चार हंस : डोगरी लोक-कथा

Chaar Hans : Lok-Katha (Dogri/Jammu)

एक बार की बात है। एक राजा था। वह बहुत निर्दयी था। वह लोगों को बहुत सताता था। लोग उससे बहुत दु:खी थे। उसके मन में जो आता, वह करता था। अपने वहम और मनमर्जी से उसने कई घर उजाड़ दिए थे। अगर उसे वहम हो जाता कि यह आदमी ठीक नहीं है, वह या तो उसके हाथ-पाँव कटवा देता या उसे सूली पर चढ़ा देता। उसने इस प्रकार वहम में पड़कर किसी को फाँसी पर लटका दिया, किसी को सूली पर चढ़ा दिया, किसी के हाथ-पाँव कटवा दिए, किसी को उम्र कैद की सजा दे दी, किसी को देश निकाला दे दिया और किसी-किसी का तो सारा-सारा परिवार ही कोल्हू में पिलवा दिया। सारी प्रजा डरी-सहमी हुई थी।

परमात्मा की इच्छा। एक दिन राजा सुबह-सुबह उठा और अपने बगीचे में टहलने के लिए चला गया। बगीचा महल के पास ही था। उसने देखा, पश्चिम की ओर से चार हंस आए और आकर उसके महल के ऊपर बैठ गए। राजा का मन हुआ कि इन्हें करीब से देखा जाए, वह महल के करीब आ खड़ा हुआ और उन हंसों को देखने लगा। इतने में राजा क्या देखता है कि उन हंसों में से एक आदमी की आवाज में बोला—

“यहाँ पर है परंतु वहाँ पर नहीं।”
दूसरा कहने लगा—
“वहाँ है परंतु यहाँ नहीं।”
तीसरा बोला पड़ा—
“यहाँ भी नहीं और वहाँ भी नहीं।”
और फिर अंत में चैथा बोला—
“यहाँ भी है और वहाँ भी है।”

राजा उनकी बातें सुनकर बहुत परेशान हो गया। इतनी बातें करके हंस भी उड़ गए। राजा अपने महल में आया, परंतु उसे चैन नहीं आ रहा था। उसे हंसों की बातें परेशान कर रही थी। उसने तुरंत अपने वजीर को बुलावा भेजा। वजीर दौड़ता हुआ आया और आते ही कहने लगा, “बताइए महाराज, मेरे लिए क्या आदेश है!”

राजा बहुत परेशान था। उसने वजीर को सारी बात बताई कि किस प्रकार चार हंस महल पर आकर बैठे और उन्होंने यह-यह बातें कहीं और उड़ गए। “मुझे समझाओ, इन बातों का क्या अर्थ हुआ?” अब वजीर भी दुविधा में पड़ गया। उसे भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह राजा को क्या बताए। वजीर कुछ देर सोच-विचार करता रहा और फिर अंत में बोला, महाराज, इसके अर्थ का पता तो पंडितजी से ही लग सकता है। वह अपनी विद्या के बल से इन बातों का भाव बता सकते हैं। मैं आज ही पंडितों को बुलाकर आपके सामने उपस्थित करता हूँ। यह कहकर वजीर ने अपनी जान बचाई।

राज-दरबार सज गया। पंडितजी को बुलाया गया। वजीर ने सारे दरबार में उस सारी घटना को विस्तार के साथ बताया, जो राजा के साथ घटित हुई थी। पंडितजी को कहा गया कि वह अपनी विद्या से देखकर बताएँ कि इन बातों का क्या भाव है। सारा कुछ स्पष्ट रूप से बताएँ कि क्या यह अच्छे संकेत हैं या बुरे?

पंडितजी ने अपनी सारी पुस्तकों को देखा। लाख यत्न किए, परंतु इन बातों के मर्म को न जान सके। उसने डरते-डरते राजा से कहा, महाराज इस काम में कुछ समय लग सकता है। राजा ने पंडित को कहा कि मैं तुम्हें एक महीने का समय देता हूँ। एक महीने के भीतर मुझे इन सवालों का जवाब चाहिए और अगर ऐसा न हुआ तो तुम्हें सपरिवार मृत्युदंड दे दिया जाएगा।

पंडितजी चिंतित होकर घर लौट आए। पंडित की पत्नी ने पूछा तो उसने सारी बता बताई। उसकी पत्नी भी दु:खी हो गई। चार-पाँच दिन पंडितजी घर पर ही बैठे-बैठे इन प्रश्नों के उत्तर खोजते रहे और फिर वह इन सवालों के उत्तर खोजने के लिए गाँव-गाँव और शहर-शहर घूमने लगे।

अट्ठाईस दिन यों ही बीत गए, परंतु पंडित को कोई सुराग न मिला। थके-हारे उसे एक रात एक बुढ़िया के घर पर रुकना पड़ा। बूढ़ी अकेली थी। उसके कोई संतान भी नहीं थी। रात को उस बूढ़ी ने पंडित को उदास-परेशान-बेचैन सा देखा तो पूछा, पंडितजी, आप इतने दु:खी क्यों हो? किस बात की चिंता है? पंडितजी ने उस बुढ़िया को सारी बात बताई। पंडित की बात सुनकर बूढ़ी ने जोर का ठहाका लगाया और कहने लगी, अरे! पंडितजी, आप इतनी सी बात पर इतने दु:खी हो। कल ही चलो मेरे साथ अपने राजा के पास। मैं दूँगी उसके इन प्रश्नों के उत्तर। पंडित ने हैरान होकर पूछा, “सच!”

