ब्रह्मदैत्य : बांग्ला/बंगाली लोक-कथा

Brahmadaitya : Lok-Katha (Bangla/Bengal)

बंगाल के एक सुदूर गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ बहुत तंगहाली में रह रहा था। दोनों घर – घर जाकर भिक्षा मांगते, तब कहीं उन्हें दो जून रोटी नसीब होती थी। दिन वर्षों में तबदील होते गए और एक दिन गाँव में नया ज़मींदार बना। ब्राह्मण ने सोचा, क्यों न जमींदार के यहाँ जाकर वह भी हाजिरी लगा आए और लगे हाथ कुछ दान – दक्षिणा भी मांग लाए। अगले दिन अपनी इकलौती साफ़ – सुथरी धोती पहनकर ब्राह्मण, जमींदार के भवन की ओर चल पड़ा। लेकिन उस समय जमींदार गाँव के मामलों के बारे में जानकारी ले रहा था।

जमींदार कुछ सेवक उसे गाँव के बाहर खड़े एक विशाल वटवृक्ष के बारे में बता रहे थे, जिसमें बहुत से भूतों का डेरा था। उन्होंने बताया कि गाँव के कुछ बहादुर आदमी पेड़ तक गए जरूर, लेकिन उनमें से एक भी जीवित नही लौट सका। सबकी गर्दनें बुरी तरह से मरोड़ दी गयी थी और उनके शव पेड़ के नीचे पड़े हुए मिले थे। तब से रात में उस पेड़ के आसपास वाला स्थान सुनसान रहता है। केवल कुछ चरवाहे दिन में अपनी गांय – भैंस चराने वहां जाते हैं।

जमींदार इस बात को लेकर कुछ परेशान – सा था। इसलिए उसने घोषणा करवाई थी कि जो भी सूर्यास्त के बाद वहां जाकर वटवृक्ष की एक टहनी तोड़कर लाएगा, उसे बिना लगान सौ बीघे जमीन इनाम में दी जाएगी।

ब्राह्मण पास ही बैठा हुआ सोच रहा था कि जमींदार के आदमियों में से कोई तो बहादुर होगा ही, जो इस काम को करने का बीड़ा उठाएगा। पर जब उसने देखा कि ऐसा करने के लिए कोई भी तैयार नही है तो उसने अपना ही भाग्य आजमाने की सोची।

“वैसे भी मेरे जीवन में कौन सा सुख है,” वह सोचने लगा, “अगर मैं यह टहनी लाने में कामयाब हो जाता हूँ तो कम से कम जिंदगी तो सुधर जाएगी। और अगर भूतों ने मुझे मार ही दिया, तो अच्छा है, इस दुर्दशा से तो मुक्ति मिलेगी।” ब्राह्मण ने अपने जाने का प्रस्ताव रख दिया।

जब उसने घर पहुंचकर अपनी पत्नी को सब बात सुनाई तो वह बहुत रोई। उसने ब्राह्मण से मिन्नत की कि इस तरह अपने प्राण खतरें में न डाले। “मुझे छोड़कर मत जाओ। तुम नही रहोगे तो मेरी जिंदगी पहले से भी बदतर हो जाएगी।”

पर ब्राह्मण टस से मस नही हुआ। कुछ गाँव वालों ने उसका मजाक उड़ाया और कुछ को उस पर दया आई। “अब भी समय है, चाहो तो अपना इरादा बदल दो, वरना इसे अपना आखिरी दिन ही समझो।”

पर ब्राह्मण बड़ा दृढ़निश्चयी आदमी था। घंटे भर बाद जैसे ही सूरज ढला, वह पेड़ की ओर चल पड़ा।

ज्यों – ज्यों ब्राह्मण भुतहा पेड़ के नजदीक अत जा रहा था, त्यों – त्यों उसका कलेजा मुह को आ रहा था। कांपते हुए वह एक बकुल वृक्ष के नीचे रुका, जो वटवृक्ष से सब दस कदम ही दूर था।

बकुल के पेड़ पर एक ब्रह्मदैत्य का वास था। ब्रह्मदैत्य उस गरीब, कमजोर ब्राह्मण का हौसला देखकर बहुत प्रभावित हुआ।

“ऐ ब्राह्मण, क्या तुम्हे डर लग रहा है? बोलो, क्या चाहते हो? मैं तुम्हारी सहायता करूंगा।” ब्रह्मदैत्य ने पुछा।

