जीवन परिचय : सुभद्रा कुमारी चौहान
Biography : Subhadra Kumari Chauhan
सुभद्रा कुमारी चौहान : राजेन्द्र उपाध्याय
सुभद्रा कुमारी चौहान की 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी' कविता
की चार पंक्तियों से पूरा देश आजादी की लड़ाई के लिए उद्वेलित हो गया था।
ऐसे कई रचनाकार हुए हैं जिनकी एक ही रचना इतनी ज़्यादा लोकप्रिय हुई कि
उसकी आगे की दूसरी रचनाएँ गौण हो गईं, जिनमें सुभद्राकुमारी भी एक हैं।
उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं लिखा है। उनकी एक ही कविता 'झाँसी की रानी' लोगों
के कंठ का हार बन गई है। एक इसी कविता के बल पर वे हिंदी साहित्य में अमर
हो गई हैं।
इस एक कविता के अलावा बच्चों के लिए लिखी उनकी कविताएँ भी हिंदी
में बाल कविता का नया अध्याय लिखती हैं। उनकी कहानियाँ भी नारी स्वातंत्र्य
का नया उद्घोष करती हैं। उनके जैसी उपेक्षित कवयित्री के समग्र मूल्यांकन के
लिए नया इतिहास लिखने की जरूरत है। सुभद्राकुमारी चौहान सिर्फ एक कवयित्री
ही नहीं थीं, देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका अमूल्य योगदान रहा है। उत्तर
भारत के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में सुभद्रा जी के व्यक्तित्व की
गहरी छाप रही है। केवल 44 वर्ष की अल्पायु में किसी देश और जातीय अस्मिता
को इतना विपुल योगदान देने वाली उनके जैसी दूसरी कोई महिला इतनी जल्दी
याद नहीं आती है।
सुभद्राकमारी चौहान अपने नाटककार पति लक्ष्मणसिंह के साथ शादी के
महज डेढ़ साल के भीतर ही सत्याग्रह में शामिल हो गईं और जेलों में ही जीवन
के अनेक महत्त्वपूर्ण वर्ष गुजारे। गृहस्थी और नन्हे-नन्हे बच्चों का जीवन सँवारते
हुए उन्होंने समाज और राजनीति की सेवा की। देश के लिए कर्तव्य और समाज
की जिम्मेदारी सँभालते हुए उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ की बलि चढ़ा दी-
न होने दूँगी अत्याचार, चलो मैं हो जाऊँ बलिदान।
सुभद्राकुमारी की कविता 'झाँसी की रानी' महाजीवन की महागाथा है। कुछ
ही पंक्तियों की इस कविता में उन्होंने एक विराट जीवन का महाकाव्य ही लिख
दिया है। इस कविता में लोक जीवन से प्रेरणा लेकर लोक आस्थाओं से उधार
लेकर जो एक मिथकीय संसार उन्होंने खड़ा किया है उससे 'झाँसी की रानी' के
साथ सुभद्रा जी भी एक किंवदंती बन गई हैं। भारतीय इतिहास में यह शौर्यगीत
सदा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया है-
सिंहावन हिल उठे, राजवंशों ने भ्रकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
आज हम जिस धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्माण का संकल्प लेते हैं और
सांप्रदायिक सद्भाव का वातावरण बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं-सुभद्रा जी ने
बहुत पहले अपनी कविताओं में भारतीय संस्कृति के इन प्राणतत्त्वों को रेखांकित
कर दिया था-
मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद, काबा-काशी यह मेरी
पूजा-पाठ, ध्यान जपनतप है घट-घट वासी यह मेरी ।
कृष्णचंद्र की क्रीड़ाओं को, अपने आँगन में देखो।
कौशल्या के मातृगोद को, अपने ही मन में लेखो।
प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास
जीव दया जिन पर गौतम की, आओ देखो इसके पास ।
सुभद्राकुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन 16 अगस्त, 1904 को
इलाहाबाद के पास निहालपुर गाँव में हुआ था। पिता का नाम ठाकुर रामनाथ सिंह
था। सुभद्राकुमारी की काव्य प्रतिभा बचपन से ही उजागर हो गई थी। 1913 में
नौ साल की उम्र में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका
मर्यादा में छपी थी! 'सुभद्राकुँवरि' नाम से छपी यह कविता “नीम” के पेड़ पर
लिखी गई थी। सुभद्रा अपनी बहनों के साथ स्कूल जाती और स्कूल की
चारदीवारी के भीतर दौड़-भाग और खेलकूद की पूरी स्वतंत्रता थी। सुभद्रा चंचल
और कुशाग्र बुद्धि थी। पढ़ाई में अव्वल आने का उसको इनाम मिलता था। सुभद्रा
अत्यंत शीघ्र कविता लिख डालती, गोया उसको कोई प्रयास ही न करना पड़ता
हो। स्कूल के काम की कविताएँ तो वह साधारणतया घर से आते-जाते इक्के में
लिख लेती थी। इसी कविता की वजह से भी स्कूल में उसकी बड़ी चाहत थी।
सुभद्रा और महादेवी वर्मा दोनों बचपन की सहेलियाँ थीं। बड़ी होने पर इन
दोनों ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत नाम कमाया। दोनों ने एक-दूसरे की कीर्ति से सुख
पाया। ईर्ष्या की मलिनता उनके बचपन की मैत्री को मलिन नहीं कर पाई।
सुभद्रा की पढ़ाई नवीं कक्षा के बाद छूट गई। गांधी जी की असहयोग की
पुकार को पूरा देश सुन रहा था। सुभद्रा ने भी स्कूल से बाहर आकर पूरे मन-प्राण
से असहयोग आंदोलन में अपने को झोंक दिया-दो रूपों में । एक तो देश-सेविका
के रूप में और दूसरे, देशभक्त कवि के रूप में। 'जलियाँवाला बाग' (1917) के
नृशंस हत्याकांड से उनके मन पर गहरा आघात लगा। उन्होंने तीन आग्नेय
कविताएँ लिखीं। 'जलियाँवाले बाग में वसंत” में उन्होंने लिखा-
परिमलहीन पराग दाग-सा बना पड़ा है
हा ! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज? किंतु धीरे से आना
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।
भाई ने जब सुभद्रा का विवाह नाटककार लक्ष्मण सिंह के साथ तय कर दिया
तो सुभद्रा की अध्यापिका ने कहा कि 'आप इस लड़की का विवाह न करें, यह तो
एक ऐतिहासिक लड़की होगी। इसका विवाह करके आप देश का बड़ा नुकसान
करेंगे!' आगे चलकर यही लड़की सुभद्राकुमारी चौहान हुई, जिन्होंने 'झँसी की
रानी' जैसी ऐतिहासिक कविताएँ लिखीं और जो देश की आजादी के लिए अनेक
बार जेल गईं।
सुभद्रा की शादी अपने समय को देखते हुए क्रांतिकारी शादी थी। न लेन-देन
की बात हुई, न बहू ने पर्दा किया और न कड़ाई से छुआछूत का पालन हुआ।
दूल्हा-दुलहन एक-दूसरे को पहले से जानते थे, शादी में जैसे लड़के की सहमति थी,
वैसे ही लड़की की भी सहमति थी। बड़ी अनोखी शादी थी-हर तरह लीक से
हटकर। ऐसी शादी पहले कभी नहीं हुई थी।
सुभद्रा को सिनेमा देखने का बहुत शौक था। कथाकार जैनेंद्र कुमार को
सिनेमा के पास मिलते थे। पति लक्ष्मण सिंह के कहने पर जैनेंद्र उनको सिनेमा
दिखाने ले जाते थे।
जबलपुर से दादा माखनलाल चतुर्वेदी कर्मवीर निकालते थे। उसमें लक्ष्मण
सिंह को नौकरी मिल गई। सुभद्रा भी उनके साथ जबलपुर आ गईं। सुभद्रा जी
सास के अनुशासन में रहकर मात्र सुघर गृहिणी बनकर संतुष्ट नहीं थीं। उनके
भीतर जो तेज था, काम करने का उत्साह था, कुछ नया करने की जो लगन थी,
उसके लिए घर की चारदीवारी की सीमा बहुत छोटी थी। सुभद्रा जी में लिखने की
प्रतिभा थी और अब पति के रूप में उन्हें ऐसा व्यक्ति मिला था जिसने उनकी
प्रतिभा को पनपने के लिए उचित वातावरण देने का प्रयत्न किया।
दोनों पति-पत्नी मन-प्राण से कांग्रेस का काम करने लगे। सुभद्रा महिलाओं
के बीच जाकर स्वाधीनता संग्राम का संदेश पहुँचाने लगीं। वे उन्हें स्वदेशी वस्तुओं
को अपनाने, पर्दा छोड़ने, छुआछूत और ऊँच-नीच की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर
उठने की सलाह देती थी। स्त्रियाँ सुभद्रा की बातें बड़े ध्यान से सुनती थीं।
1920-21 में मध्यवर्ग की बहुओं में प्रगतिशील मूल्यों का संचार करने में सुभद्रा ने
बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
1920-21 में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह दोनों अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी
के सदस्य थे। 1920-21 में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह ने नागपुर कांग्रेस में भाग
लिया और घर-घर जाकर कांग्रेस का संदेश पहुँचाया। त्याग और सादगी के आवेश
में आकर सुभद्रा जी सफेद खादी की बिना किनारी धोती पहनती थीं। गहनों और
कपड़ों की बहुत शौकीन होते हुए भी उनके हाथों में न तो चूड़ियाँ थीं और न माथे
पर बिंदी। आखिर बापू ने सुभद्रा जी से पूछ ही लिया-“बेन! तुम्हारा ब्याह हो
गया है?” सुभ्रदा ने कहा-“हाँ !” और फिर उत्साह में आकर बताया कि मेरे पति
भी मेरे साथ आए हैं। इस बात को सुनकर बा और बापू जहाँ आश्वस्त हुए वहाँ
कुछ नाराज भी हुए। बापू ने सुभद्रा को डाँटा-“तुम्हारे माथे पर सिंदूर क्यों नहीं
है और तुमने चूड़ियाँ क्यों नहीं पहनीं? जाओ, कल किनारे वाली साड़ी पहनकर
आना!”
