बिराज बहू (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Biraj Bahu (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

1

हुगली जिले का सप्तग्राम-उसमें दो भाई नीलाम्बर व पीताम्बर रहते थे।

नीलाम्बर मुर्दे जलाने, कीर्तन करने, ढोल बजाने और गांजे का दम भरने में बेजोड़ था। उसका कद लम्बा, बदन गोरा, बहुत ही चुस्त, फुर्तीला तथा ताकतवर था। दूसरों के उपकार के मामले में उसकी ख्याति बहुत थी तो गंवारपन में भी वह गाँव-भर में बदनाम था। मगर उसका छोटा भाई पीताम्बर उसके विपरीत था। वह दुर्बल तथा नाटे कद का था। शाम के बाद किसी के मरने का समाचार सुनकर उसका शरीर अजीब-सा हो जाता था। वह अपने भाई जैसा मूर्ख ही नहीं था तथा मूर्खता की कोई बात भी उसमें नहीं थी। सवेरे ही वह भोजन करके अपना बस्ता लेकर अदालत चला जाता था। पश्चिमी तरफ एक आम के पेड़ के नीचे बैठकर वह दिनभर अर्जियां लिखा करता था। वह जो कुछ भी कमाता था, उसे घर आकर सन्दूक में बंद कर देता था। रात को सारे दरवाजे-खिड़कियां बन्द कर और उनकी कई बार जाँच करने के बाद वह सोता था।

आज सवेरे नीलाम्बर चण्डी-मण्डप में बैठा हुक्का पी रहा था। इसी समय उसकी छोटी अविवाहित बहन हरिमती उसकी पीठ के पीछे आकर रोने लगी।

नीलाम्बर ने उसके सिर पर हाथ रखकर स्नेह से पूछा- “अरे! सवेरे-सवेरे क्यों रो रही है?”

उसकी छोटी बहन हरिमती उसकी पीठ पर जगह-जगह आंसुओ के चिह्न छोड़ती हुई बोली- “आज भाभी ने मेरे गाल पर चुटकी काटी और मुझे कानी कहा!”

नीलाम्बर ने हंसकर कहा- “तुम्हें कानी कहा?अरे! इतनी सुन्दर आँखों वाली को कानी कहने वाली खुद कानी है। पर तुम्हारे गाल पर चुटकी क्यों भरी?”

हरिमती ने रोते-रोते कहा- “उसकी मर्जी।”

“उसकी मर्जी?चल जरा पूछुं तो।” नीलाम्बर हरिमती का हाथ पकड़कर घर के भीतर गया और पुकारा- “बिराज बहू!”

ब्रजरानी बड़ी बहू का नाम है। उसकी शादी नौ साल की उम्र में हो गई थी। तबसे उसे सभी बिराज बहू कहते आए थे। अब उसकी उम्र उन्नीस-बीस साल की है। चार-पाँच साल पहले एक लड़का हुआ था, दो-चार दिन बाद ही मर गया था। तब से वह निःसंतान ही है।

भाई-बहन को एक-साथ देखकर वह जल उठी। कड़ककर बोली- “कलमुंही, मेरी शिकायत करने गई थी।”

नीलाम्बर ने शान्त भाव से कहा- “तुमने इस दो आँखों वाली को कानी कहा और इसके चुटकी भरी?”

बिराज बोली- “तो क्या करती? सुबह उठते ही कोई काम तो किया नहीं, हाँ बछड़ा जरुर खोल दिया। बताइए, आज एक बूंद भी दूध नहीं मिला। इसने तो पिटने का काम किया है।”

नीलाम्बर ने पूछा- “बहन! बछड़ा खोलने का काम तो तुम्हारा नहीं है।”

भाई के पीछे छुपी हुई हरिमती ने कहा- “मैंने सोचा कि दूध दुहा जा चुका है।”

“फिर ऐसा समझा तो ठीक कर दूंगी।” इतना कहकर बिराज चौके में जाने लगी। नीलाम्बर ने हंसते हुए कहा- “याद है न, इस उम्र में तुमने भी माँ का तोता उड़ा दिया था, यह सोचकर कि पिंजरे में तोता उड़ ही नहीं सकता।”

उसने मुस्कराकर कहा- “याद है, तब मैं बहुत छोटी थी।”

हरिमतीने कहा- “दादा! चलो, जरा देखें कि बगीचे में आम पके या नहीं।”

“चलो।”

उसी पल नौकर यदु ने आकर कहा- “नारायण बाबा आए बैठे हैं।”

बिराज बाज की तरह झपटकर बोली- “उन्हें जाने के लिए कह दे... यदि तुमने सुबह-सुबह पीने का धन्धा शुरु किया तो मैं अपने प्राण दे दूंगी... ये सब क्या है....?”

नीलाम्बर ने कोई जवाब नहीं दीया। चुपचाप बहन को लेकर बगीचे की ओर चल पड़ा।

सरस्वती की पतली धार के पास बगीचा था। वहीं एक समाधि-स्तूप था। उसी के पास भाई-बहन दोनों आकर बैठ गए।

हरिमती ने अपने भाई के समीप खिसककर पूछा- “दादा (भैया)! भाभी तुम्हें बोष्टम ठाकुर कहकर क्यों पुकारती है?” (जो बंगाल वैष्णव एकतारा पर भजन गाकर भीख मांगते हैं, उन्हें बोष्टम कहते है।)

नीलाम्बर ने अपने गले की तुलसी माला को स्पर्श करते हुए कहा- “मैं बोष्टम हूँ, इसलिए मुझे वह बोष्टम ठाकुर कहती है।”

हरिमती ने अविश्वास के भाव से कहा- “तुम क्यों बोष्टम हो? बोस्टम तो भिखारी होते हैं... दादा! वे भीख क्यों मांगते हैं।”

नीलाम्बर ने कहा- “गरीब हैं, इसलिए भीख मांगते हैं।”

हरिमती ने भाई की ओर सवाल-भरी नजर से देखकर कहा- “बगीचा पोखर, धान, कुछ भी उसके पास नहीं होता?”

“कुछ भी नहीं। बोष्टम होने पर अपने पास कुछ नहीं रखना पड़ता।”

हरिमती ने झट से कहा- “तुम्हारे पास तो सब कुछ है, तुम क्यों नहीं दे देते?”

नीलाम्बर ने हंसते हुए कहा- “तुम्हारा दादा कुछ भी नहीं दे सकता। हाँ, जब तुम राजा की बहू बनोगी तो सब कुछ दे देगा।”

छोटी होने पर भी वह शरमा गई। छाती में मुंह छुपाकर बोली- “जाओ।”

नीलाम्बर ने उसे बड़े लाड़-प्यार से पाला था। आज से सात साल पहले उसकी विधवा माँ उसे तीन साल की छोड़कर मर गई थी। नीलाम्बर कितना ही लापरवाह हो, गांजा पीता हो, पर उसने माँ की अन्तिम इच्छा की अवहेलना नहीं की, हरिमती को सम्पूर्ण स्नेह से पाला। तभी तो हरिमती माँ की तरह अपने दादा की छाती में मुंह छुपा लेती थी।

तभी पुरानी नौकरानी ने पुकारा- “पूंटी! तुम्हें भाभी दूध पिलाने के लिए बुला रही है।”

पूंटी यानी हरिमती ने विनीत स्वर में कहा- “दादा! कह दो न, मैं अभी दूध नहीं पीऊंगी।”

“क्यों?”

“मेरी इच्छा नहीं है।”

“मगर तेरा गाल खींचने वाली भला क्यों मानेगी?”

नौकरानी ने फिर पुकारा- “पूंटी!”

नीलाम्बर ने समझाया- “बहन! जल्दी से दू पीकर आ जा, मैं यहीं हूँ।”

हरिमती मुंह लटकाए चली गई।

उस दिन दोपहर के समय नीलाम्बर के आगे थाली परोस कर बिराज बोली- “अब तुम्हीं बताओ कि भात के साथ कौन-कौन सी चीजें परोसूं? यह भी नहीं खाऊंगा, वह भी नहीं खाऊंगा.... आखिर मछली खाना भी छोड़ दिया....।”

नीलाम्बर ने कहा- “इतनी सारी सब्जियां तो हैं न!”

“इतनी सारी कहाँ... यह तो देहात है। यहाँ मछली जरुरी मिलती है, जिसे तुम खाते नहीं हो... अरे पूंटी! चल, पंखा झल।” फिर वह नीलाम्बर पर अपनी नजर गड़ाकर बोली- “देखो, थाली में कुछ भी छोड़ा तो मैं अपनी जान दे दूंगी।”

नीलाम्बर खामोशी से मुस्कराते हुए भोजन करता रहा।

बिराज झल्ला पड़ी- “हंसते हो... तुम्हारी इन्हीं बातों से मेरे शरीर में आग लग जाती है। कितने दुर्बल हो गए हो, गले की हड्‌डी दिखने लगी है।”

नीलाम्बर ने झट से कहा- “यह तुम्हारा भ्रम है।”

“भ्रम?” बिराज ने कहा- “मैं तुम्हारी हर आदत को पहचानती हूँ। एक दाना कम खाओ तो बता सकती हूँ... पूंटी! पंखा रखकर अपने दादा के लिए दूध ले आ।”

हरिमती चली गई।

बिराज फिर कहने लगी- “धर्म-कर्म से जीने के लिए सारी उम्र पड़ी है। पड़ोसिन मौसी आई थी, कह रही थी- इस उम्र में मछली खाना छोड़ने से आँखों की रोशनी व शरीर की शक्ति कम हो जाती है। मैं तुम्हें मछली खाना नहीं छोड़ने दूंगी।”

नीलाम्बर ने हंसकर कहा- “मेरे बदले तू ही खा लिया कर।”

बिराज चिढ़ गई, बोली- “भंगी-चमारों की तरह फिर तू-तकार कहने लगे?”