ब्राह्मण मारे डर के कांपता हुआ बड़ी मुश्किल से फुसफुसाया, “हे पुण्यात्मा! मैं जमींदार को दिखाने के लिए इस केले के पेड़ से एक टहनी तोड़ने आया हूँ। मैं बहुत गरीब हूँ। यदि मैं यह कार्य कर पाया तो मुझे सौ बीघा जमीन बिना लगान दिए इनाम में मिल जाएंगी। पर मुझे वहां जाने से बहुत डर लग रहा है। अगर तुम मेरी मदद करो तो मैं आजीवन तुम्हारा ऋणी रहूंगा।”

ब्रह्मदैत्य ने हामी भरते हुए कहा, “चलो मेरे साथ। मैं तुम्हे वटवृक्ष तक ले चलता हूँ।”

ब्राह्मण की तो जान में जान आ गई। वह ब्रह्मदैत्य की शक्ति से भली – भाँती परिचित था। उसने अपना सिर ऊंचा उठाया ओर ब्रह्मदैत्य के संग वहां पहुंचकर, अपनी आरी बाहर निकाल ली। तभी सौ से भी ज्यादा भूत जाने कहाँ से बाहर निकल आए और ब्रह्मदैत्य ने उन्हें बीच में ही रोक लिया और उनसे कहाँ कि वे ब्राह्मण को पेड़ की एक टहनी काट लेने दें।

भूत ब्रह्मदैत्य का बहुत आदर करते थे। भूत तो ब्रह्मदैत्य भी था, पर उच्चकोटि का था। इसलिए, उसका आदेश सुनते ही सभी भूत उसकी बात मानने को तैयार हो गए और खुद ही टहनी काटकर देने का प्रस्ताव भी रखा। इससे पहले कि ब्राह्मण पलक भी झपकते, एक बढ़ी – सी टहनी उसके सामने आ पड़ी।

उसने ब्रह्मदैत्य को शत – शत धन्यवाद दिया और जमींदार के घर की ओर भागा। जमींदार टहनी देखकर दंग रह गया। उसने कहा कि अगले दिन वह खुद जाकर देखेगा कि वह टहनी उसी पेड़ की है भी, या नही।

अगले दिन प्रातः, जमींदार अपने आदमियों के साथ पेड़ पर गया। जब उन्होंने देखा कि टहनी सचमुच उसी भुतहे पेड़ की है, तो उन लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

जमींदार ने अपना वादा निभाया ओर उस निर्धन ब्राह्मण को बिना लगान सौ बीघा जमीन दे दी।

ब्राह्मण को जो जमीन मिली थी, उसमें धान की फसल कटने के लिए तैयार खड़ी थी। पर ब्राह्मण न तो खेती – बाड़ी ही जनता था ओर न ही उसके पास कोई साधन था।

वह एक बार फिर ब्रह्मदैत्य की शरण में गया। “हे ब्रह्मदैत्य! अब तुम ही मुझे बचा सकते हो। मेरी सहायता करो।”

“कहो, क्या मदद चाहते हो?” ब्रह्मदैत्य ने पुछा।

“मुझे जो खेत मिले हैं, उनमें धान कटाई के लिए तैयार है। मेरे पास उसे काटने का कोई साधन नही है। मेरी मदद करो, वरना मैं बर्बाद हो जाऊँगा!” ब्राह्मण उस ब्रह्मदैत्य के आगे हाथ – पैर जोड़ने लगा।

दयालु ब्रह्मदैत्य उसे ढाढ़स देते हुए बोला, “ब्राह्मण, चिंता न करो। मैं न सिर्फ तुम्हारा धन कटवा दूंगा, बल्कि उसे साफ़ करवाकर गोदाम में भरवा दूंगा ओर पुआल को इकट्ठा करवा दूंगा। तुम तो सिर्फ इतना करना कि सौ दरातियाँ इकट्ठे करके रात को बकुल के पेड़ के नीचे रख देना ओर जिस जगह चावल की बोरियां और पुआल रखवाने हैं, उस जगह को तैयार कर देना।”

ब्राह्मण बेचारा, गरीब था, और उसके मित्र भी कोई ज्यादा धनवान नही थे। अब वह खड़ा होकर यह सोचने लगा कि सौ दरातियाँ कहाँ से आएँगी।

ब्रह्मदैत्य ने उसकी यह मुश्किल भी आसान कर दी। “अब तो तुम अमीर हो गए हो। दरातियाँ गाँव वालों से मांग लेना।”

