जीवनी और रचना संसार : वैद्य गुरुदत्त

Biography : Vaidya Gurudutt

गुरुदत्त (08 दिसम्बर, 1894 - 08 अप्रैल, 1989) हिन्दी के महान उपन्यासकार थे। वे पेशे से आयुर्वेदिक चिकित्सक भी थे। विज्ञान के विद्यार्थी और पेशे से वैद्य होने के बावजूद वे बीसवीं शती के एक ऐसे सिद्धहस्त लेखक थे जिन्होने लगभग दो सौ उपन्यास, संस्मरण, जीवनचरित, आदि का सृजन किया और भारतीय इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, विज्ञान, राजनीति और समाजशास्त्र के क्षेत्र में भी अनेक उल्लेखनीय शोध-कृतियाँ दीं।

इन्हें क्रांतिकारियों का गुरु कहा जाता है। जब ये लाहरुर के नेशनल कॉलेज में हेडमास्टर थे तो सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु इनके सबसे प्रिय शिष्य थे, जो बाद में आजादी की जंग में फाँसी का फंदा चूमकर अमर हो गए।

अपने उपन्यासों के माध्यम से गुरुदत्त ने प्राचीन भारतीय संस्कृति, सभ्यता और धर्म की प्रशंसा की है और उसकी श्रेष्ठता स्थापित करने का यत्न किया है। वे काँग्रेस, नेहरू और महात्मा गाँधी के कटु आलोचक थे। वे स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनन्य भक्त थे और आर्य समाज के पालने में पले-बढ़े लेखक-साहित्यकार थे।

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी वैद्य गुरुदत्त ने अपना सम्पूर्ण साहित्य हिन्दी में लिखकर उसकी महती सेवा की है। वे हिन्दी साहित्य के एक देदीप्यमान नक्षत्र थे। अपनी अनूठी साधना के बल पर उन्होंने लगभग दो सौ उपन्यासों की रचना की और भारतीय संस्कृति का सरल एवं बोधगम्य भाषा में विवेचन किया। साहित्य के माध्यम से वेद-ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने का उनका प्रयास निस्सन्देह सराहनीय रहा है।

उनके सभी उपन्यासों के कथानक अत्यन्त रोचक, भाषा अत्यन्त सरल और उद्देश्य मनोरंजन के साथ जन-शिक्षा है। राष्ट्रसंघ के साहित्य-संस्कृति संगठन ‘यूनेस्को’ के अनुसार श्री गुरुदत्त 1960-1970 के दशकों में हिंदी साहित्य में सर्वाधिक पढ़े जानेवाले लेखक रहे हैं।

जीवनी

गुरुदत्त जी का जन्म लाहौर के एक अरोड़ी क्षत्रिय परिवार में ८ दिसम्बर १८९४ में हुआ था। पिता श्री कर्मचन्द निम्नमध्य वित्तीय अवस्था के व्यक्ति थे । इनके यहाँ अनेक पीढ़ियों से वैद्यक का काम होता रहा है। पिता हकीम कर्मचन्द पिप्पल बेहड़ा में अत्तारी का काम करते थे। गुरुदत्त ने मागे आलकर वैद्यक के व्यवसाय को अपनाया था। पिता सीधे-सादे ईश्वरभीरु आर्य समाजी थे। माता सुहावी वैष्णवी आस्थाओं के प्रति नितान्त श्रदालु थीं। परिणामस्वरूप गुरुदत्त जी में सहिष्णुता, आतिथ्य भाव और समन्वय की भावना बचपन से ही परिपक्व हो रही थी।

अभावग्रस्त परिवार में गुरुदत्त जी का जन्म हुआ था। अतः उनका बचपन और किशोरावस्था सामान्य लोगों की भांति ही व्यतीत हुए । माता सुहावी बच्चों से खूब प्यार करती थीं। बचपन से गुरुदत्त जी को पढ़ने-लिखने का बहुत ही शौक था । आर्य समाज के सांस्कृतिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक आयोजनों में आने-जाने के कारण आप में जनजीवन को समझने और उनकी समस्याओं के अध्ययन करने की रुचि और क्षमता का विकास होता रहा । यही कारण है कि आन आपके व्यक्तित्व में उपन्यासकार की सृजनशीलता, राजनैतिक नेता की दूरदर्शिता और सामाजिक एवं आध्यात्मिक अभिमान का योग्य समन्वय मिलता है।