नीलाम्बर ने लज्जित होकर कहा- “क्या करुं बिराज... बचपन का स्वभाव छूटता ही नहीं। याद है न, मैंने तुम्हारा कितनी बार कान खींचा है।”

बिराज ने मुस्कराते हुए कहा- “अच्छी तरह याद है। मुझ छोटी पर तुमने क्या कम अत्याचार किए? कितनी बार तुमने माँ-बाबा से छुपाकर चोरी से चिलमें भरवाई है। बड़े दुष्ट हो।”

“सब-कुछ याद है- तभी तो मैं तुम्हें प्यार करने लगा था।”

बिराज ने बनावटी नाराज़गी से कहा- “अब चुप हो जाओ, पूंटी आ रही है।”

पूंटी दूध का कटोरा रखकर फिर पंखा झलने लगी।

बिराज हाथ धोकर आई और पूंटी से बोली- “पूंटी! पंखा मुझे दे दे और तू जाकर खेल।”

पूंटी के जाते ही बिराज ने पंखा झलते हुए कहा- “सच कहती हूँ कि इतनी कम उम्र में शादी नहीं होनी चाहिए।”

नीलाम्बर ने विरोध किया- “क्यों, मेरे ख्याल से तो लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में हो जानी चाहिए”?

बिराज ने असहमति प्रकट करते हुए कहा- “नहीं, मेरी बात ओर है। मैं दस साल की उम्र में ही इस घर की स्वामिनी बन गई थी। फिर मेरे कोई शरारती ननद व जेठानी नहीं थी, वरना तो छोटी आयु से ही घर में मार-पीट व बक-बक शुरु हो जाती है... इन्हीं सभी बातों को सोचकर मैं पूंटी बात नहीं चलाती। परसों ही राजेश्वरी तल्ला के घोषाल बाबू के यहाँ से पूंटी की विवाह-वार्ता के लिए घर की (दूती) आई थी। सवांग के लिए जेवर और एक हजार रुपये नकद। मगर मैं अभी दो साल तक बात नहीं करुंगी।”

नीलाम्बर ने चौंककर कहा- “क्या तुम मेरी बहन को एक हज़ार रुपयों में बेचोगी?”

बिराज दृढ़ता से बोली- “रुपये जरुर लूंगी... क्या तुमने मेरे तीन सौ रुपये नहीं दिए थे?” पीताम्बर की शादी में लड़की वालों को पाँच सौ नहीं देने पड़े थे? साफ-साफ कहे देती हूँ कि तुम इन बातों में दखल न देना। जो हमारी रीत है, उसी के हिसाब से काम होगा।”

नीलाम्बर ने चकित होकर कहा- “यह बात गलत है। हम पैसा देते हैं, पर मैं पूंटी का कान्यादान धर्म से करुंगा।”

बिराज ने अपने पति के हृदय की हलचल समझ ली। झट से बोली- “जो मर्जी आए करना, पर अभी तो अच्छी तरह खा लो। बहाना करके उठ मत जाना।”

“क्या मैं अभी उठता हूँ?”

बिराज ने कहा- “ना-ना... ऐसा तो तुम्हारे शत्रु भी नहीं कह सकते। इसके लिए मैंने उपवास किए हैं। अरे! बस खा लिया?” बिराज ने कहा- “देखो, अभी उठना मत... तुम्हें मेरी सौगन्ध... पूंटी! जा, छोटी बहू से दो सन्देस (एक प्रकार की बंगाली मिठाई) ले आ... ना-ना से काम नहीं चलेगा... तुम अभी भूखे हो... अगर उठ गए तो मैं खाना नहीं खाऊंगी... कल रात मैंने एक बजे तक जागकर सन्देस बनाए हैं।”

हरिमती ने दौड़कर एक तश्तरी में सन्देस लाकर नीलाम्बर के सामने रख दिया।

नीलाम्बर ने मुस्कराकर कहा- “इतने सन्देस? क्या मैं पेटू हूँ?”

बिराज ने अपनेपन से कहा- “बातचीत के दौरान धीरे-धीरे खा सकोगे।”

नीलाम्बर ने कहा- “तो खाना ही पड़ेगा।”

बिराज ने तर्क दिया- “यदि मछली नहीं खाओगे तो यह चीजें ज्यादा ही खानी पड़ेगी।”

तश्तरी को अपने करीब खींचकर कहा- “तुम्हारे इस अत्याचार के कारण तो मुझे वन में जाना...।”

“दादा, मुझे भी।” पूंटी ने कहा।

बिराज ने भड़ककर कहा- “चुप रह... खाएंगे नहीं तो जिन्दा कैसे रहेंगे?”

“इन सभी आरोपों व प्रत्यारोपों का पता ससुराल जाने पर चलेगा।”

2

लगभग डेढ़ माह बाद...

नीलाम्बर का बुखार आज सुबह उतर गया। बिराज ने उसके कपड़े बदल दिए। फर्श पर बिस्तर बिछा दिया। नीलाम्बर लेटा हुआ खिड़की की राह एक नारियल के पेड़ को देख रहा था। हरिमती उसे पंखा झल रही थी। कुछ देर बाद बिराज नहा-धोकर आई। उसके भीगे बाल पीठ पर छितराए हुए थे। उसके आते ही कमरे में एक दीप्ति-सी हुई।

नीलाम्बर ने चौंककर कहा- “यह क्या?”

बिराज ने बताया- “पंचानन्द बाबा की पूजा करनी है। सामग्री भिजवाई है।” उसने पति के सिरहाने बैठकर उसके माथे को छुआ- “अब बुखार नहीं है... सारे गाँव में चेचक फैला हुआ है। शीतला माता के मन में जाने क्या है! मोती मोउल के बच्चे के रोम-रोम पर माता की कृपा है।”

नीलाम्बर ने पूछा- “मोती के कौन-से लड़के को शीतला निकली है?”

बिराज ने कहा- “बड़े लड़के को।” उसने प्रार्थना की- “शीतला माँ! गाँव को शीतल करो... आह! उसका यही लड़का कमाता है। पिछले शनिवार को अचानक मेरी नींद टूट गई। मैंने तुम्हें स्पर्श किया, शरीर जल रहा था। मेरा तो खून जल गया। काफी रोई। फिर शीतला माता की मनौती मानी कि ये अच्छे हो जाएंगे तो मैं पूजा चढ़ाऊंगी, तभी अन्न-जल ग्रहण करुंगी, वरना जान दे दूंगी।” बिराज की आँखे छलछला आई। आँसू गिर पड़े।

“तुम उपवास कर रही हो?”

पूंटी ने बताया- “हाँ दादा, भाभी कुछ नहीं खाती। शाम को कच्चा चावल, वह भी मुट्‌ठीभर... और एक लोटा जल।”

नीलाम्बर को बुरा लगा, बोला- “यग तो पागलपन है।”

बिराज ने साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछते हुए कहा- “हाँ, यह पागलपन है, असली पागलपन! तुम स्त्री होते तो पति का महत्त्व समझते! पत्नी के सीने में कैसी पीड़ा होती है यह जानते... पूंटी! यदि पूजा करने जाना चाहती हो तो नहा-धोकर तैयार हो जाओ।”

“मैं जरुर जाऊंगी।”

“अपने दादा के लिए प्रार्थना करना।”

पूंटी के जाते ही नीलाम्बर ने कहा- “मेरे लिए वह तुमसे श्रेष्ठ वरदान मांगेगी।”

बिराज ने सरलता से हंसकर कहा- “कितने ही नाते-रिश्ते हों, पर पत्नी से ज्यादा सही प्रार्थना पति के लिए कोई भी नहीं कर सकता। मैं पाँच दिनों से उपवास कर रही हूँ, पर मारे चिंता के भूख को भूल ही गई। मैंने क्या-क्या किया- यह मेरा दिल ही जानता है। यदि तुम्हें कुछ भी हो जाता तो मैं जिन्दा न रहती। मांग का सिन्दूर मिटने के पहले ही मैं अपना सिर फोड़ लेती... विधवा का शुभ-यात्रा में कोई मुंह नहीं देखता, शुभ-कर्म में कोई नहीं बुलाता। दोनों हाथ पल्लू से बाहर नहीं निकाल सकती, माथे से आंचल नहीं हटा सकती... छि:-छि:! यह जीवन भी कोई जीवन होता है! जिस युग में लोग स्त्रियों को जलाकर मार डालते थे- वही ठीक था... अब वे स्त्री का दुख-दर्द नहीं समझते।”

नीलाम्बर ने कहा- “फिर जाकर तुम समझा दो।”

बिराज ने कहा- “मैं समझा सकती हूँ... और केवल मैं ही क्यों, जो तुम्हें पाकर खो देगी, वही समझा देगी।” सहसा बिराज हंस पड़ी- “मैं भी क्या बक-बक किए जा रही हूँ। बदन में कहीं दर्द तो नहीं है?”

नीलाम्बर ने ‘ना’ के लहजे में सिर हिलाकर कहा- “नहीं।”

बिराज से निश्चिन्त होते हुए कहा- “फिर कोई चिन्ता की बात नहीं। मुझे भूख लगी है, कुछ बनाने की तैयारी करुं! सच, आज तो मेरा कोई हाथ भी काट डाले तो क्रोध नहीं आएगा।”

नौकर यदु ने फिर पूछा- “क्या वैद्यजी को बुलाकर लाना होगा?”

नीलाम्बर ने बीच में कहा- “ना।” मगर बिराज ने कहा- “एक बार बुला ही ला... वे अच्छी तरह देख लेंगे तो चिन्ता मिट जाएगी।”

***

तीन-चार दिन बाद...

नीलाम्बर स्वस्थ होकर चण्डी-मण्डप में बैठा था।

तभी मोती मोउल आकर रोने लगा- “दादा ठाकुर! यदि आपने मेरे बेटे छीमन्त को नहीं देखा तो वह नहीं बचेगा। देवता! आपकी चरण-धूलि के स्पर्श से ही वह स्वस्थ हो जाएगा।”

नीलाम्बर ने पूछा- “उसके शरीर में कुछ दाने निकल आए है?”

