ब्याह (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Byah (Hindi Story) : Jainendra Kumar

बड़े भाई के बाद अब घर का बोझ मुझ पर पड़ा, लेकिन मुझे इसमें दिक्कत नहीं हुई। सेशन जज हूँ, ७०० रु. मासिक पाता हूँ–और घर में मुकाबले को कोई नहीं है। माँ सेवा और आज्ञानुसारण के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानती, और पत्नी जितनी ही कम शिक्षिता है, उतनी ही ज्यादा प्रतिप्राण है।

किंतु भाई साहब जिसे अपने अंतिम समय में खास तौर से बोझ बताकर मुझे सौंप गये, इसके सम्बन्ध में मुझे अवश्य सतर्क और चिंतित रहना पड़ता है। ललिता मैट्रिक पास करने के साथ अपना सोलहवाँ साल पार कर चुकी है। भाई साहब अपने जीवन-काल में इसे जहाँ तक हो, वहाँ तक पढ़ाना चाहते थे। शायद कारण यह हो कि खुद बहुत कम पढ़े थे। किन्तु आखिरी समय, आश्चर्य है, उन्होंने ललिता की शिक्षा के बारे में तो कुछ हिदायत न दी, कहा तो यह कहा कि ‘देखो ललिता का ब्याह जल्दी कर देना। मेरी बात टालना मत भूलना मत।’ अब भाई साहब की अनुपस्थिति में ललिता को देखते ही, उनके उपयुक्त शब्द बड़ी बेचैनी के साथ भीतर विद्रोह करने लगते हैं। मैं उन्हें भीतर-ही-भीतर खूब उलटता-पलटता हूँ, जानना चाहता हूँ–यह क्यों कहा? मेरा क्या कर्तव्य है।

ललिता को बड़ी जिज्ञासा बड़ी चिन्ता से देखता हूँ। शायद उन शब्दों का ललिता के व्यक्तित्व से कोई सामंजस्य है। फिर रह-रहकर यह बात मन में आती है–संभव है, भाई साहब ने समझा हो, मैं पीछे ललिता को ठीक प्यार, सँभाल और अपनेपन के साथ नहीं रख पाऊँगा, और इसलिये ऐसा कहा हो? जब यह बात मन में उठती है तो भाई साहब पर बहुत क्रोध आता है। उन्होंने बे-भरोसे का आदमी समझा–जैसे उनका सगा, उन्हीं का पाला पोसा और पढ़ाया-लिखाया नहीं हूँ! परन्तु ऐसी बात सोचकर मैं ललिता के ब्याह के बारे में व्यग्र और उद्विग्न नहीं हो उठता। सोचता हूँ, भाई साहब की मंशा पूरी करने का काम अब मुझ पर है–ललिता को खूब पढ़ाऊँगा और खूब धूम-धाम से उसका विवाह करूँगा। दीया लेकर ऐसा लड़का ढूँढ़ूगा जो दुनिया में एक हो। हमारी ललिता ऐसी जगह जायगी कि भैया स्वर्ग में खुशी से फूले उठेंगे पर जल्दी नहीं।

इस तरह ललिता का पढ़ना जारी रहा है। बी. ए. में पहुँचेगी, तब कहीं ब्याह की बात सोचूँगा।

ललिता भी हमारे घर में एक अजीब लड़की है। कुछ समझ में नहीं आता। जाने कैसे मैट्रिक फर्स्ट क्लास में पास कर गयी। जब पढ़ने में इतनी होशियार है तब व्यवहार में क्यों इतनी अल्हड़ है। उसे किसी बात कि समझ ही नहीं है। लोग कुछ कहें, कुछ समझें, जो मन में समाया उसे वह कर ही गुजरती है। नौकर हो सामने, और चाहे अतिथि बैठा हो, उसे जोर की हँसी आती है; तब वह कभी उसे न रोक सकेगी। गुस्सा उठेगा तब उसे भी बेरोक निकाल बाहर करेगी। सबके सामने बेहिचक मुझे, चाचा को चूमकर प्यार करने लगती है। और मेरी ही तनिक-सी बात पर ऐसा तनक उठती है कि बस! हँसती तो वह खूब है, गुस्सा तो उसका आठवाँ हिस्सा भी नहीं करती होगी, हाँ जब करती है तब करती ही है, फिर चाहे कोई हो, कुछ हो!

