बिल्ली भीतर (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Billi Bheetar (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

विनायक मुदाली स्ट्रीट के उस प्राचीन मकान में एक रास्ता पिछवाड़े के आंगन तक जाता था जहाँ एक बड़े इमली के पेड़ के नीचे एक कुआँ और एक पाखाना इस काफी बड़ी इमारत के बहुत-से किरायेदारों की रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करता था। इसके मालिक ने इमारत में छोटे-छोटे बहुत से टुकड़े करके और जहाँ-तहाँ दीवालें खींचकर इसके गरीब निवासियों के लिए सहारे और एकांत का भ्रम-सा पैदा कर दिया था। जिनके किराये के रूम में वह बड़ी-बड़ी रकमें वसूल करता था। खुद वह सड़क पर निकलती एक पतली-सी पट्टी में रहता था जिसमें उसकी एक दुकान भी चलती थी-इसमें लोगों के मतलब की आम चीजों के अलावा पिपरमिंट की चूसने वाली गोलियाँ पेंसिल, लाल-नीले रिबन और सड़क के पार बने स्कूल के बच्चों के काम की दूसरी चीजें भी मिलती थीं। रात को जब वह मकान में ताला मारता तो खुद दरवाजे के आर-पार इस तरह सोता कि अगर कोई चोर भीतर घुसने की कोशिश करे तो उससे टकराये बिना भीतर न जा सके, इसके अलावा दुकान के भीतर अंधेरे में वह चार मिट्टी के तेल के खाली पीपे इस तरह एक-दूसरे पर चढ़ाकर रख देता कि किसी के जरा से स्पर्श से वे सब गिर पड़ें और खन-खन की आवाज करने लगें-यह उसकी चोर-घंटी थी।

एक दिन रात को एक बिल्ली अनाज के बोरों में चूहे का पीछा करते हुए एक पीतल के बर्तन से जा टकराई और इसके भीतर क्या है, इसकी जाँच करने के लिए उसके भीतर अपना मुँह डाल बैठी। बर्तन का मुँह न इतना बड़ा था और न छोटा कि बिल्ली का सिर उसमें घुस भी जाये और फिर निकल भी आये। तभी अपने ऊपर किसी चीज का वजन पड़ने और उसके कारण नजर में अचानक एक चमक पैदा हो जाने से बिल्ली बहुत चकित और परेशान हो उठी और उसकी समझ में नहीं आया कि क्या करे क्या न करे! बदहवासी में उसने कूदना और इधर-उधर दौड़ना शुरू किया और दीवालों से सिर टकराने लगी-जिससे 'क्लेंग' की आवाज होती थी। दुकानवाला अपनी रोज की जगह पर आराम से सो रहा था, भीतर हो रही आवाजों को सुनकर जाग उठा। उसने एक झिझरी से भीतर आँधेरी दुकान में झाँका, फिर फौरन सिर हटाकर चिल्लाया, 'चोर, चोर! उठो.। " उसने एक डंडा भी उठा लिया और जमीन पर उसे जोर-जोर से बजाने लगा। जैसे ही डंडा जमीन पर पड़ता, बर्तन में सिर घुसाये बिल्ली ऊँची उछलती और दुकान की हर चीज से पागल की तरह टकराती। शोर सुनकर सारे किरायेदार जाग गये और उसके चारों तरफ भीड़ लगाकर इकट्ठे हो गये। वे सब एक-एक करके दरवाजे की झिंझरी से भीतर झाँकते और बर्तन से हो रही आवाजों को सुनकर काँपने लगते। बार बार भीतर अँधेरे में देखकर वे यह जानने की कोशिश करते रहे कि भूत या प्रेत यह क्या बला है! और अंत में इस निर्णय पर पहुँचे कि यह निश्चय ही कोई बड़ी डरावनी ताकत है। यह सुनकर एक आदमी ने सुझाव दिया, 'अरे, ओझा जी को जगाओ, वो इसका उपाय करेंगे!' सचमुच इस मकान के तरह-तरह के निवासियों में झाड़-फूंक करने वाला एक ओझा भी रहता था। इस वक्त वह गहरी नींद में सो रहा था क्योंकि उसकी कोठरी इमारत के एक कोने में थी।

