भूमिका : केरल की लोक-कथाएँ : डॉ. एस. तंकमणि अम्मा
Bhoomika : Lok-Kathayen (Kerala) - Dr. S. Thankamoni Amma
भारत के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर स्थित एक छोटा सा प्रकृतिरमणीय प्रांत है केरल। भारत देश की पावन धरती के अभिन्न अंग स्वरूप इस प्रांत ने अपनी सुंदर सुहावनी प्रकृति, समशीतोष्ण मौसम, घने जंगल, हरे-भरे खेत, नदियाँ, झीलें, लंबे समुद्रतट तथा सर्वोपरि जनता की उदार एवं समन्वयकारी सांस्कृतिक दृष्टि तथा विकासशील चेतना के कारण राष्ट्रीय धरातल पर अपनी अलग और विशिष्ट पहचान बना ली है। साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्त्री-सशक्तीकरण, स्थानीय स्वायत्त शासन-व्यवस्था आदि क्षेत्रों में वर्तमान काल में केरल ने नया कीर्तिमान स्थापित करके भारत के अन्यान्य प्रांतों के सम्मुख प्रदीप्त प्रतिमान प्रस्तुत कर दिया है। वर्तमान काल में केरल ने जो बहुआयामी प्रगति हासिल की है, उसके मूल में केरल की पुरानी गरिमामय संस्कृति की अहम भूमिका दृष्टिगोचर होती है।
केरल का एतिहासिक-प्रागैतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व
प्राचीन काल से ही विभिन्न ख्यातिप्राप्त ऐतिहासिक-प्रागैतिहासिक ग्रंथों में यत्र-तत्र केरल का उल्लेख प्राप्त होता है। पंडितों की राय में ऋग्वेद में चेरपादर का जो उल्लेख हुआ है, वह केरलियों का ही सूचक है। वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत में भी केरल की चर्चा मिलती है। वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में सीता की खोज में निकली वानर सेना को आर्यावर्त के दक्षिण निवासी आंध्र, पांड्य, चोल और केरलीय का ब्योरा सुनाने का प्रसंग है।
नदीं गोदावरीं चैव सर्वमेवानुपश्यत।
तथैवान्ध्रांश्च पुंडांश्च चोलान् पान्ड्यांश्च केरलान।
—(रामायण, किष्किंधाकांड, सर्ग 41)
‘महाभारत’ में दिग्विजय के सिलसिले में पांडवों में कनिष्ठ सहदेव का केरल पधारने तथा राजसूय के लिए भेंट लिए केरलियों के प्रस्थान का उल्लेख है—
पान्डवाय ददौ पान्ड्यः संखास्तावत स्वच
चन्दनागुरु चानन्तं मुक्ता वैड्रर्य चित्रिना
चोलाश्च केरलश्चो भौ।
—(महाभारत, सभापर्व, अध्याय : 78)
ब्रह्मांडपुराण में कार्तवीर्यार्जुन के सामंतों में चोल, पांड्य एवं केरल के राजाओं के होने का उल्लेख है।
‘देवी भागवत’ में काशिराजपुत्री शशिकला के स्वयंवर के अवसर पर केरल के राजाओं के उपस्थित होने का वर्णन मिलता है।
भागवत के दशम स्कंध में रुक्मिणी स्वयंवर के प्रसंग में भी केरल के राजाओं की उपस्थिति वर्णित है।
केरल के विभिन्न प्रदेशों में महाशिलायुग के जो खँडहर मिले हैं, उनसे भी यह पता चलता है कि सहस्रों वर्षों से यह भूभाग उपस्थित था। विदेशों के साथ केरल के व्यापार संबंधों का विवरण अनेक ग्रंथों में मिलता है। केरल का मुसिरिस नगर (वर्तमान कोटुंगल्लूर) विदेशी जहाजों के आवागमन का केंद्र रहा था। पुराने रोमन सिक्के, जो केरल में उपलब्ध हैं, वे रोम के साथ केरल के व्यापार संबंध के प्रमाण हैं।