कुछ न कुछ जादू सुभद्रा जी में अवश्य था और यह जादू ऐसा था जिसका
प्रभाव अकेले उनके पति लक्ष्मण सिंह पर नहीं, बल्कि अन्य सब लोगों पर भी पड़ा
जो कभी भी उनके संपर्क में आया और वह जादू था सुभद्रा जी के सहज स्नेही
मन और निश्छल स्वभाव का। उनका जीवन प्रेम से भरा था और निरंतर निर्मल
प्यार लुटाकर भी खाली नहीं होता था।
1922 का जबलपुर का झंडा सत्याग्रह देश का पहला सत्याग्रह था और
सुभद्रा जी पहली महिला सत्याग्रही थीं। रोज-रोज सभाएँ होती थीं और जिनमें
सुभद्रा भी बोलती थीं। टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता ने अपनी एक रिपोर्ट
में उनका उल्लेख 'लोकल सरोजिनी' कहकर किया था।
सुभद्रा जी में बड़े सहज ढंग से गंभीरता और चंचलता का अदभुत संयोग
था। वे जिस सहजता से देश की पहली स्त्री सत्याग्रही बनकर जेल जा सकती थीं,
उसी तरह अपने घर में, बाल-बच्चों में और गृहस्थी के छोटे-मोटे कामों में भी रमी
रह सकती थीं।
सुभद्रा जी की जीवन-दृष्टि जीवन को नकारने की नहीं, बल्कि स्वीकारने की
थी। उनकी कविताएँ दस-ग्यारह वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही थीं। कविता
उनके मन की तरंग थी। उनकी कविताएँ मन के भीतर छटपटाते भावों को,
सहज-सरल रूप में अभिव्यक्ति देने वाली हैं। उनमें शिल्प का वैसा सौष्ठव नहीं
है और न पच्चीकारी का वैसा कोई चमत्कार ही है। अपनी सादगी और सहजता
में सुभद्रा जी की कविताएँ लोककाव्य के बहुत निकट की जान पड़ती हैं। उनमें
एक देशाभिमानी के साहस, त्याग और बलिदान की भावना है।
प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त” के सहयोग से सुभद्रा का पहला कविता संग्रह
मुकुल प्रकाशित हुआ और हिंदी संसार ने दिल खोलकर उसका स्वागत किया।
उस समय हिंदी में आज की तुलना में लेखक कम थे और लेखिकाएँ तो और
भी कम थीं। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर ही सुभद्रा जी की कविताओं ने
पाठकों का ध्यान अपनी ओर बहुत आकर्षित कर लिया था। विशेषतः 'झाँसी की
रानी' तो बहुत ही लोकप्रिय हुई थी। अब मुकुल के रूप में उनका संग्रह प्रकाशित
होने पर सब ओर से बहुत-बहुत बधाइयाँ मिलीं।
सुभद्रा जी ने मातृत्व से प्रेरित होकर बहुत सुंदर बाल कविताएँ लिखी हैं। इन
कविताओं में भी उनकी राष्ट्रीय भावनाएँ प्रकट हुई हैं। 'सभा का खेल' नामक
कविता में, खेल-खेल में राष्ट्र भाव जगाने का प्रयास देखिए-
सभा-सभा का खेल आज हम खेलेंगे, जीजी आओ
मैं गांधी जी, छोटे नेहरू, तुम सरोजिनी बन जाओ।
मेरा तो सब काम लँगोटी गमछे से चल जाएगा
छोटे भी खद्दर का कुर्ता पेटी से ले आएगा।
मोहन, लल्ली पुलिस बनेंगे, हम भाषण करने वाले
वे लाठियाँ चलाने वाले, हम घायल मरने वाले।
इस कविता में बच्चों के खेल, गांधी जी का संदेश, नेहरू जी के मन में गांधी
जी के प्रति भक्ति, सरोजिनी नायडू की सांप्रदायिक एकता संबंधी विचारधारा को
बड़ी खूबी से व्यक्त किया गया है। असहयोग आंदोलन के वातावरण में पले-बढ़े
बच्चों के लिए ऐसे खेल स्वाभाविक थे।
प्रसिद्ध हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने सुभद्रा जी के राष्ट्रीय काव्य
को हिंदी में बेजोड़ माना है-“कुछ विशेष अर्थों में सुभद्रा जी का राष्ट्रीय काव्य
हिंदी में बेजोड़ है। क्योंकि उन्होंने उस राष्ट्रीय आदर्श को जीवन में समाया हुआ
देखा है, उसकी प्रवृत्ति अपने अंतःकरण में पाई है, अतः वह अपने समस्त
जीवन-संबंधों को उसी प्रवृत्ति की प्रधानता पर आश्रित कर देती हैं, उन जीवन
संबंधों को उस प्रवृत्ति के प्रकाश में चमका देती हैं।...सुभद्राकुमारी चौहान नारी के
रूप में ही रहकर साधारण नारियों की आकांक्षाओं और भावों को व्यक्त करती हैं।
बहन, माता, पत्नी के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका के भाव उन्होंने व्यक्त
किए हैं। उनकी शैली में वही सरलता है, वही अकृत्रिमता और स्पष्टता है जो
उनके जीवन में है। उनमें एक ओर जहाँ नारी-सुलभ गुणों का उत्कर्ष है, वहाँ वह
स्वदेश प्रेम और देशाभिमान भी है जो एक क्षत्रिय नारी में होना चाहिए।”
एक बार मुक्तिबोध के घर अज्ञेग जी आए और बीमार पड़ गए। मुक्तिबोध
और अज्ञेय के सोकर उठने से पहले ही उनके घर पर सुभद्रा जी का चक्कर लग
जाता। दोपहर को भी घर पर उपस्थित रहतीं। शाम को भी देखो तो वे वहीं हैं।
घर का सारा कार्य खुद करती थीं। पता नहीं, कैसे इतना समय निकालकर दो-दो
घर सँभालती थीं ! समय तो और भी बहुत से कामों के लिए निकाल लेती थीं।
मुक्तिबोध जिस स्कूल में पढ़ाते थे उसकी प्रबंधकारिणी समिति शिक्षकों को समय
पर और पूरा वेतन देने में विश्वास नहीं करती थी। मुक्तिबोध को कई महीनों तक
वेतन नहीं मिला। सुभद्रा जी को मालूम हुआ तो उन्होंने स्कूल के अधिकारियों पर
जोर डालकर उनका वेतन दिलवाया।
कवि शमशेर बहादुर सिंह ने उन्हें “जनमनमयी सुभद्रा” कहा-था। उन्होंने भी
सुभद्रा जी के वसंत जैसे स्वभाव की प्रशंसा की है-“कुछ यादगारें किस कदर
ताजगी अपने अंदर लिए हुए होती हैं। उनकी झाँकियाँ जैसे वसंत का पहला दिन
हों-वैसी ही नर्मी और मुस्कुराहटें लिए हुए, जो एक हलचल और मस्ती-सी, हमारी
आत्मा को दान कर जाती हैं (और कभी-कभी अपनी याद के आँचल को बँधी हुई
एक उदासी भी)।”
सुभद्रा जी की बेटी सुधा चौहान का विवाह प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से हुआ
जो स्वयं अच्छे लेखक थे। सुधा ने उनकी जीवनी लिखी-'मिला तेज से तेज'।
सुभद्रा जी का जीवन सक्रिय राजनीति में बीता था। वे शहर की सबसे
पुरानी कार्यकर्ता थीं। 1930-31 और 1941-42 में होने वाली जबलपुर की आम
सभाओं में स्त्रियाँ बहुत बड़ी संख्या में जमा होती थीं जो हिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए
एक नया ही अनुभव था। स्त्रियों की इस संख्या के पीछे, स्त्रियों की इस जागृति
के पीछे निश्चय ही सुभद्रा जी का हाथ था और उनकी तैयार की हुई टोली के
अनवरत उद्योग का भी। सन् 1920 से ही वे स्त्रियों की सभाओं में पर्दे के विरोध
में, अंधी रूढ़ियों के विरोध में, छुआछूत हटाने के पक्ष में और स्त्री-शिक्षा के प्रचार
के लिए बराबर बोलती जा रही थीं। अपनी उन बहनों से बहुत-सी बातों को अलग
होते हुए भी वे उन्हीं में से एक थीं। उनके भीतर भारतीय नारी का जो सहज शील
और मर्यादा थी, उसके कारण उन्हें वृहत्तर नारी समाज का विश्वास प्राप्त था।
विचारों की दृढ़ता के साथ-साथ उनके स्वभाव में और व्यवहार में एक अजीब
लचीलापन था, जिसके कारण अपने से भिन्न विचारों और रहन-सहन वालों के
दिल में भी उन्होंने घर बना लिया था।
सुभद्रा जी ने कहानी लिखना आरंभ कर दिया था क्योंकि उस समय कोई
भी संपादक कविताओं पर पारिश्रमिक नहीं देता था। उनसे संपादकगण गद्य रचना
चाहते थे और उसके लिए पारिश्रमिक भी देते थे। समाज की अनीतियों से उत्पन्न
जिस पीड़ा को वे व्यक्त करना चाहती थीं उसकी अभिव्यक्ति का उचित माध्यम
गद्य ही हो सकता था, अतः सुभद्रा जी ने कहानियाँ लिखीं। उनकी कहानियों में
देश-प्रेम के साथ-साथ समाज को, अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित करने के लिए
संघर्षरत नारी की पीड़ा और विद्रोह का स्वर मिलता है। साल भर में उन्होंने एक
कहानी संग्रह बिखरे मोती ही बना डाला। बिखरे मोती छपवाने के लिए वे
इलाहाबाद गईं। इस बार भी सेकसरिया पुरस्कार उन्हें ही मिला-कहानी संग्रह
बिखरे मोती पर। उनकी अधिकांश कहानियाँ सत्य घटना पर आधारित हैं।
देश-प्रेम के साथ-साथ उनमें गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति मिलती है।
कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान की समकालीन कवयित्रियों में महादेवी वर्मा
तो थीं ही, किशोरी देवी, राजकुमारी, विद्यावती 'कोकिल', राजकुमारी की बहन,
रामेश्वरी देवी 'चकोरी', विष्णु कुमारी 'मंजु” तथा तोरणदेवी 'लली' भी थीं। इनमें
से महादेवी वर्मा और विद्यावती 'कोकिल' को छोड़कर किसी ने इतना विपुल गद्य
नहीं लिखा-जितना महादेवी और सुभद्रा जी ने। सुभद्रा जी को जीवन भी छोटा
मिला-केवल 44 वसंत उन्होंने देखे-फिर भी इस दौरान उन्होंने विपुल साहित्य
सृजन किया।
राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और अनवरत जेल यात्रा के बावजूद
उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- बिखरे मोती (1932), उन्मादिनी (1934),
सीधे-सादे चित्र (1947)। इन कथा संग्रहों में कुल 38 कहानियाँ (क्रमशः पंद्रह, नौ
और चौदह)। सुभद्रा जी की समकालीन स्त्री-कथाकारों की संख्या अधिक नहीं थी।
सुभद्राकुमारी चौहान की कहानियों के प्रस्थान बिंदु आज भी हमारी मदद
करते हैं। 1940 आसपास उस समय के सर्वाधिक चर्चित युवा आलोचक आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे सबसे पहले रेखांकित किया था। उन्होंने इन चारों
लेखिकाओं के संदर्भ में लिखा था-
“आलोच्य पुस्तकों में से अधिकांश की कहानियों का मूल उपादान मध्यवर्ग
के हिंदू परिवार की अशांतिजनक अवस्था है। सास, जेठानी और पति के
अत्याचार, स्त्री की पराधीनता, उसे पढ़ने-लिखने या दूसरों से बात करने में बाधा
इत्यादि बातें ही नाना भावों और नाना रूपों में कही गई हैं। सुभद्रा देवी के बिखरे
मोती इस विषय में सर्वप्रथम है।'
“सुभद्रा जी की कहानियों में अधिकांश बहुओं, विशेषकर शिक्षित बहुओं के
दुःखपूर्ण जीवन को लेकर लिखी गई हैं। निस्संदेह वे इसकी अधिकारिणी हैं। किंतु
उन्होंने किताबी ज्ञान के आधार पर या सुनी-सुनाई बातों को आश्रय करके
कहानियाँ नहीं लिखीं वरन् अपने अनुभवों को ही कहानियों में रूपांतरित किया है।
निस्संदेह उनके स्त्री-चरित्रों का चित्रण अत्यंत मार्मिक और स्वाभाविक हुआ है।
फिर भी जो बात अत्यंत स्पष्ट है वह यह है कि उनकी कहानियों में समाज
व्यवस्था के प्रति एक नकारात्मक घृणा ही व्यक्त होती है। पाठक यह तो सोचता
है कि समाज युवतियों के प्रति कितना निर्दय और कठोर है पर उनके चरित्र में
ऐसी भीतरी शक्ति या विद्रोह की भावना नहीं पाई जाती जो समाज की इस
निर्दयतापूर्ण व्यवस्था को अस्वीकार कर सके। उनके पाठक-पाठिकाएँ इस कुचक्र
के छूटने का कोई रास्ता नहीं पातीं। इन कहानियों में शायद ही कहीं वह मानसिक
दृढ़ता चरित्र को मिलती है जो स्वेच्छापूर्वक समाज की बलि-वेदी पर बलि होने का
प्रतिवाद करें। इसके विरुद्ध उनके चरित्र अत्यंत निरुपाय-से होकर समाज की
वहिशिखा में अपने को होम करके चुपके से दुनिया की आँखों से ओझल हो जाते
हैं।...मनोविज्ञान के पंडित इसको निगेटिव कैरेक्टर या नकारात्मक चरित्र के लक्षण
बताते हैं। जहाँ स्त्री शिक्षा का अभाव है, पुरुष और स्त्री की दुनिया अलग-अलग
है, वहाँ तो निश्चित रूप से स्त्री में नकारात्मक चरित्र की प्रधानता होती है । और
समाज स्त्री के लिए जिन भूषण रूप आदर्शों का विधान करता है उनमें एकांतनिष्ठा,
क्रीड़ा, आत्मगोपन और विनयशीलता आदि नकारात्मक गुणों की प्रधानता होती
है। इस दृष्टि से सुभद्रा जी की कहानियों में भारतीय स्त्री का सच्चा चित्रण हुआ
है। वे भारतीय स्त्रीत्व की सच्ची प्रतिनिधि बन सकी हैं।'
सुभद्रा जी स्त्री-सरोकारों से जुड़ी हुई कहानियाँ लिखने वाली आजादी से
पहले की पहली लेखिका हैं। प्रेमचंद से अलग सुभद्राकुमारी चौहान को इस रूप में
देखा जाना आवश्यक है कि वे जिस जाति और लिंग से जुड़ी थीं उसका साहित्य
एवं संस्कृति के क्षेत्र में प्रवेश एक घटना थी।
सुभद्राकुमारी चौहान ने स्त्री की निजी स्वाधीनता और उससे जुड़े यथार्थ को
अभिव्यक्ति देने के लिए अपनी कविताओं और कहानियों में छायावादी भाषा से
