चाँद की दूसरी तरफ़ (कहानी) : हाजरा मसरूर
Chaand Ki Doosri Taraf (Story in Hindi) : Hajra Masroor
ताजमहल होटल के सामने से पहले भी कभी.कभार गुज़रा हूँ। लकड़ी के भद्दे से केबिन और सीमेंट के ठड़े वाली चाय की दुकान पर “ताज-महल होटल” का बोर्ड देखकर मुस्कुराया भी हूँ। लेकिन पिछले दो महीने से ये होटल मेरी ज़िंदगी के नए रास्ते का एक अहम मोड़ बन गया है। जहां मैं अपनी पुरानी साईकिल को हर.रोज़ ब्रेक लगाता हूँ और एक पांव फुटपाथ पर टिका कर बे-फ़िक्रों की तरह बूढ़े दुकानदार से कहता हूँ, “दो प्याली स्पेशल चाय इधर भिजवा दो।”
“अभी लीजिए हुज़ूर। बस आपके पहुंचने की देर है।” वो बड़ी मुस्तअ’दी से जवाब देता है और पंखे से कोयले धौंकता हुआ गलगुती छोकरा मुझे देखकर मुस्कुराता है और वाक़ई’ अभी मैं अपनी साईकिल को बरामदे के पास रोक कर ताला लगाता हूँ। “शह के मुसाहिब” वाले सलाम क़बूल करता, जब्बार के कमरे में क़दम रखता हूँ कि गलगुती छोकरा तीर की तरह वहां पहुंच जाता है। दूध शक्कर मिली चाय की केतली और दो साबित प्यालियों से सजी ट्रे जब्बार के सामने रख देता है, उसे सलाम करता है और कमरे से हवा हो जाता है।
अच्छे मेज़बानों की तरह आज भी जब्बार ने ख़ुद ही प्यालियों में चाय उंडेली, पहली मेरी तरफ़ बढ़ाई और दूसरी प्याली से ऐसे ज़ोरदार घूँट लिये जैसे हुक़्क़े के पेंदे से चाय खींच रहा हो।
मेरे साथ चाय पीते हुए जब्बार हमेशा शे’र-ओ-अदब की बात इस तरह छेड़ता है जैसे मुदारात के तौर पर केक के टुकड़े मुझे पेश कर रहा हो। ये लम्हे मेरे लिए दूभर होते हैं क्योंकि मेरे सामने अपने डेस्क इंचार्ज का चेहरा होता है। जिसने दफ़्तर में क़दम रखते ही पहले दिन जता दिया था कि “देखिए साहिब ख़्याल रहे। ये अफ़साना नवीसी तो है नहीं कि जब तक चाहे बैठ कर अलफ़ाज़ के मोती जड़ते रहे। यहां तो घड़ी की सुईयां देखकर काम करना होता है। समझे आप?”
मैंने तो अपने इंचार्ज साहिब की बात समझ ली थी लेकिन जब्बार को नहीं समझा सकता था। इस लिए हस्ब.ए.मा’मूल आज भी जब्बार बरसों पहले पढ़ी हुई एक कहानी का ज़िक्र कर रहा था तो मुझे महसूस हुआ कि मेरा सर पत्थर का हो गया है। और मेरा जी चाहने लगा कि ये पत्थर अपने हाथों से उठा कर जब्बार के मुँह पर दे मारूं लेकिन जब्बार जूं ही चाय का आख़िरी घूँट लेकर अपनी मूँछें पोंछता है और मेज़ का दराज़ खोलता है तो मेरे दिल में जब्बार के लिए स्कूल और कॉलेज के ज़माने वाला प्यार हलकोरे लेने लगता है।
“अच्छा यार, अब तुम अपने राशन का कोटा सँभालो।” जब्बार बड़ी वज़्अ’-दार से यही फ़िक़रा रोज़ कहता है। इस के बावजूद ये फ़िक़रा सुनकर मेरी मुसलसल बेमा’नी सी मुस्कुराहट बे-साख़्ता क़हक़हे में तबदील हो जाती है। जब्बार का ये फ़िक़रा दिलचस्प हो या न हो। उसमें सच्चाई ज़रूर थी।
