जीवन परिचय और रचनाएँ : आचार्य नरेंद्र देव

Biography : Acharya Narendra Dev

आचार्य नरेंद्र देव (1889-19 फ़रवरी 1956) भारत के प्रमुख स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार एवं शिक्षाविद थे। वे कांग्रेस समाजवादी दल के प्रमुख सिद्धान्तकार थे।

विलक्षण प्रतिभा और व्यक्तित्व के स्वामी आचार्य नरेन्द्रदेव अध्यापक के रूप में उच्च कोटि के निष्ठावान अध्यापक और महान शिक्षाविद् थे। काशी विद्यापीठ के आचार्य बनने के बाद से यह उपाधि उनके नाम का ही अंग बन गई। देश को स्वतंत्र कराने का जुनून उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में खींच लाया और भारत की आर्थिक दशा व गरीबों की दुर्दशा ने उन्हें समाजवादी बना दिया।

जीवन वृतांत

आचार्य नरेंद्रदेव का जन्म संवत् 1889 (सन् 1889 ई.) में कार्तिक शुक्ल अष्टमी को उत्तर प्रदेश के सीतापुर में एक खत्री परिवार में हुआ था।उनके पूर्वज सियालकोट पंजाब से आकर फ़ैज़ाबाद में बसे थे उनके पिता श्री बलदेवप्रसाद जी अपने समय के बड़े वकीलों में थे। वे धार्मिक वृत्ति के थे। कांग्रेस और सोशल कानफरेंस के कामों में भी थोड़ी बहुत दिलचस्पी लेते थे। इस नाते उपदेशक, संन्यासी और पंडित उनके घर आया करते थे। इस तरह बचपन में ही स्वामी रामतीर्थ, पंडित मदनमोहन मालवीय, पं॰ दीनदयालु शर्मा आदि के संपर्क में आने का मौका मिला। पिता जी के प्रभाव से आचार्य जी (तब अविनाशीलाल) के मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग उपजा। इसी कारण आगे चलकर आपने एम.ए. में संस्कृत की शिक्षा ली। इसके पूर्व इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। बी.ए. पास कर पुरातत्व पढ़ने काशी के क्वींस कालेज में आए। सन् 1913 में एम.ए. पास किया। घरवालों ने वकालत पढ़ने का आग्रह किया। नरेंद्रदेव जी को यह पेशा पसन्द नहीं था। किंतु वकालत करते हुए राजनीति में भाग ले सकने की दृष्टि से कानून पढ़ा। 1915-20 तक पाँच वर्ष फैजाबाद में वकालत की। इसी बीच असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ। असहयोग आन्दोलन के शुरू होने के बाद श्री जवाहरलाल नेहरू की सूचना और अपने मित्र श्री शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर नरेंद्रदेव जी विद्यापीठ आए।

इस सम्बन्ध में आचार्य नरेंद्रदेव जी ने "मेरे संस्मरण" शीर्षक रेडियो वार्ता में कहा है : "मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियाँ रही हैं - एक पढ़ने-लिखने की और, दूसरी राजनीति की ; और इन दोनों में संघर्ष रहता है। यदि दोनों की सुविधा एक साथ मिल जाए तो मुझे बड़ा परितोष रहता है और यह सुविधा मुझे विद्यापीठ में मिली। इसी कारण वह मेरे जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा है जो विद्यापीठ की सेवा में व्यतीत हुआ।"

विद्यापीठ में डाक्टर भगवानदास जी की अध्यक्षता में आचार्य जी ने काम शुरू किया। 1926 में स्वयं अध्यक्ष हुए। दो वर्ष तक विद्यार्थियों के साथ ही नरेंद्रदेव जी और हम लोग रहते थे। एक कुटुंब सा था। साथ-साथ हम लोग राजनीतिक कार्य भी करते थे। विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों से आपका बड़ा ही घनिष्ठ संबंध रहा है। श्री श्रीप्रकाश जी ने उन्हें आचार्य कहना शुरू किया और फिर तो वह उनके नाम का एक अंग बन गया। काशी विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने आचार्य जी के नेतृत्व में देश के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद शासक और विरोधी दलों के योग्य नेता और कार्यकर्ता, विद्या और आचरणसंपन्न अध्यापक, प्रखर पत्रकार और रचनात्मक कार्यकर्ता भी विद्यापीठ से निकले।