मोती ने अश्रु पोंछते हुए कहा- “क्या बताऊं... कुछ पता नहीं चलता। नीच जाति में जन्मा हूँ... मूढ़ हूँ, कुछ जानता ही नहीं कि क्या करुं... आप चलिए।” उसने उसके दोनों पैर पकड़ लिए।

नीलाम्बर ने पांव छुड़ाकर कोमल स्वर में कहा- “तू चल, मैं थोड़ी देर में आऊंगा।”

मोती मोउल अपनी आँखें पोंछता हुआ चला गया।

नीलाम्बर सोचने लगा कि वह अस्वस्थ है, दुर्बल है, वह कैसे कहीं जा पाएगा? पर वह रोगियों की सेवा करके उतना लोकप्रिय हो गया है कि आसपास के गांवों के लोग भयंकर बीमारियों में भी उसे दिखाकर सांत्वना और आशीर्वचन लेते हैं, तभी उनके परिवारवालों को धैर्य होता है। नीलाम्बर यह भलीभांति जानता था कि ये अशिक्षित और भोले लोग डॉक्टर-वैद्य की दवाओं की अपेक्षा उसकी चरण-धूलि और मन्त्रबद्ध पानी में अधिक श्रद्धा रखते हैं! यही कारण था कि वह भी किसी को निराश नहीं करता था।

मोउल के जाने के बाद वह काफी बेचैन हो गया। सोचना लगा कि बाहर कैसे निकले? बिराज से वह डरता था। यह बात उसे कैसे कहे?

इसी समय हरिमती ने आवाज दी- “दादा! भाभी सोने के लिए कह रही है।”

नीलाम्बर ने कोई जवाब नहीं दिया।

हरिमती ने समीप आकर कहा- “दादा, सुनाई नहीं पड़ा?”

नीलाम्बर ने कहा- “नहीं।”

हरिमती ने बताया- “जब से खाया तब से यहीं बैठी हो। भाभी का हुक्म है कि बैठने की जरुरत नहीं है, जाकर सो जाओ।”

नीलाम्बर ने आहिस्ता से पूछा- “पूंटी! तुम्हारी भाभी क्या कर रही है?”

“भोजन करने बैठी ही है।”

नीलाम्बर ने खुशामद-भरे स्वर में कहा- “मेरी लाड़ली बहन, मेरा एक काम करेही?”

“जरुर।”

नीलाम्बर ने धीरे से कहा- “चुपके से मेरी चादर और छाता ला दे।”

हरिमती की आँखे विस्फारित हो गई, बोली- “ना दादा ना, भाभी उधर ही मुंह करके बैठी है।”

नीलाम्बर ने फिर पूछा- “तो तुम नहीं ला सकोगी?”

“नहीं दादा, भाभी नाराज हो जाएंगी। तुम चलकर सो जाओ।”

उस समय दोपहर के दो बजे थे। धूप बहुत तेज थी, इसलिए उसका बिना छाता लिए जाने का साहस नहीं हुआ। अन्त में निराश होकर अपनी बहन का हाथ पकड़कर भीतर आकर लेट गया।

हरिमती इधर-उधर की बातें करके सो गई। नीलाम्बर सोचता रहा कि यह बात बिराज को कैसे कही जाए कि उसका हृदय पिघल जाए।

***

दिन ढल गया था। बिराज अपने घर के चिकने और ठण्डे सीमेंट के फर्श पर छाती के नीचे तकिया दबाए अपने मामा-मामी को पत्र लिख रही थी कि किस तरह गाँव में शीतला माता का प्रकोप हुआ, कैसे उसी का घर मृत्यु की छाया से बचा, कैसे उसका सुहाग... उसकी चूड़ियां बची रहीं, यह लम्बी दास्तान लिखने से खत्म ही नहीं हो रही थी। तभी नीलाम्बर ने लेटे-लेटे पुकारा- “बिराज! मेरी एक बात मानोगी?”

कलम को दवात में रखकर सिर उठाकर पूछा- “कौन-सी बात?”

नीलाम्बर सोचने लगा कैसे कहूँ?

बिराज ने फिर कहा- “यदि बात मानने लायक हुई तो मैं जरुर मानूंगी।”

क्षणभर विचारकर नीलाम्बर ने कहा- “बिराज! तुम मेरी बात नहीं मानोगी, इसलिए कहने का कोई लाभ नहीं है।”

बिराज चुप रही। चिट्‌ठी लिखने के लिए फिर तैयार हुई, पर दिल नहीं लगा। उसके भीतर उत्सुकता बढ़ती गई। वह अच्छी तरह बैठती हुई बोली- “अच्छा बताओ, मैं तुम्हारी बात मानूंगी।”

नीलाम्बर थोड़ा मुस्कुराया। फिर सहमकर बोला- “आज दोपहर को मोती आया था। मेरे पांव पकड़कर रोने लगा... उसको यकीन है कि जब तक उसके घर में मेरी चरण-धूलि नहीं पड़ेगी, तब तक उसका बेटा छीमन्त स्वस्थ नहीं होगा। मुझे एक बार वहाँ जाना है।”

बिराज उसका मुंह देखती रही। थोड़ी देर बाद बोली- “इस बीमारी में जाओगे?”

“जाना ही पड़ेगा, उसे वचन दे चुका हूँ।”

“वचन क्यों दिया?”

नीलाम्बर चुप।

बिराज ने तमककर कहा- “तुम समझते हो कि तुम्हारे जीवन पर केवल तुम्हारा ही अधिकार है? उसमें कोई भी दखल नहीं दे सकता? तुम अपनी मर्जी का करोगे?”

नीलाम्बर ने हंसकर कुछ कहना चाहा, पर पत्नी के बदले हुए तेवर देखकर वह हंस नहीं सका। किसी तरह इतना ही कह पाया- “उसका रोना देखकर...।”

बिराज बात को काटकर बोली- “ठीक ही तो है। उसका रोना तुमने देखा, पर मेरा रोना इस संसार में देखने वाला कोई नहीं है।” फिर चिट्‌ठी को पकड़कर बोली- “उफ! ये मर्द कैसे होते हैं। मैंने चार दिन, चार रातें बिना खाए गुजारीं, इसी का यह बदला मिल रहा है। घर-घर बीमारी फैली हुई है। शीतला माता का प्रकोप है और ये बीमारी और कमजोरी में भी रोगी देखने जाएंगे और उसे छूएंगे... जाओ... मेरे तो प्रभु हैं।”

नीलाम्बर के होठों पर एक फीकी मुस्कान दौड़ गई, बोला- “तुम स्त्रियां तो हर बात में भगवान की दुहाई देती हो।”

बिराज क्रोध में उबल पड़ी- “भगवान पर तो तुम्हें ही भरोसा है, हमें नहीं क्योंकि हम कीर्तन नहीं करतीं। तुलसी-माला नहीं पहनतीं, मुर्दे नहीं जलातीं, इसलिए भगवान हमारे नहीं, तुम्हारे हैं।”

नीलाम्बर बिराज के गुस्से पर हंस पड़ा, बोला- “इसमें गुस्सा क्यों करती हो! भगवान पर विश्वास करने के लिए जितनी शक्ति चाहिए उतनी स्त्रियों में नहीं होती, इसमें तुम्हारा दोष क्या?”

बिराज झल्ला पड़ी- “यह दोष नहीं, स्त्रियों का गुण है! हाँ, तुम कितना भी तर्क करो, बातें बनाओ, पर इस बीमारी में तुम्हें घर से नहीं जाने दूंगी।”

नीलाम्बर चुपचाप लेट गया। बिराज भी चुपचाप पड़ी रही। फिर उठी। बुदबुदाई- “ओह! सांझ हो गई। दीया-बत्ती तो करुं।”

वह चली गई। लगभग एक घण्टे के बाद लौटी तो उसने नीलाम्बर को गायब पाया। तुरंत पूंटी को पुकारा- “तेरे दादा कहाँ हैं, जरा बाहर देख।”

पूंटी चन्द क्षणों के बाद हांफती हुई आकर बोली- “दादा कहीं नहीं मिले। नदी-तट पर भी नहीं।”

“हूँ...” बिराज ने हुंकार भरी और रसोई की चौखट पर गुमसुम-सी बैठ गई।

3

तीन साल बाद...

हरिमती को ससुराल गए तीन माह हो चुके थे। पीताम्बर ने अपने खाने-पीने का हिसाब एक घर में रहते हुए भी अलग कर लिया है। सांझ हो गई है। चण्डी-मण्डप के बरामदे में एक पुरानी खाट पर नीलाम्बर बैठा था। बिराज उसके पास आकर मौन खड़ी हो गोई।

नीलाम्बर उसे देखकर चौंका,

“एक बात पूछूं?”

“पूछो।”

बिराज ने कहा- “क्या खाने से मृत्यु आ जाती है?”

नीलाम्बर खामोश।

बिराज ने फिर कहा- “तुम दिन-प्रतिदिन दुर्बल क्यों होते जा रहे हो?”

“कौन कहता है?”

बिराज ने पति को गौर से देखा, कहा- “कोई कहेगा तभी मैं जानूंगी? क्या वास्तव में तुम यह मन की बात कह रहे हो?”

नीलाम्बर हंसा। संभलकर बोला, “नहीं रे, ऐसी कोई बात नहीं है। तुम्हें भ्रम है। हाँ, यह बात तुम्हें किसी ने कही है या तुम खुद सोच रही हो?”

बिराज ने उसकी बात पर ध्यान न देकर कहा- “तुम्हें कितना कहा था कि पूंटी की शादी ऐसी जगह न करो, लेकिन तुमने कुछ नहीं सुना। जो कुछ पैसा था, वह गया, मेरे तन के सारे गहने गए... जमीन गिरवी रख दी और दो बाग बेच दिए। फिर दो वर्ष से निरन्तर अकाल। जरा सोचो, दामाद की पढ़ाई का खर्च हर माह कैसे दोगे? तनिक भी देर हुई कि पूंटी को भला-बुरा सुनना पड़ेगा। वह बड़ी ही स्वाभिमानी है, तुम्हारी निन्दा सुन नहीं सकेगी। भगवान जाने कि अन्त में क्या होगा।”

नीलाम्बर निरुत्तर रहा।

बिराज फिर कहने लगी- “मैं समझती हूँ कि तुम पूंटी की चिन्ता में रात-दिन घुल-घुलकर अपना सत्यानाश कर रहे हो। पर में ऐसा नहीं होने दूंगी। इससे तो अच्छा यह होगा कि थोड़ी जमीन बेचकर चार-पाँच सौ रुपये एक-साथ देकर समधी को कहो कि हमारा पीछा छोड़ें। इससे ज्यादा हम गरीब कुछ नहीं दे सकते। फिर पूंटी के भाग्य! जो उसे भुगतना है, भुगतना पड़ेगा।”

नीलाम्बर फिर भी चुप रहा। बिराज ने उसकी आँखों-में-आँखें डालकर कहा- “ऐसा नहीं कहोगे?”

