Bihari (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
बिहारी (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
संस्कृत कविता के आचार्यों ने कविता को नौ रसों में बाँटा है। रस का मतलब है, कविता का रंग। सौंदर्य और प्रेम, वीरता, क्रोध, हास्य, भक्ति वगैरह। सूरदास सौंदर्य और भक्ति रस के कवि थे। बिहारी सौंदर्य और प्रेम के कवि हैं। उनका रंग उर्दू की गजलों के रंग से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। हिन्दी के सब कवियों में बिहारी ही को यह विशेषता प्राप्त है। यह पता नहीं चलता कि बिहारी ने फारसी भी पढ़ी थी या नहीं। इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है लेकिन उनकी कविता के रंग पर फारस गज़लों का रंग बहुत चोखा नज़र आता है। संभव है यह उनकी स्वाभाविक प्रवृति हो। सौंदर्य और प्रेम के सिवाय उन्होंने किसी दूसरे रंग में कविता नहीं की और कभी की भी तो वह नहीं के बराबर है। मगर इसके बावजूद कि उनका क्षेत्र बहुत सीमित है वह भावों की जिस ऊँचाई और गहराई तक पहुँच गये हैं वह इस रंग में किसी दूसरे हिन्दी कवि को नसीब नहीं। वह पिटी-पिटाई कल्पनाओं को कविता में नहीं बाँधते। उनकी सुथरी तबीयत ऐसे विषयों से भागती है जिनमे अब कोई नयापन नहीं रहा। उनमें ग़ालिब की-सी मौलिकता का रुझान है। ग़ालिब की तरह उन्होंने भी प्रेम की ऊँची कसौटी अपने सामने रक्खी है और भावों को गंभीरता के स्तर से नहीं गिरने दिया। यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें चंचलता नहीं है। सौंदर्य और प्रेम की वाटिका में आकर कोरा मुल्ला और रूखा-सूखा उपदेशक बनना मुश्किल है मगर बिहारी के यहाँ ऐसी संयमहीनता के उदाहरण बहुत कम हैं। ग़ालिब की तरह वह भी बहुत ही कम लिखते थे। उनकी यादगार, जिंदगी भर की कमाई, कुल 700 दोहे हैं मगर अनुमान होता है कि यह उनकी कुल कविता नहीं बल्कि उसका चुना हुआ कुछ अंश है। जिस कवि ने जीवन भर लिखा हो वह सिर्फ 700 दोहे अपनी यादगार छोड़े इसे बुद्धि स्वीकार नहीं कर सकती। जरूर अन्य कवियों की तरह उन्होंने भी बहुत कुछ लिखा होगा मगर बाद को उच्चकोटि के संयम और आत्मनिग्रह से काम लेकर उन्होंने ठीकरों में से हीरे छाँट लिये और वह हीरे आज उनके नाम को चमका रहे हैं। अगर उनकी सब कविता मौजूद होती तो यह लाल गुदड़ी में छिप जाते या नजर आते तो सिर्फ पारखियों को। दस-पाँच हजार शेरों या दोहों में पाँच-सात सौ दोहों का अच्छा होना कोई असाधारण बात नहीं। लगभग सभी कवियों की कविता में यह गुण होता है। जिस शायर ने सारी जिंदगी बकवास ही की और सौ दौ सौ भी जानदार फड़कते हुए अछूते शेर नहीं निकाले उसे शायर कहना ही फिजूल है। इस हालत में बिहारी में कोई विशेषता न रहती मगर उनके चुनाव ने विस्तार को कम करके उन्हें ऊँचाई के शिखर पर पहुँचा दिया। यह हीरे की माला सतसई के नाम से प्रसिद्ध है यानी सात सौ दोहों का संग्रह। हालांकि तादाद में सात सौ दोहे कुछ ज्यादा नहीं, इस छोटे से संग्रह में कवि ने सौंदर्य और प्रेम का सागर भर दिया है। निराशा और कामना और उत्कंठा, वियोग और मिलन और उसका दाह गरज कोई भाव आँख से ओझल नहीं हुआ। उस पर बयान का सुथरापन और अलंकारों का चमत्कार इन दोहों को और भी उछाल देता है। अलंकार स्वयं कविता का उत्कर्ष हैं। कोई रूखा-सूखा विषय भी अलंकारों का जामा पहनकर संवर जाता है। जो जनरल सौ सिपाहियों का काम दस सिपाहियों से पूरा करे वह बेशक अपने फन का उस्ताद है। अच्छे से अच्छा, अछूता, अनोखा विषय बहुत थोड़े से शब्दों में बात कहने के आभूषण से सजा हुआ न हो तो बेमजा हो जाता है। कुछ आलोचकों ने तो इस गुण को इतना महत्त्व दिया है कि उसे कविता का पर्याय कह दिया है। उनके विचार में कविता अलंकार के सिवा और कुछ नहीं। संस्कृत के पुराने आचार्य अलंकार में बेजोड़ हैं। उन्होंने सारे उपनिषद् और पिंगल सूत्रों में लिखे हैं। सूत्र वह छोटा-सा कुल्हड है जिसमे दरिया बन्द होता है। आज भी दुनिया के विद्वान इन सूत्रों को देखते हैं और आश्चर्य से दांतों तले दबाते हैं। तीन-चार शब्दों का एक टुकड़ा है और उसमे इतना अर्थ भरा हुआ है जो ढेरों शब्दों में भी मुश्किल से अदा हो सकता। कुछ सूत्रों की टीका और भाष्य में बाद के लोगों ने पोथे के पोथे रंग डाले हैं। उर्दू में ग़ालिब और नसीम ने कसाव के साथ बात कहने में कमाल दिखाया है। हिन्दी में यह सेहरा बिहारी के सर है।
कवि के स्थान का पता उसकी लोकप्रियता से चलता है। इस दृष्टि से तुलसी का स्थान पहला है। मगर बिहारी उनसे बहुत पीछे नहीं। कमोबेश तीस कवियों ने सतसई की टीका गद्य और पद्य में लिखी है। पिछले बीस सालों के अंदर इसकी तीन टीकाएँ निकल चुकी हैं। इनमें एक गद्य में है और दो पद्य में। कवियों ने उन पर कते लिखे हैं। वासोख्त, तरजीअ, मुखम्मस सब कुछ है। बाबू हरिश्चन्द्र हिन्दी के वर्तमान युग के एक सर्वतोमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार हुए हैं। उन्होंने गद्य और पद्य में कितनी ही अमर कृतियाँ छोड़ी हैं और आधुनिक हिन्दी नाटक के तो वह भगवान हैं। उन्होंने सतसई पर कुँडलियाँ चिपकाने का संकल्प किया मगर सत्तर-अस्सी दोहे से ज्यादा न जा सके, रचना-शक्ति ने जवाब दे दिया। बिहारी ने दोहे क्या लिखे हैं कवियों के लिए लोहे के चने हैं। जब तक कोई इसी स्तर का कवि सारी उम्र इन दोहों में जान न खपाये, सफल नहीं हो सकता। हिन्दी में बिहारी ही की विशेषता है कि उनकी कविता का संस्कृत में भी अनुवाद हुआ। यह तो उस लोकप्रियता का हाल है जो बिहारी को कवियों की मंडली में प्राप्त है, जनसाधारण में भी वह कम लोकप्रिय नहीं हैं। हालांकि यहाँ उनका स्थान तुलसी और सूर के बाद है। उनके कितने ही दोहे, कहावत बन गये हैं और कितने हो लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं। बिहारी से उर्दू भी अपरिचित नहीं है। यह भी उन्हीं का दोहा है –
