बुद्धिमान कभी डरता नहीं : आदिवासी लोक-कथा
Buddhiman Kabhi Darta Nahin : Adivasi Lok-Katha
एक हल्बी युवक था जिसका नाम था मौजे। उसका ऐसा नाम इसलिए रखा गया क्योंकि वह अपनी ही धुन में डूबा रहता। वह बड़ा ही हँसमुख और बुद्धिमान था। वह सबकी सहायता किया करता। लेकिन उसमें एक कमी थी कि किसी काम में उसका मन नहीं लगता था। उसके पिता को उसके भविष्य की चिंता होती रहती। एक दिन मौजे के पिता ने मौजे को बुलाकर अपने पास बिठाया और उसे समझाने लगे।
‘देखो बेटा, परोपकार से पुण्य तो मिलता है लेकिन पेट नहीं भरता है। यदि तुम कोई काम नहीं करोगे, चार पैसे नहीं कमाओगे तो विवाह के बाद अपने परिवार का पालन-पोषण कैसे करोगे?’ पिता ने समझाया।
‘आप तो हैं, क्या आप मुझे और मेरे बीवी बच्चों को नहीं खिलाएँगे?’ मौजे ने लापरवाही से कहा।
‘मैं भला कब तक तुम सबको खिलाता रहूँगा? एक दिन जब मैं बूढ़ा होकर मर जाऊँगा तब तुम्हें कौन खिलाएगा?’ मौजे के पिता ने पूछा।
‘ठीक है, तो आप बताइए कि मुझे क्या करना चाहिए?’ मौजे ने अपने पिता से पूछा। वह अपने पिता के मुँह से मरने-जीने की बात सुनकर दुखी हुआ।
‘तुम ऐसा करो कि मैं जो साग उगाता हूँ उसे तुम दूसरे गाँव में बेच आओ। यदि एक बार तुम दूसरे गाँव जाकर साग बेचने में सफल हो जाओगे तो फिर तुम्हारा मन काम करने में लगने लगेगा।’ मौजे के पिता ने उत्साहित होकर कहा।
‘ठीक है, जैसा आप कहें।’ मौजे ने कहा।
दूसरे दिन मुँह अँधेरे, मौजे के पिता ने अपने खेत से साग तोड़ा और एक टोकरे में रखकर मौज को दे दिया। मौजे साग से भरा टोकरा लेकर दूसरे गाँव चल पड़ा। रास्ते में उसके कुछ दोस्त मिले। उन लोगों ने देखा कि मौजे तो साग बेचने दूसरे गाँव जा रहा है। वे भी मौजे की तरह कामचोर थे। उन्हें लगा कि यदि मौजे साग बेचने में सफल हो गया तो उसे काम का महत्व समझ आ जाएगा और तब वह उनकी मंडली को छोड़कर काम-काज में लग जाएगा। तब मौजे के दोस्तों ने मौजे को दूसरे गाँव जाने का ग़लत रास्ता बता दिया। मौजे ने सोचा कि ये सब तो उसके पक्के दोस्त हैं अत: ये जो रास्ता बता रहे हैं तो सही रास्ता बता रहे होंगे। मौजे अपने दोस्तों के बताए रास्ते पर चल पड़ा। चलते-चलते वह एक घने जंगल में जा पहुँचा। जंगल इतना भयावह था कि यदि मौजे की जगह कोई और होता तो उल्टे पांँव लौट जाता किंतु मौजे साहसी था। फिर उसे इस बात की भी चिंता थी कि यदि वह साग बेचने में सफल नहीं हुआ तो उसके पिता दुखी हो जाएँगे। वह अपने पिता को बहुत चाहता था।