गुरुदत्त जी का पहला नाम गुरदास था। विशेष साधनों के अभाव होते हुए भी उन्होंने एम. एस. सी. तक की शिक्षा प्राप्त की। शोधकर्ता को सन् १९१५ सितम्बर में साक्षात्कार का मौका मिला। सन् १९१९ में एम. एस. सी. हो पाने के बाद रसायनशास्त्र में शोध-कार्य प्रारम्भ किया । १२ अक्तूबर को वे रिसर्च स्कॉलर के रूप में नियुक्त हुए । उस समय ६० रुपया मासिक स्कालरशिप मिल रही थी। गुरुदत्त जी ने यह स्कॉलरशीप सिर्फ चार महीने ली थी । बाद में कुछ कारणों से रिसर्च छोड़ दी।

सन् १९२० मैं लाहौर के गवर्नमेण्ट कॉलेज के विज्ञान-विभाग में डिमॉस्ट्रैटर का पद मिल गया था । उस समय डेढ़ सौ रुपया मिलता था । वह समय ऐसा था कि लोगों में सरकार के साथ पूर्ण असहयोग की भावना पनप रही थी। लाहौर में लाला लाजपतराय जी के उद्यम से राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना की गई थी। स्कूल-कालेज के विद्यार्थी पढ़ाई को एक और छोड़ राष्ट्रीय संस्थाओं में शामिल होने लगे । एक प्रवाह ऐसा भी उस समय चला कि विदेशी चीज़ का खूब विरोध हुआ । ऐसी राजनीतिक उथल-पथल ने युवक गुरुदत्त के मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ दी। उनका युवा मन इस परिस्थिति का विद्रोह कर उठा । १९२१ में असहयोग आन्दोलन में रुचि लेने के कारण गवर्नमेंट कालेज की नौकरी छोड़ दी।

१९२१ के पहली अक्तूबर को नैशनल स्कूल के मुख्याध्यापक पद पर अधिष्ठित हुए । सरकारी पदों के लिए उस समय लोग लालायित रहते थे । परन्तु गुरुदत्त जी का मन राजनीति में लग गया तो ऐसे महत्वपूर्ण पद के प्रति त्यागपत्र देने में भी वे हिचकिचाए नहीं । विद्यालय के प्रमुख व्यक्तियों में लाला लाजपतराय थे । इस स्कूल में नवयुवकों को स्वातंत्र्य-संघर्ष में भेजने का सराहनीय कार्य भी होता था । गुरुदत्त जी ने मुख्याध्यापक के पद को सफलता से निभाया । वे मास्टर साहब के रूप में खूब प्रसिद्ध हुए । धनाभाव एवं राष्ट्रीय संस्थाओं का श्रीगणेश के कारण स्कुल बन्द हो गया । गुरुदत्त जी के सामने पुनः नौकरी ढूंढ़ने का प्रश्न उपस्थित हुआ । मुख्याध्यापक के पद पर १९२६ के अक्तूबर तक ये रहे।

भाग्यचक्र श्री गुरुदत्त को दिसम्बर १९२७ में उत्तर प्रदेश में अमेठी ले गया। चार वर्ष तक कुंवर रणंजयसिंह के निजी-सचिव के रूप में कार्य किया । रजवाड़े के जीवन का गहरा अध्ययन करने का सुअवसर गुरुदत्त को उस समय मिला । राजनीतिक स्थिति, स्वार्थ, राजकीय भ्रष्टाचार आदि हथकंडों का पाप्त परिचय उनको प्राप्त हुा । विशेषतः उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में इसकी झलक कहीं-कहीं मिल जाती है। निजी सचिव के रूप में कार्य करने में उनके मानस को विशेष सन्तोष नहीं मिला । राजनीतिक चढ़ाव-उतार ने उनके हृदय को समतोल नहीं रहने दिया । वे इस काम में पृथक होना चाहते थे। इस समय अमेठी की रियासत कोर्ट आफ वार्ड्स में चली गई। कुंवर रणंयसिंह को निजी खर्च इतना कम मिलने लगा कि वे असमर्थ थे कि गुरुदत्त जी को वेतन दे सकें। गुरुदत्त वहाँ १९२७ दिसम्बर से १९३१ दिसम्बर तक रहे ।

