बुद्धिमान माँ : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा

Buddhiman Maan : Lok-Katha (Oriya/Odisha)

भारत के पूर्वी हिस्से में उड़ीसा नाम का राज्य है। महानदी के मुहाने के आसपास की जमीन बहुत उपजाऊ है – धान के खेत, जंगल और ताजा हरी घास, जिसे वहां के मवेशी भरपेट खाते हैं। बहुत पहले वहां एक महाजन की पत्नी अपने तीन बेटों और बहुओं के साथ रहती थी। सुखी परिवार था और सब लोग आराम से रहते थे।

“यह जमीन और जंगल तुम्हारे पिता के बड़े परिश्रम का फल है,” माँ ने अपने बेटों को बताया था। “जमीन की उपज और जंगल की लकड़ी बेचकर उन्होंने इतने ढोर – डंगर खरीदे थे और इतना बड़ा घर बनाया था कि जिसमें सारा परिवार सुख से रह सके।” वे सब एक टीले पर खड़े थे, जहाँ से धान के खेत दिखाई देते थे। फसल काटने के लिए तैयार खड़ी थी और पके धान की बालियां धीमी – धीमी बाजार में लहरा रही थी। माँ की आवाज में गर्व था।

“हाँ, मुझे पिताजी के साथ सुबह – सुबह अपने खेतों में जाना अब भी याद है,” बिधु, जो सबसे छोटा था, बोला। “मुझे खलिहानों में काम करना बहुत भाता रहा है।”

वह किसान का बेटा था और अपने पिता की ही तरह खेती – बाड़ी करता था। उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी – मजदूरों को सम्भालना, उपज को इकट्ठा करना, उसके लिए सही खरीदार ढूंढना आदि। फिर भी अपनी जमीन, अपनी मिटटी से उसे बहुत प्यार था।

“साधु और राधू आगे पढ़ना चाहते थे,” माँ अपने दोनों बड़े बेटों की तरफ देखती हुई बोली, “और तुम्हारे पिता को दोनों की सफलता पर बहुत ख़ुशी भी थी, पर जमीन के प्रति तुम्हारे इस प्यार की वह बहुत कद्र करते थे और इसीलिए अपने आखिरी समय में उन्हें किसी तरह का दुःख या क्लेश नही था। उनकी अंतिम इच्छा यही थी कि इस जमीन – जायदाद का बंटवारा न हो और इस विशाल घर में तुम लोग मिलजुलकर एक साथ रहो।”

“हाँ, हाँ, माँ,” साधु बोला, “हम कभी उनकी इच्छा के विरुद्ध नही जाएंगे।”

साधु, उनका ज्येष्ठ बेटा, पंडित था। गाँव और उसके आसपास के लोग साधु से कई मामलों में राय लेने आते थे, सो साधु का गुजारा बढीया तरीके से हो जाता था। राधु वकील था और वकालत से उसे भी अच्छी – खासी आमदनी भी हो जाती थी।

मुश्किल यह थी की बिधु का काम मेहनत – मशक्क़त का काम था। वह सुबह से शाम तक खेतों में रहता। उसके मुकाबले, बाकी दोनों भाई काफी आराम की जिंदगी जी रहे थे। इससे बिधु की पत्नी बहुत दुखी थी।

“मेरे भाई के यहाँ से चिट्ठी आई है,” एक रात वह बिधु से बोली। वह खेतों से लौटा ही था और भोजन के बाद खाट पर पड़ा सुस्ता रहा था। “उसने हमे अपने घर पर छुट्टियां बिताने का न्यौता दिया था। कुछ देर पहले ही उसने अपना घर बनाया है और वहां गृहप्रवेश करना चाहता है।”

“पर मै कैसे जा सकता हूँ?” बिधु थकी हुई आवाज में बोला। “इतना काम जो पड़ा है।”

“आप सदा यही कहते हैं,” पत्नी कुछ तमककर बोली। “तो क्या हम सभी कहीं नही जा पाएंगे?”

“मैंने ऐसा कब कहा? मै तुम्हारे जाने का इंतजाम किये देता हूँ।”

“जी नही,” बिधु की पत्नी कुछ अड़ियल स्वभाव की थी। “जाएंगे तो दोनों, वरना कोई नही।”

“जैसी तुम्हारी मर्जी,” बिधु जम्हाई लेता हुआ बोला।

“क्या आपने ही सब काम करने का ठेका लिया है जबकि आपको भाई लम्बी तानकर पड़े रहते हैं? वह चिढ़कर बोली। “आखिर, आप तो उनके हिस्से की जमीन की भी देखभाल करते हैं और वे अपनी बीवी – बच्चों के साथ छुट्टियां काटने यहाँ – वहां चले जाते हैं। और एक हम हैं, जो हमेशा यही अटके रहते हैं। यह तो अन्याय है।”

बिधु की आँखों में अब नींद कहाँ?

