चाँदनी (कहानी) : नरेश मेहता

Chandni (Hindi Story) : Naresh Mehta

महीनों बाद चाँदनी का पत्र आया कलकत्ते से – खूब ही वर्षा है यहाँ और वर्षाश्री भी। पूजा तक रुकेगी। कल पड़ोस में कोई संगीत-गोष्ठी थी, किसी प्रत्यूष गोस्वामी ने बड़ी अच्छी सितार बजाई थी।

बस, यह पत्र है। तब विज्ञप्तियाँ किसे कहा जाएगा ? और मजा यह कि यह पत्र भी पूरे दो माह बाद कलकत्ते से नहीं, दार्जिलिंग जाने की सूचना के साथ सिलिगुड़ी से डाला गया था। चाँदनी कहा करती है कि मैं उसके पत्रों के उत्तर नहीं देता, लेकिन इस पत्र का ही उत्तर कहाँ दूँ ? अपने रुकने की जगह या फिर होटल का ही पता दिया होता।
बिलकुल गर्मियों के धूल-भरे आकाश-सी है।

चाँदनी जब यहाँ से गई थी तो उसमें सायास कुछ नहीं था। एक दिन पहले ही तो हम लोग लॉन में बैठे हुए चाय पी रहे थे और मौसम को कोसते रहे थे। दूसरे दिन शाम की डाक से एक पोस्टकार्ड मिला कि वह कलकत्ते जा रही है और दो सप्ताह बाद लौट आएगी। मैंने भी सोचा कि इस बार पहाड़ नहीं जा सकी थी, घबरा उठी होगी। चलो ठीक है, दो-चार दिनों के लिए कहीं हो आना अच्छा होता है। लेकिन मैं इस स्वल्प-सी सूचना में क्या समझता ? कहीं मैं आहत अनुभव कर रहा था कि पूछ ही लेती, खैर।

दिन बीते, सप्ताह गुजरे, महीने भी आए-गए हो गए और चाँदनी का कहीं पता नहीं था। मुझे विश्वास था कि वह कलकत्ते में ही होगी और जेटियों पर घूमते हुए विलियम फोर्ट के मैदान में दूब पर लेटे हुए, विक्टोरिया मेमोरियल के पोखर में मछलियों को चारा चुगाते हुए अनुखन प्रतीक्षारत रही होगी कि मैं आऊँगा। लेकिन कैसे ? ‘तुम तो अपने किसी संबंधी के यहाँ गई हो, भला मैं वहाँ कैसे आ सकता हूँ ?’ अजीब अधूरे आकाश-सा उसका आचार होता है। लोग एब्सट्रेक्ट चित्र बनाते हैं, वह एब्सट्रेक्ट व्यवहार करती है, जबकि मुझे काँगड़ा-शैली भी समझ में नही आती।
भला शैलियों के इतने बड़े व्यवधान पर खड़े हम लोगों का क्या होगा ?
कुछ भी हो, उसे उत्तर तो देना है। एकमात्र उत्तर, जो हो सकता है, यह कि मैं भी दार्जिलिंग आ रहा हूँ।
इस उत्तर को वहाँ के पोस्टमास्टर के मार्फत भेज रवाना हो जाऊँगा।
अपनी इस लंबी यात्रा में पत्र-पत्रिकाओं के अलावा चाँदनी की स्मृतियाँ हैं, खिड़की से विहार के सपाट मैदान, दुखती रेखाओं-सी नदियाँ – सब बड़ा अच्छा लग रहा है। स्मृतियों में कोई दुखद नहीं है। अधिकांश या तो सुखद हैं अथवा एब्सट्रेक्स।

वह अपनी बात, आचार, व्यवहार सबमें संकेत करती है। याद नहीं पड़ता कि कभी कोई वाक्य भी किसी से पूरा कहा होगा। सादी-सी बात होगी – ‘चलिए, थोड़ा घूम आएँ’ इतना भी पूरा नहीं कह सकती। वह तो कहेगी – ‘चलिए’ और सड़क पर जाती किसी टैक्सी को रोक बैठ जाएगी तथा हँसती आँखों से आपकी ओर देखने लगेगी।
‘फूलों से मोनोटनी टूटती है न ?’

