बुरांश : कुमाऊँनी लोककथा (उत्तराखंड)
Buransh : Kumaon Lok-Katha (Uttarakhand)
बहुत पहले की बात है, एक किसान ने अपनी इकलौती बेटी का ब्याह कर ससुराल भेज दिया। बेटी जब से ससुराल गई लौटकर नहीं आई। किसान और उसकी पत्नी बहुत दुःखी रहने लगे।
उधर बेटी ससुराल में सास के बुरे व्यवहार से बहुत दुःखी रहती थी। एकांत में मन-ही-मन कुढ़ती और रोती रहती थी । वहाँ कोई भी उसके मन की बात सुननेवाला नहीं था। कई बार उसने अपने माँ- बाबू को संदेश भेजना चाहा, परंतु कोई ऐसा विश्वसनीय व्यक्ति नहीं मिला। वह घर- आँगन, खेत-खलिहान, जंगल जाती, उदास रहती। एकांत में पेड़-पोधों, जीव-निर्जीव से बातें करती तो क्षण भर के लिए उसका मन हलका हो जाता। लोग उसे पागल कहते ।
तीज-त्योहार पर गाँव में चहल-पहल होती। गाँव की बहू-बेटियों का अपनों से मिलने-जुलने के लिए आना-जाना शुरू हो जाता। किसान और उसकी पत्नी भी अपनी बेटी की राह देखते-देखते निराश हो जाते। एक दिन बेटी ने सुना कि उसकी माँ बीमार है। उसे चिंता होने लगी। उसने हिम्मत करके अपनी सास से कहा कि मैं अपनी बीमार माँ से मिलकर आती हूँ ।
सास ने जब बहू की बात सुनी, तो उसे दैनिक कार्यों के अतिरिक्त अन्य ढेर सारे काम बता दिए। उनके पूरा होने पर ही वह अपनी माँ से मिलने जा सकती थी। शाम होने को आई । दिन ढलने को आ गया। बहू ने अपनी सामर्थ्य से अधिक काम निबटाए, पर सभी काम पूरे न हो सके। बहू के बहुत मिन्नतें करने के बाद सास ने उसे जाने की अनुमति दी। बेटी माँ से मिलने चल दी। वह जिस तेजी से चलती, उसे अपने कदम उतने ही धीरे महसूस होते। वह सोचने लगी, काश ! उसके तन पर पंख उग आए होते तो पलक झपकते ही माँ - बाबू के पास पहुँच जाती और अपने मन की बात सुनाती ।
आखिर वह माँ के घर पहुँच गई। उसने देखा, माँ उसकी याद में सूखकर काँटा हो गई है और पिता समय से पहले बूढ़े दिखने लगे हैं। उसने अपनी बात सुनाने से पहले माँ- बाबू के विषय में जानना चाहा, वह दोनों कोई बात किए बिना बेटी की तरफ देखते रह गए। आश्चर्य ! क्या यही उनकी बेटी है। उन्हें विश्वास नहीं आ रहा था और न ही आँखें सत्य को झुठला पा रही थीं। वे बेटी के दुःख को बरदाश्त नहीं कर पाए ।
बेटी ने माँ को स्पर्श किया, माँ निर्जीव पड़ी रही। पिता के सीने से लगकर अपने दुःख को हलका करना चाहा, परंतु पिता का दिल 'पत्थर का हो चुका था। वह बिलख पड़ी। यह सब वह क्या देख रही है। माँ - बाबू इस तरह चुप क्यों हैं। बेटी ने उनको झिंझोड़ा। वे दोनों जीवित नहीं थे। बेटी फूट-फूटकर रोने लगी।
कुछ दिन के बाद उनके घर के आँगन में एक बुरांश का पेड़ उग और उस पर लाल फूल भी निकल आए। अब बेटी हर त्योहार पर उस बुरांश से मिलने जाती थी। आज भी पहाड़ों पर बुरांश खिलता है। बहू-बेटियाँ बुरांश से मिलने अपने मायके आती हैं। बुरांश को देखकर वे उदास नहीं होतीं, हमेशा खुश रहती हैं। लड़की का मायके से ऐसा ही रिश्ता होता है, जो हमेशा खुशियाँ ही खुशियाँ देता है बुरांश की तरह ।
(साभार : करुणा पांडेय)