बिरजा (बांग्ला उपन्यास) : तारकनाथ विश्वास

Birja (Bangla Novel) : Taraknath Biswas

प्रथमाध्याय : बिरजा (उपन्यास)

आषाढ़ मास है; समय एक पहर भर मात्र दिन शेष है, आकाश के उत्तर पूर्व कोण में एक खण्ड वृहत् नील मेघ सज रहा है, उसके इतस्ततः कई एक क्षुद्र वारिदखण्ड छूट रहे हैं। भगवान् कमलिनीपति ज्यों ज्यों अस्ताचल शिखरावलम्बी होने लगे, वृहत् वारिदखण्ड भी त्यों त्यों वृहत होने लगा। ग्राम में जैसे किसी के बलवान और क्षमताशाली होने से पांच जन उसके शरणागत हो जाते हैं उसी प्रकार क्षुद्रकाय वारिदखण्ड समूह भी देखते देखते वृहत वारिदखण्ड के संग मिल गये। सूर्य्य-किरणों से मेघ समूह का पश्चिम प्रान्त रक्तवर्ण हो गया। झड़ वृष्टि के आगमन का पूर्व लक्षण देखकर गगनविहारी बिहङ्गम धीरे २ निम्न गमन करने लगे। दो एक श्वेतकाय पक्षी वारिदखण्ड को विद्रूप करने के छल से उसके इधर उधर फिरने लगे। नदी और पतिव्रता नारी का एक ही स्वभाव है। जैसे स्वामी का मुख विषण्ण देखने से पत्नी का बदनकमल भी विपन्न हो जाता है, वैसे ही वारिद खण्ड को कृष्णकाय देखकर पतितपावनी भागीरथी भी कृष्णकाय हो गईं।

इस समय एक नौका गङ्गा में होकर नवद्वीप से कलकत्ते के अभिमुख जाती थी। वह नौका आषाढ़ मास की गङ्गा के तीक्ष्ण स्रोत के वेग में पूर्व पर होकर द्रुत गमन से जा रही थी, आरोही लोग छप्पर के भीतर थे और अति असमय में आहार करके सो रहे थे। आकाश में जो निविड़ कृष्णवर्ण मेघ छा रहा है यह उनलोगों ने नहीं देखा जिस स्थान में होकर नौका जाती थी, वह स्थान ऐमे विपद् के समय नौका ठहरने के उपयुक्त नहीं थी। आकाश में जो कृष्णकाय मेघ उपस्थित हो रहा था उसे नौका के केवल एक प्रधान माझी ने देखा और देखते ही बड़ा भयभीत हुआ उपयुक्त स्थान पाने से वह उसी क्षण नौका ठहरा देता, परन्तु स्थान नहीं था। इसी समय जो लोग नौका की सन्मुख दिशा में बैठकर बल्ली चला रहे थे, उनमें से एक जन ने अनुच्चैःस्वर से माझी से सम्बोधन करके कहा कि "दादा क्या अनुमान करते हो?" माझी ने कहा "और क्या अनुमान करूँगा देखते नहीं हो कि सब पक्षी नाच रहे हैं?" पश्चात् भाग से आरोही लोग कहीं न सुन लें और सुन करके भीत न हों इस निमित्त उन्होंने अनुच्चैः स्वर से बात चीत की, परन्तु वह उनलोगों के निकट अव्यक्त नहीं रही।

नौका में सभी सो रहे थे केवल एक बालिका जागती थी। आकाश में क्या हो रहा है यह कुछ उसने नहीं देखा, परन्तु गङ्गा का जल अत्यन्त कृष्णवर्ण देखकर वह चमत्कृत और भीत हो गई। अब वह मांझियों की बात चीत सुनकर आपही आप कहने लगी कि "गङ्गा का जल ऐसा क्यों हो गया? ज्ञात होता है आकाश में बादल हुआ है"। उसकी बात एक जन युवक आरोही के कान में पड़ी वह आकाश में बादल होने की बात सुनतेही चौंक कर उठ बैठा। नाव का आवरण (पर्दा) खोलकर देखा तो पूर्व और उत्तर दिशा में भयानक बादल हो रहा है। वह भृत्य को तम्बाकू भरने की आज्ञा देकर छप्पर पर चढ़ गया। वहां वैठकर सोचने लगा। युवक बड़ा भीत हो गया था। यदि वह इस समय एकाकी इस नौका में होता, तो इतना भीत न होता पर उसके संग में दो स्त्रियें थीं।

भृत्य ने हुक्का बाबू के हाथ में दिया। बाबू हुक्का पीते पीते मांझी से बोले "जहां कहीं हो एक ठौर नौका ठहरा दो"। मांझी ने कहा "महाराज! इस पार नौका रखने की ठौर नहीं है, और यहां से दो कोस और आगे चलने पर भी इस पार नौका ठहराने का स्थान नहीं पावेंगे, यदि आज्ञा हो तो उस पार जाकर नौका खड़ी कर दें"। बाबू ने कहा "पार चलने का अब समय नहीं है पार चलते २ बीच मेंही जल झड़ आय कर गिर सकती है इससे इस पारही नौका ठहरा दो"। नौका में एक मनुष्य पूर्व बङ्गाल अञ्चल का मुसलमान था। वह बाबू की बात से विरक्त होकर कहने लगा कि "इस पार क्या जान खुवाने के लिये नाव ठहराओगे? अल्लाह वेली है उस पार नाव ले चलो जो नसीब में होगा आप से आप हो रहैगा" इसकी बात सुनकर बाबू को क्रोध आया और कहने लगे कि "मांझी! इसकी बात मत सुनो क्योंकि नौका डूबने से इनलोगों को तो कुछ भय हैही नहीं यह लोग तो जल जन्तु होते हैं'। बसरुद्दीन, बाबू की बात सुनकर बड़े क्रोध से कहने लगा "बाबू! बात कहो गाली क्यों देते हो? और जो मैं कुसूर करूँ मुझे गाली दो देश के लोगों को क्यों गाली देते हो? हमें गाली दो हम सह सकते हैं, देश के लोगों को गाली देने से हमारे दिल में चोट लगती है"।

मांझी ने बसरुद्दीन को दो एक मिन्ट भर्त्सना करके चुप किया। अनन्तर बाबू से कहा कि "बाबू पूर्व में पवन है, देखते देखते पार पहुँच जायँगे डर नहीं है"। मांझी आप डरता था तथापि बाबू से कहा कि "डर नहीं है"। मनुष्य का यह स्वभावही है कि आप विषद सागर में गिर कर और से कहता है कि "डर नहीं है"।

बाबू ने मांझी की बात सुनकर कुछ उत्तर नहीं दिया पर मांझी उनका मौनभाव सम्मति लक्षण जानकर पार ले चला। वह मुसल्मान लोग पाल खोलकर खड़े हो गये, और "अल्लाह अल्लाह" कहकर नौका से जल गेरने लगे।

नौका के अभ्यन्तर स्त्रियों में एक बालिका और एक मध्य वयस की थी। बालिका ने उस स्त्री से पूछा कि "जीजी! तुम तैरना जानती हो?" उसने कहा "यद्यपि मेरा जन्म वक्रेश्वर नदी के तीर का है किन्तु मैं तैरना कुछ नहीं जानती।" बालिका ने फिर पूछा "यदि नौका डूबै तो क्या करोगी?" उसने कहा "ऐसी बात न कहना चाहिये स्थिर होकर बैठी रहो"।

ऐसे समय पूर्व दिशा में प्रबल वेग से वायु चलने लगी और उन्के मंगहों संग वही २ बूंदों से वृष्टि आई। गङ्गाजल के ऊपर 'चड़ चड़' शब्द से और नौका के छप्पर के ऊपर 'चटाम् चटास' शब्द से जल पड़ने लगा।

पाल में दमका वायु लगने से नाव डगमगाने लगी और उसमें बिस्तर जल भर गया। मध्या भय से कांपती थी, और त्राहि रव से गङ्गाजी को पुकारने लगी। एक जन मुसलमान ने नौका के जल गेरने का प्रारम्भ किया और सब पाल की डोरी पकड़कर खड़े रहे।

बाबू हुक्का हाथ में लेकर नीचे उतरे और नौका डूबने के समय जिस प्रकार सहज में बाहर जा पहुँचें ऐसे स्थान में खड़े रहे, बाबू की यह दशा देखकर बसरुद्दीन निकट आय कर कहने लगा "बाबू! तुम्हें डर लगता है? डरो मत, यदि नाव डूबै, तो हमारे रहते नहीं मरोगे"।