विद्रोह किया। छायावादी काव्य की मूलभूत प्रवृत्तियों के साथ समान रूप से उनके
जुड़ाव के साथ ही यह तथ्य है कि उनका गद्य-और गद्य ही नहीं, उनकी जीवन
प्रक्रिया भी जिंदगी के सहज और जरूरी सरोकारों से जुड़ी हुई थी। सुभद्रा जी के
साहित्य में इसीलिए जमीन का वह स्पर्श हमें दिखाई देता है जो हिंदी के पहले बड़े
कथाकार प्रेमचंद में है।
स्वयं को गंभीर कलात्मक अतएव उत्कृष्ट घोषित करने वाली संघर्षविरत
साहित्यिक दृष्टि ने सुभद्रा जी जैसी संघर्षकारी साहित्य धारा को आज एक किनारे
कर दिया है। उस निगाह से देखें तो सुभद्रा जी की कहानियाँ अनलंकृत, सरल
और जहाँ-तहाँ से अनगढ़ भी हो सकती हैं किंतु अपनी यथार्थ दृष्टि और सादगी
में वे आज भी इतनी विचारमयी और मर्मवेधी हैं कि उन्हें भूल पाना कठिन होगा।
उनकी कहानियों के पात्र इतने सहज, निश्छल और पारदर्शी हैं, इतने आवेगपूर्ण
और तरल कि हमें मजबूरन उनके प्रति आकृष्ट होना पड़ता है। उनकी रचनाएँ
पढ़ने के लिए “पंडितों की भाषा” जानने की आवश्यकता नहीं, उनकी रचनाएँ तो
हृदय की भाषा में लिखी गई हैं।
सुभद्रा जी की कहानियों की भाषा अपने वातावरण की अनुगूँज लिए हुए है।
कहानियों को पढ़ते हुए बार-बार हमारा ध्यान इसी वातावरण की ओर जाता है।
उन्होंने जैसा जिया वही रचा और जो रचा वही किया।
सुभद्रा जी के पास सहज मानवीय संवेदना से पाए गए आसपास, पास-पड़ोस
और रोजमर्रा की पारिवारिक जिंदगी के विविधता भरे ब्यौरों की पूँजी है। अपनी
इस पूँजी का इस्तेमाल उन्होंने कविताओं में तो किया ही, कहानियों में भी किया।
उनकी कहानियाँ सच्चाई को उसकी पूरी विविधता, तीव्रता और सहजता में
समेटती और उजागर करती हैं। अपने अनुभूत वास्तव के प्रति उनमें कोई दुराव,
कोई संकोच नहीं है, बल्कि एक साहसपूर्ण आदरभाव और स्वीकृति है।
सुभद्रा जी की कहानियों की संवेदना ही नहीं, सक्रिय भागीदारी भी उस वर्ग
के साथ है जो शोषित और दलित है। उनकी कहानियों में जो औरत है, वह न
सिर्फ दलित और शोषित है बल्कि वह उस वर्ग की प्रतीक भी है। इसके अलावा
सीधे-सीधे उस वर्ग के रोजमर्रा के संघर्ष, तकलीफ और यातना में उसकी सक्रिय
हिस्सेदारी भी है। उनकी संवेदना “तीन बच्चे" के भिखारियों, जेल की अपराधिनियों,
हींग वाले, ताँगे वाले, परित्यक्ताओं, विधवाओं और सामाजिक विसंगतियाँ भोगती
औरतों और समाज के उस वर्ग के साथ है जिसे हम सर्वहारा कह सकते हैं।
सामाजिक रूढ़ियों और विसंगतियों को लेकर एक गहरा क्षोभ उनकी सारी
कहानियों में व्याप्त है। पारिवारिक त्रासदियों, आदमी और औरत के रिश्तों के
संकटों और यातनाओं के प्रति उनमें गहरा मानवीय सरोकार है। 'तीन बच्चे” पुरुष
अत्याचार से मुक्ति की कहानी है तो 'कल्याणी', 'मछुए की बेटी' तथा “कैलासी
नानी' नारी केंद्रित हैं।
आज के फार्मूलाबद्ध नारीवाद से हटकर हैं उनकी कहानियाँ। स्त्री-विमर्श का
ढिंढोरा न पीटकर उन्होंने अपनी कहानियों में स्त्री-विमर्श को मार्मिकता के साथ
रेखांकित किया है। स्त्री-स्वातंत्र्य की बातें उन्होंने बहुत स्पष्टता और दृढ़ता के
साथ उस समय “दृष्टिकोण” कहानी में कही हैं-'जी हाँ, जितना इस घर में
आपका अधिकार है उतना ही मेरा भी है। यदि आप अपने किसी चरित्रहीन पुरुष
मित्र को आदर और सम्मान के साथ ठहरा सकते हैं तो मैं भी किसी असहाय
अबला को कम से कम आश्रय तो दे ही सकती हूँ।' 'दृष्टिकोण' की निर्मला में
हमें सुभद्रा जी का ही व्यक्तित्व मिलता है जो पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर
बगैर किसी लिंग-भेदभाव के चलती थी।
उनकी कहानियों को किसी भी तराजू पर तौल लें, उनमें स्त्री सरोकारों की
बात दिखेगी तो वे सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों की कसौटी पर भी खरी
उतरेंगी। उनकी कहानियाँ स्वतंत्रता आंदोलन के दौर की नारी का मानसिक पटल
प्रस्तुत करती हैं। आजादी के पूर्व की भारतीय नारी की दशा और दिशा को
सँभालने में वे हमारी बड़ी मदद करती हैं। उनकी नारी केवल राजनीतिक आजादी
नहीं चाहती बल्कि सभी प्रकार की गुलामी से मुक्ति चाहती है। वह 'स्वतंत्रता'
नहीं, 'स्वराज्य' चाहती है। परतंत्रता नहीं, स्वानुशासन चाहती है। रूढ़ियों-बंधनों
से मुक्त होकर वह स्वनियंत्रण में रहना चाहती है। सुभद्रा जी की सभी कहानियों
को हम एक तरह से सत्याग्रही कहानियाँ कह सकते हैं। उनकी स्त्रियाँ सत्याग्रही
स्त्रियाँ हैं। दलित चेतना और स्त्रीवादी विमर्श को उठाने वाली सुभद्राकुमारी
चौहान हिंदी की पहली कहानीकार हैं-
15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ तो सबने खुशियाँ मनाईं। सुभद्रा जी
ने भेड़ाघाट जाकर वहाँ के खान मजदूरों को कपड़े और मिठाई बाँटी। उस दिन वे
अपना सिरदर्द भूल गई थीं, धकावट भूल गई थीं, आराम करना भूल गई थीं।
गांधी जी की हत्या से सुभद्रा जी को ऐसा लगा कि जैसे वे सचमुच अनाथ
हो गई हों। बगैर कुछ खाए-पिए चार मील पैदल ग्वारीघाट तक गईं। जैसे कोई
उनके घर का चला गया हो। सुभद्रा जी ने कहा-“मैंने तो सोचा था कि मैं कुछ
दिन गांधी जी के आश्रम में बिताऊँगी लेकिन परमात्मा को वह भी मंजूर
नहीं था!”
12 फरवरी, 1948 को गांधी जी की अस्थियाँ नर्मदा में विसर्जन करने के
लिए लाई गईं। सुभद्रा जी सदलबल गांधी जी का अस्थियाँ लेने मदनमहल स्टेशन
गईं और पुलिस का घेरा तोड़ा।
14 फरवरी को वे नागपुर में शिक्षा विभाग की मीटिंग में भाग लेने गईं।
डॉक्टर ने रेलगाड़ी से नहीं, कार से जाने की सलाह दी। 15 फरवरी, 1948 को
दोपहर के समय वे जबलपुर के लिए वापस चलीं। सुभद्रा ने देखा कि बीच रास्ते
में तीन-चार मुर्गी के बच्चे हैं। उनका बेटा कार चला रहा था। उन्होंने अचकचाकर
बेटे से कहा-“अरे बेटा! मुर्गों के बच्चों को बचाओ!”
