बिट्टो (अतीत के चलचित्र) : महादेवी वर्मा

Bitto (Ateet Ke Chalchitra) : Mahadevi Verma

कुलमणि मल्लीताल के बाजार से तब तक लौट नहीं पाया था; पर झील के किनारे पड़ी हुई उस शिला पर बैठे-बैठे मेरा मन ऊबने लगा और पत्तियों की झालरदार शाखाओं की पानी में झूलती हुई छाया के साथ प्राणायाम करते-करते मेरी दृष्टि थक चली। सहसा 'अरे यह तो महादेवी हैं' सुनकर जब मैंने पार्श्ववर्ती मार्ग की ओर मुँह फेरा, तो सैंडल की दो पतली ऊँची एड़ियों पर अपने कुछ स्थूल शरीर का संतुलन - सा करती हुई मेरी एक पुरानी साथिन, विचित्र व्यायाम की मुद्रा में खड़ी दिखाई पड़ीं।

पर्वतीय भूमि मेरी धात्री माँ बन गई है। पैदल ही कई सौ मीलों की यात्रा कर मैंने उसकी प्रशांत सुषमा और प्रमुख जीवन को अनेक रूपों में देखा है; परंतु उस निस्तब्ध सौंदर्य और नगर के कोलाहल में मैं अब तक कोई समझौता न करा सकी। अपनी धूल भरी धरती का अंक छोड़ कर मुझे उन्हीं तुषारधौत चरणों में विश्राम मिलता है, जिन्होंने साधना के धूल के विशाल दुर्ग बनाकर अपनी करुणा को हमारे लिए सुरक्षित रखा है।

यहाँ के बवंडर की गठरी बाँध ले जाकर, उसे वहाँ खोल देना मुझे कभी नहीं भाया, इसी से नैनीताल, मसूरी आदि मेरे निकट उस अपटु नट जैसे रहे हैं, जो अपना व्यक्तित्व भी खो देते हैं और दूसरे की भूमिका भी नहीं निभा पाते।

मेरे ज्वर से चिंतित होकर डाक्टरों ने जब कुछ महीने पहाड़ पर रहने की सम्मति दी, तब मैंने बहुत हठ करके नैनीताल के कोलाहल से तीन मील दूर ताकुला में रहने की अनुमति प्राप्त कर ली; पर सप्ताह में एक बार डाक्टर से परामर्श लेने जाना ही पड़ता था और नौकर जब तक आवश्यक वस्तुएँ खरीदता तब तक झील के बाईं ओर वाले कुछ सुनसान किनारे पर ठहर कर उसकी प्रतीक्षा करनी ही पड़ती थी ।

पर उस दिन अपनी बाल्यसखी को पाकर मुझे सचमुच आनंद हुआ। वह अपने दो छोटे बच्चों के साथ ऊपर जिस बँगले में ठहरी थी, वहाँ तक न जाने का कोई बहाना खोजने की इच्छा ही नहीं हुई ।

जीवन का बहुत समय पार कर जब दो साथी मिलते हैं, तब वे कितने ही प्रकार से बीते क्षणों में एक बार फिर जीने का प्रयास करते हैं, इसे कौन नहीं जानता। हम दोनों ने भी अपने जीवन के चित्राधारों को एक-दूसरे के सामने रख अपने अनुभवों को मिलाने में कुछ समय बिताया ही ।

अतीत की फीकी स्मृति में रंग भरते भरते सखी ने एक परिचित वृद्ध सज्जन के संबंध में बताया कि वे अपनी तीसरी नवोढ़ा पत्नी को नैनीताल दिखाने लाए हैं। मेरी आँखों का विस्मय अपनी गुरुता के कारण ही शब्दों में न उतर सका। वृद्ध जीवन के कम से कम 54 वसंत और पतझड़ देख चुके होंगे - दो अर्धांगिनियाँ मानो उनके जीवन की द्रुत गति से पग न मिला सकने के कारण ही उनका संग छोड़ गई हैं। उनसे मिले उपहार स्वरूप दो पुत्रों में से एक कलकत्ते में कोई व्यवसाय करता है और दूसरा ससुराल की धरोहर बन गया है। दो मकान और कुछ धन है, इसी से वानप्रस्थ आश्रम को भी कुछ सरस बनाए रखने के लिए वृद्ध महोदय को एक संगिनी ढूँढ़ने की आवश्यकता जान पड़ी।

