बीमार (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Bimar (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
अजब बात है कि जब भी किसी लड़की या औरत ने मुझे ख़त लिखा भाई से मुख़ातब किया और बे-रबत तहरीर में इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया कि वो शदीद तौर पर अलील है। मेरी तसानीफ़ की बहुत तारीफ़ें कीं। ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाबे मिला दिए।
मेरी समझ में नहीं आता था कि ये लड़कियां और औरतें जो मुझे ख़त लिखती हैं बीमार क्यों होती हैं। शायद इस लिए कि मैं ख़ुद अक्सर बीमार रहता हूँ। या कोई और वजह होगी। जो इस के सिवा और कोई नहीं हो सकती कि वो मेरी हमदर्दी चाहती हैं।
मैं ऐसी लड़कियों और औरतों के ख़ुतूत का उमूमन जवाब नहीं दिया करता, लेकिन बाअज़ औक़ात दे भी दिया करता हूँ आख़िर इंसान हूँ। ख़त अगर बहुत ही दर्दनाक हो तो इस का जवाब देना इंसानी फ़राइज़ में शामिल हो जाता है।
पिछले दिनों मुझे एक ख़त मौसूल हुआ, जो काफ़ी लंबा था। इस में भी एक ख़ातून ने जिस का नाम मैं ज़ाहिर नहीं करना चाहता ये लिखा था कि वो मेरी तहरीरों की शैदाई है लेकिन एक अर्से से बीमार है। उस का ख़ाविंद भी दाइम-अल-मरीज़ है। उस ने अपना ख़याल ज़ाहिर किया था कि जो बीमारी उसे लगी है उस के ख़ाविंद की वजह से है।
मैंने इस ख़त का जवाब न दिया लेकिन उस की तरफ़ से दूसरा ख़त आया जिस में ये गिला था कि मैंने इस के पहले ख़त की रसीद तक न भेजी। चुनांचे मुझे मजबूरन उस को ख़त लिखना पड़ा। मगर बड़ी एहतियात के साथ।
मैंने इस ख़त में उस से हमदर्दी का इज़हार किया। उस ने लिखा था कि वो और भी ज़्यादा अलील होगई है और मरने के क़रीब है ये पढ़ कर मैं बहुत मुतअस्सिर हुआ था। चुनांचे इसी तअस्सुर के मातहत मैंने बड़े जज़्बाती अंदाज़ में उसे ये ख़त लिखा और उस को समझाने की कोशिश की कि ज़िंदगी ज़िंदा रहने के लिए है इस से मायूस हो जाना मौत है अगर तुम ख़ुद में इतनी क़ुव्वत-ए-इरादी पैदा कर लो तो बीमारी का नाम-ओ-निशान तक न रहेगा मैं पिछले दिनों मौत के मुँह में था। सब डाक्टर जवाब दे चुके थे। लेकिन मैंने कभी मौत का ख़याल भी नहीं किया। नतीजा इस का ये निकला कि डाक्टर हैरत में गुम होके रह गए और मैं हस्पताल से बाहर निकल आया।
मैंने उस को ये भी लिखा कि क़ुव्वत-ए-इरादी ही एक ऐसी चीज़ है जो हर ना-मुमकिन चीज़ को मुम्किन बना देती है। तुम अगर बीमार हो तो ख़ुद को यक़ीन दिला दो कि नहीं तुम बीमार नहीं अच्छी भली तंदरुस्त हो।
मेरे इस ख़त के जवाब में उस ने जो कुछ लिखा इस से मैंने ये नतीजा अख़्ज़ किया कि इस पर मेरे वाज़ का कोई असर नहीं हुआ। बड़ा तवील ख़त था। पाँच सफ़हों पर मुश्तमिल उस की मंतिक़ और उस का फ़लसफ़ा अजीब क़िस्म का था। वो इस बात पर मुसिर थी कि ख़ुदा को ये मंज़ूर नहीं कि वो ज़्यादा देर तक इस दुनिया में ज़िंदा रहे। इस के इलावा उस ने ये भी लिखा था कि मैं अपनी ताज़ा किताबें उसे भेजूं। मैंने दो नई किताबें उस को भेज दीं। उन की रसीद आगई। बहुत बहुत शुक्रिया अदा किया गया था और मेरी तारीफ़ें ही तारीफ़ें थीं।
