिंह की बातों ने, जो इस जगह पहुंचने के साथ ही उसने कहीं सभी पर अपना असर डाला। मायारानी के दिल पर तो उनका बहुत ही गहरा असर पड़ा, मगर उसने बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हाला और तब एक निगाह तेजसिंह के ऊपर डाली। तेजसिंह को यह क्या खबर थी कि यहां कोई ऐसा विचित्र बाग देखने में आवेगा और उसके भाग अथवा दर्जों के बारे में सवाल किये जायेंगे। उन्होंने सोच लिया कि अब मामला बेढब हो गया, काम निकालना अथवा राजकुमारों को छुड़ाना तो दूर रहा कोई दूसरा उद्योग करने के लिए मेरा बचकर यहां से निकल जाना भी मुश्किल हो गया, क्योंकि मैं किसी तरह उसके सवालों का जवाब नहीं दे सकता और न उस बाग के गुप्त भेदों की मुझे खबर ही है।
असली बिहारीसिंह अपनी बात कहकर चुप हो गया और इस फिक्र में हुआ कि मेरी बात का कोई जवाब दे ले तो मैं कुछ कहूं, मगर मायारानी की आज्ञा बिना कोई भी उसकी बातों का जवाब न दे सकता था। चालाक और धूर्त मायारानी न मालूम क्या सोच रही थी कि आधी घड़ी तक उसने सिर न उठाया। इसके बाद उसने एक लौंडी की तरफ देखकर कहा, ''हरनामसिंह को यहां बुलाओ!''
हरनामसिंह पर्दे के अन्दर आया और मायारानी के सामने खड़ा हो गया।
मायारानी - यह ऐयार जो अभी आया है और बड़ी तेजी से बोलकर चुप बैठा है बड़ा ही शैतान और धूर्त मालूम होता है। मैं उससे बहुत-कुछ पूछना चाहती हूं परंतु इस समय मेरे सिर में दर्द है, बात करना या सुनना मुश्किल है। तुम इस ऐयार को ले जाओ, चार नम्बर के कमरे में इसके रहने का बन्दोबस्त कर दो, जब मेरी तबीयत ठीक होगी तो देखा जायेगा।
हरनामसिंह - बहुत मुनासिब है, और मैं सोचता हूं कि बिहारीसिंह को भी...
मायारानी - हां, बिहारीसिंह भी दो-चार दिन इसी बाग में रहें तो ठीक है, क्योंकि यह इस समय बहुत ही कमजोर और सुस्त हो रहे हैं। यहां की आबहवा से दो-तीन दिन में यह ठीक हो जायेंगे। इनके लिए बाग के तीसरे हिस्से का दो नम्बर वाला कमरा ठीक है जिसमें तुम रहा करते हो।
हरनामसिंह - मैं सोचता हूं कि पहले बिहारीसिंह का बन्दोबस्त कर लूं, तब शैतान ऐयार की फिक्र करूं।
मायारानी - हां, ऐसा ही होना चाहिए।
हरनामसिंह - (नकली बिहारीसिंह अर्थात् तेजसिंह की तरफ देखकर) चलिए उठिये।
यद्यपि तेजसिंह को विश्वास हो गया कि अब बचाव की सूरत मुश्किल है तथापि उन्होंने हिम्मत न हारी और अपनी कार्रवाई सोचने से बाज न आए। इस समय चुपचाप हरनामसिंह के साथ चले जाना ही उन्होंने मुनासिब जाना।
तेजसिंह को साथ लेकर हरनामसिंह उस कोठरी में पहुंचा जिसमें सुरंग का रास्ता था। इस कोठरी में दीवार के साथ लगी हुई छोटी-छोटी कई आलमारियां थीं। हरनामसिंह ने उनमें से एक आलमारी खोली, मालूम हुआ कि यह दूसरी कोठरी में जाने का दरवाजा है। हरनामसिंह और तेजसिंह दूसरी कोठरी में गये। यह कोठरी बिल्कुल अंधेरी थी अस्तु तेजसिंह को मालूम न हुआ कि यह कितनी लम्बी और चौड़ी है। दस-बारह कदम आगे बढ़कर हरनामसिंह ने तेजसिंह की कलाई पकड़ी और कहा, ''बैठ जाइये।'' यहां की जमीन कुछ हिलती हुई मालूम हुई और इसके बाद इस तरह की आवाज आई, जिससे तेजसिंह ने समझा कि हरनामसिंह ने किसी कल या पुर्जे को छेड़ा है।
वह जमीन का टुकड़ा जिस पर दोनों ऐयार बैठे थे यकायक नीचे की तरफ धंसने लगा और थोड़ी देर के बाद ही किसी दूसरी जमीन पर पहुंचकर ठहर गया। हरनामसिंह ने हाथ पकड़कर तेजसिंह को उठाया और दस कदम आगे बढ़ाकर हाथ छोड़ दिया, इसके बाद फिर घड़घड़ाहट की आवाज आई जिससे तेजसिंह ने समझ लिया कि वह जमीन का टुकड़ा जो नीचे उतर आया था फिर ऊपर की तरफ चढ़ गया। यहां तेजसिंह को सामने की तरफ कुछ उजाला मालूम हुआ। ये उसी तरफ बढ़े मगर अपने साथ हरनामसिंह के आने की आहट न पाकर उन्होंने हरनामसिंह को पुकारा पर कुछ जवाब न मिला। अब तेजसिंह को विश्वास हो गया कि हरनामसिंह मुझे इस जगह कैद करके चलता बना, लाचार वे उसी तरफ रवाना हुए जिधर कुछ उजाला मालूम होता था। लगभग पचास कदम तक चलते जाने के बाद दरवाजा मिला और उसके पार होने पर तेजसिंह ने अपने को एक बाग में पाया।
यह बाग भी हरा-भरा था, और मालूम होता था कि इसकी रविशों पर अभी छिड़काव किया गया है मगर माली या किसी दूसरे आदमी का नाम भी न था। इस बाग में बनिस्बत फूलों के मेवों के पेड़ बहुत ज्यादा थे और एक छोटी-सी नहर भी जारी थी जिसका पानी मोती की तरह साफ था, सतह की कंकड़ियां भी साफ दिखाई देती थीं। बाग के बीचोंबीच में एक ऊंचा बुर्ज था और उसके चारों तरफ कई मकान, कमरे और दालान इत्यादि थे जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं। तेजसिंह सुस्त और उदास होकर नहर के किनारे बैठ गए और न मालूम क्या-क्या सोचने लगे। और चाहे जो कुछ भी हो मगर अब तेजसिंह इस योग्य न रहे कि अपने को बिहारीसिंह कहें। उनकी बची-बचाई कलई भी हरनामसिंह के साथ इस बाग में आने से खुल गई। क्या बिहारीसिंह तेजसिंह की तरह चुपचाप हरनामसिंह के साथ अनजान आदमियों की तरह चला आता! क्या मायारानी अथवा उसका कोई ऐयार अब तेजसिंह को बिहारीसिंह समझ सकता है कभी नहीं, कभी नहीं! इन सब बातों को तेजसिंह भी बखूबी समझ सकते थे और उन्हें विश्वास हो गया कि अब हम कैद कर लिए गये।
थोड़ी देर बाद यहां के मकानों को घूम-घूमकर देखने के लिए तेजसिंह उठे, मगर सिवाय एक कमरे के जिसके दरवाजे पर मोटे अक्षर में दो (2) का अंक लिखा हुआ था बाकी सब कमरे और मकान बन्द पाये। दो का नम्बर देखते ही तेजसिंह को ध्यान आया कि मायारानी ने इसी कमरे में मुझे रखने का हुक्म दिया है। उस कमरे में एक दरवाजा और छोटी-छोटी कई खिड़कियां थीं, अन्दर फर्श बिछा हुआ और कई तकिये भी मौजूद थे। तेजसिंह को भूख लगी हुई थी, बाग में मेवों की कमी न थी, उन्हीं से पेट भरा और नहर का पानी पीकर उसी दो नम्बर वाले कमरे को अपना मकान या कैदखाना समझा।
बयान - 3
रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। तेजसिंह उसी दो नम्बर वाले कमरे के बाहर सहन में तकिया लगाये सो रहे हैं। चिराग बालने का कोई सामान यहां मौजूद नहीं जिससे रोशनी करते, पास में कोई आदमी नहीं जिससे दिल बहलाते। बाग से बाहर निकलने की उम्मीद नहीं कि कुमारों को छुड़ाने के लिए कोई बन्दोबस्त करते, लाचार तरह-तरह के तरद्दुदों में पड़े उन पेड़ों पर नजर दौड़ा रहे थे जो सहन के सामने बहुतायत से लगे हुए थे।
यकायक पेड़ों की आड़ में रोशनी मालूम पड़ी। तेजसिंह घबड़ाकर ताज्जुब के साथ उसी तरफ देखने लगे। थोड़ी ही देर में मालूम हुआ कि कोई आदमी हाथ में चिराग लिए तेजी के साथ कदम बढ़ाता उनकी तरफ आ रहा है। देखते-देखते वह आदमी तेजसिंह के पास आ पहुंचा और चिराग एक तरफ रखकर सामने खड़ा हो के बोला, ''जय माया की!''
यह आदमी सिपाहियाना ठाठ में था। छोटी-छोटी स्याह दाढ़ी से इसके चेहरे का ज्यादा हिस्सा ढंका हुआ था, दर्म्याना कद और शरीर से हृष्ट-पुष्ट था। तेजसिंह ने भी यह समझकर कि कोई ऐयार है जवाब में कहा, ''जय माया की!''
सिपाही - (जो अभी आया है) उस्ताद, तुमने चालाकी तो खूब की थी मगर जल्दी करके काम बिगाड़ दिया।
तेजसिंह - चालाकी क्या और जल्दी कैसी?
सिपाही - इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि मायारानी के बाग में रूप बदलकर आने वाला ऐयार पागल बने बिना किसी दूसरी रीति से काम चला ही नहीं सकता था परन्तु आपने जल्दी कर दी, दो-चार दिन और पागल बने रहते तो ठीक था, असली बिहारीसिंह की बातों का जवाब आपको न देना पड़ता और इस बाग के तीसरे या चौथे हिस्से का भेद भी आपसे न पूछा जाता, अब तो सभी को मालूम हो गया कि आप असली बिहारीसिंह नहीं बल्कि कोई ऐयार हैं।
तेजसिंह - सब लोग जो चाहे समझें मगर तुम मेरे पास क्यों आये हो?
सिपाही - इसीलिए कि आपका हाल जानूं और जहां तक हो सके आपकी मदद करूं।
तेजसिंह - मैं अपना हाल सिवाय इसके और क्या कहूं कि मैं वास्तव में बिहारीसिंह हूं।
सिपाही - (हंसकर) क्या खूब, अभी तक आपका मिजाज ठिकाने नहीं हुआ! मगर मैं फिर कहता हूं कि मुझ पर भरोसा कीजिये और अपना ठीक-ठीक नाम बताइए।
तेजसिंह - जब तुम यह समझते हो कि मैं ऐयार हूं तो क्या यह नहीं जानते कि ऐयार लोग किसी ऐसे बतोलिए पर जैसे कि आप हैं यकायक कैसे भरोसा कर सकते हैं
सिपाही - हां, आपका कहना ठीक है, ऐयारों को यकायक किसी का विश्वास न करना चाहिए, मगर मेरे पास एक ऐसी चीज है कि आपको झख मारकर मुझ पर भरोसा करना पड़ेगा।
तेजसिंह - (ताज्जुब से) वह ऐसी कौन-सी अनोखी चीज तुम्हारे पास है जिसमें इतना बड़ा असर है कि मुझे झख मारकर तुम पर भरोसा करना पड़ेगा
सिपाही - नेमची रिक्तग्रन्थ!1
1. नेमची रिक्तग्रन्थ - यह ऐयारी भाषा का शब्द है, इसका अर्थ है - खून से लिखी किताब का घर।
'नेमची रिक्तग्रन्थ' इस शब्द में न मालूम कैसा असर था कि सुनते ही तेजसिंह के रोंगटे खड़े हो गए, सिर नीचा कर लिया और न जाने क्या सोचने लगे। थोड़ी देर तक तो ऐसा मालूम होता था कि वह तेजसिंह नहीं हैं बल्कि पत्थर की कोई मूरत हैं। आखिर वे एक लम्बी सांस लेकर उठ खड़े हुए और सिपाही का हाथ पकड़कर बोले, ''अब कहो तुम्हें मैं अपने साथियों में से कोई समझूं या अपना पक्का दुश्मन जानूं'?
सिपाही - दोनों में से कोई भी नहीं।
तेजसिंह - यह और भी ताज्जुब की बात है! (कुछ सोचकर) हां, ठीक है, यदि तुम चोर होते तो इतनी दिलावरी के साथ मुझसे बातें न करते, न मेरे सामने ही आते, लेकिन यह तो मालूम होना चाहिए कि तुम हो कौन, क्या रिक्तग्रन्थ तुम्हारे पास है?
सिपाही - जी नहीं, यदि वह मेरे पास होता तो अब तक राजा वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंच गया होता।
तेजसिंह - फिर यह शब्द तुमने कहां से सुना?
सिपाही - यह वही शब्द है जिसे आप लोग समय पड़ने पर आपस में कहकर इस बात का परिचय देते हैं कि हम राजा वीरेन्द्रसिंह के दिली दोस्तों में से कोई हैं।
तेजसिंह - हां बेशक यह वही शब्द है, तो क्या तुम राजा वीरेन्द्रसिंह के दिली दोस्तों में से कोई हो।
सिपाही - नहीं, हां, होंगे।
तेजसिंह - (चिढ़कर) तुम अजब मसखरे हो जी, साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि तुम कौन हो?
सिपाही - (हंसकर) क्या उस शब्द के कहने पर भी आप मुझ पर भरोसा न करेंगे?
तेजसिंह - (मुंह बनाकर और बात पर जोर देकर) हाय-हाय, कह तो दिया कि भरोसा किया, भरोसा किया, भरोसा किया! झख मारा और भरोसा किया! अब भी कुछ कहोगे या नहीं अपना नाम बताओगे या नहीं?
सिपाही - अच्छा तो आप ही पहले अपना परिचय दीजिये।
तेजसिंह - मैं तेजसिंह हूं, बस हुआ अब भी तुम अपना कुछ परिचय दोगे या नहीं?
सिपाही - हां-हां, अब मैं अपना परिचय दूंगा, मगर पहले एक बात का जवाब और दीजिये।
तेजसिंह - अभी एक आंच की कसर रह गई, अच्छा पूछिये।
सिपाही - यदि कोई ऐसा आदमी आपके सामने आवे जो आपसे मुहब्बत रखे, आपके काम में दिलोजान से मदद दे, आपकी भलाई के लिए जान तक देने को तैयार रहे, मगर उसके बाप-दादा या चाचा-भाई आदि में से कोई आदमी आपके साथ पूरी-पूरी दुश्मनी कर चुका हो तो आप उसके साथ कैसा बर्ताव करेंगे?
