Chalis Ki Umar (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
चालीस की उम्र : रामधारी सिंह 'दिनकर'
चालीस की उम्र कहते हैं , जवानी शरीर में नहीं , शरीर के भीतर कहीं दिल में रहती है । भीतर से फूटनेवाला उमंगों का फव्वारा जिनका ताजा और जवान है , वे उम्र के उतार के मौसम में भी जवान ही रहते हैं । फिर भी , जो लोग उम्र की चोटी पर से उमंगों के साथ उतर रहे हैं , वे भी अगर अपने - आपसे तटस्थ होकर सोचें , तो उन्हें पता चलेगा कि यह जवानी केवल मन की जवानी है ।
आदमी सब दिन जवान रहे , यह उसके मन पर निर्भर करता है । मगर दुनिया मन के जवानों को ठीक उसी दृष्टि से तो नहीं देखती , जिस दृष्टि से वह तन के जवानों को देखा करती है । और मन से आप कितने भी जवान क्यों न हों , चालीस के बाद आपको दुनिया के हाथों वही प्यार , प्रोत्साहन और दुलार नहीं मिल सकता , जो चालीस के पहले मिला करता था ।
बाग में जाइए । जो पौधे बनने के क्रम में हैं , उन पर माली की खास नजर रहती है । वह रोज उनकी क्यारियों को साफ करके उनमें पानी पटाता है और छुरी तथा कैंची के प्रयोग से उनके रूप को सँवारने की कोशिश करता है । पौधे जरा अल्हड़ होते हैं । वे कभी इस बाँह को फैलाकर इधर के पड़ोसी को छेड़ते हैं और कभी उस बाँह को फैलाकर उधर के पड़ोसी को । मगर माली उनके सभी नाजों को मुहब्बत की नजर से देखता है और झिड़कने के बदले वह उन्हें पुचकारकर ही ठीक करता है ।
लेकिन क्या बने हुए वृक्ष भी इस मुहब्बत और पुचकार की आशा कर सकते हैं ? देखिए न उसकी सरपट बनी हुई क्यारियों को । मालूम होता है , वर्षों से यहाँ न तो खुरपी के होंठ से सुधा छलकी है और न घड़ों के मुख से संजीवनी ।
बेचारे बने हुए वृक्ष ! पहले ये जो कुछ पा चुके हैं , अब उसकी कीमत अदा करना इनका काम रह गया है । ये आम के पेड़ हैं । पानी अब इन्हें उतना ही मिलता है , जो वर्षा के दिन में आन गिरता है और अमृत भी ये उतना ही पी सकते हैं जो चाँदनी के कोष में इनके हिस्से का है । हर भोर और शाम को माली इनकी ओर भी देखे , इतनी उसे फुरसत कहाँ ? माली की नजर से इनकी नजर अब केवल माघ और फागुन के महीनों में मिलती है , जब यह देखने का समय आता है कि आमों में मंजर आए हैं या नहीं, यानी इस साल यह मजदूर फल देनेवाला है या नहीं।
जर्मन कवि गेटे ने कहा है कि दुनिया नौजवानों को इसलिए चाहती है कि वे होनहार होते हैं । मगर चालीस वर्ष का आदमी तो बहुत कुछ हो गया रहता है । फिर उसे कोई प्यार औरे प्रोत्साहन देनेवाली दृष्टि से क्यों देखे ?