नीलाम्बर ने लंबी सांस लेकर कहा- “कह सकता हूँ... पर बिराज, हम अपना सब कुछ बेच डालें तो हमारा क्या होगा?”

बिराज ने कहा, “होगा क्या? महाजन की अकड़ और सूद की चिन्ता से तो वह चिन्ता अधिक नहीं है। मेरे कोई सन्तान भी नहीं जिसके लिए चिन्ता की जाए। हम दोनों जने किसी भी तरह जीवन बसर कर लेंगे। यदि न हुआ तो तुम तो बोष्टम ठाकुर हो ही।”

***

ठीक इसके पाँच-छ: दिनों के बाद...

रात के दस बजे। नीलाम्बर बिस्तर पर पड़ा-पड़ा हुक्के की नली को मुंह में दबाए तम्बाकू पी रहा था। बिराज घर का काम खत्म करके अपने लिए एक बड़ा-सा पान लगा रही थी कि उसने पूछा- “क्यों जी, शास्त्र की सारी बातें सच होती हैं?”

नीलाम्बर ने हुक्के की नली को मुंह से निकालकर कहा- “सच नहीं तो क्या झूठ होती हैं?”

“पर वे पहले की तरह क्या सच होती हैं?”

“पर वे पहले की तरह क्या सच होती है?”

नीलाम्बर ने दार्शनिक की तरह कहा- “मेरी समझ में सत्य सदा सत्य ही रहा है। सत्य पहले भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल भी सत्य रहेगा।”

बिराज ने कहा- “सावित्री और सत्यवान की ही कहानी लो। सावित्री के पति के प्राण यमराज ने लौटा दिए, क्या यह सच है?”

“हाँ, जो सावित्री की तरह सती है, वह पति के प्राण अवश्य लौटा सकती है।”

“फिर तो मैं भी लौटा सकती हूँ।”

“अरे, वे तो देवता ठहरे।

बिराज ने पान का डिब्बा एक ओर खिसकाकर कहा- “सतीत्व में मैं भी किसी से कम नहीं हूँ। चाहे सीता हो चाहे सावित्री।”

नीलाम्बर ने कोई उत्तर नहीं दिया। अपलक पत्नी की ओर देखता रहा। दीये की रोशनी में बिराज की आँखों में एक पवित्र आलोक दपदपा रहा था।

नीलाम्बर ने डरते हुए कहा- “फिर तो तुम कुछ भी कर सकती हो।”

बिराज ने डरते हुए कहा- “फिर तो तुम कुछ भी कर सकती हो।”

बिराज ने भावावेश में पति के चरणों में सिर टेक दिया, कहा- “तुम मुझे यही आशीर्वाद दो। होश संभालने के बाद मैंने तुम्हारे इन दो जरणों के अलावा किसी का ध्यान भी नहीं किया है। मैं सचमुच सती हूँ तो बुरे दिनों में मैं तुम्हें लौटा सकूंगी। मेरी हार्दिक इच्छा है कि इन्हीं चरणों में मांग में सिंदूर भरकर और हाथों में चूड़ियां पहनकर मैं मर जाऊं।” बिराज का गला भर आया।

नीलाम्बर ने कांपते हुए उसे अपने सीने से लगा लिया, कहा- “क्या बात है? आज किसी ने तुम्हें कुछ कहा है?”

बिराज उसी के सीने में मुंह छुपाए रोती रही... चुपचाप।

नीलाम्बर ने फिर कहा- “बिराज! आज तुम्हें क्या हो गया है?”

बिराज ने अपनी आँखें पोंछकर कहा- “यह फिर कभी पूछना।”

नीलाम्बर ने कुछ नहीं पूछा। वह उसके बालों में उंगलियां उलझाता रहा। वह जानता था कि पूंटी की शादी के बाद जो विषम परिस्थितियां पैदा हुई थीं, उनसे वह परिचित थी, चिन्तित थी।

सहस बिराज ने मुस्कराकर कहा- “एक बात पूछूं?”

बिराज की सबसे बड़ी सुन्दरता थी उसकी मुग्ध मनोहारिणी हंसी, जो एक बार देख लेता, वह कभी न भूलता।

बोली- “क्या मैं काली-कलूटी हूँ?”

नीलाम्बर ने झट से कहा- “ना... ना...।”

बिराज ने पूछा- “यदि मैं सुन्दर नहीं होती तो क्या तुम मुझे इतना ही प्यार करते?”

इस विचित्र सवाल पर वह विस्मित हो गया। हलकान-सा महसूस करते हुए उसने मुस्कराकर कहा- “जिस परम सुन्दरी को मैं छोटेपन से प्रेम करता आया हूँ, यदि वह असुन्दर होती तो मैं क्या करता, यह कैसे बतलाऊं?”

बिराज अपने पति के गले में झूलती हुई बोली- “मैं बताऊं... तुम मुझे ऐसे ही प्यार करते। यह मैं ऐसे कह रही हूँ कि मैं तुम्हें जितना जानती हूँ, उतना तुम खुद अपने को नहीं जानते। तुम अन्याय और पाप नहीं कर सकते। अपनी पत्नी को प्रेम न करना पाप है, अन्याय है, इसलिए तुम मुझे हर दशा में प्यार करते, चाहे मैं काली-कुबड़ी ही क्यों न होऊं?”

नीलाम्बर मौन रहा।

बिराज ने लेटे-लेटे उसके गालों को स्पर्श किया। उसने गीलेपन का अहसास हुआ तो चौंक पड़ी- “तुम्हारी आँखों में आँसू?”

“कैसे जाना?”

“तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि मेरी शादी नौ साल की उम्र में हुई थी और मैंने तुम्हें दोबारा पाया है। मैं तुम्हारे शरीर में घुल-मिल गई हूँ।”

नीलाम्बर की आँखों से आँसू टपकने लगे।

बिराज अपने आंचल से उसके आँसू पोंछकर बोली- तुम चिन्ता न करो। तुमने पूंटी की शादी करके अपना कर्तव्य निभाया। माँ हमें स्वर्ग से आशीर्वाद देगी बस, तुम स्वस्थ हो जाओ और कर्ज से मुक्ति पाओ, भले ही तुम्हारा सर्वस्व चला जाए।”

नीलाम्बर ने भरे गले से कहा- “तुम नहीं जानती बिराज कि मैंने क्या किया है। मैंने तुम्हारा...।”

बिराज ने अपने पति के मुंह पर हाथ रखते हुए कहा- “मैं सब जानती हूँ। चाहे और कुछ जानूं या न जानूं, पर मैं इतना अवश्य जानती हूँ कि तुम्हें बीमार नहीं पड़ने दूंगी। जिसका जो देना है, उसे देकर निश्चिंत हो जाओ। फिर उपर भगवान और चरणों में मैं।”

नीलाम्बर ने लम्बा श्वास लिया, बोला कुछ नहीं।

4

छ: माह बीत गये। पूंटी की शादी के समय ही छोटा भाई अपना हिस्सा लेकर अलग हो गया था। नीलाम्बर कर्ज आदि लेकर बहनोई की पढ़ाई व अपना घर का खर्च चलाता रहा। कर्ज का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। हाँ, बाप-दादों की जमीन वह नहीं बेच सका।

तीसरे प्रहर भालानाथ मुकर्जी को लेकर जली-कटी सुना गए थे। बिराज ने सब सुन लिया था। नीलाम्बर के भीतर आते ही चुपचाप उसके सामने खड़ी हो गई। नीलाम्बर धबरा गया। हालांकि वह क्रोध व अपमान से धुंआ-धुंआ हा रही थी, पर उसने अपने को संयत करके कहा- “यहाँ बैठो!”

नीलाम्बर पलंग पर बैठ गया। बिराज उसके पायताने बैठ गई, बोली- “कर्ज चुकाकर मुझे मुक्त करो, वरना तुम्हारे चरण छूकर मैं सौगन्ध खा लूंगी।”

नीलाम्बर समझ गया कि बिराज सब कुछ जान चुकी है। उसने बिराज को अपने पास बिठाया और कोमल स्वर में कहा- “छि: बिराज, इतनी साधारण बात पर तुम इतनी नाराज हो जाती हो!”

बिराज ने भड़ककर कहा- “इस पर भी मनुष्य नाराज नहीं होता है तो फिर कब नाराज होता है?”

नीलाम्बर तुरंत इसका उत्तर नहीं दे पाया।

“चुप क्यों हो?”

नीलाम्बर ने धीरे से कहा- “बिराज, क्या जवाब दू? किंतु...”

“किंतु-परंतु से काम नहीं चलेगा। मेरे होते हुए तुम्हारा कोई अपमान कर जाए और मैं चुप रहूँ, यह नहीं हो सकता। आज ही इसकी व्यवस्था करो, वरना मैं अपने प्राण दै दूँगी।”

नीलाम्बर ने डरते हुए कहा- “एक ही दिन में यह सब उपाय कैसे होंगे बिराज?”

