बोझ (मलयालम कहानी) : एम. सुकुमारन
Bojh (Malayalam Story in Hindi) : M. Sukumaran
चढ़ाई के बाद सांत्वना के साथ उतरकर कार स्कूल के सामने पहुंची। तब बायीं ओर मुड़ी। लाल मटमैला रास्ता सहसा सामने उभरा। दोनों ओर फैले हुए टोले। दूर श्वेत बादलों को सिर पर धरे पश्चिमी घाट के पहाड़, धूप की नंगी लहरों में आँखें चौंधिया जाती हैं। टायरों द्वारा उछाली गयी गर्द में रास्ते के पड़े अव्यक्त हो गये। कार की गति ज्यादा होती हुई-सी प्रतीत हुई।
मैंने चाहा कि सिर एक ओर घुमाकर, ड्राइवर से कहूँ, जरा धीरे चलाओ, मेरा रोग तो तुम्हें विदित है ही। मगर कहा नहीं। कारण यही था कि यथाशीघ्र वहाँ पहुँच जाने की मेरी इच्छा थी। यथासंभव शीघ्र वहाँ से वापस भी आ जाना था। यह बात ड्राइवर को मालूम थी। गत कई सालों से मेरी सेवा करता आ रहा है। वह मेरे बारे में सब कुछ जानता है। लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा था। दूसरों से पूछकर उसने समझ लिया था।
रास्ते के उस पुराने मंदिर और पीपल को देखने पर यह विचारे बिना न रह सकी कि उन पर समय अपना प्रभाव डालने में कितना असमर्थ रहा है। वे अब भी ज्यों-के-त्यों खड़े हैं। जंगल के सामने पहुंचने पर भारतपुष्प का एक छोटा-सा भाग दिखायी दिया। जल में प्रवाह नहीं था। जल जहाँ-तहाँ इकट्ठा पड़ा था।
खेत के पास पीले-पीले फूल बिछी हुई जगह के पास ड्राइवर ने कार रोक दी। कार का दरवाजा खोल दिया। मैंने चश्मा ठीक किया। खुले, बिखरे बालों को बाँधा, तो सबेरे शिव-मंदिर से मिले तुलसी के कुछ पत्ते नीचे गिर पड़े। धीरे-धीरे चलती कार लगभग धराशायी मील के पत्थर के पास जा खड़ी हुई। खेत के उस ओर कुछ ऊँची जगह पर कुछ सफेद दीवारें दिखायी दे रही हैं। क्या यही घर है ? थोड़ा संशय हो रहा है। किसी से पूछें।
चल पड़ी। ड्राइवर पीछे था। घास पर चलते वक्त सोचती रही, मैं क्यों आयी ? पर क्या मैं आये बिना भी रह सकती थी ? थोड़ी दूर और आगे बढ़ी। एक सात-आठ साल का लड़का, एक तंग नाले में कागज की नाव चला रहा था। उसके सिर के बालों को तेल के दर्शन हुए, शायद कई वर्ष हो गये होंगे। पीछे से ड्राइवर ने मुझसे कहा इससे पूछेंगे ?
आवाज सुनकर जब लड़के ने सिर उठाया, तो ड्राइवर ने पूछा-चोलाक्काटु शंकुणि नायर का घर कहाँ है ?'
लड़का कागज की नाव को पानी से उठाते हुए बड़ी ही लापरवाही से बोला—मर गये !
___ मैं चौंकी नहीं, क्योंकि चार दिन पहले मिले कार्ड पर लिखी पंक्तियों में मृत्यु की सूचना थी। पिता की मृत्यु की बात बेटे ने लिख भेजी थी।
—कौन-सा घर है ? ड्राइवर ने पूछा।
लड़का घूमा और थोड़ी दूर पर खड़े एक टेढ़े पेड़ को दिखाते हुए बोला—वहाँ एक पेड़ दिखायी दे रहा है न ? वही घर !