“मजीद देखो, अंदर किसी को न आने देना मैं काम कर रहा हूँ।” जब्बार ने दरवाज़े वाले सिपाही को रोज़ की तरह हुक्म दिया और थाने का रोज़नामचा यूं खोला जैसे किसी अमीर मरने वाले का वसीयत नामा, और मेरी नज़रें उस पर भीगी मक्खियों की तरह रेंगने लगीं। उस रोज़नामचे में दर्ज होने वाले जराइम हम दोनों की रोज़ी का जवाज़ हैं। जब्बार छः सात साल पुराना पुलिस अफ़्सर है और मैं एक नए अख़बार का दो माह पुराना क्राइम रिपोर्टर हूँ। जब्बार के अब्बा पुलिस से रिटायर हुए तो पोलीटिकल ब्रांच में उनकी ख़िदमात के पेश-ए-नज़र जब्बार को मुलाज़मत बी.ए. के इम्तिहान का नतीजा निकलते ही मिल गई।
मेरे अब्बा स्कूल मास्टर थे इसलिए वो मुझे आ’ला ता’लीम के बाद कम अज़ कम यूनीवर्सिटी लेक्चरर तो देखना ही चाहते थे। इसलिए मैं पढ़ता रहा लेकिन मुश्किल ये थी कि स्कूल मास्टर की ख़िदमात के इंदिराज का कोई ख़ाना तो होता नहीं। इसलिए मुझे यूनीवर्सिटी क्या स्कूल में भी मुलाज़मत न मिली। उस ज़माने में जब्बार कभी मिलता तो कहता, “यार घर बसाने चलोगे तो रिसालों मैं तुम्हारा नाम छपने से काम नहीं बनेगा। इसलिए कोई नौकरी ढूंढ़ो कोई नौकरी।” और अब बिल्कुल इत्तेफ़ाक़न मुझे ये नौकरी मिल गई। जिसे पक्की करने में जब्बार एक अच्छे दोस्त की तरह मेरी मदद कर रहा था। वो न सिर्फ अपने थाने में रिपोर्ट होने वाले जराइम की तफ्सील मुझे लिखवाता बल्कि दूसरे थानों से भी मेरा काम निकलवा देता, वर्ना एक नए अख़बार के अनाड़ी रिपोर्टर को दफ़्तर में अच्छी कारकर्दगी दिखाने में ख़ासी परेशानी होती।
मैंने अपनी नोट बुक और पेंसिल संभाली तो जब्बार ने कल शाम से आज तक होने वाले जराइम की ता’दाद और फिर सबसे पहले रिपोर्ट में क़त्ल के केस की तफ्सीलात मुझे बताईं। मैंने एम.ए. नफ़सियात को भुला कर ख़ालिस अख़बारी अंदाज़ से मुहब्बत की मुजरिम अठारह साला ख़ूबसूरत मक़्तूला को बदकिर्दार और साठ साला क़ातिल को ग़ैरतदार शौहर का लक़ब देकर लिखना शुरू ही किया था कि जब्बार के कमरे के बाहर एक हंगामा हुआ जिसमें मजीद और दूसरे सिपाहियों की गालियों के साथ कोई पागलों की तरह चिल्ला रहा था, “मुझे अन्दर जाने दो। अभी अंदर जाने दो”, और फिर ख़ासी धमाचौकड़ी हुई।
“न जाने कौन माँ का... है।” जब्बार ने अपनी हुक्म उ’दूली के ख़्वाहिश मंद अनदेखे आदमी को गाली दी मगर गाली का लफ़्ज़ मुँह में गुड़गुड़ा कर निगल गया। मेरी मौजूदगी में वो अब भी ज़रा झिझकता था।
“आने दो भाई मैं अपना काम करता रहूँगा।” मैंने जल्दी जल्दी पेंसिल घसीटते हुए कहा। मैं अपना काम जारी न रख सका। क़त्ल और ख़ून की ख़बरें बनाना और बात है ख़ून बहते देखना और बात... अंदर आने वाले के माथे से बहता हुआ ख़ून उसके चेहरे को अ’जीब भयानक रंग देता हुआ उसके ओवरकोट पर टपक रहा था। मैंने चकरा कर अपने हलक़ में उबकाई रोकी।