चारों ओर अन्धकार करके भयानक झड़ वृष्टि होने लगी। नदी का कूल नहीं दृष्ट होता था। विपद निश्चित जानकर सब ईश्वर का नाम लेने लगे। युवक नास्तिक था, परन्तु इस समय उसने भी विपदबान्धव ईश्वर के ऊपर आत्मसमर्पण किया। इति मध्य में पुनर्वार दमका वायु ने आकर नौका जलमग्न कर दीं।

द्वितीयाध्याय : बिरजा (उपन्यास)

गंगा के उभय तीर गंगा यात्रियों के वास करने के लिये स्थान स्थान में घर बने हुये हैं उन्हें "मुर्दे का घर" कहते हैं। किसी को जीवन संशय पीड़ा होने से उसके आत्मीय लोग उसे वहां लाकर उसी घर में रखते हैं, गंगाप्रदेश के अति दूरवर्ती स्थानों में भी मरणासन्न पीड़ित लोग इसी भांति गंगा तीर पर लाये जाते हैं।

पाठक को उस समय हमारे संग एक मुर्दे के घर में जाना होगा। यह देखो! एक पट्टे पर एक जन वृद्ध प्राण संशय पीड़ित होकर पड़ा है। उसकी शय्या के पार्श्व में उसके दो पुत्र बैठे हैं। और यह वृद्धा जो आसन्नमरण व्यक्ति के मस्तक में हस्तप्रचार कर रही है, यह वृद्ध की पत्नी है। अटाह व्यतीत हुआ कि इस पीड़ित व्यक्ति को यहां लाये हैं। जलहिलोल में पीड़ा के किञ्चित् उपशम होने से वृद्ध के आत्मीय लोग अत्यन्त भावनायुक्त हुये, क्योंकि गंगायात्रा के पीछे किसी व्यक्ति के मरण न होने से इस देश में बड़े कष्ट का विषय होता है। बहु व्यय से प्रायश्चित करके उस दुर्भाग्य व्यक्ति को घर में ले जाना पड़ता है। तब भी एक अख्याति रही आती है। किन्तु आज झड़ वृष्टि देखकर वृद्ध के आत्मीय लोग बड़े सन्तुष्ट हैं। उन्होंने वृद्ध को गंगाजल में स्नान कराय कर दधि भात खिलाया। इस पर भी जिस घर में वृद्ध को रक्खा है उसके सब द्वार खोल दिये हैं उन खुले द्वारों में होकर विलक्षण सिग्ध मारुतहिकोल ब्टह में प्रवेश करता है इन सब कारणों से वृद्ध की नाड़ी अत्यन्त क्षीण हो गई। एक जन कविराज ने (जो निकट में था) नाड़ी पकड़कर कहा 'अब विशेष विलम्ब नहीं है।" सब जने वृद्ध के प्राणप्रयाण की प्रतीक्षा में बैठेही थे कि इतने में कविराज की अनुमति पाकर वे लोग उसे गंगाजल में ले गये। उस्को नाभिदेशपर्व्यन्त गंगाजल में रखकर और मस्तक पर गंगाजल और गंगामृत्तिका रख कर (कफ का जोर बढ़ाकर) सब जने हरिनाम करने लगे।

रात्रि दोपहर थी, इस समय दृष्टि निवारण हो गई। केवल वेग से शीतल वायु चल रही थी। वृद्ध के लिये चिता प्रस्तुत थी, केवल उस्की मृत्यु होतेही सब बानक बन जाता अनेक क्षण के पीछे उसके कठिन निर्लज्ज प्राणों ने प्रयाण किया। शास्त्रविहित कर्म करके उसकी देह चिता पर रक्खी। चिता वायुभर से जल उठी। वृद्ध की पत्नी चिता से अनति दूर गंगातीर पर बैठकर अनुञ्चस्वर से रोदन करने लगी।

कदाचित हमारे नव्यदल के पाठक कहेंगे कि “यह स्त्री बड़ी निर्लज्ज है। जिसे प्रथम बलपूर्वक मारा अब उसके लिये क्यों रोती है?" हम ऐसे पाठकों को अनुरोध करते हैं कि वह गङ्गासागर में सन्तानविसर्जन करने की कथा स्मरण करें। जो आर्थ्यमाता पुत्र के विद्याशिक्षा के लिये विदेश जाने पर रो रो कर अस्थिर होती हैं वही एक समय धर्म के अनुरोध से छाती में पाषाण बांधकर अपने हाथ से सन्तानविसर्जन करती थीं। धर्म के अनुरोध से स्त्रियेंही क्यों? पुरुष क्या नहीं कर सकते हैं? और क्या नहीं किया है।

झड़ वृष्टि थम गई है आकाश में बड़े २ नक्षत्र निकल आये हैं, अनन्त नील नभोमण्डल में शशधर दिखाई दे रहा है, भागीरथी की तरंगें नाना रंग से नक्षत्रशशधर-शोभित आकाशमण्डल की छवि हृदय में धारण करके वृत्य करतीं करती सागर के सम्मुख जा रही हैं।

पण्डित लोग कहते हैं कि इस जगत का धन मान सभी अस्थायी है, पर हम कहते हैं कि शोक दुःख भी अस्थायी है। काल में सभी सहा जाता है। वृद्धा का शोकावेग भी अनेक हास को पहुंचा। वह रोदन परित्याग कर के नीरव बैठी थो, और मन मन में कुछ भावना कर रही थी इतनेही में पासही किसी स्त्री का अनुच्च रोदन सुना। प्रथमबार सुनकर कुछ ठहरा नहीं सकी इस निमित्त फिर मन देकर सुना। जाना गया कि एक स्त्री का रोदन शब्द है। वृद्धा ने अपने कनिष्ट पुत्र को पुकारा 'गंगाधर' गंगा धर माता के निकट आया। वृद्धा ने अंगुलिनिर्देश करके कहा 'इस दिशा में स्त्री का रोदन सुना जाता है, मेरे संग आ, देखें। माता पुत्र दोनों जने चले, वहां जाय कर देखा तो एक बालिका नदी के तोर बालू के टीले पर पड़ी है, अगुञ्च रोदन कर रही है। उस रोदन करने की शक्ति कदाचित् न होगी।

वृद्धा ने अत्यन्त व्यस्तता से निकट जाय कर उसे पकड़ कर उठाते २ कहा 'बेटी! तू कौन है?" बालिका ने कुछ उत्तर नहीं दिया हाथ बढ़ाकर वृद्धा का हाथ पकड़ लिया किन्तु वृद्धा को उसके उठाने में असमर्थ देखकर गंगाधर ने उसे उठाकर गोद में ले लिया। वृद्धा ने कहा इसे उसके पास ले चलो। चलते वृद्धा ने बालिका से पूंछा "बेटी! तेरी यह दशा कैसे हुई?” बालिका ने अति अस्फुट स्वर से कहा 'नौका डूब गई" वृद्धा ने समझा कि वैकालिक झड़ ने इसकी यह दशा कर दी। चिता को पास आय कर वृद्धा ने अपनी स्वतन्त्र आंच बलाई। एक जने से एक शुष्क वस्त्र मंगवाकर बालिका को पहिनाया और उसे अग्नि के निकट बिठाकर सेकने का आरम्भ किया। बहुत सेंकते २ बालिका का शरीर किञ्चित उषा हुआ। वृद्धा ने देखा बालिका परम सुन्दरी है और शरीर में नये नये गहने भी हैं। इस समय उसने जिज्ञासा किया कि "ऐरी तेरा नाम क्या है?" बालिका ने उत्तर दिया "मेरा नाम बिरजा है।" वृद्धा ने बालिका के अई शुष्क केश पोंछते २ पुनर्वार जिज्ञासा की कि "तेरे आत्मीय कौन हैं?" बालिका ने रोते रोते कहा "हम बाह्याण है।” वृद्धा ने उस की सांत्वना करके कहा "रो मत, अभी मेरे घर चल खोज करके मैं तुझे तेरे बाप के घर भेज दूंगी और तुझे अपनी बेटी के समान रक्खूंगी।

अनेक क्षण पीछे शवदाह शेष हुआ। शास्त्र कृत्य सम्पादन करके सब जनों ने उस मुर्दे के घर में जाय कर अवशिष्ट रात्रियापन की, पर दिन प्रात:काल गंगास्नान करके सभी ने घर की यात्रा की। उस दिन वह लोग घर नहीं पहुँच सके मार्ग में एक चट्टी में रात्रियापन की दूसरे दिन तीसरे पहर घर पहुंचे। इनलोगों का घर गंगा तीर से १६ कोस दूर था। विरजा इनलोगों के संग जाय कर इनके घर में रहने लगी, और घर के सब जने यथेष्ट स्नेह करने लगे।

तृतीयाध्याय : बिरजा (उपन्यास)