अमिय हलाहल मद भरे श्वेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत एक बार।।
क्या इस दोहे की टीका करने की जरूरत है? उर्दू का साहित्यकार जब भाषा की कविता की प्रशंसा जोरों से करता है तो वह इस दोहे को पेश करता है और कोई शक नहीं कि कवि ने इसमें जितना अर्थ और भाव भर दिया है वह एक पूरी गजल में भी अदा न हो सकता और अदा हो भी जाये तो यह लुत्फ कहाँ। कितने थोड़े शब्दों में कितने कसाव के साथ बात कही गई है। शब्दों का कैसा अनूठा चयन। अमिय कहते हैं अमृत को। उसका रंग काला माना गया है। उसके पीने से मुर्दाजिंदा हो जाता है। हलाहल कहते हैं जहर को। उसका रंग सफेद माना गया है। वह प्राणघातक है। मद कहते हैं शराब को। उसका रंग लाल माना गया है, उसके पीने से आदमी झुकझुक पड़ता है। यानी प्रेमिका की आँखों में अमृत भी है, विष भी और शराब भी। सुरखी भी, सफेदी भी और सियाही भी। उसकी चितवन जिलाती है, कत्ल करती है और नशा पैदा कर देती है। झुक-झुक पड़ना कैसी मनोहर कल्पना है। नशे में भी इंसान की यही हालत होती है। उसके पैर लड़खड़ाते हैं और वह गिरते-गिरते संभल जाता है।
मुसलमान काव्यमर्मज्ञों ने भी सतसई का बहुत आदर किया। उस जमाने के मुसलमान लोग हिन्दी में शायरी करना अपनी जिल्लत न समझते थे। अगर उर्दू में नसीम और तुफ्ता थे तो हिन्दी में भी कितने ही मुसलमान कवि मौजूद थे। आलमगीर औरंगजेब के तीसरे बेटे आज़मशाह हिन्दी कविता के मर्मज्ञ थे। कविता की रुचि रखते थे। उन्हीं के कहने से सतसई का वर्तमान चयन कार्यान्वित हुआ। हालांकि और लोगों ने भी इस काम को किया मगर यह चयन सबसे अच्छा है। यह काव्य-नैपुण्य के विचार से किया गया है। बिहारी के सभी दोहे अलंकृत हैं। ऐसा कोई नहीं जिसमे कोई न कोई काव्य नैपुण्य न रक्खा गया हो। आजमशाह ने दोहों की यह माला गूंधकर अपनी काव्यमर्मज्ञता का बहुत अच्छा प्रमाण दिया है। मुसलमान रईसों और कवियों ने सतसई की खूब दाद दी है। उस वक्त बावजूद राजनीतिक झगड़ों के क़द्रदानी की स्प्रिट गायब न थी। शेरोसुख़न के मामले में जातीय विद्वेष को एक किनारे रख दिया जाता था। सतसई के तीस टीकाकारों में पाँच नाम मुसलमानों के हैं –
1. जुलफिकार खाँ – बहादुरशाह के बाद जहाँदार शाह के जमाने में अमीरुलउमरा के पद पर थे। राजनीतिक कामों में पूरे अधिकार प्राप्त थे। जहाँदार शाह तो भोग-विलास में डूबे हुए थे, राज्य के सब काम जुलफिकार खाँ देखते थे। शहजादा फर्रुखसियर ने जब बंगाल से आकर जहाँदार शाह पर धावा किया और कई लड़ाइयों के बाद दिल्ली पर कब्जा कर लिया, जुलफिकार खाँ ने विश्वासघात किया, जहाँदार शाह को गिरफ्तार करवा दिया। मगर फर्रुखसियर ने गद्दी पर बैठने के बाद जुलफिकार को भी कत्ल करवा दिया, वह हिन्दी कविता के प्रशंसक थे। इन्हों की फरमाइश से कवियों ने सतसई की एक बहुत अच्छी टीका तैयार की जो आज तक मौजूद है। संभवत: वे खुद भी कवि थे और इससे तो इंकार हो नहीं हो सकता कि वह कविता के उच्चकोटि के मर्मज्ञ थे।