तेजसिंह - जो मेरे साथ नेकी करेगा उसके साथ मैं दोस्ती का बर्ताव करूंगा, चाहे उसके बाप-दादे मेरे साथ पूरी दुश्मनी क्यों न कर चुके हों।
सिपाही - ठीक है ऐसा ही करना चाहिए, अच्छा तो फिर सुनिए - मेरा नाम नानक है और मकान काशीजी।
तेजसिंह - नानक!
सिपाही - जी हां। मेरा किस्सा बहुत ही अनूठा और आश्चर्यजनक है।
तेजसिंह - मैंने यह नाम कहीं सुना है मगर याद नहीं पड़ता कि कब और क्यों सुना। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारा हाल आश्चर्य और अद्भुत घटनाओं से भरा होगा। मेरी तबीयत घबड़ा रही है, जितनी जल्दी हो सके अपना ठीक-ठीक हाल कहो।
नानक - दिल लगाकर सुनिये मैं कहता हूं, यद्यपि उस काम में देर हो जायेगी जिसके लिए मैं आया हूं तथापि मेरा किस्सा सुनकर आप अपना काम बहुत आसानी से निकाल सकेंगे और यहां की बहुत-सी बातें भी आपको मालूम हो जायेंगी।
नानक का किस्सा
लड़कपन में बड़े चैन से गुजरती थी। मेरे घर में किसी चीज की कमी न थी। खाने के लिए अच्छी-से-अच्छी चीजें, पहनने के लिए एक-से-एक बढ़ के कपड़े और वे सब चीजें मुझे मिला करतीं जिनकी मुझे जरूरत होती या जिनके लिए मैं जिद किया करता। मां से मुझे बहुत ज्यादा मुहब्बत थी और बाप से कम क्योंकि मेरा बाप किसी दूसरे शहर में किसी राजा के यहां नौकर था, चौथे-पांचवें महीने और कभी-कभी साल भर पीछे घर में आता और दस-पांच दिन रहकर चला जाता था। उसका पूरा हाल आगे चलकर आपको मालूम होगा। मेरा बाप मेरी मां को बहुत चाहता था और जब घर आता तो बहुत-सा रुपया और अच्छी-अच्छी चीजें उसे दे जाया करता था और इसलिए हम लोग अमीरी ठाठ के साथ अपने दिन बिताते थे।
मैं जिस बुड्ढी दाई की गोद में खेला करता था वह बहुत ही नेक थी और उसकी बहिन एक जमींदार के यहां जिसका घर मेरे पड़ोस में था रहती और उसकी लड़की को खिलाया करती थी। मेरी दाई कभी मुझे लेकर उस जमींदार के घर जा बैठा करती और कभी उसकी बहिन उस लड़की को लेकर जिसके खिलाने पर वह नौकर थी, मेरे घर आ बैठा करती इसलिए मेरा और उस लड़की का रोज साथ रहता तथा धीरे-धीरे हम दोनों में मुहब्बत दिन-दिन बढ़ने लगी। उस लड़की का नाम, जो मुझसे उम्र में दो वर्ष कम थी, रामभोली था और मेरा नाम नानक, मगर घर वाले मुझे ननकू कहके पुकारा करते। वह लड़की बहुत खूबसूरत थी मगर जन्म की गूंगी-बहरी थी तथापि हम दोनों की मुहब्बत का यह हाल था कि उसे देखे बिना मुझे और मुझे देखे बिना उसे चैन न पड़ता। गुरु के पास बैठकर पढ़ना मुझे बहुत बुरा मालूम होता और उस लड़की से मिलने के लिए तरह तरह के बहाने करने पड़ते।
धीरे-धीरे मेरी उम्र दस वर्ष की हुई और मैं अपने-पराये को अच्छी तरह समझने लगा। मेरे पिता का नाम रघुबरसिंह था। बहुत दिनों पर उसका घर आया करना मुझे बहुत बुरा मालूम हुआ और मैं अपनी मां से उसका हाल खोद-खोदके पूछने लगा। मालूम हुआ कि वह अपना हाल बहुत छिपाता है यहां तक कि मेरी मां भी उसका पूरा-पूरा हाल नहीं जानती तथापि यह मालूम हो गया कि मेरा बाप ऐयार है और किसी राजा के यहां नौकर है। यह भी सुना कि वहां मेरी एक सौतेली मां भी रहती है जिससे एक लड़का और एक लड़की भी है।
मेरा बाप जब आता तो महीने-दो महीने या कभी-कभी केवल आठ ही दस दिन रहकर चला जाता और जितने दिन रहता, मुझे ऐयारी सिखाने में विशेष ध्यान देता। मुझे भी पढ़ने-लिखने से ज्यादा खुशी ऐयारी सीखने में होती, क्योंकि रामभोली से मिलने तथा अपना मतलब निकालने के लिए ऐयारी बड़ा काम देती थी। धीरे-धीरे लड़कपन का जमाना बहुत-कुछ निकल गया और वे दिन आ गये कि जब लड़कपन नौजवानी के साथ ऊधम मचाने लगा और मैं अपने को नौजवान और ऐयार समझने लगा।
एक रात मैं अपने घर में नीचे के खण्ड में कमरे के अन्दर चारपाई पर लेटा हुआ रामभोली के विषय में तरह-तरह की बातें सोच रहा था। इश्क की चपेट में नींद हराम हो गई थी, दीवार के साथ लटकती हुई तस्वीरों की तरफ टकटकी बांधकर देख रहा था, यकायक ऊपर की छत पर धमधमाहट की आवाज आने लगी। मैं यह सोचकर निश्चिन्त हो रहा कि शायद कोई लौंडी जरूरी काम के लिए उठी होगी उसी के पैरों की धमधमाहट मालूम होती है मगर थोड़ी देर बाद ऐसा मालूम हुआ कि सीढ़ियों की राह कोई आदमी नीचे उतरा चला आता है। पैर की आवाज भारी थी जिससे मालूम हुआ कि यह कोई मर्द है। मुझे ताज्जुब मालूम हुआ कि इस समय मर्द इस मकान में कहां से आया क्योंकि मेरा बाप घर में न था, उसे नौकरी पर गए हुए दो महीने से ज्यादा हो चुके थे।
मैं आहट लेने और कमरे से बाहर निकलकर देखने की नीयत से उठ बैठा। चारपाई की चरमराहट और मेरे उठने की आहट पाकर यह आदमी फुर्ती से उतरकर चौक में पहुंचा और जब तक मैं कमरे के बाहर होकर उसे देखूं, तब तक वह सदर दरवाजा खोलकर मकान के बाहर निकल गया। मैं हाथ में खंजर लिये हुए मकान के बाहर निकला और उस आदमी को जाते हुए देखा। उस समय मेरे नौकर और सिपाही, जो दरवाजे पर रहा करते थे, बिल्कुल गाफिल सो रहे थे मगर मैं उन्हें सचेत करके उस आदमी के पीछे रवाना हुआ।
मैं नहीं कह सकता कि उस आदमी को, जो स्याह कपड़ा ओढ़े मेरे घर से निकला था, यह खबर थी या नहीं कि मैं उसके पीछे-पीछे आ रहा हूं क्योंकि वह बड़ी बेफिक्री से कदम बढ़ाता हुआ मैदान की तरफ जा रहा था।
थोड़ी दूर जाने के बाद मुझे यह भी मालूम हुआ कि यह आदमी अपनी पीठ पर एक गठरी लादे हुए है जो एक स्याह कपड़े के अन्दर है। अब मुझे विश्वास हो गया कि यह चोर है और इसने जरूर मेरे यहां चोरी की है। जी मैं तो आया कि गुल मचाऊं जिसमें बहुत-से आदमी इकट्ठे होकर उसे गिरफ्तार कर लें, मगर कई बातें सोचकर चुप ही रहा और उसके पीछे-पीछे जाना ही उचित समझा।
घण्टे भर तक बराबर मैं उस आदमी के पीछे-पीछे चला गया, यहां तक कि वह शहर के बाहर मैदान में एक ऐसी जगह जा पहुंचा जहां इमली के बड़े-बड़े पेड़ इतने ज्यादा लगे हुए थे कि उनके सबब से मामूली से विशेष अंधकार हो रहा था। जब मैं उन घने पेड़ों के बीच पहुंचा तो मालूम हुआ कि यहां लगभग दस-बारह आदमियों के और भी हैं जो एक समाधि की बगल में बैठे धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। वह आदमी उसी जगह पहुंचा और उन लोगों में से दो ने बढ़कर पूछा, ''कहो, अबकी दफे किसे लाए' इसके जवाब में उस आदमी ने कहा, ''नानक की मां को।''
आप खयाल कर सकते हैं कि इस शब्द को सुनकर मेरे दिल पर कैसी चोट लगी होगी। अब तक तो मैं यही समझ रहा था कि वह चोर मेरे यहां से माल-असबाब चुराकर लाया है जिसकी मुझे विशेष परवाह न थी और मैं उसका पूरा-पूरा हाल जानने की नीयत से चुपचाप उसके पीछे-पीछे चला गया था, मगर जब यह मालूम हुआ कि वह कम्बख्त मेरी मां को चुरा लाया है तो मुझे बड़ा ही रंज हुआ। और मैं इस बात पर अफसोस करने लगा कि उसे यहां तक आने का मौका क्यों दिया, क्योंकि अब इस समय यहां मेरे किये कुछ भी नहीं हो सकता था। चारों तरफ ऐसा सन्नाटा था कि अगर गला फाड़कर चिल्लाता तो भी मेरी आवाज किसी के कान तक न पहुंचती, इसके अतिरिक्त वे लोग गिनती में भी ज्यादा थे, किसी तरह उनका मुकाबला नहीं कर सकता था, लाचार उस समय बड़ी मुश्किल से मैंने अपने दिल को सम्हाला और चुपचाप एक पेड़ की आड़ में खड़े रहकर उन लोगों की कार्रवाई देखने और यह सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए।
वह समाधि जो औंधी हांडी की तरह थी, बहुत बड़ी तथा मजबूत बनी हुई थी और मुझे उसी समय यह भी मालूम हो गया कि उसके अन्दर जाने के लिए कोई रास्ता भी है क्योंकि मेरे देखते-देखते वे सब-के-सब उसी समाधि के अन्दर घुस गए और जब तक मैं रहा, बाहर न निकले।
घण्टे भर तक राह देखकर मैं उस समाधि के पास गया और उसके चारों तरफ घूम- घूमकर अच्छी तरह देखने लगा मगर कोई दरवाजा या छेद ऐसा न दिखाई दिया जिस राह से कोई उसके अन्दर जा सकता और न मैंने उस जगह पर कोई दरवाजे का निशान ही पाया। मैं उस समाधि को अच्छी तरह जानता था, उसके बारे में कभी कोई बुरा खयाल किसी के दिल में न हुआ होगा। देहाती लोग वहां तरह-तरह की मन्नतें मानते और प्रायः पूजा करने के लिए आया करते थे परन्तु मुझे आज मालूम हुआ कि वह वास्तव में समाधि नहीं, बल्कि खूनियों का अड्डा है।
मैंने बहुत सिर पीटा मगर कुछ काम न निकला, लाचार यह सोचकर घर की तरफ लौटा कि पहले लोगों को इस मामले की खबर करूं और इसके बाद आदमियों को साथ लाकर इस समाधि को खुदवा अपनी मां और बदमाशों का पता लगाऊं।
रात बहुत थोड़ी रह गई थी जब मैं घर पहुंचा। मैं चाहता था कि अपनी परेशानी का हाल नौकरों से कहूं, मगर वहां तो मामला ही दूसरा था। वह बूढ़ी दाई जिसने मुझे गोद में खिलाया था और अब बहुत ही बूढ़ी और कमजोर हो रही थी, इस समय दरवाजे पर बैठे नौकरों पर खफा हो रही थी और कह रही थी कि आधी रात के समय तुमने लड़के को अकेले क्यों जाने दिया तुम लोगों में से कोई आदमी उसके साथ क्यों न गया इतने ही में मुझे देख नौकरों ने कहा, ''लो ननकू बाबू आ गये, खफा क्यों होती हो!''
मैंने पास जाकर कहा, ''क्या है जो हल्ला मचा रही हो'?
दाई - है क्या, चुपचाप न जाने कहां चले गये, न किसी से कुछ कहा न सुना! तुम्हारी मां बेचारी रो-रोकर जान दे रही है! ऐसा जाना किस काम का कि एक आदमी भी साथ न ले गए, जा के अपनी मां का हाल तो देखो।
मैं - मां कहां है?
दाई - घर में है और कहां है, तुम जाओ तो सही!
दाई की बात सुनकर मैं बड़ी हैरानी में पड़ गया। वहां उस चोर ऐयार की जुबानी जो कुछ सुना था उससे तो साफ मालूम हुआ था कि वह मेरी मां को गिरफ्तार करके ले गया है, मगर घर पहुंचकर सुनता हूं कि मां यहां मौजूद है! खैर, मैंने अपने दिल का हाल किसी से न कहा और चुपचाप मकान के अन्दर उस कमरे में पहुंचा जिसमें मेरी मां रहती थी। देखा कि वह चारपाई पर पड़ी रो रही है, उसका सिर फटा हुआ है और उसमें से खून बह रहा है, एक लौंडी हाथ में कपड़ा लिए खून पोंछ रही है। मैंने घबड़ाकर पूछा, ''यह क्या हाल है! सिर कैसे फट गया'
मां - मैंने जब सुना कि तुम घर में नहीं हो तुम्हें ढूंढ़ने के लिए घबड़ाकर नीचे उतरी, अकस्मात् सीढ़ी पर गिर पड़ी। तुम कहां गये थे!
मैं - मैं घर में से एक चोर को कुछ असबाब लेकर बाहर जाते देखकर उसके पीछे-पीछे चला गया था?
मां - (कुछ घबराकर) क्या यहां से किसी चोर को बाहर जाते देखा था?
मैं - हां, कहा तो कि उसी के पीछे-पीछे मैं गया था।
मां - तुम उसके पीछे - पीछे कहां तक गए क्या उसका घर देख आए?
