Bombay Se London Aur London Se Warsa : Ramdhari Singh Dinkar

बम्बई से लन्दन और लन्दन से वारसा : रामधारी सिंह 'दिनकर'

12 नवम्बर, 1955 ई. को पटना में शिक्षा–मंत्रालय की ओर से अचानक तार मिला कि आप 19 नवम्बर को वारसा जाने की तैयारी कर सकते हैं या नहीं? ठीक उसी समय मैं अपने पूर्वनिश्चित कार्यक्रम के अनुसार दिल्ली रवाना हो रहा था। 14 नवम्बर को दिल्ली में पूज्य पंडित जी के जन्मदिवस का समारोह था। प्रधानमंत्री के घर पर श्रद्धेय डॉ. राधाकृष्णन् से भेंट हुई। उन्होंने मिलते ही पूछा, ‘वारसा तुम जा रहे हो न?’

मैंने सहमते हुए कहा, ‘यूरोप देखने की इच्छा तो अवश्य हैय किन्तु आप तो तुरन्त जाने को कहते हैं। मैं कभी बाहर निकला नहीं हूँ। सोच रहा हूँ कि क्या करूँ।’

उपराष्ट्रपति के मुख से निकला, ‘स्कैंडल्स! पोलैंड ने बड़ी आजिजी से भारत को अपना प्रतिनिधि भेजने को कहा है। निमंत्रण मैंने मैथिलीशरण और वल्लथोल को भिजवाये थेय किन्तु वे लोग जाने में असमर्थ हैं। और अब अगर तुम भी अंग गिरा देते हो, तो यह कैसी बात होगी?’

पंडित जी वार्तालाप सुन रहे थे, अतएव उन्होंने कहा, ‘ठीक ही तो कहता है। और जाने के पहले पचासों सूइयाँ कब लेगा?’

मगर उपराष्ट्रपति चुप नहीं हुए। वे कहते ही गए कि कोई न कोई भारतीय प्रतिनिधि जाना ही चाहिए। मैं मन से तैयार तो था ही। शिक्षा–मंत्रालय को मैंने यात्रा की तैयारी करने को कह दिया और स्वयं भी सामग्रियाँ जुटाने लगा। दो–एक दिन बाद उर्दू के प्रसिद्ध कवि सागर निजामी के जाने का भी कार्यक्रम ठीक हो गया। इस प्रकार, हमारी विदेश–यात्रा 19 के बदले 22 नवम्बर, 1955 ई. को आरम्भ हुई।

मगर अपना देश छोड़ना कोई मामूली बात नहीं है। पासपोर्ट, वीजा और इनकम–टैक्स क्लियरेंस आदि कागजों के साथ अनेक और प्रतिबन्ध भी हैं, जिन्हें पूरा किये बिना आप अपना देश नहीं छोड़ सकते। मेरी यात्रा का तो सारा प्रबन्ध शिक्षा–मंत्रालय ने किया। कहीं स्वयं मुझे ही सारी पैरवी करनी होती, तो मुझसे तो विदेश जाना पार नहीं लगता।

हम दिल्ली से 22 नवम्बर की शाम को रवाना हुए। बम्बई में एयर इंडिया इंटरनेशनल का जहाज पकड़ा। जहाज बम्बई से कोई ग्यारह बजे रात में उड़ा। रास्ते में हम मजे से सो गए। हवाई जहाजवाले यात्रियों को बड़ा आराम देते हैं। कुर्सी के आगे उन्होंने पैताना बना दिया, शरीर पर खूब मुलायम कंबल उढ़ाया और जब हमें नींद आने लगी, उन्होंने पास की बत्ती भी गुल कर दी। सुबह जगकर हम हाथ–मुँह धोकर जब तक तैयार हुए, तब तक जहाज काहिरा (कैरो) पहुँच रहा था।

भूगोल में पढ़ा था कि सूर्य पूरब में पहले और पश्चिम में बाद को दिखाई देता है एवं इसी हिसाब से समय भी पूरब में आगे रहता है। सो इसका सबूत कैरो में पाया। कैरो पहुँचने पर देखा कि हमारी घड़ी में दस बज रहे हैं, जबकि कैरो में सुबह छह का वातावरण था।

