बुढ़िया और उसकी बहू : कोंकणी/गोवा की लोक-कथा
Budhia Aur Uski Bahu : Lok-Katha (Goa/Konkani)
एक था गाँव। उस गाँव में एक बुढ़िया रहती थी। वह बहुत ही दुष्ट थी। उस बुढ़िया का एक बेटा था और एक बहू। बहू बेचारी बड़ी ही सीधी-सादी थी। एक कनपटी मारने पर दूसरी कनपटी आगे करनेवाली! और बेटा भी माँ की हर बात माननेवाला।
तो होता है क्या है कि बेटे को उस गाँव में कोई काम-काज नहीं मिलता, तो काम की तलाश में वह दूसरे गाँव जाता है। उसे वहाँ एक अच्छा सा काम मिलता है, लेकिन वहाँ से उसे हर रोज घर पर आने के लिए समय नहीं मिलनेवाला था। सिर्फ साल में एक बार, कुछ दिनों के लिए उसे छुट्टी मिलनेवाली थी। वह काम तो स्वीकार करता है, लेकिन उसे अपनी पत्नी की बहुत चिंता थी। इसलिए दूसरे दिन काम के लिए वह घर से निकलते वक्त बुढ़िया से कहता है-
"माँ, मेरी पत्नी को अच्छी तरह सँभालना, हाँ।"
बुढ़िया कहती है, “हाँ बेटा, तुम बिल्कुल भी चिंता न करना, मैं तुम्हारी पत्नी का अच्छी तरह खयाल रखूगी। उसे कोई कष्ट होने नहीं दूंगी।"
बेटा बेफिक्र होकर काम के लिए दूसरे गाँव चला जाता है।
बेटे के घर से जाने के बाद अब बुढ़िया का ही राज था। वह बहू को सँभालती कहाँ, वह तो उसे जितना हो सके, उतना सताना शुरू करती है। स्वयं पैर फैलाकर बैठती है और उससे घर-खेत का सारा काम करवाती है। उसे पौ फटने से पहले उठाती है। खाना पकाना, बरतन माँजना, पानी भरना आदि काम करवाती है। उसके बाद कभी जंगल में लकड़ियाँ लाने के लिए भेजती है या खेत का काम करने के लिए। दिनभर उससे कोल्हू के बैल की तरह परिश्रम करवाती है। उसे थोड़ा भी समय विश्राम करने के लिए नहीं देती। उसके ऊपर उसे ठीक तरह से खाना भी नहीं देती। कभी काँजी का पानी तो कभी बासी खाना देती थी।
बेचारी बहू ये सब कष्ट चुपचाप सहती रहती थी। सास को पलटकर कोई भी जवाब कभी नहीं देती। उसके बताए किसी भी काम को कभी न नहीं कहती।
तो इस तरह ही दिन बीतते हैं और सास को पता चलता है कि बहू गर्भवती है। तो वह संतप्त हो जाती है। सोचती है, 'कमानेवाला अकेला बेटा, उसमें एक बच्चा आ गया तो खानेवाला एक मुँह और बढ़ जाएगा! उसके ऊपर बच्चे के जन्म के बाद उसका खयाल रखने के कारण बहू कोई काम नहीं करेगी। मुझे ही सब काम करना पड़ेगा।'
जिस दिन उसे 'बहू गर्भवती है', यह बात मालूम हो जाती है, उस दिन से वह उसे पहले से ज्यादा सताने लगती है।
सास का तकलीफ देना पहले से ज्यादा बढ़ता है, तो भी बहू उसे उलटा जवाब नहीं देती। वह चुपचाप उसका बताया काम, जैसे भी हो, करती है। तो इस तरह कुछ और महीने बीतते हैं। बहू के नौ महीने पूरे होकर उसके प्रसूति होने का समय करीब आता है। उसके पेट में दर्द होने लगता है। बहू प्रसव-वेदना से व्याकुल होकर सास से कहती है-"माँजी, लगता है मेरे प्रसूति का समय नजदीक पहुँचा है। आप जल्दी धायमाँ को बुला लीजिए।"