वह बिना कहीं बाहर जाये, अपनी कोठरी में ही बैठा, रोज पचास रुपये कमाता था। उसके ग्राहक यहीं आते थे और दिन भर लाइन लगाये रहते थे। लोग कहते थे कि लोग पांडिचेरी से, श्रीलंका से और सिंगापुर तक से आते थे। अक्सर इतनी भीड़ लग जाती कि उससे कहा जाता कि वह पिछवाड़े के मैदान में इन सबको ले जाये। इससे दूसरे किरायेदारों की परेशानी कम हो जाती थी और वे शांति से अपना कामधाम करते रह सकते थे। हर रोज इससे मिलने वालों में एक दर्जन हिस्टीरिया जैसी चीखती-चिल्लाती औरतें और पागल आदमी होते थे जिन्हें उनके घरवाले सँभालकर खड़ा या बिठाये रखते थे। ओझा मौके के लायक कपड़े पहने बिना बाहर नहीं निकलता था-उसके बाल सिर के ऊपर धुंघराले बँधे होते, तराशी हुई दाढ़ी नीचे लहराती होती, माथे पर पवित्र राख, सिंदूर और चंदन, और गले में हिमालय के पहाड़ों से लाये बड़े-बड़े मनकों की माला। उसके पास भोजपत्रों की एक प्राचीन पोथी थी जिसमें कहा जाता था कि दुनिया के हर आदमी का भविष्य रहस्यमय पद्य में लिखा है। जरूरी पूजा पाठ करके वह पूछने वालों के सामने जमीन पर पट्टी बिछा कर बैठता और एक एक आदमी को बुलाकर पोथी खोलता और उसमें से उसका भविष्य-गीत गाने की तरह धीरे-धीरे बताता। पुरानी तमिल भाषा में लिखे इन पद्य गीतों का, जो हजार साल पहले लिखे गये थे, अर्थ ओझा ही जानता होगा और कोई नहीं। वह विस्तार से बताता, 'तुमने अपनी पिछली जिंदगी में कुछ ऐसे कर्म किये हैं जो अब अपना फल दिखा रहे हैं। और हो भी क्या सकता है-कर्म का फल तो मिलता ही है। अब अगले महीने की पूरनमासी के सताईस दिन और दस घंटे बाद इसका प्रभाव खत्म होगा। अच्छा, क्या तुमने कभी. ?' इस प्रकार प्रश्न करके वह दूसरे से बहुत-सी जानकारी प्राप्त कर लेता। 'तुम्हारी जिंदगी में कभी कोई बुढ़िया आयी है जो तुम्हारे खिलाफ रही हो? सच-सच बताना।' इस पर कुछ देर सोचकर वह आदमी कहता, 'सच है, बिलकुल सच है यह,' और इसके बाद वह अपने साथी से कहने लगता, 'जरूर यह बुढ़िया कामू ही रही होगी.।' इसके बाद ओझा उपाय बताता, 'उसने तुम्हारे ऊपर तंत्र किया था। अब तुम यह करो कि गाँव के किसी बड़े पेड़ की मिट्टी खोदो और उसमें से कोई एक हड़ी निकालकर मेरे पास लाओ। उसे मैं नदी में फेंक दूंगा। इससे तुम कुछ समय तक सुरक्षित रहोगे।' इसके बाद वह नीम की एक डाल से उस आदमी पर प्रहार करता और कहता, 'भाग जाओ, ओ प्रेत, इसे छोड़कर अब चले जाओ!"

इस रात दुकानवाला बहुत परेशान होकर उसके पास पहुंचा और कहने लगा, 'बाहर आओ, तुम्हारी मदद चाहिए। बड़ी अजीब चीजें हो रही हैं. जल्दी करो।'

ओझा ने तुरंत अपनी माला गले में लटकाई और थैला लेकर बाहर निकल आया। घटनास्थल पर पहुँचकर पूछने लगा, 'अब बताओ, कहाँ क्या हो रहा है?'