हवाई यात्रा, स्वभाव से ही, जरा संकट की यात्रा होती है और मुझ जैसे डरपोक लोग जब भी हवाई जहाज पर कदम धरते हैं, वे यह तो सोच ही लेते हैं कि आज तक तो जी लिया, अब अगर आगे भी जीना होगा, तो जहाज सकुशल धरती पर लौट आएगा। शायद, यही भाव अधिकांश यात्रियों का होता होगा। इसीलिए, हवाई जहाज की मेज़बां अत्यन्त सुशील और सबको दिलासा देनेवाली होती है। इसीलिए हवाई जहाज में मनबहलाव के कागज रखे जाते हैं, जिन्हें आप उलटते जाइए, तो थोड़ा–बहुत मनोविनोद आप–से–आप होता चलेगा।

अपने एयर इंडिया इंटरनेशनल में जो कागज–पत्र हैं, वे मनोविनोदपूर्ण तो हैं ही, उन पर भारतीयता की भी पूरी छाप है। पंखों, इश्तेहारों और फाइलों पर इन जहाजों में आपको यामिनी राय की चित्रकारी के अनुकरण मिलेंगेय गरुड़, मोर, हनुमानजी, धनुष, परशु, वाराह, तिरुपति के बालाजी, शंख, चक्र आदि की आकृतियाँ मिलेंगी, जो आपको बराबर याद दिलाती रहेंगी कि आप अपने देश के वातावरण में हैं। एयर इंडिया इंटरनेशनल का प्रचार–साहित्य खूब सजीव है। हमारा ट्रेड मार्क कलंगीदार पगड़ी बाँधे हुए नवाब का चित्र है। कहीं तो यह नवाब सिर झुकाकर यात्रियों का स्वागत कर रहा है और कहीं वह आपके मनबहलाव के लिए लड़कियों के पीछे भाग रहा है। एक चित्र में यह भी देखा कि जहाज से उतरते समय एक यात्री महाशय मेज़बां का आलिंगन कर रहे हैं। उधर वह मेज़बां उन्हें आलिंगन में फँसाकर उनकी जेब की तलाशी ले रही है और उसमें से चम्मच और काँटे बरामद कर रही है। यह मजाक मुझे खूब पसन्द आया। चेतावनी की इस मीठी सूझ की बलिहारी है! मैं खुद भी प्रचारक का काम कर चुका हूँ। किन्तु इस तरह का चमत्कार मुझे नहीं सूझा था।

काहिरा से उड़कर हम रोम आए, रोम से उड़कर जिनेवा और जिनेवा से उड़कर लन्दन। रास्ते में विशेष रूप से उल्लेखनीय कोई बात नहीं हुई। रोम से उड़कर जब हम जिनेवा आ रहे थे, तब रास्ते में चालक ने बताया कि अब हम एलबा द्वीप पर से जा रहे हैं। उस समय मेरी घड़ी में अपराह्न का 7:50 बजा था और जहाज की घड़ी में 2:15 हुआ था। एलबा द्वीप में आबादी नहीं दिखाई पड़ी। केवल पहाड़ ही पहाड़ नजर आए। किन्तु मन में यह बात उग आई कि इसी बंजर द्वीप में नेपोलियन कैद किया गया था। एक जनश्रुति चलती है कि जब नेपोलियन यहाँ कैद था, किसी ने उससे कहा कि इस जेल से भाग चलो। कहते हैं, उस समय नेपोलियन ने अंग्रेजी में एक वाक्य कहा था : ABLE WAS I ERE I SAW ELBA। इस वाक्य को सीधे पढ़िये या उलटकर, बात एक ही बनती है। यहाँ से आगे माउंट ब्लैंक आया, जो मध्य यूरोप का प्रसिद्ध पहाड़ है। उस समय मेरी घड़ी में पौने नौ बजा था, किन्तु, पहाड़ पर अभी अच्छी धूप फैल रही थी।

जहाज में मेरे बायें सागर बैठे थे और उनके बायें एक यहूदी दम्पती। जहाज लन्दन पहुँचने को हुआ, हम लोग अपना सामान ठीक करने लगे। इतने में सागर ने कहा कि मेरा गुलूबन्द गायब है और इतना ही नहीं, उन्होंने और भी कुछ कहा, जिसे बायें के मुसाफिर इसलिए नहीं सुन सके कि हम हिन्दी में बोल रहे थे।