2. अनवर चन्दिका – नवाब अनवार खाँ के दरबार के कवियों ने सतसई पर यह टीका लिखी। रचना काल सन् 1828 ई.।
3. रस चन्दिका – ईसा खाँ उन्नीसवीं सदी में अच्छे हिन्दी कवि हुए हैं। नरवरगढ़ के राजा छत्रसिंह के संकेत पर उन्होंने यह टीका पद्य में तैयार की। बिहारी के दोहों का क्रम उन्होंने अकारादि क्रम से दिया है। रचनाकाल सन् 1866 ई.।
4. यूसुफ़ खाँ की टीका – यूसुफ़ खाँ का विस्तृत विवरण ज्ञात नहीं है, मगर उनकी टीका मार्के की है। रचनाकाल अनुमानत: सन् 1860 ई. है।
5. पठान सुल्तान की टीका – रियासत भोपाल के जिले राजगढ़ के नवाब सुल्तान पठान ने सन् 1817 में यह टीका पद्य में लिखी। हिन्दी के अच्छे कवि थे। यह संभवत : उनके दरबार के कवियों की लिखी हुई नहीं बल्कि खुद उन्हीं की लिखी हुई है। यह टीका अब अप्राप्य है।
लेकिन कितने खेद का विषय है कि इस ख्याति और लोकप्रियता और कला की निपुणता के बावजूद बिहारी की जिंदगी पर एक बहुत अंधेरा पर्दा पड़ा हुआ है। न उनके समकालीन कवियों ने उनकी कोई चर्चा की और न उन्होंने खुद अपने बारे में कुछ लिखा। उनके समकालीनों की कमी न थी। कमोबेश साठ कवि उनके समकालीन थे। उन सबकी कवितायें मिलती हैं मगर बिहारी के बारे में किसी ने कुछ नहीं लिखा। उनके निरी हालात पूरी तरह केवल उनके तीन दोहों पर निर्भर हैं और वह भी साफतौर पर समझ में नहीं आते। हिन्दी के इतिहासकार बहुत दिनों से जांच-पड़ताल कर रहे हैं और अब तक इस अनुसंधान का निष्कर्ष यह है कि बिहारी अठारहवीं शताब्दी के मध्य पैदा हुए। सतसई समाप्त करने की तारीख बिहारी ने सन् 1817 ई. दी है। मुमकिन है उसके बाद कुछ दिन और जिंदा रहे हों। अनुमान से मालूम होता है कि उन्होंने बड़ी उम्र पाई। ग्वालियर के पास एक मौजे में पैदा हुए। लड़कपन बुंदेलखंड में गुजरा। मथुरा में उनकी शादी हुई थी। वहीं उम्र का ज्यादा बड़ा हिस्सा गुजारा। उनकी जबान ब्रज भाषा है मगर उसमे बुंदेलखंडी शब्द बहुत आये हैं, जिससे इस अनुमान की पुष्टि होती है कि उनका ब्रज और बुंदेलखंड दोनों ही से अवश्य संबंध था। जाति के चौबे ब्राह्मण थे। कुछ आलोचकों ने उन्हें भाट बताया है मगर इस विचार का समर्थन नहीं होता। अनुमानतः जिस जमाने में सतसई खत्म हुई है, उनकी उम्र साठ से कुछ ही कम थी मगर इतना जमाना उन्होंने किस काम में खर्च किया इसका कुछ पता नहीं। संभव है दोहे लिखे हों मगर वह जमाने के हाथों बर्बाद हो गये हों। बिहारी खुशहाल न थे। और इस जमाने के रिवाज के मुताबिक राजाओं और रईसों के दरबार में जीविका के लिए हाजिर होना जरूरी था। मगर सतसई के पहले उनके किसी की सेवा में उपस्थित होने का पता नहीं चलता। उम्र का बहुत बड़ा हिस्सा अज्ञात रूप से काटने के बाद ये जयपुर पहुँचे। वहाँ उस वक्त सवाई राजा जयसिंह गद्दी पर थे। दरबार के लोगों से महाराज की सेवा में अपना सलाम अर्ज कराने की दरख्वास्त की। महाराज उन दिनों एक कमसिन छोकरी के प्रेम के जाल में बेतरह फंसे हुए थे। राज्य का