जो तन से जवान हैं , दुनिया उनका जुल्म सहकर भी उन्हें प्रोत्साहन देती है ; किन्तु चालीस के बाद के आदमी की , चाहे वह मन से जवान ही क्यों न हो , में आलोचना शुरू हो जाती है । यह समय वह होता है जब प्रशंसा और प्रोत्साहन बदलकर उम्मीद बन जाते हैं । इसलिए संसार चालीस के बाद के मनुष्य को देता कम , उससे चाहता अधिक है । अब लोग हमारी टहनियाँ नहीं गिनते , हमारे पत्तों की हरियाली से तृप्त नहीं होते ; अब तो वे हमारे फल ही गिनेंगे । और यही वह बिन्दु है , जहाँ चालीस के शिकार को जीवन में नई दिशा की खोज करनी चाहिए । और वह नई दिशा है , ' अब से माँगों कम , किन्तु दान अधिक दो । '
चालीस की उम्र वह रेखा है , जिसे पार कर हम उन लोगों के झुंड में जा मिलते हैं , जो लेने नहीं , देनेवाले हैं , जो खाते कम , कमाते अधिक हैं ; जो खुद कन्धे पर नहीं बैठकर दूसरों को ही अपने कन्धों पर बिठाया करते हैं ।
बीसी और तीसी वह समय है , जब आदमी नई दोस्ती की मिठास और मुहब्बत की रंगीनी से छका रहता है । इस उम्र में आदमी फूलों के कपोलों पर टपकनेवाली शबनम की आवाज को सुन सकता है और ऊषा के प्रदेश में जो माधुरी और सौरभ है , उसे जी भरकर अपने भीतर खींच सकता है । मगर चालीस लगते ही नाटक के परदे बदलने लगते हैं और यह परिवर्तन आदमी को अच्छा नहीं लगता ।
इस समय किसी - किसी को यह भ्रम भी हो जाता है कि उसके स्वास्थ्य में कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं हो गई है , उसका आमाशय कुछ खराब तो नहीं हो गया है । और वह डॉक्टर से पूछ - ताछ करने लगता है । मगर डॉक्टरों की प्रायः एक ही राय होती है कि ' सब ठीक है , कोई खास बात नहीं ; जरा खाने - पीने पर ध्यान रखिए । ' लेकिन खाने - पीने से क्या होता है ? चाहे जितना खाओ , चाहे जितना पीयो , चालीस के बाद आनन्द की दिशा बदल जाती है ।
मैंने उम्र की तलवार से कटे हुए कितने ही लोगों को झीखते देखा है । लेकिन यह झीखना किस काम का ? दोपहरी को ऊषा बनाना कठिन है और फिक्र करने से तो दोपहरी और भी तेजी से ढलने लगेगी । समय रुकने का नहीं । वह बढ़ता ही जाएगा । और यह भी ठीक है कि ऊषा के जो कर्तव्य और आनन्द हैं , वे दोपहरी के कर्तव्य और आनन्द से भिन्न होते हैं । लेकिन यह समझना भूल है कि भोर में आदमी को जैसा सन्तोष प्राप्त होता है , दोपहर में उसे वैसा आनन्द नहीं मिल सकता । जरूरत है समय के साथ बदलते रहने की ।
पुराने जमाने के बहुत से लोग आज की दुनिया में झख मारकर जी रहे हैं ; क्योंकि आज वे बहुत-सी ऐसी बातें देख रहे हैं जो उन्हें पसन्द नहीं है और जिन्हें वे बदल भी नहीं सकते । उनकी वेदना समय के गियर ( Gear ) से छूट जाने की वेदना है और इसका एकमात्र इलाज भी यही है कि वे किसी - न - किसी प्रकार जिन्दगी के गियर से अपना मेल बिठा लें । मेल बैठ जाने पर फिर कोई दिक्कत नहीं होती । इसीलिए , अपना तो यह विचार है कि घड़ी की सूई जब चालीस पर पहुंचे , तब आदमी को उदास नहीं होना चाहिए और न सूई को नकली तौर पर पीछे ही ले जाने की कोशिश करनी चाहिए ।
जिसे हम मन की जवानी कहते हैं , वह उम्र को कोड़े मारकर हाँकने की कला का नाम नहीं है । उम्र के साथ हमारे शरीर और मन में जो परिवर्तन होने लगते हैं , उनका प्रसन्नतापूर्वक साथ देने के लिए दिमाग को राजी करना ही मन की असली जवानी है । साथ तो देना ही पड़ता है । अब बात रह जाती है कि दिमाग तल्खी के साथ साथ देता है या मौज के साथ । जिसने मौज के साथ साथ दिया , उसे पछताने की जरूरत नहीं होती ।
सच पूछिए तो चालीस की उम्र में आकर भी जिन्दगी नए ढंग से शुरू की जा से सकती है , बल्कि यों कहना चाहिए कि जिन्दगी , असल में , यहीं से शुरू होती है , बशर्ते कि हम उसके लिए तैयार हों । कल तक हमने जो कुछ भी संचय किया है , आज से हमें उसे खर्च करना चाहिए । चालीस के पहले तक दुनिया हमारी पीठ पर इसलिए अपना हाथ दिए थी कि अपने समय में पहुँचकर हम भी आनेवाली पीढ़ियों की पीठ पर अपना हाथ रखें । पहले हमने जो आशीर्वाद अर्जित किया है , अब हमें उसे विसर्जित करना होगा । हम पुत्र थे , अब पिता हो गए हैं । पिता का धर्म माँगना नहीं , बल्कि अपने - आपको उत्सर्ग करना है । और उत्सर्ग में जो आनन्द है , वह याचना से क्या कम पड़ेगा ?
