ब्राह्मण की बेटी (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Brahman Ki Beti (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

प्रकरण 8

पूजा पाठ तथा सात्विक जलपान से निवृत्त होकर नीचे उत्तर आये धर्मावतार गोलोक चटर्जी किसी कार्यवश बाहर निकल ही रहे थे कि कुछ याद आ जाने के कारण लौट आये और एक बरामदे से दूसरे बरामदे में घूमने लगे। अचानक रुककर ज्ञानदा को मीठी डांट लगाते हुए चिन्तित स्वर में बोले, “छोटी मालकिन, तुम्हें कितनी बार समझाऊंगा कि स्वास्थ्य की चिन्ता सबसे पहले। ऐसा भला कौन-सा काम है, जिसे निपटना जरूरी हो गया है?”

हंसिया से तरकारी काटती पूर्ववत् अपने काम में जूटी रही, मानो उसने चटर्जी के खडा़ंऊं की खट-खट को और कण्ठ से निकली बक-बक को सुना ही न हो।

कुछ देर की चुप्पी के बाद गोलोक के पूछा, “भगवान का धन्यावाद! यह प्रियनाथ की औषधि का प्रभाव है। वैसे तो यह आदमी सनकी है, किन्तु वैद्यक में साक्षात् धन्वन्तरि है। उसकी दी गयी दवा को उसके निर्देशों के अनुसार लेती रहना। लापरवाही करने से भयंकर परिणाम भुगतना पड़ सकता है।”

ज्ञानदा बिना किसी बात का उत्तर दिये अपना काम करती रही।

थोड़ी देर तक ज्ञानका के चेहरे पर ताकने के बाद गोलोक ने कहा, “प्रियनाथ को सुबह-शाम तुम्हारी देखभाल करने को कह दिया है। क्या वह सुबह आया था?”

नीचे सिर झुकाकर बैठी ज्ञानदा ने गरदन हिलाकर उत्तर दिया, “हाँ।”

प्रसन्न होकर गोलोक बोले, “कैसे नहीं आयेगा, मेरे आदेश का पालन न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? रांड दाई कहां गयी है? प्रियनाथ की दवा खाने पर, यदि तुम महेनत में अपने को खपाती रहीं, तो लाभ कैसे होगा? क्या सारे नौकर-चाकर मर गये है, जो तुम्हें काम करना पड़ रहा है? मैं यह नहीं होने दूंगा। उठो, ऊपर जाकर आराम करो। मधुसूदन, तुम्हारा ही भरोसा है।”

ज्ञानदा को इस निर्देश देने के रूप में अपने लौकिक और धार्मिक कृत्यों को सम्पन्न समझकर निश्चिंत हुए गोलोक बाहर जाने को उद्यत हुए।

गोलोक के खड़ाऊं की आवाज से उन्हें जाता निश्चित समझकर अब तक झुका रखे, मुरझाये और दुःख से स्याह पड़े अपने सिर को ऊंचा करके रोने से सूजी और लाल हो गयी आँको से आँसू टपकती हुई ज्ञानदा गोलोक के चेहरे पर अपनी दृष्टि टिकाकर रुंधे गले से बोली, “क्यों जी, क्या तुमने प्रियनाथ की लड़की से ब्याह करने का निश्चय कर लिया है? देखो, इस विषय में मुझे अन्धकार में रखना ठीक नहीं। सब कुछ सच-सच बता दो।”

घबराहट के कारण गोलोक सहसा मुंह न खोल सके, किन्तु प्रयन्तपूर्वक अपने को संभालकर बोले, “क्या संध्या की बात कर रही हो? मेरे साथ तो उन लोगों ने कोई बात नहीं की। तुम्हें किसने कहा है?”

“किसी ने कहा हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। क्या तुमने रासमणि को लड़की वालों के पास अपना प्रस्ताव पहुंचाने के लिए नहीं भेजा? यहाँ तक कि विवाह का मुहूर्त अगला अगहन भी निश्चित कर लिया। आपको अपने इष्टदेव की सौगन्ध है, मिथ्या-भाषण न करना।”

“अच्छा, तो यह सारी शैतानी उस ब्राह्मणी की है; मैं अभी उसकी खबर लेता हूँ।”

ज्ञानदा बोली, “बात बदलो नहीं, यदि यह सत्य है, तो आपने मेरा सर्वनाश क्यों किया?” कहती हुई दुखिया के आँसू छलक आये।

गोलोक किसी के द्वारा सुने जाने की आशंका से भयभीत हो उठे और दूबे स्वर में वोले, “यह तुम क्या कर रही हो? कोई सुन लेगा, तो फिर दोनों कहीं के नहीं रहेंगे। रासमणि तुमसे मजाक कर रही होगी। इसमें कुछ भी सच्चाई नहीं है।”

बिलखती हुई ज्ञानदा बोली, “सत्य को कब तक छिपाओगे? रासमणि मौसी मेरे साथ मजाक कभी नहीं कर सकती। यह शत-प्रतिशत सत्य है। आप तो कुछ भी कर सकते है; क्योंकि आपकी दृष्टि में जो आप करेंगे, वहाँ धर्म और न्याय होगा।”

“जह मैं कहता हूँ गलत है, तो तुम मानती क्यों नहीं हो? अरे हंसी-मजाक में मेरे मुंह से निकल गया होगा, वरना संध्या तो मेरी नातिन है। अब चुप हो जाओ, किसी नौकर-चाकर के कान में कुछ पड़ गया, तो अनर्थ हो जायेगा। यह कहकर गोलोक झट से वहाँ से चलकर गायब हो गया।”

इस बीच नौकरानी ने एक अन्य नौकरानी के साथ ज्ञानदा के ससुर जी के घर पर आ पहुंचने की सूचना ज्ञानदा को दी, जिसे सुनकर ज्ञानदा का खून पानी बन गया। उसे चुपचाप और सुने को अनसुना करके बैठा देखकर नौकरानी फिर बोली, “मौसी जी, वहाँ की किसी नौकरानी को साथ लेकर तुम्हारे ससुर जी इधर आये हैं।”

आँसू पोंछकर उत्सुक दृष्टि से नौकरानी की ओर देखती ज्ञानदा इस प्रकार कांपने लगी, मानो उसने किसी भूत को सामने देख लिया हो।”

ज्ञानदा के पीले पड़े औक उदासी से बुझे चेहरे को देखकर दासी ने पूछा, “मौसी जी, क्या आपकी तबीयत खराब है?”

ज्ञानदा से उत्तर न पाकर नौकरानी ने अपने प्रश्न को फिर से दोहराया।

ज्ञानदा ने “हाँ” कहने के बाद दासी से पूछा, “बाबू जी कब आये हैं?”

दाली बोली, “उनेक आने की सही समय का मुझे पता नहीं। मैंने तो उन्हें अभी देखा है, वह आंगन में खड़े होकर बाबू साहब से बातचीत कर रहे थे।”

ज्ञानदा ने पूछा, “क्या गोलोक बाबू के साथ?”

“हाँ-हाँ, उन्हीं के साथ। मुझे उन्होंने ही उनके इधर आने की सूचना देने के लिए भेजा है। अरे...वह तो स्वयं तुम्हारे पास चले आ रहे हैं।”

यह कहकर नौकराना वहाँ से चलती बनी। इतने में लाठी की समीप आती आवाज से स्पष्ट हो गया कि आने वाले सज्जन लाठी की सहायता के बिना नहीं चल पाता, इसके अतिरिक्त शायद वह आँखों का काम भी लाठी से लेते हैं।

इसी बीच एक अधेड़ आयु की महिला के पीछे लाठी के सहारे धीरे-धीरे से चलता एक वृद्ध पुरुष ज्ञानदा के सामने आ खड़ा हुआ और पूछने लगा, “मेरी बेटी कहां है?”

ज्ञानदा ने उठकर वद्ध ससुर के चरण-स्पर्श किये और उनके चरणों की रज को अपने सिर पर रखा। अपने सामने खड़ी बहू का चेहरा न देख पाने पर भी वृद्ध ने अपनी बहू को पहचान लिया। आशीर्वाद देने के बाद बिलखते हुए वह बोले, “बुढ़िया सास और ससुर को भुलाकर तुम यहाँ कैसे पड़ी हो बेटी?”

वृद्ध के साथ आयी दासी ने ज्ञानदा को प्रणाम करने के बाद कहा, “बाबू जी ठीक ही तो कह रहे हैं। बूढ़ी दिन-रात एक ही रट लगाये रहती है, मेरी बेटी को जल्दी से घर ले आओ। मेरे लिए अपनी बहू को भुलाना कैसे सम्भव है?”

ज्ञानदा ने मुंह नहीं खोला। उसने अपने आँसू पोंछे, फिर बूढ़ ससुर का हाथ पकड़कर उन्हें घर के भीतर ले गयी। उसने अपने हाथ से आसन बिछाकर बूढ़े को बिठाया और फिर चुपचाप उनके सामने खड़ी हो गयी।

वृद्ध बैठकर बोला, “आने से पहले मैंने चटर्जी महाशय को दो पत्र भेजे, किन्तु एक का भी उत्तर न मिलने पर सोचा, बड़े लोग छोटे लोगों के पत्र का उत्तर देने की परवाह कहां करते है, किन्तु बेटी, तू तो हमारे उस घर की लक्ष्मी है। अतः पत्र न मिलने पर भी तुम्हें लेतने के लिए तो मुझे आना ही था।”

साथ आयी दासी बोली, “जीजा जी के बहुत बड़े आदमी होने में तो कोई सन्देह नहीं, किन्तु फिर भी, घर की बहू को पराये घर में इतने दिनों तक तो नहीं रखा जा सकता विशेषतः जब बहिन ही नहीं, तो फिर...।”

बुद्धि बीच में ही बोल उठे, “सद्दो, इन बातो को कहने का कोई लाभ नही।” फिर ज्ञानदा की और उन्मुख होकर वह बोले, “बहू, तुम्हारी सास काफी बीमार है, उसने आज अच्छा मुहूर्त निकलवाकर तुम्हे लिवा लाने को मुझे भेजा है।”

सुद्दो दासी बोली, “सच पूछो, तो तुम्हें देखने के लिए बुढ़िया के प्राण अटके है। कई दिनों से वह मुझे तुम्हारे पास आने को कहे जा रही थी। उसकी साध है कि मरने से पहले एक बार बहू का चेहरा देख ले। बस, इसीलिए वह अभी तक जीवित है।”

कहते हुए सद्दो का गला रुंध गया और आँखे गीली हो गयीं। वृद्ध बोले, “चटर्जी महाशय कहते हैं कि उन्हें हमारे दोनों पत्र नहीं मिले। हम तो यही सोचते रहे कि बड़े आदमी होने पर भी साधु पुरुष है, इसीलिए उत्तर की प्रतीक्षा करते रहे। हमें आशा थी कि चटर्जी महाशय लिखेंगे कि आपकी बहू है, आप ले जाइये, मुझे इसमें भला क्या आपत्ति हो सकती है? पत्र का उत्तर तो नहीं मिला, किन्तु आते ही वह बहू को भेजने के लिए तत्काल तैयार हो गये। इतना ही नहीं, पालकी लाने को आदमी भी भेज दिये। यही तो साधु पुरुष के लक्षण हैं। वह हमारे प्रति आभार जताते हुए बोले-आपने हमारे संकट में बहू को भेजकर हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है। आपको अब उसकी आवश्यकता है, तो मैं उसे क्यों रोककर रखूंगा? आज ही आपके साथ उसे रवाॉना किये देता हूँ।”

अब तक अवसादग्रस्त बनी ज्ञानदा बोली, “क्या चटर्जी जीजा ने अपने मुंह से आज ही मुझे रवाना करने की बात कही है?”

सौदामिनी प्रसन्नता से उछलती हुई बोली, “साधु पुरुष जो ठहरे। उन्होंने यहाँ तक कहा की खा-पीकर जल्दी से चल दीजिए, ताकि तीन बजे की गाड़ी पकड़ सके और फिर कल सवेरे आराम से अपने घर पहुँच सके। जब घर में बुढ़िया बीमार पडी हो, तो में आपको पल-भर के लिए भी रुकने को नहीं कह सकता।” फिर वह ज्ञानदा की और उन्मुख होकर बोली, “बुढ़िया तो दिन-रात तुम्हारे नाम की माला जपे जा रही है।”

चकित और व्यथित हुई ज्ञानदा ने पुनः पूछा, “क्या जीजा जी ने यथाशीध्र मुझे भेजने की अपनी सहमति प्रकट की है?”