“जनाब मैंने तो इस आदमी को सिर्फ अंदर आने से रोका था। उसने अपना सर दीवार से टकरा कर ख़ुद फोड़ा है। ये इक़दामे ख़ुदकुशी का केस है।” अंदरआते हुए सिपाहियों में से एक ने केस की नौई’यत का फ़ैसला तेज़ी से कर दिया और जब्बार ने घूर कर उसे देखा। थाने के अहाते में किसी का यूं खुले बंदों ज़ख़्मी होना ख़ासी अहम बात हो सकती है।
“इसे बिठा दो। इसका ख़ून बंद करो। ठंडे पानी का कपड़ा रखकर दबाओ, ज़ख़्म को...” जब्बार ने हिदायात जारी कीं तो कमरे में मौजूद हर शख़्स ने पहल करना चाही। कई रूमाल कोने में रखी सुराही के तुफ़ैल भीग गए। जब्बार ने अपना रूमाल उसके हाथ पर रखकर हथेली से दबा लिया। मैंने अपने रूमाल से उसका ख़ून आलूद चेहरा साफ़ किया और उसका सर कुर्सी की पुश्त पर टिका दिया। मजीद का बड़ा सा रूमाल उसके ओवरकोट से ख़ून के धब्बे मिटाने की बेसूद कोशिश में काम आया।
“जी बड़ी मेहरबानी आपकी।” उसने इन्सानियत से जब्बार का हाथ अपने माथे पर से हटा कर उस जगह अपना हाथ रख लिया। हम सब ख़ामोश थे और उसके दहशत.ज़दा चेहरे को देख रहे थे।
“रपट लिखवाना थी जी...” ज़ख़्मी अजनबी ने हाँपते हुए कहा।
“किस बात की?” जब्बार ने कुर्सी पर बैठ कर पूछा।
“जी पहले आप शुरू से सारी बात सुन लें...” अजनबी ने शर्त पेश की और मैं जब्बार की तरफ़ देखकर मुस्कुराया, जैसे शर्त मानने की सिफ़ारिश कर रहा हूँ।
“हूँ, अच्छा हर बात सच्च सच्च बताओ। कोई झूट न हो। समझे?”
“इसीलिए तो आपके पास आया हूँ साहिब। ज़बरदस्ती आया हूँ। झूट क्यों बोलूँगा?” उसके लटके हुए स्याह होंटों पर एक हिक़ारत आमेज़ मुस्कुराहट पर मारती गुज़र गई और माथे के रूमाल पर रखा हुआ हाथ काँपता रहा।
“साहिब आप तो जानते हैं कि अपनी औलाद सभी को ख़ूबसूरत लगती है मगर मेरी लाली को पास पड़ोस वाले, बिरादरी कुन्बे वाले सभी ख़ूबसूरत समझते। कोई उसे परी कह कर पुकारता, कोई शहज़ादी। कोई सोहनी।” वो कहते कहते रुका।
“फिर उसने आँख लड़ाई किसी से।” रिपोर्ट लिखवाने के इस मरियल तरीक़े से जल कर कमरे में मौजूद एक सिपाही ने उसे कचोका दिया। वैसे ये बात ठीक है कि थानों और अ’दालतों में हुस्न का ज़िक्र इश्क़ के बग़ैर आता ही नहीं। ऐसे सवाल पर थाने में बैठे हुए किसी भी बाप का सर झुक सकता था लेकिन बयान देने वाला उछल कर कुर्सी पर सीधा बैठ गया। माथे का गीला रूमाल उसकी गोद में गिरा और माथे के ज़ख़्म से ख़ून के क़तरे फिर उसके चेहरे पर फिसलने लगे।
“देखें जी थानेदार साहिब। आप बे.शक मुझे जूते मारें, डंडे मारें। गाली दें, मगर मेरी लाली को किसी ने ऐसी बात कही तो मैं... तोमैं...” वो ग़ुस्से से काँपते हुए होंट काटने लगा।
जब्बार ने सिपाही से आँखों ही आँखों में कुछ कहा और फिर हुक्म दिया, “इसके ज़ख़्म पर ठंडा पानी डालो और देखो, पट्टी बांध दो तो अच्छा है। हाँ क्या नाम है तुम्हारा?”