और आप देखेंगे कि यह बात का टुकड़ा फेसिंग से दिखे किसी केना के फूल को देखकर कहा गया होगा। उसके बाद – देर-देर तक कोई बात नहीं होगी। हाँ, चर्चा हो सकती है कि बर्जीनिया वूल्फ की डायरी में सहजता कितनी है अथवा वह मात्र प्रयोजन लगती है। - और आप देखेंगे कि आपके चारों ओर ऐसे या इस जैसे अनेक टुकड़े फैले हुए हैं। ऐसा वह इसलिए करती है कि आपको भ्रम हो जाए कि नहीं, वह कितना तो बात करती है ! लेकिन कहीं इन टुकड़ों को सुनते हुए पा सकने के खयाल से उसकी ओर देखना शुरू किया तो वह घिरी मछली की तरह पहले तो इधर-उधर करेगी और हताश भाव से अपने गहरे जल में नीचे उतर जाएगी, जैसे कि सब बेकार है।

प्रायः आपने देखा होगा कि लोग आपके बारे में बातें करते हुए आपको नहीं बोलने देते, लेकिन चाँदनी हँसते हुए आपको सुनती रहेगी-ऐसे जैसे कि आप किसी बिल्लोरी शीशे के सामने खड़े हैं। वह आपको दुहरा रहा है। इसीलिए चाँदनी लोगों के सामने या तो उपस्थित होती है अथवा प्रस्तुत होती है, मिलती नहीं है। जरा-सा उसे घेर लीजिए तो वह अजीब बच्चों की भाँति शैतानी हँसी ओठों में अछूते दाबे प्रस्तुत हो जाएगी, विवश-सी। लेकिन मौका मिलते ही मछली की भाँति हाथ से फिसलकर छूट जाएगी और फिर तो गर्मियों के सूर्यास्त की तरह ऐसी दूर-दूर हो जाएगी कि समेटे नहीं सिमटाएगी। उसे हठात् पा सकना कठिन है, कारण कि उसने अपने को साधा है। रियाज किए हुए राग की तरह उसकी उपस्थिति अनुभव होती है। तभी तो बिलकुल विमन होने पर भी अपनी सधी अंगलियों से चाय में चीनी या दूध की मात्रा में कोई अंतर नहीं होगा, उस पहले दिन से, जिस दिन उसने आपको जाना था।

सच ही वह अपने को प्रस्तुत करती है वरना उसके मुख पर विवर्णता, निस्तेज, आक्रोश सभी तो बड़ी जल्दी झलक उठता है। पतझर की झरती पत्तियाँ देखते हुए जाने क्या-क्या होने लगता है और वह खिड़की बंद कर लेती है। टैक्सी, व्यक्ति, होटल की सीट, क्रॉकरी पर बने बेलबूटे सभी के बारे में बड़ी जल्दी प्रतिक्रिया से भर उठती है, लेकिन दो जलों को भी मिलने में देर लगती होगी पर कब वह क्रोध से लाल होकर ओठों में मुसकरा दी है, कोई नहीं जान पाएगा। उसने अपने को इतना सायास साधा है कि अब सब अनायास लगता है।