मुझे बड़ी कोफ़्त हुई। जो किताबें मैंने उस को भेजी थीं, मेरी नज़र में उन की कोई वक़ात नहीं थी। इस लिए कि वो सिर्फ़ हर रोज़ कुछ कमाने के लिए लिखी गई थीं। चुनांचे मैंने उसे लिखा कि तुम ने मेरी दो किताबों की जो इतनी तारीफ़ की है, ग़लत है ये किताबें महिज़ बकवास हैं तुम मेरी पुरानी किताबें पढ़ो। इस में तुम पूरी तरह मुझे जलवागर पाओगी।
मैंने इस ख़त में अफ़साना नवेसी के फ़न पर बहुत कुछ लिख दिया था। बाद में मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने ये झक क्यों मारी। अगर लिखना ही था तो किसी रिसाले या पर्चे के लिए लिखता। ये किया है एक औरत को जिस के तुम सूरत आश्ना भी नहीं इतना तवील और पुर-मग़ज़ ख़त लिख दिया है।
बहरहाल जब लिख दिया था तो उसे पोस्ट करना ही था। उस का जवाब तीसरे रोज़ आगया अब के मुझे प्यारे भाई जान से मुख़ातब किया गया था। उस ने मेरी पुरानी तसनीफ़ात मंगवा ली थीं और वो उन्हें पढ़ रही थी। लेकिन बीमारी रोज़ बरोज़ बढ़ रही थी उस ने मुझ से पूछा कि वो किसी हकीम का ईलाज क्यों न कराए, क्योंकि वो डाक्टरों से बिलकुल न उमीद हो चुकी थी।
मैंने उसे जवाब में लिखा, ईलाज तुम किसी से भी कराओ। ख़ाह वो डाक्टर हो या हकीम लेकिन याद रखो सब से ज़्यादा अच्छा मुआलिज ख़ुद आदमी आप होता है अगर तुम अपनी ज़हनी परेशानियां दूर कर दो तो चंद रोज़ में तंदरुस्त हो जाओगी।
मैंने इस मौज़ू पर एक तवील लैक्चर लिख कर उस को भेजा। एक महीने के बाद उस की रसीद पहुंची, जिस में ये लिखा था कि इस ने मेरी नसीहत पर अमल किया। लेकिन ख़ातिर-ख़्वाह नतीजा बरामद नहीं हुआ और ये कि वो मुझ से मिलने आ रही है दो-तीन रोज़ में हैदराबाद से बंबई पहुंच जाएगी और चंद रोज़ मेरे हाँ ठहरेगी।
मैं बहुत परेशान हुआ, छुड़ा छटांक था। मगर एक फ़्लैट में रहता था। जिस में दो कमरे थे। मैंने सोचा अगर ये मोहतरमा आ गईं तो मैं एक कमरा उन को दे दूंगा इस में वो चंद दिन गुज़ारना चाहें गुज़ार लें ईलाज का बंद-ओ-बस्त भी हो जाएगा। इस लिए कि वहां का एक बड़ा हकीम मेरा बड़ा मेहरबान था।
छः रोज़ तक आप ये समझिए कि मैं सूली पर लटका रहा। अख़बार वाले ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो मैं ये समझा कि वो मोहतरमा तशरीफ़ ले आईं। बावर्ची-ख़ाने में नौकर ने अगर किसी बर्तन पर राख मलना शुरू की तो मेरा दिल धक धक करने लगा कि शायद ये आवाज़ उस औरत के सैंडलों की है।
मैं हिंदू मुस्लिम फ़सादात की ख़बरें पढ़ रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैं ये समझा कि दूध वाला है। चुनांचे मैंने नौकर को आवाज़ दी “देखो रहीम कौन है?”