मोटर तेजी से काटने के कारण सड़के किनारे के पेड़ से टकरा गई। सुभद्रा
जी बेहोश हो गईं। सुभद्रा जी ने बस “बेटा” कहा और लुढ़क गईं। अस्पताल के
सिविल सर्जन ने देखकर बताया कि उनका देहांत हो गया है। उनका चेहरा एकदम
शांत और निर्विकार था जैसे गहरी नींद सोई हों।
16 अगस्त, 1904 को जन्मी सुभद्राकुमारी चौहान का देहांत 15 फरवरी,
1948 को 44 वर्ष की आयु में ही हो गया। एक संभावनापूर्ण जीवन का अंत
हो गया।
उनकी मृत्यु पर दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा कि “सुभद्रा जी का आज
चल बसना, प्रकृति के पृष्ठ पर ऐसा लगता है मानो नर्मदा की धारा के बिना तट
के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना अर्थ और उपयोग खो बैठे हों। सुभद्रा जी का
जाना ऐसा मालूम होता है मानो 'झँसी वाली रानी' की गायिका, झाँसी की रानी
से कहने गई हो कि लो, फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आजाद हो गई।
सुभद्रा जी का जाना ऐसा लगता है मानो अपने मातृत्व के दुग्ध, स्वर और आँसुओं
से उन्होंने अपने नन्हे पुत्र को कठोर उत्तरदायित्व सौंपा हो। प्रभु करे, सुभद्रा जी
को अपनी प्रेरणा से हमारे बीच अमर करके रखने का बल इस पीढ़ी में हो।'
जबलपुर के निवासियों ने चंदा इकट्ठा करके नगरपालिका प्रांगण में सुभद्रा
जी की आदमकद प्रतिमा लगवाई जिसका अनावरण 27 नवंबर, 1949 को एक
और कवयित्री तथा उनकी बचपन की सहेली महादेवी वर्मा ने किया प्रतिमा-अनावरण
के समय भदंत आनंद कौसल्यायन, बच्चन जी, डॉ० रामकुमार वर्मा और इलाचंद्र
जोशी भी उपस्थित थे। महादेवी जी ने इस अवसर पर कहा-“नदियों का कोई
स्मारक नहीं होता। दीपक की लौ को सोने से मढ़ दीजिए पर इससे क्या होगा?
हम सुभद्रा के संदेश को दूर-दूर तक फैलाएँ और आचरण में उसके महत्त्व को
मानें-यही असल स्मारक है।”
सुभद्रा महादेवी वर्मा
हमारे शैशवकालीन अतीत और प्रत्यक्ष वर्तमान के बीच में समय-प्रवाह का पाट ज्यों-ज्यों चौड़ा होता जाता
है त्यों-त्यों हमारी स्मृति में अनजाने ही एक परिवर्तन लक्षित होने लगता है । शैशव की चित्रशाला के जिन
चित्रों से हमारा रागात्मक संबंध गहरा होता है, उनकी रेखाएँ और रंग इतने स्पष्ट और चटकीले होते चलते
हैं कि हम वार्धक्य की धुँधली आँखों से भी उन्हें प्रत्यक्ष देखते रह सकते हैं । पर जिनसे ऐसा संबंध नहीं होता
वे फीके होते-होते इस प्रकार स्मृति से धुल जाते हैं कि दूसरों के स्मरण दिलाने पर भी उनका स्मरण कठिन
हो जाता है ।
मेरे अतीत की चित्रशाला में बहिन सुभद्रा से मेरे सखय का चित्र, पहली कोटि में रखा जा सकता
है, क्योंकि इतने वर्षों के उपरांत भी उसकी सब रंग-रेखाएँ अपनी सजीवता में स्पष्ट हैँ।
एक सातवीं कक्षा की विद्यार्थिनी, एक पाँचवीं कक्षा की विद्यार्थिनी से प्रश्न करती है, 'क्या तुम कविता
लिखती हो ?' दूसरी ने सिर हिलाकर ऐसी अस्वीकृति दी जिसमें हाँ और नहीं तरल हो कर एक हो गए
थे । प्रश्न करने वाली ने इस स्वीकृति-अस्वीकृति की संधि से खीझ कर कहा, 'तुम्हारी क्लास की लड़कियाँ
तो कहती हैं कि तुम गणित की कापी तक में कविता लिखती हो । दिखायो अपनी कापी' और उत्तर की
प्रतीक्षा में समय नष्ट न कर वह कविता लिखने की अपराघिनी को हाथ पकड़ कर खींचती हुई उसके
कमरे में डेस्क के पास ले गई । नित्य व्यवहार में आने वाली गणित की कापी को छिपाना संभव नहीं था,
अत: उसके साथ अंकों के बीच में अनधिकार सिकुड़ कर बैठी हुई तुकबन्दियां अनायास पकड़ में आ गईं ।
इतना दंड ही पर्याप्त था । पर इससे संतुष्ट न होकर अपराध की अन्वेषिका ने एक हाथ में चित्र-विचित्र
कापी थामी और दूसरे में अभियुक्ता की उँगलियाँ कस कर पकड़ीं और वह हर कमरे में जा-जा कर इस
अपराध की सार्वजनिक घोषणा करने लगी।
उस युग में कविता-रचना अपराधों की सूची में थी । कोई तुक जोड़ता है, यह सुनकर ही सुनने वालों
के मुख की रेखाएँ इस प्रकार वक्रकुंचित जो जाती थीं मानों उन्हें कोई कटु-तिक्त पेय पीना पड़ा हो ।
ऐसी स्थिति में गणित जैसे गंभीर महत्वपूर्ण विषय के लिए निश्चित पृष्ठों पर तुक जोड़ना अक्षम्य
अपराध था । इससे बढ़कर कागज का दुरुपयोग और विषय का निरादर और हो ही क्या सकता था ।
फिर जिस विद्यार्थी की बुद्धि अंकों के बीहड़ वन में पग-पग उलझती है उससे तो गुरु यही आशा रखता
है कि वह हर साँस को अंक जोड़ने-घटाने की किया बना रहा होगा । यदि वह सारी धरती को कागज
बना कर प्रश्नों को हल करने के प्रयास से नहीं भर सकता तो उसे कम से कम सौ-पचास पृष्ठ, सही
न सही तो गलत प्रश्न-उत्तरों से भर लेना चाहिए । तब उसकी भ्रांत बुद्धि को प्रकृतिदत्त मान कर उसे क्षमा
दान का पात्र समझा जा सकता है, पर जो तुकबंदी जैसे कार्य से बुद्धि की धार गोंठिल कर रहा है वह
तो पूरी शक्ति से दुर्बल होने की मूर्खता करता है, अत: उसके लिए न सहानुभूति का प्रश्न उठता है न
क्षमा का ।
मैंने होंठ भींच कर न रोने का जो निश्चय किया वह न टूटा तो न टूटा । अंत में मुझे शक्ति-परीक्षा
में उत्तीर्ण देख सुभद्रा जी ने उत्फुल्ल भाव से कहा, 'अच्छा तो लिखती हो । भला सवाल हल करने में एक
दो तीन जोड़ लेना कोई बड़ा काम है !' मेरी चोट अभी दु:ख रही थी, परंतु उनकी सहानुभूति और आत्मीय
भाव का परिचय पाकर आँखें सजल हो आईं । 'तुमने सबसे क्यों बताया ?' का सहास उत्तर मिला 'हमें
भी तो यह सहना पड़ता है । अच्छा हुआ अब दो साथी हो गए ।'
बहिन सुभद्रा का चित्र बनाना कुछ सहज नहीं है क्योंकि चित्र की साधारण जान पड़ने वाली प्रत्येक
रेखा के लिए उनकी भावना की दीप्ति 'संचारिनी दीपशिखेव' बनकर उसे असाधारण कर देती है । एक-एक
कर के देखने से कुछ भी विशेष नहीं कहा जाएगा, परंतु सबकी समग्रता में जो उदृभासित होता था, उसे
दृष्टि से अधिक हृदय ग्रहण करता था ।
मझोले कद तथा उस समय की कृश देहयष्टि में ऐसा कुछ उग्र या रौद्र नहीं था जिसकी हम वीरगीतों
की कवयित्री में कल्पना करते हैं । कुछ गोल मुख, चौडा माथा, सरल भृकुटियां, बड़ी और भावस्नात आँखें,
छोटी सुडौल नासिका, हंसी को जमा कर गढ़े हुए से ओठ और दृढ़ता सूचक ठुड्डी...सब कुछ मिलाकर एक
अत्यंत निश्चल, कोमल, उदार व्यक्तित्व वाली भारतीय नारी का ही पता देते थे । पर उस व्यक्तित्व के
भीतर जो बिजली का छंद था उसका पता तो तब मिलता था, जब उनके और उनके निश्चित लक्ष्य के
भीतर में कोई बाधा आ उपस्थित होती थी । 'मैंने हंसना सीखा है मैं नहीं जानती रोना' कहने वाली की
हंसी निश्चय ही असाधारण थी । माता की गोद में दूध पीता बालक जब अचानक हंस पड़ता है, तब उसकी
दूध से धुली हंसी में जैसी निश्चिंत तृप्ति और सरल विश्वास रहता है, बहुत कुछ वैसा ही भाव सुभद्रा
जी की हंसी में मिलता था । वह संक्रामक भी कम नहीं थी क्योंकि दूसरे भी उनके सामने बात करने से