इसपर सास उसको एक नीबू देकर कहती है, “तुम्हें धाय की कोई जरूरत नहीं है, तुम उस जगंल में जाकर इस नीबू को खाना। तुम्हें प्रसूति हो जाएगी। पर मेरी एक बात सुनो, यदि बेटा हुआ, तो ही उसे लेकर घर आना। बेटी हुई तो उसे लेकर यहाँ नहीं आना।"
बहू बेचारी वेदना से तड़पती, रोती सास के बताए उस जंगल में गई और उसने वह नीबू खाया। कुछ ही पल में उसकी प्रसूति हो गई। उसने एक बेटी को जन्म दिया।
बहू ने उस बेटी को बड़े प्यार से दुलारा, उसे दूध पिलाया और नीबू खाकर वह पैदा हो गई थी, इसलिए उसका नाम 'निंबावती' रखा। इतना करके उसने किसी पेड़ के तने में कोई खोखर है क्या, इसकी खोज की। तो उसे एक पेड़ का खोखर मिला। उसने निंबावती बच्ची को उस खोखर में रखा और उस पेड़ पर रहनेवाली चिड़ियों से कहा, "चिड़ियो, मेरी बेटी का ध्यान रखना।"
इतना करके वह घर वापस आई। जब वह अकेली घर वापस आती है तो बुढ़िया समझ गई कि उसे बेटी हुई है और वह उसके डर के मारे उसे जंगल छोड़कर आई है। पर वह बुढ़िया बात को पलटती है, वह गाँव में शोर मचाती है, "मेरी बहू ने बच्चे को खा लिया। 'मेरी बहू बच्चे खानेवाली डायन है।" ।
बहू उसकी बात अनसुनी कर देती है और मन-ही-मन इस बात से खुश रहती है कि भगवान् की कृपा से उसकी बच्ची जिंदा है।
अब बहू हर रोज ढोर-डंगरों को चराने के बहाने जंगल में जाती है और अपनी बच्ची को दूध पिलाती है। इस तरह कुछ दिन बीतते हैं। उस पेड़ की खोखर में निंबावती धीरे-धीरे बड़ी हो जाती है।
इस तरह एक साल गुजरता है और बुढ़िया का बेटा छुट्टी लेकर घर वापस आता है। घर के अंदर प्रवेश करते ही बुढ़िया उससे कहती है-
"क्या बताऊँ तुम्हें बेटा, तुम्हारी यह पत्नी मनुष्य नहीं कि डायन है, डायन ! जिंदा मनुष्य को खानेवाली डायन ! तुम्हें एक बेटी हुई थी, लेकिन इसने उसे खा लिया।"
बेटा अपनी माँ के स्वभाव से भलीभाँति परिचित था। उसने जाना कि यह जरूर अपनी ही माँ की कोई साजिश है। उसने अपनी पत्नी से उसके बारे में कुछ नहीं कहा; पत्नी ने भी अपने पति से सास के बरताव के बारे में कोई बात नहीं बताई।
अब कुछ दिन घर रहकर बुढ़िया का बेटा फिर काम के लिए दूसरे गाँव चला जाता है, तो वह दुबारा पेट से होती है। बुढ़िया को जब यह बात मालूम हो जाती है, तब वह आगबबूला हो जाती है। अब वह बहू को पहले से ज्यादा सताने लगती है।
दूसरी बार जब नौ महीने पूरे हो जाते हैं और बहू को प्रसव-वेदना शुरू हो जाती है तो वह सास को पहले की तरह ही दाई को बुलाने के लिए कहती है। इस बार भी बुढ़िया दाई को नहीं बुलाती, बल्कि मुट्ठी भर जीरा लाकर उसके हाथ में देती है और कहती है-"ये जीरा लेकर उस जंगल में जाना और इसे खाना। तुम्हें प्रसूति हो जाएगी। बेटा हुआ तो ही उसे लेकर यहाँ आना, बेटी हुई तो उसे वहीं फेंककर आना।"