रहीम चाय बना रहा था वो उबलती हुई केतली को वहीं चूल्हे पर छोड़कर बाहर निकला और दरवाज़ा खोला थोड़ी देर के बाद वो मेरे कमरे में आया और मुझ से मुख़ातब हो कर कहा “एक औरत आई है”
“मैं हैरतज़दा होगया औरत?”
“जी हाँ एक औरत बाहर खड़ी है वो आप से मिलना चाहती है”
मैं समझ गया कि ये औरत वही होगी बीमार, जो मुझे ख़त लिखती रही है चुनांचे मैंने रहीम से कहा “उस को अंदर ले आओ और बड़े कमरे में बिठा दो और कह दो कि साहब अभी आ जाऐंगे।”
“जी अच्छा” ये कह कर रहीम चला गया।
मैंने अख़बार एक तरफ़ रख दिया और सोचने लगा कि ये औरत किस क़िस्म की होगी। दिक़ की मारी हुई या फ़ालिज-ज़दा मेरे पास क्यों आई है? नहीं मुझ से मिलने आई है, ग़ालिबन यहां किसी तबीब से अपना ईलाज कराने आई है मैं उठा और ग़ुसलख़ाने में चला गया वहां देर तक नहाता रहा और सोचता रहा कि ये औरत जो उस को इतने लंबे चौड़े ख़त लिखती रही और जिस को कोई ख़तरनाक बीमारी चिम्टी हुई है किस शक्ल-ओ-सूरत की होगी?
बे-शुमार शक्लें मेरे तसव्वुर में आईं। पहले मैंने सोचा अपाहिज होगी और मुझे उस को कुछ देना पड़ेगा। इत्तिफ़ाक़ की बात है कि तीन तारीख़ थी जब वो आई। मेरे पास तनख़्वाह के तीन सौ रुपय थे जो इधर उधर के बिल अदा करने के बाद बच गए थे। इस लिए मेरी परेशानी में इज़ाफ़ा न हुआ मैं ने नहाते हुए ये फ़ैसला कर लिया कि अगर उसे मदद की ज़रूरत है तो मैं उसे एक सौ रुपय दे दूँगा।
लेकिन फ़ौरन मुझे ख़याल आया कि शायद उस को दिक़ हो और मुझे उस को हस्पताल में दाख़िल कराना पड़े ये काम कोई मुश्किल नहीं था इस लिए कि मेरे कई दोस्त जय जय हस्पताल में काम करते थे। मैं इन में किसी एक से भी कह दू कि इस माज़ूर औरत को दाख़िल कर लो तो वो कभी इनकार न करेंगे।
मैं काफ़ी देर तक नहाता और उस औरत के मुतअल्लिक़ सोचता रहा औरतों से मिलते हुए बड़ी उलझन महसूस होती थी। यही वजह है कि मैंने एक जगह निकाह तो कर लिया लेकिन डेढ़ बरस तक यही सोचता रहा कि उसे अगर अपने घर ले आऊं तो क्या होगा?
जो होना था वो तो ख़ैर हो ही जाता अगर सब से बड़ा मसला जो मुझे परेशान किए हुए था ये था कि जिस ने सारी ज़िंदगी में किसी औरत की क़ुरबत हासिल नहीं की थी अपनी बीवी से किस तरह पेश आता।
अब एक औरत साथ वाले कमरे में बैठी मेरा इंतिज़ार कर रही थी और मैं डोंगे पे डोंगे भर के अपने बदन पर बे-कार डाल रहा था मैं असल में ख़ुद को उस औरत से मुलाक़ात करने के लिए तैय्यार कर रहा था।
काफ़ी देर नहाने के बाद में ग़ुसलख़ाने से बाहर निकला। कमरे में जा कर कपड़े तबदील किए। बालों में तेल लगाया। कंघी की और सोचते सोचते पलंग पर लेट गया।
चंद लम्हात के बाद रहीम आया और उस ने मुझ से कहा “वो औरत पूछती है कि आप कब फ़ारिग़ होंगे?”