रियासत की नौकरी छोड़ गुरुदत्त लखनऊ आये । लखनऊ में आयुर्वेद का अध्ययन किया । चिकित्सा-कार्य के लिए पर्याप्त अध्ययन करने के बाद अप्रैल १९३२ में लखनऊ में ही दुकान लगा ली। नवम्बर १९३२ तक लखनऊ में चिकित्सा का कार्य किया । वहाँ चिकित्सा का कार्य चला नहीं अतः शीघ्र ही लखनऊ छोड़ दिया । लखनऊ छोड़ वैद्य जी लाहौर चले आए । लाहौर में अक्तुबर १९३३ से मार्च १९३७ तक ही काम किया । लखनऊ में चिकित्सा कार्य नहीं चला था किन्तु बहुत कुछ मात्रा में लाहौर में नाम चल निकला था, जिससे निर्वाह होने लगा था ।

लाहौर की आर्थिक स्थिति से वैद्यजी सन्तुष्ट नहीं थे। आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए उन्होंने मार्च १९३७ में दिल्ली की ओर प्रयाण किया । दिल्ली की जनता ने उनके चिकित्सा कार्य की सराहना की। यहाँ भी शुरू के दो वर्ष काम जमाने में लग गये । दिल्ली आकर आर्थिक स्थिति में सुधार अवश्य हुआ । सन्तोषजनक स्थिति बनते ही उन्होंने ने एक ओर सामाजिक कार्य में रुचि लेनी आरम्भ की तो दूसरी ओर साहित्य-सृजन आरम्भ किया ।

गुरुदत्त भारतीय पद्धतियों के उपासक और भारतीय-दृष्टिकोण के पोषक हैं । वे एम० एस० सी० होकर भी आयुर्वेद की ओर अधिक झुके । उन्होंने अपने उपन्यास साहित्य में ही नहीं, बल्कि अपने व्यवसाय में भी आयुर्वेद को एक वैज्ञानिक पद्धति सिद्ध किया है । "प्रवंचना" में शान्ता की चिकित्सा के लिए कितने डॉक्टरों को बुलाया गया, यहाँ तक कि डॉक्टरों ने शान्ता के 'जीवन' की आशा भी छोड़ दी, परन्तु स्वामी निरुपानन्द द्वारा आयुर्वेद पद्धति से चिकित्सा होती है और शान्ता बच जाती है । एमिली जैसी अंग्रेज महिला उस समय आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति पर प्रभावित हो जाती है। इसी प्रकार "पाणिग्रहण" में वैद्यराज मिश्रजी द्वारा असाध्य रोगों की चिकित्सा और नवाबजादा अनवर के जमींदार पिता का आयुर्वेद का विरोध करने पर भी पुनः आगे चलकर उसी की शरण लेने पर विवश होना इत्यादि घटनाएं आयुर्वेद के प्रति उनकी रुचि एवं सहानुभूति प्रदर्शित करती है । उनकी रुचि सिर्फ आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति पर ही ऐसा नहीं है । उन्होंने वैद्य के नाते कभी भी एलोपैथिक डॉक्टरों का विरोध नहीं किया, या कभी नफरत की दृष्टि से नहीं देखा । उनके प्रति भी लेखक की श्रद्धा अवश्य है , परन्तु लेखक अधिक चिन्तातुर इस बात से है कि आज लोगों का विश्वास आयुर्वेद पर क्यों नहीं है। वे वर्तमान में आयुवेद का आदर्श रूप देखना चाहते हैं । ऐसा आदर्श रूप "प्राणिग्रहण" मैं डा. रजनी में मिलता है ।। डॉ० कलावती के पात्र में ऐसा आदर्श नहीं मिलता जो रजनी में है । डॉ. रजनी प्रतिदिन गरीबों की बस्तियों में जाकर उनकी चिकित्सा करती हैं । चिकित्सा के लिए वह पैसा नहीं लेती जबकि कलावती काम किये बिना गलत नुस्खा लिख देती है और बीसियों रुपये शुल्क ले लेती है। "पाणिग्रहण" में वैद्यराज मिश्र कहते हैं -

डॉक्टरों का दोष नहीं। वे बेचारे तो युक्ति करना नहीं जानते । उनकै मैडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने के लिये तर्क-शास्त्र का पढ़ना अनिवार्य नहीं है। आयुर्वेद पढ़ने के लिये दर्शनशास्त्र का ज्ञान अनिवार्य है । अतः जहाँ एक वैद्य बुद्धि से कार्य लेता है, वहाँ एक डॉक्टर कैवल कॉलेज में सीखी हुई बात का ही प्रयोग कर सकता है। वह किसी भी बात में दोष अथवा गुण का परीक्षण नहीं कर सकता।