वृद्ध बोला, “हाँ, बेटी, बेटी हाँ, नहीं तो क्या हम झूठ बोल रहे है? फिर यह भी तो सोचो, वह तुम्हे किसलिए रोके रख सकते है?”

ज्ञानदा की इस पूछताछ से दासी सौदामिनी काफी नाराज हो गयी थी। उसके व्यवहार से उसकी नाराजगी साफ भी हो गयी। वह बोली, “सासा मर रही है, बूढ़े ससुर स्वयं इतनी दूर से लेते आये हैं और बहूजी बार-बार सवाल-पर-सवाल किये जा रही हैं, यह भी कैसा तमाशा है? अच्छा, यह बताओ, कि अब तुम्हें कोई क्यों रुकने के लिए कहेगा? यदि तुम्हे विश्वास नहीं आता, तो स्वयं अपने जीजा स पूछ लो।”

पास खड़े गोलोक ने यह सुना, तो खड़ाऊं की आवाज करते हुए उधर चले आये और वृद्धको सम्बोधित करते हुए बोले, “मुखर्जी साहब क्षमा करे, अब बैठकर बातचीत करने का समय नहीं है। नहाने-धोने औक खाने-पीने के लिए बी समय चाहिए। फिर शुभ मुहूर्त भी निकला जा रहा था। मुखर्जी साहब, हमें कुछ कष्ट अवश्य होगा, किन्तु आपकी बहु को हम रोककर नहीं रख सकते। आपकी आवश्यकता मेरी आवश्यकता से कहीं अधिक और बढ़-चढ़कर है। यदि मै झंझटों में न फंसा होता, तो ज्ञानदा को स्वयं आपके पास छोड़ आता। आप लोगों का एक भी पत्र नहीं मिला, अन्यथा यह हो ही नहीं सकता की मैं उत्तर न दूं। आपको इधर आने का कष्ट ही क्यों करना पड़ता? डाकिये साले बदमाश हो गये हैं, पत्रो को इधर-उधर कर देते हैं। काली, कहां मर गया है, हु्क्का तैयार करके इधर क्यों नहीं लाया? हाँ, मुखर्जी साहब, उठिये, अब सोच-विचार में समय गंवाना उचित नहीं है। ज्ञानदा, जल्दी करो, नहीं तो तीन बजे वाली गाड़ी नहं पकड़ सकोगं। चोंगदार बाहर बैठा है, सच तो यह है कि जब से घरवाली नहीं रही, तब स कुछ याद ही नहीं रहता। मधुसूदन, तुम्हीं लाज रखना, तुम्हारा ही भरोसा है।”

गोलोक यह कहकर सारे मकान को खड़ाऊं की आवाज से गुंजाते हुए दूसरे कमरे में चल गेय। ज्ञानदा बिना कुछ बोले जड़-पत्थर बनी जीजा को जाते देखती रही।

भोलू ने आकर कहा, “मौसी जी, लल्लू नहाने की हठ कर रहा है, क्या उसे नदी पर ले जाऊं?”

ज्ञानदा को कुछ सुनाई नहीं दिया और इसीलिए वह उत्तर में कुछ नहीं बोली।

वृद्ध ने उठते हुए कहा, “बेटी, तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, मे बाहर तुम्हीरी प्रतीक्षा में बैठा हूँ।”

सद्दो दासी बोली, “बहू जी, आज मेरी षष्ठी तिथि है, इसलिए मैं भात नहीं खाऊंगी।”

ज्ञानदा उठकर खड़ी हो गयी और द्दढ़ स्वर में बोली, “मुझे आपके साथ नहीं जाना है।”

वृद्ध ससुर चकित होकर बोले, “जाने के लिए आज कि दिन शुभ है, फिर क्यों नहीं जाना है?”

दासी अपने लिए फलाहार कहने की बात भूल गयी और बोली, “भट्टाचार्य जी से मुहूर्त निकलवाकर ही घर से चले है बहूरानी!”

ज्ञानदा ने द्दढ़तापूर्वक कहा, “बाबू जी, मैं नहीं चलूंगी।”

गोलोक का दस-बाहर वर्ष का लड़का दौडकर आया और ज्ञानदा से लिपट गया। वह बोला, “मौसी, मुझे नदी पर नहाने के लिए जाने की अनुमति दे दो ना।” ज्ञानदा ने बिना कुछ बोली उसे लड़के को अपनी छाती से चिपका लिया और फिर बिलख-बिलखकर रोने लगी।

प्रकरण 9

ज्ञानदा ने कमरे में आकर एक बार भीतर से दरवाजा बन्द किया, तो फिर खोली ही नहीं। दासी और बूढ़ा ससुर विमूढ़ बनकर दोपहर तक बैठे रहे। वे अपनी बहू की इस आनाकानी का कारण समझ ही नहीं पाये। फिर भी, उन्हे इस तरह खाली लौट जाना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने दरवाजे के बाहर से काफी गन्दी और अशोभनीय बातें भी कही, झूठ आरोप भी लगाये। ज्ञानदा ने सब कुछ सुना, किन्तु किसी भी बात का उत्तर न दिया। इतना ही नहीं, ज्ञानदा ने अपने रोने की आवाज भी बाहर नहीं आने दी। बूढ़ा चकित था कि उसकी बहू कैसी औरत है? जिस सास ने इस औरत के विधवा होने पर भी इसे आज तक अपनी छाती से लगाये रखा है, वही सास अपनी बहू को देखने के लिए सांस रोके पड़ी है और बहू है कि उसे बूढ़िया की कोई चिन्ता ही नहीं है। बूढ़ा सोच नहीं पा रहा था कि वह बुढ़िया के पास जाकर क्या कहेगा। ज्ञानदा के न आने का क्या कारण बतायेगा।

मुखर्जी के प्रस्थान के समय गोलोक ने उन्हें विदा के रूप मे राह-खर्च देना चाहा, जिसे उन्होंन लेना स्वीकार नहीं किया। गोलोक ने ज्ञानदा के उनके साथ न जाने पर गहरा दुःख और आश्चर्य भी प्रकट किया।

बैठक में गोलोक को आया देखकर भट्टाचार्य ने उठकर उन्हें प्रणा किया, तो गोलोक ने केवल सिर हिला दिया।

फिर वह बोले, “हाँ तो बेटे, तुम्हें बुलावा भेजा था।”

मृत्युंजय भट्टाचार्य बोला, “जी हाँ, श्रीमान! सुनते ही आधा-अधूरा निगलकर दौ़ड़ा आया हूँ।”

गोलोक ने कहा, “सो तो ठीक है। तुम लोगों के विवाह-सम्बन्ध तो स्थिर करते हो, किन्तु गाँव और गाँव के लोगों की भी कुछ खबर रखते हो? तुम्हारो बाबा रामरतन शिरोमणि अवश्य इस विषय में आदर्श थे। सारे गाँव की सारी जानकारी उनकी अंगुलियों पर रहती थी।”

मृत्युजंय बुझे स्वर में बोला, “इसमें मेरा क्या अपराध है, मैं भी अपनी ओर से प्रयत्नशील रहता हूँ। अच्छा चटर्जी महाशय, आपने जगदधात्री ब्राह्मणी की लड़की की दुस्साहस की बात तो सुनी होगी। रासू बुआ के मुंह से हमने यह सब सुना है, तो मन करता है कि उन्हें चुल्हे मे झोंक दिया जाये।”

गोलोक ने आश्चर्य प्रकट करते पूछा, “ऐसा क्या कह दिया उसने जरा मैं भी तो सूनुं।”

“अच्छा, तो क्या आपको मालूम नहीं?”

“नहीं, बात क्या है?”

मृत्युजय बोला, “इधर आपका घर सूना है और उघर संध्या का कही जुगाड़ नहीं बैठा रहा। आप अपनी उदारता से उसका उद्धार करने को सहमत थे, किन्तु छोकरी ने बड़े ही क्रुद्ध स्वर में सबके सामने जो कहा, हमें तो वग दोहराते हुए भी लज्जा लगती है। बोली, “घाट के मुरदे के गले मे जूतों की माला अवश्य हाल दूंगी। हमने सुना है कि उसके माँ-बाप ने भी यह सब सुना ही नहीं है, अपितु लड़की की पीठ थपथपायी है।”

सुनकर गोलोक क्रोध से कांपने लगा, किन्तु क्षण-भर में ही अपने को संभालकर उसने सारी बात को हंसी में उड़ा दिया, बोला, “अरे, नासमझ छोकरी है उस मुंहट की बात का क्या बुरा मानना?”

मृत्युजय बोला, “उस मुंहफट की जबान खींच लेती चाहिए। उसे ऐसी छूट देकर ही तो आपने सिर पर चढ़ा लिया है, अन्यथा उसकी माँ नहीं जानती कि आपके द्वारा उसे अपनाने से प्रियनाथ की छप्पन पीढ़ियां तर जायेंगी। इस इलाके में उसका सम्मान कितना बढ़ जायेगा।”

प्रसन्न मन से गोलोस बोले, “भट्टाचार्य जी, गुस्से को थूक दो। यह अनाड़ी लड़की किसी के मान-सम्मान को क्या जाने? समय आने पर सब कुछ समझ जायेगी।”

मृत्युंजय ने पूछा. “क्या आपको रासू बूआ ने कुछ नहीं बताया?”

गोलोक बोले, “क्या आपनी लक्ष्मी को इतनी जल्दी भूलाना सम्भव है? अभी मैं किसी दूसरे विवाह के बारे में सोच ही कहां सकता हूँ, जो रासू बहिन से कुछ कहूंगा? मधुसूदन, रक्षा करो। तुम्हारा ही भरोसा है।”

अब मृत्युंजय के लिए कुछ पूछना संभव न रहा। वह गोलोक के पत्नी-प्रेम पर मुग्घ होकर प्रशंसापरक एवं प्रसन्न द्दष्टि से उसके चेहरे को देखता रह गया।

कुछ देर के बाद गोलोक बोले, “भट्टाचार्य, सच पूछो, तो मैंने कुछ याद रखना ही छोड़ दिया है। लोग दिन-रात मेरे सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ कहते ही रहते हैं। वे क्या कहते हैं, इसकी भी चिंता छोड दी है। अब लोको मेरे पीछे पड़ जायें कि अमुक कन्या का उद्धार करो, आप नहीं करोगे, तो कौन करेगा-इन कथनों कि कितनी उपेक्षा करूं, आखिर इन्सान हूँ। उदासीनता बरतने पर कभी किसी के सामने मुंह से किसी के बारे मे स्वीकृति अथवा सहमति-जैसी किसी बात के निकल जाने को अस्वभाविक तो नहीं कहा जा सकता।”

सम्बन्ध जोड़ने की कला में कुशल मृत्युंजय ने संकेत समझने में भूल नहीं की। वह मधुर और विनम्र स्वर में बोला, “यदि ऐसा कुछ है तो मेरी प्रार्थना है कि आपको प्राणकृष्ण की लड़की को अपनाने से सहमत हो जाना चाहिए। लड़की रूप-गुण में साक्षात् लक्ष्मी है और उसकी आयु भी तेहर-चौदह के आस-पास है। हाँ, पिता अवश्य निर्धन हैं। आप निर्धन परिवार की लड़की के पुण्य-लाभ को हाथ से मत जाने दीजिये।”

मृत्युंजन को प्यार से झिड़कते हुए गोलोक बोले, “पण्ड़ित, लगता है कि तुम बौरा गये हो। क्या मुझे इस आयु में पुनःविवाह करना शोभा देता है? क्या लड़की चौदह की हो गयी है, उसकी शरीर का विकास तो काफी अच्छा है? सुना है, काफी आकर्षक युवती है।”

उत्साहित होकर मृत्युंजय ने कहा, “आपने ठीक ही सुना है। उसकी एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि वह शान्त और संयत है। लगता है, मानो मुंह में जबान ही नहीं है।”

गोलोक बोले, “रूप-सौन्दर्य और गुण-शालीनता में मेरी लक्ष्मी की तुलना कौन लड़की करेगी? उसके सामने किसी दूसरी लड़की को देखने का मन नहीं करता, किन्तु क्या करू, किसी का दुःख भी तो मुझसे नहीं देखा जाता। अब जब तुम लड़की की तेरह-चौदह वर्ष की आयु बता रहे हो, तो निश्चित है कि वह पन्द्रह-सोलह की अवश्य होगी। तुम उसके पिता के दरिद्र और अभावग्रस्त होना भी बता रहे हो, सुनकर ह्दय द्रवित हो उठता है। ब्राह्मण की विपत्ति देखी नहीं जाती।”

मृत्युजंय बोला, “आपकी उदारता से कौन परिचित नहीं।?”