मैं - नहीं, थोड़ी दूर जाने के बाद गलियों में घूम-फिरकर न मालूम वह कहां गायब हो गया, मैंने बहुत ढूंढ़ मगर पता न लगा। आखिर लाचार होकर लौट आया। (लौंडी की तरफ देखकर) कुछ मालूम हुआ, घर में से क्या चीज चोरी हो गई|
लौंडी - (ताज्जुब में आकर और चारों तरफ देखकर) यहां से तो कोई चीज चोरी नहीं गई।
यह जवाब सुन मैं चुपचाप नीचे उतर आया और घर में चारों तरफ घूम-घूमकर देखने लगा। जिस घर में खजाना रहता था, उसमें भी ताला बन्द पाया और कई कीमती चीजें जो मामूली तौर पर भण्डेरियों और खुली आलमारियों में पड़ी रहा करती थीं, ज्यों की त्यों मौजूद पाईं। लाचार मैं अपनी चारपाई पर जाकर लेट रहा और तरह-तरह की बातें सोचने लगा। उस समय रात बीत चुकी थी और सुबह की सफेदी घर में घुसकर कह रही थी कि अब थोड़ी ही देर में सूर्य भगवान निकलना चाहते हैं।
इस बात को कई महीने बीत गये। मैंने अपने दिल का हाल और वे बातें जो देखी-सुनी थीं, किसी से न कहीं। हां, छिपे-छिपे तहकीकात करता रहा कि असल मामला क्या है। चाल-चलन, बातचीत और मुहब्बत की तरफ ध्यान देने से मुझे निश्चय हो गया कि मेरी मां जो घर में है, वह असल में मेरी मां नहीं है बल्कि कोई ऐयार है। मैं छिपे-छिपे अपनी मां की खोज करने लगा और इस विषय पर ध्यान देने लगा कि वह ऐयार घर में मेरी मां बनकर क्यों रहती है और उसकी नीयत क्या है इसके अलावे मैं अपनी जान की हिफाजत भी अच्छी तरह करने लगा। इस बीच में रामभोली ने मुझसे मुहब्बत ज्यादा बढ़ा दी। यद्यपि उसकी चाल-चलन में मुझे कुछ फर्क मालूम होता था। परन्तु मुहब्बत ने मुझे अन्धा बना रखा था और मैं उसका पूरा आशिक बन गया था।
एक पढ़ी-लिखी बुद्धिमान नौजवान औरत ने जिम्मा लिया हुआ था कि यद्यपि रामभोली गूंगी और बहरी है, परन्तु वह उसे इशारे ही में समझा-बुझाकर पढ़ना-लिखना सिखा देगी और वास्तव में उस औरत ने बड़ी चालाकी से रामभोली को पढ़ना-लिखना सिखा दिया। उसी औरत के हाथ रामभोली की लिखी चीठी मेरे पास आती और मैं उसी के हाथ जवाब भेजा करता था। ऊपर कही वारदात के कुछ दिन बाद ही जो चीठियां रामभोली की मेरे पास आने लगीं, उनके अक्षरों का रंग-ढंग और गढ़न कुछ निराले ही तौर की थी परन्तु मैंने उस समय उस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया।
अब ऊपर वाले मामले को छह महीने से ज्यादा गुजर गये। इस बीच में मेरा बाप कई दफे घर पर आया और थोड़े-थोड़े दिन रहकर चला गया। घर की बातों में सिर्फ इतना फर्क पड़ा कि मेरा बाप मेरी मां से मुहब्बत ज्यादा करने लगा, मगर मेरी नकली मां तरह-तरह की बेढब फरमाइशों से उसे तंग करने लगी।
एक दिन जब मेरा बाप घर ही में था, आधी रात के समय मेरे बाप और मेरी मां में कुछ खटपट होने लगी। उस समय मैं जागता था। मेरे जी में आया कि किसी तरह इस झगड़े का सबब मालूम करना चाहिए। आखिर ऐसा ही किया, मैं चुपके से उठा और धीरे-धीरे उस कमरे के पास गया जिसके अन्दर वे दोनों जली-कटी बातें कर रहे थे। उस कमरे में तीन दरवाजे थे, जिनमें से एक खुला हुआ मगर उसके आगे पर्दा गिरा हुआ था और दो दरवाजे बन्द थे। मैं एक बन्द दरवाजे के आगे जाकर (जो खुले दरवाजे के ठीक दूसरी तरफ था) लेट रहा और उन दोनों की बातें सुनने लगा। जो कुछ मैंने सुना, उसे ठीक-ठीक बयान करता हूं -
मां - जब तुम्हें मेरा विश्वास नहीं तो किस मुंह से कहते हो कि मैंने तेरे लिए यह किया और वह किया?
बाप - बेशक, मैंने तेरे लिए अपनी जान खतरे में डाली और जन्म भर के लिए अपने नाम पर धब्बा लगाया, और अब तू चाहती है कि मैं न मरने लायक रहूं और न जीते रहकर किसी को मुंह दिखा सकूं।
मां - अपने मुंह से तुम जो भी चाहे कहो, मगर मैं ऐसा नहीं चाहती जो तुम कहते हो। क्या मैं वह किताब खा जाऊंगी या किसी दूसरे को दे दूंगी जाओ, अपनी किताब ले जाओ और अपनी चहेती बेगम को नजर कर दो!
बाप - मेरी वह जोरू जिसे तुम ताना देकर बेगम कहती हो तुम्हारे ऐसी जिद्दी नहीं। उसने मुझे राजा वीरेन्द्रसिंह के यहां चोरी करने के लिए नहीं कहा और न वह तिलिस्म का तमाशा ही देखना चाहती है।
मां - उसको इतना दिमाग नहीं, कंगाल की लड़की का हौसला ही कितना!
बाप - हां, बेशक उसका इतना बड़ा हौसला नहीं कि मेरी जान की ग्राहक बन बैठे।
इसके बाद थोड़ी-सी बातें बहुत ही धीरे-धीरे हुईं जिन्हें मैं अच्छी तरह सुन न सका। अन्त में मेरा बाप इतना कहकर चुप हो रहा - ''खैर, फिर जो कुछ भाग्य में बदा है वह भोगूंगा। लो यह खूनी किताब तुम्हारे हवाले करता हूं, पांच रोज में लौट के आऊंगा, तो तिलिस्म का तमाशा दिखा दूंगा और फिर यह किताब राजा वीरेन्द्रसिंह के यहां किसी ढंग से पहुंचा दूंगा।''
मैं यह सोचकर कि अब मेरा बाप बाहर निकलना ही चाहता है, उठ खड़ा हुआ और चुपचाप नीचे उतर अपने कमरे में चला आया। मगर मेरे दिल की अजब हालत थी। मैं खूब जानता था कि वह मेरी मां नहीं है और अब तो मालूम हो गया कि उस कम्बख्त के फेर में पड़कर मेरा बाप अपने ऊपर कोई आफत लाना चाहता है, इसलिए मैं सोचने लगा कि किसी तरह अपने बाप को इसके फरेब से बचाना और अपनी असली मां का पता लगना चाहिए।
दो घण्टे बीत गये, मगर मेरा बाप नीचे न उतरा। मेरी चिन्ता और भी बढ़ गई। मैं सोचने लगा कि शायद फिर कुछ खटपट होने लगी। आखिर मुझसे रहा न गया, मैंने अपने कमरे से बाहर निकलके बाप को आवाज दी। आवाज सुनते ही वे मेरे पास चले आये और धीरे-से बोले, ''क्यों बेटा, क्या है'?
मैं - आपसे एक बात कहना चाहता हूं, मगर कुछ छिपाकर।
बाप - कहो, यहां तो कोई भी सुनने वाला नहीं है, ऐसा ही डर है तो ऊपर चले चलो।
मैं - (धीरे से) नहीं, मैं उस दुष्टा के सामने कुछ भी कहना नहीं चाहता जिसे आप मेरी मां समझते हैं।
बाप - (ताज्जुब में आकर) क्या वह तुम्हारी मां नहीं है?
मैं - नहीं।
बाप - आज क्या है, जो तुम ऐसी बातें कर रहे हो क्या उसने तुम्हें कुछ तकलीफ दी है
मैं - आप इस जगह मुझसे कुछ भी न पूछिये, निराले में जब मेरी बातें सुनियेगा तो असल भेद मालूम हो जायगा!
इतना सुनते ही मेरे बाप ने घबड़ाकर मेरा हाथ पकड़ लिया और मकान के अपने खास बैठके में ले जाकर दरवाजा बन्द करने के बाद पूछा, ''कहो, क्या बात है' मैंने वे कुल बातें जो देखी-सुनी थीं और जो ऊपर बयान कर चुका हूं कह सुनाईं जिनके सुनते ही मेरे बाप की अजब हालत हो गयी, चेहरे पर उदासी और तरद्दुद की निशानी मालूम होने लगी, थोड़ी देर तक चुप रहने और कुछ गौर करने के बाद बोले, ''बेशक धोखा हो गया! अब जो गौर करता हूं तो इस कम्बख्त की बातचीत और चाल-चलन में बेशक बहुत-कुछ फर्क पाता हूं। मगर अफसोस, तुमने इतने दिनों तक न मालूम क्या समझकर यह बात छिपा रखी और अपनी मां की तरफ से भी गाफिल रहे! न जाने वह बेचारी जीती भी है या इस दुनिया से ही उठ गयी!''
मैं - जरा-सा गौर करने पर आप खुद समझ सकते हैं कि इस बात को इतने दिनों तक मैं क्यों छिपाये रहा। मां की तरफ से भी गाफिल न रहा, जहां तक हो सका पता लगाने के लिए परेशान हुआ मगर अभी तक कोई अच्छा नतीजा न निकला। यद्यपि मुझे विश्वास है कि वह इस दुनिया में जीती-जागती मौजूद है।
बाप - तुम्हारा खयाल ठीक है और इसका सबूत इससे बढ़कर और क्या होगा कि एक ऐयार उसकी सूरत बनाकर अपना काम निकालना चाहती है और इस घर में अभी तक मौजूद है, जब तक इसका काम न निकलेगा, बेशक उसकी जान बची रहेगी। मगर अफसोस, मैंने बड़ा धोखा खाया और अपने को किसी लायक न रखा। अच्छा यह कहो कि इस समय तुम्हें क्या सूझी जो यह सब कहने के लिए तैयार हो गये
मैं - खुटका तो बहुत दिनों से लगा हुआ था मगर इस समय कुछ तकरार की आहट पाकर मैं ऊपर चढ़ गया और बड़ी देर तक छिपकर आप लोगों की बातें सुनता रहा, ज्यादा तो समझ में न आया, मगर इतना मालूम हो गया कि आप उसकी खातिर से राजा वीरेन्द्रसिंह के यहां से कोई किताब चुरा लाये हैं और अब कोई काम ऐसा करना चाहते हैं जो आपके लिए बहुत बुरे नतीजे पैदा करेगा। अस्तु, ऐसे समय में चुप रहना मैंने उचित न जाना। अब आप कृपा करके यह कहिए कि वह किताब जो आप चुरा लाये हैं, कैसी है
बाप - इस समय सब खुलासा हाल कहने का मौका तो नहीं है, परन्तु संक्षेप में कुछ हाल कह तुम्हें होशियार कर देना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि अब मेरी जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं। हां, अगर यह औरत तुम्हारी मां होती तो कोई हर्ज न था। वह एक प्राचीन समय की किसी के खून से लिखी हुई किताब है जो राजा वीरेन्द्रसिंह को बिक्रमी तिलिस्म से मिली थी। उस तिलिस्म में स्याह पत्थर के दालान में एक सिंहासन के ऊपर छोटा-सा पत्थर का एक सन्दूक था, जिसके छूने से आदमी बेहोश हो जाता था।
मैं - हां, यह किस्सा आप पहले भी मुझसे कह चुके हैं, बल्कि आपने यह भी कहा कि सिंहासन के ऊपर जो पत्थर था और जिसके छूने से आदमी बेहोश हो जाता था, वास्तव में वह एक सन्दूक था और उसके अन्दर से कोई नायाब चीज राजा वीरेन्द्रसिंह को मिली थी।
बाप - ठीक है, ठीक है, इस समय मेरी अक्ल ठिकाने नहीं है, इसी से बहुत-सी बातें भूल रहा हूं, हां तो उसी पत्थर के टुकड़े में से जिसे छोटा सन्दूक कहना चाहिए यह किताब और हीरे का एक सरपेंच निकला था।
मैं - उस किताब में क्या बात लिखी है?
बाप - उस किताब में उस तिलिस्म के भेद लिखे हुए हैं जो राजा वीरेन्द्रसिंह के हाथ से न टूट सका और जिसके विषय में मशहूर है कि राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के उस तिलिस्म को तोड़ेंगे।
मैं - यदि उस पुस्तक में उस भारी तिलिस्म के भेद लिखे हुए थे, तो राजा वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म को क्यों छोड़ दिया?
बाप - केवल उस किताब की सहायता से ही यह तिलिस्म नहीं टूट सकता। हां, जिसके पास वह पुस्तक हो, उसे उस तिलिस्म का कुछ हाल जरूर मालूम हो सकता है और यदि वह चाहे तो तिलिस्म में जाकर वहां की सैर भी कर सकता है। इस कम्बख्त औरत ने यही कहा कि मुझे तिलिस्म की सैर करा दो। उसी जिद ने मुझसे यह अपराध कराया, लाचार मैंने वह किताब चुराई। मैंने सोच लिया था कि इसकी इच्छा पूरी करने के बाद मैं वह पुस्तक जहां की तहां रख आऊंगा, मगर जब यह औरत कोई दूसरी ही है तो बेशक मुझे धोखा दिया गया है तथा इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि यह औरत उस तिलिस्म से कोई सम्बन्ध रखती है और यदि ऐसा है तो अब उस पुस्तक का मिलना मुश्किल है। अफसोस, जब मैं किताब चुराकर राजा वीरेन्द्रसिंह के शीशमहल से बाहर निकल रहा था तो उसके एक ऐयार ने मुझे देख लिया था। मैं मुश्किल से निकल भागा और यह सोचे हुए था कि यदि मैं पुस्तक फिर वहीं रख आऊंगा तो फिर मेरी खोज न होगी, मगर हाय, यहां तो कोई दूसरा ही रंग निकला।
मैं - आपने उस पुस्तक को पढ़ा था?