“ताजदीन।”
“देखो ताजदीन अपना सर कुर्सी से लगाए रखो। समझे? कुर्सी गंदी न करो।” जब्बार के अहकाम की ता’मील फ़ौरन हो गई।
“जी ऐसी बात ज़बान से निकाली मेरी लाली के लिए। हुँह। साहिब। साहिब जी मेरी लाली की नेकी का हाल जिससे मर्ज़ी हो जाकर कटरे में पूछ लें। वो तो जनाब जब से बड़ी हुई है घर से अकेले क़दम भी नहीं निकाला। दरवाज़े में भी खड़ी न हुई। वो तो अपनी माँ पर चली गई। सूरत में भी, तबीय’त में भी।”
“अच्छा तो लाली की माँ ख़ूबसूरत है?”
“अब कहाँ जी। हाँ जब उसे ब्याह कर लाया तो सब कुन्बे बिरादरी की औरतें कहतीं ताजदीन तेरे घर तो चांद उतर आया। मेरी माँ जब तक जीती रही उसे बहुत तकलीफ़ देती रही, और जी मैं भी माँ के कहने में रहा। फिर भी लाली की माँ ने मुझसे न कभी ज़बान चलाई, न कभी कुछ मांगा। बस मेरी ख़िदमत करती रही। कटरे में जाकर जिससे चाहें पूछ लें। कभी किसी ने लाली की माँ की तरफ़ उंगली उठाई?”
“अच्छा अच्छा। ठीक है। आगे बयान करो।” जब्बार तेज़ी से बोला।
“जी वो मेरे बच्चों की माँ बनी। आठवीं लाली हुई तो...” वो रुक कर सोचने लगा।
“लाली पैदा हुई तो क्या हुआ?” पूछा गया।
“जी उसकी माँ ने लाली को मेरी गोद में डाल कर कहा। लो, तुम्हारे घर नया चांद उतरा है। जनाब लाली की माँ ने सात बच्चों में से कोई बच्चा मेरी गोद में इस तरह न डाला था।”
“फिर तुमने क्या कहा?” मैं बेसाख़्ता बोल पड़ा। मेरी मौजूदगी थाने की फ़िज़ा को यकसर बदल रही थी।
“जी कहना क्या था। बस लाली मुझे सब औलाद से ज़्यादा प्यारी हो गई। वो भी मुझे बहुत चाहती। किसी की गोद में होती तो मुझे देखकर बाँहें फैला देती। कभी उसकी माँ अपने पास सुला लेती तो रात को जाग कर रोती और जभी चुप होती जब मेरी छाती पर लेट जाती।”
“ठीक है ठीक है। उसके बाद क्या हुआ, वो बताओ”, जब्बार अब ख़ासा बेचैन हो रहा था।
जी मैंने पाँच बेटियां ब्याहीं। दो बहूएं घर लाया। मगर लाली की माँ ने मेरी पसंद में कोई दख़ल न दिया। फिर लाली बड़ी होने लगी तो एक रात मेरे पांव दबाते हुए बोली...