'एक बर्तन है जो जिन्दा हो गया है और ऊपर-नीचे उछल-उछलकर हर चीज से टकराता है और आवाज करता है।'

'अच्छा, तो यह बर्तन का प्रेत है, हाँ। यह प्रेत खाली बर्तन में घुसकर उसे जीवित कर देता है। इसीलिए हमारे पुरखों ने कहा है कि खाली बर्तन कभी आकाश में मुँह खोलकर नहीं रखना चाहिए। उसे हमेशा जमीन पर औधा करके रखना चाहिए। ये प्रेत भयंकर आवाजें करके लोगों को डराते हैं। और जो डर जाता है, उसके सिर पर वार करते हैं। लेकिन. मैं इनसे निपटना जानता हूँ।' दुकान वाले ने घबराकर कहा, 'लेकिन मैं तो हमेशा ईमानदारी की जिन्दगी बिताता रहा हूँ। कभी किसी को नुकसान नहीं पहुँचाया। तो मेरे साथ यह क्यों हो रहा है?'

'ये आम बातें हैं। फिक्र मत करो, यही कर्म है। तुमने इसमें नहीं तो पिछले किसी जीवन में कुछ किया होगा..।"

'क्या किया होगा मैंने?' दुकानवाला डरकर पूछने लगा।

ओझा इस बात के विस्तार में नहीं जाना चाहता था। वह भी दूसरे किरायेदारों की तरह इस मकान मालिक से नफरत करता था, लेकिन उसके खिलाफ बाकायदा कोई शिकायत बताने के लिए उसे कुछ वक्त की जरूरत थी। इस वक्त उसने इतना ही कहा, 'यह कोई छोटी-मोटी आत्मा है, ज्यादा डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन कमजोर दिल के लोग कभी-कभी बहुत डर जाते हैं और खून की उलटी करने लगते हैं।'

जब यह सब बातें चल रही थीं, भीतर से बर्तन की आवाजें भी लगातार आ रही थीं। एक आदमी चिल्लाकर कहने लगा, 'इसीलिए तुम्हें मकान में बिजली जरूर लगवानी चाहिए। शहर के हर कोने में झकाझक बिजली होती है, हम ही हैं जो आँधेरे में मरते रहते हैं।'

'यहाँ लालटेन क्यों नहीं ले आते ?'

'तीन दिन से मिट्टी का तेल नहीं मिला है, हम लोग सितारों की रोशनी में खाते-पीते हैं।'

'धीरज रखो', मकान मालिक ने कहा, 'मैंने बिजली के लिए अजी डाल दी है। जल्द आ जायेगी।'

'बिजली होती तो हम स्विच ऑन कर रोशनी कर लेते और पता चल जाता कि आखिर यह बला है क्या !'

'वक्त पर सब कुछ हो जायेगा. सब हो जायेगा, यह वक्त शिकायत करने का नहीं है।' यह कहकर मकान मालिक ओझा को दुकान के दरवाजे पर ले गया। किसी ने टार्च जलाई लेकिन इसकी बैटरी कमजोर थी, इसलिए मामूली टिमटिमाहट से ज्यादा रोशनी नहीं हुई और साफतौर पर कुछ भी दिखायी न पड़ा।

बिल्ली को अंदाज हो गया था कि लोग जमा हो गये हैं, इसलिए पहले तो वह डरकर जरा देर के लिए खामोश हो गयी, लेकिन इसके बाद और भी जोर-जोर से उछलना-कूदना शुरू कर दिया और पहले से ज्यादा शोर-शराबे के साथ दीवालों और दूसरी चीजों से टक्कर लेना शुरू कर दिया। उसकी हर आवाज पर मकानवाला चीख मारता और थरथरा कर काँपने लगता, और दूसरे लोग भी पहले से ज्यादा डर जाते। ओझा भी काफी डरा हुआ लगने लगा। वह बार-बार भीतर झाँकता और बर्तन की आवाज होते ही कूदकर पीछे हट जाता। उसने फुसफुसाकर कहा, 'मोमबत्ती ही जला लो। तुम कैसे आदमी हो कि खुद अपने को और बाकी सबको भी अँधेरे में रखते हो, जबकि सारा शहर बिजली से जगमगाता रहता है! बहुत ही अजीब हो तुम.।"

