बोलने वाला बैल : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Bolne Wala Bail : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक गाँव में साधू नाम का एक किसान था। छबिल और जटिआ नाम से उसके दो बैल थे। साधू अपने दोनों बैलों को ख़ूब प्यार करता था। एक दिन अलस्सुबह वह अपने दोनों बैलों को लेकर खेती करने अपने खेत में गया। खेत पर पहुँचकर उसने हल जोता। छड़ी से पीटकर किसान बोला, “चल जटिआ, चल छबिल, यहाँ हल चलाने के बाद दूसरे खेत पर जाएँगे। जल्दी काम नहीं करेंगे तो अपना काम नहीं चलेगा।”
कभी कुछ बोला नहीं था, पर आज जटिआ ने मुँह खोला। आदमियों की तरह जवाब देते हुए बोला, “सिर्फ़ काम लेने से क्या होगा? ठीक से तो खाने को भी नहीं देते हो। ऊपर से छड़ी से मारकर चलो-चलो कहने पर हम जाएँगे कैसे? शरीर में ताक़त हो तब ना?”
साधू ने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, कहीं कोई आदमी तो नहीं दिख रहा है, फिर उसे अपनी बात का जवाब कैसे सुनाई दिया? शायद यह मन का भ्रम है, ऐसा सोचकर साधू छबिल की पूँछ मरोड़कर बोला, “चल छबिल।”
खेत के कुछ चक्कर लगा लेने के बाद जटिआ की पूँछ को मरोड़कर साधू बोला, “चल जटिआ, जल्दी काम ख़त्म करने पर आज आधा भोजन दूँगा।”
“ओहो! ऐसे क्यों पूँछ मरोड़ रहे हो? मुँह से बोलने से नहीं होता? हम बैल हैं तो क्या हमारी जान नहीं है?”
अब साधू चौंका। उसे समझ में आ गया कि यह बात बैल ख़ुद बोल रहा है। अपनी बात को परखने के लिए पूछा, “जटिआ, तू बोल रहा है?”
जटिआ ने जवाब दिया, हाँ। जीवन जिसका है, मुँह भी उसका है। तो फिर बात करना क्या मना है?”
साधू का हाथ हल की मूठ से छूट गया। छड़ी को नीचे फेंककर वह डर से काँपने लगा। उसने सोचा, “यह आदमी है या बैल। आदमी की तरह कैसे बोल रहा है। यह ज़रूर मायावी बैल है।”
“तुम जो सोच रहे हो, वह सच है। मैं मायावी बैल हूँ, पर तुम्हारा कुछ भी नुक़सान नहीं करूँगा। तुम्हारी भलाई के लिए कुछ बातें बता रहा हूँ, उसे करोगे तो तुम अमीर बन जाओगे।”
अब साधू प्रधान बुरी तरह से डर गया। जटिआ की तरफ़ देखा, पर वह बहुत मासूम नज़र आ रहा था। जटिआ की नज़र उसी पर टिकी हुई थी। उसका मुँह बंद है, फिर बातचीत कैसे कर रहा है? सबकुछ उसे सपने सा लगने लगा। वह मन-ही-मन अपने से प्रश्न पूछने लगा, “यह मेरे मन की भावना तो नहीं है” मन ही मन डरने के बावजूद अमीर होने के लोभ में साधू ने जटिआ से पूछा, “बता जटिआ, मुझे क्या करना होगा?”
जटिआ बोला, “पहले तुम शपथ लो कि किसी से यह बात नहीं कहोगे। तब जाकर मैं तुम्हें बताऊँगा।”
साधू ने मिट्टी को छूकर क़सम खाई, चाहे कुछ भी हो जाए मैं यह बात किसी से नहीं कहूँगा।”
जटिआ बोला, “सुनो, तुम मुझे हल में जोतकर ज़्यादा देर तक खेत में घुमाना मत। हर साल आषाढ़ महीने के आख़िरी मंगलवार के दिन अलस्सुबह मुझे सिर्फ़ कुछ देर के लिए हल में जोतना। जितनी जगह पर मुझे लेकर हल जोतोगे उतनी जगह पर कुछ भी बोओगे तो सोना ही फलेगा और उसके बाद तुम अमीर हो जाओगे। पर याद रखना अपनी क़सम, जो तुम तोड़ोगे तो फिर भिखारी बन जाओगे और मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा।”
उसके बाद साधू खेत पर काम नहीं कर पाया। दोनों बैलों को खोलकर मवेशियों के झुंड में छोड़कर घर वापस लौट गया।
साधू की पत्नी कमला पोखरी में नहाने गई थी। नहाकर लौटी तो देखा पति बरामदे में बैठा है। उसने सोचा कि पति कामचोरी करके भाग आया है।
बिना कुछ जाने-समझे कमला पति से बोली, “इतनी जल्दी हल खोलकर घर लौट आए? अभी तो और कोई काम से नहीं लौटा है। तुम्हारा ही मन बस घर में रहने को करता है।”
“कमला, तुम बिलकुल भी ग़ुस्सा मत करो। मेरा मन आज कुछ ठीक नहीं है। भूख भी लग रही है। जल्दी खाना दे दो।”
"क्या हुआ है तुम्हें? सच-सच बताओ?” बात क्या है जानने के लिए कमला छटपटाने लगी। मन में डर भी समाया।
“तुम मेरे ऊपर विश्वास करो। मुझे कुछ नहीं हुआ है। काम करने को मन नहीं किया। तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी। कहीं बुख़ार न आ जाए।” पर असली बात कमला को न बताकर छुपा गया।