मैंने सोचा था कि उसके भी आगे का पक्का मकान होगा। लेकिन जब लड़का मकान की ओर इशारा कर रहा था, तब वह टूटा-फूटा, दीमक-लगे पत्तों की छतवाला, छोटा-सा मकान मेरी कल्पना में नहीं आया था। मैंने सोचा था कि वे लोग संपन्न होंगे। जब यह मकान देखा, तब लगा कि उसमें रहने वाले लोग निरंतर गरीबी की चक्की में पिसते आये हैं। लड़के ने कागज की नाव फिर पानी में उतारी। ड्राइवर ने एक छोटी-सी छलाँग मारकर नाले को पार किया।
मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। मैं साठ साल के ऊपर की हो गयी हूँ। इस उम्र में नियमित रूप से टॉनिक और गोलियाँ लेते रहने पर भी पुराने स्वास्थ्य का दसवाँ भाग भी अब नहीं रहा। पैरों से जूते निकालकर हाथ में पकड़ लिये और छोटे-से नाले के पानी में चल कर उसे पार कर लिया। मेरे चलने से पानी आंदोलित हो उठा। उस लड़के की नाव डोल उठी। वह लड़का मेरी ओर कुतूहल से देखता रह गया। मुझे पहली बार देख रहा था। वही नहीं, इस प्रदेश का कोई भी व्यक्ति मुझे शायद नहीं पहचानेगा। अगर शंकुण्णि नायर जिन्दा रहते, तो वह भी मुझे पहचान न पाते।
थोड़ी देर चलने के बाद पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का अब भी अचरज के साथ मेरी ओर देख रहा था। उसकी आँखों में यह प्रश्न झलक रहा था, 'ये कौन है ?' मैं हूँ रिटायर्ड हेड मिस्ट्रेट कुंचिक्कावम्म। शायद तुम्हें विश्वास नहीं आयेगा। वार्धक्य ने मेरा हुलिया एक योगिनी का-सा बना डाला है यद्यपि मैं आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हूँ, अपनी कार है, बैंक बैलेंस भी है।
घर की टूटी-फूटी देहरी पर ड्राइवर कुछ हिचकता हुआ.खड़ा रहा, पहले कौन अंदर जाये ? आखिर में मैं ही अंदर घुसी। जब दरवाजा खोला, तब वह दीमक-मंडित द्वार क्रंदन कर उठा। थोड़ी देर वहीं खड़ी रही। अंदर से उठने वाली एक धीमी सिसक धीरे-धीरे ऊँची होकर जोर से क्रंदन में बदल गयी।
चबूतरे और आँगन के आस-पास सात-आठ व्यक्ति खड़े थे। मैं उनकी ओर देखती हुई आँगन पार कर गयी। जूते उतारकर सीढ़ी पर रखे गये। रोना बुलंद हुआ। सारे घर में मौत का साया मँडरा रहा था। एक नारियल के पेड़ के नीचे खड़ा एक छोटा-सा लड़का चुपचाप पलंग के पास से होकर अंदर चला गया। एक तिपाई पर एक थाली रखी है, जिस पर कटी हुई सुपारी और पान के पत्ते रखे हैं। एक कुर्सी पर बैठे एक बूढ़े ने पूछा- कौन है ?