बाप - (आंखों में आंसू भरकर) उसका पहला पृष्ठ देख सका था, जिसमें इतना ही लिखा था कि जिसके कब्जे में यह पुस्तक रहेगी, उसे तिलिस्मी आदमियों के हाथ से दुःख नहीं पहुंच सकता। जो हो परन्तु अब इन बातों का समय नहीं है, यदि हो सके तो उस औरत के हाथ से किताब ले लेनी चाहिए, उठो और मेरे साथ चलो।
इतना कहकर मेरा बाप उठा, मकान के अन्दर चला, मैं भी उसके पीछे-पीछे था। अन्दर से मकान का दरवाजा बन्द कर लिया गया, मगर जब मेरा बाप ऊपर के कमरे में जाने लगा जहां मेरी मां रहा करती थी, तो मुझे सीढ़ी के नीचे खड़ा कर गया और कहता गया कि देखो जब मैं पुकारूं तो तुरन्त चले आना।
घण्टे भर तक मैं खड़ा रहा। इसके बाद छत पर धमधमाहट मालूम होने लगी, मानो कई आदमी आपस में लड़ रहे हों। अब मुझसे रहा न गया, हाथ में खंजर लेकर मैं ऊपर चढ़ गया और बेधड़क उस कमरे में घुस गया, जिसमें मेरा बाप था। इस समय धमधमाहट की आवाज बन्द हो गई थी और कमरे के अन्दर सन्नाटा था। भीतर की अवस्था देखकर मैं घबड़ा गया। वह औरत जो मेरी मां बनी हुई थी, वहां न थी। मेरा बाप जमीन पर पड़ा हुआ था, और उसके बदन से खून बह रहा था। मैं घबड़ाकर उसके पास गया और देखा कि वह बेहोश पड़ा है और उसके सिर और बाएं हाथ में तलवार की गहरी चोट लगी हुई है जिसमें से अभी तक खून निकल रहा है। मैंने अपनी धोती फाड़ी और पानी से जख्म धोकर बांधने के बाद बाप को होश में लाने की फिक्र करने लगा। थोड़ी देर बाद वह होश में आया और उठ बैठा।
मैं - मुझे ताज्जुब है कि एक औरत के हाथ से आप चोट खा गये!
बाप - केवल औरत ही न थी, यहां आने पर मैंने कई आदमी देखे जिनके सबब से यहां तक नौबत आ पहुंची। अफसोस, वह किताब हाथ न लगी और मेरी जिन्दगी मुफ्त में बरबाद हुई!
मैं - ताज्जुब है कि इस मकान में लोग किस राह से आकर अपना काम कर जाते हैं, पहले भी कई दफे यह बात देखने में आयी!
बाप - खैर, जो हुआ सो हुआ, अब मैं जाता हूं, गुमनाम रहकर अपने किये का फल भोगूंगा, यदि वह किताब हाथ लग गई और अपने माथे से बदनामी का टीका मिटा सका तो फिर तुमसे मिलूंगा नहीं तो हरि-इच्छा। तुम इस मकान को मत छोड़ना और जो कुछ देख-सुन चुके हो उसका पता लगाना। तुम्हारे घर में जो कुछ दौलत है, उसे हिफाजत से रखना और होशियारी से रहकर गुजारा करना तथा बन पड़े तो अपनी मां का भी पता लगाना।
बाप की बातें सुनकर मेरी अजब हालत हो गयी, दिल धड़कने लगा, गला भर आया, आंसुओं ने आंखों के आगे पर्दा डाल दिया। मैं बहुत-कुछ कहना चाहता था मगर कह न सका। मेरे बाप ने देखते-देखते मकान के बाहर निकलकर न मालूम किधर का रास्ता लिया। उस समय मेरे हिसाब से दुनिया उजड़ गई थी और मैं बिना मां-बाप के मुर्दे से भी बदतर हो रहा था। मेरे घर में जो उपद्रव हुआ था, उसका कुछ हाल नौकरों और लौंडियों को मालूम हो चुका था, मगर मेरे समझाने से उन लोगों ने छिपा लिया और बड़ी कठिनाई से मैं उस मकान में रहने और बीती हुई बातों का पता लगाने लगा।
प्रतिदिन आधी रात के समय मैं ऐयारी के सामान से दुरुस्त होकर उस समाधि के पास जाया करता जहां मैं पहले दिन उस आदमी के पीछे-पीछे गया था, जो मेरी मां को चुराकर ले गया था। अब यहां से मैं अपने किस्से को बहुत ही संक्षेप में कहता हूं क्योंकि समय बहुत कम है।
एक दिन आधी रात के समय उसी समाधि के पास एक इमली के पेड़ पर चढ़कर मैं बैठा हुआ था और अपनी बदकिस्मती पर रो रहा था कि इतने में उस समाधि के अन्दर से एक आदमी निकला और पूरब की तरफ रवाना हुआ। मैं झटपट पेड़ से उतरा और पैर दबाता हुआ उसके पीछे-पीछे जाने लगा, इसलिए उसे मेरे आने की आहट कुछ भी मालूम न हुई। उस आदमी के हाथ में एक लिफाफा कपड़े का था। उस लिफाफे की सूरत ठीक उस खलीते की तरह थी जैसा प्रायः राजे और बड़े जमींदार लोग राजों-महाराजों के यहां चीठी भेजते समय लिफाफे की जगह काम में लाते हैं। यकायक मेरे जी में आया कि किसी तरह यह लिफाफा इसके हाथ से ले लेना चाहिए, इससे मेरा मतलब कुछ न कुछ जरूर निकलेगा।
वह लिफाफा अंधेरी रात के सबब मुझे दिखाई न देता मगर राह चलते-चलते वह एक ऐसी दुकान के पास से होकर निकला जो बांस की जालीदार टट्टी से बन्द थी मगर भीतर जलते हुए चिराग की रोशनी बाहर सड़क पर आने-जाने वाले के ऊपर बखूबी पड़ती थी। उसी रोशनी ने मुझे दिखा दिया कि इसके हाथ में एक बड़ा लिफाफा मौजूद है। मैंने उसके हाथ से किसी तरह लिफाफा ले लेने के बारे में अपनी राय पक्की कर ली और कदम बढ़ाकर उसके पास जा पहुंचा। मैंने उसे धोखे में इस जोर से धक्का दिया कि वह किसी तरह सम्हल न सका और मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ा। लिफाफा उसके हाथ से छूटकर दूर जा रहा जिसे मैंने फुर्ती से उठा लिया और वहां से भागा। जहां तक हो सका मैंने भागने में तेजी की। मुझे मालूम हुआ कि वह आदमी भी उठकर मुझे पकड़ने के लिए दौड़ा पर मुझे पा न सका। गलियों में घूमता और दौड़ता हुआ मैं अपने घर पहुंचा और दरवाजे पर खड़ा होकर दम लेने लगा। उस समय मेरे दरवाजे पर रामधनीसिंह नामी मेरा एक सिपाही पहरा दे रहा था। यह सिपाही नाटे कद का बहुत मजबूत और चालाक था, थोड़े ही दिनों से चौकीदारी के काम पर मेरे बाप ने इसे नौकर रखा था।
मुझे उम्मीद थी कि रामधनीसिंह दौड़ते हुए आने का कारण मुझसे पूछेगा मगर उसने कुछ भी न पूछा। दरवाजा खुलवाकर मैं मकान के अन्दर गया और दरवाजा बन्द करके अपने कमरे में पहुंचा। शमादन अभी तक जल रहा था। उस लिफाफे को खोलने के लिए मेरा जी बेचैन हो रहा था, आखिर शमादान के पास आकर लिफाफा खोला। उस लिफाफे में एक चीठी और लोहे की एक ताली थी। वह ताली विचित्र ढंग की थी, उसमें छोटे-छोटे कई छेद और पत्तियां बनी हुई थीं, वह ताली जेब में रख लेने के बाद मैं चीठी पढ़ने लगा, यह लिखा हुआ था - ''श्री 108 मनोरमाजी की सेवा में -
महीनों की मेहनत आज सफल हुई। जिस काम पर आपने मुझे तैनात किया था वह ईश्वर की कृपा से पूरा हुआ। रिक्तग्रन्थ मेरे हाथ लगा। आपने लिखा था कि - 'हारीत1 सप्ताह में मैं रोहतासगढ़ के तिलिस्मी तहखाने में रहूंगी, इस बीच में यदि रिक्तग्रन्थ (खून से लिखी हुई किताब) मिल जाय तो उसी तहखाने के बलिमण्डप में मुझसे मिलकर मुझे देना।' आज्ञानुसार रोहतासगढ़ के तहखाने में गया परन्तु आप न मिलीं। रिक्तग्रन्थ लेकर लौटने की हिम्मत न पड़ी क्योंकि तेजसिंह की गुप्त अमलदारी तहखाने में हो चुकी थी और उनके साथी ऐयार लोग चारों तरफ ऊधम मचा रहे थे। मैंने यह सोचकर कि यहां से निकलते समय शायद किसी ऐयार के पाले पड़ जाऊं और यह रिक्तग्रन्थ छिन जाय तो मुश्किल होगी, रिक्तग्रन्थ को चौबीस नम्बर की कोठरी में जिसकी ताली आपने मुझे दे रखी थी रख दिया और खाली हाथ बाहर निकल आया। ईश्वर की कृपा से किसी ऐयार से मुलाकात न हुई, परन्तु दस्तों की बीमारी ने मुझे बेकार कर दिया, मैं आपके पास आने लायक न रहा, लाचार अपने एक दोस्त के हाथ जिससे अचानक मुलाकात हो गई यह ताली आपके पास भेजता हूं। मुझे उम्मीद है कि वह आदमी चौबीस नम्बर की कोठरी को कदापि नहीं खोल सकता जिसके पास यह ताली न हो, अस्तु अब आपको जब समय मिले, रिक्तग्रन्थ मंगवा लीजिएगा और बाकी हाल पत्र ले जाने वाले के मुंह से सुनिएगा। मुझमें अब कुछ लिखने की ताकत नहीं, बस अब साधोराम को इस दुनिया में रहने की आशा नहीं, अब साधोराम आपके चरणों को नहीं देख सकता। यदि आराम हुआ तो पटने से होता हुआ सेवा में उपस्थित होऊंगा, यदि ऐसा न हुआ तो समझ लीजियेगा कि साधोराम नहीं रहा। इस पत्र को पाते ही नानक की मां को निपटा दीजिएगा।
1. ऐयारी भाषा में 'हारीत' देवी - पूजा को कहते हैं।
आपका - साधोराम।''
इस चीठी के पाते ही मेरे दिल की मुरझाई कली खिल गई। निश्चय हो गया कि मेरी मां अभी जीती है, यदि यह चीठी ठिकाने पहुंच जाती तो उस बेचारी का बचना मुश्किल था। अब मैं यह सोचने लगा कि जिसके हाथ से यह चीठी मैंने ली है वह साधोराम था या उसका कोई मित्र! परन्तु मेरी विचारशक्ति ने तुरन्त ही उत्तर दिया कि नहीं, वह साधोराम नहीं था, यदि वह होता तो अपने लिखे अनुसार उस सड़क से आता जो पटने की तरफ से आती है। साधोराम के मरने का दूसरा सबूत यह भी है कि यह चीठी और ताली काले खलीते (कपडे के लिफाफे) के अन्दर है।
चीठी के ऊपर मनोरमा का नाम लिखा था, इससे निश्चय हो गया कि यह बिल्कुल बखेड़ा मनोरमा ही का मचाया हुआ है। मैं मनोरमा को अच्छी तरह जानता था। त्रिलोचनेश्वर महादेव के पास उसका आलीशान मकान देखने से यही मालूम होता था कि वह किसी राजा की लड़की होगी मगर ऐसा नहीं था, हां उसका खर्च हद से ज्यादे बढ़ा हुआ था और आमदनी का ठिकाना कुछ मालूम नहीं होता था। दूसरी बात यह कि वह प्रचलित रीति पर ध्यान न देकर बेपर्द खुलेआम पालकी, तामझाम और कभी-कभी घोड़े पर सवार होकर बड़े ठाठ से घूमा करती और इसीलिए काशी के छोटे-बड़े सभी मनुष्य उसे पहचानते थे। उस चीठी के पढ़ने से मुझे विश्वास हो गया कि मनोरमा जरूर तिलिस्म से कुछ सम्बन्ध रखती है और मेरी मां उसी के कब्जे में है।
इस सोच में कि किस तरह अपनी मां को छुड़ाना और रिक्तग्रन्थ पर कब्जा करना चाहिए कई दिन गुजर गये और इस बीच में उस ताली को मैं अपने मकान के बाहर किसी दूसरे ठिकाने हिफाजत से रख आया।
यहां तक अपना हाल कहकर नानक चुप हो रहा और झुककर बाहर की तरफ देखने लगा।
तेजसिंह - हां-हां, कहो फिर क्या हुआ! तुम्हारा हाल बड़ा ही दिलचस्प है, कुल बातें हमारे ही सम्बन्ध की हैं।
नानक - ठीक है, परन्तु अफसोस, इस समय मैं जो कुछ आपसे कह रहा हूं उससे मेरे बाप का कसूर और...
तेजसिंह - मैं समझ गया जो कुछ तुम कहना चाहते हो, मगर मैं सच्चे दिल से कहता हूं कि यद्यपि तुम्हारे बाप ने भारी जुर्म किया है और उसके विषय में हमारी तरफ से विज्ञापन दिया गया है कि जो कोई रिक्तग्रन्थ के चोर को गिरफ्तार करेगा उसे मुंहमांगा इनाम दिया जाएगा, तथापि तुम्हारे इस किस्से को सुनकर, जिसे तुम सचाई के साथ कह रहे हो, मैं वादा करता हूं कि उसका कसूर माफ कर दिया जायगा और तुम जो कुछ नेकी हमारे साथ किया चाहते हो या करोगे उसके लिए धन्यवाद के साथ पूरा-पूरा इनाम दिया जायगा। मैं समझता हूं कि तुम्हें अपना किस्सा अभी बहुत कुछ कहना है और इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि जो कुछ तुम कहोगे मेरे मतलब की बात होगी, परन्तु इस बात का जवाब मैं सबसे पहले सुना चाहता हूं कि वह रिक्तग्रन्थ तुम्हारे कब्जे में है या नहीं अथवा हम लोग उसके पाने की आशा कर सकते हैं या नहीं?