गोलोक बोले, “किसी कुलीन की कुलीतना की रक्षा की चिन्ता कोई कुलीन व्यक्ति ही कर सकता है। न करना भी कर्तव्या से पतित होने-जैसा पाप-कर्म है। इधर अबी पत्नी-वियोग के दुःख को भूला नहीं पाया आको आयु भी पचास को छूने लगी, किन्तु मन दूसरों के दुःख-संकट को अनदेखा करने को मानता ही नहीं। इसलिए मुंह से “न” नहीं निकलता।”

गोलोक के कथन के समर्थ में मृत्युंजय बार-बार सिर हिलाने लगा।

गहरी सांस लेकर गोलोक बोले, “कुलीन ब्राह्मणों के गाँव में समाज का मुखिया बनना भी कंटो का ताज पहनना है। दिन-भर दूसरों की चिन्ता में किस प्रकार खपना पड़ता है, इसे केवल मैं ही जानता हूँ। किसके पास भोजन नहीं, किसे तन ढकने को वस्त्र चाहिए, किस रोगी की औषधि-उपचार की मांग है-इन्हीं बातों में पूरा दिन चला जाता है। लगता है कि सारा जीवन इस प्रकार मरते-खपते ही बिताना पड़ेगा। अब तुम कहेत हो, प्राणकृष्ण बेचारे गरीब लड़की विवाह की आयु पार करने जा रही है। तेरह-चौदह की आयु तुम बताते हो, जबकि मुझे वह पन्द्र-सोलह से कम ही नहीं लगती। अच्छा, ठीक है, प्राणकृष्ण को एक बार मेरे पास भेजो, उसके लिए कुछ करता हूँ।”

उत्साहित हुए मृत्युंजय ने कहा, “उसे अभी आपके पास भेजता हूँ। भेजना क्या, अपने साथ लेकर आता हूँ।”

गोलोक बोले, “तुमने तो मुझे संकट में डाल दिया। मेरे मुंह से आज तक किसी की सहायता के लिए “न” तो निकलती ही नहीं। फिर गरीब ब्राह्मण, को “न” कैसे कही जायेगी? मधुसूदन, तुम्हीं रक्षा करो। मैं तो उसी तरह नाचता हूँ, जिस तरह तुम मुझे नचाना चाहते हो।”

किसी भूली बात के याद आ जाने पर जाते हुए मृत्युंजय को आवाज देकर गोलोक बोले, “मैं भी केसा भुलक्कड हूँ, जिस बात को कहने के लिए तुम्हें बुलाया था, वह तो मैं कहना भी भूल गया हूँ। कहना यह था कि आजकल थोड़ी तंगी चल रही है, अतः तुम अपने ब्याज का भुगतान...।”

करुण कण्ठ से मृत्युंजय बोला, “इस महीने, तो आप दया की भीख...।”

गोलोक बोले, “कोई बात नहीं, रहने दो। मैं किसी को कष्ट देकर एक पाई वसूल करना भी पाप समझता हूँ, किन्तु हाँ, बेटे, इसके बदले तुम्हें मेरा एक काम करना होगा।”

“आज्ञा कीजिये, मैं प्रस्तुत हूँ।”

गोलोक बोले, “सनातन हिन्दु धर्म की रक्षा करना और परम्परागत सामाजिक आचार-विचार की प्रतिष्ठा को बनाये रखना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इस भार को उठाने बाले व्यक्ति को चौगन्ना और चार आँखों वाला बनकर रहना पड़ता है। जरा-सी भूल हुई कि अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती। प्रियनाथ की माँ के बारे में उन दिनों बहुत सारी उलटी-सीधी बातें सुनने को मिली थी। तुम्हे उसके गाँव जाकर सही बात की पक्की जानकारी गुप्त रूप से मुझ तक पहुंचानी होगी। तुम्हारे बाबा शिरोमणि इस मामले में सिद्धहस्त थे। वह उड़ती चिड़िया के पंख काट लेते थे। बड़े-से-बड़े मक्कार से भी उसके दिल की बात उगलवा लेते थे। बीत-तीस गाँवों के एक-एक आदमी को कच्चा चिठ्ठा उन्हें मालूम रहता था। तुम्हारे इन्हीं बाबा के बल पर भूपति चटर्जी का दस साल तक सामाजिक बहिष्कार जारी रखा और भाई साहब को गाँव छोड़ने पर विवश कर सका। तुम भी अपने बाबा के यश को आगे बढ़ा पाते, तो कुलभूषण कहलाते।”

अपने पूर्वजों के सामने अपनी हीनता की जानकारी मृत्युजंय के लिए सुखद न रही। वह बोला, “चटर्जी महाशय! मैं एक सप्ताह में ही घटना की सही जानकारी ला दूंगा। पाताल से बी सत्य को खोज कर ले आऊंगा।”

मृत्युंजय को उत्साहित करते हुए गोलोक बोले, “जुट जाने पर तुम्हारे लिए कुछ भी कठिन नहीं। मुझे तुम्हारी योग्यता पर पूरा भरोसा है। हाँ, एक बात की ध्यान रखना, किसी को भी इस बात की भनक नहीं पड़नी चाहिए। समाज के मान-सम्मान तथा मर्यादा-प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। हाँ, मैं तुम्हारा ब्याज ही नहीं, मूल भी छोड़ दूंगा। यदि तुम अपने कष्ट के बारे में बताते, तो मैं तकाजा ही न करता, किन्तु हाँ, जानकारी एकदम सच्ची होनी चाहिए।”

प्रसन्न होकर मृत्युंजय बोला, “आप ही निर्धनो के पालक एवं आश्रयदाता हैं। मैं आज ही चल देता हूँ और प्रमाणिक जानकारी लेकर आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ।”

चलने के उद्धत मृत्युंजय को रोककर गोलोक बोले, “मुझे किसी बात का श्रेय देने की आवश्यकता नहीं। धन्यवाद करना ही है, तो मधुसूदन का करो, जिनकी कृपा से मुझे कुछ शुभ करने की प्रेरणा मिलती है। मैं तो उनका दासानुदास हूँ, निमित्त मात्र हूँ। असली मालिक तो स्वयं वही है।” कहकर उन्होंने मधुसूदन को लक्ष्य कर सिर झुका दिया।

जा रहे मृत्युंजय को अपने समीप बुलाकर गोलोक बोले, “प्राणकृष्ण को भेजना न भूलना। उस ब्राह्मण का दुःख मुझसे सहा नहीं जा रहा।”

प्रकरण 10

प्रतिष्ठित एवं कुलीन जयराम मुखर्जी के धेवते वीरचन्द्र बनर्जी के साथ संध्या का विवाह होना स्थिर हो गया है। कन्यापक्ष के परिवार में वरपक्ष से लोगों के स्वागत की जोर-शोर से तैयारियां चल रही हैं। अगहन महीने का शुभ मुहूर्त निकला है। बहूत समय बाद जगदधात्री के घर में आनन्दोत्सव हो रहा है, इसलिए उसका उत्साह देखते ही बनता है। वह मिठाई बनाने में लगे हलवाइयों की देख-रेख कर रही है, तो उसकी बूढ़ी सास कालीतारा माला जप रही है। बुढ़िया ने भगवा रंग के वस्त्र पहन रखे है। बुढ़िया बहू से बोली, “क्यों जगदधात्री, संध्या के विवाह में अब दस दिन ही बचे हैं न?”

जगदधात्री बोली, “माँ आज के दिन को छोड़ दें, तो नौ ही दिन बाकी हैं। जब तक सारा काम ठीक ढंग से निबट नहीं जाता, तब कत तो मन को शान्ति मिल ही नहीं सकती।”

सास मुस्कुराकर बोली, “सभी कामों के सम्पन्न होने तक चिन्ता और विध्न-बाधा की आशंका बनी ही रहती है। क्यों बहू, क्या तुम अपनी लक्ष्मी-जैसी-रुप-गुणी-सम्पन्न बेटी को पानी में नहीं बहा रही हो?”

जगदधात्री बिना उत्तर दिये अपना काम निबटाने में जूटी रही। सास फिर बोली, “बहू, घर आकर जब मैंने संध्या को थोड़ा-सा टटोला, तो उसके दुःख से मेरी तो छाती फटी जा रही है। तुम माँ होकर भी अपनी बेटी के मन की न जान सकीं। अरुण जैसे हीरे को छोड़कर कंकर को तुमने कैसे पसंद कर लिया?”

जगदधात्री बोली, “मैं संध्या के दिल की सारी बात को ठीक से जानती-समझती हूँ, किन्तु क्या करूं, जब यग सम्भव ही नहीं, तो फिर” रूककर वह धीरे से बोली, “माँ जी, कामकाज का घर है, कहीं किसी के कान् में कुछ पड़ गया, तो अनर्थ हो जाएगा।”

सास तो एकदम चुप हो गयी, किन्तु अपने ऊपर नियन्त्रण न कर पाती जगदधात्री बोली, “माँ, यह बताओ कि यदि मैं अरुण का पक्ष लेती, तो क्या तुम्हारे लिए इस सम्बन्ध को स्वीकार करके अपने कुल को कलंकित करना सम्भव होता? क्या तुम इस सम्बन्ध को मान्यता देतीं? क्या तुम अपनी जाति की रक्षा को तत्पर न होती?”

जगदधात्री सोचती थी कि यह सुनकर सास को सांप सूंघ जायेगा, किन्तु सास बोली, “बहू, तुने मुझसे कहा तो होता। अरी, तुम उसे छोटी जाति का कहती हो, वह विद्या-बुद्धि में ही उच्च नहीं, अपितु जाति की द्दष्टिसे भी श्रेष्ठ है। तुमने जिन दो स्त्रियों को छोटी जाति की होने के कारण अपने घर से भगा दिया, उसने तो उन्हें आश्रय देकर अपनी महानता सिद्ध कर दी। ऐसे महापुरुष को भी तुम छोटी जाति का कहती हो? यह तो बड़ी विचित्र बात है।”

जगदधात्री क्रुद्ध स्वर में बोली, “क्या दूले, डोम आदि अनाथ होने के कारण ब्राह्मणों के साथ रहने के अधिकारी बन जाते है? क्या शास्त्रों का यही विधान है?”

सास ने कहा, शास्त्रों की बात तो शास्त्रकार जानते होंगे, किन्तु मैं तो अपनी व्यथा-कथा को जानती हूँ। छोटी जाति के लोगों से धृणा करनेक का भगवान क्या द्ण्ड देते हैं, यदि तुम मेरे साथ बीती घटना से परिचित होतीं, तो यह थोथा अभिमान कदापि न करतीं। तुझे यह समझ आ जाती कि जाति के आधार पर ऊंच-नीच का विचार करना ओछा और निन्दनीय है। यदि तुम्हें जाति-प्रथा के दोषों की थोड़ी सी भी जानकारी होती, तो तू अपनी बेटी को इस तरह गड्ढे में न धकेलती।”

क्रुद्ध स्वर में जगदधात्री बोली, जिस कुलीनता से सारा संसार चिपका हुआ है, वह क्या धोखा की टट्टी है?