“लाली के बाबा मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं मांगा। अब लाली के लिए तुमसे उसके जोड़ का ख़ूबसूरत दुल्हा माँगती हूँ। याद रखना।” और जी मैंने उसकी बात गिरह में बांध ली।
इतना कह कर ताज की आवाज़ भर्रा गई और उसने अपने होंट भींच लिये और मैंने देखा कि थाने के उस कमरे में मौजूद सिपाही झल्लाए हुए नज़र आ रहे थे। उनका बस चलता तो वो अपनी उंगलियां उस शख़्स के हलक़ में डाल कर एक ही बार सारी बात खींच कर अपने अफ़्सर की मेज़ पर रख देते। ये क्या कि कभी लाली का ज़िक्र और कभी लाली की माँ के क़िस्से। वो बार.बार जब्बार की तरफ़ देख रहे थे जो ग़ालिबन मेरी मौजूदगी की वजह से बड़ा गंभीर बना बैठा था। क्योंकि मैं इस बयान में ज़रूरत से ज़्यादा दिलचस्पी ले रहा था।
“हूँ फिर तुमको लाली के लिए मुनासिब रिश्ता मिला?” सवाल हुआ।
“रिश्ते तो बहुत थे जनाब। लाली के चचा के बेटे, रिश्ते.नाते और बिरादरी में भी लड़के थे। सभी ने लाली का डोला मांगा। मगर जी मुझे तो अच्छी शक्ल वाले रिश्ते की तलाश थी। इसलिए मेरी लाली सत्रह साल की हो गई।
मेरी और जब्बार की आँखें बे.इरादा ही एक दूसरे की तरफ़ उठ गईं।
“साहिब आप अक़्ल वाले हैं। बेटी चाहे पिंजरे में बंद लाल जैसी हल्की फुल्की हो फिर भी सब कहते हैं। अरे ये पहाड़ सी बेटी का बोझ कब तक उठाते रहोगे। इसकी उ’म्र अब ससुराल जाने की है।” ताज दीन की ग़ैर ज़रूरी तफ़सील से जब्बार के सब्र का पैमाना छलकने लगा।
“हाँ हाँ ऐसा ही कहते हैं लोग।”
“मगर जी लाली तो कहीं भी नहीं जाना चाहती थी। वो तो अपने माँ-बाप से इतना प्यार करती कि एक दिन के लिए भी अपनी ब्याही बहनों के घर न गई। मैं बताऊं साहिब एक दफ़ा’ उसकी एक बहन को ज़िद हो गई कि रात लाली मेरे पास रहेगी। इस पर लाली बच्चों की तरह मेरे सीने से लग कर रोने लगी और मेरे साथ ही घर लौट आई।”
वो जैसे अपने आपसे बातें कर रहा था। “तो फिर कोई मुनासिब रिश्ता नहीं मिला लाली के लिए...” मैंने मुदाख़िलत बेजा की।
“हूँ तो कोई रिश्ता नहीं मिला तुम्हारी बेटी के लिए।” जब्बार ने फ़ौरन अपनी ड्यूटी सँभाल ली और ताजदीन चौंक उठा।
“रिश्ता मिला.जी। एक दिन वो लोग आप ही की राशन शाप वाले से पता पूछते मेरे दरवाज़े पर आ गए। उन्होंने अफ़ज़ल हुसैन वल्द मुहम्मद हुसैन की बड़ी ता’रीफ़ें कीं। अपना घर। हाथ में हुनर। सर पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं। मस्क़त में अच्छी नौकरी पर जा रहा है। शादी जल्दी चाहिए। उन्होंने जी घर और मुहल्ले का पता भी दिया कि जाकर तसदीक़ कर लो। मैंने कहा पहले लड़का दिखाओ। फिर जी उन्होंने लड़का भी दिखाया।” ताजदीन ने ठहर कर पानी मांगा।
“कैसा था लड़का?” जब्बार ने जल्दी से पूछा।
“लड़का तो साहिब बड़ा लंबा, मज़बूत और जेंटलमैन था। फूलदार क़मीज़ और काली पतलून में ऐसा लगता जैसे फूलों में फूल गुलाब होता है। ताजदीन की आँखें यूं छत की तरफ़ तक रही थीं जैसे वहां मकड़ी के जालों के बजाय गुलाब के फूल खिल रहे हों।”
“फिर तुमने फ़ौरन रिश्ता तै कर लिया?”
“नहीं जी। पहले उसके घर.बार की तस्दीक़ तो करना थी। मैं जी उसके मुहल्ले पहुंचा और अफ़ज़ल हुसैन वल्द मुहम्मद हुसैन के बारे में पूछा। कोई बात भी झूट न थी। मैं उसके घर भी गया। उस की चाची मौजूद थी। उसने मेरी बड़ी ख़ातिर की। मैंने बात पक्की कर दी। अगर वो पक्के घर का मालिक न होता मेरी तरह का मज़दूर होता तब भी मैं बात पक्की कर देता। लाली की माँ को तो इतना ख़ुश मैंने कभी न देखा था। साहिब सच्ची बात तो ये है कि मुझे उसके बाद ही मा’लूम हुआ कि ख़ुश औरत कैसी होती है?”