इसके पहले कि तेजसिंह की आखिरी बात का कुछ जवाब नानक दे, बाहर से यह आवाज आई - ''यद्यपि रिक्तग्रन्थ नानक के कब्जे में अब नहीं है तथापि तुम उसे उस अवस्था में पा सकते हो जब अपने को उसके पाने योग्य साबित करो!'' इसके बाद खिलखिलाकर हंसने की आवाज आई।
इस आवाज ने दोनों ही को परेशान कर दिया, दोनों ही को दुश्मन का शक हुआ। नानक ने सोचा कि शायद मायारानी का कोई ऐयार आ गया और उसने छिपकर मेरा किस्सा सुन लिया, अब यहां से निकलना या जान बचाकर भागना बहुत मुश्किल है, तेजसिंह को भी यह निश्चय हो गया कि नानक द्वारा जो कुछ भलाई की आशा हुई थी अब निराशा के साथ बदल गई।
दोनों ऐयार उसे ढूंढ़ने के लिए उठे जिसकी आवाज ने यकायक उन दोनों को चौंका और होशियार कर दिया था। दो कदम भी आगे न बढ़े थे कि फिर आवाज आई, ''क्यों कष्ट करते हो, मैं स्वयं तुम्हारे पास आता हूं।'' साथ ही इसके एक आदमी इन दोनों की तरफ आता हुआ दिखाई पड़ा। जब वह पास पहुंचा तो बोला, ''ऐ तेजसिंह और नानक, तुम दोनों मुझे अच्छी तरह देख और पहचान लो, मैं तुमसे कई दफे मिलूंगा, देखो भूलना मत।''
तेजसिंह और नानक ने उस आदमी को अच्छी तरह देखा। उसका कद नाटा और रंग सांवला था। घनी और स्याह दाढ़ी और मूंछों ने उसका आधा चेहरा छिपा रखा था। उसकी आंखें बड़ी-बड़ी मगर बहुत ही सुर्ख और चमकीली थीं, हाथ-पैर से मजबूत और फुर्तीला जान पड़ता था। माथे पर सफेद चार अंगुल जगह घेरे हुए रामानन्दी तिलक था जिस पर देखने वाले की निगाह सबसे पहले पड़ सकती थी, परन्तु ऐसी अवस्था होने पर भी उसका चेहरा नमकीन और खूबसूरत था तथा देखने वाले का दिल उसकी तरफ खिंच जाना कोई ताज्जुब न था। उसकी पोशाक बेशकीमत और चुस्त मगर कुछ भौंडी थी। स्याह पायजामा, सुर्ख अंगा जिसमें बड़े-बड़े कई जेब किसी चीज से भरे हुए थे, और सब्ज रंग के मुंड़ासे की तरफ ध्यान देने से हंसी आती थी, एक खंजर बगल में और दूसरा हाथ में लिए हुए था।
तेजसिंह ने बड़े गौर से उसे देखा और पूछा, ''क्या तुम अपना नाम बता सकते हो' जिसके जवाब में उसने कहा, ''नहीं, मगर चण्डूल के नाम से आप मुझे बुला सकते हैं।''
तेजसिंह - जहां तक मैं समझता हूं, आप इस नाम के योग्य नहीं हैं।
चण्डूल - चाहे न हों।
तेजसिंह - खैर, यह भी कह सकते हो कि तुम्हारा आना यहां क्यों हुआ?
चण्डूल - इसलिए कि तुम दोनों को होशियार कर दूं कि कल शाम के वक्त उन आठ आदमियों के खून से इस बाग की क्यारियां रंगी जायंगी जो फंसकर यहां आ चुके हैं।
तेजसिंह - क्या उनके नाम भी बता सकते हो?
चण्डूल - हां, सुनो - राजा वीरेन्द्रसिंह एक, रानी चन्द्रकांता दो, इन्द्रजीतसिंह तीन, आनन्दसिंह चार, किशोरी पांच, कामिनी छह, तेजसिंह सात, नानक आठ।
तेजसिंह - (घबड़ाकर) यह तो मैं जानता हूं कि दोनों कुमार और उनके ऐयार मायारानी के फंदे में फंसकर यहां आ चुके हैं मगर राजा वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकांता तो...
चण्डूल - हां - हां, वे दोनों भी फंसकर यहां आ चुके हैं, पूछो नानक से।
नानक - (तेजसिंह की तरफ देखकर) हां ठीक है, अपना किस्सा कहने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता का हाल मैं आपसे कहने ही वाला था, मगर मुझे वह बात अच्छी तरह मालूम नहीं है कि वे लोग क्योंकर मायारानी के फन्दे में फंसे।
चण्डूल - (नानक से) अब विशेष बातों का मौका नहीं है, तेजसिंह से जो कुछ करते बनेगा कर लेंगे, मैं इस समय तुम्हारे लिए आया हूं, आओ और मेरे साथ चलो।
नानक - मैं तुम पर विश्वास करके तुम्हारे साथ क्योंकर चल सकता हूं
चण्डूल - (कड़ी निगाह से नानक की तरफ देखके और हुकूमत के साथ) लुच्चा कहीं का! अच्छा सुन, एक बात मैं तेरे कान में कहना चाहता हूं।
इतना कहकर चण्डूल चार-पांच कदम पीछे हट गया। उसकी डपट और बात ने नानक के दिल पर कुछ ऐसा असर किया कि वह अपने को उसके पास जाने से रोक न सका। नानक चण्डूल के पास गया मगर अपने को हर तरह सम्हाले और अपना दाहिना हाथ खंजर के कब्जे पर रखे हुए था। चण्डूल ने झुककर नानक के कान में कुछ कहा जिसे सुनते ही नानक दो कदम पीछे हट गया और बड़े गौर से उसकी सूरत देखने लगा। थोड़ी देर तक यही अवस्था रही, इसके बाद नानक ने तेजसिंह की तरफ देखा और कहा, ''माफ कीजियेगा, लाचार होकर मुझे इनके साथ जाना ही पड़ा, अब मैं बिल्कुल इनके कब्जे में हूं यहां तक कि मेरी जान भी इनके हाथ में है।'' इसके बाद नानक ने कुछ न कहा। वह चण्डूल के साथ चला गया और पेड़ों की आड़ में घूम-फिरकर देखते-देखते नजरों से गायब हो गया।
अब तेजसिंह फिर अकेले पड़ गए। तरह-तरह के खयालों ने चारों तरफ से आकर उन्हें घेर लिया। नानक की जुबानी जो कुछ उन्होंने सुना था उससे बहुत-सी भेद की बातें मालूम हुई थीं और अभी बहुत-कुछ मालूम होने की आशा थी परन्तु नानक अपना किस्सा पूरा कहने भी न पाया था कि इस चण्डूल ने आकर दूसरा ही रंग मचा दिया जिससे तरद्दुद और घबड़ाहट सौ गुनी ज्यादा बढ़ गई। बिछावन पर पड़े-पड़े वे तरह-तरह की बातें सोचने लगे।
''नानक की बातों से विश्वास होता है कि उसने अपना हाल जो कुछ कहा सही-सही कहा, मगर उसके किस्से में कोई ऐसा पात्र नहीं आया जिसके बारे में चण्डूल होने का अनुमान किया जाय। फिर यह चण्डूल कौन है जिसकी थोड़ी-सी बात से जो उसने झुककर नानक के कान में कही नानक घबड़ा गया और उसके साथ जाने पर मजबूर हो गया! हाय यह कैसी भयानक खबर सुनने में आई कि अब शीघ्र ही राजा वीरेन्द्रसिंह, रानी चन्द्रकांता तथा दोनों कुमार और ऐयार लोग इस बाग में मारे जायेंगे। बेचारे राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता के बारे में भी अब ऐसी बातें! ...ओफ न मालूम अब ईश्वर क्या किया चाहता है! मगर हिम्मत न हारनी चाहिए, आदमी की हिम्मत और बुद्धि की जांच ऐसी ही अवस्था में होती है। ऐयारी का बटुआ और खंजर अभी मेरे पास मौजूद है, कोई उद्योग करना चाहिए, और वह भी जहां तक हो सके शीघ्रता के साथ।''
इन्हीं सब विचारों और गम्भीर चिन्ताओं में तेजसिंह डूबे हुए थे और सोच रहे थे कि अब क्या करना उचित है कि इतने ही में सामने से आती हुई मायारानी दिखाई पड़ी। इस समय वह असली बिहारीसिंह (जिसकी सूरत तेजसिंह ने बदल दी थी और अभी तक खुद जिसकी सूरत में थे) और हरनामसिंह तथा और भी कई ऐयारों और लौंडियों से घिरी हुई थी। इस समय सबेरा अच्छी तरह हो चुका था और सूर्य की लालिमा ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की डालियों पर फैल चुकी थी।
मायारानी तेजसिंह के पास आई और असली बिहारीसिंह ने आगे बढ़कर तेजसिंह से कहा, ''धर्मावतार बिहारीसिंह, मिजाज दुरुस्त है या अभी तक आप पागल ही हैं'
तेजसिंह - अब मुझे बिहारीसिंह कहकर पुकारने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि आप जान ही गए हैं कि यह पागल असल में राजा वीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार है और अब आपको यह जानकर हद दर्जे की खुशी होगी कि यह पागल बिहारीसिंह वास्तव में ऐयारों के गुरुघंटाल तेजसिंह हैं जिनकी बढ़ी हुई हिम्मतों को मुकाबला करने वाला इस दुनिया में कोई नहीं है और जो इस कैद की अवस्था में भी अपनी हिम्मत और बहादुरी का दावा करके कुछ कर गुजरने की नीयत रखता है।
बिहारीसिंह - ठीक है, मगर अब आप ऐयारों के गुरुघंटाल की पदवी नहीं रख सकते, क्योंकि आपकी अनमोल ऐयारी यहां मिट्टी में मिल गई और अब शीघ्र ही हथकड़ी-बेड़ी भी आपके नजर की जायगी।
तेजसिंह - अगर तुम मेरी ऐयारी चौपट कर चुके थे तो ऐयारी का बटुआ और खंजर भी ले लिए होते! यह गुरुघंटाल का ही काम था कि पागल होने पर भी ऐयारी का बटुआ और खंजर किसी के हाथ में जाने न दिया। बाकी रही बेड़ी सो मेरा चरण कोई छू नहीं सकता जब तक हाथ में खंजर मौजूद है! (हाथ में खंजर लेकर और दिखाकर) वह कौन-सा हाथ है जो हथकड़ी लेकर इसके सामने आने की हिम्मत रखता है।
बिहारीसिंह - मालूम होता है कि इस समय तुम्हारी आंखें केवल मुझी को देख रही हैं उन लोगों को नहीं देखतीं जो मेरे साथ हैं, अतएव सिद्ध हो गया कि तुम पागल होने के साथ-साथ अन्धे भी हो गए, नहीं तो...
बिहारीसिंह की बात पूरी न हुई थी कि बगल की एक कोठरी का दरवाजा खुला और वही चण्डूल फुर्ती के साथ निकलकर सभी के बीच में आ खड़ा हुआ जिसे देखते ही मायारानी और उसके साथियों की हैरानी का कोई ठिकाना न रहा। केवल इतना ही नहीं, बल्कि यह भी मालूम हुआ कि उस कोठरी में और भी कई आदमी हैं जिसके अन्दर से चण्डूल निकला था क्योंकि उस कोठरी का दरवाजा चण्डूल ने खुला ही छोड़ दिया था और उसके अन्दर के आदमी कुछ-कुछ दिखाई पड़ रहे थे।
चण्डूल - (मायारानी और उसके साथियों की तरफ देखकर) यह कहने की कोई जरूरत नहीं कि मैं कौन हूं, हां अपने यहां आने का सबब जरूर कहूंगा। मुझे एक लौंडी और एक गुलाम की जरूरत है, कहो, तुम लोगों में से किसे चुनूं (मायारानी की तरफ इशारा करके) मैं समझता हूं कि इसी को अपनी लौंडी बनाऊं, और (बिहारीसिंह की तरफ इशारा करके) इसे गुलाम की पदवी दूं।
बिहारीसिंह - तू कौन है जो इस बेअदबी के साथ बातें कर रहा है। (मायारानी की तरफ इशारा करके) तू जानता नहीं कि ये कोन हैं|
चण्डूल - (हंसकर) मेरी शान में चाहे कोई कैसी ही कड़ी बात कहे मगर मुझे क्रोध नहीं आता क्योंकि मैं जानता हूं कि सिवा ईश्वर के कोई दूसरा मुझसे बड़ा नहीं है, और मेरे सामने खड़ा होकर जो बातें कर रहा है वह तो गुलाम के बराबर भी हैसियत नहीं रखता! मैं क्या जानूं कि (मायारानी की तरफ इशारा करके) यह कौन है हां, यदि मेरा हाल जानना चाहते हो तो मेरे पास आओ और कान में सुनो कि क्या कहता हूं।
बिहारीसिंह - हम ऐसे बेवकूफ नहीं हैं कि तुम्हारे चकमे में आ जायं।
चण्डूल - क्या तू समझता है कि मैं उस समय तुझ पर वार करूंगा जब तू कान झुकाए हुए मेरे पास आकर खड़ा होगा
बिहारीसिंह - बेशक ऐसा ही है।
चण्डूल - नहीं-नहीं, यह काम हमारे ऐसे बहादुरों का नहीं है। अगर डरता है तो किनारे चल, मैं दूर ही से जो कुछ कहना है कह दूं जिससे कोई दूसरा न सुने!
बिहारीसिंह - (कुछ सोचकर) ओफ, मैं तुझ ऐसे कमजोर से डरने वाला नहीं, कह, क्या कहता है।
यह कहकर बिहारीसिंह उसके पास गया और झुककर सुनने लगा कि वह क्या कहता है
न मालूम चण्डूल ने बिहारीसिंह के कान में क्या कहा, न मालूम उन शब्दों में कितना असर था, न मालूम वह बात कैसे-कैसे भेदों से भरी हुई थी, जिसने बिहारीसिंह को अपने आपे से बाहर कर दिया। वह घबड़ाकर चण्डूल को देखने लगा, उसके चेहरे का रंग जर्द हो गया और बदन में थरथराहट पैदा हो गई।
चण्डूल - क्यों अगर अच्छी तरह न सुन सका हो तो जोर से पुकार के कहूं जिससे और लोग भी सुन लें।
बिहारीसिंह - (हाथ जोड़कर) बस-बस, क्षमा कीजिए, मैं आशा करता हूं कि आप अब दोहराकर उन शब्दों को श्रीमुख से न निकालेंगे, मुझे यह जानने की भी आवश्यकता नहीं कि आप कौन हैं, चाहे जो भी हों।
मायारानी - (बिहारी से) उसने तुम्हारे कान में क्या कहा जिससे तुम घबड़ा गए?
बिहारीसिंह - (हाथ जोड़कर) माफ कीजिए, मैं इस विषय में कुछ भी नहीं कह सकता।
मायारानी - (कड़ी आवाज में) क्या मैं वह बात सुनने योग्य नहीं हूं?
बिहारीसिंह - कह तो चुका कि उन शब्दों को अपने मुंह से नहीं निकाल सकता।
मायारानी - (आंखें लाल करके) क्या तुझे अपनी ऐयारी पर घमंड हो गया क्या तू अपने को भूल गया या इस बात को भूल गया कि मैं क्या कर सकती हूं और मुझमें कितनी ताकत है?
बिहारीसिंह - मैं आपको और अपने को खूब जानता हूं, मगर इस विषय में कुछ नहीं कह सकता। आप व्यर्थ खफा होती हैं, इससे कोई काम न निकलेगा।
मायारानी - मालूम हो गया कि तू भी असली बिहारीसिंह नहीं है। खैर, क्या हर्ज है, समझ लूंगी! (चण्डूल की तरफ देखकर) क्या तू भी दूसरे को वह बात नहीं कह सकता?
चण्डूल - जो कोई मेरे पास आवेगा उसके कान में मैं कुछ कहूंगा। मगर, इसका वायदा नहीं कर सकता कि वही बात कहूंगा या हर एक को नई-नई बात का मजा चखाऊंगा।
मायारानी - क्या यह भी नहीं कह सकता कि तू कौन है और इस बाग में किस राह से आया है?