सूखी हंसी हंसकर बुढ़िया बोली, बेटी यही वास्तविकता है। यह सब हम जैसे असहाय लोगों के गले मे फन्दा है। समर्थ लोग इसकी परवाह ही कहां करते हैं? मैंने धूप में बाल सफेद नहीं किये, दुनिया को खुली आँखों से देखा है। मेरी एक बात याद रखना, झूठ को सम्मान देकर ऊंचा उठाने की कितनी भी चेष्टा करो, उसे तो मुंह के बल गिरना ही है, असल में देखा जाये तो यही सब कुछ हो भी रहा है।”

“उत्तर देने जा रही जगदधात्री लड़की को आते देखकर चुप हो गयी। बगीचे में पौधों को पानी देकर लौटी संध्या ने अपने हाथ के संकेत से माँ को दिखाकर पूछा, माँ, क्या यह चन्द्रपूली नाम ही मिठाई है?” अबी माँ ने मुंह ही नहीं खोला था कि वह दादी से बोली, “दादी जी, सबके यहाँ जब इस अवसर पर लड्डु बनते हैं तो हमारे यहाँ क्यो नहीं बने?”

दादी प्यार से बोली, “यह तो अपने बाबू जी से पूछना।”

संध्या बोली, “क्या दादी, क्या तुमने इस बारे में कभी अपनी सास से नहीं पूछा था?”

अरे बेटी, ससुराल का मुंह देखना नसीब होता, तो कुछ पूछने की नौबत भा आती।

संध्या ने पूछा, “क्यों दादी, कुल मिलाकर तुम्हारी सौतिने कितनी थी? एक सो, दो सो या तीन सो?”

हंसती हुई दादी बोली, “ठीक से तो कुछ मालूम नहीं, किन्तु तुम जितनी बी हो कहो, उतनी हो सकती हैं। आठ साल की आयु में जब मेरा ब्याह हुआ था, तब उनकी पहले से छियासी स्त्रियां थी। उसके बाद भी उनके बहुत विवाह हुए, इसकी सही गिनती न उन्हे मालूम थी और न मुझे मालूम है।”

हंसती हुई संध्या बोली, “क्या दादा ने कहीं अपने विवाहों का रिकोर्ड नहीं रखा होगा? यदि कहीं वह रजिस्टर तुम्हे मिल जाता, तो अपनी सौतिनों के नाम पते से उनकी खोज खबर तो ले लेती। फिर पता चलता कि मेरे कितने ताऊं, चाचा, भाई, बहिन आदि हैं। उनमें से बहुत सारे तो अब भी होंगे। यदि कहीं उनका पता चल जाता, तो मजा आ जाता।”

थोड़ा हंसकर संध्या ने पूछा, “दादा तुम्हेर पास आ जाते, तो क्या तुम्हे मोलतोल करना पड़ता था? इस तकरार में तो तुम्हें बड़ा मजा आता होगा। फिर तुम्हें आखिर कितने रुपये देने पड़ते थे?”

जगदधात्री नाराज होकर बोली, “बेटी, यह चुलबुलापन छोड़ और ठाकुर जी की पूजा की तैयारी कर।”

दादी बोली, “लोगों को सब मालूम है, परन्तु फिर भी न जाने क्यों इस बुराई से पिण्ड नहीं छुडाते।”

जगदधात्री को यह सारी चर्चा शरू से ही नापसन्द थी, अब सास के रुख को देखकर वह बोली, “तब की बातें और थी, मालूम नहीं, कितना सच है और कितना झूठ, किन्तु आज तो न किसी के इतने विवाह होते हैं और न ही स्त्रियां अत्याचार का शिकार होती हैं। उस समय कुछ लोगों द्वारा अत्याचार किये जाने की बात सत्य भी हो, तो भी इसे गौरव कभी नहीं मिला होगा।”

संध्या ने दादी के और अधिक निकट आकर सहानुभूति और आत्मीयता से भरे मधुर स्वर में पूछा, “दादी वे लोग इस प्रकार का अत्याचार क्यों करते थे? क्या उनमें मानवता का नितान्त अभाव था?”

संध्या को अपनी छाती से चिपकाती हुई दादी गहरी और ठण्डी सांस छोड़कर बोली, “बेटी, एक रात का पति अपनी किस-किस पत्नी के प्रति ममता, आत्मीयता और स्नेह दिखाएगा? अब तुम अपने सम्बन्ध में ही सोचकर देखो, तुम्हारे साथ जो होने जा रहा है, क्या उसे एक दुर्घटना अथवा अत्याचार नहीं कहा जा सकता?”

ऊबी गयी जगदधात्री उठकर खड़ी हो गयी और तीखी आवाज में बोली, “तू बातें ही करती रहेगी, तो ठाकूर जी की पूजा का काम मुझे ही निपटाना पड़ेगा।”

संध्या ने माँ के तमतमाते चेहरे को देखकर भी उठने की कोई चेष्टा नहीं की। वह बोली, “दादी, इतने अधिक समय से प्रचलित और समाज द्वारा मान्यता प्राप्त किसी प्रथा को सहसा नष्ट होते देखकर क्या किसी के दुःख नहीं होता।”

दादी बोली, “किसी प्रथा का प्रचलन तथा समाज द्वारा स्वीकृति उस प्रथा के उत्तम होने का आधार कदापि नहीं। किसी भी प्रथा के गुण-दोष की समय-समय पर जांच-परख करते रहेना चाहिए। सत्य से आंख चुराने बाला ही अपनी मृत्यु को निमन्त्रण देता है। बेटी, मैं अपने पापों का वर्णन अपने मुंह से नहीं कर सकती , किन्तु जिस दारुण ज्वाला में मुझे जलना पड़ा है, उस केवल मैं ही जानती हूँ।”

संध्या को अपने समीप बिठाकर कालीतारा बोली, “किसी समय समाज के ठेकेदारों ने ब्राह्मणों के गुणों के आधार पर उन्हें आदर्श एवं कुलीन मान लिया था, किन्तु समय बीतने पर ब्राह्मणों के वंशघर सभी दोषों से लिप्त होते गये और उनका आचरण शुद्रों के आचरण से भी निकृष्ट हो गया, किन्तु समाज-व्यवस्था नहीं बदली। यही सारे अनर्थो की जड़ है। बेटी, जिस जाति-प्रथा पर तुम इतना गर्व करती हो, यदि तुम उसके भीतर की गन्दगी को देख पातीं, तो तुम्हें अपने को ब्राह्मण कहलाने मे लज्जा होने लगती। जिन अनाथ दूलो को तुमने् केवल छोटी जाति का होने के कारण अपने मुहल्ले से निकाल दिया है, अपने इस आचरण पर तुम्हें लज्जित होना पड़ता।”

जगदधात्री को यह चर्चा इतनी अधिक अप्रिय और अरुचिकर लगी कि उसे और अधिक सुनना सहन नहीं हुआ, इसलिए वह वहाँ से उठकर चुपचाप दूसरे कमरे में चली गयी। उसे लगा, मानो उसकी सास अपने साथ हुइ किसी अत्यन्त निन्दनीय आचरण को दिल में छुपाते-छुपाते तंग आ चुकी है और कोई अत्यन्त कटु प्रसंग बाहर आने के लिए उसकी छाती को विदीर्ण करने की चेष्टा कर रहा है। अचानक यह सोचकर वह व्यथित और चिन्तित हो उठी कि उसके ससुर के बहु-विवाहों के साथ उसका तो कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है?

कुछ देर की चुप्पी के बाद संध्या ने पूछा, “क्यों दादी, क्या हमारे हिन्दु समाज में अनाचार बहुत गहरे घुस गया है और क्या इस समाज को छल-कपट, ढ़ोंग और दिखावे ने एकदम खोखला कर दिया है?”

यह समाज बाहर से कैसा और भीतर से कैसा है, इसके दोहरे रूप को मेरे सिवाय और कौन इतनी अच्छी तरह से जानता होगा?” कहती हई दादी की आँखों से झरते आँसू शाम के धुंधल में भी छिप नहीं सके। आँचल से अपनी आँखें पोछती दादी बोली, “बेटी, अब आजकल मेरी सोच के बारे में क्या तुम कुछ अनुमान लगा सकती हो? जाति-भेद के नाम पर मनुष्य-मनुष्य में अन्तर करने की प्रवृत्ति स्वार्थो और धूर्त मनुष्यों की देने है। इसमें भगवान को घसीटना मनुष्य की दूसरी बड़ी चालाकी और धूर्तता है। स्वार्थी मनुष्य एक-दूसरे में भेदभाव की खाई को जितनी गहरी करता जाता है, लड़ाई-झगडे और ईर्ष्या-द्देष की प्रवृत्तियां भी उसी स्तर पर गहरी जड़ जमाती जा रही है, इसीलिए समाज अनेक बुराइयों का अड्डा बनता जा रहा है।”

इसके बाद दादी और पोती चुप हो गयी। संध्या को यह तो स्पष्ट हो गया कि उसके दादा के बहु-विवाहों के कारम दादी द्वारा भोगी किसी विषम वेदना की स्मृति आज भी उसे काफी व्यथित किये हुए है। इसलिए दादी को और अधिक कुरेदना संध्या को अच्छा नहीं लगा।

दादी बोली, “बेटी, माँ को व्यर्थ में क्यों खिजाती हो? जाकर ठाकुरद्वारे का काम क्यो नहीं निबटा देती हौ?”

संध्या बोली, “दादी चिन्ती मत करो, माँ अपने-आप सब कर लेगी।” कहकर वह दादी का हाथ पकड़कर उसे खींचती हुई बोली, “दादी, तुम्हारे जमाने की बातों को सुनना बड़ा अच्छा लगता है। मेरे कमरे में चलकर कुछ और सुनाओ न।” कहती हुई दादी को अपने साथ करमेर में ले गयी।

प्रकरण 11

जाड़े का मौसम होने से पहर रात बीतते ही गाँव में सन्नाटा छा गया था। ज्ञानदा अपने कमरे में टिमटिमाते दीये की रोशनी में धरती पर बैठी हुई थी। साथ बैठी रासमणि अपना हाथ हिलाकर ज्ञानदा को समझा-बूझा रही थी, “बेटी, मेरा कहना मान, दवा पी ले, न पीने की हठ मत कर। दवा पीने से तू फिर से पहले जैसी बन जाएगी, किसी को भनक तक न पड़ेगी।”

आँसू बहाती ज्ञानदा रुंधे कण्ठ से बोली, “जीजी, तुम भी अजीब हो, एक पाप के बाद दूसरा पाप करने को कह रही हो। इससे तो मुझे नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा।”

डाटती हुई रासो बोली, “तो क्या इतने उज्जवल कुल को कलंकित करने पर तुम्हें स्वर्ग लाभ होगा? तुम्हें अब वही करना होगा जिसमें चटर्जी महाशय की और तेरी अपनी भलाई है। क्या तुम अपनी हठधर्मिता का परिणाम जानती हो? लोग तुम्हें कुलटा कहकर तुम पर तो थू-थू करेंगे ही, चटर्जी की प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा भी मिट्टी में मिल जायेगी।”

हाथ जोड़कर ज्ञानदा बोली, “यह दवा मैं बिल्कुल नहीं खाऊंगी। मुझे लगता है कि तुम लोग मुझे विष देकर मुझसे छुटकारा पाने का विचार बना चुके हो?”

रासमणि चिढ़ाने के स्वर में बोली, “अब पता लगा की जीवन के प्रति मोह के कारण दवा नहीं खाती। जब यही सत्य है, तो फिर धर्म की दुहाई काहे को दे रही हो?”

ज्ञानदा बोली, “तुम लोग मुझे विषपान के लिए क्यों विवश कर रहे हो?”

“क्या तुम-जैसे निर्लज्ज कही विष से मरते है?”

फिर पल-भर में पासा पलट कोमल-मधुर स्वर में धूर्त रासमणि बोली, “तुम्हारा दिमाग खराब हो गया लगता है? तुम्हें विष देकर क्या हमें जेल में सड़ना है? रासो ब्राह्मणी तेरे प्राण लेगी-ऐसा तूने सोच बी कैसे लिया? मैं तो तेरे भले के लिए तेरे पेट मे पल रहे तेरे दुश्मन को निकाल बाहर फेंकने को कह रही थी। उसके बाद तू फिर से पवित्र जीवन जी या जीवन के सुख भोग, यह सब तुम्हारे ऊपर है, चाहे, तो तीर्थ में जाकर व्रत उपवास से जीवन सफल कर। इस बात का पता किसी को लगना ही नहीं है।”

सिर झुकाकर बैठी ज्ञानदा कुछ नहीं बोली। रासमणि ने साहस कर पूछा, “क्यो बहिन, दवाई लाऊं?”