मैं चाहता हूँ, वह कुल-शील का, सभ्यता-शिष्टता का, अदब कायदे का, छोटे-बड़े का व्यवहार में सदा ध्यान रखे। पर उससे इन सब बातों पर निबन्ध चाहे मुझसे भी अच्छा लिखवा लो, इन सबका वह ध्यान नहीं रख सकती। नौकरों से अपनापन जोड़ेगी, हमसे जैसी बची-बची रहेगी। सहपाठियों और अँगरेजी जानने वालों से हिन्दी के सिवा और कुछ न बोल सकेगी, पर नौकरों और देहातियों से अँगरेजी में ही बोलेगी। नौकरों को तो कभी-कभी अँगरेजी में पाँच-पाँच मिनट के लेक्चर सुना देती है, मानो दुनिया में यही उसकी बात को हृदयंगम करने वाले हों! समकक्षियों और बड़ों में घोर-गम्भीर और गुमसुम रहती है, जैसे सिर में विचार ही विचार हैं, जबान नहीं है। छोटों में ऐसी खिली-खिली और चहकती फिरती है, जैसे उसका सिर खाली है, कतरने को बस जबान ही है।

मिसरानी को बहुत ही तंग करती है। पर मुश्किल यह है कि मिसरानी को इस बात की बिलकुल शिकायत नहीं है। इस कारण मुझे उसको डाँटते-धमकाने का पूरा मौका नहीं मिलता। वह बे-मतलब चौके में घुस जाती है, कभी उँगली जला लेती है, कभी नमक अपने हाथ से डालने की जिद करके दाल में अधिक नमक डाल देती है। आटा सानते-सानते जब बहा-बहा फिरने के लायक हो जाता है, तब मिसरानी से सहायता की प्रार्थना करती है और मिसरानी उसके दायें कान को हँसते-हँसते अपने बायें हाथ से जरा टेढ़ा-तिरछा करके आटा ठीक कर देती है। मालकिन के मुलायम कानों को मसलने का जब अधिकार-संयोग मिले तब उस अवसर को मिसरानीजी जान-बूझकर क्यों खोये? उन्हें दिक होना पड़ता है तो हों।

लेकिन मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता, जैसे जहाँ जायगी वहाँ इसे रोटी ही बनानी पड़ेगी? फिर क्यों फिजूल ऐसे कामों में हाथ डालती है?–यह तो होता नहीं कि टेनिस का अभ्यास बढ़ा ले, शायद उसी में चमक उठे और अखबारों में नाम हो जाये, क्या ताज्जुब कोई ‘कप’ ही मिल जाय। इसलिए मैं उसे काफी गुरु-मुद्रा के साथ धमका देता हूँ। पर वहीं जवाब दे देती है, अगर मेरी निज की लड़की इस तरह मुझे जवाब देती तो मैं थप्पड़ से उसका मुँह लाल कर देता। फिर ललिता के मुँह से जवाब सुनकर न मुझे ज्यादा गुस्सा होता है, न बहुत अचरज! गुस्सा होता भी तो मैं कुछ कर भी तो नहीं सकता। मेरे समीप वह भाई साहब की स्मृति है। उसकी प्रतिमूर्ति है, इसलिए उसका जवाब सुनकर मैं चुप रह जाता हूँ।

यह लड़की जरा भी दुनिया नहीं समझती। वह समझती यह है कि उसकी कोर्स की किताबों में, उसके कल्पना क्षेत्र में ही सारी दुनिया बन्द है। उससे बहस कौन करे? कुछ समझती ही नहीं, करें अपने जी का। पर डिक?

डिक हमारे जिले के डिप्टी कमिश्नर का लड़का है। अभी एक वर्ष से विलायत से आया है। आक्सफोर्ड में पढ़ता है। पिता ने हिन्दुस्तान देखने के लिए बुलाया है। पिता की राय है, डिक आई० सी० एस० में जाय।

बड़ा अच्छा है। डिक को घमंड नाम को भी नहीं है। बड़ा मृदुभाषी, सुशील, शिष्ट। यह हर तरह से सुन्दर जँचता है।

लेकिन ललिता तो डिक से सदा दूर-दूर रहती है। यह नहीं कि उससे बोलती नहीं, मौके पर खूब बोलती है। पर उस बोलने को बीच में लाकर ही वह अपने और डिक के बीच अनुल्लंघनीय अंतर डालने का उपक्रम करती रहती है। डिक से ही सुना है। यह भी जानता हूँ कि डिक इस अंतर को जितना ही अनुल्लंघनीय पाता है, उतना ही देखता है कि एक अनिश्चित चाह उसे और विवशता से चाबुक मार-मारकर भड़का रही है।

इधर ललिता में एक अंतर देख पड़ने लगा है। एक ओर हँसना एकदम कम हो गया है, दूसरी ओर वक्त-बेवक्त पढ़ना-लिखना होने लगा है। अब वह बहुत पढ़ती है। मानो जी उचाट रहता हो, और उसी को जबर्दस्ती लगाये रखने के लिए ये सब प्रयत्न और प्रपंच किये जाते हों।