अधिक हंसने को महत्त्व देने लगते थे ।
वे अपने बचपन की एक घटना सुनाती थीं । कृष्ण और गोपियों की कथा सुनकर एक दिन बालिका
सुभद्रा ने निश्चय किया कि वह गोपी बन कर ग्वालों के साथ कृष्ण को ढूंढने जाएगी ।
दूसरे दिन वे लकुटी लेकर गायों और ग्वालों के झुंड के साथ कीकर और बबूल से भरे जंगल में
पहुंच गई । गोधूली वेला में चरवाहे और गाएँ तो घर की ओर लौट गए, पर गोपी बनने की साधवाली
बालिका कृष्ण को खोजती ही रह गई । उसके पैरों में कांटे चुभ गए, कंटीली झाडियों में कपड़े उलझ कर
फट गए, प्यास से कंठ सूख गया और पसीने पर धूल की पर्त जम गई, पर वह धुनवाली बालिका लौटने
को प्रस्तुत नहीं हुई । रात होते देख घरवालों ने उन्हें खोजना आरम्भ किया और ग्वालों से पूछते-पूछते
अंधेरे करील-वन में उन्हें पाया ।
अपने निश्चित लक्ष्य-पथ पर अडिग रहना और सब-कुछ हंसते-हंसते सहना उनका स्वभावजात गुण
था । क्रास्थवेट गर्ल्स कालेज में जब वे आठवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थीं, तभी उनका विवाह हुआ और
उन्होंने पतिगृह के लिए प्रस्थान किया । स्वतन्त्रता के युद्ध के लिए सन्नद्ध सेनानी पति को वे विवाह से
पहले देख भी चुकी थीं और उनके विचारों से भी परिचित थीं । उनसे यह छिपा नहीं था कि नव-वधू
के रूप में उनका जो प्राप्य है उसे देने का न पति को अवकाश है न लेने का उन्हें । वस्तुत: जिस विवाह
में मंगल-कंकण ही रण-कंकण बन गया, उसकी गृहस्थी भी कारागार में ही बसाई जा सकती थी । और
उन्होंने बसाई भी वहीं । पर इस साधना की मर्मव्यथा को वही नारी जान सकती है जिसने अपनी देहली
पर खड़े होकर भीतर मंगल चौक पर रखे मंगल कलश, तुलसी चौरे पर जलते हुए घी के दीपक और हर
कोने से स्नेहभरी बाँहें फैलाए हुए अपने घर पर दृष्टि डाली हो और फिर बाहर के अंधकार, आँधी और
तूफान को तौला हो और तब घर की सुरक्षित सीमा पार कर, उसके सुन्दर मधुर आह्वान की ओर से पीठ
फेर कर अंधेरे रास्ते पर काँटों से उलझती चल पड़ी हो । उन्होंने हँसते-हँसते ही बताया था कि जेल जाते
समय उन्हें इतनी अधिक फूल-मालाएँ मिल जाती थीं कि वे उन्हीं का तकिया बना लेती थीं और लेटकर
पुष्पशैया के सुख का अनुभव करती थीं ।
एक बार भाई लक्ष्मणसिंह जी ने मुझसे सुभद्राजी की स्नेहभरी शिकायत की, 'इन्होंने मुझसे कभी
कुछ नहीं मांगा ।' सुभद्रा जी ने अर्थ भरी हँसी में उत्तर दिया था, 'इन्होंने पहले ही दिन मुझसे कुछ मांगने
का अधिकार मांग लिया था महादेवी ! यह ऐसे ही होशियार हैं, मांगती तो वचन-भंग का दोष मेरे सर
पड़ता, नहीं मांगा तो इनके अहंकार को ठेस लगती है ।'
घर और कारागार के बीच में जीवन का जो क्रम विवाह के साथ आरंभ हुआ था वह अंत तक
चलता ही रहा । छोटे बच्चों को जेल के भीतर और बड़ों को बाहर रखकर वे अपने मन को कैसे संयत
रख पाती थीं यह सोचकर विस्मय होता है । कारागार में जो संपन्न परिवारों की सत्याग्रही माताएँ थीं,
उनके बच्चों के लिए बाहर से न जाने कितना मेवा-मिष्टान्न आता रहता था । सुभद्रा जी की आर्थिक परिस्थितियों
में जेल-जीवन का ए और सी क्लास समान ही था। एक बार जब भूख से रोती बालिका को बहलाने
के लिए कुछ नहीं मिल सका तब उन्होंने अरहर दलनेवाली महिला-कैदियों से थोड़ी-सी अरहर की दाल
ली और उसे तवे पर भून कर बालिका को खिलाया । घर आने पर भी उनकी दशा द्रोणाचार्य जैसी हो
जाती थी, जिन्हें दूध के लिए मचलते हुए बालक अश्वत्थामा को चावल के घोल से सफेद पानी दे कर
बहलाना पड़ा था । पर इन परीक्षायों से उनका मन न कभी हारा न उसने परिस्थितियों को अनुकूल बनाने
के लिए कोई समझौता स्वीकार किया ।
उनके मानसिक जगत में हीनता की किसी ग्रन्थि के लिए कभी अवकाश नहीं रहा, घर से बाहर
बैठ कर वे कोमल और ओज भरे छंद लिखने वाले हाथों से गोबर के कंडे पाथती थीं । घर के भीतर तन्मयता
से आँगन लीपती थीं, बर्तन मांजती थीं । आँगन लीपने की कला में मेरा भी कुछ प्रवेश था, अत: प्राय:
हम दोनों प्रतियोगिता के लिए आंगन के भिन्न-भिन्न छोरों से लीपना आरंभ करते थे । लीपने में हमें अपने
से बड़ा कोई विशेषज्ञ मध्यस्थ नहीं प्राप्त हो सका, अत: प्रतियोगिता का परिणाम सदा अघोषित ही रह
गया पर आज मैं स्वीकार करती हूँ कि ऐसे कार्य में एकांत तन्मयता केवल उसी गृहिणी में संभव है जो
अपने घर की धरती को समस्त हृदय से चाहती हो और सुभद्रा ऐसी ही गृहिणी थीं । उस छोटे से अधबने
घर की छोटी-सी सीमा में उन्होंने क्या नहीं संगृहीत किया । छोटे-बड़े पेड़, रंग-बिरंगे फूलों के पौधों की
क्यारियाँ, ॠतु के अनुसार तरकारियाँ, गाय, बच्छे आदि-आदि बड़ी गृहस्थी की सब सज्जा वहाँ विराट दृश्य
के छोटे चित्र के समान उपस्थित थी । अपने इस आकार में छोटे साम्राज्य को उन्होंने अपनी ममता के
जादु से इतना विशाल बना रखा था कि उसके द्वार पर न कोई अनाहूत रहा और न निराश लौटा । जिन
संघर्षों के बीच से उन्हें मार्ग बनाना पड़ा वे किसी भी व्यक्ति को अनुदार और कटु बनाने में समर्थ थे ।
पर सुभद्रा के भीतर बैठी सृजनशीला नारी जानती थी कि काँटों का स्थान जब चरणों के नीचे रहता है
तभी वे टूट कर दूसरों को बेधने की शक्ति खोते हैं । परीक्षाएं जब मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य को क्षत-विक्षत
कर डालती हैं तब उनमें उत्तीर्ण होने-न-होने का कोई मूल्य नहीं रह जाता ।
नारी के हदय में जो गम्भीर ममता-सजल वीर-भाव उत्पन्न होता है वह पुरुष के उग्र शौर्य से अधिक
उदात्त और दिव्य रहता है । पुरुष अपने व्यक्तिगत या समूहगत रागद्वेष के लिए भी वीर धर्म अपना सकता
है और अहंकार की तृप्ति-मात्र के लिए भी । पर नारी अपने सृजन की बाधाएँ दूर करने के लिए या अपनी
कल्याणी सृष्टि की रक्षा के लिए ही रुद्र बनती है । अत: उसकी वीरता के समकक्ष रखने योग्य प्रेरणाएँ संसार
के कोश में कम हैं । मातृशक्ति का दिव्य रक्षक उद्धारक रूप होने के कारण ही भीमाकृति चंडी, वत्सला अम्बा
भी है, जो हिंसात्मक पाशविक शक्तियों को चरणों के नीचे दबाकर अपनी सृष्टि के मंगल की साधना करती
है ।
सुभद्रा में जो महिमामयी मां थी, उसकी वीरता का उत्स भी वात्सल्य ही कहा जा सकता है । न
उनका जीवन किसी क्षणिक उत्तेजना से संचालित हुआ न उनकी ओज भरी कविता वीर-रस की घिसी-पिटी
लीक पर चली । उनके जीवन में जो एक निरन्तर निखरता हुआ कर्म का तारतम्य है वह ऐसी अंतरव्यापिनी
निष्ठा से जुड़ा हुआ है जो क्षणिक उत्तेजना का दान नहीं मानी जा सकती । इसी से जहाँ दूसरों को यात्रा
का अंत दिखाई दिया वहीं उन्हें नई मंजिल का बोध हुआ ।
थक कर बैठने वाला अपने न चलने की सफाई खोजते-खोजते लक्ष्य पा लेने की कल्पना कर सकता
है, पर चलने वाले को इसका अवकाश कहाँ !