प्रयाग में अध्ययन के संबंध में रहते हुए नरेंद्रदेव जी के विचार पुष्ट हुए। हिंदू बोर्डिग हाउस उन दिनों उग्र विचारों का केंद्र था। नरेंद्रदेव जी वहाँ गरम दल के विचारों के हो गए। 1906 में आपने जो उग्र विचारधारा अपनाई तो फिर जीवन भर उसपर दृढ़ रहे। गरम दल के होने के कारण 1905 में आपने कांग्रेस के अधिवेशनों में जाना छोड़ दिया। सन् 1916 में जब कांग्रेस में दोनों दलों में मेल हुआ तब फिर कांग्रेंस में आ गए। 1916 से 1948 तक आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य और जवाहरलाल की वर्किग कमेटी के सदस्य भी थे।

भग्न स्वास्थ्य के बावजूद आपने 1930 के नमक सत्याग्रह, 1932 के आंदोलन तथा 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में साहस के साथ भाग लिया और जेल की यातनाएँ सहीं। 1942 में चार महीने तक गांधी जी ने अपने आश्रम में चिकित्सा के लिए रखा। अधिक अस्वस्थ होने पर गांधी जी ने अपना मौन तोड़ा। फिर, जब 8 अगस्त 42 को गांधी जी ने "करो या मरो" प्रस्ताव रखा, बंबई में आचार्य जी कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गिरफ्तार हे गए। 1942-45 तक श्री जवाहरलाल नेहरू के साथ अहमदनगर के किले में बंद रहे।

वैसे, क्रांतिकारी दल के कभी सदस्य नहीं हुए, किंतु उनके कई नेताओं से आपका घनिष्ठ परिचय था। वे आपका विश्वास करते थे, समय-समय पर आपसे सहायता भी लेते थे और विदेशों से आनेवाला साहित्य ले जाते थे और अपने समाचार देते थे।

1934 में आपने श्री जयप्रकाश नारायण, डाक्टर राममनोहर लोहिया तथा अन्य सहयोगियों के साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। 1934 ई. में हुए प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष आचार्य जी ही थे। कांग्रेस से बाहर आने पर 1948 में सोशलिस्ट पार्टी का जो सम्मेलन पटना में हुआ उसकी अध्यक्षता भी आचार्य जी ने ही की। समाजवादी आन्दोलन में आचार्य नरेंद्रदेव का वही स्थान रहा है जो एक परिवार में पिता का होता है या व्यक्ति में आत्मा का होता है। आचार्य जी मार्क्सवादी समाजवादी थे, किन्तु बराबर कहा करते थे कि इस युग की दो मुख्य प्रेरणाएँ राष्ट्रीयता और समाजवाद है और राष्ट्रीय परिस्थितियों और आकांक्षाओं की दृष्टि से ही समाजवाद का अर्थ करने पर जोर देते रहे। इस दृष्टि से आचार्य जी किसानों के सवाल पर विशेष जोर देते थे और किसानों की भूमिका का विशेष मान करते थे, जब कि मार्क्सवादी परम्परा के अनुसार किसान की भूमिका प्रतिक्रियावादी ही हो सकती है। भारत में समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ना, आचार्य जी की भारतीय समाजवाद को एक स्थायी देन है।