“फिर दो दिन बाद।”

नीलाम्बर चुप।

भोला मुकर्जी की बाते बिराज को अब भी शूल की तरह चुभ रही थीं। बोली- “एक अपूर्ण आशा के पीछे अपना-आपसे छल न करो। मुझे बरबाद न करो। जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, वैसे-वैसे तुम इस कर्ज के जाल में फंसते जाओगे। मैं तुमसे भीख मांगती हूँ कि इससे उबर जाओ।”

वह रो पडी! नीलाम्बर ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा- “बिराज क्यों बेचैन ही रही हो! किसी साल संपूर्ण फसल हो गई, उस दिन तीन-चौथाई जमीन-जायदाद छुड़वा लूंगा।”

बिराज आर्द्र स्वर में बोली- “यह जरूरी नहीं कि फसल सही हो। सूनो, में लोगों के तगादे सह सकती हूँ, पर तुम्हार अपमान नहीं। सोचो, तुम मेरी आँखों के सामने सूखते जा रहे हो। तुम्हारी स्वर्ण-काया काली हो, यह मैं नहीं सह सकती। अच्छा अब योगेन (पूंटी का पति) की पढ़ाई का खर्च और कितने दिन देना पड़ेगा?”

“एक साल के बाद वह डॉक्टर हो जायेगा।”

एक पल चुप होकर बिराज फिर बोली- “पूंटी को राजरानी की तरह पाला। यदि मैं जानती कि उसके कारण हमें इतना दु:ख मिलेगा तो मैं उसे बचपन में नदी में बहा देती... हे भगवान! पूंटी के ससुरालवाले भी कैसे लोग हैं? बड़े आदमी होकर भी हमारी छाती पर मूंग दल रहे हैं... चारों ओर अकाल का छायाएं मंडरा रही है! लोग भूखे मर रहै हैं, ऐसे समय हम कैसे दूसरे की पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं?”

नीलाम्बर ने उसे समझाते हुए कहा- “बिराज! मैं सब समझता हूँ मगर शालिग्राम के सामने जो सौगन्ध खाई है, उसका क्या होगा?”

“शालिग्राम सच्चे देवता हैं, वे हमारा कष्ट हरेंगा। फिर मैं तुम्हारी अर्धांगिनी हूँ। तुम्हारे पापों को अपने सिर पर लेकर जन्म-जन्मान्तर तक नरक भाग लूंगी, पर तुम कर्ज मत लो।” वह फूट-फूटकर रोने लगी। बड़ी देर तक रोती रही। फिर छाती में मुंह छुपाए हुए बोली- “मैंने कभी तुम्हें उदास वह दु:खी नहीं देखा। मेरी ओर देखो! क्या अन्त में मुझे राह की भिखारिन बना दोगे?”

नीलाम्बर कुछ बोला नहीं। केवल उसके बालों को सहलाता रहा।

बाहर से नौकरानी सुन्दरी ने पुकारा- “बहू माँ, चूल्हा जला दूं?”

बिराज ने बाहर आकर कहा- “जला दो। मैं खाना नहीं खाऊंगी। तुम अपने लिए बना लो।”

“अरे बहू माँ! आपने तो आपने तो रात का खाना भी छोड़

दिया।” सुन्दरी ने जोर से कहा ताकि नीलाम्बर भी सुन ले।

सुन्दरी 35-36 साल की थी। काफी सुन्दर थी। उस बेचारी को यह पता नहीं कि उसका विवाह कब हुआ और कब वह विधवा हुई। माँ, उसकी ख्याति पूरे कृष्णपुर में फैली हुई थी।

बिराज ने भड़ककर कहा- “मुझे उपदेश मत दिया कर, समझी!”

सुन्दरी ढीठ व चालाक थी, खामोश रही।

***

दो साल पहले ही यह हलका कलकत्ते के एक जमींदार ने खरीदा था। उसका छोटा लड़का राजेन्द्र कुमार बहुत ही चरित्रहीन और उद्दण्ड था। उसके बाप ने कलकत्ता के बाहर रखने के बहाने उसे यहाँ भेजा था, पर वह जमींदारी के काम में जरा भी रुचि नहीं लेता था। हिवस्की फ्लास्क लटकाए तथा बंदूक लिए चिड़ियों का शिकार करता रहता था। उसके साथ उसके पाँच कुत्ते रहते थे। इसी बीच एक दिन उसकी नजर नहाकर घड़ा लेकर जाती हुई बिराज पर पड़ी। वह मन्त्रमुग्ध हो गया। सोचने लगा कि कोई इतना सुन्दर भी हो सकता है? वह उस अतुल रुपराशि को मग्न होकर निहारता रहा। उससे बिराज की दो बार दृष्टि भी मिली।

घर पहुंचते ही बिराज ने सुन्दरी को बुलाकर कहा- “सुन्दरी! घाट पर जो आदमी खड़ा है, उसे जाकर कह दे कि वह हमारे बगीचे में न आया करे।”

सुन्दरी उसे मना करने गई, पर उसे देखते ही बोल पड़ी- “अरे आप!”

“मुझे पहचानती हो?”

“आपको कौन नहीं पहचानता?”

“फिर एक बार डेरे पर आना!” कहकर राजेन्द्र चल पड़ा।

उस दिन के बाद सुन्दरी कई बार राजेन्द्र के डेरे में गई-आई। बिराज को मालूम था। एक दिन बिराज ने रसोई में चूल्हें में लकड़ी डालकर कहा- “तुम वहाँ बार-बार जाती हो अनेक बातें करती हो, पर तुमने मुझे कुछ नहीं बताया?”

“आपको किसने बताया?”

“किसी ने नहीं बताया। मैंने खुद जाना। बता कल तुझे कितने रुपये इनाम के मिले... दस?”

सुन्दरी के होंठ चिपक गए। उसका चेहरा पीला पड़ गया।

बिराज ने मुस्कराकर फिर कहा- “तुझमें वह साहस नहीं है कि तू मुझे कुछ कह सके। अपने आंचल में बंधे इस दस रुपये के नोट को लौटा आ। तू गरीब है, कहीं काम-धंधा करके पेट पाल... अब तू वह नहीं कर सकती, जो जवानी में किया है। क्यों चार भले आदमियों का सर्वनाश कर रही है। कल से मेरे घर में तेरा प्रवेश बन्द!”

दारुण आश्चर्य से सुन्दरी निःशब्द खड़ी रही। वह इस घर की पुरानी नौकरानी थी। उसने बिराज की शादी देखी और पूंटी को हाथों में पाला था। घर की स्वामिनी के साथ तीर्थयात्रा की। वह इस परिवार की एक सदस्या है। आज बिराज ने उसका इस घर में प्रवेश बन्द कर दिया। विह्वल-सी खड़ी रही सुन्दरी।

पतीली का पानी कम हो गया था। सुन्दरी ने देना चाहा, पर बिराज ने न लेते हुए कहा- “तेरे हाथ का जल छूने से भी उनका अकल्याण होगा। तूने इसी हाथ से रुपये लिए थे।”

सुन्दरी इस अपमान का भी कोई जवाब नहीं दे सकी। बिराज ने दूसरी लालटेन जलाई और स्वयं ही कलसी लेकर घनघोर रात्रि में पानी लेने चल पड़ी।

सुन्दरी स्तब्ध रह गई।

5

दो दिन बाद नीलाम्बर ने पूछा- “बिराज! सुन्दरी दिखाई नहीं पड़ रही है।”

बिराज ने कहा- “मैंने उसे निकाल दिया।”

नीलाम्बर ने उसे मजाक समझा, कहा- “अच्छा किया, मगर उसे हुआ क्या?”

“सचमुच मैंने उसे निकाल दिया।”

“मगर उसे हुआ क्या?” नीलाम्बर को अब भी यकीन नहीं आ रहा था। उसने समझा कि बिराज चिढ़ गई है, इसलिए चुपचाप चला गया। घण्टे-भर बाद आकर बोला- “उसे निकाल दिया, कोई बात नहीं, पर उसका काम कौन करेगा?”

बिराज ने मुंह फेरकर कहा- “तुम।”

“फिर लाओ, मैं जूठे बर्तन साफ कर दूं।”

बिराज का चेहरा बदल गया। उसने पति की चरणधूलि लेकर कहा- “तुम यहाँ से चले जाओ, ऐसी बातें सुनना भी महापाप है।”

नीलाम्बर ने हंसकर कहा- “पता नहीं, तुम्हें किस बात से पाप नहीं लगता है।”

फिर भी नीलाम्बर की चिन्ता कम नहीं हुई। उसने शान्त होकर पूछा- “तुमने खर्च कम करने के लिए सुन्दरी को निकाल दिया?”

“ना, उसने सचमुच अपराध का है।”

“क्या?”

“नहीं बताती।” वह चली गई। थोड़ी देर बाद फिर आकर बोली- “ऐसे ही बैठे रहोगे?”

नीलाम्बर ने लम्बा सांस लेकर कहा- “सुनो, मैं तुम्हें दासी का काम नहीं करने दूंगा।”

बिराज ने जोर देकर कहा- “तुम सदा अपनी मर्जी का करते आए हो, मेरी तुमने कभी भी नहीं सुनी। मैं कुछ भी कहती हूँ तो तुम कोई-न-कोई बहाना करके टाल देते हो। बड़े दुःख से आज मुझे कहना पड़ रहा है कि तुम केवल अपनी ही सोचते हो। आज तुम्हें मुझे दासी का काम करते देख लज्जा आ रही है, अगर कल तुम्हें कुछ हो जाए तो परसों मुझे पराये घरों में दासी का काम ही तो करना पड़ेगा।”

इस विचित्र अभियोग से नीलाम्बर मौन हो गया। कुछ देर बाद बोला- “यह सब तुम शायद नाराज होकर कह रही हो, वरना तुम खूब जानती हो कि स्वर्ग में बैठकर भी मैं तुम्हारे दुःख नहीं देख पाऊंगा।”

बिराज ने कहा- “मैं भी पहले ऐसा ही समझती थी, पर पुरुषों की माया-ममता का पता भी समय के बिना अच्छी तरह नहीं जाना जा सकता। अब शायद तुम्हें याद न हो-छुटपन में मेरे सिर में दर्द था, मैं सो गई थी। तुम्हें विश्वास नहीं हुआ कि मैं बीमार हूँ। उसी दिन मैंने कसम खाई थी कि मैं तुम्हें कुछ भी नहीं कहूँगी। आज तक मैं अपनी कसम पर अडिग हूँ।”

नीलाम्बर कुछ क्षण चुप रहा, फिर चल पड़ा।

***

रात के समय दीया जलाकर बिराज पत्र लिख रही थ। नीलाम्बर लेटे-लेटे सब कुछ देख रहा था। अचानक वह बोला- “इस युग में तो तुम्हारा शत्रु भी तुम पर दोष नहीं लगा सकता, पर पूर्वजन्म में पाप किए बिना ऐसा नहीं होता।”

बिराज ने सिर उठाकर कहा- “क्या नहीं होता?”