इस घटना का वर्णन मैं इसलिए कर रहा हूँ कि सागर बिलकुल असावधान व्यक्ति हैं। जाने, इस यात्रा में वे क्या–क्या खोएँगे। कल मैंने जहाज में ही उनसे कहा था कि अपनी चीजों का खयाल रखिए, क्योंकि सब कुछ तो छोड़कर ही चले हैं। अब तो हर चीज जरूरी ही साथ है। मगर, लन्दन हवाई अड्डे से कोई तीस मील दूर जाकर जब हम रात होटल में उतरे, तब सोने के समय सागर अचानक चीख उठे, ‘हाय, मैं तो अपना बैग ही मोटर में भूल आया।’ क्या करता? उतनी रात को मैंने होटल के मैनेजर को जगाया और उस बेचारे ने हवाई अड्डे के अफसर को फोन किया कि एयर इंडिया की मोटर में भारत के एक यात्री का बैग रह गया है।

हमें बड़े भोर बु्रसेल्स का जहाज पकड़ना था, अतएव, पौ फटते ही हम हवाई अड्डे पर पहुँचे ही थे कि एक व्यक्ति सागर का बैग लिये हुए उसकी खोज में घूम रहा था। सागर की जान में जान आई और हम अंग्रेज जाति की ईमानदारी एवं अंग्रेज अफसरों और कार्यकर्ताओं की अद्भुत कर्तव्यनिष्ठा पर दंग रह गए।

ब्रुसेल्स (बेल्जियम)
24 नवम्बर, 1955 ई.

लन्दन से वारसा

24 नवम्बर को हम कोई साढ़े आठ बजे प्रात:काल लन्दन से बु्रसेल्स के लिए उड़े। जिस कंपनी के जहाज में हमने यात्रा आरम्भ की, उसका नाम सबीना है। जहाज अपेक्षाकृत छोटा था और मौसम खराब, इसलिए, रास्ते में बंपिंग काफी हुई। मैं, प्राय:, मुरझा गया और कुछ–कुछ बीमार अनुभव करने लगा। जहाज में नाश्ते के लिए और चीजों के साथ भगवान के तृतीय अवतार का लाल–लाल मांस परोसा जाने लगा। दर्शन मात्र से मेरा जी मिचलाने लगा। मगर करना क्या था? रोटी के एक टुकड़े के साथ एक प्याली कॉफी पीकर मैंने भी जलपान की विधि पूरी कर दी।

बु्रसेल्स से वारसा की ओर पोलैंड का जहाज जाता है। इसलिए वहाँ पहुँचकर हम जहाज से उतर गए। किन्तु, दफ्तर में पूछने पर पता चला कि वारसा जानेवाले जहाज में हमारे लिए जगहें सुरक्षित नहीं हैं। श्री वान जीन नामक एक हवाई अफसर ने हमें यह सूचना दी। हम तो यह सुनकर घबरा गए। 24 नवम्बर की शाम तक हमें वारसा अवश्य पहुँच जाना था, अन्यथा, 25 नवम्बर से वारसा में जो कार्यक्रम आरम्भ हो रहा था, उसमें हम सम्मिलित नहीं हो सकते थे। जब वान जीन को यह मालूम हुआ कि हम पोलिश सरकार के अतिथि होकर वारसा जा रहे हैं, उस बेचारे ने काफी तत्परता दिखाई। एक ओर तो उसने जहाज के कैप्टन को फोन किया, दूसरी ओर बेल्जियम–स्थित पोलिश डेलीगेसी को। पता चला कि भारत की भी एक डेलीगेसी बु्रसेल्स में है। इसलिए, मैंने भी अपनी डेलीगेसी को फोन किया। किन्तु, फोन पर अपनी डेलीगेसी से जो बातें हुईं, उनसे इस विषय में कोई सन्देह नहीं रह गया कि हमारा देश भारत से बाहर होने पर भी भारत ही रहता है। निदान, मैं हतोत्साह होकर अपनी जगह पर आ बैठा। इतने में जीन वान की कोशिश काम कर गई और पोलिश डेलीगेसी से एक नवयुवक हमें खोजता हुआ हमारे पास आ पहुँचा। उसने वान जीन के द्वारा हमें कहलवाया कि पोलैंड के दो यात्रियों को बु्रसेल्स में रोककर उसने हम दोनों के लिए दो जगहों का प्रबन्ध कर दिया है। मेरा हृदय कृतज्ञता से भर गया तथा भारत और पोलैंड के सरकारी प्रतिनिधियों के बीच तुलना करके मैं, मन–ही–मन, कुछ लज्जित भी हुआ।