सिर नची किया ज्ञानदा बोली, “मैंने दवा बिल्कुल नहीं लेनी है; क्योंकि मुझे पूरा यकीन है की दवा पी लेने पर मेरा अन्त निश्चित है।”

रासमणि उत्तेजित हो उठी और बोली, “ज्ञानदा, तेरा यह हठ तो संसार की सब स्त्रियों से एकदम न्यारा है। यदि दवा नहीं लेती तो फिर यहाँ से चलती बन। यदि पुरुष से एक गलती हो भी गयी, तो स्त्री को ऐसी हठधर्मिता शोभा नहीं देती। जो होना था वह तो हो लिया। यदि तू गर्भपात नहीं कराना चाहती, तो पचास रुपये लेकर काशी-वृन्दावन जैसे किसी तीर्थ पर चली जा। तेरे चले जाने पर उन पर तो कोई अंगूली नहीं उठाएगा। फिर रुपये भी तो थोड़े नहीं हैं। इतनी बड़ी राशि है कि क्या कहना?”

ज्ञानदा बोली, “दादी, मुझे रुपयों का कोई लालच नहीं। रुपयों का मुझे करना भी क्या है? तुम तीर्थ जाने की कहती हो, तो मेरा कही किसी से कोई परिचय ही नहीं है। जाऊं बी, तो किससे पास जाऊं?”

“यह तो तुम्हारा हम लोगों को परेशान करने का झूठा बहाना हुआ। तीर्थो पर जाने के लिए क्या किसी जान-पहचान की आवश्यकता होती है?”

ज्ञानदा बोली, “कल चटर्जी का प्राणकृष्ण की लड़की से विवाह होना है, इसलिए तुम मुझे आज ही घर से बाहर करना चाहती हो। मैं दूध पीती बच्ची नहीं हूँ, तुम्हारी चाल को भली प्रकार से जानती हूँ।”

कहती हुई वह बिलखने लगी और हाथ जोड़कर भगवान से विनती करती हुई कहने लगी, “प्रभो, तुम इजने लोगों का अपने यहाँ आश्रय देते हो, किन्तु मेरे लिए तुम्हारे द्वार क्यों बन्द है? प्रभो! बचपन से मैंने कभी कोई पाप नहीं किया, यह पाप भी मैंने अपनी इच्छा से नहीं किया, फिर भी, क्या मुझ असहाय से हुए इस पाप का सारा जिम्मा मुझ पर है? क्या मैं ही अकेली इसके लिए उत्तरदायी हूँ?”

भगवान के नाम पर ज्ञानदा द्वारा दी जा रही इस दुहाई से रासमणि का क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुंचा। वह गरजती हुई बोली, “चुडैल, शाप देती है, झाडू मारकर यहाँ से निकाल बाहर करूंगी। तू क्या दूध पीती बच्ची है, जो तुझे परिणाम का पता नहीं था या फिर तुझसे बलात्कार किया गया है? यदि तू तैयार न होती, तो चटर्जी की क्या हिम्मत थी कि वह तुझे छू भी पाते। और इशारे करे, तो फिर मर्द को कैसे दोष दिया जा सकता है? अब बड़ी सती बनती है, जरा दर्पण में अपना चेहरा तो देख।”

ज्ञानदा इस आरोप का भला क्या उत्तर देती? वह चुपचाप आँसू बहाने लगी। रासमणि फिर कोमल कण्ठ से बोली, “देख, यदि तू केवट बहू की औषधि नहीं लेना चाहती तो न ले। क्या प्रियनाथ की औषधि ले सकेगी। वह तो भले आदमी हैं।”

ज्ञानदा बोली, “क्या वह दवा देंगे?”

“चटर्जी भैया इनकार तो नहीं कर सकेंगे? उन्हें बुलवा भेजा गया है, शायद आते ही होंगे। उनकी दवा का न लेना मुझसे नहीं देखा जा सकेगा।”

ज्ञानदा चुप थी, इससे उत्साहित होकर कुछ और कहने जा रही रासमणि जूतों की आवाज सुनकर चुपचाप आगन्तुक की बाट जोहने लगी।

प्रियनाथ करमे के भीतर आये, तो अंधेरा देखकर बोले, “अरे, यहाँ तो किसी को दिया-बत्ती जलाने तक की फूरसत नहीं हैं।” बगल की पुस्तके और हाथ के बक्से को नीचे रखते हुई बोले, “ज्ञानदा, आज तबियत कैसी है?”

ज्ञानदा को धरती पर बैठा दखकर वह बोली, “अरी, इस ठण्ड में नंगी धरती पर बैठना ठीक नहीं है। दवाई बदलनी पड़ेगी।” रासमणि को देखकर वह बोले, “मौसी, तुम कब आयी हो? तुम्हारी नातिन कल राह में मिल गयी थी, उसका स्वास्थ्य तो सामान्य नहीं लगता। मुझे तो मरने की भी फूरसत नहीं, मैं किस-किस की चिकित्सा करूं। मौसी, कल सवेरे घर पर अवश्य आना, लड़की का विवाह है न। कल तो मुझे बी घर पर रहना होगा, मरीजों की चिन्ता में अबी से धुला जा रहा हूँ। असल में लोग प्रियनाथ को छोड़कर विपिन-जैसे किसी दूसरे डाक्टर से चिकित्सा कराना ही नहीं चाहते? सोचता हूँ की यदि यही चलात रहा, तो ईन लोगों की आजीविका कैसे चलेगी? पंचू ग्वाला सर्दी का शिकार हो गया है, उसे देखने भी जाना है ज्ञानदा अपनी नब्ज दिखा।”

ज्ञानदा ने न हाथ आगे बढ़ाया और न ही कोई उत्तर दिया। रासमणि ने पूछा, “प्रियनाथ, तुम्हारी समझ में ज्ञानदा को कौन सा रोग है?”

ज्ञानदा के चेहरे पर देखते हुए प्रियनाथ ने कहा, “इसे अपच हो जाने से अम्ल-विकार हो गया है।”

रासमणि का इनकार में सिर हिलाना प्रियनाथ को अपने ज्ञान और अनुभव का प्रश्नचिह्न लगाने-जैसा अप्रिय प्रतीत हुआ। वह चिन्तित होकर बोले, “मेरे उपचार में सन्देह क्यो कर रही हो? क्या किसी अन्य डॉक्टर ने आकर कुछ और बता दिया है? जरा उसका नुस्खा अथवा दवा तो देखूं?”

रासमणि मुंहफट औरत है, उसे जो कहना होता है, एकदम बोल देती है, न भूमिका बांधने की चिन्ता करती है, न उचित-अनुचित का विवेक करती है, किन्तु आज उसे अपने स्वभाव के विपरीत सावधान होना पड़ा और वह बोली, “बेटा, किसी औक डॉक्टर को बुलाने जैसा कोई बात नहीं। तुम-जैसे धन्वन्तरी के सामने कोई वैध-डॉक्टर टिक ही कहां सकता है? चटर्जी भैया तो तुम्हें बहुत मानते है। वह तुम्हें छोड़कर और किसी को बुलाते ही नहीं हैं।”

फूलकर कुप्पा हुए प्रियनाथ बोले, “इधर के डॉक्टर तो मेरे सामने छोकरे हैं। इन अधकचरों को तो में दस साल तक पढ़ा सकता हूँ।”

बिलखती हुई रासमणि बोली, “बेटा, लड़की से एसी एक भूल हो गयी है, जिसे अपने विश्वास के आदमी के सिवाय दूसरे से कहा नहीं जा सकता।”

प्रियनाथ उत्तेजित होकर बोले, “मेरे रहते किसी और से कुछ कहने की आवश्यकता कहां है? हाँ, ठीक होने में थोड़ा समय अवश्य लग सकता है, किन्तु मेरी दवा की दो खुराकें काफी होती हैं, तीसरी की आवश्यकता ही नही पड़ती। क्यो ज्ञानदा! क्या मेरी दवा की दो बूंदों से तुम्हारा जी मचलाना ठीक हो गया था या नहीं?”

ज्ञानदा शर्म से मेरी जा रही थी। रासमणि बोली, “बेटे, ज्ञानदा को तेरे सिवाय किसी पर भरोसा ही नहीं है? तुम्हारी दवा को यह अमृत मानती है, किन्तु इसका रोग दूसरा है, अभागिनी का जी ही नहीं मचल रहा, इसे उल्टियां भी आ रही हैं।”

प्रियनाथ ने कहा, “उल्टियां, लो एक ही खुराक से रोक देता हूँ। अब घबराने की कोई बात नहीं।”

माथा पीटती हुई रासमणि बोली, “प्रियनाथ! क्या तुम बुद्ध हो, जो किसी संकेत को समझते ही नहीं हो? अरे, यह कुछ गलती कर बैठी है, ऐसी दवाई दो जिससे कलंक लगने से बच जाये?”

डॉक्टर के चेहरे को देखकर रासमणि को स्पष्ट हो गया कि इस बुद्ध को अबी तक ठीक से कुछ समझ नहीं आया। सारी बात साफ बताने के लिए वह प्रियनाथ को एक कोने में ले गयी और धीरे-धीरे उसके बारे में जो कुछ कहा, उसे सुनते ही वह बिदक उठा।

मौसी खुशामद करती हुई बोली, “बेटे, कोई ऐसी कारगर दवला दो कि जिससे गोलोक चटर्जी के उज्जवल चरित्र पर कलंक न लग सके। अरे, समाज के शिरोमणि तथा धर्मावतार गोलोक चटर्जी की रक्षा करतना क्या हमारा-तुम्हारा धर्म और कर्तव्य नहीं है।”

प्रियनाथ परेशान होकर बोला, “मौसी, यह मुझसे नहीं होगा। तुम किसी दसरे ड़ाक्टर को बुला लो।”

सुनकर चकित हुए रासमणि बोली, “प्रियनाथ! तुम यह क्या कह रहे हो? क्या यह बात किसी दूसरे से की जा सकती है? तुम अपने आदमी हो, ब्राह्मण हो, अपने धन्धे के धन्वन्तरी हो, तुम्हीं को उद्धार करना है।”

प्रियनाथ के मुंह खोलने से पहले ही चुपके से दरवाजा खोलकर गोलोक कमरे में आ पहुंचे और विनम्र स्वर से बोले, “यह लड़की दूसरों की दवा को विष मानती है। अब तुम्हारा ही सहारा है, तुम्हीं को इसका उद्धार करना है।”

प्रियनाथ बोला, “आप लोग किसी और डाक्टर को बुला लीजिये। मैं जोखम के काम नहीं करता। मुझे इस प्रकार के रोगों की और उनके उपचार की जानकारी नहीं है।” यह कहकर प्रियनाथ अपना बक्सा उठाकर चलने लगा।

गोलोक ने प्रियनाथ को पकड़कर रोने-जैसी आवाज में कहा, “प्रियनाथ यह बूढ़ा तेरे आगे हाथ जोड़कर अपने सम्मान को बचाने की विनती करता है। यदि मैं जानता कि तुम मेरी बात को नहीं रखोगे, तो मैं तुम्हें बुलाता ही नहीं। अब तो मेरा मान-सम्मान सब तुम्हारे हाथ मे हैं।”

अपना हाथ छुड़ाकर प्रियनाथ बोले, “आप मेरे लिए आदरणीय है, किन्तु फिर भी मैं जीवहत्या नहीं कर सकता। मेरी वैधक मुझे इसकी अनुमति नहीं देती। मैं परलोक में इसके लिए क्या उत्तर दूंगा? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा।”

दरवाजे के पास खिसक गये गोलोक पलक झपकते ही दीन से दानव बन गये। एक क्षण पहले गिड़गिड़ाने वाले चटर्जी अब गरजने गले, “इतनी रात गये तुम एक सम्मानित व्यक्ति के घर किसलिए घुसे हो, मैं तुम्हें जेल भिजवाऊंगा।”

प्रियनाथ पहले तो घबरा गये, फिर संभलकर बोले, “वाह, बुलाकर पूछते हो कि किसलिए आया हूँ? डाक्टर के साथ ऐसा मजाक अच्छा नहीं होता।”

चिल्लाकर गोलोक बोले, “हरामजादे, पाजी, तुझे डाक्टरी कहां से आती है और तुझे इलाज के लिए कौन बुलाता है? लुच्चे, लफंगे, तू तो चोरों की तरह पिछवाडे के दरवाजे से भीतर घुसा है। रिश्ते का खयाल न होता, तो तुझे यही धरती में गाड देता।”

इसके बाद ज्ञानदा की और उन्मुख होकर वह बोले, “हरामजादी, कमीनी, अन्धा ससुर रो पीटकर चला गया और बूढ़ी सास मर रही है। मैंने खुशामद की, किन्तु यह कुतिया यहाँ से टलने का नाम ही नहीं लेती। अब क्या मुझे भ्रष्ट करके भी तुझे चैन नहीं पड़ा, जो आधी रात को इस जवान को बुलाकर पिछले दरवाजे से अन्दर घुसा लिया। सवेरा होते ही तेरा सिर मुंडवाकर गाँव से बाहर न निकाला, तो मेरा नाम भी गोलोक नहीं।”

ज्ञानदा को होश नहीं कि उसके सिर पर के कपड़ा कब खिसक गया। वह तो यह सारा तमाशा देखकर पत्थर बन गयी थी। गोलोक के दोनों रूप देखकर वह समझ नहीं पा रही थी कि इस नरपिशाच की वास्तविकता क्या है?