काम-काज छोड़ बैठे थे। रनिवास में बैठे प्रेमिका की रूप-सुधा का पान किया करते। सैर व शिकार से नफरत थी। दरबारी महीनों उनकी सूरत न देख पाते। उन्होंने बिहारी से इस प्रसंग में अपनी असमर्थता प्रकट की। जब महाराज बाहर निकलते ही नहीं तो सिफारिश कौन करे और किससे करे। मगर बिहारी निराश न हुए। एक रोज उन्हें एक मालिन फूलों की एक टोकरी लिये महल में जाती दिखाई पड़ी। उन्होंने सोचा कि ये फूल महाराज को सेज पर बिछाने के लिये जाते होंगे। उन्होंने फौरन निम्नांकित दोहा लिखा और उसे मालिन की टोकरी में डाल दिया –
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहीं विकास यहि काल।
अली कली ही सों बिंध्यो आगे कौन हवाल।।
अर्थात् अभी न रस है न गंध है न फूल खिल पाया है। अभी वह एक बिनखिली कली है। अभी ही से इस तरह उलझ गये तो आगे क्या हालत होगी।
यह कागज का पुर्जा महाराज के हाथ लगा, दोहा पढ़ा, आँख खुल गई। दरबारियों को तलब किया। लोग बड़े खुश हुए, चलो किसी तरह महाराज बरामद तो हुए। महाराज ने दरबार में वह दोहा पढ़ा और कहा, जिसने यह दोहा लिखा हो उसे फौरन हाजिर करो। बिहारी ने आगे बढ़कर सलाम अर्ज किया। महाराज बहुत खुश हुए। बिहारी का बहुत स्वागत-सत्कार किया और कहा, मुझे अपनी कविता रोज सुनाया करो। बिहारी ने फरमाइश कुबूल की और रोज कुछ दोहे लिखकर महाराज को सुनाने लगे। महाराज के यहाँ यह पुर्जे नत्थी किये जाने लगे। कुछ दिनों बाद बिहारी को अपनी जन्मभूमि की याद आई। महाराज से छुट्टी माँगी। महाराज ने दोहों को गिनने का हुक्म दिया। सात सौ से कुछ ज्यादा निकले। महाराज ने सात सौ अशर्फियाँ इनाम के तौर पर देकर बिहारी को रुखसत किया। आज की हालतों का खयाल कीजिये तो यह रकम कम न थी। इसके लगभग बीस हजार रुपये होते हैं और उस जमाने में एक रुपये की कीमत पाँच रुपये से कम न होगी। मगर वह जमाना इतनी सस्ती क़द्रदानी का न था। आजकल तो मामूली जलसों में हमारे कवि की प्रतिभा चमक उठती है और जंट साहब बहादुर नौशेरवां से मिला दिये जाते हैं। कहीं साहब कलक्टर बहादुर रुस्तम और इसफदियार से बढ़ळा दिये जाते हैं मगर इसका बहुमूल्य पुरस्कार इसके सिवा और कुछ नहीं कि जब हमारे कवि महोदय उन साहब की कोठी पर हाजिर हों तो कमरे में से एक गुर्राती हुई आवाज सुनाई दे, ‘कुर्सी लाओ’ और अगर किसी रईस के दस्तरख़ान पर मीठे लुक्से चखने की इज्जत हासिल हो गई तब तो कवि जी की कल्पना आसमान के सितारों की खबर लाती है। शुक्र है कि इसी बहाने से हमारी कविता रोज-ब-रोज भटई के दोष से मुक्त होती जाती है। मगर बिहारी के जमाने में कवियों को उनके नैपुण्य के अनुसार इनाम-इकराम और जागीरें देने का आम रिवाज था। रईस अपनी क़द्रदानी में एक दूसरे से आगे बढ़ जाने की कोशिश करते थे। भूषण को महाराज शिवाजी ने एक कवित्त के पुरस्कार-स्वरूप बीस हजार रुपये और पच्चीस हाथी दिये थे और अगर किंवदंतियों पर विश्वास किया जाये तो एक ही कवित्त के पुरस्कार-स्वरूप