ब्राह्मण अपने गाँव भागा और उसने वैसा ही किया, जैसा ब्रह्मनदैत्य ने कहा था। उसे देखकर ख़ुशी भी हुई और हैरानी भी कि गाँव वालों ने हँसते – हँसते अपनी दरातियाँ उसके हवाले कर दी। सूर्यास्त के बाद ब्राह्मण उन्हें बकुल – वृक्ष के नीचे रख आया।

फिर उसने अपनी झोपडी के वाली जगह को चावल और पुआल रखने के लिए तैयार किया। सब काम खत्म करके ब्राह्मण सो गया।

जब सारा गाँव गहरी नींद में डूबा हुआ था, ब्रह्मदैत्य ने वटवृक्ष से सौ भूत बुलाए और उन्हें आदेश दिया कि ब्राह्मण का धान काटकर बोरियों में भर दिया जाए। भूत तो सहायता के लिए तत्पर थे। दरातियाँ हाथ में लिए, वे खेतों कि ओर चल दिए। सूर्योदय से पहले धान कट गया था, चावल और पुआल को अलग किया जा चूका था और सब कुछ ब्राह्मण के नए – नवेले गोदाम में भर दिया था।

अगली सुबह, ब्राह्मण और उसकी पत्नी ब्रह्मदैत्य का काम देखकर बहुत प्रसन्न हुए। गाँव वालों के लिए यह चमत्कार से कम नही था और उन्हें विशवास था कि ब्राह्मण पर स्वयं देवताओं की कृपा हुई है।

कुछ दिन बाद, ब्राह्मण कृतग्यता से हाथ जोड़े, एक बार फिर दयालु ब्रह्मदैत्य के सामने खड़ा था।

“हे ब्रह्मदैत्य, क्या तुम मेरी सहायता एक बार फिर करोगे? मैं देवताओं को उनकी कृपा के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। उनके लिए मुझे हजार ब्राह्मणों को भोज पर बुलाना होगा। यदि तुम मुझे इस विशाल भोज के लिए साधन – सामग्री जुटा दो तो मैं आजीवन तुम्हारा आभारी रहूंगा,” वह कहने लगा।

ब्रह्मदैत्य बहुत ही भले स्वभाव का था। उसने कहा, “तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी होगी। तुम मुझे वह स्थान भर दिखा दो, जहाँ पर मैं साधन – सामग्री जमा कर सकूँ।”

ब्राह्मण ने एक कमरा कामचलाऊ गोदाम बनाने के लिए तैयार कर दिया। ब्रह्मभोज से एक दिन पहले उसने देखा कि कमरा सामग्री से लबालब भरा पड़ा है – सौ डिब्बे देसी घी, आटे के विशाल ढेर, तरह – तरह के काजू – किशमिश और शाक – सब्ज़ी, करीब सौ डिब्बे चीनी, तकरीबन उतने ही दूध – दही के डिब्बे और बाकि सब सामान, जो एक भव्य भोज के लिए आवश्यक होता है। ब्राह्मण ये सब देखकर ख़ुशी से झूम उठा।

फिर ब्राह्मण ने सौ रसोइयों को हजार ब्राह्मणों का खाना बनाने का काम सौंपा। अगले दिन मौसम एकदम साफ़ और स्वच्छ था। ब्राह्मण और उसकी पत्नी लगातार आते जा रहे ब्राह्मणों के स्वागत – सत्कार में लगे थे। उसने खुद कुछ नही खाया था क्योंकि वह इस भोज का आनंद ब्रह्मदैत्य के साथ उठाना चाहता था। ब्रह्मदैत्य ने उसकी इतनी सहायता जो की थी, पर ब्राह्मण की यह इच्छा पूरी नही हुई। ब्रह्मदैत्य ने ब्राह्मण की सहायता करके धरती पर अपना समय पूरा कर लिया था।

तभी धन के देवता कुबेर का पुष्पक विमान स्वर्गलोग से नीचे आया और ब्रह्मदैत्य को अपनी प्रेतयोनि से मुक्ति मिल गई। ब्रह्मदैत्य स्वर्ग में स्थान पाकर बहुत प्रसन्न हुआ।

ब्राह्मण का जीवन भी खुशियों से भर गया। उसके कई पुत्र – पुत्रियां हुए और कई वर्षों तक वह उनके और अपने पौत्र – पौत्रियों के साथ पृथ्वीलोक का आनंद लेता रहा।

भारत की लोक कथाएं : सुबीर घोष व ऋचा बंसल

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