जिस वृद्ध को पाठकों ने गंगातीर तनु त्याग करते देखा है उमका नाम रामतनु भट्टाचार्य था, यह विलक्षण मंगति मन्यन्त्र ग्रहस्त था। दम बीघा भूमि घेर कर उसका घर था और एक घर के बाहर और एक घर की खिरकी के पास यह दो पुकारिणी थी प्राय: दो सौ बीघा भूमि जोती बोई जाती थी। बाहर के घर और भीतर के दो उठान ऐसे घे जैसे घुड़दौड़ को होते हैं। एतङ्गित्र रुपया पैसा भी उधार दिया जाता था भट्टाचार्य महाशय के दो पुत्र हैं जिनमें ज्येष्ठ का नाम गोविन्दचन्द्र और कनिष्ट का गंगाधर है, इनके विवाह हो गये हैं इस समय गोविन्द का वय:क्रम पहविंशति और गंगाधर का अष्टादश वर्ष होगा। गंगाधर ने वर्द्धमान के इंगलिश विद्यालय में यत्किञ्जित लिखना पढ़ना सीख लिया था, हम यत्विरित कहते है किन्तु रामतनु भट्टाचार्य अपने मन में जानते थे कि इस्की अपेक्षा अधिक लिखना पढ़ना नहीं हो सका। यकिञ्चित् लिखना पढ़ना सीख कर लो दोष हो जाता है वह गंगाधर में हो गया था किन्तु गोविन्दचन्द्र बड़े धीरस्वभाव थे। यद्यपि उन्होंने कभी विद्यालय के काष्टासन का स्पर्श नहीं किया, तथापि वह सचरित्र थे। गोविन्दचन्द्र सर्वदा संसार को लेकर व्यस्त रहते थे। न तो समय में आहार होता या और न समय में निद्रा होती थी। प्रात: काल चौपाल में आते, एक दो बजे के समय घर में प्राय कर खानाहार करते। आहारान्त में फिर तटाटान (तक़ाज़ा) के लिये घर से निकलते। किन्तु गंगावर इन सब बातों को किमान का काम मानता था। वह सवेरे सवेरे ही खानाहार करके ग्राम के निष्कर्मा लोगों के संग तास पीटता और वही टीपटाप मे समय संहार करता। गुप तो यह था, पर यदि इस्के कोई वस्तु 'दो' कहने पर वह वस्तु घर से न मिले, तो माता के प्रति क्रोध बड़ी बहन के प्रति क्रोध, दास दासियों के प्रति क्रोध होता था। सब जने गंगाधर को बाबू कहते थे, और सब सनेही गंगाधर बाबू के भय से भीत रहते थे। ज्येष्ठ भ्राता गंगाधर को बहुत प्यार करता था। उसकी आखों में गंगाधर का दोष दोषरूप में नहीं बोध होता था। गोविन्दचन्द्र की पत्नी अत्यन्त साधुशीला थी। इसका वय:क्रम विंशति वत्सर था, और उसको दो पुत्र सन्तान भी हुये थे। गोविन्द की माता नाम मात्र को गृहिणी (घर की स्वामिनी) थी, घर का काम काज सब वडी वह केहो हाथ में था। गंगाधर की पत्नी और बिरजा की एकही अवस्था थी। अर्थात् गंगाधर की पत्नी की वयस दस वर्ष मात्र थी नाम नवीनमणि था।

इस वयस में वालिका स्वामी के घर नहीं जाती हैं किन्तु नवीन के माता पिता दोनों की संक्रामिक ज्वर में मृत्यु होने से उसको यहां ले आये थे।

बिरजा इस घर में आय कर रहने लगी, वह अपने स्वभाव गुण से सब की प्रियपात्र बन गई. विशेषतः छोटी वह नवीन के संग उस्की अत्यन्त प्रीति बढ़ गई, वह दोनों एक संग स्नान करती थी, एक संग खेला करती थीं।

एक दिन गृहिणी आहारान्त में खाट बिछाकर आँगन में सो रही है, बिरजा से माथा देखने को कहा वह सिरहाँने बैठी माथा देख रही है इस समय गृहिणी ने बिरजा से नौका डूबने का वृत्तान्त वर्णन करने का अनुरोध किया।

बिरजा वालक थी, नवीन के संग खेल में मत्त रहा करती थी, सुतराम् वह सब विषय एक प्रकार भूल गई थी अब वह सब बातें उसे स्मरण हो आई, उसकी आंखों से जल गिरने लगा। गृहिणी ने काहा 'अब क्या भय है? अब कहे क्यों ना? बिना कहे कैसे तुझे तेरे बाप के घर भेजूंगी विरजा ने कहा "मेरे मां बाप कोई नहीं हैं, मैं कहां जाऊँगी"।

गृहिणी "तो रह क्यों न? कौन निकालता है तब और कोई है?" बालिका ने रोते रोते कहा "मेरे कोई नहीं है"।

वृध्दा ने जिस रात्रि में बिरजा को पाया था उस रात्रि में उसके सोमन्त में सिंदूर का टीका देखा था वह बात वृध्दा के मन में थी इस हेतु उसने फिर पूछा कि तेरा विवाह हुआ है? किस ग्राम में?"।

वि०— मैं उस ग्राम का नाम नहीं जानती।

वृ॰—तेरे बाप का घर किस ग्राम में हैं?

वि०—मैं नहीं जानती

वृ॰—तेरे मामा का घर कहां है ?

वि०—यह भी मैं नहीं जानती।

वृद्धा ने फिर किसी बात का उत्यापन न करके निद्रा मनस्य की, नवीन पास आय कर बिरजा को हाथ पकड़ कर उठा ले गई, जाते जाते उसकी आंखों का जल पोंछ दिया।

इसके एक वत्सर पीछे एक दिन बिरजा ने नवीन से आत्मविवरण कहा, यह यह है कि "अति छोटी अबला में मेरे पिता की मृत्यु हुई उसके पीछे मेरी माता मुझे लेकर शान्तिपुर के एक गोस्वामी के घर में रही। माता उनके घर में पाचिका का काम करती थी ।मेरी जब सात वर्ष की अवस्था थी तब माता की मृत्यु हुई माता के मरण में मैं बहुत रोई थी उस काल में मैं उन्हीं के घर रहने लगी, दस वर्ष की अवस्था में मेरे विवाह की बातचीत हुई, कलकत्ते के बाबू के संग मेरा विवाह हुआ विवाह के आठ दिन पीछे वह बाबू मुझे कलकत्ते लिये जाते थे, उसी दिन झड़ दृष्टि होने से नौका डूब गई, मैं बहुत तैरना जानती धी। यहां तक कि लोग मुझे जलजन्तु कहते थे मैं तैरती २ नदी के तौर पर प्रकाश देखकर वहां उतर आई। इसके पीछे यह लोग मुझे देखकर यहां ले जाये।

हम बिरजा के वृत्तान्त का अवशिष्टांश लिखते हैं। बिरजा गोस्वामी की पालिता कन्या थी, इस कारण उसके विवाह के विषय बड़ा कष्ट हुआ था। बिरजा के निज का कोई दोष न था, वह सर्वाङ्ग सुन्दरी थी। किन्तु वह किस की कन्या है, इसका कोई निश्चय प्रमाण नहीं था। सुतराम् कौन भलामानस विवाह करता शान्तिपुर का एक युवक कलकत्ते में रहकर पढ़ा करता था, उसने यह सम्वाद अपने एक मित्र को दिया। वह सुनकर शान्तिपुर में एक दिन बिरजा को देखने गया देखकर वह उससे विवाह करने का अभिलाषी हुआ वह विदेशी था, इस हेतु पिता माता मे न कहकर गुप्त रूप से उसने विरजा से विवाह किया। उसकी इच्छा थी कि विरजा को कलकत्ते में ले जाय कर किसी विद्यालय में शिक्षा के लिये रख लेंगे, पर मार्ग में नौका डूब गई पाठकों ने वह आप देखा है। इस के आगे का वृत्तान्त बिरजा ने आपही कह दिया है।

चतुर्थाध्याय : बिरजा (उपन्यास)

गोविन्द की पत्नी भवतारिणी का पितालय कोननगर में था। यह लिखना पढ़ना जानती थी और अवकाशानुसार बिरजा या नवीनमणि को शिक्षा भी दिया करती थी। चार पांच वत्सर में उन दोनों ने एक प्रकार का लिखना पढ़ना सीख लिया, परन्तु बिरजा कुछ अधिक सीख गई थी। वह गृहिणी के पास बैठकर रामायण या महाभारत का पाठ किया करती थी और ग्राम को अनेक प्राचीना आय कर सुना करती थी।