तो सास के कहने पर बहू उस सुनसान जंगल में फिर जाती है। वहाँ जाकर जीरा खाती है, तो कुछ ही समय में उसे प्रसूति होकर एक बेटी को जन्म देती है। वह उस बेटी को दुलारती है, दूध पिलाती है, उसका 'जीरावंती' नाम रखती है और पहली बेटी को जहाँ रखा था, उसी खोखर में उसे रखकर पेड़ पर रहनेवाली चिड़िया को उसका ध्यान रखने के लिए कहकर वापस घर आती है। अब बुढ़िया पहले से ज्यादा जोर-जोर से चिल्लाकर गाँववालों से कहती है कि उसकी बहू ने इस बार भी अपनी बेटी को खाया है, वह चुडैल है। अब भी बहू उसके चिल्लाने का अनसुना करती है। गाँववाले भी उसके चिल्लाने पर कोई ध्यान नहीं देते।
कुछ दिनों के बाद और एक साल खत्म होता है। उसका बेटा वापस घर लौटता है। तब पहले की तरह बुढ़िया उससे बहू की चुगली करती है कि उसने बेटी को खा लिया है। बेटा इस बार भी चुप रहता है, न माँ को कुछ कहता है, न पत्नी से कुछ पूछता है। कुछ दिन घर रहकर वह वापस काम पर लौट जाता है। अब बहू तीसरी बार गर्भवती हो जाती है।
इस बार भी सब पहले की तरह ही हो जाता है। इस बार बुढ़िया बहू को एक आम देती है। बहू तो उस आम को लेकर उस जंगल में जाकर खाती है, तो वह एक और बेटी को जन्म देती है। वह उसको दूध पिलाकर, 'आमवंती' नाम देकर, चिड़ियों को उसका खयाल रखने के लिए कहकर वापस घर आती है।
अब बुढ़िया गाँव के द्वार-द्वार जाकर बहू की चुगली करती है कि उसकी बहू ने एक नहीं, तीन-तीन बेटियों को खा लिया है, वह मनुष्य नहीं, खुद के बच्चे खा जानेवाली डायन है। बुढ़िया जिस तरह से शोर मचाती है तो लोगों को भी अब लगने लगता है कि उसकी बहू सचमुच ही बच्चे खानेवाली डायन है ! तो लोग डर के मारे अपने-अपने बच्चों को घर के अंदर बंद करके रखते हैं।
करते-करते यह बात पड़ोस के सब गाँवों में फैल जाती है। बुढ़िया का बेटा जिस गाँव में काम करता था, उस गाँव में भी यह बात पहुँचती है और उसके कान तक आती है। सुनकर वह बहुत ही परेशान हो जाता है। वह तुरंत मालिक से अनुमति लेकर गाँव वापस आता है।
इधर गाँव में होता है क्या है कि खबर राजा के कानों तक पहुँचती है। राजा सिपाही भेजकर बुढ़िया को दरबार में बुलाता है और बात की छान-बीन करता है। तब बुढ़िया मिर्च-मसाला लगाकर राजा से कहती है, "क्या बताऊँ महाराज, मेरी बहू है बच्चे खानेवाली चुडैल! उसने मेरी तीन पोतियाँ को जिंदा ही खा लिया है !"
सुनकर राजा क्रोधित हो जाता है, सिपाहियों को आदेश देता है कि चौराहे पर एक सूली लगवाओ और बुढ़िया की बहू जहाँ-कहीं भी है, वहाँ जाकर उसे लेकर आओ।
राजा के सिपाही शीघ्र ही आज्ञा का पालन करते हैं। वे तुरंत सूली बनाते हैं और जाकर बुढ़िया की बहू को दरबार में लेकर आते हैं।
राजा बहू से पूछता है, "क्या तुम्हारी सास सच कहती है? क्या तुमने अपनी तीनों बेटियों को जिंदा खा लिया है ?"
