चंदन और पिशाच : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Chandan Aur Pishach : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक अमीर ज़मींदार थे। उनकी एक ही लड़की थी। उसका नाम था चंपा। चंपा जितनी सुंदर थी, उतनी ही बुद्धिमती भी थी। उसके विवाह की उम्र हुई तो कई राजा, मंत्री, ज़मींदार के घर से विवाह का प्रस्ताव आने लगा। ज़मींदार मुश्किल में पड़ गए। किसके साथ लड़की को ब्याह दें, उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। आख़िर में बेटी से पूछा तो उसने कहा, “राज्य में प्रचार कर दीजिए, जो तीर से अचूक निशाना लगाएगा उसी से मैं विवाह करूँगी।”
कई राजकुमार, मंत्री-पुत्र, ज़मींदार-पुत्र आए, पर तीर निशाने पर लगाने की प्रतियोगिता जीत नहीं पाए। यह देखकर लोग आपस में बात करने लगे कि इस राज्य में कोई भी तीरंदाज़ नहीं है।
उसी राज्य में एक शबर युवक रहता था। उसका नाम था चंदन। देखने में जितन सुंदर था, उतना सीधा भी। किसी से उसका कोई मतलब नहीं था। जितना कमाता, उसी से अपना गुज़ारा करता। मक्खी को भी ‘मर जा’ नहीं कहता। उसने लोगों से ज़मींदार की लड़की की शर्त सुनी। तीरंदाज़ों की निंदा सुनकर वह बहुत आहत हुआ और ज़मींदार के घर की तरफ़ चल पड़ा।
ज़मींदार के घर के पास के एक पेड़ में एक पिशाच रहता था। चंपा से विवाह करने की उसकी बहुत इच्छा थी। पर वह इंसान का रूप धरे बिना ज़मींदार की लड़की से विवाह नहीं कर सकता था, इसलिए जब उसने देखा कि चंदन ज़मींदार के घर के अंदर जा रहा है तो उसका रास्ता रोका और उससे सारी बातें पूछीं। चंदन तो छल-कपट जानता नहीं था, इसलिए सारी बातें उसने सच-सच बता दीं। उसकी बात सुनकर पिशाच हँसा और बोला, “ज़मींदार अपनी बेटी की शादी तुझसे कभी नहीं करेगा। तेरा बहुत ही कठिन इम्तिहान लेगा। तू जीत नहीं पाएगा। पर मैं एक मंत्र जानता हूँ। उस मंत्र को पढ़कर तीर चलाने पर निशाना बेकार नहीं जाता। अगर तू मेरी एक बात पर राज़ी होगा तो मैं तुझे वह मंत्र सिखाऊँगा। मेरी शर्त यह है कि एक साल बाद तू मेरे पास बेगारी करेगा और तेरी पत्नी भी मेरी नौकरानी बनकर रहेगी।”
चंदन ने पूछा, “तो फिर मैं बेगारी से कैसे मुक्त होऊँगा? पिशाच बोला, अगर मैं तेरे किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाऊँगा तो तू मुक्त हो जाएगा।”
चंदन को तो इम्तिहान देने का नशा चढ़ा था, इसलिए आगा-पीछा बिना सोचे पिशाच की बात पर हामी भर दी। पिशाच ने उसे मंत्र सिखा दिया। चंदन ने ज़मींदार के पास पहुँचकर अपने आने का कारण बताया। ज़मींदार उसकी बात सुनकर दुःखी हो गया। पर उन्होंने तो शर्त रखी है, करें तो क्या करें? मन ही मन तय किया कि उसकी ख़ूब कठिन परीक्षा लेंगे, जिससे चंदन न तो जीतेगा और न ही उसकी बेटी से ब्याह कर पाएगा। उसी समय उनके सामने से पक्षियों का एक झुंड उड़ता हुआ गुज़रा। ज़मींदार ने उनमें से एक पक्षी की तरफ़ इशारा करके उसका एक पंख गिराने के लिए चंदन से कहा। चंदन ने मंत्र पढ़कर तीर मारा। हवा में उड़कर पंख नीचे गिरा।
यह बात देखकर ज़मींदार भौचक रह गया। फिर एक बार इम्तिहान लेने की बात कही। कुछ दूरी पर एक बकरी चर रही थी। तीर मारकर उसकी पूँछ को काट गिराने के लिए चंदन से कहा। चंदन ने मंत्र पढ़कर तीर साधा। पूँछ कट कर नीचे गिर गई। अबकी बार ज़मींदार ने फिर एक परीक्षा लेने की बात कही। दूर जाते हुए एक बटोही की पगड़ी को तीर से निशाना लगाकर नीचे गिरा देने को कहा। चंदन ने मंत्र पढ़कर तीर मारा। अचूक निशाना लगा। ज़मींदार हार गए। चंदन ने चंपा से शादी कर ली। एक साल पूरा होने में बस एक दिन बाक़ी था, तब चंदन को पिशाच की बात याद आ गई। उसने सारी बातें चंपा को बताईं। चंपा तो बुद्धिमती थी ही। उसने कहा, “परेशान मत हो। तुम जो प्रश्न पूछोगे, उसका उत्तर पिशाच दे नहीं पाएगा और तुम मुक्त हो जाओगे। मैं कोई उपाय ढूँढ़ती हूँ।”
उसके बाद चंपा ने गोंद लाकर अपने शरीर पर मला और रुई पर लोट-पोट होने लगी। उसके पूरे शरीर में रुई चिपक गई। फिर उसने सिर पर पक्षी का पंख चिपकाया, चेहरे पर सिंह का मुखौटा लगाया। पीछे मोर की पूँछ लगाई। जिस दिन एक साल पूरा हुआ, उस दिन उसी रूप में वह जंगल की तरफ़ रवाना हो गई। आगे क्या करना होगा, चंदन को समझा दिया।
कुछ देर बाद पिशाच पहुँचा। चंदन से पूछा, क्यों शर्त की बात याद है न? चंदन ने हामी भरी तो पिशाच बोला, “पत्नी के साथ चलो।” चंदन बोला, “चलूँगा, पर शिकार करके मेरा मन अभी भरा नहीं है। मुझे थोड़ी और मोहलत दो।” पिशाच राज़ी हो गया। दोनों जंगल पहुँचे। जंगल में चंपा घूम रही थी। उसे दिखाकर चंदन ने पूछा, “वह कौन-सा जीव है, बताओ तो उसे मैं तीर मारूँगा।” पिशाच बोला, “मैं नहीं जानता। पर तुम तीर तो मारो। मर जाएगा जीव तो अपने-आप पता नहीं चल जाएगा?”
चंदन हँस पड़ा। बोला, “तुम मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाए, इसलिए मैं तुम्हारी बेगारी के काम से मुक्त हुआ। अब तुम चले जाओ, वह जीव मेरी पत्नी चंपा है।” पिशाच भौंचक देखता रहा। चंदन बोला, “याद आया न?” पिशाच चुपचाप लौट गया। चंपा और चंदन सुख से रहने लगे।
(साभार : ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)