बिरजा को अवस्था इस समय पञ्चदश वर्ष अतिक्रम कर गई थी और नवीन को भी यही वयम हो गई थी। बिरजा गौरांगी थी, नवीन श्यामांगी थी। गौरांगी होने से ही कोई रूपवती नहीं होती, और श्यामांगी होने सेही कोई कुत्सिता नहीं होती, परन्तु यह दोनों ही रूपवती थीं। तथापि बिरजा का रूप लावण्य चमत्कार वा, नवीन का रूप लावण्य साधारण था। बिरजा दीर्घकाया थी नवीन खर्वकाया थी। बिरजा की नासिका ने भू युगल को मध्यस्थल में जितना स्थान चाहिये उतना स्थान अधिकार कर लिया था, और उतनी ही उच्च थी, किन्तु नवीन की नासिका कुछ अधिक उच्च थी। बिरजा के दोनों नेत्र वृहद दीर्घाकार थे, नवीन के दोनों नेत्र और भी बड़े थे, किन्तु कलकत्ते की काली प्रतिमा की चक्षु की न्याय प्रायः कर्ण पर्यन्त विस्तृत थे। यदि इन्हीं को कवि लोग आकर्णवि चान्त चक्षु कहते हों, तो हम इसमें कुछ सौन्दर्य नहीं देखते। बिरजा का कपाल समतल था, किन्तु नवीन का उच्च था। बिरजा का ग्रीवादेश दीर्घ था, जिसे हंसग्रीवा कहते हैं, किन्तु नवीन का ग्रीवादेश हस्व था। अन्यान्य विषयों में दोनों का रूप समानही था। दोनों के केशदाम नितम्बचुम्बित, दोनों की बाँह मृणाल सनिभ, दोनों की अँगुली सुकोमल पद्मकलिका सदृशी, और दोनोंही की देह में नवयौवन का संपूर्ण आविर्भाव था, किन्तु स्वभाव के विषय वैलक्षण्य था। दोनों एकत्र वास करती थीं, अ- कृत्रिम प्रणय था, पर स्वभाव दोनों का एकसा नहीं था। बिरजा मिष्टभाषिणी थी, नवीन भी मिष्टभाषिणी थी किन्तु जिस स्थल पर उचित बात कहने से दूसरे के मन में कष्ट होता हो बिरजा उस स्थान पर कोई बात नहीं कहती थी चुप रहती थी, परन्तु नवीन से यह नहीं हो सका था। दूसरे के मन में चाहे कष्ट हों, वा न हो, वह सब समय में उचित बातही कहती थी। यद्यपि सत्य और उचित बात कहने में कुछ क्षति नहीं है परन्तु कहने से यदि दूसरे के मन में कष्ट होता हो तो उसकी अपेक्षा मौनावलम्बन करनाही अच्छा है। नवीन चाहे यह न जानती हो, चाहे न समझती हो। गंगाधर के संग नवीन के सुप्रणय न होने का यही एक प्रधान कारण था। गंगाधर समस्त दिन ताम्र पीटता, घर में आतेही एकान्त पाय कर नवीन उसक भर्त्सना करती, अकपट चित्त से उसके दोष की वार्ता उल्लेख करती। गङ्गाधर के मङ्गस्त साधनोद्देश्य से ही नवीन ऐसा करती थी किन्तु गङ्गाधर यह नहीं समझता था, वह मन में जानता था कि स्त्री स्वामी के अधीन होती है इसे स्वामी के दोष उल्लेख करने में उसका अधिकार नहीं है।

जो लोग स्त्री को घर की सामिग्री विशेष जानते हैं वे अवश्य गंगाधर के संग एक मत होंगे, और स्त्री के मुख से अपना दोषोल्लेख सुनकर विरक्त होंगे, परन्तु हम ऐसे महात्मा लोगों को बतलाये देते हैं कि स्त्री लोग अपने स्वामी को गृह की वस्तु विशेष नहीं समझती है। वह अपने को स्वामी के सुख में सुखी, दुख में दुखी, स्वामी को बन्धु, स्वामी को सुपरामर्शदाता मन्त्री, अधिक क्या  वह अपने को संसाररूप तरणी की बल्ली जानती हैं। किन्तु नवीन जिस प्रकार दोषी स्वामी के प्रति आरक्त नयन से सदा दृष्टि करती थी, हम उस प्रकार करने का किसी सुन्दरी को परामर्श नहीं देते। वरञ्च मिष्ट वाक्य और सप्रेम व्यवहार से स्वामी को सन्तुष्ट करें, और पीछे स्वामी के असद व्यवहार से आप दुःखित होकर दुःख के सहित कोमल नयन युगल वाष्पवारिपरिपूर्ण करके स्वामी को भर्त्सना करें, तब देखें कि स्वामी सुपथ में आता है वया नहीं?

इसी कारण से गङ्गाधर नवीन को दर्शन नहीं देता था, इससे नवीन का और भी अनिष्ट होने लगा। गंगाधर विरजा पर आशत हुआ। बिरजा का सहास्य वदन, बिरजा के मधुर वाक्य, बिरजा के अनुराग का भाव, वह सदाही ध्यान किया करता था। बिरजा प्रथम यह नहीं जान सकी अन्त में गंगाधर का भावर्वलक्षण्य पाया। पर नवीन से नहीं कहा। कहने से कदाचित् नवीन के संग विच्छेद होता यही समझकर नहीं कहा। नवीन का बिरजा पर अविचलित विश्वास और प्रेम था इसलिये उसको भी उसका सन्देह नहीं हुआ। बिरजा ने और भी विचारा कि यदि यह बात नवीन से कहूँगी तो वह गंगाधर के प्रति हतप्रभ हो जायगी। बिरजा ने नवीन को स्वामी के संग मधुर व्यवहार करने वा स्वामी का मन लेकर चलने का परामर्श दिया। नवीन ने बिरजा के परामर्श से उस प्रकार की चेष्टा की, परन्तु हो नहीं सका। जो जिसके स्वभाव के विपरीति है वह भला कैसे हो सकता है? बिरजा ने सोचा था कि यदि गंगाधर का अनुराग नवीन से दृढ़ हो जायगा तो वह मुझ पर अनुरत न रहेगा पर वह कल्पना सिद्ध नहीं हुई। नवीन गंगाधर को बस न कर सकी। गंगाधर का अनुराग बिरजा पर दिन दिन बढ़ने लगा। एक दिन गंगाधर ने बिरजा से कहा "तुम कलकत्ते चलो यहां दासीभाव में कितने दिन रहोगी? कलकत्ते में विधवाविवाह होता है, मैं तुम से विवाह कर के वहां रहँगा"। बिरजा "ऐसी बात न कहा करो" यह कहकर गंगाधर के आगे से विद्युत् की नाई चली गई। गंगाधर अबोध या, मन में समझा कि विरना भी मेरे प्रति अनुरागिणी है।

पञ्चमाध्याय : बिरजा (उपन्यास)

भाद्र मास है, शरद की पूर्वीय पवन ने मेघराशि हटाय कर अनन्त आकाश निर्मल कर दिया है। घर घाट सब सरोवर के जल से परिपूर्ण हैं। भट्टाचार्य महाशय के घर की और खिरकी की दोनों पुष्करिणियों में बड़ा जल भर रहा है। आज पूर्णिमा की रात्रि है आहारान्त में बिरजा और नवीन दोनों जनों खाली हाथ में लेकर घाट पर गई है। पुष्करिणी के जल में असंख्य कुमुदिनी फूल रही हैं। सरोवर की गोद में तारकमण्डित पूर्णचन्द्र परिशोभित नील नभोमण्डल हँस रहा है। कुमुदपत्रगतवारिमध्य पर्यन्त में चन्द्ररश्मि खेल रही हैं। पुष्करिणी के चारो तोरस्थ वृक्षावली के पत्रों में चन्द्र किरणें छूट छूट कर गिर रही है। बिरजा ने जो थाली धोयकर खगड़ बँधे घाट की सिढ़ी पर रक्खी है, उस पर्यन्त में चन्द्र किरणें गिर २ कर हँस रही हैं। बिरजा घाट की सिढ़ी पर बैठी है, नवीन शरीर मलने को जल में उतरी है।

नवीन ने शरीर मलते २ एक दीर्घनिश्वास परित्याग की। विरजा ने वह लक्ष्य कर लिया कहा "नवीन! ऐसी लम्बी सांसें क्यों लेती हो?"।

नवीन— मन के दुःख से।

बिरजा—क्या दुःख है?

नवीन— वह क्या तुम नहीं जानती हो?

"जानती हूँ" कहकर कियत्क्षण नीरव हो, बिरजा ने फिर कहा कि 'ओ नवीन! यह क्या? तुम क्या रोती हो?

नवीन— हां रोती हैं।

बिरजा—इतने जल में खड़ी होकर क्यों रोती हो?