नीलाम्बर ने कहा- “ईश्वर ने तुम्हें राजरानी की तरह बनाया है, परंतु...!”

“परंतु क्या?”

नीलाम्बर चुप रहा।

एक पल के लिए चुप रहकर बिराज रुखे स्वर में बोली- “यह समाचार तुम्हें ईश्वर कब दे गए?”

नीलाम्बर ने कहा- “आँख-कान हो तो भगवान सबको समाचार देते रहते है।”

बिराज ‘हूँ’ कहकर चुप हो गई।

नीलाम्बर ने कहा- “तुम्हारे जैसी कितनी ही स्त्रियां मुझ जैसे मूर्ख के पल्ले पड़ी हुई है।”

बिराज से सहा नहीं गया। पूछा- “तुम समझते हो कि ऐसी बातों से मुझे खुशी होती है?”

नीलाम्बर ने समझ लिया कि बिराज क्रोधित हो गई है। वह सोचता रहा कि कैसे प्रसन्न करे।

बिराज बिफर पड़ी- “रुप-रुप-रुप...। सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। दूसरे लोग भी कहते हैं। शायद वे विशेषतः यही देखते हैं, किंतु तुम तो मेरे पति हो! बचपन से ही तुम्हारे आश्रय में रहकर मैं बड़ी हुई हूँ। तुम भी इससे अधिक कुछ नहीं देख पाते? सब यह सुन्दरता ही मुझमें सर्वस्व है? क्या सोचकर यह बात तुम अपनी जबान पर लाते हो? मैं क्या रुप का व्यापार करती हूँ या इसी रुप में फंसाकर तुम्हें रखना चाहती हूँ?”

नीलाम्बर ने आकुल स्वर में कहा- “ना... ना, ऐसा नहीं है।”

“मैं घरेलू बेटी और बहू हूँ। इस तरह की बातें करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती?” कहते-कहते क्रोध और अभिमान में उसकी आँखो में अश्रु झिलमिला आए जो दीये के उजाले में स्पष्ट चमक रहे थे।

स्वयं बिराज ने एक बार कहा था कि हाथ पकड़ लेने से गुस्सा ठंडा हो जाता है। नीलाम्बर को वह बात याद आ गई। उसने बिराज का दाहना हाथ अपने हाथ में ले लिया। बाएं हाथ से बिराज की आँखें पोंछ डालीं।

उस रात दोनों बड़ी देर तक सो नहीं पाए। नीलाम्बर ने बिराज की ओर देखकर कहा- “आज तुम्हें इतना गुस्सा क्यों आ गया?”

“तुम बात ही ऐसी करते हो।”

“मैंने कोई बुरी...।”

“बुरी बात के लिए ही तो मैंने सुन्दरी को...।”

“बस... इतनी-सी बात...?”

बिराज अपने-आपसे कहने लगी- “सुनो, हठ नहीं करो। मैं दूध पीती बच्ची नहीं हूँ। भला-बुरा समझती हूँ। उसने ऐसा काम किया कि मैंने उसे निकाल दिया। उसकी सारी कथा मर्द न सुने, यही बेहतर है।”

“मैं सुनना भी नहीं चाहता” नीलाम्बर इतना कहकर करवट बदलकर सो गया।

***

बंटवारे के साथे ही पीताम्बर ने बांस और चटाई की दीवार बना ली थी, आगे एक बैठक थी। घर को सजाकर आरामदायक बना लिया। वैसे ही वह नीलाम्बर से कम बोलता था और अब तो उससे लगभग कोई संबंध भी नहीं रहा। सुन्दरी के जाने के बाद कई कार्य ऐसे थे जिन्हें लोक-लाज के डर से बिराज रात को देर से करती थी इसलिए उसे कभी-कभी रात को देर तक जागना भी पड़ता था।

एक बार रात को इसी तरह काम कर रही थी कि उसकी देवरानी मोहिनी ने आकर कहा- “दीदी! रात बहुत हो गई है।”

बिराज चौंक पड़ी।

“दीदी, मैं हूँ मोहिनी।”

बिराज ने आश्चर्य से पूछा- “छोटी बहू, इतनी रात को....।”

“दीदी, तनिक मेरे पास आओ।”

बिराज समीप गई।

मोहिनी ने पूछा- “जेठजी सो गए?”

“हाँ।”

मोहिनी ने कहा- “कुछ कहना चाहती हूँ, पर कहने का साहस नहीं पड़ता।” जैसे छोटी बहू हो रही हो।

बिराज बोली- “क्या बात है?”

“जेठजी पर नालिश हुई है! कल सम्मन आएगा। अब क्या होगा दीदी?”

बिराज भीतर-ही-भीतर डर गई, पर अपने मन के भावों को छुपाती हुई बोली- “तो इसमें डरने की क्या बात है बहू?”

मोहिनी ने पूछा- “कोई डर नीं है दीदी”?

“मगर नालिश किसने की है।”

“भोला मुखर्जी ने।”

“अब समझी।” बिराज ने कहा- “मुखर्जी मोशाय का पावना है, इसलिए नालिश की है।”

मोहिनी ने कुछ पल मौन रहने के बाद कहा- “दीदी! मैंने तुमसे कभी भी अधिक बातचीत नहीं की, मगर आपको मेरी एक बात माननी पड़ेगी।”

“मानूंगी बहन!”

“तो अपना हाथ इस टिकटी की ओर बढ़ा दो।”

बिराज के हाथ बढ़ाते ही मोहिनी ने उसके मुलायम और छोटे-से हाथ पर एक सुनहला हार रख दिया।

बिराज चकित रह गई- “छोटी बहू! यह क्यों दे रही हो?”

“इसे बेचकर या गिरवी रखकर आप अपना कर्ज उतार दीजिए।”

“नहीं, ऐसा नहीं हो सकेगा। कल छोटे बाबू को मालूम होगा तो...?”

“उन्हें कभी भी मालूम नहीं होगा, दीदी! यह मेरी माँ ने मरते समय मुझे दिया था और मैंने उनसे छुपाकर रखा था।”

बिराज आँखे भर आई। वह आश्चर्य में डूब गई। इस स्त्री से उसका कोई संबंध नहीं है और ये सगे भाई... वह तुलना करने लगी। वह भरे गले से बोली- “अन्त समय तक यह बात याद रहेगी। मगर पति के चोरी-छुपे काम करने से हम दोनों को पाप लगेगा।” उसने फिर कहा- “सबको मैंने जाना, पर तुम्हें नहीं जान सकी। बहुत रात हो गई बहन, भीतर जाकर सो जाओ।” और बिराज कुछ सुने ही भीतर आकर बरामदे में आंचल बिछाकर सो गई। जब नीलाम्बर ने आवाज लगाई तो भीतर चली गई।

***

एक साल बीत गया। अकाल की काली छायाएं गई नहीं। दो आने भी फसल नहीं हुई। जिस जमीन से पूरे बरस का काम चलता था, उसे भोला मुखर्जी ने खरीद लिया। लोगों का दबी जबान से यह कहना था कि जमीन पीताम्बर ने चुपचाप खरीद ली है।

बिराज काफी गंभीर और बहुत ही चिड़चिड़े स्वभाव की हो गई थी। इधर हरिमती के ससुर ने उसे पीहर भेजना बन्द कर दिया था। नीलाम्बर के पत्र का उत्तर तक देना भी उन्होंने ठीक नहीं समझा।

***

उस दिन दोपहर को नीलाम्बर ने थोड़ा चिढ़ते हुए कहा- “पूंटी ने कौन-सा अपराध किया है कि तुम उसके नाम से चिढ़ने लगी हो?”

“यह किसने कहा?” बिराज ने झट से पूछा।

नीलाम्बर बोला- “मैं खुद समझता हूँ।”

उसके तीन दिन बाद चण्डी-मण्डप में बैठा नीलाम्बर कुछ गुनगुना रहा था कि बिराज आई। आकर भड़ककर बोली- “दम लगाना फिर शुरु कर दिया?”

नीलाम्बर आँखे झुकाए काठ के पुतले-सा बैठा रहा।

थोड़ी देर तक शान्त रहने के बाद उसने कहा- “दम लगाकर बम भोला बनने का यही समय है?” कहकर वह भीतर चली गई।

उसके तीसरे दिन अपने छोटे भाई पीताम्बर को नीलाम्बर ने बुलाकर कहा- “पूंटी के ससुर ने मेरे खत का जवाब तक नहीं दिया। तुम्हीं एक बार कोशिश करके देखते।”

“तुम्हारे रहते भला मैं क्या कोशिश करुं?”

“तुम समझ लो कि मैं मर गया।”

“सत्य को असत्य कैसे मान लूं?” पीताम्बर ने कहा- “फिर उसक शादी के पहले मुझसे राय ली थी? लेते तो मैं कोई राय दे देता।

नीलाम्बर उसकी धूर्तता से चिढ़ गया और उसकी इच्छा उसे पीटने की हुई। यदि वहाँ से चला न जाता तो वह उसे पीट ही डालता।

गोलमाल देखर बिराज आई तो उसने नीलाम्बर से कहा- “छिः-छि! क्या भाई से झगड़ा किया जाता है? सभी सुनकर हंसेंगे।”

नीलाम्बर ने कहा- “मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ, पर धूर्तता नहीं।”

बिराज नाराज होकर चली गई। इसके पूर्व भी वह कई बार झगड़ चुकी थी, पर आज कुछ और ही बात थी। थोड़ी देर बाद आकर बिराज ने कहा- “नहा-धोकर और पाठ पूजा करके खा लो। जब तक मिलता है तभी तक सही।” बिराज ने कलेजे पर एक कांटा और चुभो दिया।

नीलाम्बर राधाकृष्ण की मूर्ति के सामने रो पड़ा। मगर तुरतं ही उसने आँखें पोंछ लीं ताकि कोई देख न सके।

बिराज भी बिना खाए-पीए दिनभर रोती रही। ईश्वर से प्रार्थन करती रही- कष्ट निवारण हेतु।

रात को नीलाम्बर बिना खाए बिस्तर पर लेट गया। नौ बजे बिराज ने आकर अपने पति के पांवो पर हाथ रखा- “चलो, खाना खा लो।”

नीलाम्बर चुप रहा। बिराज ने फिर कहा- “आज दिनभर से भूखे हो। किस पर नाराज हो, यह मैं भी तो जानूं... बताओ न!”