लेखन एवं रचनाएँ

राजनीति के अलावा, दूसरी प्रवृत्ति, उन्हीं के शब्दों में, "लिखने पढ़ने की ओर" रही है। इस दिशा में आचार्य नरेंद्रदेव जी का योगदान अत्यंत महत्व का है। विद्यापीठ के द्वारा पिछले वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में जो महत्व का काम हुआ है, उसकी आज भी, जबकि राष्ट्रीय शिक्षाप्रणाली की खोज ही चल रही है, विशेष उपयोगिता है। काशी विद्यापीठ के अध्यापक, आचार्य और कुलपति की हैसियत से आपने अपनी विद्वत्ता, उदारता और चरित्र के द्वारा अध्यापन और प्रशासन का जो उच्च आदर्श कायम किया है, वह अनुकरणीय है। अपने सहयोगी श्री संपूर्णानंद जी के आग्रह पर आचार्य जी ने संयुक्त प्रांत के फिर नाम बदल जाने पर, उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा समिति की अध्यक्षता की थी। इस समिति के जरिए कई एक महत्वपूर्ण सुझाव आपने दिए थे। इसके अलावा, संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन और अनुसंधान को बढ़ाने पर आप बराबर जोर देते थे।

बौद्ध दर्शन के अध्ययन में आचार्य जी की विशेष रुचि और गति रही है। आजीवन वे बौद्धदर्शन का अध्ययन करते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में "बौद्ध-धर्म-दर्शन" उन्होंने पूरा किया। "अभिधर्मकोश" भी प्रकाशित कराया था। "अभिधम्मत्थसंहहो" का भी हिंदी अनुवाद किया था। अभिधर्मकोश के प्रकाशन के संदर्भ में जगदीश गुप्त उसके प्रकाशकीय में लिखते हैं कि-"स्व. आचार्य नरेंद्रदेव द्वारा अनूदित और सम्पादित आचार्य वसुबन्धु के प्रसिद्ध बौद्ध-दर्शन-व्याख्या-ग्रन्थ 'अभिधर्मकोश' का पहला खण्ड १९५८ में, दूसरा खण्ड १९७३ तथा तीसरा खण्ड १९८४ में प्रकाशित हुए थे।"[1] प्राकृत तथा पालि व्याकरण हिंदी में तैयार किया था। किंतु वह मिल नहीं रहा है। संभव है, उनकी किताबों वगैरह के साथ कहीं मिले। बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माणकार्य भी उन्होंने प्रांरभ किया था। पेरुंदुराई के विश्रामकाल में आपने 400 शब्दों का व्याख्यात्मक कोश बनाया था, किंतु आकस्मिक निधन से यह काम पूरा न हो सका।

किंतु प्रकाशित रचनाओं से शायद अधिक बेजोड़ उनके भाषण रहे हैं। इस बात का कई बार विचार हुआ कि उनके भाषणों का संग्रह किया जाए, किंतु व्यवस्था न हो सकी और इस तरह ज्ञान की एक अमूल्य निधि खो गई।

रचनाएँ

आचार्य नरेंद्रदेव जी ने "विद्यापीठ" त्रैमासिक पत्रिका, "समाज" त्रैमासिक, "जनवाणी" मासिक, "संघर्ष" और "समाज" साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। इनमें जो लेख, टिप्पणियाँ वगैरह समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं, उनके संग्रह हैं : राष्ट्रीयता और समाजवाद, समाजवाद : लक्ष्य तथा साधन, सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद, भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास, युद्ध और भारत, किसानों का सवाल आदि।

आचार्य नरेंद्रदेव : नई संस्कृति के सर्जक - कुमुद शर्मा

हिंदी में समाजवाद के सर्वप्रथम व्याख्याकार आचार्य नरेन्द्र देव, ऐसे राजनीतिक विचारक, चिंतक, लेखक, शिक्षाशास्त्री और पत्रकार थे जिनके चिंतन, मनन और व्यवहार में मूल्य-बोध के प्रति प्रतिबद्धता साफ झलकती थी; जिनकी राजनीतिक और सामाजिक चेतना में भारतीय भाषा, साहित्य, संस्कृति और इतिहास के लिए खास जगह थी। प्राचीन संस्कृति के उत्कृष्ट पक्ष की रचना करते हुए उन्होंने आधुनिक युग के सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों को अपनाकर एक नई संस्कृति का सृजन किया। एक सामान्य संस्कृति को विकसित करने के लिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार किए जाने पर बल दिया और हिंदी के प्रचार-प्रचार एवं संवर्द्धन को आवश्यक माना।