इधर एक खबर डिक के बारे में भी लगी है, कुछ दिनों से उसका एक हिन्दी ट्यूटर लगा लिया है और हिंदी प्रवेशिका के पहले भाग को खतम कर डालने में दत-चित्त है।

ये लक्षण बड़े शुभ मालूम होते हैं, दोनों में कुछ खटपट हो गयी है। एक दूसरे को नजदीक लाने में कलह की उन छोटी-छोटी बातों से अचूक और अमोध चीज कोई नहीं। मालूम होता है, ललिता ने अपनी झिड़की से डिक को ठीक मार्ग दिखा दिया है। इसी से डिक उस पर चलने की तैयारी कर रहा है।

इतना सब कुछ समझने पर भी ललिता की ओर से मुझे डर ही लगा रहता है। मालूम नहीं, उसके जी में कब क्या समा उठे। मालूम नहीं वह किस-किस लोक में रहती है, किस प्रणाली से सोचती है। उसके जी का भेद मैं नहीं समझ पाता।

मैं कचहरी से आकर पूरे कपड़े तक नहीं उतार पाया कि ललिता बेधड़क मेरे कमरे में आकर अपनी मेज की शिकायत करने लगी।

‘चाचा जी, मैंने कितनी बार आपसे मेज ठीक करवा देने के लिए कहा? आप ध्यान नहीं देते, यह कैसी बात है?’

मैं जानता हूँ, मुझसे कई बार कहा गया है, फिर भी मैंने कहा–‘अच्छा, अच्छा, अब मैं करवा दूँगा।’

‘कब से अच्छा ही अच्छा हो रहा है। अभी करवा के दीजिए।’

‘अभी? अच्छा अभी सही।’

‘सही-वही नहीं। मैं अभी करवा लूँगी। आप तो यों ही टालते रहते हैं।’

‘अब नहीं टालूँगा। बस!’

‘नहीं।’

‘अभी मिस्त्री काम से लौटे होंगे? अभी कौन मिलेगा?’

‘मिस्त्री दस मिल जायेंगे। मिल जाय तो लगा लूँ?’

‘हाँ-हाँ, लगा लो।’ यह कहकर उसे टाला, कपड़े उतारे, हाथ-मुँह धोया और अखबार लेकर ईज़ी चेयर पर पड़ गया।

कुछ देर बाद खुट-खुट की आवाज़ कानों में पड़ी। ‘नेशन’ के अग्रलेख का तर्क मुझे ठीक नहीं लग रहा था। उसे पढ़ते-पढ़ते ऊँघ-सी आने लगी थी, तभी खुट-खुट का शब्द सुनकर अंदर पहुँचा।

‘क्या है, ललिता?’ कहता हुआ मैं उसके कमरे में चला गया, देखा एक बढ़ई काम में लगा है।

‘आपने कहा था न कि मिस्त्री को काम में लगा लेना।’

कहा था तो कहा होगा–पर मुझे उसकी याद नहीं थी। बोला–‘तो तुम लपककर उसे बुला भी लायीं। मानो तैयार ही बैठा था।’

‘नहीं। जाते देखा बुला लिया।’

‘दिन भर काम करके घर लौट रहा होगा-सो तुमने बुला लिया। बेचारे मजदूर पर कोई दया नहीं करता। तुम्हारा क्या होगा?’

‘कोई बेगार थोड़े ही है। उजरत भी तो दी जायगी। यह तो इसमें खुश ही होगा।’ मुड़कर उसने मिस्त्री से पूछा क्यों बाबा?’

मिस्त्री बूढ़ा सिक्ख था। बड़ी लम्बी सफेद दाढ़ी थी। सफेद ही साफा था आँखों में स्नेह और दीनता का रस था। ललिता का प्रश्न सुनकर उसने ऐसे देखा, मानो उसकी आँखों में की दीनता और स्नेह एक-दम छलक आये हैं। ललिता सिहर-सी लहरा दी। उसने कहा–

‘नहीं, बेटी! मुझे सबेरे से कोई काम नहीं मिला। मेरा घर यहाँ नहीं है। बहुत दूर है। पेशावर तुमने सुना होगा, उसके पास अटक है, अटक के पास मेरा घर है। दरिया सिंध इसको छूकर बहता है। मैं यहाँ आज ही आया हूँ। काम न मिलता तो जाने मेरा क्या होता?’