इस कथन से पता चल जाता है कि वैद्य गुरुदत्त केवल व्यावसायिक सहानुभूति के कारण वैद्यों द्वारा डॉक्टरों या डॉक्टरों द्वारा वैद्यों की आलोचना नहीं करवाते । गुरुदत्त जी की मान्यता है कि आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त वैद्य संस्कृत और आयुर्वेद का प्रकाण्ड विद्वान् होता है । दर्शन-शास्त्र और पदार्थ-विज्ञान उनकी विशेष उपलब्धियाँ होती है । खेद का विषय है कि ऐसे वैद्य बेचारे अपने घर तांगा भी नहीं रख सकता जबकि डाक्टर मोटरें भी रख सकता है।

कुंवर साहब आर्य समाजी विचार के थे । गुरुदत्त को कुंवर साहब के यहाँ वर्ष में चार मास ही काम रहता था । शेष समय कुंवर साहब के साथ सभासमाजों में जाना होता था । अमेठी में अध्ययन का अवसर खूब मिलता था । अमेठी में सन् १९२७ में पहली कहानी "अदृश्य व्यक्ति" लिखी थी । लखनऊ की "माधुरी" पत्रिका में इस कहानी का प्रकाशन हुआ । इन्हीं दिनों में एक-दो कहानियाँ और भी लिखी गयी थी, परन्तु उनका प्रकाशन किसी कारणवश नहीं हो पाया । उनमें से "प्रेम का अभिशाप" कहानी किसी पत्रिका में छपी थी।

गुरुदत्त का प्रथम उपन्यास " मेरे भगवान् " सन् १९२९ में लिखा गया था, परन्तु इस उपन्यास का प्रकाशन भी नहीं हो सका था। इसके प्रकाशन के विषय में गुरुदत्त के ही शब्दों में -

मुंशी प्रेमचन्द जी ने, जो उन दिनों माधुरी कार्यालय में काम करते थे, इसको पसन्द किया प्रतीत होता था । इनसे एक दिन कार्यालय में मिला भी था और उन्होंने पुस्तक प्रकाशित करने का आश्वासन भी दिया था, परन्तु वह स्वयं माधुरी कार्यालय से चले गये और पुस्तक नहीं छप सकी। उसकी पाण्डुलिपि भी नहीं मिली। सम्भवतया कहीं खो गई थी।

दिल्ली में एक वैद्य श्री आनन्द स्वामी थे। वे किसी समय लाहौर हिन्दू महासभा में मंत्री का कार्य करते रहे थे । निर्वाह के लिये हिन्दू महासभा से वह केवल पचास रुपये लेते थे । उस समय स्वामीजी का नाम कृष्णकुमार था । पीछे वह एक प्रसिद्ध विद्वान् श्री टी० एल० वासवानी के सम्पर्क में आये और उन दिनों में ही उन्होंने संन्यास लिया तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया । स्वामीजी नई दिल्ली में मद्रास होटल के नीचे चिकित्सा कार्य करते थे । उनको एक सनक उठी और वह गजियाबाद के समीप एक आश्रम बना वहाँ काया-कल्प करने की योजना बनाकर चले गये । अपना औषधालय का स्थान वह गुरुदत्त को सौंप गये । दिल्ली के इस औषधालय में श्री गुरुदत्त ने ९ अप्रैल सन् १९३७ से चिकित्सा कार्य आरम्भ किया था । यहाँ गुरुदत्त जी वैद्ययकीय कार्य उन्नति करने लगा । दो वर्ष में आर्थिक संकट दूर हो गया । कुछ पिछले दिनों का ऋण था वह भी उतर गया और सुविधा से भविष्य का कार्यक्रम भी बनाने लगे।