इसी देशभक्त राजा ने इस भाग्यशाली कवि को अठारह लाख रुपये दिये। वह इस कवित्त को सुनकर इतना खुश हुआ कि भूषण से उसे बार-बार पढ़ने की फरमाइश की। भूषण ने इसे अठारह बार पढ़ा मगर आखिरकार उन्नीसवीं बार उनके धीरज ने जबाब दे दिया। शिवाजी ने अठारह बार पढ़ने के लिए अठारह लाख रुपये दिये और अफसोस किया कि कवि ने इससे ज्यादा धीरज से काम क्यों न लिया। पन्ना के महाराज छत्रसाल इन भूषण को कुछ इनाम देने के बाद उनकी पालकी को अपने कंधे पर उठाकर कई कदम ले गये। इन क़द्रदानियों के मुकाबले में बिहारी को जो इनाम मिला वह इतना उत्साहवर्धक नहीं कहा जा सकता। ये मिसालें उस वक्त ताजा थीं। बिहारी ने उनके चर्चे सुने थे। वह जयपुर से भग्न हृदय लौटे। शायद यही कारण हो कि सतसई में सवाई जयसिंह की स्तुति में एक दोहा भी नहीं है। एक दोहा सिर्फ उनके शीशमहल की प्रशंसा में है। बल्कि दो दोहों में उन्होंने इशारे से जयसिंह की नाक़द्री की शिकायत भी की है हालांकि पाक निगाहें उनमें तारीफ ही देखती हैं। इस इनाम की बात अगर छोड़ भी दें तो बिहारी की वह आवभगत जयपुर में नहीं हुई जिसकी इतने कद्रदाँ दरबार में उन्होंने उम्मीद की थी। भूषण ने राजा छत्रसाल के भक्तिपूर्ण कवि-सत्कार को शिवाजी की उदारता से श्रेष्ठतर समझा था। कवि के मन में केवल धनसंपदा की हवस नहीं होती, उसमे प्रशंसा पाने की इच्छा भी होती है। यदि काव्यमर्मज्ञ को प्रशंसा के साथ उसका थोड़ा-सा व्यावहारिक सत्कार भी हो जाये तो वह प्रसन्न हो जाता है। मगर प्रशंसा के बिना कारूं का खजाना भी उसे खुश नहीं कर सकता। राजा छत्रसाल अभी जीवित थे। बिहारी जयपुर से निराश होकर इसी आदमियों के पारखी राजा के दरबार में पहुँचे और सतसई उनकी सेवा में उपस्थित करके योग्य प्रशंसा चाही। छत्रसाल खुद भी अच्छे कवि थे। दिल में उमंग थी। उनका दरबार सिद्धहस्त कवियों का केंद्र बना हुआ था। इन कवियों ने सतसई को गौर से देखा, परखा, तोला और बिहारी की कला के प्रशंसक हो गये। हालांकि इसी दरबार में एक कवि ने द्वेषवश बिहारी को बुरा-भला भी कहा मगर उसकी कुछ नहीं चली। राजा साहब ने बिहारी को पाँच गाँव की जागीर दी। इस दरबार के स्वागत सत्कार से बिहारी बहुत प्रसन्न हुए मगर वे तो यहाँ अपने काव्य की प्रशंसा पाने के उद्देश्य से आये थे, जागीर पाने के लिए नहीं। जागीर धन्यवाद के साथ लौटा दी। महाराज जयसिंह को भी इस घटना की खबर मिली। उनके त्याग पर वह बहुत प्रसन्न हुए, फिर उन्हें दरबार में बुलाया और पिछली भूलों के लिए माफी चाहकर दो अच्छी आमदनी वाले मौजे दिये। बिहारी ने उनको शुक्रिये के साथ कुबूल कर लिया। वह अब तक उनके उत्तराधिकारियों के अधिकार में हैं।