“लाली भी ख़ुश हुई?” मैं पूछ बैठा।
“कहीं शरीफ़ नेक लड़कियां अपने ब्याह पर ख़ुश होती हैं? मैंने तो बताया साहिब वो तो एक दिन के लिए भी घर छोड़ने को राज़ी न होती थी। अब तो उसकी बारात दूसरे शहर से आ रही थी और उसे ब्याह कर समुंदर पार भी जाना था। उसे तो रोना ही था जनाब”, ये कहते.कहते ताजदीन का गला भर आया।
“मेहंदी वाली रात सारा घर सो गया। मगर वो सिसकियाँ लेती रही। मैं जी बरामदे में लेटा जाग रहा था। उठकर उसके पास चला गया। फिर तो जी वो मुझसे लिपट कर बहुत रोई। उसे अपने हाथों की मेहंदी का होश भी न रहा। वो बार.बार कहती बाबा में कहीं न जाऊँगी तुम्हें छोड़कर... फिर जी मैंने बे.हयाई लाद कर उसे समझाया कि लड़का शहज़ादों जैसा है। खाता.पीता है और वो अपने घर जा कर कितनी ख़ुश रहेगी और जब वो ख़ुश होगी तो मैं भी ख़ुश हूँगा। बस मेरी बातें सुनकर मेरी लाली आराम से सो गई...”
“अच्छा अच्छा ठीक है। फिर बारात आई?” जब्बार बयान की तह तक पहुंचे को बेक़रार था।
“हाँ जी बड़ी शानदार बारात आई। फूलों से सजी हुई। बस में से बरातियों के साथ बाजे वाले भी उतरे। दुल्हा ने गुलाब के फूलों का सहरा बाँधा था। गले में नोटों का इतना बड़ा हार था कि घुटनों को छू रहा था और जी उसने कश्मीरी दो.शाला भी जिस्म से लपेटा था। सर्दी भी तो बहुत है आज। है ना सर्दी?”
जब्बार ने अंग्रेज़ी में मुझसे कहा, “ये तो मुझे पागलखाने से भागा हुआ लगता है।”
“उसके आगे क्या हुआ?” मजीद अपने अफ़्सर की बेबसी देखकर बोला।
“जी होना क्या था। बरात आने पर निकाह होता है। मेरी लाली का निकाह अफ़ज़ल हुसैन वल्द
मुहम्मद हुसैन मरहूम से पढ़ा दिया गया। थानेदार साहिब एक बात तो बताओ। सहरा क्यों बाँधते हैं दुल्हा के?” ताजदीन ने जब्बार की आँखों में आँखें डाल कर एक दम पूछा।
थाने में आने वाले सवाल का जवाब देते हैं। सवाल नहीं करते।
इससे पहले कि जब्बार इस गुस्ताख़ी पर गाली बकता में बोल पड़ा।
“अरे ताजदीन सहरा इसलिए बाँधते हैं कि सहरा उल्टा जाये और मेहमान दुल्हा की सूरत देखें।”
“हाँ जी और फिर दुल्हा की शक्ल देखकर लाली के बाप पर हँसें, ता’नें मारें कि अरे ताजदीन अपनी चांद जैसी बेटी के लिए यही भूत जैसा आदमी मिला था तुझे? कहता था अपनी बेटी के लिए उसके जोड़ का दुल्हा लाऊँगा। तूने पैसा देखा। तूने लालच की। जी मैं तो शर्म में गड़ गया।” ये सब कहते हुए वो बच्चों की तरह फूट फूटकर रो रहा था।
“अच्छा। हूँ। तुम्हारे साथ धोका किया गया है। लड़का कोई और दिखाया था। मजीद उसे पानी पिलाओ।”
दो घूँट पानी पी कर उसने होंट पोंछते हुए फिर कहना शुरू कर दिया।
“अल्लाह भला करे आपका। आप समझ गए। यही बात है। मैंने सब के सामने चिल्ला चिल्ला कर कहा। मगर किसी ने मेरी बात का यक़ीन नहीं किया। ये देखकर बराती मुझसे झगड़ने लगे। मैंने कहा। मैं थाने में रपट लिखवाने जा रहा हूँ।”