जीवन के प्रति ममता भरा विश्वास ही उनके काव्य का प्राण है :
सुख भरे सुनहले बादल
रहते हैं मुझको घेरे ।
विश्वास प्रेम साहस हैं
जीवन के साथी मेरे ।
मधुमक्षिका जैसे कमल से लेकर भटकटैया तक और रसाल से लेकर आक तक, सब-मधुरतिक्त एकत्र
करक उसे अपनी शक्ति से एक मधु बनाकर लौटाती है, बहुत कुछ वैसा ही आदान-सम्प्रदान सुभद्रा जी
का था । सभी कोमल-कठिन सह्य-असह्य अनुभवों का परिपाक दूसरों के लिए एक ही होता था । इसका
यह तात्पर्य नहीं है कि उनमें विवेचन की तीक्ष्ण दृष्टि का अभाव था । उनकी कहानियां प्रमाणित करती
हैं कि उन्होंने जीवन और समाज की अनेक समस्यायों पर विचार किया और कभी अपने निष्कर्ष के साथ
और कभी दूसरों के निष्कर्ष के लिए उन्हें बड़े चमत्कारिक ढंग से उपस्थित किया ।
जब स्त्री का व्यक्तित्व उसके पति से स्वतंत्र नहीं माना जाता था तब वे कहती हैं, 'मनुष्य की आत्मा
स्वतंत्र है । फिर चाहे यह स्त्रीशरीर के अंदर निवास करती हो चाहे पुरुष-शरीर के अंदर । इसी से पुरुष
और स्त्री का अपना-अपना व्यक्तित्व अलग रहता है ।' जब समाज और परिवार की सत्ता के विरुद्ध कुछ
कहना अधर्म माना जाता था तब वे कहती हैं, 'समाज और परिवार व्यक्ति को बंधन में बाँधकर रखते
हैं । ये बंधन देशकालानुसार बदलते रहते हैं और उन्हें बदलते रहना चाहिए वरना वे व्यक्तित्व के विकास
में सहायता करने के बदले बाधा पहुंचाने लगते हैं । बंधन कितने ही अच्छे उद्देश्य से क्यों न नियत किए
गए हों, हैं बंधन ही, और जहाँ बंधन है वहाँ असंतोष है तथा क्रांति है ।'
परंपरा का पालन ही जब स्त्री का परम कर्तव्य समझा जाता था तब वे उसे तोड़ने की भूमिका बाँधती
हैं, 'चिर-प्रचलित रूढ़ियों और चिर-संचित विश्वासों को आघात पहुंचानेवाली हलचलों को हम देखना-सुनना
नहीं चाहते । हम ऐसी हलचलों को अधर्म समझकर उनके प्रति आँख मींच लेना उचित समझते हैं, किंतु
ऐसा करने से काम नहीं चलता । यह हलचल और क्रांति हमें बरबस झकझोरती है और बिना होश में लाए
नहीं छोड़ती।'
अनेक समस्यायों की ओर उनकी दृष्टि इतनी पैनी है कि सहज भाव से कहीं सरल कहानी का अन्त
भी हमें झकझोर डालता है ।
वे राजनीतिक जीवन में ही विद्रोहिणी नहीं रहीं, अपने पारिवारिक जीवन में भी उन्होंने अपने विद्रोह
को सफलतापूर्वक उतार कर उसे सृजन का रूप दिया था ।
सुभद्रा जी के अध्ययन का क्रम असमय ही भंग हो जाने के कारण उन्हें विश्वविद्यालय की शिक्षा
तो नहीं मिल सकी, पर अनुभव की पुस्तक से उन्होंने जो सीखा उसे उनकी प्रतिभा ने सर्वथा निजी विशेषता
दे दी है ।
भाषा, भाव छंद की दृष्टि से नए, 'झांसी की रानी' जैसे वीर-गीत तथा सरल स्पष्टता में मधुर प्रगीत
मुक्त, यथार्थवादिनी मार्मिक कहानियां आदि उनकी मौलिक प्रतिभा के ही सृजन हैं ।
ऐसी प्रतिभा व्यावहारिक जीवन को अछूता छोड़ देती तो आश्चर्य की बात होती ।
पत्नी की अनुगामिनी, अर्धांगिनी आदि विशेषतायों को अस्वीकार कर उन्होंने भाई लक्ष्मणसिंह जी
को पत्नी के रूप में ऐसा अभिन्न मित्र दिया जिसकी बुद्धि और शक्ति पर निर्भर रह कर अनुगमन किया
जा सके ।
अजगर की कुंडली के समान, स्त्री के व्यक्तित्व को कस कर चर-चर कर देनेवाले अनेक सामाजिक
बंधनों को तोड़ फेंकने में उनका जो प्रयास लगा होगा, उसका मूल्यांकन आज संभव नहीं है ।
उस समय बच्चों के लालन-पालन में मनोविज्ञान को इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं मिला था और प्राय:
सभी माता-पिता बच्चों को शिष्टता सिखाने में स्वयं अशिष्टता की सीमा तक पहुंच जाते थे । सुभद्रा जी
का कवि-हृदय यह विधान कैसे स्वीकार कर सकता था ! अत: उनके बच्चों को विकास का जो मुक्त वातावरण
मिला उसे देखकर सब समझदार निराशा से सिर हिलाने लगे । पर जिस प्रकार यह सत्य है कि सुभद्रा जी
ने अपने किसी बच्चे को उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करने के लिए वाध्य नहीं किया, उसी प्रकार यह
भी सत्य है कि किसी बच्चे ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे उसकी महीयसी मां को किंचित् भी क्षुब्ध
होने का कारण मिला हो । उनके वात्सल्य का विधान ही अलिखित और अटूट था।
अपनी संतान के भविष्य को सुखमय बनाने के लिए उनके निकट कोई भी त्याग अकरणीय नहीं
रहा । पुत्री के विवाह के विषय में तो उन्हें अपने परिवार से भी संघर्ष करना पड़ा ।
उन्होंने एक क्षण के लिए भी इस असत्य को स्वीकार नहीं किया कि जातिवाद की संकीर्ण तुला
पर ही वर की योग्यता तोली जा सकती है । इतना ही नहीं, जिस कन्यादान की प्रथा का सब मूक-भाव
से पालन करते आ रहे थे उसी के विरूद्ध उन्होंने घोषणा की, 'मैं कन्यादान नहीं करूँगी । क्या मनुष्य
मनुष्य को दान करने का अधिकारी है ? क्या विवाह के उपरांत मेरी बेटी मेरी नहीं रहेगी ?' उस समय
तक किसी ने, और विशेषत: किसी स्त्री ने ऐसी विचित्र और परंपरा-विरुद्ध बात नहीं कहीँ थी ।
देश की जिस स्वतंत्रता के लिए उन्होंने जीवन के वासंती सपने अंगारों पर रख दिए थे, उसकी प्राप्ति
के उपरांत भी जब उन्हें सब ओर अभाव और पीड़ा दिखायी दी तब उन्होंने अपने संघर्षकालीन साथियों
से भी विद्रोह किया । उनकी उग्रता का अंतिम परिचय तो विश्ववंद्य बापू की अस्थिविसर्जन के दिन प्राप्त
हुआ । वे कई सौ हरिजन महिलायों के जुलूस के साथ-साथ सात भील पैदल चलकर नर्मदा किनारे पहुंचीं ।