चण्डूल - मेरा नाम चण्डूल है, आने के विषय में तो केवल इतना ही कह देना काफी है कि मैं सर्वव्यापी हूं, जहां चाहूं पहुंच सकता हूं। हां, कोई नई बात सुनना चाहती हो तो मेरे पास आओ और सुनो।
हरनामसिंह - (मायारानी से) पहले मुझे उसके पास जाने दीजिए, (चण्डूल के पास जाकर) अच्छा, लो कहो, क्या कहते हो?
चण्डूल ने हरनामसिंह के कान में कोई बात कही। उस समय हरनामसिंह चण्डूल की तरफ कान झुकाए जमीन की तरफ देख रहा था। चण्डूल कान में कुछ कहकर दो कदम पीछे हट गया मगर हरनामसिंह ज्यों-का-त्यों झुका हुआ खड़ा ही रह गया। यदि उस समय उसे कोई नया आदमी देखता तो यही समझता कि यह पत्थर का पुतला है। मायारानी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ, कई सायत बीत जाने पर भी जब हरनामसिंह वहां से न हिला तो उसने पुकारा, ''हरनाम!'' उस समय वह चौंका और चारों तरफ देखने लगा, जब चण्डूल पर निगाह पड़ी तो मुंह फेर लिया और बिहारीसिंह के पास जा सिर पर हाथ रखकर बैठ गया।
मायारानी - हरनाम, क्या तू भी बिहारी का साथी हो गया वह बात मुझसे न कहेगा जो अभी तूने सुनी है?
हरनामसिंह - मैं इसी वास्ते यहां आ बैठा हूं कि आखिर तुम रंज होकर मेरा सिर काट लेने का हुक्म दोगी ही क्योंकि तुम्हारा मिजाज बड़ा क्रोधी है। मगर, लाचार हूं, मैं वह बात कदापि नहीं कह सकता।
मायारानी - मालूम होता है कि यह आदमी कोई जादूगर है। अस्तु, मैं हुक्म देती हूं कि यह फौरन गिरफ्तार किया जाय!
चण्डूल - गिरफ्तार होने के लिए तो मैं आया ही हूं, कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता है लीजिए स्वयं मैं आपके पास आता हूं, हथकड़ी-बेड़ी कहां है लाइए!
इतना कहकर चण्डूल तेजी के साथ मायारानी के पास गया और जब तक वह अपने को सम्हाले, झुककर उसके कान में न मालूम क्या कह दिया कि उसकी अवस्था बिल्कुल ही बदल गई। बिहारीसिंह और हरनामसिंह तो बात सुनने के बाद इस लायक भी रहे थे कि किसी की बात सुनें और उसका जवाब दें। मगर, मायारानी इस लायक भी न रही। उसके चेहरे पर मुर्दनी छा गई तथा वह घूमकर जमीन पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई। बिहारीसिंह और हरनामसिंह को छोड़कर बाकी जितने आदमी उसके साथ आये थे सभी में खलबली मच गई और सभी को इस बात का डर बैठ गया कि चण्डूल उनके कान में भी कोई ऐसी बात न कह दे जिससे मायारानी की-सी अवस्था हो जाय।
घण्टा भर बीत गया पर मायारानी होश में न आई। चण्डूल, तेजसिंह के पास गया और उनके कान में भी कोई बात कही, जिसके जवाब में तेजसिंह ने केवल इतना ही कहा, ''मैं तैयार हूं!''
तेजसिंह का हाथ पकड़े हुए चण्डूल उसी कोठरी में चला गया जिसमें से बाहर निकला था। अन्दर जाने के बाद दरवाजा बखूबी बन्द कर लिया। मायारानी के साथियों में से किसी की भी हिम्मत न पड़ी कि चण्डूल को या तेजसिंह को जाने से रोके। जिस समय चण्डूल यकायक कोठरी का दरवाजा खोलकर बाहर निकला था, उस समय मालूम होता था कि उस कोठरी के अन्दर और भी कई आदमी हैं। मगर, उस समय तेजसिंह ने वहां सिवाय अपने और चण्डूल के और किसी को भी न पाया। उधर मायारानी जब होश में आई तो बिहारीसिंह, हरनामसिंह तथा अपने और साथियों को लेकर खास महल में चली गई। उसके दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह अपने मालिक के वैसे ही ताबेदार और खैरख्वाह बने रहे जैसे थे। मगर, चण्डूल की कही हुई बात वे दोनों अपने मुंह से कभी भी निकाल नहीं सकते थे। जब-जब चण्डूल का ध्यान आता बदन के रोंगटे खड़े हो जाते थे और ठीक यही अवस्था मायारानी की भी थी। मायारानी को यह भी निश्चय हो गया कि चण्डूल नकली बिहारीसिंह अर्थात् तेजसिंह को छुड़ा ले गया।
बयान - 4
शाम का वक्त है। सूर्य भगवान अस्त हो चुके हैं तथापि पश्चिम तरफ आसमान पर कुछ-कुछ लाली अभी तक दिखाई दे रही है। ठण्डी हवा मन्द गति से चल रही है। गरमी तो नहीं मालूम होती लेकिन इस समय की हवा बदन में कंपकंपी भी पैदा नहीं कर सकती। हम इस समय आपको एक ऐसे मैदान की तरफ ध्यान देने के लिए कहते हैं, जिसकी लम्बाई और चौड़ाई का अन्दाज करना कठिन है। जिधर निगाह दौड़ाइये, सन्नाटा नजर आता है। कोई पेड़ भी ऐसा नहीं है, जिसके पीछे या जिस पर चढ़कर कोई आदमी अपने को छिपा सके। हां, पूरब तरफ निगाह कुछ ठोकर खाती है और एक धुंधली चीज को देखकर गौर करने वाला कह सकता है कि उस तरफ शायद कोई छोटी-सी पहाड़ी या पुराने जमाने का कोई ऊंचा टीला है।
ऐसे मैदान में तीन औरतें घोड़ियों पर सवार धीरे-धीरे उसी तरफ जा रही हैं, जिधर उस टीले या छोटी पहाड़ी की स्याही मालूम हो रही है। यद्यपि उन औरतों की पोशाक जनाना वजः की है। मगर, फिर भी चुस्त और दक्षिणी ढंग की है। तीनों के चेहरे पर नकाब पड़ी है, तथापि बदन की सुडौली और कलाई तथा नाजुक उंगलियों पर ध्यान देने से देखने वाले के दिल में यह बात जरूर पैदा होगी कि ये तीनों ही नाजुक नौजवान और खूबसूरत हैं। इन औरतों के विषय में हम अपने पाठकों को ज्यादा देर तक खटके में न डालकर इसी समय इनका परिचय दे देना उत्तम समझते हैं। वह देखिये ऊंची और मुश्की घोड़ी पर जो सवार है, वह मायारानी है। चोगर आंखों वाली सफेद पचकल्यान घोड़ी पर जो पटरी जमाये है वह उसकी छोटी बहिन लाडिली है, जिसे अभी तक हम रामभोली के नाम से लिखते चले आये हैं, और सब्जी घोड़ी पर सवार चारों तरफ निगाह दौड़ा-दौड़ाकर देखने वाली धनपत है। ये तीनों आपस में धीरे-धीरे बातें करती जा रही हैं। लीजिए तीनों ने अपने चेहरों पर से नकाबें उलट दीं, अब हमें तीनों की बातों पर ध्यान देना उचित है।
मायारानी - न मालूम चण्डूल कम्बख्त तीसरे नम्बर के बाग में क्योंकर जा पहुंचा! इसमें तो कुछ सन्देह नहीं कि जिस राह से हम लोग आते-जाते हैं उस राह से वह नहीं गया था।
लाडिली - तिलिस्म बनाने वालों ने वहां पहुंचने के लिए कई रास्ते बनाए हैं शायद उन्हीं रास्तों में से कोई रास्ता उसे मालूम हो गया हो।
धनपत - मगर उन रास्तों का हाल किसी दूसरे को मालूम हो जाना तो बड़ी भयानक बात है।
मायारानी - और यह एक ताज्जुब की बात है कि उन रास्तों का हाल जब मुझको जो तिलिस्म की रानी कहलाती है, नहीं मालूम तो किसी दूसरे को कैसे मालूम हुआ!
लाडिली - ठीक है, तिलिस्म की बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो तुम्हें मालूम हैं। मगर नियमानुसार तुम मुझसे भी नहीं कह सकती हो। हां, उन रास्तों का हाल जीजाजी1 को जरूर मालूम था। अफसोस, उन्हें मरे पांच वर्ष हो गये, अगर जीते होते तो...।
मायारानी - (कुछ घबड़ाकर और जल्दी से) तुम कैसे जानती हो कि उन रास्तों का हाल उन्हें मालूम था?
लाडिली - हंसी-हंसी में उन्होंने एक दिन मुझसे कहा था कि बाग के तीसरे दर्जे में जाने के लिए पांच रास्ते हैं, बल्कि वे मुझे अपने साथ वहां ले चलकर नया रास्ता दिखाने को तैयार भी थे मगर मैं तुम्हारे डर से उनके साथ न गई।
मायारानी - आज तक तूने यह हाल मुझसे क्यों न कहा?
लाडिली - मेरी समझ में यह कोई जरूरी बात न थी जो तुमसे कहती।
लाडिली की बात सुन मायारानी चुप हो गई और बड़े गौर में पड़ गई। उसकी अवस्था और उसकी सूरत पर ध्यान देने से मालूम होता था कि लाडिली की बात से उसके दिल पर एक सख्त सदमा पहुंचा है और वह थोड़ी देर के लिए अपने को बिल्कुल ही भूल गई है। मायारानी की ऐसी अवस्था क्यों हो गई और इस मामूली-सी बात से उसके दिल पर क्यों चोट लगी इसका सबब उसकी छोटी बहिन लाडिली भी न समझ सकी। कदाचित् यह कहा जाय कि वह अपने पति को याद करके इस अवस्था में पड़ गई, सो भी नहीं हो सकता। क्योंकि लाडिली खूब जानती थी कि मायारानी अपने खूबसूरत, हंसमुख और नेक चाल-चलन वाले पति को कुछ भी नहीं चाहती थी। इस समय लाडिली के दिल में एक तरह का खटका पैदा हुआ और शक की निगाह से मायारानी की तरफ देखने लगी। मगर मायारानी कुछ भी नहीं जानती थी कि उसकी छोटी बहिन उसे किस निगाह से देख रही है। लगभग दो सौ कदम चले जाने बाद वह चौंकी और लाडिली की तरफ जरा-सा मुंह फेरकर बोली, ''हां, तो वह उन रास्तों का हाल जानता था'
लाडिली के दिल में और भी खुटका पैदा हुआ बल्कि इस बात का रंज हुआ कि मायारानी ने अपने पति या लाडिली के प्यारे बहनोई की तरफ ऐसे शब्दों में इशारा किया जो किसी नीच या खिदमतगार तथा नौकर के लिए बरता जाता है। लाडिली का ध्यान धनपत की तरफ भी गया जिसके चेहरे पर उदासी और रंज की निशानी मामूली से कुछ ज्यादा पाई जाती थी और जिसकी घोड़ी भी पांच-सात कदम पीछे रह गई थी। मगर मायारानी और धनपत की ऐसी अवस्था ज्यादा देर तक न रही, उन दोनों ने बहुत जल्द अपने को सम्हाला और फिर मामूली तौर पर बातचीत करने लगीं।
धनपत - अब वह टीला भी आ पहुंचा। देखा चाहिए बाबाजी से मुलाकात होती है या नहीं!
1. जीजाजी से मतलब मायारानी के पति से है जो लाड़िली का बहनोई था।
मायारानी - मुलाकात अवश्य होगी क्योंकि वे कहीं नहीं जाते मगर अब मेरा जी नहीं चाहता कि वहां तक जाऊं या उनसे मिलूं।
लाडिली - सो क्यों! तुम तो बड़े उत्साह से उनसे मिलने के लिए आई हो!
माया - ठीक है, मगर अब जो मैं सोचती हूं तो यही जान पड़ता है कि बेचारे बाबाजी इन सब बातों का जवाब कुछ भी न दे सकेंगे।
लाडिली - खैर, जब इतनी दूर आ चुकी हो तो अब लौट चलना भी उचित नहीं।
माया - नहीं, अब मैं वहां न जाऊंगी!
इतना कहकर मायारानी ने घोड़ा फेरा, लाचार होकर लाडिली और धनपत को भी घूमना पड़ा, मगर इस कार्रवाई से लाडिली के दिल का शक और भी ज्यादा हुआ और उसे निश्चय हो गया कि मेरी बात से मायारानी के दिल पर गहरी चोट बैठी है मगर ठीक इसका सबब क्या है सो कुछ भी नहीं मालूम होता।
मायारानी ने जैसे ही घोड़े की बाग फेरी, वैसे ही उसकी निगाह तेजसिंह पर पड़ी जो तीर और कमान हाथ में लिए बहुत दूर से कदम बढ़ाए इन तीनों के पीछे-पीछे आ रहे थे। मायारानी तेजसिंह को अच्छी तरह से जानती थी। यद्यपि इस समय कुछ अंधेरा हो गया था परन्तु मायारानी की तेज निगाहों ने तेजसिंह को तुरन्त ही पहचान लिया और इसके साथ ही वह तलवार खींचकर तेजसिंह पर झपटी।
मायारानी को नंगी तलवार लिए झपटते देख तेजसिंह ने ललकारके कहा, ''खबरदार, आगे न बढ़ना, नहीं तो एक ही तीर में काम तमाम कर दूंगा!''
तेजसिंह के ललकारने से मायारानी रुक गई मगर धनपत से न रहा गया। वह तलवार खींचकर यह कहती हुई आगे बढ़ी, ''मैं तेरे तीर से डरने वाली नहीं!''
तेजसिंह - मालूम होता है तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है, इसे खूब समझ लेना कि तेजसिंह के हाथ से छूटा तीर खाली न जायगा।
धनपत - मालूम होता है कि तू केवल एक तीर ही से हम तीनों को डराकर अपना काम निकालना चाहता है। अफसोस, इस समय मेरे पास तीर-कमान नहीं है, यदि होता तो तुझे जान पड़ता कि तीर चलाना किसे कहते हैं।
तेजसिंह - (हंसकर) न मालूम तूने औरत होने पर भी अपने को क्या समझ रखा है खैर, अब मैं एक कमसिन औरत पर तीर न चलाऊंगा।
इतना कहकर तेजसिंह ने तीर तरकस में रख लिया और कमान बगल में लटकाने के बाद ऐयारी के बटुए में से एक छोटा-सा लोहे का गोला निकालकर सामने खड़े हो गये और धनपत को वह गोला दिखाकर बोले, ''तुम लोगों के लिए यही बहुत है, मगर मैं फिर कहे देता हूं कि मुझ पर तलवार चलाकर भलाई की आशा मत रखना!''
धनपत - (मायारानी की तरफ इशारा करके) क्या तू जानता नहीं कि यह कौन हैं?