कोई ढाई बजे दिन में हम पोलिश जहाज से वारसा के लिए उड़े। एयर इंडिया और सबीना, दोनों कंपनियों के जहाज बाहर से भी खूबसूरत और स्वच्छ दिखाई देते हैं। किन्तु, यह पोलिश जहाज कुछ कुरूप–सा लगा। यात्रा, प्राय:, भयानक लगी। मौसम खराब था। हम बादलों से ऊपर उड़े जा रहे थे और नीचे सारा यूरोप धुओं से आच्छन्न था। बंपिंग बड़े जोर की थी। मेरा सिर चक्कर खाने लगा। ऐसे में भला कोई भोजन क्या करे? ज्यों–त्यों करके मैं अपने को सँभालता रहा। इतने में कोई पाँच बजे शाम को जहाज बर्लिन में उतरा। बर्लिन के हवाई अड्डे पर ही देखा कि भेड़ और बकरी के बथान अलग–अलग हैं। एक ओर अमरीकी झंडों की कतार थी, दूसरी ओर रूसी झंडों की पाँत। वातावरण धुमैला और ईषत् अंधकारपूर्ण था तथा वर्षा भी हो रही थी।

बर्लिन के हवाई अड्डे पर हम पौन घंटा टिके होंगे। इस बीच, मैं चिट्ठी छोड़ने को हवाई अड्डे के डाकघर में गया। वहाँ जाकर क्या देखता हूँ कि काउंटर पर एक लड़की खड़ी काम कर रही है। उसके चेहरे पर असीम विषाद की छाया दिखाई दी। मैं उसे सिर से पाँव तक निहारने लगा। उसके बदन पर कोट तो था, किन्तु, पाँव में मोजे नहीं थे। पाँव में मोजे का न होना हमारे देश के लिए कोई बात नहीं है। किन्तु यूरोप में मैंने किसी भी व्यक्ति का पाँव नंगा नहीं देखा है। यह जाड़े का मौसम है। बिना मोजे के यहाँ कौन चल सकता है? इसके पाँव में मोजे नहीं हैं, यह सोचते–सोचते मेरे मन में एक बात उठी कि हो न हो, यह पूर्वी जर्मनी की व्यथा की निशानी है। लड़की ने, शायद, मेरे मन की बात ताड़ ली। अतएव, वह अपने मनोभावों को छिपाने की कोशिश करने लगी। उसके चेहरे पर घबराहट अंकित हो गई और मैं तुरन्त वहाँ से हट गया।

कोई छह बजे के लगभग हम बर्लिन से उड़े। अब तो चारों ओर पूरा अंधकार था और अँधेरे के भीतर हम लिफाफे में बन्द जीव के समान उड़े जा रहे थे। वही बंपिंग, वही थकान, वही मिचलाहट। दबे–दबे मेरी आँख लग गई और मैं सो गया। न जाने कितनी देर सोता रहा कि अचानक सागर ने आवाज दी, ‘उठिए। हम वारसा आ गए।’

वारसा के हवाई अड्डे पर हमें लेने को कई साहित्यिक आए हुए थे। उनमें से अंग्रेजी केवल प्रोफेसर ओलगियर्थ जानते हैं, जो कल से हमारे साथ हैं। कई लोगों ने पुष्पगुच्छ दिये, कइयों ने हाथ मिलाए और कइयों ने सिर झुकाकर हमारा अभिवादन किया। अड्डे पर वारसा रेडियो के आदमी आए हुए थे। उन्होंने हम दोनों से कुछ सन्देश माँगे। मैंने अपनी और सागर की ओर से दो–चार बातें कहीं, जिन्हें उन्होंने रिकॉर्ड कर लिया। कुछ पत्रकार भी आए हुए थे। वे ही बातें मैंने उनके समक्ष भी दुहरा दीं।