भीड़ में से किसी ने जोड़ा, 'और बीस घरों के लिए एक ही कुआँ, और एक ही पाखाना. "

एक दूसरे ने कहा, 'मैं जब बीवी के साथ बिस्तर पर होता हूँ, तो जरा-सी फुसफुसाइट भी चारों तरफ सुनायी देती है।'

'लेकिन तुम तो शादीशुदा हो नहीं," किसी ने कहा।

'होता तो ? मैं नहीं तो और हैं. ।'

'दूसरों के नेता बनने की कोशिश मत करो। वे अपने मामले खुद देख लेंगे।"

'टन.. टन., ' भीतर से आवाज आयी।

किसी ने दुकान वाले की तरफ इशारा करके कहा, 'इसके पापों का नतीजा है जो हम सबको भोगना पड़ रहा है।'

इस पर दुकान वाले ने जवाब दिया, 'इतने दुखी हो तो छोड़ क्यों नहीं देते।' इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था क्योंकि दूसरे कस्बों की तरह यहाँ भी किराये के लिए मकानों की बेहद कमी थी।

अब ओझा ने नेतृत्व सँभाल लिया। उसने सबसे एकदम चुप हो जाने को कहा। 'यह शिकायतों और माँगों का वक्त नहीं है। आप सब अपने घरों में जाकर सो जायें। प्रेत को निकालना बहुत जरूरी है। जब यह निकलेगा तो सामने कोई नहीं होना चाहिए। नहीं तो जो सामने होगा, उसके भीतर प्रेत घुस जायेगा।'

'कोई बात नहीं। वह हमारे मालिक-मकान से बुरा हरगिज नहीं होगा। प्रेत मेरे बदन में घुस जाये तो मैं इस टूटे-फूटे मकान की एक-एक दीवाल से टकरा टकरा कर उसे तोड़ डालू और जो भी इसका मालिक है, उसके सिर पर बरसा दूँ," एक बहुत नाराज किरायेदार ने जोर-जोर से कहा।

ओझा ने उसे शांत करने की कोशिश की, 'इस वक्त ऐसी कोई बात कहना गलत है।.आप चुप हो जाइये। मैं भी आप सबकी तरह किरायेदार हूँ और तकलीफें सहता हूँ लेकिन यह वक्त माँगें रखने का नहीं है। इस वक्त मुझे सिर्फ मोमबत्ती चाहिए। फिर दुकान वाले की तरफ मुड़कर वह बोला, 'तुम दुकान में मोमबत्ती नहीं बेचते? कैसी दुकान चलाते हो तुम ?'

वह बोला, 'मोमबत्ती एक डिब्बे में है और डिब्बा दाहिनी तरफ की अलमारी में रखा है-हाथ बढ़ाओगे तो वहाँ तक पहुँच जायेगा।'

'तुम चाहते हो कि यह काम मैं करूं ? ठीक है, लेकिन प्रेत के पास जाकर उसे काबू में लाने के लिए मैं फीस लेता हूँ. नहीं तो मैं दूर से ही काम करता हूँ।'

दुकान वाले ने फीस देने की बात मान ली और ओझा ने दरवाजे के सामने खड़े होकर गला साफ किया, बाँहें कसी और कहना शुरू किया, 'ओ प्रेत, मैं तुमसे डरता नहीं हूँ। मैं तुम जैसों को अच्छी तरह जानता हूँ और तुम भी मेरी ताकत जानते हो, इसलिए.।' यह कहकर उसने दरवाजे की कुंडी खोली और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। वह कुछ कदम ही बढ़ा होगा कि बर्तन खिड़की के शीशे से जा टकराया जिससे शीशा कड़-कड़ की आवाज करते हुए टूट गया। इससे बिल्ली की परेशानी और बढ़ गयी और वह पूरी ताकत से उलटकर टीन के पीपों से जा टकरायी जिससे दुकान के घोर आँधेरे में और भी ज्यादा हलचल मच गयी। इससे ओझा के पैर भी लड़खड़ाये और कुछ क्षणों के लिए वह यह भी भूल गया कि वह यहाँ क्यों आया है और उसे क्या करना है! वह भी सामने रखे तेल के पीपों से जा टकराया और पीपे चारों तरफ लुढ़ककर और भी ज्यादा शोर मचाने लगे।