पर अन्य संपन्न परिवारों की सदस्याएं मोटरों पर ही जा सकीं । जब अस्थिप्रवाह के उपरांत संयोजित सभा
के घेरे में इन पैदल आने वालों को स्थान नहीं दिया गया तब सुभद्रा जी का क्षुब्ध हो जाना स्वाभाविक
ही था । उनका क्षात्रधर्म तो किसी प्रकार के अन्याय के प्रति क्षमाशील हो नहीं सकता था । जब उन हरिजनों
को उनका प्राप्य दिला सकीं तभी वे स्वयम् सभा में सम्मलित हुईं ।
सातवीं और पाँचवीं कक्षा की विद्यार्थिनियों के सख्य को सुभद्रा जी के सरल स्नेह ने ऐसी अमिट
लक्ष्मण-रेखा से घेर कर सुरक्षित रखा कि समय उस पर कोई रेखा नहीं खीच सका । अपने भाई-बहिनों
में सबसे बड़ी होने के कारण मैं अनायास ही सबकी देख-रेख और चिंता की अधिकारिणी बन गई थी ।
परिवार में जो मुझसे बड़े थे उन्होंने भी मुझे ब्रह्मसूत्र की मोटी पोथी में आँख गड़ाए देखकर अपनी चिंता
की परिधि से बाहर समझ लिया था । पर केवल सुभद्रा पर न मेरी मोटी पोथियों का प्रभाव पड़ा न मेरी
समझदारी का । अपने व्यक्तिगत संबंधों में हम कभी कुतूहली बाल-भाव से मुक्त नहीं हो सके । सुभद्रा
के मेरे घर आने पर भक्तिन तक मुझ पर रौब जमाने लगती थी । क्लास में पहुंच कर वह उनके आगमन
की सूचना इतने ऊँचे स्वर में इस प्रकार देती कि मेरी स्थिति ही विचित्र हो जाती 'ऊ सहोदरा विचरिअऊ
तो इनका देखै बरे आइ के अकेली सूने घर माँ बैठी हैं । अउर इनका कितबियन से फुरसत नाहिन बा' ।
एम.ए., बी.ए के विद्यार्थियों के सामने जब एक देहातिन बुढ़िया गुरु पर कर्तव्य-उल्लंघन का ऐसा आरोप
लगाने लगे तो बेचारे गुरु की सारी प्रतिष्ठा किरकिरी हो सकती थी । पर इस अनाचार को रोकने का
कोई उपाय नहीं था । सुभद्रा जी के सामने न भक्तिन को डांटना संभव था न उसके कथन की उपेक्षा
करना । बंगले में आकर देखती कि सुभद्रा जी रसोई घर में या बरामदे में भानमती का पिटारा खोले बैठी
हैं और उसमें से अद्भुत वस्तुएं निकल रहीं हैं । छोटी-छोटी पत्थर या शीशे की प्यालियाँ, मिर्च का अचार,
बासी पूरी, पेड़े, रंगीन चकला-बेलन, चुटीली, नीली-सुनहली चूड़ियां आदि-आदि सब कुछ मेरे लिए आया
है, इस पर कौन विश्वास करेगा ! पर वह आत्मीय उपहार मेरे निमित्त ही आता था ।
ऐसे भी अवसर आ जाते थे जब वे किसी कवि-सम्मेलन में आते-जाते प्रयाग उतर नहीं पाती थीं
और मुझे स्टेशन जाकर ही उनसे मिलना पड़ता था । ऐसी कुछ क्षणों की भेंट में भी एक दृश्य की अनेक
आवृत्तियां होती ही रहती थीं । वे अपने थैले से दो चमकीली चूड़ियाँ निकालकर हँसती हुई पूछतीं, 'पसंद
हैं ? मैंने दो तुम्हारे लिए, दो अपने लिए खरीदी थीं । तुम पहनने में तोड़ डालोगी । लायो अपना हाथ,
मैं पहना देती हूँ ।' पहन लेने पर वे बच्चों के समान प्रसन्न हो उठतीं।
हम दोनों जब साथ रहती थीं तब बात में एक मिनिट और हँसी में पांच मिनट का अनुपात रहता
था । इसी से प्राय: किसी सभा-समिति में जाने के पहले न हँसने का निश्चय करना पड़ता था । एक दूसरे
की ओर बिना देखे गंभीर भाव से बैठे रहने की प्रतिज्ञा करके भी वहाँ पहुंचते ही एक-न-एक वस्तु या
दृश्य सुभद्रा के कुतूहली मन को आकर्षित कर लेता और मुझे दिखाने के लिए वे चिकोटी तक काटने से
नहीं चूकतीं । तब हमारी शोभा-सदस्यता की जो स्थिति हो जाती थी, उसका अनुमान सहज है ।
अनेक कवि-सम्मेलनों में हमने साथ भाग लिया था, पर जिस दिन मैंने अपने न जाने का निश्चय
और उसका औचित्य उन्हें बता दिया उस दिन से अंत तक कभी उन्होंने मेरे निश्चय के विरुद्ध कोई आग्रह
नहीं किया । आर्थिक स्थितियाँ उन्हें ऐसे निमंत्रण स्वीकार करने के लिए विवश कर देती थीं, परंतु मेरा
प्रश्न उठते ही वे कह देती थीं, "मैं तो विवशता से जाती हूं, पर महादेवी नहीं जाएगी, नहीं जाएगी ।'
साहित्य-जगत में आज जिस सीमा तक व्यक्तिगत स्पर्द्धा ईर्ष्या-द्वेष है, उस सीमा तक तब नहीं था,
यह सत्य है । पर एक दूसरे के साहित्य-चरित्र-स्वभाव सम्बंधी निंदा-पुराण तो सब युगों में नानी की कथा
के समान लोकप्रियता पा लेता है । अपने किसी भी परिचित-अपरिचित साहित्य-साथी की त्रुटियों के प्रति
सहिष्णु रहना और उसके गुणों के मूल्यांकन में उदारता से काम लेना सुभद्रा जी की निजी विशेषता थी ।
अपने को बड़ा बनाने के लिए दूसरों को छोटा प्रमाणित करने की दुर्बलता उनमें असंभव थी ।
वसंत पंचमी को पुष्पाभरणा, आलोकवसना धरती की छवि आँखों में भरकर सुभद्रा ने विदा ली । उनके
लिए किसी अन्य विदा की कल्पना ही कठिन थी ।
एक बार बात करते-करते मृत्यु की चर्चा चल पड़ी थी । मैंने कहा, 'मुझे तो उस लहर की-सी मृत्यु
चाहिए जो तट पर दूर तक आकर चुपचाप समुद्र में लौट कर समुद्र बन जाती है ।' सुभद्रा बोली, 'मेरे
मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है । मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके
चारों और नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियां गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे । अब बताओ
तुम्हारी नामधाम रहित लहर से यह आनंद अच्छा है या नहीं ।'
उस दिन जब उनके पार्थिव अवशेष को त्रिवेणी ने अपने श्यामल-उज्ज्वल अंचल में समेट लिया तब नीलम-फलक
पर श्वेत चन्दन से बने उस चित्र की रेखाओं में बहुत वर्षों पहले देखा एक किशोर-मुख मुस्कराता जान
पड़ा ।
'यहीं कहीं पर बिखर गई वह छिन्न विजय माला सी !'
('पथ के साथी' में से)