वारसा में हम होटल ब्रिस्टल में ठहराए गए हैं। यहाँ के सारे ठाठ–बाट राजसी हैं। होटल बहुत बड़ा है। कई तल्ले हैं। हम चैथे तल्ले पर रखे गए हैं और लिफ्ट क्षण–क्षण चालू दीख रहा है। कालीनों और परदों को देखकर तो यही लगता है कि पोलैंड से बढ़कर धनी देश और नहीं होगा। मगर, रात ही एक सज्जन कह रहे थे, पोलैंड तो यूरोप का गाँव है। सोचता हूँ, जहाँ का गाँव ऐसा है, वहाँ के नगर कैसे होंगे? नगर यानी लन्दन, पेरिस और जिनेवा तथा मास्को। मास्को जाना तो नहीं होगा, लेकिन बाकी शहर तो देखकर ही लौटेंगे।

हमारे पास जो ट्रैवलर्स चेक हैं, वे यहाँ चलेंगे या नहीं, यह नहीं जानता। यहाँ आते ही स्वागत–समिति ने पहला काम यह किया कि हम दोनों में से प्रत्येक को सात–सात सौ रुपये (यहाँ रुपये का नाम स्लोती है) दे दिये। ये दो सप्ताह के लिए काफी होंगे।

कल रात वारसा नगर क्या देखता, केवल होटल देखकर ही दंग रह गया। हाँ, रास्ते में जो संस्कृति–मंडप (पैलेस ऑव् कल्चर) दिखाई पड़ा, उसका प्रभाव बड़े जोर का है। और नहीं तो पचास तल्ले तो होंगे ही। और कैसा सुन्दर वह दीख रहा था बिजली के आलोक में! कहते हैं, यह भवन रूस का बनवाया हुआ है।

आज प्रोफेसर ओलगियर्थ आए, तब मैंने उनसे कहा कि अब नगर देखने को जी चाहता है। वे बोले, ‘जहाँ जी चाहे, जाइए। आदमी साथ रहेगा। इसलिए नहीं कि कानून से यह आवश्यक है, बल्कि, इसलिए कि इससे आपको सुविधा रहेगी।’ मुझे लगा, मानो वे इस सन्देह का खंडन कर रहे हों कि लौह–प्राचीर वाले देशों में विदेशी यात्रियों के भ्रमण पर रोक रहती है।

प्रोफेसर ओलगियर्थ ने आज एक नये दुभाषिये से परिचय कराया। इनका नाम देम्बोस्की है। ये चीन में पाँच वर्ष तक रह चुके हैं। कुछ–कुछ खांडु हो चले हैं, मगर उम्र तीस से ऊपर नहीं होगी। वे चीनी जानते हैं और चीनी प्रतिनिधि से उसकी मातृभाषा में ही बात करते हैं।

ओलगियर्थ को भारत के विषय में पुस्तकीय ज्ञान काफी है। विचित्र बात है कि हिन्दी–उर्दू विवाद के विषय में भी उन्हें थोड़ा–बहुत मालूम है। बात निकली तो देम्बोस्की बोल उठे कि ‘चीन की कठिनाई यह है कि बोलने में चीनी भाषाएँ परस्पर दूर हो जाती हैं, किन्तु, लिखी जाने पर वहाँ की सभी भाषाएँ सबकी समझ में आ जाती हैं। किन्तु हिन्दी और उर्दू, ये बोली जाने पर समान हैं, केवल लिखी जाने पर वे दो भाषाएँ हो जाती हैं।’

ओलगियर्थ और देम्बोस्की को मैंने भारत की कई बातें बताईं, जिनसे उनका भ्रम दूर हुआ। प्रसन्नता होती है कि ये लोग विदेश के बारे में इतनी अच्छी जिज्ञासा रखते हैं। फिर किंचित् घबराहट भी होती है कि बाहर की दुनिया तो इतनी जागरूक और सावधान है, मगर हम भारतवासी कैसे हैं? कितने लोग हैं अपने देश में, जो अन्य देशों के बारे में इतनी जानकारी जमा करना चाहते हैं? और यदि बाहरवालों के विषय में अच्छी जानकारी रखनेवालों की संख्या अपने देश में न बढ़ी, तो क्या इससे हमारे देश की हानि नहीं होगी?

यूरोप को देखकर भारतवर्ष के सम्बन्ध में विकलता का बोध होता है। देश का बहुत बड़ा होना गुण भी है और दोष भी।

वारसा
25–11–1955

('मेरी यात्राएँ' पुस्तक से)

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