“क्या होगा सुनकर?”

इस बार नीलाम्बर उठ बैठा। बिराज के चेहरे पर अपनी आँखें गड़ाकर उसने कहा- “मैं तुमसे बड़ा हूँ, कोई मजाक नहीं।”

ऐसी गम्भीर आवाज बिराज ने पहले कभी नहीं सुनी थी। स्तब्ध रह गई।

6

मागरा के गंज (बाजार) में पीतल के बर्तन ढालने के कई कारखाने थे। मुहल्ले की छोटी जाति की लड़कियां मिट्टी के सांचे बनाकर वहाँ बेचने जाती थी। बिराज ने भी दो दिनों में सांचा बनाना सीख लिया और वह शीघ्र ही बहुत अच्छे सांचे बनाने लगी। इसलिए व्यापारी खुद आकर उसके सांचे खरीदने लगे। इससे वह हर रोज आठ-दस आने कमा लेती थी, पर संकोच के मारे उसने पति को कुछ नहीं बताया।

नीलाम्बर के सो जाने के बाद यह कार्यक्रम काफी रात तक चलता था। एक रात बिराज काम करते-करते सो गई। नीलाम्बर की अचानक आँख खुल गई। बिराज को पलंग पर न पाकर वह बाहर निकला। बिराज के इधर-उधऱ सांचे पड़े हुए थे। उसके हाथ कीचड़ में सने थे वह शीत में गीली मिट्टी पर सोई हुई थी।

गत तीन दिनों से उनके संवाद (बोलचाल) नहीं हो रहा था। नीलाम्बर की आँखे छलछला आई। वह वहीं पर बैठ गया और बड़ी सावधानी से उसके सिर को अपनी गोद में रख लिया। बिराज सकपकाकर मजे से सोती रही। नीलाम्बर ने अपने बाएं हाथ से आँसू पोंछ लिए। उसने दीये को तेज कर दिया। पत्नी को अपलक देखने लगा। एक अव्यक्त व असीम पीड़ा उसके हृदय को मसोसने लगी। लापरवाही में एक अश्रु-बूंद बिराज की पलक पर टपक पड़ी। बिराज की आँखे खुल गई। वह हाथ फैलाकर पति से लिपट गई। उसकी गोद में ऐसे ही पड़ी रही। वह रोता रहा।

जब पौ फटी तो नीलाम्बर ने कहा- “भीतर चलो बिराज, ठण्ड में मत सोया करो।”

“चलो।”

प्रभात होने पर नीलाम्बर ने कहा- “बिराज! कुछ दिन तुम अपने मामा के यहाँ चली जाओ। मैं कलकत्ता जाकर कुछ कमाने का उपाय करुंगा।”

बिराज ने पूछा- “कब तक मुझे बुला लोगे?”

नीलाम्बर ने कहा- “चार-छः माह के भीतर ही तुम्हें बुला लूंगा।”

“ठीक है।”

दो दिन बाद बैलगाड़ी आई तो बिराज ने बीमारी का बहाना बना लिया और वह नहीं गई। दो दिन बाद फिर बैलगाड़ी आई तो उसने जाने के लिए साफ मनाही कर दी। नीलाम्बर ने कारण पूछा तो उसने कहा- “मैं इसलिए नहीं जाऊँगी क्योंकि मेरे पास न तो गहने है, न अच्छे कपड़े।”

नीलाम्बर इस पर खूब क्रोधित हो गया।

छोटी बहू मोहिनी ने उसे बुलाकर कहा- “दीदी! तुम्हें यहाँ से चले जाना चाहिए। जेठजी को मर्दों की तरह कमाने दो।”

“मैं नहीं जाऊंगी। सुबह जागते ही उनका मुंह देखे बिना ही नहीं रह सकती।”

बिराज जाने लगी तो मोहिनी ने फिर कहा- “दीदी! कुछ दिनों के लिए जाए बिना तुम्हारा काम नहीं चलेगा।”

बिराज के भीतर संदेह के अंकुल उगे। उसने पलभर रुककर कहा- “अब समझी, क्या सुन्दरी आई थी?”

“हाँ।”

बिराज बिफर गई, बोली- “एक कुत्ते के डर से क्या मैं घर छोड़ दूं?”

छोटी बहू ने कहा- “जब कुत्ता पागल हो जाता है तो उससे डरना ही पड़ता है।”

“मैं किसी भी शर्त पर नहीं जाऊंगी।” छोटी बहू का उत्तर सुने बिना ही वह भीतर चली गई, किंतु अब बिराज को डर लगने लगा था। तालाब में पानी बहुत कम था, फिर भी राजेन्द्र ने नया घाट बना लिया था।

एक दिन नीलाम्बर ने बिराज से कहा- “बिराज! नए जमींदार के ठाट-बाट देख रही हो।”

बिराज ने अरुचि से कहा- “देख रही हूँ।”

“दो-चार मछलियां रहने जितना पानी नहीं है, पर यह बंसी डाले दिन-भर बैठा रहता है। क्या पागल है?” नीलाम्बर हंस पड़ा, पर बिराज उसकी हंसी का साथ नहीं दे सकी।

नीलाम्बर ने फिर कहा- “परंतु यह ठीक नहीं है। उसके इस तरह बैठने से भले घर की लड़कियों व स्त्रियों को बड़ी असुविधा होगी।”

“पर हम करें क्या”?

नीलाम्बर कुछ उत्तेजित हो गया, बोला- “कल ही कचहरी जाकर कह आऊंगा। हमारे घर के सामने नहीं चलेगा।”

बिराज ड़र गई, बोली- “ना-ना! क्या तुम जमींदार से लड़ाई करोगे”?

“करुंगा... दुनिया देख रही है कि वह अत्याचार कर रहा है।” नीलाम्बर ने गुस्से में कहा।

“सुनो, लोग कहेंगे कि जिसके पास दो जून रोटी की व्यवस्था नहीं है, वह जमींदार के लड़के से लड़ेगा कैसे”?

नीलाम्बर बेहद आग-बबूला हो उठा, बोला- “तुम क्या मुझे कुत्ता-बिल्ली समझी हो जो बार-बार खाने का ताना दिया करती हो?”

बिराज की सहिष्णुता निरन्तर कष्ट उठाते-उठाते मर चुकी थी। वह भड़ककर बोली- “चिल्लाओ मत... तुम्हें नहीं पता कि दो वक्त खाना कैसे मिलता है। यह मैं जानती हूँ या अन्तर्यामी।” और वह तमककर भीतर चली गई।

नीलाम्बर के कानों में बिराज की आवाज बार-बार गूंज रही थी कि गृहस्थी कैसे चलती है।

वह चण्ड-मण्डप में बैठा अश्रु-प्रवाहित करता रहा। बार-बार भगवान से यही प्रार्थना करता रहा कि वह मेरी बिराज को मुझसे न छीने।

वह उठकर गया। बिराज दरवाजा बन्द किए सोई हुई थी। बार-बार दरवाजा खटखटाने के बाद भी उसने दरवाजा नहीं खोला।

“तुम मारोगे तो नहीं?” उसने भीतर से पूछा।

“दरवाजा खोलो।”

बिराज ने दरवाजा खोल दिया।

वह पलंग पर टूटा-सा गिर गया और रोने लगा। पति को इतना उदास उसने नहीं देखा था। सिरहाने बैठकर वह पति के आँसू पोंछने लगी।

उन दोनों के मन में क्या-क्या था, यह तो भगवान ही जानता था।

7

नीलाम्बर बार-बार यही सोचता था कि बिराज के मन में यह बात कैसे आई कि वह उसे मारेगा? कई बार उसने सोचा कि ऐसे दुर्दिनों में वह बिराज को लेकर कहीं चला जाएगा। मगर उसे फिर पूंटी की यादों ने घेर लिया। वही बहन, जिसे उसने कंधों पर चढ़ाकर पाला-पोसा था! बहन के बारे में जानने के लिए उसका दिल तड़प उठा।

दुर्गा-पूजा आ गई थी। बिराज से छुपाकर उसने कुछ पैसा इकट्ठा किया था उसने उससे कुछ मिठाई व एक धोती खरीदी और वह सुन्दरी के पास जा पहुंचा।

सुन्दरी ने उसके बैठने के लिए आसन बिछा दिया। तम्बाकू चढ़ा लाई। नीलाम्बर ने बैठकर अपनी जीर्ण-जीर्ण धोती के भीतर से एक नई धोती निकालकर कहा- “सुन्दरी! पूंटी को तुमने बच्ची की तरह पाला-पोसा है न! उसे एक बार जाकर देख आ।” बस, इसके आगे उसका गला अवरुद्ध हो गया। वह अपनी आँखे पोंछने लगा।

गाँव के सारे लोग कष्ट को समझते थे। सुन्दरी ने पूछा- “वह कैसी है बड़े बाबू?”