नवीन बिरजे! मेरा ऐसा कोई नहीं है तो रोने पर आंखों का जल पोंछ दे। इसी लिये जल में खही हो कर रोती हूँ कि आंखों का जल पुष्करिणी के जल में मिल जाय।

बिरजा— क्यों? मैं हूँ, मैंने क्या तुम्हारी आंखों का जल कभी नहीं पोंछ दिया।

नवीन—दिया है- किन्तु कितने काल दोगी?

बिरजा—जितने दिन जीती रहूँगी।

नवीन—तुम क्या मुझे इतना चाहती हो?

बिरजा—यह तो तुम्हों जानती होगी।

नवीन—अच्छा तो यदि मैं मर जाऊँ, तुम मेरे लिये रोओगी ?

बिरजा—हां रोऊँगी।

नवीन—केवल रोओगी मेरे मरने से मरोगो नहीं? नवीन ने बिरजा को चिन्ता में घेर दिया कहा "मरूँगी नहीं क्या?"।

नवीन—तुम मुझे इतना नहीं चाहती हो कि मेरे मरने से मेरे लिये मर सको। नहीं तो इतना सोच बिचार के न कहती कि "मरूँगी नहीं क्या"।

बिरजा ने बात उड़ाने के लिये कहा "अच्छा मैं तुम्हें नहीं चाहती। तुम्हें भी मरने से कुछ काम नहीं और मुझे भी इसी समय अपने सब प्यार दिखलाने से कुछ काम नहीं, अब तुम शरीर मल मलाकर ऊपर आओ"।

इसी समय पुष्करिणी के तट पर एक पक्का ताल 'टप' करके गिरा। नवीन ने हँस करके कहा कि "मैं तब तुम्हारी प्रीति जानूं यदि मुझे यह ताल उठाय के लाय दो"।

बिरजा एक बात भी न कहकर ताल लेने चली गई। हमारे पल्ली ग्रामस्थ पाठक वा पाठिका जानते होंगे कि तालबारी में प्रायः ही छाटे २ अनेक वृक्ष लतादिक होते है इस तालबारी में भी वह थे। सुतराम् पूर्णमासी की रात्रि होने पर भी तालबारी में कुछ २ अन्धकार था। ताल का रङ्ग और अंधकार का रंग एकही होता है इस निमित्त जाते नाचही बिरजा को ताल नहीं मिला। वह वहाँ ढूंढ़ने लगी। ताल ढूंढने में बहुत विलम्ब लगा। अनेक क्षण पीछे ताल पाकर 'मिल गया' 'मिल गया' कहकर मस्तक पर धर कर घाट की ओर दृष्टि करके देखा तो जल से एक पुरुष निकलकर घर के भीतर घुस गया। यह देख कर बिरजा का शरीर थहराने लगा। परन्तु उसी समय साहस करके धीरे २ फिर घाट पर आई। घाट पर आय कर नवीन को नहीं देखा परन्तु पुष्करिणी का जल अत्यन्त गम्भीर बोध हुआ बिरजा का समस्त शरीर कम्पित होने लगा। हाथ का ताल अज्ञातावस्था में मिट्टी में गिर पड़ा। अन्त में बिरजा ने कम्पित हस्त से थाली उठाकर घर में प्रवेश किया। घर में आयकर जिस प्रकार और किसी को सन्देह न हो उस प्रकार नवीन का अन्वेषण करने लगी, पर उसे नहीं पाया। नवीन का शयन गृह देखा, बत्ती लाने का छल करके बड़ी बहु के शयनगृह में गई, महाभारत का छल करको गृहिणी के घर में गई, कहीं भी नवीन को नहीं देखा। अनन्तर और कोई सन्देह न करे इस भय से और कुछ न करके बिरजा अपने घर में जाय कर सो रही।

मन उत्कण्ठित रहने से निद्रा नहीं होती, रात्रि दोपहर व्यतीत हो गई, परन्तु बिरजा की आंखों में निद्रा नहीं आई। बिरजा के मन में अनेक चिन्ता की तरंगें थी, केवल पार्श्व परिवर्तन करने लगी। इस प्रकार एक पहर और भी बीत गया। बिरजा ने उस समय सोचा कि अब सब निद्रित हैं एकबार घाट पर जाकर देखूँ तो क्या हुआ है? बोध होता है नवीन को किसी ने जल में डुबाय कर मार डाला। यदि यही हो तो वह इतने काल में ऊपर उछल आई होगी। बिरजा साहस पर निर्भर होकर धीरे धीरे घाट के ऊपर गई। देखा कि जल में शव तैरता है। बिरजा शव को देखते मात्रही पीछे हटकर घर के भीतर आई। और पीछे अपनी कक्ष (कोठरी) में आयकर विचारा कि अब क्या करूँ? हम दोनों जने एक संग घाट पर गये थे वह सभी जानते हैं। नवीन यदि आपही जल में डूब कर मरी हो, किम्वां और किसी ने ही उसे मारा हो, दोष मेरेही ऊपर पड़ैगा सब जने मेरा सन्देह करेंगे। अनेक लोग अनेक बातें कहेंगे। थाना पुलिस होगा। अपमान लान्छना होगी। नवीन! तू मरी सो मरी, मुझे क्यों मार गई?।

बिरजा ने शेष में अनेक चिन्ता के पर दीर्घनिश्वास परित्याग करके कहा कि आज से मेरा अन्न जल इस घर से उठ गया। यदि नौका डूबने के समय मरती तो इतना दुःख न होता अब क्या करूं? अनेक भावना करके बिरजा ने स्थिर किया कि इस स्थान का परित्याग करनाही परामर्श है, यह स्थिर सङ्कल्प करके वह धीरे २ रात्रि रहते २ भट्टाचार्य का घर छोड़कर चल दी ।

षष्ठाध्याय : बिरजा (उपन्यास)

रात्रि प्रभात हो गई, सब से पहिले भवतारिणी खिड़की के घाट पर गई। वायु के हिल्लोल से नवीनमणि का मृत देह घाट के दक्षिण पार्श्व में आय गया भवतारिणी सहसा मरा मनुष्य जल में तैरता देखकर थहराने लगी। उसे भय हुआ, किन्तु उसका पाद संचार नहीं हुआ, स्तम्भित की न्याय दण्डायमान रह गई। इच्छा थी कि पीछे फिर कर घर में चली जाऊँ परन्तु पद युगल उस्की इच्छा के अनुगत नहीं हुये। वह दण्डवत् खड़ी रही। जितने काल उसकी दृष्टि उस मृत देह की ओर रही, उतने काल वह एक पांव भी पीछे नहीं हट सकी अब ज्योंही उसकी दृष्टि अन्य दिशा में पतित हुई, त्योंही उसने पीछे हटने का आरम्भ किया। खिड़की के हार पर्यन्त धीरे २ गई, द्वार अतिक्रम करते मात्रही जई ऊर्व्दश्वस स से दौड़कर एकबार में ही अपनी कक्ष में घुस गई। गोविन्द ने पत्नी का ऐसे भाव से गृहप्रवेश देखकर शय्या से उठकर पूछा "क्या वृत्तान्त है? जो ऐसा दौड़कर आती हो?"। भवतारिणी ने धननिश्वास त्यागजनित अस्पष्ट स्वर से कहा "घाट पर मुर्दा पड़ा है।"

गो०—घाट पर मुर्दा पड़ा है।

भ०—हां देखो।

गो०—तुमने और कुछ भी देखा है?

भ०—नहीं, मुर्दा पड़ा है, और अब देखें, चलो।

गोविन्दचन्द्र देखने चले, भवतारिणी उनके पीछे पीछे चली। जाने के समय भवतारिणी ने नवीन के शयन कक्ष के झरोखे में आघात करके नवीन को पुकारा। जब उत्तर न पाया तो कहा, 'अभागी! उठ उठ, देख घाट पर मुर्दा पड़ा है' यह कहकर द्रुत पद से स्वामी का अनुगमन किया। उसके जाने से पहिले ही गोविन्द घाट पर पहुंचकर गाल पर हाथ रखकर सोच कर रहे थे। भव को उनके गाल पर हाथ रखकर सोचने का कारण नहीं पूछना पड़ा उसने इस समय पहिचान लिया कि नवीन का देह जल में पड़ा है। भव उन रव से रोने को उद्यत हुई पर गोविन्द ने उसके मुंह पर हाथ धर कर रोने को निषेध कर दिया, भव नहीं रोई।