मैंने रहीम से कहा “उन से कह दो बस पाँच मिनट में आते हैं। कपड़े तबदील कर रहे हैं”
रहीम “जी अच्छा” कह कर चला गया।
मैंने सोचा कि अब और ज़्यादा सोचना फ़ुज़ूल है चलो उस से मिल ही लें। इतनी ख़त-ओ-किताबत होती रही है और फिर वो इतनी दूर से मिलने आई है बीमार है। इंसानी शराफ़त का तक़ाज़ा है कि उस की ख़ातिरदारी और दिल-जोई की जाये।
मैंने पलंग पर से उठ कर स्लीपर पहने और दूसरे कमरे में जहां वो औरत थी दाख़िल हुआ। वो बुर्क़ा पहने थी में सलाम कर के एक तरफ़ बैठ गया।
मुझे इस के बुरक़े के स्याह निक़ाब में सिर्फ़ उस की नाक दिखाई दी जो काफ़ी तीखी थी मैं बहुत उलझन महसूस कर रहा था कि उस से क्या कहूं। बहर-हाल मैंने गुफ़्तुगू का आग़ाज़ क्या “मुझे बहुत अफ़सोस है कि आप को इतनी देर इंतिज़ार करना पड़ा दर असल मैं अपनी आदत की वजह से ”
उस औरत ने मेरी बात काट कर कहा “जी कोई बात नहीं आप ख़्वाह-मख़्वाह तकलीफ़ करते हैं मैं तो इंतिज़ार की आदी हो चुकी हूँ।”
मेरी समझ में कुछ न आया में क्या कहूं। बस जो लफ़्ज़ ज़बान पर आए उगल दिए आप किस का इंतिज़ार करती रही हैं उस ने अपने चेहरे पर नक़ाब थोड़ी सी उठाई। इस लिए कि वो अपने नन्हे से रूमाल से अपने आँसू पोंछना चाहती थी। आँसू पोंछने के बाद उस ने मुझ से पूछा “आप ने क्या कहा था मुझ से?”
उस की ठोढ़ी बड़ी प्यारी थी जैसे बनारसी आम की केसरी। जब उस की नक़ाब उठी थी तो मैंने उस की एक झलक देख ली थी। मैं तो इस के सवाल का जवाब न दे सका इस लिए कि मैं उस की ठोढ़ी में गुम होगया था। आख़िर उसे ही बोलना पड़ा “आप ने पूछा था तुम किस का इंतिज़ार करती रही हो जवाब सुनना चाहते हैं आप?”
“जी हाँ फ़रमाईए लेकिन देखिए कोई ऐसी बात न हो जिस से क़ुनूतियत का इज़हार हो”
उस औरत ने अपनी नक़ाब उलट दी। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि काली बदलियों में चांद निकल आया है। उस ने नीची निगाहों से मुझ से कहा “जानते हैं आप मैं कौन हूँ”
मैंने जवाब दिया “जी नहीं”
उस ने कहा “मैं आप की बीवी हूँ जिस से आप ने आज से डेढ़ बरस पहले निकाह किया था में आप को लिखती रही हूँ कि मैं बीमार हूँ। मैं बीमार नहीं लेकिन अगर आप ने इसी तरह मुझे इंतिज़ार में रखा तो यक़ीनन मर भी जाऊंगी।”
मैं दूसरे रोज़ ही उस को घर ले आया बड़े ठाट से अब मैं बहुत ख़ुश हूँ। ये वाक़िया मुझे मेरे एक दोस्त ने जो अफ़्साना निगार और शायर है सुनाया था जिसे मैंने अपने अंदाज़ में रक़म कर दिया।
सआदत हसन मंटो
(६ अक्तूबर १९५४-ई.)