“नहीं जानता।”

सुन्दरी चालाक थी। उसने आगे कोई प्रश्न नहीं किया। दूसरे दिन ही जाने के लिए राजी हो गई। नीलाम्बर ने उसे राह-खर्च के लिए पैसे देने चाहे पर उसने इन्कार करते हुए कहा- “बड़े बाबू! मैंने उसे पाला-पोसा है, आप धोती ले आए, यही बहुत है, वरना मैं ही ले आती।”

नीलाम्बर फिर अपनी आँखें पोंछने लगा। किसी ने उसके प्रति सहानुभूति प्रकट नहीं की। सब यही कहते थे कि उसने गलती की, अन्याय किया, पूंटी के कारण उसकी बरबादी हो गई।

नीलाम्बर ने जाते-जाते सुन्दरी को आगाह किया कि उसकी दीनता व कष्ट की बातें पूंटी को मालूम न हो। उसके जाने के बाद सुन्दरी रो पड़ी। सोच बैठी-सभी इस व्यक्ति को प्रेम करते हैं, श्रद्धा करते हैं।

***

उस दिन विजयादशमी थी। तीसरे पहर बिराज कमरे में जाकर सो गई और उसने दरवाजा बन्द कर लिया। सांझ होते ही कोई ‘चाचा-चाचा’ कहकर घर में घुस आया। कोई नीलू दा... नीलू दा बाहर से पुकारने लगा।

नीलाम्बर अनमना-सा चण्डी-मण्डप से बाहर निकल आया। शिष्टता के नाते किसी को गले लगाया और किसी का चरण-स्पर्श किया। उसके बाद आगन्तुक भाभी को प्रणाम करके भीतर घुस गए। नीलाम्बर उनके साथ था। बिराज रसोईघर में नहीं थी। सोने के कमरे के दरवाजे को धक्का देकर उसने कहा- “बिराज! लड़के तुम्हें प्रणाम करने आए हैं।”

बिराज ने कहा- “मुझे ज्वर है, मैं उठ नहीं सकती।”

सब चले गए तो किसी ने धीरे-से दरवाजा खटखटाया, बोली- “दीदी! मैं हूँ मोहिनी। दरवाजा खोलो!”

बिराज मूक रही।

मोहिनी ने फिर कहा- “दीदी! यह नहीं होने दूंगी। यदि मुझे दरवाजे के आगे खड़ा ही रहना पड़ा तो भी मैं खड़ी रहूँगी। मैं बिना आशीर्वाद लिए नहीं जाऊंगी।”

लाचार बिराज को दरवाजा खोलना पड़ा। छोटी बहू उसके सामने जाकर खड़ी हो गई। उसने देखा कि मोहिनी के एक हाथ में खाने की वस्तु है और दूसरे हाथ में छनी हुई भांग! उसने दोनों वस्तुएं उसके चरणों में रख दी। उसके चरण छूकर वह श्रद्धा-भाव से बोली- “मुझे आशीष दो कि मैं तुम्हारी जैसी बन सकूं। उसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए।”

बिराज बहू ने सजल नयनों से छोटी बहू की ओर देखकर उसके सिर पर हाथ रख दिया

मोहिनी खड़ी हो गई, बोली- “दीदी! उत्सव पर आँसू नहीं बहाना चाहिए। परंतु तुम्हें तो ऐसी बात नहीं कह सकती। यदि तुम्हारे तन की मुझे हवा भी छू गई तो उसी के ताप से मैं यह बात कह सकती हूँ कि आगामी वर्ष भी इसी दिन मैं यह बात कहूँ!”

बिराज ने वे चीजें रख दीं। उसे विश्वास हो गया था कि मोहिनी उसके लिए बहुत ही चिन्तित है।

इसके उपरान्त कितने ही लड़के आए-गए पर उसका द्वार खुला रहा, उन्हीं चीजों की आज की रीति-नीति को निभाया गया।

अगले दिन...।

वह थकी-हारी सब्जी काट रही थी कि सुन्दरी आ धमकी। बैठते ही कहने लगी- “कल रात अधिक हो गई थी, इसलिए आ नहीं सकी। अब जागते ही आई हूँ। हाँ, यहि मुझे मालू होता तो मैं कदापि न जाती।”

बिराज चुपचाप-सी उसकी ओर देखती रही।

सुन्दरी ने कहा- “घर में कोई नहीं था। सारे लोग घूमने के लिए पश्चिम गए हुए हैं। केवल एक बुढ़िया बुआ थी। उसकी जली-कटी बातें मैं आपको क्या बताऊं, बोली- इसे वापस ले जा। अपने दामाद के लिए एक धोती भी नहीं भेजी। सिर्फ एक सूती धोती लेकर पूजा की रीति निभाने आ गई।। इसके बाद न जाने क्या-क्या बक-बक करती रही। नीच-चमार... निर्लज्ज... छ:!”

बिराज ने आश्चर्य से कहा- “किसने क्या कहा, मैं नहीं समझी।”

सुन्दरी को कुछ आश्चर्य हुआ, कहा- “सब बताए देती हूँ। अपनी पूंटी की बुआ-सासू बड़ी ही अभिमानी है। हमारी धोती भी लौटा दी।” उसने धोती रख दी।

बिराज सब समझ गई। वह भीतर-ही-भीतर जल उठी।

***

दोपहर को भोजन करते समय बिराज ने वह धोती सामने रख दी, कहा- “सुन्दरी वापस दे गई है।”

नीलाम्बर भयभीत हो गया। उसने सोचा भी नहीं था कि बिराज यह सब जान जाएगी।

बिराज ने कहा- “उसकी बुआ-सास ने क्या-क्या गालियां दी है, जाकर पूछ आना।”

नीलाम्बर की भूख-प्यास मिट गई। वह सुन्दरी के पास गया। उससे बार-बार सवाल करता रहा। बार-बार पूछता रहा कि पूंटी कैसी है, वह मोटी हो गई होगी... स्वस्थ होगी... बड़ी हो गई होगी। ऐसी हो गई होगी, वैसी हो गई होगी।

जब सुन्दरी ने उसे बताया कि उसने न तो उसे देखा और न उससे बात की तो वह उदास हो गया। सुन्दरी ने भी उसे जाने के लिए कह दिया।

***

सुन्दरी की घबराहट का एक विशेष कारण था। उस मुहल्ले के निताई गांगुली प्राय: इसी वक्त उसको चरण-धूलि दे जाते थे। स्वामी के समक्ष ही वे चरण न आ जाएं, इसी का भय था। सुन्दरी के भाग्य जमींदार की अनुकम्पा के कारण चमक गए थे। वह इतने सीधे-सादे और कलंकहीन सच्चरित्र पुरुष के सामने अपनी हीनता छुपाना चाहती थी।

नीलाम्बर के जाते ही वह खुशी-खुशी दरवाजा बन्द करने लगी कि नीलाम्बर वापस आता हुआ दिखाई दिया। वह खीज पड़ी। दरवाजे के बीच में ही खड़ी हो गई। बारहवीं का चांद चमक रहा था। उसकी रोशनी उसकी आकृति पर पड़ रही थी।

नीलाम्बर समीप आकर खड़ा हो गया। उसे बड़ी हिचकिचाहट हो रही थी। चादर के पल्लू से एक अठन्नी निकालकर उसने संकोच से कहा- “सुन्दरी! तुम मेरी सारी दशा जानती हो। ये लो अठन्नी।”

सुन्दरी जीभ काटकर पीछे हट गई।

नीलाम्बर ने कहा- “तुम्हें बड़ा कष्ट दिया। आने-जाने का खर्च भी नहीं दे सका।” उसका गला अवरुद्ध हो गया। वह आगे बोल नहीं सका।

“आप मेरे स्वामी हैं, आपको न कहना मुझे शोभ नहीं देता।” अठन्नी को सिर से छुआकर उसे आंचल में बांधा, कहा- “जरा भीतर आइए न!”

नीलाम्बर आकर उसके आंगन में खड़ा हो गया। सुन्दरी ने तुरंत वापस आकर उसकी चरण-धूलि ली और मुट्‌ठी-भर रुपये रख दिए।

नीलाम्बर विस्मित ठगा-सा खड़ा रहा। सुन्दरी ने मुस्कराते हुए कहा- “इस तरह से खड़े होकर देखने से काम नहीं चलेगा। मैं आपकी पुरानी दासी हूँ... शुद्र होने के बावजूद यह जोर केवल मेरा ही है।”

उसने रुपये उठाकर नीलाम्बर की चादर के पल्लू से बांध दिए। मीठे स्वर में बोली- “बाबूजी! ये रुपये आपके दिए हुए हैं। तीर्थयात्रा के समय ईश्वर के नाम से अलग रखा था, आज ईश्वर स्वयं आ गए।”

नीलाम्बर अब भी चुप था। सुन्दरी बोली- “अब आप जाइए। मगर इतना ध्यान रखिए कि यह बात बिराज बहू को मालूम न हो।”

नीलाम्बर के होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाए, पर सुन्दरी पहले ही बोल पड़ी- “मैं आपकी एक भी नहीं सुनूंगी। आज आपने मेरा मान नहीं रखा तो मौं सिर पटक-पटककर अपने प्राण दे दूंगी।”

सुन्दरी के हाथ में अब भी चादर का पल्लू था। तभी निताई गांगुली ने प्रवेश करते हुए कहा- “क्या हो रहा है?” खुला दरवाजा देखकर सीधे आंगन में खड़े हो गए। नीलाम्बर सीधा आंगन के पार चला गया।

“यह छोकरा तो नीलू था न? निताई ने कहा।”

सुन्दरी को गुस्सा तो बहुत आया, पर उसने अपने को संयत करते हुए कहा- “हाँ, मेरे स्वामी है।”

निताई ने भौंहें चढ़ाकर कहा- “सुना है घर में दाना-पानी नहीं है और इतनी रात यहाँ?”

“विशेष काम से आए थे।”

“अच्छा।”

सुन्दरी उन्हें एकटक देखने लगी।

“इस तरह क्या देख रही हो?”

“देख रही हूँ, तुम भी ब्राह्मण हो और वे भी चो चले गए हैं, किंतु दोनों में कितना अंतर है!”

निताई भड़क गए, भुनभुनाते हुए बोले- “तेरा सर्वनाश हो जाए, तू चूल्हे में जल... भाड़ में जा↔!” और वे चले गए।

  • बिराज बहू : अध्याय (8-15)
  • शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की बांग्ला कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
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