रासमणि को सम्बोधित करते हुए गोलोक ने कहा, “बहिन, इनका हाल तो तुमने अपनी आँखों से ही देख लिया है। दस गाँव के समाजों के सरपंच पर मिथ्या आरोप लगाते इस हरामजादी ने यह नहीं सोचा कि डायन भी चार घर छोड़ देती है। अरी, दूसरे का पाप मेरे सिर क्यों मढ़ती है?”

रासमणि ने कहा, “भैया, इसी को तो कलयुग कहते हैं।”

गोलोक बोला, “अब तू गवाह रहना।”

रासमणि बोली, “मैं तो फारिंग होकर ज्ञानदा की सुध लेने आयी थी। मुझे क्या मालूम कि इसने प्रियनाथ से समय बांध रखा है।”

ज्ञानदा चुपचाप फटी आँखों से सब देखती रही। प्रियनाथ स्तब्ध खड़ा था। गोलोक ने उसके हाथ की किताबों और बक्से को छीनकर सड़क पर फेंक दिया। इसके बाद उसे बी धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया। वह गरजते हुए और डांटते हुए बोले, “रामतनु बनर्जी का लिहाज कर रहा हूँ। तु उसका दामाद न होता, तो आज तू चार आदमियों के कन्धे पर सवार होकर घर जाता।”

यह कहकर गोलोक ने प्रियनाथ को जोर का एक और धक्का दिया।

इधर शोरगुल सुनकर नौकर भागे हुए इधर आ गये, तो उनके बीच में रास्ता बनाकर गोलोक चलता बना।

प्रियनाथ मुंह से एक शब्द भी न बोल सका। नौकर-चाकर तमाशा देखरर वापस चले गये। रासमणि भी अपने घर को चल दी। प्रियनाथ भी उदास चेहरा लिये सड़क पर पड़ी अपनी पुस्तकों और बक्से को उठाकर घर को चल दिये।

जड़मूर्ति बनी ज्ञानदा अकेली कमरे में चुपचाप बैठी रह गयी।

प्रकरण 12

अगहन महीने में आज के दिन बाद बहुत समय तक विवाह का शुभ मुहूर्त न निकलने के कारण आज दिन-भर चारों ओर शहनाई का मधुर नाद कानों में पड़कर आनन्दित कर रहा है। लगता है कि इस छोटे से गाँव के चार-पाँच घरों में विवाह का आयोजन है। संध्या का विवाह भी आज ही हो रहा है। अरुण अपनी जन्मभूमि और अपने मकान को छोड़ने के इरादे को अमल में नहीं ला सका है और पहले की तरह ही वह अपने काम-धन्धे पर भी जाने लगा है। उसके बाहरी जीवन में किसी प्रकार के परिवर्तन के न दिखने पर भी उसकी मानसिकता अवश्य बदल गयी है। अब उसे अपने देश के प्रति किसी प्रकार का कोई लगाव नहीं रहा। वह लोक-कल्याण के सबी कार्यो से अपना नाता तोड़ चुका है। वह गाँव का उपेक्षित व्यक्ति समझा जाता है, इसीलिए इतने घरों में हो रहे विवाह उत्सव पर उसे कहीं से कोई निमन्त्रण नहीं मिला है। ऐसा लगता है उसे समाज से बहिष्कृत मानकर सभी ने उसके लिए अपने दरवाजे बन्द कर दिये हैं।

वह अपने दोमंजिले मकान के अध्ययन-कक्ष में बैठा है, जोड़ का मौसम है, शाम का समय है और ठण्डी हवा चल रही है, किन्तु फिर भी उसने अपने मकान के द्वार बन्द नहीं किये हैं। साफ आसमान पर चमकते चन्द्रमा की शुम्र चांदनी कमरे में झांकती प्रतीत हो रही है। मकान के आंगन में उगे नारियल के पेड़ों और पत्तों पर छिटकी चांदनी बड़ी प्यारी लग रही है। अरुण इस दृश्य की मनोरमा में खोया न जाने क्या सोच रहा है? उसने भोजन के लिए पूछने आये रसोडये को “भूख नहीं” कहकर लौटा दिया सामने दीवार पर लगी घड़ी ने ग्यारह बजने और सोने का समय होने का संकेत दिया, किन्तु सोने की इच्छा न होने पर वह अविचलित भाव से वहीं स्थिर बैठा रहा

इसी समय अचानक किसी के द्वार किवाड़ के थपथपाये जाने की आवाज सुनी, तो उसे आश्चर्य हुआ; क्योंकि इस प्रकार के छोटे गाँव में इतनी देर मे कोई किसी के यहाँ आता जाता नहीं। उसकी इच्छा तो “कौन है?” पूछने की हुई, किन्तु उत्साह नहीं बन सका।

अरुण को अघिक समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी, रेशमी साड़ी की तेज होची खस-खस की आवाज उसके समीप आ पहुंची औस इसके साथ ही कोई महिला उसके पैरों से लिपट गयी।

घबराकर उठ खड़े हुए अरुण ने चांदनी में महिला के रंगीन रेशमी वस्त्र देखे, तो साड़ी में लिपटी महिला को पहचानने में उसे देर नहीं लगी। वह इस प्रकार घबरा गया कि उसके चेहरे का रंग उड़ गया और दिल की धड़कन बहुत अघिक बढ़ गयी। लगभग आधी रात में अपने सूने घर में किसी सजी-धजी रूपवती युवती के आने पर उसे सूझ नहीं रहा था कि उसे क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए?

अरुण के कुछ सोचने से पहले ही उस सुन्दर युवती के फूट-फूटकर रोने के कारण उसका मन एक साथ व्यथित और चिन्तित हो उठा। वह परेशान था कि यह सब क्या है?

दो-तीन मिनिटों तक स्तब्ध खड़ा रहने के बाद अरुण संभला और उसने पूछा, “संध्या, मामला क्या है?”

अरुण से अपनी बात कहने के लिए संध्या ने अपने सिर को ऊपर उठाया, तो उसके रूप-सौन्दर्य को द्वगुणित कर रहे उसके रेशमी वस्त्र और आभूषण चांदनी में चमक उठे। अरुण ने अपने जीवन में सौन्दर्य की ऐसी अनोखी छटा कभी नहीं देखी थी, इसलिए उसका मुग्ध हो उठना स्वभाविक था। साथ ही संध्या के ढलकते आंसुओं के विह्वल हो उठा अरुण संध्या के चेहरे पर देखता ही रह गया।

संध्या बोली, “मैं विवाह की बेटी से उठकर तुम्हे अपना जीवन साथी बनाने और वर के खाली पड़े आसन पर बिठाने के लिए स्वयं आमंत्रित करने आयी हूँ। आज यह सब करते हुए न मैं अपने को भयभीत, न लज्जित और न ही किसी प्रकार से अपमानित अनुभव कर रही हूँ। इस समय मुझे तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा व्यक्ति अपना सगा नहीं लगता। तुम्हीं से अपने उद्धार की आशा लेकर आयी हूँ। तुम मेरे साथ चलो।”

अरुण ने पूछा. “कहा चलूं?”

विवाह-मण्डप से उठ गये वर के आसन पर बैठने के लिए मेरे घर चले।

सुनकर दुःखी और परेशान हुआ अरुण पूरे मामले को जानने के लिए उत्सुक हो उठा। उस अनुमान तो हो गया कि किसी मामले पर झगड़ा हो जाने के कारण वरपक्ष वालों ने विवाह करने से इन्कार कर दिया है। हिन्दुओं में ऐसा होना असामान्य बात नहीं थी। शायद संध्या उसी खाली हुइ आसन पर मुझे बिठाने की बात कर रही है; क्योंकि वर के बिना तो वधू का विवाह सम्पन्न नहीं हो सकता।

अरुण को स्वयं संध्या ने और उसकी माँ ने अपने घर आने से केवल मना ही नहीं किया था, उसका खुल्लम-खुल्ला अपमान भी किया था, इतने पर भी उसे इस समय कठोर व्यवहार करना उचित नहीं लगा। वह स्नेह और सहानुभूति से भरे मधुर स्वर में बोला, “संध्या, इस समय तुम्हारे स्वयं इधर आने को कोई भी व्यक्ति उचित नहीं कहेगा। तुम अपने पिताजी को भेजती तो अच्छा होता।”

“किसको भेजती? पिताजी डर के मारे न जाने कहां छिपे हैं और माँ तालाब में जा कूदी है, बड़ी कठिनाई से उसे बाहर तो निकाल लिया गया है, किन्तु वह सदमे से बेहोश पड़ी है। मुझे औक कुछ सुझा नहीं, सीधी दौडकर तुम्हारे पास चली आयी हूँ।”

“इतना बड़ा अपमान तथा इतनी बड़ी दुर्गति इस संसार में किसी की भी नहीं हुई होगी। भगवान ऐसा दुर्दिन किसी को भी न दिखाये!”

सुनकर अरुण काफी दुःखी हुआ। वह बोला, “मुझे तो तुम लोग अस्पृश्य और शुद्र स्तर का व्यक्ति समझते हो, इसलिए मेरे द्वारा तुम अपने उद्धार की सोच भी कैसे सकती हो? तुम्हारे पिताजी किसी कुलीन ब्राह्मण की खोज में गये होंगे। तुम्हें घर में रहकर उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए थी।”

रोती-बिलखती संध्या बोली, “अरुण, मेरे पिताजी किसी को ढूंढने नहीं गये, वह केवल डर कर कही छिप गये हैं। अब मुझसे कोई विवाह नहीं करेगा, मुझे केवल तुम्हारा ही सहारा है।”

संध्या की इन ऊल-जलूल बातों को सुनना अरुण को अच्छा नहीं लगा। वह संध्या को घर भेजने के लिए उसकी बांह पकड़कर उसे उठाने लगा।

अरुण को सम्बोधित कर संध्या बोली, “मैं तब तक तुम्हारे चरणों को पकड़े रहूंगी, जब तक तुम मेरे उद्धार को सहमत नहीं हो जाते। जहाँ तक मेरी कुलीनता की बात है तो वह भी सून लो। वास्तव में, मै ब्राह्मण सन्तान न होकर नाई (शुद्र) की लड़की हूँ। अब तो मेरे हाथ का छुआ पानी भी नहीं पियेगा। भगवान भी कितने निर्मम है? मुझे इतनी यातना देते हुए उन्हें थोड़ी सी भी दया नहीं आयी।”

अरुण को लगा कि शायद संध्या होश-हवास में न होने के कारण अंट-संट बके जा रही है। सम्भव है कि अवांचनीय कुछ हुआ ही न हो। मुझमें आसक्ति के कारण ही संध्या विवाह-मण्डप से भाग आयी हो। अब तक तो उसके घर पर कोहराम मचा होगा। यह सोचकर अरुण ने संध्या को समझा-बुझाकर घर भेजने का इरादा किया। उसके सिर पर हाथ रखकर अरुण धीरे से बोला, “संध्या, अच्छा उठो, मैं तुम्हें तुम्हारे घर छो़ड़ आता हूँ।”

कृतज्ञता-ज्ञापन के रूप में अरुण के बार-बार पैर छूती हुई संध्या बोली, “मुझे विश्वास था कि तुम मेरी विनती को नहीं ठुकराओगे, किन्तु घर चलने से पहले मेरी पूरी बात सुन लो, नहीं तो, क्या मालूम, वास्तविकता का पता चलने पर तुम भी बदल जाओ। एक दिन हम लोगों ने तुम्हें नीच ब्राह्मण कहा था, किन्तु हमें आज पता चला कि हम तो तुमसे भी निचले दर्जे के लोग हैं। उफ, यह कैसी कड़वी और लज्जित करने वाली सच्चाई है।”

संध्या की गहरी व्यथा से अरुण को उसके घर में सचमुच ही किसी अप्रिय घटना के घटित होने का आभास होने लगा। अतः उसने धीरे-से कहा, कौन कहता है कि तुम नाई की लड़की हो और इसका क्या प्रमाण है?”