मेरी नीरव जिज्ञासा से प्रभावित होकर सखी कुछ स्निग्ध कंठ से बोली, “तुम न डरो। इस बार उन्होंने एक पैंतीस वर्ष की बाल-विधवा का उद्धार किया है।"

- मेरे 'असम्भव' में जितना अविश्वास था, उतना ही व्यंग ओठों में भर कर वे मुस्कराने लगीं। कुछ वाद-विवाद के उपरांत यह निश्चित हुआ कि वे लौटते समय उससे मेरा परिचय करा देंगी ।

मल्लीताल में एक दूकान के ऊपर दो कमरे लेकर वृद्ध सपत्नीक ठहरे थे। जीने का द्वार खटखटाने पर जिस स्त्री ने वृद्ध महोदय की अनुपस्थिति की सूचना देकर बड़े विनीत भाव से हमारी अभ्यर्थना की, वह मुझे बहुत दुर्बल, कृश और रोगिणी - जैसी जान पड़ी। एक सोने की नई जंजीर उसकी दुबली, सूखी, उभरी हड्डियों से सीमित और झुर्रियोंदार रक्तहीन चर्म से मढ़ी गर्दन का उपहास कर रही थी। कुछ पुरानी गढ़न के इयरिंग झाईंदार सूखे और चिपके कपोलों पर व्यंग से लगते थे। आँखें बड़ी थीं; पर उस सूखे मुख और रूखी पलकों में ऐसी जान पड़ती थीं; मानो ऊपर से रख दी गई हों और पलक मारते ही निकल पड़ेंगी। नीचे के दो दाँत कदाचित् गिरने से टूट गए थे, क्योंकि एक पूरा अदृश्य था और दूसरा आधा दिखाई दे रहा था ।

पैंतीस वर्ष का दीर्घ वैधव्य पार कर, चिता में बैठे हुए वृद्ध वर के लिए पुनः स्वयंवरा बनने वाली वह दुर्बल और थकी हुई-सी स्त्री मेरे लिए एक साकार विस्मय बन गई। टसर की मटमैली साड़ी में लिपटी उस संकुचित मूर्ति में न रूप था, न स्वास्थ्य, न कोई उमंग शेष थी, न उल्लास ।

फिर क्या लेकर वह नई गृहस्थी बसाने चली है, यह प्रश्न अनेक रूप-रूपांतरों के साथ मेरे मन को घेरने लगा ।

वह प्रथम भेंट यदि अंतिम हो जाती, तो आज कहने के लिए कुछ न रहता; पर सीढ़ियों से उतरते ही रूमाल में खूबानी बाँध कर लौटे हुए वृद्ध सज्जन से भेंट हो गई। एक-एक साँस में अनेक अनेक निमंत्रण दे उन्होंने अपनी नवागता पत्नी से परिचय बढ़ाने पर बाध्य किया और इस प्रकार मैं उस विचित्र सौभाग्यवती के फूटे भाग्य से भी परिचित हो सकी।

वह तीन भाइयों में अकेली बहिन होने के कारण विशेष दुलार में पल कर बड़ी हुई । विवाह उसके अबोधपन में ही हो गया और वैधव्य भी अनजाने आ पड़ा। न पहली स्थिति ने उसे उल्लास में बहाया था, न दूसरी स्थिति उसे निराशा में डुबा पाई । विवाह के साल ही पुत्र की मृत्यु हो जाने के कारण ससुराल वाले वधू का नाम लेना भी अशुभ मानने लगे और दुःखी माता-पिता ने भी नवनीत की पुतली के समान सँभाल कर पाली हुई कन्या को उस ज्वाला में झोंकना उचित न समझा। दुर्दैव के इस आघात को कुछ सह्य बनाने के लिए माता-पिता ने अपना समस्त स्नेह उड़ेलकर उसे किसी अभाव का बोध ही नहीं होने दिया, इसी से अभिशप्त पर शाप से अनजान, किसी परीदेश की राजकन्या के समान वह अपने-आप में ही पूर्ण रहने लगी।

फिर माता जब परलोक सिधारीं, तब भी पिता के कारण उसकी स्थिति में कोई परिवर्तन न आने पाया। परंतु पिता के आँख मूँदते ही मानो संसार की सब वस्तुओं का मूल्य ही बदल गया। उस एकमात्र ढाल के नष्ट होते ही उस पर ऐसे असंख्य असंख्य प्रहारों की वर्षा होने लगी, जिनकी उपस्थिति का ज्ञान न होने के कारण ही बचाव के साधन भी उसे ज्ञात न थे। अब तक पति उसके निकट ऐसा ही था जैसा ईश्वर, जो हमारी इंद्रियों से परे रहकर भी हमारे हृदय की अचल श्रद्धा और अडिग विश्वास का आधार बना रहता है। भावुक उपासक के समान उसने बिना तर्क किए ही एक सुखमय साधना से अपने जीवन को घेर लिया था।