कमला ने साधू के माथे पर हाथ रखा, “नहीं, शरीर तो गरम नहीं है। कल रात तुम बिना खाए सो गए थे, शायद इसलिए कमज़ोरी लग रही होगी। अच्छा चलो। अंदर चलो, खाना परोसती हूँ।” कहकर कमला ने साधू के लिए पखाल, यानी माँड़वाला भात परोस दिया। साधू आँख मूँदकर पतीला भर पखाल खा गया।
उसके दूसरे दिन हल लेकर साधू खेत पर गया। जटिआ से बोला, “चलो जटिआ। तुम्हें मैं अब और नहीं पीटूँगा। तुम तो सारी बात जान ही रहे हो।” उसके बाद छबिल की पूँछ मरोड़कर बोला, “चल छबिल। आज से तुम बस एक घड़ी काम करना।'' पर छबिल को कुछ समझ में नहीं आया। पहले की तरह वह अपना काम करता रहा।
साधू ऐसे ही हर रोज़ घड़ी दो घड़ी के लिए हल चलाता। उसे बस आषाढ़ महीने के आख़िरी मंगलवार का इंतज़ार था। हर दिन जटिआ को ख़ूब लाड़-दुलार करता। सुबह-शाम उसे प्रणाम करता।
यह सब देखकर कमला की समझ में कुछ नहीं आया। पति जटिआ को प्रणाम क्यों करते हैं? छबिल को तो प्रणाम नहीं करते, यह सारी बातें वह सोचती रहती।
एक दिन पति से कमला पूछ बैठी, “तुम सिर्फ़ जटिआ को ही क्यों प्रणाम करते हो? छबिल को तो प्रणाम नहीं करते?” साधू चुप रहा।
कुछ दिन बीत जाने पर कमला ने फिर एक दिन पूछा, “तुम सिर्फ़ जटिआ को क्यों प्रणाम करते हो? पहले की तरह हल भी नहीं जोत रहे हो। ज़मीन ख़ाली पड़ी है। इस साल हमारा गुज़ारा कैसे होगा?”
साधू बोला, “देखो कमला, जटिआ ईश्वर का वाहन है। उसे प्रणाम करने पर ईश्वर हमें आशीर्वाद देंगे और उनका आशीर्वाद होगा तो फिर हमें दुःख-कष्ट कैसे मिलेगा भला?”
कमला को बात कुछ समझ में नहीं आई। वह झल्लाकर बोली, “रहने दो, रहने दो अपनी बात। जाओ, तुम अपने काम पर जाओ।” इतना कहकर सिर पर हाथ धरे बैठ गई कमला।
देखते-देखते आषाढ़ महीने का आख़िरी मंगलवार आ गया। साधू अलस्सुबह उठकर हल-बैल लेकर खेत पर गया। घड़ी दो घड़ी में आधी ज़मीन जोती और धान उस जगह बोकर घर लौट आया।
ऐसे ही कुछ दिन बीत गए। एक दिन कमला को लेकर खेत पर गया। वहाँ देखा धान फला है। हाथ से छूकर देखा तो पाया कि धान नहीं था, वह सब तो सोना था। कमला मुँह बनाए पति को ताकती रह गई।
साधू बोला, “ऐसे क्या ताक रही है? यह सब ईश्वर का आशीर्वाद है और देर मत करो चलो जल्दी, यह सब लेकर घर चलते हैं। गाँव वाले जान जाएँगे तो सब छीन लेंगे।” उसके बाद दोनों सोने का धान काटकर घर ले गए। उस दिन से साधू अमीर बन गया। दोनों के दिन आराम से कटने लगे। कमला ने कभी सोचा ही नहीं था कि वे एक दिन अमीर बन जाएँगे। वह बस सोचती रहती कि ऐसा हुआ कैसे? अपने मन में अपनी भावना को रख नहीं पाई।
एक दिन रात में सोते समय पति से पूछा, “सच बताओ, तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो। तुम क्यों जटिआ को प्रणाम करते थे? पहले की तरह काम नहीं करते थे? खेती छोड़कर ईश्वर को क्यों पूजने लगे? इसके पीछे ज़रूर कोई राज़ है। मुझे सच बताओ नहीं तो आधा धन लेकर अपने मायके चली जाऊँगी।”
साधू बड़ा पशोपेश में पड़ गया। कमला को सच बताने के सिवा और कोई रास्ता उसे नहीं सूझा। पत्नी से बोला, “सुनो अगर मैं तुम्हें सच बता दूँगा तो हम फिर से ग़रीब हो जाएँगे।” पर कमला ने पति की बात पर विश्वास नहीं किया।
उसके बाद साधू ने एक-एक घटना उसे बता दी। कमला सब सुनकर संतुष्ट हो गई।
रात में साधू ने सपना देखा कि जटिआ उससे कह रहा है, साधू, तुमने अपनी क़सम तोड़ी है। उसका फल अब भुगतोगे। मेरी बात कभी झूठी नहीं होगी। तुम ग़रीब हो जाओगे। मैं जा रहा हूँ। मुझे फिर लौटा नहीं पाओगे।”
साधू की नींद खुल गई। उठकर देखा कि रात बीत चुकी है। गोहाल की तरफ़ दौड़कर गया तो देखा जटिआ नहीं है। छबिल आराम से सो रहा है। साधू चिल्लाने लगा। उसकी चीख़ सुनकर कमला दौड़ कर उसके पास पहुँची। दोनों भौंचक खड़े रहे। कमला ने घर के अंदर जाकर मिट्टी के घड़े में हाथ डालकर देखा वहाँ सोने का धान नहीं था। सब ग़ायब हो चुका है।
साधू और कमला ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। कमला की ज़िद के कारण साधू ने सब गँवा दिया। कमला ने भी बहुत पश्चाताप किया लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था।
(साभार : ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)