किसी ने उत्तर नहीं दिया, मानो उनकी जीभ कैद में हो। मैंने बढे की ओर फिर देखा, तो वह पलकें बार-बार खोलकर बंद कर रहा था। तभी बात समझ में आयी। अंधा है। सभी की आँखों में प्रश्नचिह्न ! मैं कौन हूँ ? एक फीकी-सी मुस्कान के साथ मैंने सबकी ओर देखा। मन-ही-मन बोली, तुम लोग मुझे नहीं जानते ! इस घर से मेरा घनिष्ठ संबंध है, जिसका मैं परिचय नहीं दे सकती ! मैं कुछ न बोली। मैंने उस कमरे के दरवाजे को धीरे से खोला, जिसके अंदर शव रखा हुआ था। जब उस धुंधले अँधेरे में से होकर चली, तो मृत्यु की गंध का अनुभव किया। क्या मृत्यु की भी गंध होती है ? हाँ, जन्म एवं मृत्यु, दोनों के ही, जो केवल मन द्वारा ग्राह्य है।
एक चटाई पर दीवार की टेक लिये बैठी रो रही है शंकुण्णि नायर की पत्नी। उसके वस्त्र और सिर के बाल अस्तव्यस्त हैं। उसके निकट लहँगा पहने पलथी मारकर बैठी एक लड़की अश्रु-भरी आँखों से मेरी ओर देख रही थी। वह शायद सोच रही थी, रिश्तेदार होंगी, या पिताजी के स्कूल से पेंशन-प्राप्त कोई टीचर।
मैं दीवार के पास जाकर चटाई पर बैठ गयी। रोना और बढ़ गया। मैंने मृत शरीर की ओर देखा, काल की काली छाया का स्पष्ट रूप देखा। विश्वास करना कठिन था कि यह निश्चल शरीर एक दिन चलता-फिरता पुतला था। अब मेरा कर्तव्य है, दूसरों को सांत्वना देना। परिपाटी के अनुसार मृत व्यक्ति के सद्गुणों का, जिनका उसमें अभाव था, बयान करना, आशिर सारे मामले को एक ही शब्द में समा देना—किस्मत !
यह सब मुझसे नहीं हो सकता। मेरे विचार में दुःख एक ऐसी चीज है, जिसे स्वयं सूख जाना चाहिए। कोई उसकी पुनः-पुनः याद दिलाये, तो वह घटने की बजाय बढ़ने लगता है। मैं एक ऐसे मन की मालकिन हूँ, जो खूब पढ़-पढ़कर परिपक्व हो चुका है। मेरी विचारधारा अब ऐसी बन गयी है कि स्वयं जिन्दगी को ही एक स्थगित मृत्यु समझती हूँ। किंतु इन दार्शनिक विचारों को इनसे कहने से क्या लाभ ! फिर भी बोली–अब रोने से क्या लाभ !
मेरे ऐसा कहने पर रुदन बढ़ गया।
वहाँ बैठे एक युवक के घुंघराले बाल और मुखड़ा देखकर एक पुराना रूप याद हो आया। सोचा, शायद यह सबसे बड़ा बेटा होगा।
बाहर धीमी आवाज में बातचीत सुनायी पड़ी। बहुत संभव है, मेरे बारे में ही हो। लेकिन मैं उनके सामने गणित का एक ऐसा सवाल ही बनी रहूँगी, जिसका उत्तर उन्हें नहीं मिलेगा। उस सवाल का उत्तर बाहर खड़ा ड्राइवर जानता है। शायद मेरे बारे में उनकी जिज्ञासा उन्हें ड्राइवर से पूछने की प्रेरणा देगी। अच्छा, मेरे बारे में जान लें। तो भी मुझे क्या ! मेरी उम्र तो साठ से ऊपर की हो गयी है। अब जिंदगी के कितने दिन बाकी रह गये हैं !
बच्चे के सिर पर मैंने प्यार से हाथ फेरा। वह युवक बड़े विनीत भाव से कमरे के कोने पर खड़ा है। कई बातें पछकर जानने की इच्छा है। न पूछे, तो भी क्या !