तेजसिंह - मैं तुम तीनों को खूब जानता हूं और यह भी जानता हूं कि मायारानी सैंतालीस नम्बर की कोठरी को पवित्र करके बेवा हो गई और इस बात को पांच वर्ष का जमाना हो गया।
इतना कहकर मुस्कुराते हुए तेजसिंह ने एक भेद की निगाह मायारानी पर डाली और देखा कि मायारानी का चेहरा पीला पड़ गया और शर्म से उसकी आंखें नीचे की तरफ झुकने लगीं। मगर यह अवस्था उसकी बहुत देर तक न रही, तेजसिंह के मुंह से बात निकलने के बाद जैसे ही लाडिली की ताज्जुब-भरी निगाह मायारानी पर पड़ी वैसे ही मायारानी ने अपने को सम्हालकर धनपत की तरफ देखा।
अब धनपत अपने को रोक न सकी, उसने घोड़ी बढ़ाकर तेजसिंह पर तलवार का वार किया। तेजसिंह ने फुर्ती से वार खाली देकर अपने को बचा लिया और वही लोहे का गोला धनपत की घोड़ी के सिर में इस जोर से मारा कि वह सम्हल न सकी और सिर हिलाकर जमीन पर गिर पड़ी। लोहे का गोला छिटककर दूर जा गिरा और तेजसिंह ने लपककर उसे उठा लिया।
आशा थी कि घोड़ी के गिरने से धनपत को भी कुछ चोट लगेगी मगर वह घोड़ी पर से उछल कुछ दूर जा रही और बड़ी चालाकी से गिरते-गिरते उसने अपने को बचा लिया। तेजसिंह फिर वही गोला लेकर सामने खड़े हो गए।
तेजसिंह - (गोला दिखाकर) इस गोले की करामात देखी अगर अबकी फिर वार करने का इरादा करेगी तो यह गोला तेरे घुटने पर बैठेगा और तुझे लंगड़ी होकर मायारानी का साथ देना पड़ेगा। मैं यह नहीं चाहता कि तुम लोगों को इस समय जान से मारूं मगर हां जिस काम के लिए आया हूं, उसे किए बिना लौट जाना भी मुनासिब नहीं समझता।
मायारानी - अच्छा बताओ, तुम हम लोगों के पीछे-पीछे क्यों आए हो और क्या चाहते हो
तेजसिंह - (लाडिली की तरफ इशारा करके) केवल इनसे एक बात कहनी है और कुछ नहीं।
लाडिली - कहो, क्या कहते हो?
तेजसिंह - मैं इस तरह नहीं कहना चाहता कि तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा सुने, इन दोनों से अलग होकर सुन लो फिर मैं चला जाऊंगा। डरो मत, मैं दगाबाज नहीं हूं, यदि चाहूं तो ललकारकर तुम तीनों को यमलोक पहुंचा सकता हूं, मगर नहीं, तुमसे केवल एक बात कहने के लिए आया हूं जिसके सुनने का अधिकार सिवाय तुम्हारे और किसी को नहीं है।
कुछ सोचकर लाडिली वहां से हट गई और कुछ दूर जाकर तेजसिंह की तरफ देखने लगी मानो वह तेजसिंह की बात सुनने के लिए तैयार हो। तेजसिंह लाडिली के पास गए और बटुए में से एक चीठी निकाल उसके हाथ में देकर बोले, ''इसे जल्द पढ़ लो, देखो, मायारानी को इसका हाल न मालूम हो!''
लाडिली ने बड़े गौर से वह चीठी पढ़ी और इसके बाद टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दी।
तेजसिंह - इसका जवाब?
लाडिली - केवल इतना ही कह देना कि 'बहुत अच्छा!'
अब तेजसिंह को ठहरने की कोई जरूरत न थी। उन्होंने उत्तर का रास्ता लिया, मगर घूम-घूमकर देखते जाते थे कि पीछे कोई आता तो नहीं। तेजसिंह के जाने के बाद मायारानी ने लाडिली से पूछा, ''वह चीठी किसकी थी और उसमें क्या लिखा था!'' लाडिली ने असल भेद तो छिपा रखा, मगर कोई विचित्र बात गढ़कर उस समय मायारानी की दिलजमई कर दी।
बयान - 5
पाठकों को याद होगा कि भूतनाथ को नागर ने एक पेड़ के साथ बांध रखा है। यद्यपि भूतनाथ ने अपनी चालाकी और तिलिस्मी खंजर की मदद से नागर को बेहोश कर दिया मगर देर तक उसके चिल्लाने पर भी वहां कोई उसका मददगार न पहुंचा और नागर फिर से होश में आकर उठ बैठी।
नागर - अब मुझे मालूम हुआ कि तेरे पास भी एक अद्भुत वस्तु है।
भूतनाथ - जो अब तुम्हारी होगी।
नागर - नहीं, जिसके छूने से बेहोश हो गई उसे अपने पास क्योंकर रख सकती हूं! मगर मालूम होता है कि कोई ऐसी चीज भी तेरे पास जरूर है जिसके सबब से इस खंजर का असर तुझ पर नहीं होता। खैर, मैं तेरा यह तीसरा कसूर भी माफ करूंगी यदि तू यह खंजर मुझे दे दे और वह दूसरी चीज भी मेरे हवाले कर दे जिसके सबब से इस खंजर का असर तुझ पर नहीं होता।
भूतनाथ - मगर मुझे क्योंकर विश्वास होगा कि तुमने मेरा कसूर माफ किया?
नागर - और मुझे क्योंकर विश्वास होगा कि तूने वास्तव में वही चीज मुझे दी जिसके सबब से खंजर की करामात से तू बचा हुआ है?
भूतनाथ - बेशक मैं वही चीज तुम्हें दूंगा, और तुम आजमाने के बाद मुझे छोड़ सकती हो।
नागर - मगर ताज्जुब नहीं कि आजमाते ही मैं फिर बेहोश हो जाऊं क्योंकि तू धोखा देने में मुझसे किसी तरह कम नहीं है!
भूतनाथ - इसका जवाब तुम खुद समझ सकती हो!
नागर - हां ठीक है, यदि मैं थोड़ी देर के लिए बेहोश भी हो जाऊंगी तो तू मेरा कुछ कर नहीं सकता क्योंकि पेड़ के साथ बंधा हुआ है और तेरे हाथ-पैर भी खुले नहीं हैं।
भूतनाथ - और मेरे चिल्लाने से भी यहां कोई मददगार न पहुंचेगा।
नागर - हां, इसका प्रमाण भी...।
कहते - कहते नागर रुक गई क्योंकि तभी पत्तों के खड़खड़ाने की आवाज उसने सुनी और किसी के आने का उसे शक हुआ। नागर ने पीछे घूमकर देखा तो कमलिनी पर नजर पड़ी जो नागर के दिए घोड़े पर सवार इसी तरफ आ रही थी। कमलिनी इस समय भी उसी सूरत में थी जिस सूरत में नागर के यहां गई थी और उसका पहचानना मुश्किल था, मगर भूतनाथ की जुबानी नागर को पता लग चुका था इसलिए उसने कमलिनी को तुरत पहचान लिया और भूतनाथ को उसी तरह छोड़ फुर्ती से अपने घोड़े पर सवार हो गई। कमलिनी भी पास पहुंची और नागर की तरफ देखकर बोली -
कमलिनी - तुझे तो विश्वास हो गया होगा कि मैं मिर्जापुर चली गई!
नागर - बेशक तुमने मुझे धोखा दिया, खैर, अब मेरे हाथ से बचकर कहां जा सकती हो यद्यपि तुम मायारानी की बहिन हो और इस सबब से मुझे तुम्हारा अदब करना चाहिए मगर तुम्हारी बुराइयों पर ध्यान देकर मायारानी ने हुक्म दे रखा है कि जो कोई तुम्हारा सिर काटकर उसके पास ले जायेगा वह मुंहमांगा इनाम पाएगा, अस्तु अब मैं तुम्हें किसी तरह छोड़ नहीं सकती। हां, अगर तुम खुशी से मायारानी के पास चली चलो तो अच्छी बात है!
कमलिनी - (मुस्कुराकर) ठीक है, मालूम होता है कि तू अभी तक अपने को अपने मकान में मौजूद समझती है और चारों तरफ अपने नौकरों को देख रही है।
नागर - (कुछ शर्माकर) मैं खूब जानती हूं कि इस मैदान में मैं अकेली हूं लेकिन यह भी देख रही हूं कि तुम्हारे साथ भी कोई दूसरा नहीं है। अगर तुम अपने को हर्बा चलाने और ताकत में मुझसे बढ़कर समझती हो तो यह तुम्हारी भूल है और इसका फैसला हाथ मिलाने से ही हो सकता है (हाथ बढ़ाकर) आइए!
कमलिनी - (हंसकर) वाह, तू समझती है कि मुझे उस अंगूठी की खबर नहीं जो तेरे इस बढ़े हुए हाथ में देख रही हूं, अच्छा ले!
''अच्छा ले'' कहकर कमलिनी ने दिखा दिया कि उसमें कितनी तेजी और फुर्ती है। घोड़ा आगे बढ़ाया और तिलिस्मी खंजर निकालकर इतनी तेजी के साथ नागर के हाथ पर रख दिया कि वह अपना हाथ हटा भी न सकी और खंजर की तासीर से बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़ी। कमलिनी ने घोड़े से उतरकर भूतनाथ को कैद से छुट्टी दी और कहा, ''वाह, तुम इतने बड़े चालाक होकर भी इसके फन्दे में आ गये!''
भूतनाथ - मैं इसके फन्दे में न आता यदि उस अंगूठी का गुण जानता जो इसकी उंगली में चमक रही है, वास्तव में यह अनमोल वस्तु है और कठिन समय पर काम दे सकती है।
कमलिनी - इस कम्बख्त के पास यही तो एक चीज है जिसके सबब से मायारानी की आंखों में इसकी इज्जत है। इसके जहर से कोई बच नहीं सकता, हां यदि यह चाहे तो जहर उतार भी सकती है। न मालूम यह अंगूठी और इसका जहर उतारने की तरकीब मनोरमा ने कहां से पाई।
भूतनाथ - मायारानी से और इससे क्या सम्बन्ध?
कमलिनी - मनोरमा उसकी छह सखियों में सबसे बड़ा दर्जा रखती है और वह इस कम्बख्त को अपनी बहिन से बढ़ के मानती है। यह अंगूठी भी मनोरमा ही की है।
भूतनाथ - तो मायारानी ने यह अंगूठी क्यों न ले ली उसके तो बड़े काम की चीज थी!