हिंदी, संस्कृत, उर्दू, पाली, प्राकृत और बांग्ला आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता आचार्य नरेंद्रदेव का जन्म सीतापुर (उत्तर प्रदेश) में ३१ अक्टूबर, १८८९ को हुआ और निधन १९ फरवरी,१९५६ को। हिंदी प्रेम उन्हें विरासत में मिला था। बहुत ही कम उम्र में उन्होंने ’रामचतिमानस‘, ’भगवद्गीता‘, ’महाभारत‘ जैसे ग्रंथों का अध्ययन घर पर ही कर लिया था। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. तथा वकालात की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे फैजाबाद में वकालात करने लगे। स्वाधीनता संग्राम के दौरान असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने वकालात छोड़ दी। लोकमान्य तिलक के नेतृत्व ने उनके राजनीतिक क्रियाकलापों को प्रेरणा और गति दी। सन् १९२१ में वे काशी विद्यापीठ में अध्यापक बने, फिर आचार्य और बाद में कुलपति।

स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, मदनमोहन मालवीय, तिलक, गांधी और नेहरू जैसे महापुरूषों का व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रभाव नरेंद्रदेव पर पड़ा। लेकिन इतिहास, दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीति, संस्कृति, भाषा आदि के संदर्भ में उनकी अपनी ही विशिष्ट सोच थी। उन्होंने किसी भी प्रचलित वाद का अंधानुकरण नहीं किया, बल्कि एक समन्वयात्मक दृष्टि अपनाते हुए भारतीय परिवेश के अनुकूल सामयिक समस्याओं के समाधान के लिए एक नई राह खोजने की कोशिश की। चिंतन के गांभीर्य, अध्ययन की व्यापकता, सामाजिक-राजनीतिक तथा सांस्कृतिक जागरूकता ने उनके व्यक्तित्व को गरिमामय रूप दिया। उनकी बौद्धिक प्रखरता और पांडित्य से प्रभावित उनके एक साथी श्रीप्रकाश ने उन्हें ’आचार्य‘ कहना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इसी विशेषण के साथ उनका नाम शुरू हुआ।

राष्ट्रीय संघर्ष के समय आचार्य नरेंद्रदेव के राजनीतिक और सांस्कृतिक नेतृत्व का महत्वपूर्ण प्रदेय रहा। राजनीतिक विचारक और चिंतक की भूमिका में उन्होंने राजनीतिक क्रियाकलापों में ही महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई, बल्कि विभिन्न राजनीतिक क आंदोलनों में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। वे गांधी जी के साथ नजर बंद भी रहे। जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया आदि साथियों के साथ उन्होंने ’कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना भी की थी। देश के आजाद होने पर उन्होंने राजसत्ता से मुक्त रहकर निस्स्ववार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा की।

आचार्य नरेंद्रदेव की समाजवादी व्याख्याएँ मानववादी आधारों पर विकसित हुई। उन्होंने साम्यवादियों की तरह इसके अंतर्गत केवल पेट का सवाल नहीं उठाया। उन्होंने कहा, ’समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है, समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है।....एक स्वतंत्र-सुखी समाज में संपूर्ण मनुष्यत्व की सृष्टि तभी हो सकती है जब साधन भी संुदर हों।‘ उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद की बात करते हुए समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसान आंदोलनों से जोड़ा। अपने आदर्शो और सिद्धांतों में जनहित एवं व्यावहारिक उपादेयता को भी केंद्र में रखा।