गुरुदत्त जी ने १९६२ तक इस प्रकार प्रोफैशनल प्रेक्टिस की। उन दिनों में उनका निवास स्थान फरीदाबाद वाले मकान में था । बड़ा लड़का सत्यपाल, वैद्य बन पिता के व्यवसाय को आगे बढ़ाने लगा। गुरुदत्त पहले सप्ताह में प्रत्येक शनिवार को चिकित्सा के लिए जाते थे, परन्तु जुलाई १९७५ से यह भी छोड़ दिया और सम्पूर्ण रूप से अपने कार्य का उत्तराधिकारी बेटे को बना दिया। गुरुदत्त जी इतनी वृद्धावस्था में भी कुछ जीर्ण रोगी से पीड़ित रोगियों को देखने के लिए औषधालय में जाते थे,परन्तु अब वह ठीक तरह से सुन नहीं पाते थे, साथ में उम्र भी पयाप्त हो गई थी इसलिए वे विशेष समय निवास स्थान पंजाबी बाग में ही रहते थे ।

गुरुदत्त का पारिवारिक जीवन सर्वथा सुखी तथा सन्तोषकारक रहा है। ८ दिसम्बर १९१७ में यशोदादेवी जी से उनका विवाह हुआ था। यशोदादेवी ने पाँच सन्तानों को जन्म दिया । बीच का पुत्र ओम्कार का देहान्त सन् १९३६ में हो गया था । लड़की सावित्री का देहान्त सन् १९६४ में हो गया था । दो पुत्र और एक पुत्री तीनों सन्तान सम्पन्न और सुखी पारिवारिक जीवन व्यतीतत कर रहे है । बड़ा लड़का सत्यपाल "आयुर्वेदभवन" संभाल रहा है और छोटा योगेन्द्रदत्त प्रकाशन का काम कर रहा है। योगेन्द्रदत्त की बहिन सरलादेवी भी पारिवारिक सुखी जीवन व्यतीत कर रही है। धर्मपत्नी यशोदादेवी जी का देहान्त २१ दिसम्बर १९६५ में हो गया था । गुरुदत्त जी की सुखद गृहस्थी को गृहिणी के अवसान से असह्य आघात लगा। जीवन-मरण की साथी जो प्रत्येक कार्य में साथ देती थी। जीवनसंगिनी के देहान्त का स्वाभाविक प्रभाव लेखक के लेखन प्रवाह पर पड़ा । कर्तव्य पथ का पथिक जीवनसाथी के अभाव के बोज को ले पुनः लिखने में लग गया । तीरासी वर्ष की उम्र में भी अभी गठा हुआ शरीर, सामान्यतः कुछ के छोटा कद, चौड़ा मस्तक, तेजस्वी मुख, दो उजली आँखें और उन पर चश्मा, जिनमें से एक का प्रकाश क्षीण हो चुका था । खोपड़ी के तीनों ओर सफेद उलझे हुए बाल, कानों पर उगे हुए बाल, मुख मण्डल पर आत्मविश्वास की ज्योति एवं होठों पर सन्तोष की गंभीरता । सूतीया, सिल्की, बिना कॉलर का लम्बा कुर्ता, चूड़ीदार पायजामा, पाँव में मौजड़ी यह उनके बाहरी पहरवेश थे । उम्र के साथ उनके कानों की सुनने की क्षमता थोड़ी कम हो गयी थी । बात-बात मैं मज़ाक करने का स्वभाव एवं किसी व्यक्ति से प्रेम से, कुशलता से काम लेने की शक्ति यह उनके स्वाभाविक गुण थे । प्रथम भेंट से ही वे स्वास्थ्य समाचार पूछते थे, बाद में उनसे दूसरा प्रश्न यह होता कि आपको यहाँ तक पहुँचने में तकलीफ तो नहीं हुई न?

रचना संसार

गुरुदत्त ने इतना अधिक लिखा है जितना लोग एक जीवनकाल में पढ़ भी नहीं पाते। सन् 1942 में, अड़तालीस वर्ष की आयु में, गुरुदत्त का सर्वप्रथम उपन्यास 'स्वाधीनता के पथ पर' प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक सन् १९४२ में विद्या मन्दिर लिमिटेड से प्रकाशित हुई। इस उपन्यास की सफलता से उत्साहित हो वे आजीवन लिखते रहे। उपन्यास-जगत् का उनका यह सफर लगभग दो सौ उपन्यासों के बाद तीन खण्डों में ‘अस्ताचल की ओर’ पर समाप्त होने से पूर्व सिद्ध कर दिया कि वैद्य गुरुदत्त उपन्यास-जगत् के बेताज बादशाह थे। वैद्य गुरुदत्त ने न केवल उपन्यास लिखा, बल्कि तात्कालिक सभी समस्याओं पर खूब लिखा। इतिहास, विज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीति, धर्म, दर्शन, आदि अनेक विषयों पर उन्होंने अनेक मौलिक कृतियाँ देकर हिंदी का ग्रन्थ-भण्डार भरा।