अच्छा, अब उलूंगी। इस प्रकार यहाँ बैठे रहना असह्य है मेरे लिए नहीं, इस स्त्री के लिए। यहाँ मेरे उपस्थित रहने तक उनका दुःख बढ़ता ही रहेगा। दीवार के सहारे उठ खड़े होने पर देखा कि युवक अपने आँसू पोंछ रहा है। मेरी आँखों में आँसू की एक बूंद भी क्यों नहीं आती ? क्या मेरी आँखों के आँसू सदा के लिए सूख गये? हाँ, कई सालों से मैं अपने हृदय को इतना कठोर बनाती आयी हूँ कि करुण प्रसंगों में भी आँसू नहीं आते।
मैंने साड़ी के अग्रभाग से चश्मा साफ किया। शायद मेरी आँसू-रहित आँखों को देखकर अन्य लोग चकित हो रहे होंगे कि यह भी कैसी स्त्री है ! बाहर की ओर चली।
ड्राइवर वहाँ के एक नारियल के पेड़ के तले खड़ा बीडी के कश खींच रहा है। परिवार का एक अधेड़ उम्र का आदमी एक कर्मी को थोड़ा सरकाते हुए बोला—बैठिए।
बैठ गयी। लगता है, उसने मेरे बारे में ड्राइवर से पूछकर जान लिया है। उसने सामने की तिपाई पर रखे पान-सुपारी की ओर संकेत करते हुए कहा-पान लीजिए न !
—मैं पान नहीं खाती।
अंदर से युवक बाहर आया ओर सिर झुकाये, शोक से मूक खड़ा रहा। मैंने चारों ओर देखा। दीवार पर एक फीका-सा फोटो दिखायी दिया, पाँच दिनपहले जीवनरूपी गलती को मौत से सही कर देने वाले व्यक्ति का। उसे थोड़ी देर ताकती रह गयी।
मेरे चारों ओर खड़े लोग मेरी हर प्रतिक्रिया को गौर से देख रहे हैं। शायद वे मुझसे कुछ सुनने को उत्सुक हैं। मैंने पूछा—इतनी जल्दी कैसे मृत्यु हो गयी ?
-कुछ दिनों से बीमार थे। काफी बूढ़े और कमजोर हो चुके थे, कहकर युवक ने आँसू पोंछ लिये।
जब मैंने सिर हिलाकर उसे पास बुलाया।
-सोलहवाँ किस दिन पड़ता है ?
-आगामी सोमवार के बाद वाले सोमवार को।
-तुम कोई काम करते हो ?
-एक सोसाइटी में नौकरी करता हूँ...फिलहाल।
-वेतन कितना मिलता है ?
वह थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला—पचास रुपये।
बस, इतना संवाद काफी होगा। अधिक बातें करना अच्छा न होगा। कई प्रश्न पूछे जायेंगे, जिनका उत्तर न दे सकूँगी, न दिये बिना रह सकूँगी। पैंतीस साल काई से आवृत चट्टानों की भाँति मेरे सामने बिखरे पड़े हैं।
सबेरे कार में चढ़ते वक्त आलमारी से दस-दस रुपये वाले कुछ नोट निकालकर रख लिये थे। कितने थे, मैंने गिने नहीं थे।
इस युवक के चेहरे पर फैली शोकभावना को देखकर उनकी दरिद्रावस्था समझ में आयी।
—नाम क्या है ?
—अरविंदन् !
खिड़की की चौखट पर कुछ भस्म और कुछ अधजले फूल दिखायी पड़े। उस अधखुली खिड़की का दूसरा आधा भाग खुलने पर, वह कमरा, जिसमें मृत्यु हुई थी, पूरा दिखाई देता था। एक चारपाई, तेलरहित दिया एवं रामायण, यह ऐलान कर रहे हैं कि यही वह कमरा है जिसमें मृत्यु हुई है।
उस खिड़की की भाँति मन के अंदर भी तो एक खिड़की है। उस खिड़की को खोलूँ, तो...
इसी तरह लगभग पैंतीस वर्ष पहले मैं एक कमरे में एक दीप के सामने बैठी थी। प्रसिद्ध ज्योतिषी गंगाधरनुण्णिप्पणिक्कर ने मेरी कुंडली देखकर बताया भर्तृसुख अधिक काल तक प्राप्त न होगा ! साथ ही उसका कारण भी उन्होंने बता दिया—पूर्व जन्म में पति को धोखा दिया था ! अंत में एक और भविष्यवाणी भी इस स्त्री के बच्चे नहीं होंगे !