संध्या ने कहा, “गोलोक चटर्जी इस बात को डंके की चोट से कहता है। माँ कन्यादान का संकल्प करने वाली थी, मेरी दादी पास खड़ी थी, इतने में दो आदमियों को अपने साथ लिये मृत्युंजय घटक वहाँ आ गया। उन दो आदमियों में से ए्क न मेरी दादी को आवाज देकर बुलाया और पूछा, “क्यों तारा दीदी, हमें पहचानती हो या नहीं? तुमने अपने लड़के का ब्राह्मण की लड़की से विवाह करके उसकी जाति तो नष्ट की ही थी, अब पोती का विवाह ब्राह्मण-परिवार में करके उनकी जाति भी भ्रष्ट करने पर तुली हो।” इसके बाद मेरे पिताजी की और अंगुली करते हुए वह आदमी बोला-प्रियनाथ मुखर्जी के नाम से अपने को कुलीन ब्राह्मण कहने वाला वह व्यक्ति असल में नाई की सन्तान है।”

अरुण ने कहा, “संध्या तुम होश में तो हो? जानती हो की तुम क्या बोले जा रही हो?”

संध्या ने अरुण के कथन को अनुसना करके अपनी बात जारी रखी वह बोली, “धूर्त मृ्त्युंजन घटक नं गंगाजल का मटका मेरी दादी के आगे रख दिया और बोला, “ताराकाली, सच बता कि प्रियनाथ हीरू नाई का लड़का है या मुकुन्द मुखर्जी का?” अरुण, मेरी संन्यासिनी दादी लज्जा से मुंह झुकाये बैठी रही कुछ बोल नहीं सकी। झूठ बोलती भी, तो भला किस मुंह से? सत्य को झूठलाना आसान बात नहीं है, इसलिए यह निश्चित है कि लोग हमें जो समझते थे, वास्तव में हम वह नहीं है।”

अरुण के लिए स्वीकार न करना सम्भव नहीं हुआ, किन्तु इससे उसे काफी गहरा धक्का लगा।

संध्या ने कहा, “दादी के गाँव के एक आदमी ने इस घटना का विवरण इस प्रका कह सुनाया। विवाह के समय दादी आठ साल की थी। जब दादी चौदह-पन्द्रह साल की हुई, तो एक आदमी अपने को मुकुन्द मुखर्जी बताकर दादी के घर में आकर रहने लगा। दो दिन रहने के बाद वह पाँच रुपया और एक वस्त्र भेट में लेकर चलता बना।”

उसके बाद, वह आदमी बीच-बीच में आकर घर में रहने लगा। दादी के अधिक रूपवती होने के कारण उसने दादी से दक्षिणा लेना छोड़ दिया। एक दिन अचानक उसकी असलियत खुल गयी। तब तक बाबू जी का जन्म हो चुका था। उफ, यदि मैं माँ होती, तो उसी समय उस नाजायज बच्चे का गला घोंट देती। फिर न ही बच्चा और न ही जननी अपयश, अपमान और निन्दा का पात्र बनते।

अरुण बोला, “क्या थी वास्तविकता?”

संध्या ने कहा, “रहस्य यह खुला कि उसने यह कुकर्म अपनी इच्छा से नहीं किया था। इसेक पीछे मुकुन्द मुखर्जी की सहमति नहीं अपितु स्वीकृति थी, सत्य कहै, तो निर्देश था। बात यह थी कि एक तो मुकुन्द मुखर्जी बूढ़े थे. दूसरे, उनकी न जाने कितनी स्त्रियां थी, तीसरे, वह गठिया के मरीज थे। उनकी पत्नियां तो अपने पति को पहचानती भी नहीं थी। इधर मुकुन्द मुखर्जी के मन मे लालच आ गया था। अपनी स्त्रियों को पुत्रवती बनाने के बदले रुपया कमाने का मन बना चुके थे। इसके लिए उन्होंने हीरू नाई से सांठ-गांठ की। मुखर्जी ने नाई से कहा, “तू गले में जनेऊं डाल ले और थोड़ा-बहुत ब्राह्मण-कर्म सीख ले। फिर मजे का रोजगार कर, आधी कमायी तेरी और आधी मेरी रहेगी।”

चौककर अरुण ने पूछा, “क्या यह सब अन्य स्त्रियों के साथ भी हुआ है?”

संध्या बोली, “हाँ, उसने और भी दस-बारह स्त्रियों को फांसा था और उनसे मोटी रकम वसूल की थी। वह तो कहता था कि तुम काम उससे केवल मुखर्जी ही नहीं कराते, अन्य अनेक कुलीन ब्राह्मणों ने भी अपने एजेंट छोड़ रखे हैं। वह इस प्रकार के काफी लोगों को जानता है।”

“यह सब सत्य ही होगा, अन्यना गोलोक-जैसा नरपिशाच ब्राह्मण-कुल मैं उत्पन्न न होता,” अरुण ने क्रोंध और धृणा से भरे स्वर में कहा। वह बोला, दुःख तो इस बात का है कि य नीच पुरुष समाज के भाग्य-निर्माता बने बैठे हैं।”

अपनी बात को आगे बढ़ाती हुई संध्या ने कहा, “प्रारम्भ में नाई घबरा गया था और उसने कहा था, पंण्डित जी, धर्मराज के सामने मैं क्या मुंह दिखाऊंगा?” मुखर्जी का उत्तर था, “पाप है या पुण्य, गलत या सही, इसका जिम्मा मुझ पर है। तुम्हें इससे क्या लेना-देना? तुम्हें तो ब्राह्मण के आदेश का पालन करना है।” हीरू नाई ने पूछा, “उन बेचारी अनजान स्त्रियों के पाप का प्रायश्चित कैसे होगा? यहाँ भी मुखर्जी का उत्तर था, “मेरी स्त्रियों के लिए तू क्यों परेशान होता है। उनकी सद्गति अथवा दूर्गति का भार मुझ पर रहेगा। तुझे इससे क्या? तुम तो केवल कमाई पर अपना ध्यान रखे। इसीलिए एक दिन हमारे घर में तुम्हारी चर्चा होने पर दादी ने मुझे धकेलते हुए कहा, “नासमझ लड़की, जात-पात में कुछ नहीं रखा, लड़का सब प्रकार से योग्य है, उसका वरण कर ले। किसी की जाति वास्तव में क्या है, इसे तो केवल भगवान ही जानते हैं। जाति के आधार पर किसी का मूल्यांकन करना केवल मूर्खता है। महत्व गुणों को देना चाहिए, जाति-पाति को नहीं। मैंने उस दिन दादी को टटोला होता, तो मुझे आज यह दिन न देखना पड़ता।”

“अरुण, अब रात बहुत हो गयी है। उठो, मेरा साथ दो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि मेरा वरण करके तुम्हें जीवन मे पछताना नहीं पड़ेगा। मैं तुम्हारे सहयोग, त्याग और उदारता के लिए सदैव तुम्हारी कृतज्ञ रहूंगी।”

अरुण निश्चल बैठा रहा और बोला, “मैं इस समय तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।”

आश्चर्य और दुःख के साथ संध्या बोली, “तुम नहीं चलोगे, तो मैं अकेली किसी को कैसे मुंह दिखाऊंगी?”

संध्या के इस प्रश्न का उत्तर अरुण आसानी से न दे सका। वह बोला, “संध्या, मैं क्षमा-याचना करता हूँ। मुजे सोचने-विचारने के लिए थोड़ा समय चाहिए।”

काफी देर तक संध्या अंधेरे में अरुण के चेहरे को ताकती रही, फिर उठकर खड़ी हो गयी और बोली, “सारा जीवन पड़ा है, आराम से सोचो,मैं भी तो अब तस सोचती ही रही हूँ और अब किसी निर्णय पर पहुंची हूँ। हाँ, तुम्हें भी सोचने के लिए समय चाहिए, बिल्कुल ठीक है।”

उठकर जाती संध्या ने अपने सिर से खिसके आँचल को संभाला, लेकिन अपनी वेशभूषा, अलंकार और साज-सज्जा को देखकर उसे रोना आ गया। क्या किसी ने सोचा होगा कि दुल्हन की यह दुर्गति होगी?

संध्या ने अरुण को प्रणाम किया और फिर वह कमरे से बाहर निकल पड़ी।

संध्या को अकेले रात के समय जाते देखकर अरुण चिन्तित हो उठा। उसके साथ जाने के लिए वह अपने नौकर शिब्बू को आवाज देने लगा, लेकिन शिब्बू से वापसी उत्तर न पाकर स्वयं संध्या के पीछे दौड़ पड़ा। प्रियनाथ दीये की रोशनी में बक्सों में से अपनी जरूरत के कुछ सामान को निकालकर थैले मे डाल रहे थे कि उन्होंने “बाबू जी” की आवाज सुनी, तो चौंका उठे। वास्तव में वह छिपकर तैयारी कर रहे थे। अतः हाथ में पकड़े सामान को एकदम नीचे रखकर उन्होंने उत्तर दिया, “क्या संध्या बैटी है?” बस, जाने वाला हूँ अब अधिक देर नहीं है।”

अपने आँसुओ को छिपाती हुई संध्या बोली, “बाबू जी, यह कैसी बात कर रहे हो?”

धबराकर प्रियनाथ बोले, “क्यों, मैंने कुछ गलत कह दिया है?”

थैले को पकड़ती हुई संध्या ने पूछा, “बाबू जी, इसमें आपने क्या रख छोड़ा है?”

भेद खुल जाने से घबराये प्रियनाथ ने बात टालने की गरज से कहा, “बेटीस कुछ नहीं इसमें तो मैंने दो-चार दवाइयां और उसके साथ मेटेरिया “मेडिया” की छोटी प्रति रखी है। सोचता हूँ कि उतना कुछ रखूं, जितना अपने से उठाया जा सके। किसी नयी जगह पर भी समय बिताने के लिए थोड़ा-बहुत प्रैक्टिस कर लेने में कुछ हर्ज तो नहीं हैं?”

“तो क्या माँ आपको यह सब नहीं लेने देती?”

प्रियनाथ ने संकेत से इस प्रश्न का उत्तर देना चाहा, संध्या कुछ भी समझ नहीं सकी।

“बाबू जी, तुम्हारा कहां जाकर प्रैक्टिस करने का इरादा है?”