“आप तो मेरी बात मानिए,” उसकी पत्नी कह रही थी, “जायदाद के बंटवारे की बात चलाइए ताकि हम लोग अलग रह सके। उससे आपको आपने लिए कुछ समय भी मिलेगा।”

फिर तो बिधु के कानों को हर रोज यही बात सुननी पड़ती और बिधु को लगा कि शायद उसकी पत्नी ही सही है। “मेरा काम मेरे भैयों के काम से ज्यादा अहम है। मेरे ही वजह से दोनों इतने ठाठ से, आराम से रहते हैं,” उसने सोचा।

एक रोज जब सब नाश्ता कर रहे थे, बिधु ने माँ और भाइयों से कहा कि उसे जायदाद में से उसका हिस्सा चाहिए।

“क्या कह रहे हो बिधु?” माँ को सुनकर धक्का लगा। “तुम्हारे पिता चाहते थे कि तुम सब मिलजुलकर, एक होकर रहो। यकायक क्या हुआ?”

“अगर बिधु यही चाहता है तो यही सही,” साधु शांत स्वर में बोला।

“ठीक है,” माँ ने हामी भर दी। “लेकिन मेरी एक बात गाँठ बाँध लो, बिधु। कोई भी काम छोटा या बड़ा नही होता। मै मानता हूँ कि खेती – बाड़ी बहुत महत्वपूर्ण और मेहनत का काम है। पर बाकी काम उतने ही महत्वपूर्ण और गौरवपूर्ण होते हैं। इस बात का अहसास तुम्हे जल्दी ही हो जाएगा।”

जमीन – जायदाद के कभी कागज, जिनके आधार पर बंटवारा होना था, तैयार किए गए। बिधु बहुत बढ़ – चढ़कर सब चीज सीख – समझ रहा था, जबकि उसके भाई चुपचाप यह तमाशा देख रहे थे।

एक दिन उनकी माँ बोली, “मेरे बच्चों, किसी भी जरूरी काम को करने से पहले पूरी जाकर भगवान जगन्नाथ के दर्शन करना हमारे परम्परा रही है। कल हम सब लोग वहां चलेंगे और फिर लौटकर बंटवारे का काम सम्पन्न करेंगे।”

बेटों ने बात मान ली और अगले दिन अपनी पत्नियों और माँ के साथ यात्रा पर निकल पड़े।

मंदिर में दर्शन के बाद, वे लौट रहे थे तो माँ ने कहा, “बच्चों, मै बहुत थक गई हूँ और भूख भी लग रही है। आगे चलने से पहले यहाँ बैठकर कुछ खा लेते हैं और आराम भी कर लेते हैं।” गाँव के बाहर ही एक पुराना मंदिर था और पास में ही खाने की दूकान भी थी।

जब तीनों भाई रुपयों की थैली ढूंढने लगे तो थैली नदारद। “ओह,” साधू बोला, “मुझे याद आ रहा है कि मैंने उसे माँ को सौंपा था।”

माँ ने भी थैली को बहुत ढूँढा पर उसका नामोनिशान भी न मिला।

“अब क्या करे?” राधु बोला।

“अब तो एक ही उपाय है,” माँ ने राय दी। “मैं बहुओं के साथ इसी मंदिर में रूकती हूँ। तुम तीनों को गाँव जाकर कुछ काम ढूंढना होगा और कुछ पैसे कमाकर लौटना होगा। पैसे के बिना न तो हम कुछ खा पाएंगे, न घर लौट पाएंगे।”

बेटों ने राय मान ली।

तीनों भाई तीन अलग – अलग दिशाओं में गाँव के लिए निकल पड़े। चलते – चलते बिधु को कुछ लोग मिले जो किसी गंभीर विषय पर बात कर रहे थे। “क्या बात है, मित्रों?”? बिधु ने पूछा। “क्या मैं कुछ मदद कर सकता हूँ?”

“जमीन के इस हिस्से में सदा ही पानी जमा बना रहता है और हम इसमें कुछ भी उगा नही पाते। फिर भी हमे राजा को इसका लगान देना पड़ता है,” एक गाँव वाला बोला।

बिधु कुछ देर सोचकर बोला, “अगर मै आपको यहाँ धान उगाने की तरकीब बताऊँ तो मुझे क्या इनाम मिलेगा?”

