ब्रह्मराक्षस और नादस्वरम् : तमिल लोक-कथा

Brahmarakshas Aur Naadswaram : Lok-Katha (Tamil)

वेंकटकृष्णन छात्रों के बीच वेंकट वादियार के नाम से प्रसिद्ध थे। यद्यपि नाम से वेंकट वादियार अर्थात् शिक्षक थे, किंतु धर्म से वे पूरे व्यवसायी थे। स्कूल के छात्रों को ट्यूशन लेने के लिए प्रेरित न हों तो विवश करना और ट्यूशन के नाम पर परीक्षापयोगी कुछ प्रश्न बता देना, उनका पेशा था। इस प्रकार कमजोर छात्र पास हो जाते, होशियार छात्र श्रेष्ठ अंक पा जाते और उनको सरकारी वेतन से तिगुनी आमदनी प्रतिमास हो जाती थी। उनके घर समानांतर स्कूल चलता था, यदि ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शिक्षक द्वारा प्रदत्त ज्ञान से यदि शिष्य की बुद्धि विकसित होती है, उसकी ज्ञान-गंगा में वृद्धि होती है, वह ज्ञानवान बनता है और बदले में कुछ शुल्क शिक्षक ग्रहण करता है तो कोई बुरा नहीं है। परंतु ज्ञान के नाम पर गलत राह से उन्हें पास करना या करवाना छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना है। इस प्रकार का कृत्य तो सरासर अन्याय तथा धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है, जिस पर समाज स्वार्थवश चुप्पी साधे रहता है। समाज की इस स्वार्थपरता का लाभ वेंकटकृष्णन जैसे शिक्षक भरपूर उठा रहे हैं और फल-फूल रहे हैं।

चेन्नईराम यह सब देख रहा था और चिंतित था। एक दिन सुअवसर देखकर उसने वेंकटकृष्णन को बुलाया और उसे ब्रह्ममराक्षस की कहानी सुनाई—जो इस प्रकार थी—

एक गरीब ब्राह्मण था। उसने काशी तीर्थ करने की सोची और निकल पड़ा। उन दिनों यात्रा के साधन नहीं थे। फिर काशी प्रदेश तमिल प्रदेश से हजारों मील की दूरी पर थी। वह सामान लेकर पैदल निकल पड़ा। कुछ मील चलने के पश्चात् एक सघन वृक्ष देखकर सुस्ताने के लिए उसने सोचा। जैसे ही वह वृक्ष के नीचे बैठने लगा। एक आवाज आई—‘यहाँ नहीं’, किंतु वह बैठ गया। उसे लघुशंका की इच्छा जाग्रत् हुई तो वह पेड़ के पिछले हिस्से की ओर गया और जैसे ही निवृत्त होने लगा, आवाज आई—‘यहाँ नहीं।’ ब्राह्मण को बड़ा विचित्र लगा। उसने इधर-उधर देखा और कहा, किसकी आवाज है, सामने आओ?

फिर आवाज आई, ‘ऊपर देखो।’

उसने सिर उठाकर ऊपर देखा तो वृक्ष पर एक राक्षस बैठा नजर आया। ब्राह्मण ने पूछा, ‘क्या बात है?’

राक्षस ने कहा, ‘क्योंकि तुम मनीषी ब्राह्मण हो, तुम्हें अपनी व्यथा-कथा सुनाता हूँ। मैं संगीत का प्रखंड विद्वान् ब्राह्मण हूँ। अपनी साधना के बल पर मैंने संगीत में नए-नए स्वरों का आविष्कार किया और उन्हें साधा, किंतु इस संगीत ज्ञान को मैंने समाज में बाँटा नहीं। फलस्वरूप मुझे ‘ब्रह्मण राक्षस’ की योनि प्राप्त हुई। उस ओर तुम एक मंदिर देख रहे हो न?

ब्राह्मण ने कहा, ‘हाँ’।

‘उस मंदिर से सवेरे-शाम नादस्वर के स्वर आते हैं। नादस्वरम् बजाने वाले को स्वरों का अपूर्ण ज्ञान है। वह जब अशुद्ध रूप से नादस्वरम् बजाता है तो वे स्वर बरछी से मेरे शरीर को भेदते हैं। उसके स्वर को सुनकर मैं विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त होता जा रहा हूँ। बहुत दिनों से मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि कोई ब्राह्मण आए तो मैं उसकी सहायता प्राप्त करूँ।’

‘सहायता! मैं तुम्हारी सहायता किस प्रकार कर सकता हूँ?’ ब्राह्मण ने पूछा।

‘तुम कृपा करके मुझे उस मंदिर से इतना दूर ले चलो कि इस नादस्वरम् के स्वर मेरे कानों में न पड़ें और पीड़ा से मुक्त हो सकूँ।’

ब्राह्मण ने कुछ पल सोचा और अपनी विपन्न अवस्था को देखकर राक्षस से पूछा, ‘बदले में मुझे क्या मिलेगा?’

ब्रह्मराक्षस ने उसकी गरीबी देखी और कहा, ‘धन दिलाने में मैं सहायता करूँगा।’

‘वह किस प्रकार?’ ब्राह्मण ने पूछा।

‘यहाँ से कुछ मील दूर मैसूर राज्य है। मैं मैसूर राज्य की राजकुमारी में प्रवेश करूँगा। राजा उपचार की तलाश करेगा। तब तुम उपचारक के रूप में आना। मैं तुम्हें देखकर चला जाऊँगा। राजा बदले में तुम्हें धन देगा। पर एक शर्त है।’

‘क्या?’