सम्राट् अशोक के शिलालेख (Rock Edict II) तथा अन्य ऐतिहासिक रेखाओं में भी केरल की महत्ता का अंकन हुआ है। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के विख्यात ग्रंथ ‘इंडिका’ में भी केरल के वैभव की ओर संकेत है।
केरल की भौगोलिक स्थिति
केरल की प्राकृतिक छटा एकदम निराली है। पूर्वी दिशा में सह्य पहाड़ के उत्तुंग शिखर खड़े हैं और पश्चिमी ओर अरब सागर स्थित है। पर्वत और समुद्र मानो इसके प्रहरी के रूप में स्थित हैं। पर्वत और समुद्र के बीच की भूमि होने के कारण केरल का एक दूसरा नाम भी है—मलयालनाट् अर्थात् मलयाल देश। मला से मतलब है पहाड़ तथा आलं का मतलब है समुद्र। मलयालनाट् से मतलब है मला और अलं के बीच का प्रदेश। पहले यह शब्द देशवाची था, बाद में भाषावाची बना। केरल की भाषा है मलयालम।
केरल के राष्ट्रकवि वल्लत्तोल नारायण मेनन ने अपनी कविता में केरल का जो भव्य एवं दिव्य चित्र खींचा है, वह अत्यंत ही हृदयहारी है। सह्यपहाड़ में अपना शीश धरकर तथा सागर के सुरम्य बालुका तट को अपना पादोपधान बनाकर, हरीतिमा की चादर ओढ़े, चिर विश्राम मुद्रा में लेटने वाली देवी के रूप में कवि ने केरलमाता का सुमनोहर चित्र खींचा है। कवि ने यह भी वर्णित किया है कि उनके दोनों पाशर्व में एक देव और एक देवी खड़ी हैं—उत्तरी ओर गोकर्ण मंदिर का गोकर्णेश तथा दक्षिणी ओर कन्याकुमारी की देवी कुमारी।
पूरब में सह्य पर्वत, पश्चिमी में अरब सागर, उत्तर में गोकर्ण तथा दक्षिण में कन्याकुमारी—पहले केरल की ये चार सीमाएँ थीं। जब सन् उन्नीस सौ छप्पन में भाषावाद प्रांतों का आविर्भाव हुआ, तब कन्याकुमारी जिला, जहाँ तमिल भाषियों की अधिकता रही, तमिलनाट् में शामिल हो गया। अब तो उत्तर में मंचेश्वरम से दक्षिण में पारश्शला तक फैला भूविभाग ही केरल है। उत्तर-पूर्वी सीमा पर कर्नाटक तथा दक्षिण-पूर्वी सीमा पर कर्नाटक तथा दक्षिण-पूर्वी सीमा पर तमिलनाडु है।
नदियाँ, नहरें और विशेष प्रकार की झीलें केरल की प्राकृतिक सुषमा में चार चाँद लगा देती हैं। नौका विहार केरल का मुख्य विनोद है, जो पर्यटकों को विशेष आकर्षित कर देता है। देश-विदेश के पर्यटकों के लिए केरल ‘देवता का अपना देश’ (good's own country) है। केरवृक्ष या नारियल के पेड़ केरल में प्रभूत मात्रा में पैदा होते हैं। माना जाता है कि केरल वृक्ष की प्रचुरता के कारण ही इस प्रांत को यह नाम मिला है। केरलन् या चेरलन नामक राजा के नाम पर इस प्रांत का केरल नाम पड़ा है—ऐसा एक दूसरा मत भी प्रचलित है। कई तरह के और कई रंगों के केले, आम, कटहल आदि के पेड़ केरल में यत्र-तत्र सुलभ हैं। थोड़े से ऊँचे भूभाग पर कसावे के बाग हैं तो ज्यादा भूभाग पर चाय, कॉफी, रबड़, इलायची, लौंग आदि के बागान हैं। केरल में बंजर भूमि नहीं के बराबर है।
खान-पान