जब पहले-पहले भाभियों ने पति की मृत्यु का दोषी उसी को ठहराया और पड़ोसिनों ने उसके किसी अज्ञात अभाव को लक्ष्य कर व्यंग-वर्षा की, तब उसका हृदय पीड़ा की अनुभूति के साथ वैसे ही चौंक पड़ा, जैसे सोता हुआ व्यक्ति अंगारे के स्पर्श से जाग जाता है।

फिर तब से उसके लिए नित्य नवीन मानसिक और शारीरिक यातनाओं का आविष्कार होने लगा । घर के नौकर-चाकर कम किए गए पहले संकेत में, फिर स्पष्ट रूप से और अंत में आज्ञा के स्वर में उससे सब काम सँभालने के लिए कहा जाने लगा । अनभ्यास से उत्पन्न भूलों के लिए भाभियों के द्वारा कुछ विशेष पूजा भी मिलने लगी। उस पर किसी दिन उसका मन हाथों पर लिए रहने वाली भाभियाँ कहत थीं कि उसके भाई सतयुग के हैं, नहीं तो कौन एक निठल्ले व्यक्ति को बैठे-बैठे खिला सकता है। यह स्वर तो उसके लिए एकदम नया था। वह समझ ही न पाती थी कि जिस घर में उसका जन्म और पालन हुआ है, उसी में यदि रात-दिन काम कर के अपने ही सहोदरों से उसे भोजन-वस्त्र मिल जाता है, तो उसे कृतज्ञता के समुद्र में क्यों डूब जाना चाहिए। अकेले बड़े भाई ही नौकर थे, शेष दोनों उसी जमीन-जायदाद की देख-रेख में लगे रहते थे जो उसके भी पिता की थी।

धीरे-धीरे वैसे विषाक्त वातावरण में उसका शरीर शिथिल हो चला और मन टूट गया। ज्वर रहने लगा, बेहोशी के दौरे आने लगे। किसी ने कहा -क्षय का पूर्व लक्षण है; किसी ने बताया- मृगी रोग है । रोग तो दोनों संक्रामक थे; अतः बेचारी भाभियाँ अपने कुटुंब की कल्याण- कामना से आकुल होने लगीं। परामर्श करके छोटे भाई के द्वारा उसके देवर को पत्र लिखवाया गया; परंतु वहाँ से उत्तर आया कि वे लोग उसे पहचानते ही नहीं जान पड़ता है किसी अनाचार के कारण वे उसे उन निर्दोषों के गले मढ़ना चाहते हैं; यदि वे ऐसा करेंगे तो न्यायालय तो कहीं भाग नहीं गए हैं।

निरुपाय होकर बड़ी भाभी ने स्नेहस्निग्ध कंठ से अपने पति महोदय से कहा - " अब तो विधवा विवाह होने लगे हैं। बेचारी बिट्टो का विवाह कर दिया जाए तो कैसा हो !” जिज्ञासु भाई ने जब बहिन की इच्छा के संबंध में प्रश्न किया, तब भाभी ने ममताभरी वाणी में उनकी नासमझी की टीका करते हुए बताया कि ऐसी इच्छा तो कोई निर्लज्ज लड़की भी नहीं प्रकट करती, बिट्टो तो लज्जा-साकार है; परंतु विवाह न होने पर उसका घुट-घुट कर मर जाना निश्चित है ।

जिस समाज में 64 वर्ष का व्यक्ति 14 वर्ष की पत्नी चाहता है, वहाँ 32 वर्ष की बिट्टो के पुनर्विवाह की समस्या सुलझा लेना टेढ़ी खीर थी। उसके भाग्य से ही 150 वर्ष की पूर्णायु वाला कोई पुरुष न मिला और उसके जन्म-जन्मांतर के अखंड पुण्य फल से 54 वर्ष के बाबा ने उसके उद्धार का बीड़ा उठाया ।