यही लीजिए कि वह ऐसे पत्रों द्वारा सामने वाले से क्या अपेक्षा करती है? पूछो, तो कह देगी कि नहीं, अपेक्षा करना तो बड़ी व्यक्तिगत बात है। एक दिन मैंने उसे अपने टोस्ट पर मक्खन लगा देने के लिए कहा तो वह जाने कैसी-कैसी हो आई। तत्काल आँखें तक छलछला आईं और वैसे ही बरजती देखती रही। बड़ा संकोच बना रहा उस दिन। जबकि कुछ दिनों बाद एक नर्सरी से लौटते हुए कह गई कि मैंने उसे कभी वेणी तक खरीदकर नहीं दी। उसके इस कह दिए जाने के बाद तो मैं कभी भी वेणी नहीं खरीद पाऊँगा, क्योंकि कह दिए जाने पर तो न व्यक्ति, न फूल, किसी में भी गंध नहीं रह जाती है। इसीलिए चाँदनी न बोलती है, न कहती है बल्कि केवल यहाँ-वहाँ या तो एब्सट्रेक्ट टुकड़े होंगे या फिर बड़ी-बड़ी आँखों वाला हँसता बरजना होगा। स्कूली लड़कियों की तरह।

सिलिगुड़ी से ट्रेन बदली। तेज पहाड़ी नदियाँ, प्रलंबित चीड़वन, अजीब चित्रात्मक एकांत, प्रतीक्षित घाटियाँ-सब अजीब तरह से मोहते हैं। दोनों ओर चाबागानों के हरे विस्तार, जिनमें फूलहीन पलाश-खूब सारे पलाश, वसंत में कैसे सुलग उठते होंगे! मुझे याद हो आया, दो साल हुए जब हम ताजे चीड़-फूलों की तलाश में सातताल गए थे। मंद दोपहर छनकर बूटीदार यहाँ-वहाँ एकांत बिछली थी। सातताल वाला ताल दर्पण बना हुआ था। चीड़-फूल खोजते हुए पत्तों को चरमराते तथा अपनी ही आहट सुनते चले गए थे। हमारी वह खोज कितनी सफल रही थी। ढेर सारे चीड़-फूल रँगकर लोगों को बाँटे गए। कुछ ड्राइंगरूम में चाँदनी ने भी सजाए थे।

सहसा जाने कहाँ से सहमा-सहमा-सा दार्जिलिंग का स्टेशन सामने आ खड़ा हुआ। क्लॉकरूम में सामान रख चाँदनी की तलाश में निकल पड़ा। किसी अच्छे होटल में ही हो सकती थी। तिब्बती कुलियों से पीछा छुड़ाता सारे होटलों में भटकता रहा और उसका हुलिया बताता पूछता रहा। अनेक बार लोगों ने सशंक होकर देखा कि मैं कौन हूँ? और किस महिला को खोजता फिर रहा हूँ? इस सबके बाद मैं आश्वस्त हो गया कि वह यहाँ आई तो किसी होटल में नहीं रुकी। क्योंकि किसी होटल में यदि वह टिक जाए तो लोग उसे न जानें, ऐसा कभी नहीं हो सकता। पैसों के प्रति वह जितनी निर्मम है, यही तो होटल वाले याद रखते हैं।

रात एक होटल में बिता दूसरे दिन अनेक सार्वजनिक स्थानों पर खोजता रहा, लेकिन व्यर्थ। यहाँ उसका कोई परिचित भी नहीं था जिसके साथ वह हो सकती थी। मैं झल्लाकर लौटने के लिए बाध्य था। एक बार सोचा कि चलूँ, पोस्टऑफिस में तलाश करूँ, संभव है, कुछ पता चल जाए। लेकिन उन लोगों ने भी विवशता प्रकट की। केवल वे यही कह सके कि नोटिस-बोर्ड देख लीजिए कि इस नाम के व्यक्ति का कोई पत्र तो नहीं है? ।

और मैंने अपना पत्र नोटिस-बोर्ड की जालियों के पीछे, मैले सफेद फीतों में एक जगह बड़े उदास भाव से लटके पाया, जिसमें कि मैंने अपने दार्जिलिंग आने की बात लिखी थी तथा यह भी कि वह मेरी प्रतीक्षा करे।

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