केरल में धान के खेत ज्यादातर हैं और यही कारण है कि चावल ही केरलियों का लोकप्रिय और आम भोजन है। उत्तर भारत में जो भात-दही के साथ खाया जाता है, वह कच्चे चावल का भात होता है। केरल में कच्चा धान खौलते पानी में उबालने के बाद सुखाते हैं। इसके बाद कुटाई होती है और कुटा चावल ‘उसना चावल’ कहलाता है। केरल में सबसे सादा और सस्ता भोजन ‘कंजि’ है। ज्यादा पानी में थोड़ा सा चावल उबालकर जो पतला दलिया तैयार किया जाता है, वही ‘कंजि’ है। मामूली आर्थिक स्थिति के परिवारों में यह अधिक प्रचलित है। कंजि के साथ नारियल की गरम चटनी या मूँग और पापड़ भी खाया जाता है। कंजि और मसालेदार कसावा (टैपियोका) मजदूर लोगों का प्रिय भोजन है। केर या नारियल के बिना केरलीय भोजन नहीं बनता। अधिकांश सब्जियों में छिली गरी डाली जाती है। केरल में राई, पापड़ आदि तलने के लिए नारियल के तेल का ही ज्यादातर उपयोग होता है। कच्चे नारियल या डाब का पानी स्वादिष्ट और पौष्टिक पेय है। केले के पौधे भी केरल में खूब पैदा होते हैं। कई प्रकार के केले यहाँ मिलते हैं। केले से कई प्रकार की सब्जियाँ भी बनती हैं। केले के पत्तल पर भोजन परोसना भी केरल की पुरानी संस्कृति का एक विशिष्ट अंग है।
आजकल खान-पान के क्षेत्र में प्रांतीय वैशिष्ट्य पर उतना जोर नहीं दिया जाता। पूरे भारत में दक्षिण इडली, डोसा, वडा, दही वडा सब चालू हैं तो उसी प्रकार रोटी, पूरी, पराँठे सब दक्षिण के लोगों के भी प्रिय भोजन बने हैं।
वेष-भूषा
यद्यपि आधुनिक भेष-भूषा देखकर व्यक्ति के प्रांत को पहचान पाना आसान नहीं है तथापि भारत के हर प्रांत की अपनी विशिष्ट वेष-भूषा है। देशव्यापी फैशन के प्रभाव के कारण समस्त भारत में एक सी पोशाक चलने लगी है। केरल की निजी परंपरा मुंटु (लुंगी) है। वास्तव में मुंटु तथा लुंगी दोनों अलग-अलग हैं। औसत दो-ढाई गज लंबी मुंटु बाईं से दाईं को पहनी जाती है और दाईं ओर इसकी गाँठ होती है। बाईं ओर कुछ चौड़ा सा आँचल खुला रहता है। कमीजों के प्रचलन के पहले धन सुरक्षित रखने के लिए इस आँचल में बाँध लिया जाता था। मुंटु के अलावा केरल के लोग गमछा या दुपट्टा जो ‘नेरियत्’ कहलाता है, जिसका मतलब है महीन कपड़ा। साधारण लोग मुंटु और गमछा पहनते थे। अमीरों के पहनावे में मुंटु और जरीदार नेरियत चलते थे। जरीदार दुपट्टे की बुनाई में केरल के बुनकर विशेष दक्ष हैं। पुराने काल में स्त्रियाँ भी मुंटु ही पहनती थीं। अँगिया या चोली का व्यवहार बहुत काल तक नहीं होता था। अँगिया का व्यवहार प्रारंभ होने के बाद भी केरल की स्त्रियों की वेश-रचना में चौड़ी मुंटु से छाती के ऊपर तक का बदन ढक लेने की प्रथा थी। राजा रविवर्मा तथा कतिपय अन्य चित्रकारों के चित्रों में केरलीय स्त्रियों का यह पहनावा देखा जा सकता है। धीरे-धीरे केरल की स्त्रियों का प्रिय पहनावा साड़ी बनती गई और आगे चलकर चूड़ीदार, जींस जैसी वेष-भूषाएँ लोकप्रिय बनीं। प्राचीन काल में बालियाँ, कड़े, करधनी, अँगूठी आदि आभूषण खूब प्रचलित थे। अब बदलते फैशन के अनुसार गहनों के रूप में भी बदलाव आए हैं।
शिक्षा
संप्रति शिक्षा और साक्षरता के क्षेत्र में भारत भर में केरल का स्थान सर्वप्रथम है। कई पीढ़ियों के पहले से ही केरल शिक्षा के क्षेत्र में बहुत आगे था। प्राचीन काल में केरल में शिक्षा वर्णाश्रम धर्म के अनुकूल थी और सभी शिक्षा प्रणाली एक नहीं होती थी। कई स्तरों की शिक्षा यहाँ कायम थी, जैसे सामान्य शिक्षा, शस्त्र शिक्षा, वैदिक शिक्षा, तंत्र-मंत्र की शिक्षा, कला की शिक्षा आदि।