“अच्छा तो तुम धोका दही की रिपोर्ट दर्ज कराने आए हो?” एक कांस्टेबल बोला जैसे खुदे हुए पहाड़ से चूहे की दुम खींच रहा हो।
“नहीं जी मुझे तो बुज़ुर्गों ने पकड़ लिया और समझाने लगे कि ताजदीन तो ग़रीब आदमी है कहाँ थाने कचहरियों में पेशियाँ भुगतेगा? वकीलों को खिलाने के लिए कहाँ से लाएगा? और फिर ये पैसे वाले लोग हैं झूटी गवाहियाँ पेश कर देंगे।” ताजदीन बोलते बोलते रुका।
“उसके बाद क्या हुआ?” जब्बार ने बेचैनी से पहलू बदला।
“जी मैंने कहा, मैं लाली का डोला इन धोके बाज़ों के हवाले नहीं करूँगा।चाहे जान चली जाये।” आख़िरी फ़िक़रे पर.ज़ोर से रोया।
“हूँ। उसके बाद तुमने क्या.किया?” जब्बार ने सख़्ती से पूछा।
“मैं अपनी बात पर अड़ा रहा। बाराती पहले तो धमकियां देते रहे। फिर अपनी पगड़ियाँ और टोपियां मेरे भाईयों के पैरों पर डालने लगे। बुज़ुर्गों के घुटनों को हाथ लगाए और मेरे बेटों.दामाद के सामने हाथ जोड़ने लगे। कई मेहमानों को कोने में ले जा कर जानें क्या-क्या बातें कीं। फिर जी। वो लोग जो मुझ पर हंस रहे थे। ताने दे रहे थे। वो सब दूलहा के हिमायतीबन गए। मेरे भाई मुझे अल्लाह रसूल का वास्ता देने लगे और मेरे बेटे दामाद अलग हो कर यूं बैठ गए जैसे सारी ग़लती मेरी और फिर जी मौलवी-साहब ने खड़े हो कर कहा ताजदीन बंदे की क़िस्मत में जो लिखा होता है उसके अस्बाब पैदा होते हैं। लाली अब अफ़ज़ल हुसैन वल्द मुहम्मद हुसैन मरहूम की मनकूहा है जो हुआ सो हुआ। उठो अब देग ठंडी हो रही है। मेहमानों को खाना खिलाओ। और जब मैं मौलवी.साहब के कहने से भी न उठा तो भाईयों ने और बेटों ने काम सँभाल लिया।”
“हूँ। फिर तुमने क्या किया ये बताओ?”
“जी में क्या करता मुझे तो सबने सड़क के रोड़े की तरह एक तरफ़ फेंक दिया। आप बताएं जी मेरा क्या क़सूर था जो सबने मेरा इख़्तियार छीन लिया? फिर जी वो सब मेरी लाली को रुख़्सत करने लगे।” वो फिर चुप हो गया। कमरे में भी सब चुप रहे।
“जब लाली ससुराल जाने को निकली तो औरतों के पीछे लाली की माँ भी दुपट्टे में मुँह छुपाए बाहर आ गई। उसने मुझे कुत्ते की तरह एक तरफ़ हाँपते पाया तो वो बात कही जो पहले कभी न कही थी। ताजदीन की स्याह गर्दन की नोकीली हड्डी थूक निगलने की कोशिश में बार.बार हरकत करने लगी।
“क्या कहा लाली की माँ ने?” जब्बार ने पूछा।
“कहने लगी ताजदीने, तुझे क्या पता तेरे जैसे बदशकलों के साथ चांद जैसी लड़कियां किस आग में जलती हैं। मेरी कली जैसी लाली को अपनी आँखों के सामने भाड़ में जाने दे रहा है। तू ने मुझे ज़बान दी थी। अब दूसरों की बात मान गया। अगर तू मर्द है तो उसे न जाने दे।”
“उसके बाद तुमने क्या किया। सच्च बताओ।” जब्बार कुर्सी पर सीधा हो गया।