“चांदी की सौ मुद्राएं,” गाँव वालों ने ख़ुशी से कहा।

बिधु तो बहुत निपुण किसान था, बोला, “गोबर और मिटटी को मिलाकर उसके गोले बना लो। उन्हें गीला और नरम रखो। फिर हर गोले में बीज डाल दो और उन्हें सूखने दो।”

गाँव वाले बहुत ध्यान से बिधु की बात सुन रहे थे।

“फिर?” उन्होंने पूछा।

“उन गोलों को इस जमीन में डाल दो। गोले जमीन में धंस जाएंगे और बीज भी फुट जाएंगे।”

गाँव वालों ने उसे धन्यवाद दिया और प्रसन्नतापूर्वक सौ मुद्राएं दे दी, जिन्हे देकर बिधु मंदिर लौट आया।

इधर, चलते – चलते राधु ने भी पेड़ के नीचे बैठे के व्यक्ति को देखा, जो काफी दुखी लग रहा था। वैसे तो बहुत सम्पन्न दीखता था पर किसी वजह से परेशान था।

“किस बात की चिंता है, मित्र?” राधु ने पूछा। “तुम उदास दीखते हो। क्या मै तुम्हारे किसी काम आ सकता हूँ?”

“जी, अगर आप कर सके तो,” आदमी ठंडी सांस भरकर बोला, “हम चार भाई हैं,” वह कहने लगा। “मृत्यु से पहले हमारे पिता ने अपनी सारी सम्पत्ति हम चारों में बाँट दी थी। लेकिन एक काली बिल्ली थी जिसे बांटना बहुत मुश्किल था। हमने फैसला किया कि बिल्ली हम सबकी सांझी होगी लेकिन चारों भाई उसकी एक – एक टांग के मालिक होंगे,” कहते हुए वह रुका।

“बहुत अच्छा,” राधु बोला।

“तो…ओ… एक दिन बिल्ली छत से नीचे गिर गई और उसकी वहीँ टांग टूट गई जो मेरे हिस्से आई थी।”

राधु को मामला बहुत रोचक लग रहा था।

मैंने उसकी जख्मी टांग पर तेल में भीगी हुई पट्टी बाँध दी। मेरी बिल्ली को आंच अच्छी लगती थी, सो वह चूल्हे के पास जाकर सो गई।”

“तो तुम इस कारण से इतने दुखी हो?” राधु इस अनोखी कथा का अंत जानने के लिए उत्सुक था।

“यहाँ से तो मेरे दुख की कहानी शुरू होती है। एक चिंगारी उस तेल सने कपड़े पर पड़ी और उसने आग पकड़ ली,” वह रुक गया और राधु की ओर देखने लगा।

“फिर क्या हुआ?”

“वहां से आग आसपास के घरों में फ़ैल गई और सब जलकर राख हो गया। पड़ोसियों ने सारा दोष मेरे सर मढ़ दिया और मामला पंचायत में चला गया।”

“पंचायत में क्या हुआ?”

“पंचों ने कहा कि जिस टांग की वजह से आग लगी, वह मेरे हिस्से की थी, इसलिए पूरा नुक्सान मुझे ही पूरा करना होगा। पर मेरे पास सबको देने लायक पैसे नही हैं।”

राधु वकील था, गहरी सोच में पड़ गया और जल्दी ही समस्या का बहुत सरल – सा हल ढूंढ लिया। उसने कहा, “चिंता न करो, मित्र। यदि मैं तुम्हारी समस्या का समाधान कर दूँ तो मुझे क्या मिलेगा?”

“चांदी के पांच सौ सिक्के,” आदमी बोला।

“तो ठीक है, जाओ और अपने पड़ोसियों और गाँव के बड़े – बूढ़ों को जमा करो। मैं तुम्हे शीघ्र ही मिलता हूँ।”

जब राधु गाँव पहुंचा तो वटवृक्ष के नीचे अच्छी – खासी भीड़ जमा थी।

सबकी बात सुनने के बाद, राधु बोला, “क्या यह सच है कि सारा नुक्सान बिल्ली ने किया है, और यह भी कि इसका कारण उसकी जख्मी टांग पर बंधी हुई पट्टी है…।”

“हाँ, हाँ,” गाँव वालों ने कहा।

“क्या आप मानते हैं कि बिल्ली के भागने की वजह से ही आग लगी और घर जल गए?” राधू ने पूछा।

“हम मानते हैं,” गाँव वाले बोले।

“बिल्ली अपनी जख्मी टांग पर तो भाग नही सकती थी। उसकी तीन टांगें, जो ठीक थी, उनकी वजह से ही वह भाग सकी…,” राधू अपने शब्दों का असर देखने के लिए थोड़ा – सा रुका।

“हाँ, सच है। अपनी तीन ठीक टांगों पर ही वह भाग सकी।”

“तो फिर… पंचायत फैसला करे कि आग लगने का नुक्सान कौन चुकाएगा?”