दरिया सिंध के किनारे वाले हिंदुस्तान के छोर पर के गाँव से यह बुडढ़ा सिख, नर्मदा के किनारे के हिंदुस्तान के बीचों-बीच बसे हुए इस होशंगाबाद में, इस प्रकार बे-पैसे किस आफत का मारा आ पहुँचा, यह सब जानना मुझे आवश्यक न जान पड़ा। अब ललिता ने कुरेद-कुरेदकर उसकी कहानी पूछी। मैंने भी सुनी। .

जब वह बुड्ढा नहीं था। जवान था। तब की बात है। दरिया में बाढ़ आ गयी। झोपड़ा बह गया, खेत डूब गये। वह, उसकी घरवाली और उसका एक छोटा लड़का इन तीनों ने एक दूर गाँव में जाकर आश्रय लिया। पर खायें कहाँ से? जो थोड़ा-बहुत नकद बाढ़ के मुँह से बचाकर ले आ सके थे, उससे ही बैठ-कर कब तक खायेंगे? ऐसी ही चिन्ता के समय उसे एक तरकीब सुझायी गयी मदरास चला जाय तो वहाँ बहुत आदमियों की जरूरत है, खूब तनख्वाह मिलती है, और सहूलियतें हैं। खूब आराम है। थोड़े ही दिनों में मालामाल होकर लौट सकेगा। मदरास पहुँचा-वहाँ से फ़िजी। घर से निकलने पर यह सब उसके बस का नहीं रह गया था कि वह फ़िजी न जाय। तब फ़िजी न जाता तो शायद जेल जाना पड़ जाता, ताज्जुब नहीं जान से हाथ धो बैठने का मौका आ जाता। फ़िजी में काम किया। पीछे से वहाँ कमाने का मौका हो सकता था। पर बच्चे की घर वाली की याद ने वहाँ रहने न दिया। जहाज के टिकट भर का पैसा पास होते ही वह चल दिया। मदरास आया। आरी और बसूलों की सहायता से उसने मदरास में एक महीने तक अपना पेट भरा और उनसे ही एक महीने में बम्बई जाने तक का किराया जुटाया। बम्बई में जैसे-तैसे पेट तो भर सका, लाख कम खाने हजार ज्यादा करने पर भी वह ऊपर से कुछ न जुटा सका। आखिर लाचार बे-टिकट चल दिया। होशंगाबाद में टिकट वालों ने उतार दिया। वहाँ से वह अपने औजार सँभाले चला आ रहा था। बहुत समझो, उसकी वह पूँजी रेलवालों ने छोड़ दी।

कहानी सुनकर बूढ़े पर दया करने को मेरा जी चाहा। पूछा– ‘ललिता, इसे कितने में तय किया था।’

‘ठहराया तो कुछ नहीं।’

‘नहीं ठहराया?’

‘नहीं।’

‘अच्छा जो ठहराया जाय उससे एक आना ज्यादा देना।’

मुझसे ‘अच्छा कहकर सिक्ख से उसने पूछा–

‘बाबा तुम यहाँ रहोगे?’

‘ना, बेटी।’

‘क्यों बाबा?’

‘घर तो अपना नहीं है। घर क्या छोड़ा जाता है? फिर बच्चे को कब से नहीं देखा। बीस साल हो गये।’

‘बाबा क्या पता वह मिलेगा ही। बीस बरस थोड़े नहीं होते।’

‘हाँ, क्या पता! पर मैंने अपने हिस्से की काफी आफत भुगत ली है। परमात्मा अब इस बुढ़ापे में उसका बचा-खुचा नहीं छीन लेंगे। मुझे पूरा भरोसा है वह मुझे जरूर मिलेगा, हाँ उसकी माँ तो शायद ही मिले।’

ललिता के ढंग से जान पड़ा, वह इतनी थोड़ी-सी बात करके संतुष्ट नहीं हुई वह उस बुढ्ढे से और बात करना चाहती है। पर मुझे तो समय वृथा नहीं गँवाना था। मैं फिर एक आना ज्यादा देने की हिदायत देकर चला आया।

यह बुड्ढा तो धीरे-धीरे मेरे घर से हिलने लगा। ज्यादातर घर पर दीखता। किसी न किसी चीज को ठीक करता उसने घर के सारे बक्शों को पॉलिश से चमकाकर नया बना दिया। नयी-नयी चीजें भी बहुत-सी बना दीं। वह ललिता का विशेष कृपापात्र था, और ललिता उसकी विशेष कृतज्ञता पात्र थी। उसने एक बड़ा सिंगारदान ललिता को बनाकर ललिता को दिया और कैश-बक्श मेरे लिए हैट-स्टैंड, खूँटियाँ वगैरह चीजें बना कर दीं। मैंने भी समझा कि वह अपने लिए इस तरह ख्वामख्वाह मजदूरी बढ़ा लेता है, चलो इसमें गरीब का भला ही है।