आमतौर पर पाँच वर्ष की आयु में शिक्षा का श्रीगणेश हुआ करता था। नवरात्रि के विजयदशमी के दिन विद्यारंभ होता था। गाँव के सामान्य शिक्षक ही गुरु या ‘आशान’ होते थे। आशान के यहाँ गाँव के बहुत से लड़के इकट्ठे होकर गुरुकुल की प्रणाली में मलयालम भाषा के प्रारंभिक पाठ, पहाड़े, संस्कृत भाषा के बुनियादी नियम आदि सीख लेते थे। प्रायः सभी धनी परिवारों की छत्रच्छाया में ये गुरुकुल चलते थे।
अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने के लिए यहाँ अलग से केंद्र होते थे। शस्त्र-विद्या अध्ययन केंद्र ‘कलारि’ नाम से अभिहित थे। शरीर के प्रत्येक अंग की चुस्ती तथा विविध अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग में प्रवीणता पाना इन शिक्षा केंद्रों का ध्येय था।
प्राचीन काल में नंपूतिरि ब्राह्मणों की सत्ता प्रबल थी। वैदिक जीवन क्रम में इन नंपूतिरि ब्राह्मणों का वेदाध्ययन बहुत महत्त्व रखता था। शासक क्षत्रियगण वेदज्ञ विप्रों का बड़ा आदर-सम्मान करते थे। इन्हीं वेदज्ञ नंपूतिरियों की परंपरा में जगद्गुरु
आचार्य शंकर ने जन्म लिया था। नंपूतिरियों की वेदाध्ययन-प्रणाली सात वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार के साथ शुरू होती थी। दीर्घकाल तक वेद-शास्त्र का अध्ययन करके ही कोई ब्राह्मण पंडित बन जाते थे। वेदों के विद्वान् नंपूतिरि लोगों में कई आयुर्वेद के गहरे अध्ययन में लग जाते थे तथा कई ज्योतिष विद्या भी सीख लेते थे।
संस्कृत शिक्षा का प्रचलन भी प्राचीन काल से ही केरल में होता था। पाठ्यक्रम में पहला स्थान ‘सिद्ध-रूप’ नामक शब्द-धातु-पाठ का था। नागरी लिपि के अध्ययन के पहले मलयालम लिपि में यह सिखाया जाता था। सिद्ध रूप के उपरांत ‘श्रीरामोदंतं’ नामक सरल लघुकाव्य का अध्ययन प्रारंभ होता था। इसके बाद ‘अमरकोश’ की पंक्तियाँ दुहराई जाती थीं। इसके पश्चात् श्रीलक्ष्णविलासम्, रघुवंशम्, कुमारसंभवम् आदि काव्यों का अध्ययन चलता था। मध्यम श्रेणी के अधिकांश परिवारों के पुरुष इस अध्ययन-क्रम को पूरा कर लेते थे। स्त्रियाँ भी यथासंभव एकाध काव्य सीख लेती थीं।
वेदज्ञ लोग तांत्रिक ग्रंथों से पूजाविधि और मंत्र विद्या का अभ्यास करते थे। यह रही केरल की प्राचीन शिक्षा-प्रणाली। आगे चलकर काल और परिवेश के अनुरूप शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रकार के परिवर्तन आए।
धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश
केरल मूलतः द्रविड़ देश है। यहाँ की मूल संस्कृति ‘द्राविड़’ कही जा सकती है। ऐसी मान्यता है कि शैव भक्ति द्राविड़ संस्कृति की देन है। यद्यपि वेदों में रुद्र का उल्लेख है तथापि शिव की स्वतंत्र रूप से प्रामाणिकता द्राविड़ संस्कृति में ही उपलब्ध है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ों से उपलब्ध ऐतिहासिक अवशेषों में शिव की मूर्तियाँ भी हैं। माटन, मरयोन, चुडलैमाटन जैसी कई द्राविड़ संज्ञाएँ शिव के लिए ही प्रयुक्त हैं। आज भी केरल के, विशेषकर उत्तर केरल के कई मंदिर ऐसे हैं, जिनमें शिव के आदिम प्राकृत रूपों की पूजा चलती है। केरल के कण्णूर जिले के प्रसिद्ध परिश्शिनिक्कटव का मुत्तप्पन