कमलिनी - उसको भी मनोरमा ने ऐसी ही अंगूठी बना दी है और जहर उतारने की दवा भी तैयार कर दी है मगर इसके बनाने की तरकीब नहीं बताती।
भूतनाथ - खैर, अब यह अंगूठी आप ले लीजिए।
कमलिनी - यद्यपि यह मेरे काम की चीज नहीं है बल्कि इसको अपने पास रखने में मैं पाप समझती हूं तथापि जब तक मायारानी से खटपट चली जाती है तब तक यह अंगूठी अपने पास जरूर रखूंगी (तिलिस्मी खंजर की तरफ इशारा करके) इसके सामने यह अंगूठी कोई चीज नहीं है।
भूतनाथ - बेशक-बेशक! जिसके पास यह खंजर है उसे दुनिया में किसी चीज की परवाह नहीं और वह अपने दुश्मन से चाहे वह कैसा जबरदस्त क्यों न हो कभी नहीं डर सकता। आपने मुझ पर बड़ी ही कृपा की जो ऐसा खंजर थोड़े दिन के लिए मुझे दिया। आह, वह दिन भी कैसा होगा जिस दिन यह खंजर हमेशा अपने पास रखने की आज्ञा आप मुझे देंगी।
कमलिनी - (मुस्कुराकर) खैर, वह दिन आज ही समझ लो, मैं हमेशा के लिए यह खंजर तुम्हें देती हूं, मगर नानक के लिए ऐसा करने की सिफारिश मत करना।
भूतनाथ ने खुश होकर कमलिनी को सलाम किया। कमलिनी ने नागर की उंगली से जहरीली अंगूठी उतार ली और उसके बटुए में से खोजकर उस दवा की शीशी भी निकाल ली जो उस अंगूठी के भयानक जहर को बात की बात में दूर कर सकती थी। इसके बाद कमलिनी ने भूतनाथ से कहा, ''नागर को हमारे अद्भुत मकान में ले जाकर तारा के सुपुर्द करो और फिर मुझसे आकर मिलो। मैं फिर वहीं अर्थात् मनोरमा के मकान पर जाती हूं। अपने कागजात भी उसके बटुए में से निकाल लो और इसी समय उन्हें जलाकर सदैव के लिए निश्चिन्त हो जाओ।''
बयान - 6
मायारानी का डेरा अभी तक खास बाग (तिलिस्मी बाग) में है। रात आधी से ज्यादा जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। पहरे वालों के सिवाय सभी को निद्रादेवी ने बेहोश करके डाल रखा है, मगर उस बाग में दो औरतों की आंखों में नींद का नाम-निशान भी नहीं। एक तो मायारानी की छोटी बहिन लाडिली, जो अपने सोने वाले कमरे में मसहरी के ऊपर पड़ी कुछ सोच रही है और थोड़ी-थोड़ी देर पर उठकर बाहर निकलती और सन्नाटे की तरफ ध्यान देकर लौट जाती है, मालूम होता है कि वह मकान से बाहर जाकर किसी से मिलने का मौका ढूंढ़ रही है, और दूसरी मायारानी, जो निद्रा न आने के कारण अपने कमरे में टहल रही है। उसे भी तरह-तरह के खयालों ने सता रखा है। कभी-कभी उसका सिर हिल जाता है जो उसके दिल की परेशानी को पूरी तरह से छिपा रहने नहीं देता, उसके होंठ भी कभी-कभी अलग होकर दिल का दरवाजा खोल देते हैं जिससे दिल के अन्दर कैद रहने वाले कई भेद शब्द रूप होकर धीरे से बाहर निकल पड़ते हैं।
जब चारों तरफ अच्छी तरह सन्नाटा हो गया तो लाडिली ने काले कपड़े पहने और ऐयारी का बटुआ कमर में लगाने के बाद कमरे के बाहर निकलकर इधर-उधर टहलना शुरू किया। वह उस कमरे के पास आई जिसके अन्दर मायारानी तरद्दुद और घबड़ाहट से निद्रा न आने के कारण टहल रही थी। लाडिली छिपकर देखने लगी कि मायारानी क्या कर रही है। थोड़ी देर के बाद मायारानी के मुंह से निकले हुए शब्द लाडिली ने सुने और वे शब्द ये थे - ''वह इस रास्ते को जानता है... वह भेद जिसे लाडिली नहीं जानती - आह, धनपत की मुहब्बत ने - ''
इन शब्दों को सुनकर लाडिली घबड़ा गई और बेचैनी से अपने कमरे में लौट आने के लिए तैयार हुई, मगर उसके दिल ने उसे वहां से लौटने न दिया। इच्छा हुई कि मायारानी के मुंह से और भी कोई शब्द निकलें तो सुने, परन्तु इसके बाद मायारानी कुछ ज्यादा बेचैन मालूम हुई और अपनी मसहरी पर जाकर लेट रही। आधी घड़ी से ज्यादा न बीती थी कि मायारानी की सांस ने लाडिली को उसके सो जाने की खबर दी और लाडिली वहां से लौटकर बाग में टहलने लगी। फिर घूमती-फिरती और अपने को पेड़ों की आड़ में बचाती हुई वह बाग के पिछले कोने में पहुंची जहां एक छोटा-सा मगर मजबूत बुर्ज बना था। इसके अन्दर जाने के लिए छोटा-सा लोहे का दरवाजा था जिसे उसने धीरे से खोला और अन्दर जाने के बाद फिर बन्द कर लिया। भीतर बिल्कुल अंधेरा था। बटुए में से सामान निकालकर मोमबत्ती जलाई और उस कोठरी की हालत अच्छी तरह देखने लगी। यह बुर्ज वाली कोठरी वर्षों से ही बन्द थी और इस सबब से इसके अन्दर मकड़ों ने अच्छी तरह अपना घर बना लिया था, मगर लाडिली ने इस कोठरी की गन्दी हालत पर कुछ ध्यान न दिया। इस कोठरी की जमीन चौखूंटे पत्थरों से बनी हुई थी और छत में छोटे-छोटे दो-तीन सूराख थे जिनमें से आसमान में जड़े हुए तारे दिखाई दे रहे थे। पहले तो लाडिली इस विचार में पड़ी कि बहुत दिनों से बन्द रहने के कारण इस कोठरी की हवा खराब होकर जहरीली हो गई होगी, शायद किसी तरह का नुकसान पहुंचे, मगर छत के सूराखों को देख निश्चिन्त हो गई और मोमबत्ती एक किनारे जमाकर जमीन पर बैठ गई। आधी घड़ी तक सोच-विचार में पड़ी रही, इसके बाद हलकी आवाज के साथ कोने की तरफ जमीन का एक चौखूंटा पत्थर किवाड़ के पल्ले की तरह खुलकर अलग हो गया और नीचे से अपनी असली सूरत में कमलिनी निकलकर लाडिली के सामने खड़ी हो गई। कमलिनी को देखते ही लाडिली उठ खड़ी हुई और बड़ी मुहब्बत से उसके साथ लिपटकर रोने लगी तथा कमलिनी की आंखें भी आंसू की बूंदें गिराने लगीं, कुछ देर बाद दोनों अलग हुईं और जमीन पर बैठकर बातचीत करने लगीं।
लाडिली - मेरी प्यारी बहिन, इस समय मेरी खुशी का अन्दाजा कोई भी नहीं कर सकता। मुझे तो इस बात का बड़ा ही रंज था कि तुमने मुझे अपने दिल से भुला दिया जिसकी आशा कदापि न थी, मगर आज शाम को तुम्हारे हाथ की लिखी हुई उस चीठी ने मुझमें जान डाल दी जो तेजसिंह के हाथ मुझ तक पहुंचाई गई थी।
कमलिनी - नहीं-नहीं, अभी तक मैं तुझे उतना ही प्यार करती हूं जितना यहां रहने पर करती थी परन्तु इस समय आशा कम थी कि मेरे लिखे अनुसार यहां आकर तू मुझसे मिलेगी, क्योंकि बड़ी बहिन मायारानी मेरी जान की ग्राहक हो रही है और तू पूरी तरह उसके कब्जे में है।
लाडिली - प्यारी बहिन, चाहे मायारानी का दिल तुम्हारी दुश्मनी से भरा हुआ क्यों न हो मगर मेरा दिल तुम्हारी मुहब्बत से किसी तरह खाली नहीं हो सकता। तुम्हारी चीठी पाते ही मैं बेचैन हो गई और हजारों आफतों की तरफ ध्यान न देकर बेखटके यहां चली आई। क्या अब भी तुम्हें...।
कमलिनी - हां-हां मुझे विश्वास है और मैं खूब जानती हूं कि अगर तेरे दिल में मेरी मुहब्बत न होती तो तू मेरे लिखने पर यकायक यहां न आती।
लाडिली - मुझे इस बात की शिकायत करने का मौका आज मिला कि तुमने इस घर को तिलांजलि देते समय अपने इरादे से मुझे बेखबर रखा।
कमलिनी - तो क्या मेरा इरादा जानने पर तू मेरा साथ देती
लाडिली - (जोर देकर) जरूर साथ देती! हाय, यहां रहकर जैसी तकलीफ में दिन काट रही हूं वह मेरा ही जी जान रहा है। ऐसे-ऐसे भयानक काम मुझसे लिए जाते हैं कि जिसे मैं मुख्तसर में कह नहीं सकती, लाचार होकर और झख मारकर सब-कुछ करना पड़ता है क्योंकि इस बात को मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मायारानी के गुस्से में पड़कर मैं अपनी जान भारतवर्ष के किसी घने जंगल में छिपकर भी नहीं बचा सकती।
कमलिनी - इसका सबब यही है कि तू तिलिस्मी हाल से बिल्कुल बेखबर और भोली है, बल्कि वास्तव में रामभोली है।
लाडिली - (चौंककर) क्या तुम जानती हो कि मैं रामभोली बनने पर लाचार की गई थी?
कमलिनी - मुझे अच्छी तरह मालूम है, अभी तक नानक मेरे साथ रहकर मेरा काम कर रहा है।
लाडिली - हाय, जब वह तुम्हारे साथ है तो जरूर एक दिन सामना होगा। उस समय शर्म से मेरी आंखें ऊंची न होंगी, उस बेचारे के साथ मैंने बड़ी बुराई की।
कमलिनी - लेकिन मैं खूब जानती हूं कि इसमें तेरा कोई कसूर नहीं। खैर इस बात को जाने दे, मुझे तेरी मुहब्बत यहां तक खींच लाई है, मैं इस समय यह पूछने आई हूं कि अब तेरा क्या इरादा है क्योंकि इस तिलिस्म की उम्र अब तमाम हो गई और मायारानी अपने बुरे कर्मों का फल भोगा ही चाहती है।
लाडिली - (हाथ जोड़कर) मैं यही चाहती हूं कि तुम मुझे अपने साथ रखो जिसमें मायारानी का मुंह देखना नसीब न हो। मैं जानती हूं कि यह तिलिस्म अब टूटा ही चाहता है क्योंकि इधर थोड़े दिनों से बड़ी-बड़ी अद्भुत बातें देखने में आ रही हैं जिनसे खुद मायारानी की अक्ल चक्कर में है, मगर शक है तो इतना ही कि तिलिस्म तोड़ने वाले कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह इस समय मायारानी के कैदी हो रहे हैं और कल उन दोनों का सिर जरूर काटा जायगा।
कमलिनी - यह बात मुझे भी मालूम है मगर सवेरा होने के पहले ही मैं उन दोनों को छुड़ाकर ले जाऊंगी।
लाडिली - यदि ऐसा हो तो क्या बात है! वे दोनों कैसे नेक और खूबसूरत हैं। जिस समय मैंने आनन्दसिंह को देखा...।
इतना कह लाडिली चुप हो रही, उसकी आंखें नीची हो गईं और उसके गालों पर शर्म की सुर्खी दौड़ गई। कमलिनी समझ गई कि यह आनन्दसिंह को चाहती है।
कमलिनी - मगर उन दोनों को छुड़ाने के लिए कुछ तुमसे भी मदद चाहती हूं।
लाडिली - तुम्हारी आज्ञा मानने के लिए मैं हर तरह से तैयार हूं।
कमलिनी - तू बस कैदखाने की ताली मुझे ला दे जिसमें दोनों कुमार कैद हैं।
लाडिली - मैं उद्योग कर सकती हूं, मगर वह तो हरदम मायारानी की कमर में रहती है!
कमलिनी - उसके लेने की सहज तरकीब मैं बताती हूं।
लाडिली - क्या?
कमलिनी - (कमर से तिलिस्मी खंजर निकाल और दिखाकर) यह तिलिस्म की सौगात है, हाथ में लेकर जब इसका कब्जा दबाया जायगा तो बिजली की-सी चमक पैदा होगी जिसके सामने किसी की आंख खुली नहीं रह सकती। इसके अतिरिक्त इसमें और भी दो गुण हैं, एक तो यह कि जिसके बदन से यह लगा दिया जाय उसके बदन में बिजली दौड़ जाती है और वह तुरत बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ता है, और दूसरे यह हर एक चीज को काट डालने की ताकत रखता है।
कमलिनी ने खंजर का कब्जा दबाया। उसमें से ऐसी चमक पैदा हुई कि लाडिली ने दोनों हाथों से आंखें बन्द कर लीं और कहा, ''बस-बस इस चमक को दूर करो तो आंखें खोलूं!''
कमलिनी - (कब्जा ढीला करके) लो चमक बन्द हो गई, आंखें खोलो।
लाडिली - (आंखें खोलकर) मेरे हाथ में दो तो मैं भी कब्जा दबाकर देखूं! मगर नहीं तुम तो कह चुकी हो कि यह जिसके बदन से छुआया जायगा वह बेहोश हो जायगा, तो मैं इसे कैसे ले सकूंगी और तुम पर इसका असर क्यों नहीं होता
हम ऊपर लिख जाए हैं कि कमलिनी की कमर में दो तिलिस्मी खंजर थे और उनके जोड़ की दो अंगूठियां भी उसकी उंगलियों में थीं। उसने एक अंगूठी लाडिली की उंगली में पहिनाकर उसका गुण अच्छी तरह समझा दिया और कह दिया कि जिसके हाथ में यह अंगूठी रहेगी केवल वही इस खंजर को अपने पास रख सकेगा।
लाडिली - जब ऐसी चीज तुम्हारे पास है तो वह ताली तुम स्वयं उससे ले सकती हो।
कमलिनी - हां, मैं यह काम खुद भी कर सकती हूं मगर ताज्जुब नहीं कि मायारानी के कमरे तक जाते मुझे कोई देख ले और गुल करे तो मुश्किल होगी। यद्यपि मेरा कोई कुछ कर नहीं सकता और मैं इस खंजर की बदौलत सैकड़ों को मारकर निकल जा सकती हूं, मगर जहां तक बिना खून-खराबा किए काम निकल जाय तो उत्तम ही है।
लाडिली - हां ठीक है, तो अब विलम्ब न करना चाहिए।
कमलिनी - तो फिर जा, मैं इसी जगह बैठी तेरी राह देखूंगी!
खंजर के जोड़ की अंगूठी हाथ में पहनने बाद लाडिली ने तिलिस्मी खंजर ले लिया और बुर्ज का दरवाजा खोल यहां से रवाना हुई। कमलिनी को आधे घंटे से ज्यादे राह न देखनी पड़ी, इसके भीतर ही ताली लिए हुए लाडिली आ पहुंची और अपनी बड़ी बहिन के सामने ताली रखकर बोली, ''इस ताली के लेने में कुछ भी कठिनाई न हुई। मुझे किसी ने भी न देखा। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था, मायारानी बेखबर सो रही थी, ताली लेते समय वह जाग न उठे इससे यह तिलिस्मी खंजर एक दफे उसके बदन से लगा देना पड़ा, बस तुरत ही उसका बदन कांप उठा मगर वह आंखें न खोल सकी, मुझे विश्वास हो गया कि बेहोश हो गई। बस मैं ताली लेकर चली आई, मगर अब यहां ठहरना उचित नहीं।
कमलिनी - हां, अब यहां से चलना और उन कैदियों को छुड़ाना चाहिए।
लाडिली - मगर उन कैदियों को छुड़ाने के लिए तुमको इसी बाग की राह से कैदखाने तक जाना होगा!
कमलिनी - नहीं, वहां जाने के लिए दूसरी राह भी है जिसे मैं जानती हूं।
लाडिली - (ताज्जुब से कमलिनी का मुंह देखके) जीजाजी यहां के बहुत से रास्तों और सुरंगों तथा तहखानों को जानते थे, मालूम होता है तुमने उन्हीं से इसका हाल जाना होगा
कमलिनी - नहीं, यहां की बहुत-सी बातें किसी दूसरे ही सबब से मुझे मालूम हुईं जिसे सुनकर तू बहुत ही खुश होगी, हां यदि जीजाजी हम लोगों से जुदा न किए जाते तो यहां की अजीब बातों के देखने का आनन्द मिलता। मायारानी को भी यहां के भेद अच्छी तरह मालूम नहीं हैं।
लाडिली - जीजाजी हम लोगों से जुदा किये गये इसका मतलब मैं नहीं समझी।
कमलिनी - क्या तू समझती है कि गोपालसिंहजी (मायारानी के पति) अपनी मौत से मरे
लाडिली - (कुछ सोचकर) मुझे तो यही विश्वास है कि उन्हें जहर दिया गया, मैंने स्वयं देखा कि मरने पर उनका रंग काला हो गया था और चेहरा ऐसा बिगड़ गया कि मैं पहचान न सकी। हाय, हम दोनों बहिनों पर उनकी बड़ी कृपा रहती थी!
कमलिनी - उनकी कृपा किस पर नहीं रहती थी! (कुछ सोचकर) खैर आज मैं तुझे इस बाग के चौथे दर्जे में ले चलकर एक तमाशा दिखलाऊंगी।
लाडिली - (ताज्जुब से) क्या चौथे दर्जे में तुम जा सकती हो
कमलिनी - हां, मैं यहां के बहुत से भेदों को जान गई हूं और सब जगह घूम-फिर सकती हूं।
लाडिली - अहा, अब तो मैं जरूर चलूंगी! जीजाजी अक्सर कहा करते थे कि इस बाग के चौथे दर्जे में अगर कोई जाय तो उसे मालूम हो कि दुनिया क्या चीज है और ईश्वर की सृष्टि में कैसी विचित्रता दिखाई दे सकती है।
कमलिनी - अच्छा, अब चलकर पहले कैदियों को छुड़ाना चाहिए।
इतना कहकर कमलिनी उठी और मोमबत्ती हाथ में लिए हुए उस सुरंग के मुहाने पर गई जिसका मुंह चौखूंटे पत्थर के हट जाने से खुल गया था और जिसमें से वह कुछ ही देर पहले निकली थी। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां मौजूद थीं, दोनों बहिनें नीचे उतर गईं। आखिरी सीढ़ी पर पहुंचने के साथ ही वह चौखूंटा पत्थर एक हलकी आवाज के साथ अपने ठिकाने पहुंच गया और उस सुरंग का मुंह बन्द हो गया।
(सातवाँ भाग समाप्त)