अब ओझा भी डर गया और जल्दी से खड़ा होकर बाहर निकल आया। 'यह तो बहुत ताकतवर प्रेत लगता है। इसने मुझे भी तूफान की तरह झकझोर दिया.। अब यह सब दीवालें तोड़ डालेगा।'

'अय्यो!' दुकानवाला दहशत से चिल्लाया।

'मुझे अब ज्यादा सुरक्षा चाहिए. मैं भीतर नहीं जा सकता. कोई रोशनी नहीं, मोमबत्ती भी नहीं है। अगर मैं एकदम बाहर न आ जाता तो तुम लोग मुझे देख भी न पाते।'

'अय्यो! अब मेरी दुकान और जायदाद का क्या होगा?" दुकानवाला रोने को हो आया। 'हम देखेंगे, हम देखेंगे, हम इसके लिए भी कुछ करेंगे', ओझा ने हीरो की तरह धीरज बँधाते हुए कहा, हालाँकि सड़क से भीतर आती रोशनी में वह खुद कैंपकपाता दिखायी पड़ रहा था। दुकान वाले को उसका चेहरा देखने से भी डर लगने लगा था, क्योंकि उस पर ऊपर-नीचे राख पुती थी और आँखें गोल-गोल घूम रही थीं। उसे लग रहा था कि वह दो भूतों के बीच में फंस गया है, एक तो दुकान के भीतर वाला और दूसरा उसके बाहर का, और वह समझ नहीं पा रहा था कि इन दोनों में से कौन ज्यादा खतरनाक है! ओझा अब दुकान के सामने अकड़कर इस तरह बैठ गया था, मानो बताना चाहता हो कि मैं किसी से नहीं डरता। उसने गरजकर हुक्म दिया,'अब मेरे लिए एक ताँबे का बर्तन लाओ, ताँबे का ही एक लोटा और एक चम्मच । इनकी मुझे सख्त जरूरत है।"

'ताँबे के ही क्यों?'

'सवाल मत पूछो।. कोई बात नहीं, मैं बताता हूँ। क्योंकि ताँबा बिजली का गुड कण्डक्टर होता है। आपने खम्भों पर लगे ताँबे के तार नहीं देखे?'

'इससे क्या कण्डक्ट किया जायेगा?"

'फिर सवाल ? खैर, मैं बताता हूँ। मुझे ऐसा माध्यम चाहिए जो मेरे बोले मंत्रों को भीतर उस प्रेत तक पहुँचा सके।"

इसके बाद बिना कोई सवाल किये दुकान वाले ने कहीं से अलमोनियम का एक बर्तन लाकर उसके सामने रख दिया। 'मेरे पास ताँबा नहीं है, सिर्फ एलमोनियम है.।

'हमारे देश में गरीब-से-गरीब आदमी के पास भी ताँबे का बर्तन जरूर होता है. और तुम अपने को साहूकार कहते हो, न मोमबत्ती, न रोशनी, न ताँबा. !'

'मेरे गाँव के घर में सब बर्तन ताँबे और चाँदी के हैं. "

'लेकिन उससे यहाँ क्या फायदा! तुम्हारे गाँववाले घर में तो प्रेत नहीं घुसा है.हालाँकि मैं यह गारंटी नहीं करता कि यही प्रेत वहाँ नहीं पहुँच जायेगा.खैर, अब मुझे अपना काम करने दो।'