लेकिन हर एक चीज की हद होनी चाहिए। गरीब की भलाई की जहाँ तक बात है, वहाँ तक तो ठीक। पर उनसे दोस्ती–सी पैदा कर लेना, उसको अपना ही बना बैठना,–यह भी कोई बुद्धिमानी है! पर अल्हड़ ललिता यह कुछ नहीं समझती। उसका तो अब ज्यादा समय उस बुड्ढे से ही छोटी-मोटी चीजें बनवाने में, उससे बातें करने में बीतता है।

मैं यह भी देखता हूँ कि बुड्ढा दीनता और उम्र के अतिरिक्त और किसी बात में बुड्ढा नहीं है। बदन से खूब हट्टा-कट्टा है। खूब लम्बा-चौड़ा है। दाढ़ी-मूछों से भरा हुआ उसका चेहरा एक प्रकार की शक्ति से भरा है। यह मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैंने उसे एक दिन बुलाकर, कहा–‘बुड्ढे, अब गाँव कब जाओगे?’

‘गाँव? –कैसे जाऊँगा जी, गाँव?’

‘क्यों?’

‘जी।’

‘देखो, थोड़ी-बहुत मदद की जरूरत हो, मैं कर दूँगा। पर तुम्हें अब अपने बच्चे के पास जाना चाहिए। और यहाँ जब काम होगा बुला लूँगा, तुम्हारा फ़िजूल आना-जाना ठीक नहीं।’

बुड्ढा इस पर कुछ नहीं बोला–मानो उसे स्वीकार है।

उसके बाद वह घर पर बहुत कम दीखता। एक बार आया तब मैंने जवाब-तलब किया–
‘बुड्ढे! क्यों आये? –क्या काम है?’

‘जी, बिटिया ने बुलाया था।’

‘बिटिया, –कौन बिटिया?’

‘वही, आपकी।’

‘देखो बुड्ढे, गुस्ताखी अच्छी नहीं होती।’

इस पर बुड्ढा बहुत-कुछ गिड़गिड़ाया, ‘गुस्ताखी नहीं, गुस्ताखी’ और उसने बहुत-सी शपथें खाकर विश्वास दिलाया कि वह कभी अपने हमारे बराबर नहीं समझ सकता, ‘आप तो राजा हो, हम किंकर नाचीज हैं’, और वह तो मालकिन हैं, साक्षात् राजरानी हैं आदि–और अन्त में धरती पर माथा टेककर वह चला गया।

बुड्ढे की ओर से मुझे मुक्ति मिली। पर उसी रात को मेरे पास आया डिक। उसने बताया कि वह हिंदी शिक्षावली दो भाग खतम कर चुका है; वह और भी जो ललिता की आज्ञा हो करने को तैयार है; वह अब जल्दी ही इंगलैंड वापस चला जाएगा, पर ललिता के बिना कैसे रहेगा; उसने अपने पैसे के, अपनी योग्यता के, अपनी स्थिति के, अपने बड़प्पन के वर्णन संक्षेप में पेश किये; अपना प्रेम बताया और उसके स्थायित्व की शपथ खायी; इस तरह अपना संपूर्ण मामला मेरे सामने रखने के बाद मेरी सम्मति चाही। पर मेरी सम्मति का प्रश्न नहीं था। मेरी तो उसमें हर तरह की सम्मति थी। मैंने उसे आश्वासन दिया–‘कल ललिता से जिक्र करूँगा।’

वह बोला–‘देखिए, मैं नहीं जानता क्या बात है। पर मुझे ललिता अवश्य मिलनी चाहिए। मेरी उससे बातें हुई हैं खूब हुई हैं। वह मेरे गोरेपन से घबड़ाती है। पर मैं उससे कह चुका हूँ, आपसे कहता हूँ कि इसमें मेरा दोष तो है नहीं फिर मैं हिंदी सीखता जा रहा हूँ। वह कहती है मुझमें और उसमें बहुत अंतर है। मैं मानता हूँ–है। न होता तो बात ही क्या थी? पर हम एक हुए तो मैं कहता हूँ, सब अंतर हवा हो जायगा, वह जो चाहेगी सो ही करूँगा।’

मैंने उसे विश्वास दिलाया, ‘मैं अपने भरसक प्रयत्न करूँगा।’

उसने कहा, ‘ललिता के भारतीय वातावरण में पले होने के कारण यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि वह इस संबंध में अपने अभिभावक से आज्ञा प्राप्त करे। इसलिए उसने मुझसे कहना ठीक समझा। मैंने उसे फिर विश्वास दिलाया और वह मेरी चेष्टा में सफलता की कामना मनाता हुआ चला गया।

अगले रोज ललिता से जिक्र छेड़ा। मैंने कहा–‘ललिता, रात में डिक आया था।’

ललिता चुप थी।

‘तुम जानती हो, वह क्या चाहता है? तुम यह भी जानती होगी कि मैं क्या चाहता हूँ?’