राधू कि बुद्धि ने सबको अचम्भे में दाल दिया और सभी हामी में अपना सिर हिलाने लगे। फैसला हुआ कि तीन टांगों के मालिक ही हर्जाना भरेंगे। जख्मी टांग का मालिक बहुत खुश हुआ और वादे के मुताबिक़ उसने राधू को चांदी कि पांच सौ मुद्राएं दे दी।

राधू पैसे लेकर मंदिर लौट आया।

इस बीच, साधू – जो सबसे बड़ा था, ने भी चलते एक घर के किसी के रोने की आवाज सुनी। वह घर बहुत बड़ा था और उसके बाहर एक दरबान भी खड़ा था।

“ऐसे आलिशान घर में रहने वाला रो क्यों रहा है? कौन रहता है यहाँ?” उसने दरबान से पूछा।

“श्रीमान, यहाँ राजा के मंत्री महोदय रहते हैं,” दरवान बोला।

“क्या आप मुझे उनके पास ले चलेंगे?”

दरबान मंत्री से आज्ञा लेकर साधू को घर के भीतर ले गया। स्वयं मंत्री महोदय अश्रुपूर्ण हो रहे थे।

“क्या बात है, मन्त्रिवर, साधू ने पुछा। “यदि आप मुझे अपना कष्ट बताएं तो शायद मई कुछ सहायता कर सकूँ।”

“राजा लोग भी अजीब सनकी होते हैं,” मंत्री ने साधू को देखकर और उसके शब्दों से अनुमान लगाया कि वह एक विद्वान पुरुष है। “हमारे राजा ने मुझे उनके हाथी का वजन पता करने के लिए कहा है। अगर मै ऐसा करने में असफल रहा तो मेरा सिर धड़ से अलग करवा दिया जाएगा।” इतना कहकर मंत्री फिर रोने लगा।

कुछ देर सोचने के बाद साधू बोला, “चिंता न करे, पूजयवर। यदि हाथी का वजन पता लगाने में मै आपकी सहायता करूँ तो मेरा पुरस्कार क्या होगा?”

मंत्री तो मंत्री था, उसने भी अपने रुतबे को ध्यान में रखकर जवाब दिया। “एक हजार स्वर्ण मुद्राएं,” वह शान से बोला।

साधू ने मंत्री से कहा कि उस हाथी के पास ले जाए। वहां से हाथी को एक ऐसी नदी के किनारे ले जाया गया, जहाँ बहुत – सी नौकाएं खड़ी थी।

“कृपया महावत से कहिये कि हाथी को नाव में खड़ा करे,” साधू ने कहा। ऐसा करते ही नौका पानी में धंसने लगी और धंसना रुक गया। “जहाँ तक नौका धंसी है, कृपया वहां निशाँ लगाइए,” उसने वहां खड़े अफसरों से कहा, जो उसे बहुत हैरानी में देख रहे थे। “जब हाथी को बाहर निकालकर, उसे बड़े – बड़े पत्थरों से भर दीजिए और तब तक भरते रहीये, जब तक नाव पुराने लगे हुए निशान तक धंस न जाए,” वह बोला।

ऐसा होते ही, वह बोला, “इन पत्थरों को तौलिये। इनका वजन हाथी के वजन के बराबर होगा।”

मंत्री महोदय इस कदर खुश हुए कि हजार स्वर्ण मुद्राओं के साथ – साथ उन्होंने साधु को कुछ और भी वस्तुएं भेंट दी।

साधू उन्हें लेकर मंदिर लौटा, जहाँ सब लोग उसका इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने छककर भोजन किया और चलने की तैयारी करने लगे। तभी माँ ने पैसों की वह गुमी हुई थैली निकालकर अपने बेटों और बहुओं को दिखाई।

“मैंने जानबूझकर इसे छिपा दिया था,” उसका स्वर गंभीर था। “मै तुम्हे सिर्फ यह दिखाना चाहती थी कि हर काम अच्छा है और हर काम का अपना महत्व है। बिधु, मुझे आशा है कि तुम समझ गए होगे कि तुम्हारे भाई भी बहुत कमाते हैं, जो सारे परिवार के भरण – पोषण के काम आते हैं।”

बिधु और उसकी पत्नी को बहुत ग्लानि हुई कि उन्होंने परिवार को बांटने की बात सोची। फिर सब घर लौट आए और कई वर्षों तक एकजुट होकर रहे।

बुद्धिमान माँ को संतोष था कि उसके परिवार में जो छोटी – सी दरार पड़ गई थी, वह अब भर चुकी है।

(साभार : तंगम कृष्णन)

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