जवानी में जब हम कदम बदलते हैं अथवा एक रास्ते को छोड़कर दूसरे को अपनाना चाहते हैं , तब दुनिया कुछ बुरा नहीं मानती , बल्कि तब भी वह हमारे साथ हामी ही भरती है । किन्तु प्रौढ़ावस्था में पहुँचते ही हमें कदम बदलने का अधिकार नहीं रह जाता । हाँ , जरूरत पड़ने पर हम कन्धे बदल सकते हैं । और तब भी , जब - जब हम कन्धे बदलते हैं , किसी - न - किसी तरफ से आवाज आ ही जाती है कि ' आदमी हॉफ गया है ; अच्छा , कन्धे बदलकर ही सही । '
लेकिन क्या चालीस के बाद कदम बदलने की जरूरत रह जाती है ? अर्थात् चालीस के बाद अगर हम एक ही राह पर चलते रहना चाहते हैं , तो क्या इसका कारण यह है कि हम संसार का भय मानते हैं ? शायद नहीं । जिसे जो कुछ बनना होता है , वह चालीस के पहले ही बन चुका होता है । क्रान्ति के पहले वेग चालीस के बाद नहीं पैदा होते । कविता की पहली कोंपल चालीस के बाद नहीं फूटती और दर्शन का तेज चालीसवें आसमान पर चढ़कर ही जन्म नहीं लेता है । हाँ , क्रान्ति , कविता और दर्शन के जो रूप चालीस तक परिपक्व हो जाते हैं, आगे की जिन्दगी में उन्हीं का चमत्कार काम करता है ।
जवानी तो अल्हड़ होती है और उसमें एक प्रकार का अभिमान भी होता है , जो खूबसूरत है । मगर चालीस में भी एक तरह का भाव है , जिसे हम अहंकार या अभिमान कह सकते हैं । एक बार चालीसा वर्ष के एक आदमी ने अपनी सभी डिग्रियों को जला डाला । उसने सोचा ‘ अब इन प्रमाण - पत्रों को कहाँ तक ढोता फिरूँ ? क्या डिग्रियाँ अब भी मेरे रग - रेशे में नहीं पच सकी हैं ? ये डिग्रियाँ जिस सौरभ का गूंगा प्रमाण हैं , क्या वह सौरभ मेरी साँसों में नहीं रम चुका है ? क्या अभी भी मुझे चिल्ला - चिल्लाकर कहते रहना होगा कि मैं कॉलेजों में भी गया हूँ , स्कूलों में भी पढ़ चुका हूँ ? '
एक तरह से समझिए तो चालीस की उम्र निराशा और उदासी की सूखी घड़ी न होकर आशा और उल्लास की ही नई बरसात है । जो घटा अपनी रंगीनियों के साथ आकाश के कोने - कोने में आनन्द से मँडरा रही थी , अब वह बरसनेवाली है । यह वह मौसम है , जब आम में फल लगते और पककर तैयार होते हैं । यह ठीक है कि जब कोयल मंजरियों के कुंज में प्रवेश करती है , तब प्राणों को पागल कर देनेवाली सुगन्ध उसके कंठ से निकलनेवाली प्रत्येक पुकार को कविता का उच्छवास बना देती है । मगर रसाल जब पककर तैयार हो जाता है , तब उसे चूसनेवाले रसज्ञ की भी आँखें आनन्द की सिहरन से बन्द हो जाती हैं । पके हुए फल के भीतर भी एक कविता है , जो सिर्फ सूंघने की वस्तु नहीं , बल्कि रक्त में मिला लेने की चीज है ।
वसन्त और शिशिर में कुछ भेद तो होते हैं , किन्तु ऐसे नहीं कि एक के सामने दूसरा कुछ हो ही नहीं । वसन्त की सुषमा और सौख्य शिशिर के बारीक आनन्द से भिन्न होते हैं , फिर भी शिशिर के भी अपने मूल्य हैं । जो इन मूल्यों को समझता है , उसे निराशा नहीं होती । मगर जो उन्हें नहीं देख सकता , उसे तो वसन्त के नाम पर रोना ही पड़ेगा ।
बीस की उम्र बड़ी ही अच्छी चीज है , मगर वह तो एक ही बार आ सकती है । और चालीस की उम्र भी बड़ी ही बेजोड़ हो , अगर लोग उसे इस चिन्ता में बिगाड़ न दें कि हम बीस के ही क्यों नहीं बने रहे ।
समय तो हमारा शत्रु नहीं हो सकता । अपनी प्रगति से वह हमें सम्पन्न ही बनाता है । गुलाब पर ऊषा की बूंदों को तो हम फिर से नहीं सजा सकते , मगर गुलाब तो हमारे हाथ में है ।
('रेती के फूल' पुस्तक से)