कियत्क्षण पीछे घर के सब लोगों ने ही जान लिया कि नवीन जल में डूबकर मर गई, और देखा गया तो बिरजा भी नहीं है उसका टीन बक्स खोलकर देखा गया, तो उसके गहने का डिब्बा भी नहीं है। तब तो स्पष्ट जाना गया कि बिरजा भाग गई है । बिरजा जब भाग गई है, तब उसी से नवीन का प्राण नाश हुआ है। गंगाधर उस रात्रि में बाहर सोया था, उसने कहा मैंने नवीन और बिरजा को रात्रि में खाली हाथ में लेकर घाट पर जाते देखा। तब तो सभी को विश्वास हो गया कि बिरजाही नवीन को मारकर, गेर कर, भाग गई। गंगाधर आपही थाने में सम्वाद देने गया। गांव के सब लोगों ने जाना। नवीन का देह पुष्करिणी में तैरने लगा। प्रहरी लोग कूल पर बैठकर पहरा देने लगे।

गृहिणी शोक करने लगी, उन्होंने सोचा मैं उस पापिनी को क्यों घर में लाई। इससे मेरा सर्वनाश हुआ। कुल में कलङ्क लगा। हमारे घर में जो कभी नहीं हुआ वह हुआ।

भवतारिणी ने भी अनेक क्षण रोदन किया। उसके अनेक क्षण रोदन करने का कारण यह था कि वह नवीन और बिरजा दोनों को ही अधिक चाहती थी। उसको विश्वास नहीं हुआ कि विरजा ने नवीन का वध किया है। वह गंगाधर का चरित्र विलक्षण जानती थी और यह भी जानती थी कि गंगाधर की बिरजा पर आशक्ति जन्मी है। वरन इसीलिये दो एक वार बिरजा को सावधान करके उसने कहा भी था "बिरजे! सावधान! भ्रमर पीछ लगा है" इस पर बिरजा ने भी कहा था कि "जीजी! कुछ भय नहीं है"। बिरजा अवस्था में बालक ठीक थी, किन्तु धर्म्म भय उसे था। उसको बहुत बातें स्मरन हो आई किसी दिन गंगाधर ने बिरजा पर किस प्रकार सानुराग दृष्टिपात किया था, उसपर बिरजा किस प्रकार घूंघट मार कर हट गई थी यह स्मरन आया, गंगाधर नवीन से सचराचर किस प्रकार विरतिभाव प्रकाश करता था और वह भी गंगाधर के असद व्यवहार से किस प्रकार खेद करती थी, यह भी स्मरण आया। वह गृह कर्म छोड़कर रोने और सोचने अथवा सोचने और रोने लगी। घर नितान्त शून्य और शोकपरिपूर्ण बोध होने लगा, सभी के मुख पर विषाद का चिन्ह था और सभी शोकाकुल थे। गोविन्दचन्द्र शोक और लज्जा से अधोमुख होकर बाहर के घर में बैठे २ हुक्का पीने लगे, हुक्के में अग्नि नहीं थी, धुआँ खींचने से वाहर नहीं होता था, तथापि वह हुक्का खींचने और दीर्घ निवास परित्याग करने लगे। ग्रामस्थ प्राचीनों में से कोई कोई उनके पास बैठकर सांत्वना करगे लगे, परन्तु उनको वाक्य व्यय मात्रही सार हुआ, क्योंकि उनके सांत्वना सूचक समस्त वाक्यों ने गोविन्दचन्द्र के कर्ण में प्रवेश किया वा नहीं सन्देह का विषय है, किसी के कहने से शोक निवृत्त नहीं होता अकेला समयही शोक निवारण कर सत्का है, शोक कितनाही बड़ा क्यों न हो समय से समता को प्राप्त हो ही जाता है।

तीसरे पहर हरिपुर थाने के प्रतिनिधि स्थानाध्याक्ष (नायब थानेदार) कई जनों को संग लेकर निर्धारण (तहकीकात) करने आये उन्होंने निर्धारण करके व्यवस्था (रिपोर्ट) दी कि बिरजा सेही यह कार्य हुआ है। दण्ड नायक (मजिष्ट्रेट) महाशय को भी यही प्रतीति हुई। उन्होंने बिरजा की प्राकृति वर्णना करके विज्ञापन प्रसिध्द किया। और प्रतिज्ञा भी की कि जो कोई बिरजा को पकड़वाय देगा वह पांच सौ रुपया पुरस्कार पावैगा। थाने थाने यह बात विदित कर दी गई।

इस घटना में गंगाधर का चरित्र एक बारही परिवर्तित हो गया। अब वह गांव के गांजाखोर वा अफीमचियों के संग नहीं मिलता, और न आलस्य व्यवसाइयों के सग दिन रात तास पोट कार बड़ी टीपटाप से समय नष्ट करता। परन्तु घर का भी कोई काम नहीं देखता था बाहर के घर में बैठकर मन मन में कुछ सोचता और केवल तमाकू का नाश करता। स्नान करने के समय अंगौछा कन्धे पर धर कर घाट पर सोचता था।

आहार पर बैठने के समय सोचता, शय्या पर सोने को समय सोचता, सर्वदाही उसका विपन्न बदन रहता था। यह देखकर घर के सब लोगों ने ही समझा कि यद्यपि गंगाधर प्रगट में नवीन को अपनी प्रीति नहीं दिखाता था, परन्तु मन मन में प्रीति रखता था। अब उसके शोक में गंगाधर की यह दशा हो गई है। गृहिणी ने अपनी कोठरी के एक अंश में गंगाधर की शय्या कर दी, वह वहीं सोया करता, रात्रि में एक एक बार चोंक २ उठता।

क्रम से वर्ष एक अतीत हुआ, घर में जो काण्ड हुआ था, सब को एक प्रकार विभूत हो गया था। गोविन्दचन्द्र ने गंगाधर का और विवाह करना स्थिर किया। सहस्र दुचरित्र होने पर भी इस देश में, इस देश में क्यों, इस संसार में पुरुष के विवाह का कोई असुविधा नहीं, अधिकांश स्थल में लोग पुरुष का रूप नहीं देखते, गुण नहीं देखते, चरित्र नहीं देखते केवल कुल और धन देखते हैं। गंगाधर के यह था। कुल था, धन यद्यपि अधिक नहीं था, किन्तु जो था, सो यथेष्ट था। अनेक स्थल में विवाह की बातचीत हुई। दो एक स्थल में गोविन्दचन्द्र आप भी कन्या देखने गये, अनेक स्थल में कन्या देखने के अनन्तर एक स्थल में मनोभिमत कन्या पाई कि विवाह का समस्त विषयही स्थिर हो गया, केवल दिन नियत करना मात्र शेष था, इसी समय में एक दिन गंगाधर निरूद्देश (बेठिकाना) हो गया। ग्रामस्थ किसी घर में वह नहीं मिला, ग्रामान्तर में कुटुम्बियों के घर अनुसन्धान किया, वहां भी नहीं मिला। दो मास अनुसन्धान हुआ गंगाधर का उद्देश्य नहीं लगा। अन्त में स्थिर हुआ कि गंगाधर मन के दुःख से उदासीन (संन्यासी) हो गया। गृहिणी ने कहा "हाय! मेरा बेटा, वह के शोक से बाहर निकल गया!"

सप्तमाध्याय : बिरजा (उपन्यास)

(ऐतिहासिक काल का वा भौगोलिक पन्था का अनुसरण करना उपन्यास रचना की प्रथा नहीं है, अतएव समय गंगाधर के निरुद्देश्य होने के दो वरस अनन्तर स्थान कलकत्ते की जेनरेल पोस्टआफिस)।

डाकघर का नियम यह है कि जो पत्र नहीं बँट जाते हैं और जिन्हें विज्ञापन देने से भी कोई नहीं ले जाता है, वह अग्नि में दग्धकर दिये जाते हैं। एक बाबू उन्हें खोल खोल कर, देख देख कर, देता जाता है एक जलाता जाता है। बाबू ने आज बहुत से पत्र देखकर दिये। देखते २ एक बंगलापत्र उनके हाथ में आया। पत्र मोटे श्रीरामपुरी कागज पर लिखा था। बाबू ने पत्र खोला, देखा कि उस में एक स्त्री का नाम स्वाक्षरित है। उन्होंने पत्र पाकेट में रख लिया। और मन मन में विचारा कि यह किसी सुन्दरी की प्रणयपत्रिका होगी। घर चलकर पढ़ेंगे। पत्र पाकेट में रहा, वह अपने कर्न्म में व्यावृत हुये।

इन बाबू का घर शिमले (कलकत्त की वीथीविशेष) में था। बाबू अपरान्ह में घर आय कर विश्राम कर हैं इसी समय में उन्हें उस पत्र की बात स्मरण आई। वह पत्र को पाकेट से निकालकर पढ़ने लगे।

इन बाबू का वय:क्रम प्रायः तीस वर्ष का था इस वयस में बंगाली बाबू अविवाहित नहीं रहते हैं किन्तु इन्हीं ने विवाह किया था, वा नहीं, यह हम नहीं जानते, क्रम से जाना जायगा।