“वृन्दावन में। तुम तो जानती हो कि वहाँ निरन्तर यात्रियों का तांता लगा रहता है। वहाँ रोगियों को दवा देने में महीने में चार-पाँच रुपये की आय हो जाना कोई बड़ी बात नहीं। इतनी तो निश्चित ही है, इस राशि में मेरी गुजर-बसर हो ही जायेगी।”

“बाबू जी, ऐसी क्या बात है, वहाँ तो इससे कही अधिक आय हो जाया करेगी, किन्तु वहाँ तुम्हारी किसी से जान-पहचान ही नहीं। नये स्थान पर कहां भटकते फिरेगे? यदि कहीं जाना ही था, तो अपनी माँ के साथ काशी चले जाते।”

“बेटी, मैं अपने साथ किसी और की नहीं लपेटना चाहता। भले ही वह माँ हो या फिर पत्नी हो, मेरे कारण लोगों को काफी दुःख और अपमान सहना पड़ा है। अब तो मैंने अकेले, अजनान स्थान पर गुमनाम जिन्दगी जीने का मन बना लिया है।”

“पिता की छाती पर अपना सीर टिकाकर औक उसके दोनों हाथों को अपने हाथ में लेकर संध्या बोली, बाबू जी, तुम तो तभी जा सकोगे, जब मैं तुम्हें अकेला जाने दूंगी।”

लड़की के हाथों अपने हाथों को छुड़ाकर प्यार से उसके सिर को सहलाते हुए प्रियनाथ ने मुधर स्वर में कहा, “बिटिया, मेरे साथ किसी अनजान स्थान पर तू कहां भटकती फिरेगी, देखो, तुम्हारी माँ बेचारी ने भी बहूत दुःख कष्ट झेले हैं। तू उसके साथ रहकर उसे धीरज बंधा। हाँ, मुझे पूछता हुआ कोई रोगी आ जाये, तो उसे तुम दवा देगी। यही तेरे द्वारा की गयी मेरी सेवा होगी। हाँ, यदि तुम्हारी माँ देना चाहे, तो मेरी पुस्तक विपिन को दे देना। वह बेचारा गरीब होने के कारण न किताबे खरीद सका और न ही कुछ सीख सका।”

संध्या बोली, “बाबू जी, मैंने तो तुम्हारे साथ चलने की ठान ली है। यह देखो, मैंने प्रितिदिन पहनने के कपड़ों का थैला बना लिया है।” इसी कथन के साथ संध्या ने अपना झोला पिता के आगे रख दिया।

प्रियनाथ संध्या की प्रकृति को जानते थे, इसलिये उन्होंने अधिक समझाना-बुझाना बेकार समझ। वह बोले, “ठीक है, तेरा हठ है, तो मैं क्या कह सकता हूँ, किन्तु यह न भूलना कि इससे तुम्हारी माँ को बहुत दुःख-कष्ट होगा।”

संध्या ने कल रात सभी लोगों को अपने पिता पर थू-थू करते देखा है। सौभाग्य की बात थी कि ये लोग अपने ही मकान में रहेत थे। यदि कहीं किरायेदार होते, तो शायद लोगों ने इन्हें गाँव से बाहर निकाल दिया होता? अपने परिवार के इस अपमान को भूलाना संध्या के लिए आसान नहीं था। फिर भी, आज उसने इस बात को मुंह पर नहीं आने दिया। वह तो केवल यही एक रट लगाती रही, मुझे तुम्हारे साथ चलना है। उसके कारण के अन्तर्गत यह भी जोड़ दिया, “यदि मैं तुम्हारे साथ न चली, तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? तुम्हें पकाकर कौन खिलायेगा?”

यह कहकर संध्या ने अपने पिता के सामान को ठीक से संभालकर थैले में रखा और फिर बोली, “बापू, हमें अभी यहाँ से निकल जाना चाहिए, तभी हम बारह बजे वाली गाड़ी पकड़ सकेंगे।”

मां के बन्द कमरे के बाहर से माँ को प्रणाण करके संध्या ने माँ को सुनात हुए कहा, “माँ, मैने केवल दो साड़ियों और ब्लाउजों को छोड़कर तुम्हारे घर से कुछ भी नहीं लिया है। मैं बाबू जी के साथ जा रही हूँ, रुकने का समय नहीं है। तुम मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा कर देना।”

यह कहकर संध्या रो पड़ी। भीतर से कोई उत्तर न पाकर संध्या बोली, “माँ, हम तो अपमानित और कलंकित होकर यहाँ से विदा हो रहै है, किन्तु इससे हमारा भी कोई दोष है अथवा हमे गलत व्यवस्था का शिकार होना पड़ रहा है, इस सत्य को केवल अन्तर्यामी ही जानते होंगे न्याय करने वाला भी तो भगवान ही है।”

भीतर से न तो कोई आवाज आयी न ही बन्द किवाड़ खुले। लिहाजा निराश होकर संध्या अपने पिता के साथ सीढि़यों से नीचे उतर गयी। नीचे खड़े युवक को चांदनी के प्रकाश में पहचानकर प्रियनाथ ने पूछा, “बेटे, अरुण हो न?”

अरुण बोला, “आपके बारह बजे की गाड़ी से जाने को सुनकर आपसे मिलने भागा आया हूँ।”

प्रियनाथ बोले, “बेटे, मैं तो संकट में पड़ गया हूँ। लड़की साथ चलने पर अमादा है। मरे साथ छोड़ना चाहती ही नहीं, जबकि मेरा कहां जाना और कहां ठहरना आदि कुछ भी निश्चित नहीं है। इस पगली को तुम ही समझाओ।”

सुनकर चकित हुए अरुण ने पूछा, “संध्या, यह मैं क्या सुन रहा हूँ?”

संध्या बोली, “हाँ, सच है।”

अरुण थोड़ी देर बोला, “संध्या मैं उस रात प्रयन्त करने पर भी किसी निश्चत पर नहीं पहुंच सका था, किन्तु आज मैं तुम्हें अपनाने का निश्चय करके ही तुम्हारे पास आया हूँ।”

प्रियनाथ के लिए अरुण का कथन एक पहेली थी, इसीलिए वह उसके चेहरे को ताकते रह गेय। संध्या धीरे-से-बोली, “उस दिन मैं बिना सोच-विचार किये तुम्हारे पास दौडी चली आयी थी, किन्तु अब मेरा मन स्थिर हो गया है। क्या स्त्रियों के लिए विवाह के अतिरिक्त कुछ और भी करणीय है या नहीं? इसकी जांच-परख के लिए मैंने पिताजी के साथ जाने का निश्चय किया है। अब रुकने का समय नहीं, मैं तुमसे करबद्ध होकर क्षमा-याचना करती हूँ।”

यह कहकर संध्या पिता का हाथ पकड़कर चल पड़ी, तो अरुण भी साथ चल दिया। संध्या ने अरुण की और उन्मुख होकर कहा, “भैया, तुम लौट जाओ, तुम्हारा हमारे साथ चलना ठीक नहीं।”

अरुण ने कहा, “संध्या, क्या ऐसे दुःख-कष्ट में तुम्हारी माँ को अकेली छोड़कर चल देना तुम्हें सही लगता है?”

संन्ध्या बोली, “आज तक भाग्य में दोनो माता और पिता का संग लिखा था, सो दोनों की सेवा की और प्यार पाया, किन्तु आज दोनों में से एक को छोड़ना आवश्यक हो गया है। सोचती हूँ की माँ अपने लिए जुगाडं कर लेगी, इसी गाँव की बेटी है, फिर कल आये तमाशबीनों में से कुछ माँ के लिए किसी प्रायश्चित की बात भी कह रहे थे, अतः उनकी देखभाल तो हो ही जायेगी, किन्तु बाबू जी के प्रति तो सहानुभूति रखने वाला कोई भी नहीं, इसलिए मैंने उनके साथ जाने का निर्णय लिया है।”

इसी के साथ वे दोनों-बाप-बेटी फिर आगे चल दिये।

रास्ते में उन्होंने लोगों को विविध मिष्ठानों कि प्रशंसा करते और पान चबाते हुए अपने सामने से गुजरते देखा। वे लोग आनन्द और तृप्ति से निहाल हो रहे थे। उनका सामना न करने की इच्छा से संध्या ने अपने को तथा अपने पिता को ओट में कर लिया और उन लोगों के दूर चले जाने पर उन्होंने अपनी राह पकड़ी।

थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर लोगों की तृप्ति, प्रसन्नता और सन्तुष्टि का कारण स्पष्ट हो गया। समीप की अमराई के पीछे गोलोक चटर्जी के घर तीव्र प्रकाश औक कोलाहल से वहाँ हुए उत्सव का पता चलता था। अभी तक खाने वाले उच्च स्वर में पूड़ी, दही, मिठाई की मांग कर रहे थे।

प्रियनाथ ने कहा, “गोलोक के विवाह का भोज हो रहा है। चटर्जी खिलाने-पिलाने में उदारता दिखाता है। आज भी उसने पाँच गाँवों के सभी लोगों-शुद्रों, बनियों तथा ब्राह्मणों-को निमंत्रण दिया लगता है।”

आश्चर्य में पड़ी संध्या ने पूछा, “किसके विवाह का निमन्त्रण! नाना गोलोक ने फिर से विवाह किया है?”

“हाँ, गोलोक ने परसों प्राणकृष्ण की लड़की से विवाह रचाया है।”

“क्या हरिमति के साथ? अरे, वह तो उसकी पोती की आयु की है।”

“हाँ-हाँ हरिमति के साथ। लड़की बड़ी हो गयी, बाप गरीब ब्राह्मण था। चटर्जी ने दोनों के उद्धार का पुण्य कमा लिया।”

“बाबू जी, यह पुण्य नहीं, घोर पाप है। यहाँ से जल्दी चलो, मेरा सिर चकराने लगा है। कुछ देर और यहाँ रुके, तो मैं मूर्छित होकर गिर पडूंगी।”

यह कहती हुई संध्या पिता को घसीटकर स्टेशन की ओर चल दी। गाड़ी के आने के समय से आधा घण्टा पहले स्टेशन पर पहुंच गये। गाँव का छोटा-सा स्टेशन था और रात का समय था, अतः अधिक लोग नहीं थे। प्लेटफोर्म के एक ओर वृक्ष के नीचे अकेली बैठी एक स्त्री ने प्रियनाथ को देखते ही कपड़े से सिर को ढक लिया।

प्रियनाथ एक ओर हट गये, किन्तु संध्या ने पहचान लिया और फिर आश्चर्य प्रकट करती हुई बोली, ज्ञानदा दीदी, तुम यहाँ, इस समय और वह भी अकेली...।”

ज्ञानदा संध्या को अपने पास खींचकर उससे लिपट गयी और फिर बिलखने लगी। संध्या तो अपने ही दुःख को गहनतम मानकर व्यथित थी, उसे क्या मालूम है कि इस गाँव में उससे भी अधिक दुःखी, अपमानित और कलंकित कोई दूसरी महिला भी है? संध्या को ज्ञानदा के दुर्भाग्य की कोई जानकारी नहीं थी। सब कुछ जानने वाले प्रियनाथ भी परेशान हो उठे।

संध्या ने पूछा, “दीदी, तुम्हें कहां जाना है?”

गला रूंध जाने के कारण ज्ञानदा कुछ साफ नहीं कह सकी, रुक-रुककर बोली, “मैं क्या जानूं कि मुझे कहां जाना है?”

इसके बाद काफी देर तक खामोशी छायी रही। गाड़ी के आने का समय समीप होने के कारण टिकट खरीदना था, अतः प्रियनाथ ने पूछा, “ज्ञानदा, क्या तुमने टिकट खरीद लिया है या तुम्हारा टिकट भी खरीदना है?”

ज्ञानदा ने सिर हिलाकर कहा, “खरीदा तो नहीं है।” टप-टप आँसू बहती हुई ज्ञानदा बोली, “बाबू, आप लोगों को कहां जाना है?”

“वृन्दावन।”

“क्या संध्या भी वृन्दावन जायेगी?”

“हां।”

आँचल की गांठ को खोलकर रुपये प्रियनाथ के चरणों में रखती हुई ज्ञानदा बोली, “मेरे पास यही पचास रुपये है। मुझे नहीं मालूम कि वृन्दावन का कितना भाड़ा लगता है। एक टिकट मेरे लिए भी खरीद लीजिये और मुझे केवल वहाँ तक ले चलिये। वहाँ पहुंचते ही मैं अपने आप आपसे अलग हो जाऊंगी। आपको किसी संकट में नहीं डालूगी।”

प्रियनाथ कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, “चलो, हमारे साथ ही चलो। जो भी होगा, देखा जायेगा।”

समाप्त

  • ब्राह्मण की बेटी : प्रकरण (4-7)
  • शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की बांग्ला कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • बंगाली/बांग्ला कहानियां और लोक कथाएँ
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