गुरुदत्त राष्ट्रवादी विचारक तथा भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा के चिन्तक हैं । भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के परम उपासक माने जाते हैं । उनकी विचारधारा राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है। वे भारतीय संस्कृति के चतुर चितेरे हैं। उनकी दृष्टि में वैदिक विचारधारा ही भारत को एक्य-सूत्र में बांधने में समर्थ है । उनके उपन्यासों में प्राचीन, मध्यकालीन तथा आधुनिक भारत के समाज, राजनीति, संस्कृति तथा आर्थिक जीवन का चित्रण मिलता है।

एक युग और एक देश की चेतना से प्रतिबद्ध होने के कारण उनके उपन्यासों का स्वर राजनीतिक, सामाजिक, नैतिक मूल्यों का है। गुरुदत्त भारत के राष्ट्रीय और सामाजिक प्रश्नों को अपने उपन्यासों में उभारते हैं। फिर वे उन प्रश्नों, समस्याओं को संघर्षात्मक रूप प्रदान करते है। गुरूदत्त ने भारत देश की सम्पूर्ण स्थिति पर बड़ी गंभीरता से विचार किया है। उनकी दृष्टि उसके वर्तमान में निहित कारणों का अन्वेषण करते-करते इसके सुदूर अतीत तक चली गई है। गुरुदत्त के उपन्यासों में राजनीतिक तथा सामाजिक प्रश्नों की प्रधानता रहती है। ये प्रश्न अपना हल खोजते हुए हमारे विराट् सांस्कृतिक रूप की ओर ही इंगित करते हैं।

वर्तमान में व्याप्त सम्पूर्ण कलह को दूर करने के लिए गुरुदत्त के उपन्यास प्रत्येक व्यक्ति के धर्मपालन पर बल देते हैं। 'धर्म' शब्द बड़ा पुराना है और रूढिय़ों के बीच घिसटते-घिसटते खासा घिस गया है। गुरुदत्त की व्यावहारिक सतर्क दृष्टि ने इस शब्द का बिलकुल सहज, स्वाभाविक अर्थ लिया है। धर्म का अर्थ उन्होंने 'कर्तव्य' किया है। व्यक्ति का अपने विकास और समाज-रक्षक के लिए जो करना उचित है, वही उसका कर्तव्य है। इस कर्तव्य का जो पालन करता है, वह धर्म को धारण करता है। इस कर्तव्य की व्यावहारिक सार्वभौम कसौटी है- दूसरों से वही व्यवहार करो, जो स्वयं अपने लिए अनुकूल समझते हो। यही मान्यता मनुष्य को जियो और जीने दो का अनिवार्य पाठ पढ़ाती है।

गुरूदत्त ने अपने उपन्यास-साहित्य में भारतीय जीवन का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है, उसका सार इस प्रकार है। भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति सार्थक थी, उसके अन्तर्गत यहाँ का व्यक्ति और समाज, परस्पर सहायक बनकर विकसित होते रहे। बाद में इस संस्कृति के कुछ तत्व क्षयशील हो चले । इसमें सबसे अधिक वर्णाश्रम-व्यवस्था का तत्व हानिकर सिद्ध हुआ। यह व्यवस्था प्रारम्भ में समाज में कार्य-विभाजन का सुविधाजनक आधार लेकर चली थी। इसक अनुसार समाज के लोगों का उनके व्यवसायों के आधार पर चार प्रमुख वर्गों में संगठन किया गया था। किन्तु बाद में सुविधा प्राप्त वर्गों की दृष्टि में शारीरिक श्रम का मूल्य घट गया। सेवा करने वालों को नीचा कहकर सेवा लेने वालों ने अपने को ऊॅंचा और बड़ा कहा। जो बड़े थे, वे प्रमादवश अपने कर्तव्य को बिलकुल भूल बैठे। उन्होंने अपना बड़प्पन अपनी संतति में भी सुरक्षित रखने के लिए जातिभेद का आधार कर्म न मानकर मनुष्य के जन्म को निश्चित कर दिया।