जब भाभी ने उसे यह सुखद समाचार सुनाया, तब पहले तो यह सत्य उसकी बड़ी-बड़ी शून्य आँखों की दृष्टि को भेदकर हृदय तक पहुँच ही नहीं सका और जब अनेक प्रयत्न करने पर पहुँचा, तो उसका परिणाम विपरीत ही हुआ । बिट्टो ने बहुत करुण क्रंदन के साथ विवाह का विरोध किया; पर परोपकारियों का मार्ग न समुद्र रोक सकता है और न पर्वत ।

किसी ने उसे भाई-भतीजों की कल्याण- कामना की आवश्यकता बताई, किसी ने रोग की संक्रामकता की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया और किसी ने उसके जर्जर शरीर की अनुपयोगिता सिद्ध की। संभवतः वृद्ध वर को मृत्यु के निकट जानकर ही किसी ने उनके कल्याण की चिंता नहीं की। अंत में एक शुभ मुहूर्त में जलती हुई; पर सूखी आँखों से, बिट्टो ने पितृगृह की देहली को अंतिम प्रणाम करके धीर पदों से उस कई बार बसे उजड़े घर में प्रवेश किया, जहाँ उसके आगमन से अपना असहयोग प्रदर्शित करने के लिए एक प्राणी भी स्वागतार्थ उपस्थित न था ।

यही उपसंहार-हीन करुण-कथा बिट्टो ने मुझे अनेक भेंटों में खंड-खंड करके सुनाई । उसकी व्यथा अपनी गंभीरता के कारण ही दुर्बोध बन गई थी । हमारे यहाँ का पुरुष उसे ठीक रूप में किस अंश तक समझ सकेगा, यह कहना कठिन है। पुरुष बेचारे की उग्र तपस्या और अखंड साधना स्त्री के द्वारा प्रायः भंग होती रही है, इसी से उसने इस मायाविनी जाति के स्वभाव की व्याख्या करने के लिए पोथे रच डाले हैं ।

स्त्री जब किसी साधना को अपना स्वभाव और किसी सत्य को अपनी आत्मा बना लेती है, तब पुरुष उसके लिए न महत्त्व का विषय रह जाता है, न भय का कारण, इस सत्य को सत्य मान लेना पुरुष के लिए कभी संभव नहीं हो सका। अपनी पराजय को बलात् जय का नाम देने के लिए ही संभवतः वह अनेक विषम परिस्थितियों और संकीर्ण सामाजिक, धार्मिक बंधनों में उसे बाँधने का प्रयास करता रहता है । साधारण रूप से वैभव के साधन ही नहीं, मुट्ठी भर अन्न भी स्त्री के संपूर्ण जीवन से भारी ठहरता है । फिर भी स्त्री को हारा हुआ मेरा मन कैसे स्वीकार करे, जब तक उसके परिस्थितियों से चूर-चूर हृदय में भी आलोक की लौ जल रही है।

महीयसी बिट्टो को तो एक दिन बस में बैठाकर विदा देनी ही पड़ी; पर उसकी कहानी मेरे हृदय के कोने-कोने में बस-सी गई। इसी से कभी-कभी उन्हीं सखी महोदया को लिखकर उसके संबंध में पूछना ही पड़ जाता है।

आज प्रायः चार वर्ष के बाद उसके संबंध में एक असाधारण समाचार मिला है। सखी ने लिखा है कि वृद्ध विषम ज्वर से पीड़ित होकर अंतिम घड़ियाँ गिन रहे हैं। बहुएँ तो नहीं; पर दोनों पुत्रों ने आकर मकान, रुपया आदि अपनी धरोहर सँभालने का पुण्य अनुष्ठान आरंभ कर दिया है। सुपुत्रों को यह तीसरी विमाता फूटी आँख नहीं सुहाती, अतः अब बेचारी बिट्टो का भविष्य पहले से अधिक अंधकारमय है ।

मन में आ रहा है कि मंदबुद्धि सखी को एक लंबा-चौड़ा व्याख्यान लिख डालूँ । मनु महाराज जो कह गए हैं, उसे असत्य प्रमाणित कर कुंभीपाक में विहार करने की इच्छा न हो, तो यह कहना ही पड़ेगा कि बिट्टो तीसरे विवाह की इच्छा को हृदय के किसी निभृत कोने में छिपाए हुए है और उसके उद्धार के लिए निरंतर कटिबद्ध वृद्ध परोपकारियों की, इस पुण्यभूमि में और विशेषकर इस जाग्रत - युग में कमी नहीं हो सकती।

फिर इतने विलाप -कलाप की क्या आवश्यकता है ?

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