बहू सिर नीचे झुकाए चुप रहती है। एक शब्द भी नहीं कहती।
अब राजा को विश्वास हो जाता है कि जैसा कि बुढ़िया ने बताया है, उसकी बहू ने अपनी बेटियाँ खा ली हैं। वह तुरंत सिपाहियों को उसे सूली पर चढ़ाने का फरमान देता है। तो सिपाही उसे लेकर चौराहे पर जमा होते हैं। वहाँ राजा, प्रधान, सरदार और बाकी लोग भी इकट्ठा हो जाते हैं।
इधर बहू को सूली चढ़ाने की तैयारी चलती है, तो उधर उसका पति घर पहुँचता है। वह देखता है कि घर में माँ और पत्नी नहीं हैं, और घर पर ताला लगा हुआ है। वह परेशान होकर पड़ोसियों से पूछताछ करता है। पड़ोसी बताते हैं कि दोनों को राजा ने दरबार में बुलाया है।
बेटा घबराकर राजा के दरबार की तरफ भागता है। वहाँ जाकर उसे पता चलता है कि उसकी पत्नी को सूली पर चढ़ाने के लिए चौराहे पर ले गए हैं। वह तेजी से दौड़कर चौराहे पर पहुँचता है।
पहुँचा तो वह क्या देखता है कि चौराहे पर राजा, प्रधान, सिपाही और सारी प्रजा इकट्ठा हुई है और कुछ ही पल में उसकी पत्नी को सूली चढ़ाया जानेवाला है।
वह तुरंत राजा के सामने जाकर खड़ा होता है और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता है, “महाराज, दया करें, कुछ देर के लिए मेरी पत्नी को सूली पर चढ़ाना रोक दीजिए। मुझे एक बार अपनी माँ और पत्नी से सच बात पूछने दीजिए। यदि मेरी पत्नी अपराधी है, तो मैं खुद कहूँगा कि उसे सूली पर चढ़ाएँ!"
राजा सिपाहियों को कुछ देर के लिए सूली पर चढ़ाना रोकने का आदेश देता है। अब बेटा माँ से पूछता है, "माँ, भगवान् के लिए सच बात बताओ।"
लेकिन बुढ़िया उसे झूठ ही बताती है कि उसकी पत्नी ने तीनों बेटियाँ खा ली हैं।
अब बेटा पत्नी से पूछता है, “तुम्हें मेरी कसम, मुझे सच बताओ!"
पत्नी आरंभ से अंत तक की सारी बातें पति को बताती है। लेकिन कोई भी उसकी बातों को सच मानने के लिए तैयार नहीं होता। तब वह कहती है, "सच्चाई क्या है, आप अपनी आँखों से ही देखिए।"
और वह गाने लगती है-
"निंबावंती मेरी प्यारी बिटिया री!
संकट में मेरी रक्षा करना,
जीरावंती मेरी बिटिया री!
संकट में मेरी रक्षा करना,
आमवंती मेरी बिटिया री!
संकट में मेरी रक्षा करना।"
बहू का गाना खत्म होने की देर, तीनों बच्चियाँ जंगल से दुड़-दुड़ दौड़कर वहाँ आ जाती हैं और अपनी माँ से चिपक जाती हैं। उन बच्चियों को देखकर बुढ़िया के बेटे को सच का पता चलता है।
राजा भी सच समझ जाता है, सारे लोग भी सच जान लेते हैं।
राजा क्रोधित होकर बुढ़िया से पूछता है-
"अब तो बता बुढ़िया, सच बात क्या है ?"
राजा के तेवर देखकर बुढ़िया को कँपकँपी छूटती है। उसे सच बताना ही पड़ता है। सच बात जानकर राजा ने, जो सूली बुढ़िया की बहू को चढ़ाने के लिए बनाई थी, उसपर बुढ़िया को ही चढ़ाता है। उसके बाद वह बुढ़िया के बेटे से कहता है, "तुम्हें अब काम के लिए दूसरे गाँव जाने की जरूरत नहीं है, मैं तुम्हें इसी गाँव में काम दूंगा! तुम अपनी पत्नी और बच्चियों को लेकर सुख से यहाँ रहना!"
बुढ़िया का बेटा हाथ जोड़कर कहता है, “आपकी बड़ी कृपा हुई, महाराज!"
उसके बाद वह अपनी पत्नी और बच्चियों को लेकर घर आ जाता है।
राजा अपने दिए हुए वचन के अनुसार दो-चार दिनों में बुढ़िया के बेटे को अपने राज्य में एक अच्छी सी नौकरी देता है। वह बड़ी ईनामदारी से उस नौकरी को करता है और अपनी पत्नी तथा तीनों बेटियों के साथ सुख-शांति से जीवन बिताता है।