मौजे चलते-चलते थक गया और उसे ज़ोर की भूख लग आई। उसने साग का टोकरा उतारा और अपनी भात की हाँडी खोलकर भात खाने बैठ गया। उसी समय जंगली जानवरों की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। मौजे ने सोचा कि इस तरह ज़मीन पर बैठकर भात खाना ठीक नहीं है, कभी भी कोई जंगली जानवर इधर आ सकता है अत: उसने पास लटक रही बेलों को तोड़कर एक लंबा रस्सा बनाया और उसको एक डाल पर फँसाकर एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया। पेड़ पर चढ़कर मौजे ने थोड़ा-सा भात खाया और शेष रख लिया। थोड़ी देर में जंगली जानवरों की आवाज़ें आनी बंद हो गईं। तब मौजे पेड़ से उतरा और उसने बेलों की रस्सी को लपेटकर अपने टोकरे में रख लिया। फिर वह आगे चल पड़ा।
बहुत देर तक चलते रहने के बाद भी जब दूसरा गाँव नहीं मिला तो मौजे समझ गया कि उसके दोस्तों ने उसे मूर्ख बनाया है और उसे धोखा देकर ग़लत रास्ते पर भेज दिया है। किंतु अब हो भी क्या सकता था? आगे बढ़ने के सिवा मौजे के पास और कोई विकल्प भी नहीं था। वह चलता रहा, चलता रहा। धीरे-धीरे संध्या घिर आई। ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के कारण जंगल में यूँ भी जल्दी अँधेरा छाने लगता है। मौजे ने अपनी चाल और तेज़ कर ली। वह समझ गया था कि वह रात को लौटकर अपने घर नहीं जा सकता है अत: रात बिताने के लिए अँधेरा गहराने से पहले उसे कोई सुरक्षित जगह ढूँढ़नी थी।
कुछ दूर चलने पर मौजे को एक खंडहर दिखाई दिया। वह खंडहर दुमंज़िला था। यद्यपि उसकी सीढ़ियाँ टूटी हुई थीं फिर भी मौजे किसी तरह दूसरी मंजिल पर चढ़ गया। वहाँ उसने एक कोना साफ़ किया और दुबककर बैठ गया। जंगल में अँधेरा गहराने के साथ ही जंगली जानवरों की भयावह गर्जनाएँ सुनाई देने लगीं। फिर भी थका हुआ मौजे ऊँघने लगा। अभी वह ऊँघ ही रहा था कि उसे एक कड़कदार आवाज़ सुनाई दी।
‘ये कौन मनुष्य है जिसने मेरे घर में घुसने का साहस किया?’ मौजे हड़बड़ा कर जाग गया।
पुन: आवाज़ आई, ये कौन मनुष्य है जिसने मेरे घर में घुसने का साहस किया? अरे मूर्ख मनुष्य क्या तुझे पता नहीं है कि मैं एक राक्षस हूँ और मैं तुझे खा जाऊँगा।
राक्षस की ललकार सुनकर भी मौजे डरा नहीं। उसने राक्षस से छुटकारा पाने के लिए बुद्धिमानी से काम लिया। मौजे ने भात वाली हाँडी, जो कि अब ख़ाली हो चुकी थी उसे निकाला और हाँडी के मुँह में अपना मुँह लगाते हुए राक्षस की नक़ल में बोला, ये कौन मूर्ख राक्षस है जो मनुष्य और अपनी जाति के राक्षस में अंतर करना भी नहीं जानता है?’