उसने एलमोनियम का बर्तन उठाया और जमीन पर दे पटका। इसके फौरन बाद भीतर से बर्तन की फट-फट आवाज आने लगी। दुकानवाला चिल्लाया, 'अरे-मेरा बर्तन तोड़ मत देना।' लेकिन उसकी यह बात अनसुनी करके ओझा ने बर्तन को बार-बार जोर-जोर से पटकना शुरू कर दिया। फिर बोला, 'यह अच्छा लक्षण है। अब प्रेत बोलना शुरू करेगा। हमारा अपना कोड होता है।'

इसके बाद उसने बर्तन पर तारघर के मोर्स कोड की तरह बर्तन पर खट खटखटखट की आवाज करना शुरु कर दिया। फिर मालिक मकान से कहा, 'अब न जोर से साँस लेना न जोर से बोलना। मुझे संदेश मिलने लगा है। मुझे तुमसे यह कहने को कहा गया है कि यह प्रेत मुक्ति चाहता है। क्या तुमने जिंदगी में किसी के साथ कोई बुराई की है?'

'नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं, ' दुकानवाला बहुत डरकर कहने लगा। 'मैं तो हमेशा दान-पुण्य करता रहा हूँ..."

ओझा ने बात काटकर कहा, 'मुझे यह सब मत बताओ। खुद अपने से बात करो और भीतर वाले प्रेत को बताओ। क्या तुमने जिन्दगी में कभी.रुको, मुझे संदेश आ रहा है. " यह कहकर उसने बर्तन का मुँह अपने कान से लगाया, 'अब बताओ, जिंदगी में कभी तुमने किसी की औरत या पैसे...।"

दुकानवाला दहशत में भर गया, 'अरे नहीं, कभी नहीं।'

'तो फिर मैं यह कैसे सुन रहा हूँ कि तुमने कभी किसी विधवा के ट्रस्ट का काम किया है.'

वह सोचने लगा। दुकान के भीतर बिल्ली बाहर निकलने की छटपटाहट में खिड़की से टक्करें मार रही थी। दुकानवाला परेशान होकर बोला, 'कौन-सा ट्रस्ट? अगर मैंने ऐसा कोई काम किया हो तो मेरा सर्वनाश हो जाये। भगवान् ने मुझे खुद

'मैंने तुमसे कहा कि बेकार की बातें मत करो। क्या तुमने कभी किसी औरत के साथ कुछ किया है या उसे अपने पास रखा है? अगर तुमने बचपन में कोई ऐसा काम किया हो तो कोई बात नहीं, उसका उपाय हो सकता है।'

'कैसे?

'यह मैं बाद में बताऊँगा, पहले कबूल करो।'

'क्यों? '

'क्योंकि तुम ईमानदारी से सच को स्वीकार कर लोगे तो प्रेत की ताकत कम हो जायेगी।'

भीतर वाला बर्तन फिर खटकने लगा था और दुकानवाले की घबराहट बढ़ती जा रही थी। 'मेहरबानी करके यह आवाज बंद करवाओ। इसे मैं बरदाश्त नहीं कर पा रहा हूँ।'

ओझा ने अपनी झाड़-फूंक का सबसे कड़ा नुस्खा आजमाया। कपूर का एक टुकड़ा जलाकर उसे चारों तरफ कई दफा घुमाया।' यहाँ जो भी शुभ शक्तियाँ मौजूद हों, वे सब हमारी सहायता करें.।" दुकानवाला भी इन शुभ शक्तियों का आह्वान करने लगा। उसने कामना की कि सितारों की इस रोशनी में जो भी बुरी भली शक्तियाँ यहाँ कहीं भी हों, वे सब दफा हो जायें। चबूतरे पर बैठे और आसमान में उड़ती किसी चिड़िया की आवाज सुनकर उसे लगने लगा कि वह भी आदमियों की दुनिया से उठकर चिड़िया की तरह आसमान में पहुँचकर भूत प्रेतों की दुनिया में उड़ने लगा है।

ओझा ने कहा, 'तुम्हारी आत्मा मानसरोवर झील की तरह पारदर्शी होना चाहिए। मैं जो कहता हूँ उसे दोहराओ। अगर कुछ धोखा करोगे तो तुम्हारा सिर फट जायेगा। प्रेत तुम्हारे मगज के टुकड़े-टुकड़े करने से परहेज नहीं करेगा।'

'हाय! हाय! मैं क्या करूं !'