उपन्यास

अग्नि परीक्षा , अनदेखे बंधन , अन्तिम यात्रा , अपने पराये , अमानत , अमृत मंथन , अवतरण , अवतरण , अवतरण , अस्ताचल की ओर , अस्ताचल की ओर - भाग 1 , अस्ताचल की ओर - भाग 2 , अस्ताचल की ओर - भाग 3 , आकाश पाताल , आवरण , आशा निराशा , एक मुँह दो हाथ , कामना , कुमकुम , खण्डहर बोल रहे हैं , खण्डहर बोल रहे हैं - भाग 1 , खण्डहर बोल रहे हैं - भाग 2 , खण्डहर बोल रहे हैं - भाग 3 , गंगा की धारा , गुंठन , गृह संसद , घर की बात , चंचरीक , जगत की रचना , जमाना बदल गया - भाग 1 , जमाना बदल गया - भाग 2 , जमाना बदल गया - भाग 3 , जमाना बदल गया - भाग 4 , जिन्दगी , जीवन ज्वार , दासता के नये रूप , दिग्विजय , देश की हत्या , दो भद्र पुरुष , दो लहरों की टक्कर - भाग 1 , दो लहरों की टक्कर - भाग 2 , द्वितीय विश्वयुद्ध , धरती और धन , धर्म तथा समाजवाद , धर्मवीर हकीकत राय , नगर परिमोहन , नास्तिक , पंकज , पड़ोसी , पत्रलता , पथिक , परम्परा , परित्राणाय साधूनाम् , पाणिग्रहण , पुष्यमित्र , प्रगतिशील , प्रतिशोध , प्रवंचना , प्रारब्ध और पुरुषार्थ , प्रेयसी , बनवासी , बन्धन शादी का , बुद्धि बनाम बहुमत , भगवान भरोसे , भग्नाश , भाग्य का सम्बल , भाग्य चक्र , भारत में राष्ट्र , भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास , भाव और भावना , भूल , भैरवी चक्र , ममता , महाकाल , महाभारत , माया जाल , मृगतृष्णा , मेघवाहन , मैं न मानूँ , मैं हिन्दू हूँ , यह संसार , युद्ध और शान्ति - भाग 1 , युद्ध और शान्ति - भाग 1 , युद्ध और शान्ति - भाग 2 , लालसा , लुढ़कते पत्थर , वर्तमान दुर्व्यवस्था का समाधान हिन्दू राष्ट्र , वाम मार्ग , विकार , विक्रमादित्य साहसांक , विश्वास , विश्वासघात , वीर पूजा , वैशाली विलय , श्री राम , सदा वत्सले मातृभूमे , सफलता के चरण , सब एक रंग , सभ्यता की ओर , सम्भवामि युगे युगे , सम्भवामि युगे युगे - भाग 1 , सम्भवामि युगे युगे - भाग 1 , सम्भवामि युगे युगे - भाग 2 , सर्वमंगला , सागर तरंग , सुमति , सुमति , स्व-अस्तित्व की रक्षा , स्वराज्य दान , स्वाधीनता के पथ पर , हिन्दुत्व की यात्रा ।

‘धर्म, संस्कृति और राज्य’ से लेकर ‘वेदमंत्रों के देवता’ लिखकर उन्होंने भारतीय संस्कृति का सरल एवं बोधगम्य भाषा में विवेचन किया। यहाँ तक कि उन्होंने भगवद्गीता, उपनिषदों और दर्शन-ग्रंथों पर भाष्य भी लिख डाला। ‘भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास’ और ‘इतिहास में भारतीय परम्पराएं’ नामक पुस्तकों ने उनको प्रखर इतिहासकार सिद्ध किया। इस पुस्तक में वैद्य गुरुदत्त ने भारत में इतिहास लेखन की विसंगतियों पर जमकर प्रहार किया है। ‘विज्ञान और विज्ञान’ तथा ‘सृष्टि-रचना’-जैसी पुस्तकें लिखकर अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया। समाजशास्त्र पर उन्होंने ‘धर्म तथा समाजवाद’, ‘स्व अस्तित्व की रक्षा’, ‘मैं हिंदू हूँ’, आदि अनेक पुस्तकें लिखकर समाजवाद की जैसे पोल खोलकर रख दी। ‘धर्मवीर हकीकत राय’, ‘विक्रमादित्य साहसांक’, ‘लुढ़कते पत्थर’, ‘पत्रलता’, ‘पुष्यमित्र’, आदि इनके ऐतिहासिक उपन्यास हैं तो ‘वर्तमान दुर्व्यवस्था का समाधान हिन्दू राष्ट्र’, ‘डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अन्तिम यात्रा’, ‘हिन्दुत्व की यात्रा’, ‘भारत में राष्ट्र’, ‘बुद्धि बनाम बहुमत’, इनकी विचार-प्रधान कृतियाँ हैं।