पत्र पढ़ते पढ़ते बाबू का ललाट स्वेदार्द्र हो गया, बदन में आनन्द, विस्मय, प्रभृति नाना मानसिक भावों के प्रतिबिम्ब अङ्गित होने लगे जिस पत्र को पढ़कर बाबू के मन में इस प्रकार का भावोदय हुआ, उसका अनुवाद यहां लिखते हैं।

"श्रीमती भवतारिणी देवी के श्रीचरणों में,——

आप जानती हैं कि मैं आज दो बरस से निराश हूँ। में किसी से बिना कहे आपका घर परित्याग करके चली आई। कारण यह है कि आप मुझे पीछे "नवीन को वध किया है' कहकर पुलिस में देती, क्योंकि नवीन और मैं एक संग घाट पर गई थी। भुरहरी रात नवीन का शव जल में उछल पाया था। सब को सन्देह होता, मैं यदि कहती कि मैंने नवीन को नहीं मारा है तो कौन विश्वास करता? नाना कारणों से लोग मुझ पर सन्देह करते। इसीलिये मैं भाग आई।

किन्तु आज कहती हूँ, कि मैंने नवीन का वध नहीं किया, आज कहती हूँ कि मैंने नवीन को नहीं मारा। मैं उसे प्राण के समान चाहती थी। किन्तु उनके मरने के समय अपने प्राण भय से जो खोलकर रोने भी नहीं पाई उसके पीछे रोई थी।

गंगाधर बाबू भयानक पीड़ित होकर कलकत्ते के अस्पताल में आये थे। उन्होंने मरण काल में समस्त ही स्वीकार कर लिया, नवीन और मैं एक संग घाट पर गई थी, यह ठीक है, किन्तु बगीचे में ताल गिरने से नवीन ने मुझसे उसके लाने के लिये कहा। मैं ताल लेने गई, ताल ढूंढ़ने में मुझे विलम्ब हुआ। नवीन उस समय अंग धो रही थी। इतने ही में गङ्गाधर बाबू ने जाय कर उसे जल में गेर दिया, और दृढ़ पकड़ लिया, जब तब वह जल में नहीं डूबी, तब तक नहीं छोड़ा। मैंने उन्हें जल से निकलकर जाते देखा था, परन्तु इस बात के कहने में तब कौन विश्वास करता। कल प्रात:काल गङ्गाधर बाबू की मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय वह मुझे बचा गये, और वह भी सुना है कि इनकी यह सब बातें हस्पताल के साहब ने लिखकर आपके जिला के मजिष्ट्रेट साहब के पास लिख भेजा है। सुतराम् अब मैं मुक्त हूँ। आपके घर में अब फिर नहीं आऊँगी। और क्या करने को ही आऊँगी अब वह नवीन नहीं है, किसके संग जी खोल कर बातें करूँगी? गङ्गाधर बाबू ने कहा था कि आपकी सास की परलोक प्राप्ति हो गई है, सुतराम् अब किसको रामायण पढ़कर सुनाऊँगी? मैं आपके घर फिर नहीं पाऊँगी, किन्तु आप से भगिनी के समान प्रीति रखती हूँ यह आप जाने। बड़े बाबू जब कलकत्ते आवै शिवनाथ ठाकुर के घर मेरे साथ साक्षात् करने को कह देना, आप के लड़कों के लिये कुछ वस्तु भी दूंगी।

मैं आपलोगों की दया प्राण रहते नहीं भूल सकती। कहने से क्या है? आपकी स्वर्गवासिनी सास ने मेरी प्राण रक्षा की थी। वह यदि मुझे गङ्गातीर से उठायकर न ले आती तो मैं उसी रात्रि को पञ्चत्व पाती। किन्तु मेरी मृत्युही भली थी। आज आठ वर्ष से स्वामी का उद्देश नहीं मिला, वह क्या नौका डूबने के समय मर गये? तो विधाता ने मुझे किस विवेचना से बचा रक्खा है? बोध होता है वह वहां नहीं मरे नौका के एक बङ्गाली मांझी ने कहा था कि मैं तुम्हारी प्राणरक्षा करूँगा। जीजी मेरा मन कहता है कि वह अभी बचे हुये हैं। सुशील के बाप से कहना कि यदि विपिनविहारी चक्रवर्ती नामक किसी पुरुष का सन्धान पावै तो उससे मेरा विवरण कहें। जीजी अब पत्र शेष करती हैं।

"मैं वही बिरजा"

पत्र एक बार दो बार तीन बार पढ़ा गया तीन बार के पीछे पत्र उपधान पर रखकर बाबू ने एक दीर्घनिश्वास परित्याग किया किसी किसी पुरुष का यह स्वभाव होता है कि एक गुरुतर विषय उपस्थित होने पर बहुत क्षण बहुत दिन आगा पीछा विवेचना करते हैं, भविष्यत सोचते हैं। किन्तु ऐसे लोग प्रायः किसी विषय में भी कृतकार्य नहीं होते। हम जिन बाबू की बात कर रहे हैं यह ऐसे स्वभाव के लोग नहीं थे, इन्होंने एक बार में ही कर्तव्य स्थिर कर लिया, उठकर कमीज पहिर कर दुपट्टा और लकड़ी लेकर घर के बाहर हुये और पत्र साथ लिया।

डाकृर शिवनाथ बाबू कलकत्ते में डाकृरी कार्य में बड़े विख्यात मनुष्य नहीं थे। कलकत्ते में अनेक डाकृर हैं, हाईकोर्ट के अनेक वकीलों के समान उनका वास व्यय पर्यन्त नहीं चलता शिवनाथ बाबू इस दल के डाकृर नहीं थे, परन्तु एक विख्यात डाकृर भी नहीं थे, उनके प्रतिवासी, आत्मीय, बन्धु, बान्धवों को छोड़ कर उन्हें और कोई बड़ा नहीं कहता था। अस्पताल में जो वेतन पाते थे उसी से स्वच्छन्द काम चलता था। शिवनाथ बाबू एक समय में ब्राह्मण थे, गुप्त में यज्ञोपवीत भी त्याग कर दिया था, परन्तु सुनते हैं कि माता की मृत्यु के पीछे फिर वैदिक हो गये, ब्राह्मण होकर स्त्री को विलक्षण लिखना पढ़ना सिखा दिया था और बहुत सी स्वाधीनता भी दे दी थी, पर अब वैदिका होने से वह स्वाधीनता न छीन सके। अब आपत्ति कर भक्ष्य अपेक्षाकृत अधिक खाया जाता था, परन्तु उसमें कुछ दोष नहीं था, क्योंकि वैदिक धर्म का आवरण अंग में था। यह जो कुछ हो, शिवनाथ बाबू बड़े भद्रलोक थे, और उनकी पत्नी कात्यायनी भी बड़ी दयावती अयच सुशीला थी। हमारी बिरजा इन्हीं के घर में रहती थी, जिस अवस्था में अंग्रेज पुरुष और स्त्रियों को युवक युवती कहते हैं, शिवनाथ बाबू और कात्यायनी की वही अवस्था थी। अर्थात् चालीस और पैंतीस थी। बिरजा शिवनाथ बाबू के घर में सामान्य परिचारिका की भांति नहीं रहती थी, शिवनाथ बाबू की दो कन्याओं को शिक्षा देना बिरजा का कर्तव्य कर्म था

पुन: पुन: धर्मपरिवर्तन से शिक्षित समाज में शिवनाथ बाबू का नाम प्रसिद्ध हो गया था। हम पहिले जिन बाबू की बात कहते थे, गोबर गोली निवन्धन न्याय से उन्होंने भी शिवनाथ वाबू का नाम सुना था।

रात्रि के दस बजे के पीछे शिवनाथ बाबू के द्वारपाल ने ऊपर जाय कर यह सम्वाद दिया कि एक बाबू आपके संग साक्षात् करने आये हैं। शिवनाथ बाबू उस समय आहारादि करके सर वाल्टर स्काट की "आईवान होप" नामक आख्यायिका का पाठ और उसका अर्थ अपनी पत्नी को समझा रहे थे, और इस पुस्तक के किस किस चित्र के साथ बंगला उपन्यास विशेष के किस २ चित्र का सादृश्य है, यह भी बता रहे थे। भगवती जैसे महादेवजी के मुख से अनन्यमना होकर योगकथा श्रवण करती थी, पतिप्राणा कात्यायनी भी कार्पट बुनते बुनते वैसे ही सुन रही थी। द्वारपाल के सम्वाद देने से शिवनाथ बाबू नीचे आये। नीचे की बैठक में आगन्तुक बाबू बैठे थे, शिवनाथ बाबू भी वहां जाय कर बैठे। आगन्तुक बाबू ने पूछा "आपका नाम शिवनाथ बाबू है?"।

शिवनाथ— जी हां, आपका किस प्रयोजन से आना हुआ?