“सच्च कहता हूँ मुझे नहीं पता कैसे ख़ाली देग के पास पड़ी बावर्ची की छुरी मेरे हाथ में आ गई... और... और जी मैं... बस में सवार होती बरात के पीछे भागा। अफ़ज़ल हुसैन बस के दरवाज़े में खड़ा था।” उसने काँपते होंटों से पानी का गिलास उठा कर होंटों से लगाना चाहा मगर सारा पानी उस की ओवर कोट पर गिर गया। कमरे में मौजूद हम में से किसी ने भी कोई सवाल न किया। जैसे हम सब अपनी आँखों से ताजदीन को अफ़ज़ल पर हमला-आवर देख रहे हों।
“उसके बाद। उसके बाद जी वो बाँहें फैला कर मेरे सीने से लिपट गई और चुपके चुपके कहने लगी। बाबा मुझे जाने देते। ये आदमी भी तो तुम्हारे जैसा था। तुम मुझे कितना चाहते हो। ये आदमी भी मुझे... अल्लाह जाने अफ़ज़ल के बारे में क्या कहना चाहती थी...?” ताजदीन सवालिया नज़रों से सबकी तरफ़ देखा तो उसके चौड़े अंधेरे ग़ारों जैसे नथुने लोहार की धौंकनी की तरह फैलने सिमटने लगे और वो अपने पुराने ओवरकोट के बटन खोलते हुए यूं कुर्सी से खड़ा हो गया जैसे बैठा रहा तो उसका दम घुट जाएगा।
“अच्छा तो तुमने अफ़ज़ल हुसैन को...” जब्बार बोला तो ताजदीन ने तेज़ी से जवाब दिया।
“नहीं जी। अफ़ज़ल को लोगों ने बचा लिया...”
ताजदीन ने काँपते हाथों से अपना ओवरकोट उतारने की कोशिश की और हम सबने देखा उसकी सफ़ेद क़मीज़ पर ख़ून का बड़ा सा धब्बा था। इतना ज़िंदा इतना ताज़ा जैसे ख़ून उसके दिल से रिस रिस कर कपड़े में जज़्ब हो रहा हो।
उसने अपने ख़ून आलूद सीने को अपनी बाँहों के हलक़े में लिपट लिया और पागलों की तरह चीख़ चीख़ कर रोने लगा।
“मेरी लाली को किसी ने नहीं बचाया, ये मेरी लाली का ख़ून है।”
“पागल गधे तू ने अपनी मा’सूम बेटी को क़त्ल कर दिया। ले जाओ हवालात में। बंद कर दो इस बेटी के क़ातिल को।” जब्बार दहाड़ा तो ताजदीन की चीख़ें यकलख़्त रुक गईं। उसने मा’सूम हैरत से जब्बार की तरफ़ देखा और सिपाहियों के साथ बाहर चला गया।
जब्बार ने झल्लाकर डिबिया पर दिया-सलाई इस ज़ोर से रगड़ कर जलाई कि मेरा दिल पटाख़े की तरह धड़का और मुझे लगा कि कमरे का सन्नाटा शीशे की मानिंद तड़ख़ गया है।
तब होटल का गलगुती छोकरा ख़ाली प्यालियां उठाने कमरे में आ गया। मैंने मा’मूल के मुताबिक़ पच्चास पैसे चाय के और पाँच पैसे टिप के उसकी ट्रे में आहिस्ता से रख दिए। छोकरा रोज़ की तरह मेरे बजाय जब्बार को सलाम करता बाहर चला गया।
“यार तुमने आज फिर चाय के पैसे दे दिए। होटल वाला मेरे हिसाब में लिख लेता।” जब्बारने रोज़ की तरह शिकायत आमेज़ लहजे में कहा लेकिन मैं जो इस मौके़’ पर रोज़ाना बज़ाहिर मुस्कुराता था और दिल में “चल झूटे” कहता था आज न मुस्कुरा सका न दिल में कुछ कह सका। मैंने अपनी नोट बुक के इन बहुत से सफ़हात को एक एक कर के उल्टा जिन पर मैंने ताजदीन का बयान जूं का तूं लिख लिया था। लेकिन जिन्हें मेरे क़लम से चंद सतरों की ख़बर में ढलना था।