फिर भी विवाह किया। मैं उस समय इक्कीस साल की थी। जिस स्कूल में पढ़ाती थी, वहाँ के लड़के मुझे बहुत चाहते थे। लड़के ही क्या, उस स्कूल में पढ़ाने वाले एक अध्यापक भी मुझे चाहने लगे। कई शत्रु बन गये। कुछ शरारती लड़कों ने स्कूल की दीवारों पर कुछ अश्लील चित्रों के नीचे हम दोनों के नाम लिख दिये थे। कुंनिक्कवम्म टीचर : शंकुण्णि, मास्टर।
बिना किसी विशेष कारण के कई लोगों का विरोध करके, कई लोगों का कोप-भाजन बनके हम दोनों ने प्राइवेट बस से गुरुवायूर जाकर विवाह कर लिया। उस समय सोचा था, ज्योतिषी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध न होगी। पर वह सत्य सिद्ध हुई। पाँच वर्ष के अर्से में स्पष्टतः मालूम हो गया कि मेरे बच्चे न होंगे और उन्होंने मुझसे विवाह-विच्छेद कर लिया। एक दिन दोपहर के वक्त विच्छेद-पत्र पर हस्ताक्षर करके वकील के दफ्तर से घर लौटी। उस दिन मन:स्थिति कैसी थी, अब सोच भी नहीं सकती। बहुत देर रोयी। रो-रोकर थक कर आँखें झपक गयीं, तो आत्महत्या के सपने आये।
थोड़े दिनों की छुट्टी लेकर घर में विश्राम करती रही। धीरे-धीरे मन को कुछ तसल्ली हुई। काम में मन लगाने लगी। क्रमशः तरक्की पाकर हैड मिस्ट्रेस बनी। पंखे वाले कमरे में बैठकर स्कूल के सारे काम-काज कुशलता से देखने लगी। अध्यापक-अध्यापिकाओं को आवश्यक निर्देश दिये। काफी यश व धन पाया। यश की निरर्थकता जानकर भी रिटायर्ड होने पर एक नेमबोर्ड लगवाया ही : पी. कुंनिक्कावम्म रिटायर्ड हेड मिस्ट्रेस।
...ड्राइवर कुछ पास आया। तभी अपनी यादों से छूटकर घड़ी पर दृष्टि डाली। ग्यारह बज चुके हैं। जाने का समय हो रहा है। वह युवक दीवार की टेक लिये चुपचाप खड़ा है।
उठी। पर्स से कुछ नोट निकाले। सौ से अधिक रुपये रहे होंगे।
-अरविन्दन् !
वह जब बिल्कुल पास आ गया, तो मैंने नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा—ये रख लो। सोलहवें के लिए।
लेने में संकोच करता वह खड़ा रहा, तो उसके हाथ में बलपूर्वक थमा दिये। मैं जानती थी कि वह लिये बिना नहीं रह सकता। मृत्यु उस व्यक्ति की हुई है जो सारे परिवार को साया दे रहा था। यह जानकर ही मैंने उसे ये रुपये दिये थे। मेरे लिए तो यह एक छोटी-सी रकम ही है...बैंक में जो धन पड़ा है, उससे हर महीने मिलने वाले ब्याज की चौथाई ही होगी–देते-देते सोचती रही यह सब कमाई किसके लिए ?
सीढ़ियाँ उतरते-उतरते सारे जीवन की निरर्थकता पर सोचने लगी। यह सब झंझट किसलिए?
हिमालय के हिमाच्छादित प्रदेशों में निस्पृह जीवन बिताने वाले ऋषिपुंगवों की याद आयी। उनके लिए मनुष्य-मनुष्य के सारे संबंध मानव के सारे विकार केवल जूठन के समान हैं, मैंने भी एक वृद्धा तपस्विनी में परिणत हूँगी और शेष जीवन काषाय वस्त्रों बिताऊँगी। समीपस्थ मंदिर से कुछ लड़कों के गाने की आवाज आयी :
...हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे...