आगन्तुक— इस पत्र के पाठ करने से आप सब जान जायँगे।

यह कहकर आगन्तुक बाबू ने डाकृर बाबू के हाथ में पत्र दिया, वह प्रदीप के निकट जाय कर पत्र पाठ करने लगे।

दीर्घ पत्र पढ़ने में किञ्चित् विलम्ब लगा, पाठ शेष होते ही पत्र के जिस पृष्ट में विपिनबिहारी चक्रवर्ती का नाम लिखा था, वह पृष्ट लौटकर शिवनाथ बाबू ने पूछा "क्या आपका नाम विपिन बाबू है"।

आ०—मेरा नाम विपिनबिहारी चक्रवर्ती है मैं बिरजा का स्वामी हूँ।

शि०— अब आपका क्या अभिप्राय है?

आ०— मैं बरिजा को स्वीकार किया चाहता हूँ।

शि०— आपने तब से और विवाह नहीं किया है?

आ०—नहीं किया, करता भी नहीं।

शि०— सुन करके हम बड़े सन्तुष्ट हुये, हमने बिरजा का समस्त विवरण सुना है। आपका अनुसन्धान हमने गुप्त गुप्त किया था, किन्तु उद्देश्य नहीं मिला। बिरजा अत्यन्त सती लक्ष्मी स्त्री है। हमारी ब्राह्मणी बिरजा से अपनी कन्या के समान स्नेह करती है, इससे बिरजा को हम संहंसा तो विदा नहीं कर सकते हैं। बिरजा हमारी कन्या के सदृश है, आप हमारे जामाता हैं। जैसे कन्या को विदा करते है वैसे हम बिरजा को विदा करेंगे।

आ०—आपने जो सम्पर्क गेरा है, मैं इसमें कुछ अधिक नहीं कह सका। केवल इतना ही कहा चाहता हूँ कि क्या आज मैं एक बार बिरजा के संग साक्षात् नहीं कर सकता?

शि०—अवश्य कर सकते हो, आप यहां बैठे में घर में यह समाचार कह आँऊ।

यह कहकर उन्होंने अन्तःपुर में जाय कर पत्नी से सब कहा, पत्नी ने बिरजा को बुलाय कर पूछा 'बिरजे! विपिनबिहारी चक्रवर्ती को तुम पहचानती हो?' बिरजा घबराय उठी। आनन्द और विस्मय ने बिरजा को पराभूत किया। क्षण एक काल स्तम्भित के न्याय रहकर बिरजा ने उत्तर दिया 'मेरे स्वामी का यह नाम है।'

प०—तुम उन्हें देखकर अब पहिचान सकोगी?

‘पहचान सकूंगी' कहकर बिरजा ने रोय दिया।

'मैं उन्हें ऊपर लिये आता हूँ' कहकर शिवनाथ बाबू नीचे गये।

गृहिणी ने बिरजा से कहा, वह तुम्हारे साथ साक्षात् करने आते हैं।

अष्टमाध्याय : बिरजा (उपन्यास)

आशा के आश्वास मात्र पर जो मिलन इतने दिनों से बिलम्बित था, वह दम्पती का मिलन बहुत दिन पीछे युगान्त में गंभीर निशीथ में कैसे सुख की सामग्री है। शिवनाथ बाबू के द्वितल हर्म्य में आज वह गंभीर आनन्दमय मिलन है। बिरजा बिपिनविहारी के पदप्रान्त में रो रही है, और निशीथिनी लाख लाख आँख खोलकर वही देख रही है, विपिनबिहारी उदासीन की भांति स्पन्दरहित, स्वरहित, दण्डायमान हैं। जिसने पूर्ण चरितार्थता लाभ की है, वह उदासीन है। पूर्णता में आज विपिनविहारी उदासीन हैं।

सहृदय शिवनाथ बाबू निरर्थक शब्द करके एक घर से दूसरे घर में चले गये, तब विपिन और बिरजा को बोध हुआ, और समझा कि इस संसार में इस प्रकार का मिलन अनन्त काल स्थायी नहीं है, और क्रम से यह भी नाना कि एक बार दोनों को दोनों का परिचय लेना आवश्यक है।

बिरजा प्रथम बोली कि "आपने किस प्रकार जाना कि मैं यहां हूँ?" यह कहकर इतने क्षण पीछे उसने आंख पोंछने की चेष्टा की, परन्तु फिर वेग से जल भर आया और मन मन में कहने लगी कि 'हाय! क्या मेरे कपाल में यह भी लिखा था कि इस प्रीतिपूरित हृदय के सम्बोधन में प्राणेश्वर से इस प्रकार सम्भाषण करना होगा।

विपिनबिहारी अब भी नीरव थे, उन्होंने विरजा का पत्र बिरजा को दे दिया।

बिरजा ने जिज्ञासा की, "यह पत्र क्या आपको भव तारिणी जीजी ने दिया?" विपिन ने कहा "नहीं" एक बात के पीछे दस बात कहना सहज है। अब विपिन ने पूछा 'भवतारिणी, वह कौन है? तुम उनके घर कितने दिन रही थी? तुम वहां से उनमे बिना कहे कहां चली गई थी? मैं पत्र की सब बातें नहीं समझ सका"।

बिरजा यह सुनकर फिर अश्रु सम्वरण नहीं कर सकी, रोते रोते कहा "मैं अभागी एक संसार मझाय आई हूँ मेरे दुरदृष्टवशत: एक संसार हत सी हो गया, भवतारिणी जीजी के देवर ने मुझे कलुषित चक्षु से देखा था"। बिरजा एक क्षण भर निस्तब्ध हो गई, विपिनबिहारी एक पार्श्वस्थ चौकी पर बैठ गये।

बिरजा कहने लगी "मैं उसकी पत्नी नवीन को प्राण के समान चाहती थी, और भवतारिणी जीजी मुझे अपनी छोटी बहन के समान चाहती थीं मैं नवीनमणि के स्वामी की असत् अभिसन्धि जान कर सर्वदा सशङि्कत रहती थी। उसने अपनी असत् पथ से कण्टक दूर करने के अभिप्राय से रात्रि के संयोग में नवीनमणि को मार डाला। मैं उसी रात्रि को वहां से भाग आई। वह हतभाग कुछ दिन पीछे घर से निरुद्देश हो गया, और "पागल" की भांति देश देश में घूमता रहा, परिशेष में वह कलकत्ते को अन्यान्य रोगियों के आश्रय में सब के सामने अपना पाप स्वीकार करके इस संसार से अपसृत हो गया। मैंने अपने आश्रयदाता शिवनाथ बाबू के मुंह से यह सब सुनकर भवतारिणी जीजी को चिट्ठी लिखी, उस घर में मैं अब इस जन्म में मुंह नहीं दिखा सकी हूँ। यदि मैं उस घर में आश्रय ग्रहण न करती तो नवीनमणि इतने दिन स्वामिसौभाग्य से उस संसार की शोभावर्ध्दन करती और वर्षीय सी गृहिणी भी पुत्रशोक से प्राण विसर्जन न करती जब मैंने देखा था कि इस हतभाग्य के हृदय में कामाग्नि बलती है तब मैं न जाने किस लिये उस घर से स्थानान्तर में न चली गई? मैे उस गंभीर रात्रि में पथचारिणी हुई थी, यदि कुछ दिन पहिले ऐसा करती तो आज तुम्हारे आगे अंनुशोचना न करनी पड़ती।

इस समय बिरजा के हृदय का भार अत्यन्त लघु हो गया था। वह मुख खोल कर रोने लगी इतने काल विपिनबिहारी भी प्राय: नीरवही रह आये थे। इस समय उन्होंने प्रकृत पुरुष के समान खड़े होकर रोरुद्यमाना बिरजा को हृदय प्रान्त में खींचकर लगा लिया और कहा "साध्वि! तुम क्यों अनुशीचना करती हो? पवित्रहृदया अबला प्रदीप्त पावकशिखा होती है। जो प्रेम की अवमानना करके पतंग के समान उसमें कूदकर गिरैगा वह उसी भांति जल कर मर जायगा। और नवीन की सारल्यमयी प्रतिमूर्ति जो तुम्हारे चित्त में चिर दिन अंकित रहेगी और वह जो अनेक समयही तुम्हें दग्ध करैगी यह मैं विलक्षण जान सक्ता हूँ। अबला कोमलप्राणा कुसुमकोमला है, इसी में अबला का सुख और इसी के अबला का दुःख और इसी में अबला का गौरव और इसी में अबला की यन्त्रणा है'।

समाप्त।

(अनुवाद : श्री राधाचरण गोस्वामी)

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