वह चुप थी। वह चुप ही रही।

मैंने सब ऊँच-नीच उसे बताया। अपनी स्पष्ट इच्छा–यदि आज्ञा हो सके तो आज्ञा–जतला दी, ऐसे संबंध का औचित्य प्रतिपादन किया, संक्षेप में सब कुछ कहा। मेरी बात खतम न हो गयी तब तक वह गम्भीर मुँह लटकाये, एक ध्यान, एक मुद्रा से, निश्चय खड़ी रही। मेरी बात खतम हुई कि उसने पूछा– ‘बाबा को आने से आपने मना किया था?’

कहाँ कि बात कहाँ? मैं समझ नहीं पाया।

‘कौन बाबा?’

‘वही–;बुड्ढा सिक्ख, मिस्त्री।’

‘हाँ, मैंने समझाया था, उसे फिजूल आने की जरूरत नहीं।’

‘तो उनसे (डिक से) कहिए, मैं अपने को इतना सौभाग्यवती नहीं बना सकती। मुझ नाचीज की फिक्र छोड़े, क्योंकि भाग्य में मुझे नाचीज़ ही बने रह कर रहना लिखा है।’

मुझे बड़ा धक्का लगा। मुँह से निकला–‘ललिता!’

‘उनसे कह दीजिएगा–बस।’ यह कह कर वह चली गयी। मैं कुछ न समझ सका।

अगले रोज कचहरी से लौटा तो घर पर ललिता न थी। कालेज में दिखवाया, उसके महिला-मित्रों के यहाँ पुछवाया, फिर उस बुड्ढे मिस्त्री के यहाँ भी ढुँढ़वाया, वह बुड्ढा भी गायब था।

पूरा यकीन है, पुलिस ने खोज में कमी न की। और पूरा अचरज है कि वह खोज कामयाब नहीं हुई। मैं समझता हूँ, वह सिक्ख सीधा आदमी न था। छटा बदमाश है और उस्ताद है–पुलिस की आँख से बचाने का हुनर जानता है।

डिक को जब इस दुर्घटना की सूचना और ललिता का संदेश मैंने दिया तो वह बेचैन हो उठा। उसने खुद दौड़-धूप में कसर न छोड़ी। पर कुछ नतीजा न निकला। डिक खुद अटक हो आया, पर वहाँ से भी कुछ खबर न पा सका।

हम सब लोगों ने स्त्रियों के भगाये जाने और बेच दिये जाने की खबरों को याद किया, और यद्यपि इस घटना का उन विवरणों से हम पूर मेल न मिला सके, फिर भी समझ लिया कि यह भी एक वैसी ही घटना हो गयी है। यह बुड्ढा सिक्ख जरूर कोई इसी पेशे का आदमी है, न जाने कैसे ललिता को बहका ले गया।

इसके कोई महीने भर बाद की बात है। एक दिन मेरे अदालत के ही कमरे में डिक ने आकर मुझे एक तार दिखाया। कैम्बेलपुर के कलक्टर का तार था। उक्त विवरण की लड़की के साथ एक बुड्ढा सिक्ख गिरफ़्तार किया गया है। वह गिरफ़्तार करके होशंगाबाद ही लाया जा रहा है। लड़की ने मुझसे (कलक्टर से) बोलने से इनकार कर दिया है, इससे मैं उसे समझाकर होशंगाबाद न भिजवा सका।

हमें बड़ी खुशी हुई। डिक फौरन ही कैम्बेलपुर जाने को उतावला हो उठा। पर मैंने रोक दिया–‘पहले तो उसे आ जाने दो। देखें, कौन है, कौन नहीं।’

इसके तीसरे रोज मुझे ललिता की एक चिट्ठी मिली। चिट्ठी बहुत संक्षिप्त थी। मैंने अब तक ललिता की कोई चिट्ठी नहीं पायी, कोई मौका ही नहीं आया। लिखा था-
चाचा जी,
पिताजी के बाद बहुत थोड़े दिन तक आप को कष्ट दिया। इसलिए पिता जी के नाते भी और अपने निज के नाते भी, मेरा आप पर बहुत हक है। उसके बदले में आपसे एक बात माँगती हूँ। उसके बाद और कुछ न माँगूगी। समझिए मेरा हक ही निबट जायगा। बाबा गिरफ़्तार कर लिये गये हैं। उन्हें छुड़वाकर घर ही भिजवा दे, खर्च उनके पास न हो तो वह भी दे दें।

आपकी-
ललिता

चिट्ठी में पता नहीं था, और कुछ भी नहीं था। पर ललिता की चिट्ठी मानो ललिता ही बनकर, मेरे हाथों में काँपती-काँपती, अपना अनुनय मनवा लेना चाहती है।

अगले रोज जेल सुपरिटेंडेंट ने मुझे बुलवा भेजा। वही बुड्ढा सिक्ख मेरे सामने हाज़िर हुआ। आते ही धरती पर माथा टेक कर गिड़गिड़ाने लगा–‘राजा जी...’