हाँडी के कारण मौजे की आवाज़ भारी और गर्जनामय सुनाई दी। मौजे की भारी और गर्जना भरी आवाज़ सुनकर राक्षस घबराया।
‘मगर मुझे तो मनुष्य की गंध आ रही है।’ राक्षस ने अपनी घबराहट को छिपाते हुए कहा।
‘अरे मूर्ख, मैंने अभी-अभी एक मनुष्य को खाया है इसीलिए तुझे मनुष्य की गंध आ रही है। ये ले इसका सबूत।’ कहते हुए मौजे ने वहीं पास में पड़ी हुई एक मानव-खोपड़ी उठाकर नीचे राक्षस की ओर फेंकी।
‘ठीक है, मैंने मान लिया कि तुम भी एक राक्षस हो लेकिन मैं तुम्हें तभी अपने घर में रहने दूँगा जब तुम यह सिद्ध कर दो कि तुम मुझसे अधिक बलशाली हो।’ राक्षस आसानी से मानने वाला नहीं था।
‘ठीक है, ये ले सबूत। ये मेरे हाथ के अँगूठे के नख की कतरन है।’ कहते हुए मौजे ने साग काटने का हँसिया ज़ोर से घुमा कर नीचे फेंका। हँसिया राक्षस के सिर से जा टकराया। राक्षस का सिर चकरा गया। उसे लगा कि यदि इस नए राक्षस के हाथ के अँगूठे के नख की कतरन इतनी भारी है तो यह तो बहुत ही बलशाली होगा।
राक्षस को चुप देखकर मौजे ने तत्काल राक्षस को ललकारा।
‘अरे मूर्ख यदि तुझे अभी भी तसल्ली नहीं हुई है तो ये ले मेरे नाक का ये एक बाल देख और समझ जा कि मैं कितना अधिक बलशाली हूँ।’ कहते हुए मौजे ने बेलों की रस्सी जो उसने पेड़ पर चढ़ने के लिए बनाई थी, नीचे फेंकी।
‘देख लिया मेरी नाक का बाल? अब तू चुपचाप यहाँ से चला जा अन्यथा में अब स्वयं नीचे आऊँगा और तुझे मार डालूँगा।’ मौजे ने राक्षस को धमकाते हुए कहा।
राक्षस रस्सी को नाक का बाल समझकर डर गया। उस पर मौजे ने जब उसे मार डालने की धमकी दी तो वह फ़ौरन भाग खड़ा हुआ। मौजे ने जब देखा कि राक्षस चला गया है तो वह आराम से सो गया।
भोर होने पर मौजे जागा। वह यह देखकर चकित रह गया कि उस खंडहर में बहुत सारा रुपया-पैसा और गहने रखे हुए थे। मौजे समझ गया कि ये सारा सामान उन यात्रियों का रहा होगा जिन्हें राक्षस मारकर खा गया होगा। मौजे ने सूखा हुआ साग अपने टोकरे से एक ओर फेंका और उसमें सारा रुपया-पैसा और गहने आदि बटोर कर रख लिया। इसके बाद वह खंडहर से निकला और वापस अपने गाँव की ओर चल दिया। दिन भर चलने के बाद वह अपने गाँव जा पहुँचा। गाँव में उसके पिता का चिंता के मारे बुरा हाल था। जैसे ही पिता ने मौजे को देखा तो दौड़कर अपने गले से लगा लिया।
‘तुझे मैंने व्यर्थ में साग बेचने भेजा। तू जैसा भी है, मेरा बेटा है।’ कहते हुए पिता मौजे को दुलारने लगा।
‘नहीं पिता जी, आपने मुझे साग बेचने भेजकर बहुत अच्छा काम किया। ये देखिए मैं क्या लाया हूँ।’ कहते हुए मौजे ने अपना टोकरा पिता के सामने रख दिया टोकरे में रुपया-पैसा और गहने भरा हुआ देखकर पिता की आँखें खुली की खुली रह गईं।
‘ये तू कहाँ से ले आया? कहीं चोरी तो नहीं की?’ पिता ने सशंकित होते हुए पूछा।
‘नहीं पिता जी, मैं कामचोर अवश्य हूँ लेकिन चोर नहीं हूँ और अब तो मैं कामचोरी भी नहीं करूँगा। क्योंकि मुझे पता चल गया है कि स्वार्थी मित्रों के साथ समय गँवाने के बदले काम-काज करना अधिक अच्छा होता है।’ यह कहते हुए मौजे ने अपने पिता को अपने मित्रों द्वारा ग़लत रास्ता बताने से लेकर राक्षस को डराने तक की पूरी घटना सुना डाली। मौजे की बहादुरी से उसका पिता बहुत प्रभावित हुआ और वह बोल उठा, ‘इसीलिए तो कहते हैं बेटा कि बुद्धिमान कभी डरता नहीं है।’
बहुत सारा धन मिल जाने पर भी मौजे और उसके पिता ने साग उगाकर बेचने का अपना काम नहीं छोड़ा। वे दोनों साथ-साथ काम करते हुए सुख से रहने लगे।
(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)