गुरुदत्त के उपन्यासों में कतिपय ऐसे विशेष तत्त्व हैं जो कथाकार को लोकप्रियता की चरमसीमा तक पहुँचने में सदैव सहायक होते हैं। उपन्यासों की घटनात्मकता, स्वभाविक चित्रण, समाज के कटु और नग्न सत्य, इतिहास की वास्तविकता दृष्टि, घटनाओं की आकस्मिकताएँ तथा अनूठी वर्णन-शैली आदि लोकप्रियता को बढ़ाने वाले तत्त्व पाठकों के लिए विशेष आकर्षण बनते हैं। वर्ग-संघर्ष, यौनाकर्षण, चारित्रिक पतनोत्थान, व्यर्थ का दिखावा और चकाचौंध में छिपी कटुता, नग्नता और भ्रष्टाचार का सुन्दर अंकन उनके उपन्यासों को जनमानस के निकट ले जाता है। यही उनकी कृतियों के अत्यधिक लोकप्रिय होने का प्रधान कारण रहा है।

उनकी यह दृढ़ धारणा थी कि आदिकाल से भारतवर्ष में निवास करने वाला आर्य-हिन्दू समाज ही देश की सुसम्पन्नता और समृद्धि के लिए समर्पित हो सकता है क्योंकि उसका ही इस देश की धरती से मातृवत् सम्बन्ध है। उनका विचार था कि शाश्वत धर्म के रूप में यदि किसी को मान्यता मिलनी चाहिए तो वह एकमात्र ‘वैदिक धर्म’ ही हो सकता है।

उन्होंने जिन-जिन ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की है उनमें तत्कालीन संस्कृति, सभ्यता और घटनाओं के चित्रण के साथ-साथ उनकी अपनी कल्पना मुखर बनकर घटनाओं के क्रम विपर्यय और आकस्मिक रोमांच का भी निर्माण करती है। उनके द्वारा ऐसे नये पात्रों को प्रस्तुत किया जाता है, जिनका भले ही उपन्यास से दूर का भी सम्बन्ध न हो परन्तु जो उपन्यास के दृष्टिकोण को सबल रूप से प्रस्तुत कर सकें और समय-समय तथा स्थान स्थान पर ऐतिहासिक शैथिल्य का बौद्धिक विश्लेषण भी करते रहें।

गुरुदत्त का सभी प्रकार के उपन्यासों के रचनाक्रम में विशिष्ट दृष्टिकोण स्पष्ट परिलक्षित होता है। यही बात उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में भी देखने में आती है। वह दृष्टिकोण है अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी बात अर्थात् अपना विशिष्ट दृष्टिकोण पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास करना। इतिहास क्योंकि पूर्वयुगीन राजाओं अथवा बादशाहों, राज्यों और राष्ट्रीय महापुरुषों की कथाओं से सम्बन्धित होता है, इसलिए इस वर्ग के उपन्यासों में उन्होंने अपनी मनन परिधि को भी राजा और प्रजा तथा राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों तक सीमित किया है। अपनी कृतियों में उन्होंने राजा और राज्य का अन्तर, राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध तथा राज्य की सुरक्षा और विकास का एकमात्र साधन एवं बल, इन तीन प्रश्नों का विश्लेषण करके इनका अनुकूल उत्तर देने का प्रयास किया है। वे राजा और प्रजा के पारस्परिक सम्बन्ध को शासन और शासित का नहीं मानते, अपितु वे राजा को प्रजा के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित करने का यत्न करते हैं। उन्होंने इस उपन्यास की घटनाओं के बौधिक विश्लेषण को विशेष स्थान दिया है। सामान्यता कथा कहते-कहते अनेक गम्भीर बातों की ओर भी उन्होंने संकेत किये हैं।

उन्होंने जिस विद्या एवं विषय पर अपनी लेखनी चलाई, उसे पूर्णता प्रदान की है। उनकी कृति को आद्योपान्त पढ़ने के उपरान्त पाठक के मन में कोई संशय बचा नहीं रह जाता, यही उनकी विशेषता थी।

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