‘क्यों बुड्ढे, मैंने तुझ पर दया की और तूने शैतानी?’

‘राजा जी’ और ‘हुजूर’ ये ही दो शब्द अदल-बदलकर उसके मुँह से निकलते रहे।

‘अच्छा, अब क्या चाहता है?’

‘हुजूर, जो मर्जी।’

‘मर्जी क्या, तुझे जेल होगा। काम ही ऐसा किया है।’

‘हुजूर, नहीं-नहीं-नहीं,–राजा जी!’

‘क्यों रे, मेरी लड़की को ले भागनेवाला तू कौन था, बदमाश, पाजी?’

‘नहीं-नहीं-नहीं–’

उसके बिना कहे मैं समझता जा रहा था कि वह किन्ही विकट लाचारियों का शिकार बनाया गया है। लेकिन उस घटना पर जो क्षोभ मुझे भुगतना पड़ा था, वह उतारना तो चाहिए किसी पर। इसलिए उसे मैंने काफी कह-सुन लिया। फिर उसे रिहा कर देने का बंदोबस्त कर दिया।

छूटकर वह मेरे ही घर आया।

‘मालिक, –राजा जी–’

उसकी गड़बड़ गिड़गिड़ाहट में से मैंने परिणाम निकाला, वह खाली हाथ है, किराये का पैसा चाहता है, परंतु वह घर चला जायगा, नहीं तो उससे नौकरी या मजदूरी करवा ली जाय। मैंने उसे घर पर ही रहकर काम करने का हुक्म दिया।

डिक को मैंने सूचना दी–‘वही बुड्ढा सिक्ख आ गया।’

डिक ने कहा–‘उसे छुड़ा लो। उसे साथ लेकर उसके गाँव चलेंगे।’

‘हाँ, जरूर, अभी।’

हम बुड्ढे को साथ लेकर चल दिये। हमने देखा, बुड्ढा बिलकुल मनहूस नहीं है। बड़प्पन के आगे तो वह निरीह दीन हो जाता है, पर अगर उससे सहानुभूतिपूर्वक बोला जाय तो वह बड़ा खुशमिजाज बन जाता है, उसने सफर में तरह-तरह से हमारी सेवा की, तरह-तरह के किस्से सुनाये, लेकिन उस खास विषय पर किसी ने जिक्र नहीं उठाया। मानो वह विषय सबके हृदय के इतना समीप है कि जरा उँगली लगी तो वह कसक उठेगा।

सिंध घहराता हुआ बह रहा है, और हम स्लेट के पत्थरों के बीच एक पगडंडी से चुपचाप जा रहे हैं, पैदल।

एक छोटे से गाँव के किनारे हम आ गये। २५-३० घर होंगे। नीची छतें हैं, उनसे भी नीचे द्वार। शाम हो गयी है। हरित भीमकाय उत्तुंग पर्वतमालाओं की गोद में इस प्रशांत-सिंध संध्या में यह खेड़ा, इस अजेह प्रवाह से बहते हुए सिंध के किनारे, विश्व के इस एकांत शांत-अज्ञात और गुप-चुप छिपे कोने में, मानो दुनिया की व्यवस्था और कोलाहल के प्रतिवाद-स्वरूप विश्राम कर रहा है। प्रकृति स्थिर, निमग्न, निश्चेष्ट, मानो किसी सजीव राग में तन्मय हो रही है। यह खेड़ा भी मानो उसी राग (harmony) से मौन समारोह में योग दे रहा है।

इन मुट्ठी-भर मकानों से अलग टेकड़ी-सी ऊँची जगह पर एक नया-सा झोपड़ा आया और बुड्ढे ने हमें खबरदार कर दिया। बुड्ढे ने उँगली ओंठो पर रख संकेत किया, हमको यही, चुप ठहर जाना चाहिए। हम तीनों खड़े हो गये, मानो साँस भी रोक लेना चाहते हैं, ऐसे निस्तब्ध भाव से। नयी आवाज़ आयी।