बिहारी का अब बुढ़ापा आ गया था। साठ से ऊपर हो गये थे। ज्यादा सैर व सफर की ताकत न थी। मथुरा लौट आये। यहाँ इन दिनों जोधपुर के महाराज जसवंतसिंह भी आये हुए थे। उन्होंने बहुत दिनों से बिहारी की तारीफ सुन रक्खी थी। उनसे मिलने के इच्छुक थे। खुद भी काव्यमर्मज्ञ थे, कविता पर एक मार्के की किताब भी लिखी थी जो आज तक कवियों में प्रामाणिक समझी जाती है। बिहारी को उनसे भेंट करने की कम उत्कंठा न होगी। महाराज ने उनके काव्य की प्रशंसा की, कहा – थारी कविता में सूलो लग्यों यानी तुम्हारी कविता में कीड़े पड़ गये। बिहारी ने इस द्वयर्थक प्रशंसा को न समझा। घर चले आये, उदास थे। उनकी लड़की समझदार थी। उदासी का कारण पूछा। बिहारी ने राजा जसवंतसिंह की वह पहेली उससे बयान की। लड़की उसका मतलब समझ गई, बोली महाराज का आशय यह है कि आपकी कविता में जान पड़ गई है। बिहारी को भी यही व्याख्या उचित जान पड़ी। महाराज जसवंतसिंह से जब दूसरे दिन जिक्र आया तो वह बहुत खुश हुए और बोले, हाँ मेरा यही आशय था। बिहारी के बारे में इससे ज्यादा और कुछ नहीं मालूम है, वह कब मरे और कहाँ मरे। हाँ उनके एक बेटे थे जिनका नाम कृष्ण था। वह भी कवि हुए हैं।
बिहारी की कविता के कुछ नमूने जरूरी हैं हालांकि उर्दू लिबास पहनकर उनकी शक़्ल बहुत कुछ बदल जाती है। ग़ालिब के दीवान की तरह बिहारी सतसई के अर्थों के संबंध में टीकाकारों में अक्सर मतभेद है। उनके दोहे बहुत जटिल, कठिन और पेचीदा होते हैं। वह मोती हैं जो डूबने से हाथ आते हैं।
मानहुं विधि तन अच्छ छबि, स्वच्छ राखिबें काज,
दृग पग पोंछन को किए, भूषन पायंदाज।
यहाँ बिहारी ने नाजुक-खयाली का कमाल दिखाया है – यानी प्रकृति-रूपी कारीगर ने प्रेमिका के कोमल तन पर आभूषणों का पायंदाज़ बना दिया है ताकि निगाह के पाँव से उस पर गर्द न आ जाये। ‘पाअंदाज’ उर्दू शब्द है , कवि ने उसका प्रयोग किया है। बिहारी अक्सर उर्दू, फारसी और अरबी शब्द लाते हैं और बड़ी खूबी से लाते हैं। मतलब यह है कि प्रेमिका का बदन इतना नाजुक और सुथरा है कि निगाहों से भी मैला हो जाता है, इसलिए जरूरी है कि जेवरों पर पैर साफ करके निगाह उसके रूप के साफ फर्श पर कदम रक्खे। रूप की क्या स्वच्छता है जो दृष्टि पड़ने से मैली पड़ जाती है। ‘पाये निगाह’ ग़ालिब ने भी इस्तेमाल किया है। जेवर प्रेमिका के रूप को चमकाने के लिए नहीं बल्कि निगाहों के पैर की गर्द पोंछने के लिए। एक उर्दू शायर ने माशूक की नजाकत की इस रूप में कल्पना की है –
क्या नजाकत है कि आरिज़ उनके नीले पड़ गये
मैंने तो बोसा लिया था ख्वाब में तस्वीर का।
कपूरमणि को उर्दू में कहरुबा कहते हैं अर्थात् प्रेमिका के गले में मोतियों की माला उसके शरीर के सोने-जैसे रंग में मिलकर कुछ पीलापन लिए हुए कहरुबा-सी हो जाती है। उसकी सहेली को धोखा होता है और वह घास के तिनके से उस माला को छूती है क्योंकि कहरुबा में घास को खींचने का गुण होता है। वह सोचती है कि यह तो मोतियों की माला थी, कहरुबा क्योंकर हो गई। इस संदेह को दूर करने के लिए वह उसके खरियाई गुण की परीक्षा लेती है। अमीर लखनवी का एक शेर देखिये-
मुनकिरे यकरंगिये माशूक व आशिक थे जो लोग
देख लें क्या रंगे काहो कहरुबा मिलता नहीं