“हाँ-हाँ, बिल्कुल सच। मैं आपसे झूठ क्यों बोलूँगी।”

दूसरे दिन वह बूढ़ी और पंडित चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक वेश्या मिली, बुढ़िया ने उसे भी अपने साथ ले लिया। आगे चलकर उन्हें एक साधु मिला, बुढ़िया ने उसे भी अपने साथ ले लिया। कुछ और आगे गए तो उन्हें एक कंजूस सेठ मिला, उन्होंने उसे भी अपने साथ ले लिया। चलते-चलते उन्हें एक और सेठ मिला, जो बहुत ही दयालू और दानी था। वह भी उनके साथ चल पड़ा।

दूसरे दिन राजा का दरबार लग गया। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि लगता था, जैसे सारी प्रजा दरबार में आ गई हो। सभी सोच रहे थे कि या तो पंडित बच जाएगा या फिर राजा सारे परिवार सहित पंडित को सूली पर चढ़ा देगा।

राजा दरबार में आ पहुँचा। सभी ने उसका स्वागत किया। राजा अपने सिंहासन पर बैठ गया तो वजीर को हुक्म दिया कि पंडित को पेश किया जाए। पंडितजी उनके साथ वह बुढ़िया, वेश्या, साधु, कंजूस सेठ और दयालू सेठ राजा के समक्ष प्रस्तुत हुए। राजा ने पंडित से पूछा, मेरे चारों सवालों के उत्तर ले आए हो? पंडित ने हाँ में सिर हिलाया और कहा, आपके सवालों का जवाब यह बूढ़ी माँ देगी।

राजा ने पूछा, बताओ इसका क्या अर्थ है—

“यहाँ है परंतु वहाँ नहीं?”

बूढ़ी ने साथ आई वेश्या की ओर संकेत किया और कहा, इसका उत्तर यह वेश्या है। यह बुरे-गंदे काम करके धन इकट्ठा कर रही है। इसे अगले जन्म में बुरे कर्मों का फल मिलेगा। इसीलिए यह यहाँ पर तो है, परंतु वहाँ नहीं।

राजा ने दूसरा सवाल किया—

“वहाँ है परंतु यहाँ नहीं।”

बूढ़ी ने साधू को उठाया और कहा, महाराज, इसका उत्तर यह साधु है। इस जन्म में इसे कोई सुख-सुविधा नहीं है। यह प्रभु भक्ति में लीन रहा। धन-द्रव्य के चक्कर में न पड़ा। अच्छे कर्म करता रहा। इसलिए इसे इसके अच्छे कर्मों का अच्छा फल अगले जन्म में मिलेगा।

इसलिए यह वहाँ है, पर यहाँ नहीं।

राजा ने तीसरा प्रश्न किया। अच्छा तो अब यह बताओ—

“यहाँ भी नहीं और वहाँ भी नहीं।”

उस बुढ़िया ने कंजूस सेठ को खड़ा किया और कहा, महाराज, इसका उत्तर यह सेठ है। यह न तो स्वयं खाते हैं और न ही दान आदि करते हैं। इनके पास धन बहुत है। यह उसका उपयोग नहीं करते। बस उसे बचाने और बढ़ाने की ही इन्हें चिंता बनी रहती है। इसलिए न यहाँ है और न वहाँ है।

राजा ने अंतिम प्रश्न किया, इसका अर्थ बताओ—

“यहाँ भी है और वहाँ भी है।”

बुढ़िया ने दयालू सेठ को आगे कर दिया। आपके इस प्रश्न का उतर यह सेठ है। यह खुले दिल से खाता है और खुले दिल से दीन-दुखियों में धन बाँटता है। उनकी सेवा करता है। दयालू है। धर्मपरायण है। दान-पुण्य आदि कर्म करता है, इसलिए यह यहाँ भी है और वहाँ भी है।

राजा की आँखें खुल गईं। उसने भी निर्दयता त्यागकर दयालुता को अपनाया। वह बहुत दयालू, दान-पुण्य के कर्म करने वाला, धर्म-कर्म करने वाला बन गया। दीन-दुखियों की सेवा करने लगा। उसकी सारी प्रजा सुखी और प्रसन्न हो गई।

(प्रस्तुतकर्ता : यशपाल निर्मल)

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