‘अभी नहीं। सबक़ खतम कर दो, तब चलेंगे।’

अहो! ललिता की आवाज़ थी। डिक का तो कलेजा ही उछलकर मुँह तक आ गया। पर हम सब ज्यों-के-त्यों खड़े रहे।

एक भारी, अनपढ़, दबी, मानो आज्ञा के बोझ से दबी, आवाज़ में सुनायी पड़ा– ‘दिस इज ए चे–चेअर–’

‘हाँ, चेअर, ठीक, चेअर। गो ऑन।’

दो-तीन ऐसे लड़खड़ाते वाक्य और पढ़े गये। और उसी प्रकार उन पर दाद दी गयी। फिर उसी बारीक उकसाती हुई और चाहभरी आवाज़ में सुन पड़ा– ‘अच्छा, जाने दो! छोड़ो। चलो, दरिया चले। लेट्-स गो।’

हम ओट में छिप रहे। दोनों निकले। ललिता और वह। वह कौन है? शक्ल ठीक नहीं देख पड़ी, पर देखा, –खूब डील-डौल का जवाब है। पुट्ठे भरे हैं, चाल में धमक है, पर सब में सादगी है।
ललिता उसके बायें हाथ की उँगलियाँ थामे हुए थी। उन्हीं उँगलियों से खेलती चली जा रही थी।

मैंने बुड्ढे से पूछा–‘ वह कौन है?’

‘मेरा लड़का–पुरुषसिंह।’ शायद पुरुषसिंह वह ठीक न बोल सका हो।

तब उस ने बुड्ढे से कहा–‘आओ, चलें, देखे।’

हम चुपचाप उसके साथ चले।

सिंध सामने ही तो है। एक बड़ी-सी चट्टान के पास ऐसे खड़े हो गये कि उन दोनों की निगाहों से बचे रहें।

‘यू पोरस, वह क्या बह रहा है?–लाओगे?–ला सकते हो? कैन यू?’

‘वह क्या बात?–लो!’

ऊँची धोती पर एक लम्बा-सा कुर्ता तो पहने ही था। उतारा, और उस सिंध के हिंस्त्र प्रवाह में कूद पड़ा। लकड़ी का टुकड़ा था, किनारे से १५ गज दूर तो होगा, हमारे देखते-देखते ले आया।

हँसता-दौड़ता आया ललिता के पास। बोला– ले आया! –बस? –पर दूँगा नहीं! इतना कहकर फिर उसने वह लकड़ी भरपूर रूप से धार में फेंक दी।

ललिता ने कहा–‘यू नॉटी!’

मैं अपने को सँभाल न सका। चट्टान के पीछे से ही बोल पड़ा–‘ यू नाटि-एस्ट...!’ और बोलने के साथ ही हम तीनों उसके सामने आविर्भूत हो पड़े।

Hallo, Uncle!... and oh, Hallo you Dick! How d’ ye do dear Dick?... and oh my dear father, what luck!

कहकर उसने बुड्ढे का हाथ चूमकर पहले अभिवादन किया।

‘See you my Porus, Dick! king porus of history, mind you! Is he not as fair as you?’ डिक को वाग्विमूढ छोड़ पोरस की और मुड़कर ‘इंट्रोडक्शन’ देते हुए कहा–My unclc मेरे चाचा and that my dear friend Dick और वह डिक मेरा खूब प्यारा दोस्त।’

घुटने से ऊपर लायी हुई गीली धोती और नंगा बदन पोरस डिक अँगरेज और मुझ जज के सामने इस परिचय पर हँस दिया। मानो उसे हमारा परिचय खुशी से स्वीकार है।

रेख अभी नहीं फूटी है, बदन और चेहरा भरा-पूरा है, आँखें भोलेपन और खुशी से हँस रही हैं! मुझे यह मानव मूर्ति स्वास्थ्य और सुख और प्रसन्नता से खिली हुई, मानो गढ़ी हुई यह प्रकृति-मूर्ति अरूचिकर न जान पड़ी।

‘पोरस, चाचा को सर नवाओ।’

उसने दोनों हाथ जोड़कर समस्त सिर झुका दिया।

तब डिक का हाथ बढ़ा। पोरस का हाथ बढ़ा। पोरस का हाथ ‘शेक’ करते हुए कहा–‘पोरस तुम राजा है। हम हारता है, और हम खुश है!’ पोरस का हाथ वैसे ही थामे हुए ललिता की ओर मुड़कर कहा, Lalita dear, I congratulate you on your treasure, on your victory, on your king! In truth, I do. Here’s my hand!’ और ललिता का हाथ झकझोर दिया।

‘Long live Porus, I say–and I be saved.’

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