कहे ज बचन बियोगिनी बिरह बिकल अकुलाइ।
किये न कां अंसुवा-सहित, सुआ तिबोल सुनाइ!।
इस दोहे में कवि ने कल्पना की उड़ान को चोटी पर पहुँचा दिया है। उर्दू में शायद ही किसी शायर ने इस मजमून को अदा किया है। यानी प्रेमिका वियोग के दुख से बेचैन होकर अकेले में अपने दर्दभरे दिल से जो बातें करती है उसे पिंजड़े में बैठा हुआ तोता सुन लेता है और उसे वही दर्दनाक शब्द दुहराते सुनकर लोगों की आँखों में आँसू भर आते हैं। माशूक ने पर्दा डालने की कितनी कोशिश की मगर आखिर भेद खुल गया। इसमें कैसी सुकुमार कवि-कल्पना है और इस तोते के दुहराने में भी यह असर है कि सुनने वाले दिल को हाथों से थाम लेते हैं और रोने लगते हैं। इससे उसके दर्द का अंदाजा हो सकता है। फारसी का एक मशहूर शेर है –
सब्ज खत्ते बखते सब्ज मरा कर्द असीर
दाम हमरंग जमीं बूद गिरफ्तार शुदेम
सायब ने इस शेर के बदले अपना सारा दीवान देना चाहा था। बिहारी के इस दोहे में यही कोमल वास्तविकता और अपेक्षाकृत अधिक नर्मी है।
तच्यो आंच अब बिरह को, रह्यो प्रेम-रस भींजि।
नैननु के मगु जलु बहै, हियौ पसीजि पसीजि।।
इसी खयाल को फारसी शायर ने यूं अदा किया है –
चे मी पुरसी जे हाले मा दिले गमदीदा अत चूं शुद
दिलम शुद खूं व खूं शुद आब व आब अज़ चश्म बेरूं शुद
इस दोहे और फारसी शेर में इतना सादृश्य है कि उसे टक्कर कहना चाहिए, क्योंकि दोनों कवि ऊँचे दर्जे के हैं और चोरी का संदेह किसी पर नहीं हो सकता।
बैठि रही अति संघन बन, पैठि सदन तन मांह।
निरखि दुपहरी जेठ की, छांहौ चाहति छांह।।
मतलब यह है कि जेठ की जलती हुई दुपहरी से घबराकर छांह भी छांह ढूँढ़ती फिरती है। इसलिए वह जंगल में और मकानों के अंदर छिपती फिरती है। ऋतुओं पर भी बिहारी ने लिखा है। हेमंत यानी पूस का यों जिक्र करते हैं –
आवत जात न जानिये, तेजहिं तजि सियरान,
घरहिं जंवाई लौं घट्यो खरो पूस दिनमान।
यानी जिस तरह घर जमाई की इज्जत ससुराल में कुछ नहीं होती, उसके आने-जाने का कोई ख्याल करता मालूम नहीं होता कि वह कब आता है और कब जाता है, उसी तरह पूस में दिन के आने-जाने की कोई खबर नहीं होती।
बरसात का जिक्र यों करता है –
हठ न हठीली करि सके यहि पावस ऋतु पाइ।
आन गांठ घुटि जाति ज्यों मान गांठ छुटि जाइ।।
यानी वर्षा ऋतु में रूठी हुई प्रेमिका भी हठ नहीं कर सकती। बरसात में रस्सी की गांठ मजबूत हो जाती है मगर हठ की गांठ ढीली पड़ जाती हे। दूसरे बड़े कवियों की तरह बिहारी ने भी नेचर का और मानव प्रकृति का बहुत गहरा अध्ययन किया था। विशेष रूप से सौंदर्य और प्रेम की भावनाओं का जैसा सच्चा और सम्यक चित्र उन्होंने खींचा है वह किसी दूसरे हिन्दी कवि के बस के बाहर है। मगर इस बागीचे में इतने कांटे हैं कि किसी कवि का दामन कांटा लगे बगैर नहीं रह सकता। जब ग़ालिब जैसा सावधान व्यक्ति भी इन कांटों में उलझने से न बचा तो दूसरों का क्या जिक्र।
[उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’, अप्रैल 1917 ]