‘यदि उसके बाद में किसी और प्राणी के शरीर में प्रवेश करूँगा तो सुनकर भी तुम नहीं आना, वरना मैं तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।’

ब्राह्मण ने अपनी सहमति जताते हुए उसे पीठ पर लादा और राह में एक उपयुक्त स्थान पर छोड़कर काशी यात्रा की ओर प्रस्थान किया।

कुछ समय बाद काशी से लौटते हुए वह मैसूर आया। एक धर्मशाला में ठहरा। वहीं पर उसने समाचार जाना कि मैसूर महाराज की प्यारी पुत्री प्रेत-व्याधि से ग्रस्त है और अभी तक सही उपचार नहीं होने के कारण महाराज दु:खी है।

ब्राह्मण को ब्रह्मराक्षस का वचन याद आया। वह महल की ओर चल दिया। दरबारियों ने उसकी दयनीय अवस्था देखकर उस पर विश्वास नहीं किया, किंतु महाराज ने सोचा, ‘जहाँ इतने वैद्य आए, एक और सही’ और उसे राजकुमारी के कमरे में भेज दिया।

ब्राह्मण को देखकर ब्रह्मराक्षस ने कहा, “मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। अब मैं जाता हूँ। किंतु मेरी शर्त याद रखना। अब मैं किसी और के शरीर में प्रवेश करूँ तो तुम आना मत, वरना जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।” कमरे से धमाकेदार ध्वनि हुई और ब्रह्मराक्षस अंतर्धान हो गया।

महाराज ने देखा कि उनकी पुत्री स्वस्थ हो गई है, तो अति हर्षित हुए। उन्होंने ब्राह्मण को अपार धन दिया तथा रहने के लिए अपने राज्य में भूमि भी प्रदान की। ब्राह्मण ने यह सब ग्रहण किया और एक सुंदर स्त्री के साथ विवाह रचाकर मैसूर में ही बस गया।

ब्रह्मराक्षस मैसूर से केरल प्रदेश चला गया। वहाँ उसने ट्रावनकोर की राजकुमारी में वास कर लिया। अब ट्रावनकोर के महाराज परेशान। लाख जतन किए पर निष्फल। उड़ते-उड़ते खबर मिली की मैसूर की राजकुमारी भी इसी प्रेत-व्याधि से ग्रस्त हुई थी, जिसका सफल इलाज वहीं पर रह रहे एक ब्राह्मण ने किया था।

ट्रावनकोर के महाराज ने मैसूर के महाराज को अपनी व्यथा लिखी। वे दोनों मित्र थे अत: मैसूर महाराज ने उस ब्राह्मण को बुलाकर कहा कि वह उनकी मित्रता की लाज रखे और ट्रावनकोर जाकर राजकुमारी का उपचार करे।

ब्राह्मण घबराया, पर कोई उपाय नहीं। राजाज्ञा का पालन उसका धर्म था। उसने अपनी पत्नी और बच्चों की भविष्य की सुरक्षा की, ताकि यदि वह जीवित न लौटा तो परिवार संकट की स्थितियों में न पड़े। प्रबंध से निश्चिंत होकर उसने प्रस्थान किया ट्रावनकोर की ओर।

ट्रावनकोर में प्रेत-व्याधि से ग्रस्त राजकुमारी को अलग कमरे में लाया गया। उसने एकांत चाहा, सब चले गए। ब्रह्मराक्षस ने ब्राह्मण को देखकर कहा, ‘मैंने कहा था, मेरे पीछे न आना, वरना सिर के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।’

अचानक ब्राह्मण को नादस्वरम् याद आया। उसने कहा, ‘ठीक है, मैं जाता हूँ और उसी नादस्वरम् वाले को यहाँ पास में लाकर बसा देता हूँ, फिर तुम उसके नादस्वरों का आनंद लेना।’

‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं करना! मैं राक्षस योनि में हूँ, इसलिए आत्महत्या भी नहीं कर सकता और वह नादस्वरम् वाला अपनी कर्कश ध्वनियों और बेताल सुरों से मेरा शरीर छलनी-छलनी कर देगा।’ ब्रह्मराक्षस गिडगिड़ाया।

‘तो फिर मेरा कहा मानो। कहीं और जाकर वास करो। इस राजकुमारी को छोड़कर चले जाओ, वरना मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं, सिवाय उस नादस्वरम् वाले को यहाँ बुलाने के।’

‘ठीक है, ठीक है, मैं जाता हूँ।’ यह कहकर ब्रह्मराक्षस गर्जन की ध्वनि के साथ राजकुमारी का शरीर छोड़ गया।

ट्रावनकोर के महाराज अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्राह्मण को अतुल धन भेंट किया, बैलगाड़ियों में भरकर जिन्हें वह मैसूर ले गया।

चेन्नईराम ने ब्रह्मराक्षस की जनकथा को विराम देते हुए कहा, ‘देखा वेंकटकृष्णन! ज्ञान न बाँटने से उस ब्राह्मण को राक्षस योनि मिली, और तुम, तुम भी उसी पथ पर हो!’

वेंकटकृष्णन वाद्यार को अपने कृत्य पर ग्लानि हुई। उसने प्रण किया कि उसी क्षण से वह अपने आपको बदलेगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से छात्र वर्ग को आलोकित करने का प्रयास करेगा। चेन्नईराम ने संतोष की साँस ली।

(साभार : डॉ. ए. भवानी)

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