नरेंद्रदेव ने अतीत के अनुभव के आलोक में वर्तमान को देखा। प्राचीन संस्कृति के साधक तत्वों और नवीन विकासमान मूल्यों का आग्रह लेकर नई संस्कृति के सृजन का बीड़ा उठाया। ’नैतिक व्यवस्था की स्थापना‘, ’आचरण की शुद्धता‘ तथा ’सार्वजनीनता‘ जैसे पहलुओं को केंद्र में रखकर ही उन्होंने जगत् में प्रगतिशील नई अवधारणाओं को अपनाया। शिक्षाशास्त्री की भूमिका में उन्होंने उस जनतांत्रिक शिक्षा पर बल दिया जो जनता के भीतर विवेचनात्मक शक्ति और आत्मनिणर्य की क्षमता विकसित कर सके।

नैतिक व्यवस्था की स्थापना में नरेंद्रदेव धर्म की सर्वप्रभावी भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे, इसलिए उन्होंने धार्मिक शिक्षा को भी महत्वपूर्ण माना। बौद्ध धर्म और दशर्न से प्रभावित होकर उन्होंने ’बौद्ध धर्म दर्शन‘ नामक एक ग्रंथ भी लिखा, जो उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकें हैं-’राष्ट्रीयता और समाजवाद‘, ’समाजवाद: लक्ष्य तथा साधना‘, ’समाजवाद का बिगुल‘, भारतीय संस्कृति का इतिहास‘, ’समाजवाद‘, ’बोधिचर्या तथा महायान‘ और ’अभिधर्म कोश‘। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार और नई संस्कृति के आवाहन के लिए संपादक का दायितव ओढ़ते हुए राष्ट्रीय पत्रकारिता को भी गति प्रदान की। वे ’जनवाणी‘, ’संघर्ष‘, ’जनता‘, ’समाज‘ आदि पत्रिकाओं के संपादन-प्रकाशन के दायित्व से जुड़े रहे।

यद्यपि नरेंद्रदेव जी ने इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र आदि साहित्येतर विषयों पर ही कलम चलाई, लेकिन उनका लेखन साहित्यिक तत्वों से परे नहीं था। हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। वे हिंदी भाषा और साहित्य को राष्ट्रीय पद दिलाना चाहते थे। उन्होंने ’मर्यादा‘ पत्रिका के सन् १९१३ के एक अंक में ’हमारा हिंदी के प्रति कर्तव्य‘ शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने हिंदी प्रेमियों से भाषा को देश व्यापी बनाने के लिए देशी भाषाओं के समान हिंदी साहित्य के भंडार को भी समृद्ध करने की बात कही। राष्ट्रीय एकता के लिए वे भारतीय भाषाओं में मेल की प्रक्रिया की गति को तेज करना चाहते थे। उनके अनुसार, राष्ट्रीय साहित्य को ’राष्ट्रीयता और जनतंत्र का‘ प्रतिनिधित्व करना होगा। हिंदी भाषा-भाषियों को उदार और व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की सलाह देते हुए उन्होंने की हिंदी साहित्य को भारत के विभिन्न साहित्य को आत्मसात् करके उत्तर-दक्षिण का भेद मिटा देना चाहिए। उन्होंने उसी साहित्य को प्रगतिशील माना जो जीवन को केंद्र में रखकर चलता हो और मानवीय भावनाएँ जिसका उपजीव्य हों।

इतिहास, राजनीति, और समाजशास्त्र पर हिंदी में लिखी आचार्य नरेंद्रदेव की कृतियों और हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति उनके दृष्टिकोण ने हिंदी भाषा और साहित्य को एक व्यापक दिशा दी। मानवीय मूल्यों और सामाजिक आदर्शों के लिए कला, जीवन और साहित्य में सत्यं, शिवं, सुंदरम् जैसे मूल्यों की समन्वित अभिव्यक्ति का जो संदेश उन्होंने दिया उसकी गूँज हमेशा बनी रहेगी।

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