'मेरे साथ-साथ बोली: मैंने आज तक ईमानदारी की जिंदगी जी है। ' दुकान वाले ने धीरे-धीरे ये शब्द दोहराये जिससे उसके किरायेदार इन्हें न सुन लें।

ओझा ने आगे कहा: 'कहो, मैंने आज तक किसी को धोखा नहीं दिया है।'

'नहीं दिया है।' उसने दोहराया।

'किसी की संपत्ति को नहीं चुराया है।'

दुकानवाले ने इसे दोहराना शुरू किया लेकिन अचानक रुक गया और पूछने लगा, 'लेकिन किसकी संपति?'

'यह मैं नहीं जानता।' फिर बर्तन को कान से लगाकर कहने लगा, 'मुझे सुन पड़ रहा है कि...।"

'लेकिन वह मेरी गलती नहीं थी।.' दुकानवाले ने सुबकते हुए कहा, 'वह संपत्ति खुद मेरे पास आयी थी, हाँ.खुद। "

'यह संपत्ति किसकी थी ?'

'होनप्पा की, जो मेरा दोस्त और पड़ोसी था। मैं उसके परिवार से जुड़ा हुआ था। साथ खेतों में काम करते थे...। उसने वसीयत लिखी और फिर पता नहीं कहाँ गायब हो गया।''

"वसीयत तुम्हारे पक्ष में थी?"

'लेकिन मैंने उससे इसके लिए कहा नहीं था। बस, वह मुझे चाहता बहुत था।

'उसकी लाश मिली थी ?'

'मुझे कैसे पता होगा?'

'और उसकी विधवा का क्या हुआ?'

'जब तक वह जिन्दा रही, मैंने उसकी रक्षा की।'

'एक ही छत के नीचे रहे ?'

'यहाँ नहीं, गाँव में।'

'तुमने उसके साथ."

दुकानवाला कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, 'लेकिन उसकी रक्षा जो करनी थी।'

'उसकी मृत्यु कैसे हुई?'

'अब मैं एक शब्द नहीं बोलूँगा। जो भी बताया जा सकता था, मैंने बता दिया है। इसके बाद भी तुम प्रेत को नहीं हटाओ तो तुमको भी उसी का भाग्य भोगना पडेगा।'

यह कहकर वह एकदम ओझा के ऊपर तनकर खड़ा हो गया, और उसकी गर्दन पकड़कर बोला, 'अब भी तुम प्रेत को नहीं भगाओगे तो...।" वह ओझा को घसीटता हुआ दुकान के आँधेरे कोने तक ले जाने लगा।

इस अचानक हमले से घबराकर ओझा इतने जोर से चीखने-चिल्लाने लगा कि बर्तनों की आवाज भी उसमें दब गयी। अब वह कोने में पड़ा था और दुकानवाला सामने खड़ा होकर उस पर पहरा दे रहा था। इसी समय बिल्ली वाला बर्तन उसके पैरों से टकराया और दहशत से वह चिल्लाया, 'हाय, मरा. मैं मरा।'

इस धमाचौकड़ी में बिल्ली बर्तन से बाहर निकल आयी और वह कूदकर सड़क पर भागी। ओझा और दुकानवाला दोनों उसे ताज्जुब से देखने लगे। दुकान वाले ने कहा, 'अच्छा, तो यह बिल्ली ही थी.।'

ओझा ने समझाया, 'ऊपर से देखने पर यह बिल्ली लगती है, लेकिन किसे मालूम कि इसके भीतर क्या है!"

दुकानवाला फिर चिंतित हो उठा और कहने लगा, 'अब यह फिर तो यहाँ नहीं आयेगी ?'

'क्या पता? फिर आ जाये तो फिर मुझे बुला लेना।' यह कहकर वह अपनी कोठरी की ओर चला, 'मेरी दक्षिणा की फ्रिक्र मत करना। मैं कल सवेरे ले लूँगा।'

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