आँगन में उतरी। अंदर से रुदन जिसे मैंने समाप्त समझ लिया था, फिर बुलंद हो उठा। शायद उन लोगों ने मुझे उतरते देखा हो। क्या फिर अंदर जाकर उनसे बिदा लूँ ? नहीं, फिर रुदन बढ़ेगा।
शायद मुझे उनके मरने के पहले ही आकर देख लेना चाहिए था। किसी ने सूचना नहीं दी। पर यदि सूचित करते, तो भी मैं आती ? शायद ही ! मुझमें किसी के प्रति प्रतिकार की भावना नहीं है, यद्यपि घटना ऐसी ही घटी है कि कुछ लोगों के प्रति द्वेषाग्नि को मन में सुलगाये रखना उचित ही था। कई दिनों तक वह आग मन में थी भी। अब वह बुझकर राख हो चुकी है।
ड्राइवर सीढ़ी पार कर गया। एक बार और घड़ी पर निगाह डाली। अच्छा, अब विदा लूँगी।
आँगन में हवा से इधर-उधर हिलते हुए पेड़ के नीचे थोड़ी देर खड़े रहते समय एक बात याद आयी। शायद अगले महीने के प्रथम सप्ताह में एक तीर्थयात्रा होने वाली थी। आश्रम से स्पेशल बस द्वारा चलने का विचार था। काशी, रामेश्वर, बद्रीनाथ...
पुनर्जन्म, पाप-पुण्य आदि में विश्वास रखने वाले व्यक्ति के लिए ऐसी तीर्थ-यात्रा करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। उनकी अस्थियों को गंगा में बहा दूँगी। किंतु क्या सचमुच उस पानी में पापों को धो डालने की शक्ति निहित है ?
—अरविंदन !
-जी!
—मैं अगले महीने काशी जा रही हूँ। उसके पहले अस्थियाँ पहुँचा दोगे, तो गंगा में बहा दूँगी।
उसने अपने आँसुओं को पोंछते हुए सिर हिलाया।
उसे सांत्वना देकर, एक बार पीछे देखकर, वहाँ खड़े सब लोगों से विदा लेकर चल पड़ी।
भगवान सांख्ययोग में कहते हैं : जो चपल इंद्रियों के वश में हो जाता है, उसका मन उसकी प्रज्ञा को पानी में नाव की तरह इधर-उधर डुलाता रहता है...
आते वक्त जिस छोटे नाले को पार किया था, उसके पास आने पर कुछ रुक गयी। वहाँ पानी में वह नाव दिखाई नहीं पड़ी।
आते समय की ही भाँति हाथ में जते लेकर नाले को पार किया। पानी डोल उठा। तभी देखा, नाव एक ओर जाकर किनारे के कीचड़ पर निश्चल पड़ी है। स्याही से अंकित कोई पुराने कागज का टुकड़ा मात्र ! न उसमें कोई स्पंदन है, न जीवन।
ड्राइवर ने कार का दरवाजा खोला। पुनः जूते पहन लिये और कार के अंदर जाकर बैठ गयी।
ड्राइवर ने पूछा-सीधे घर चलूँ?
तभी याद आयी कि उस घर से निकल रही हूँ, जिसमें मृत्यु हुई है, स्नान करना चाहिए परिपाटी के अनुसार। मृत्यु को धिक्कारना अच्छा नहीं। ऐसा धिक्कार जिन्दा व्यक्तियों के लिए खतरनाक है।
—नहाना है...भारतपुष्प में पानी बहुत कम है। पांबाट टिक्कडवु के पास रोको।
फिर धूल उड़ाती हुई कार चलने लगी। उस उड़ती हुई गर्द में सारे वृक्ष, घर, पश्चिमी घाट, सब छिप गये।
अनुवाद : विद्वान् के नारायण