मंदिर इसका ज्वलंत उदाहरण है। गणपति, पार्वती, शास्ता, सुब्रह्ण्य आदि भी द्राविड़ों का प्रभुत्व रहा। आर्यों के आगमन के बाद यहाँ आर्य-द्राविड़ संस्कृतियों का समन्वय हो गया। कालांतर में दोनों संस्कृतियाँ आपस में इतनी घुल-मिल गईं कि दोनों की अस्मिता के अंशों को पृथक् करना कठिन हो गया। किंतु कतिपय द्राविड़ जातियों का आर्यों के साथ संघर्ष हुआ और उनकी सांस्कृतिक धारा पृथक् रूप में प्रवाहित रही। केरल की वन्य जातियाँ उन्हीं की परंपरा में आती हैं। उनकी संस्कृति ही केरल की प्राचीनतम लोक-संस्कृति मानी जाती है।
केरल के मंदिरों की शिल्प विधि विशेष प्रकार की है। सादगी, सुरक्षा और स्वच्छता इन मंदिरों की मुख्य मुद्राएँ हैं। दक्षिण केरल के विशेषकर पुरानी तिरुवंतपुरम् में स्थित श्रीपद्मनाभ स्वामी मंदिर केरल का सबसे बड़ा मंदिर है। इसमें तमिलनाडु के मंदिरों के समान बृहदाकार गोपुर, भीतर हर एक स्तंभ पर प्यालीमुख, विभिन्न मूर्तियों से सजा हुआ अलंकार-मंडप आदि हैं। स्वच्छता में केरलीय मंदिर अपना सानी नहीं रखते। कुर्ता-पतलून या पगड़ी पहनकर मंदिर के प्राँगण तक में पैर रखना मना है। केरल की अधिकांश ललित कलाएँ इन मंदिरों की छत्रच्छाया में ही जनमी और विकसित हुई हैं।
केरल मुख्यतः हिंदू धर्म का प्रदेश है। कालांतर में केरल के कुछ स्थानों पर जैन धर्म और बौद्ध धर्म का प्रवेश हुआ। किंतु वे अधिक समय तक पनपे नहीं। थोड़े से जैन धर्मावलंबी उत्तर केरल में अब भी हैं।
केरल में अति प्राचीनकाल से ही इसलाम धर्म का प्रवेश हुआ था। अरब के व्यापारी लोग केरल में सुगंधी, मसाले खरीदने आते थे और उनके जहाज यहाँ के बंदरगाहों पर लगते थे। बाद में केरल के शासकों ने अरब मुसलमानों को खलासी और नौसैनिक के रूप में नियुक्त किया। ये मुसलमान केरल के विभिन्न प्रदेशों में स्थानीय लोगों से घुल-मिल गए। उन्हीं के उत्तराधिकारी मलाबार में ‘माप्पिला’ कहलाते हैं।
ईसवी प्रथम सदी में ही ईसाई धर्म का प्रवेश केरल में हुआ था। केरल की आबादी का करीब पच्चीस प्रतिशत ईसाइयों का है। वे आर्थिक, औद्योगिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में बड़ी प्रगति प्राप्त कर चुके हैं। अतः केरल की राजनीति पर भी उनका जबरदस्त प्रभाव है। माना जाता है कि ईसवी प्रथम शती में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए सेंट थॉमस केरल आए। उन्होंने केरल में सात गिरिजाघर भी स्थापित किए। माना जाता है कि ईसाई धर्म के प्रचार के पहले ही यहूदी लोग केरल आए थे। कोच्चि यहूदियों का केंद्र था। कोच्चि के एक मुहल्ले का नाम ‘ज्यू टाउन’ है। धीरे-धीरे यहूदियों की संख्या कम होती गई। इजराइल राष्ट्र की स्थापना के बाद कोच्चि के कई यहूदी वहाँ चले गए। अब मुट्ठी भर यहूदी ही यहाँ बचे हैं। यहूदियों का
गिरजाघर जो कोच्चि में स्थित है, वह प्राचीनता, वास्तुकला और पुराने स्मृति-चिह्नों के कारण पर्यटकों के मुख्य आकर्षण-केंद्र है।
केरल के प्रमुख पर्व और त्योहार
ओणम
केरल कई पर्वों और त्योहारों की भूमि है। ये त्योहार धार्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय हुआ करते हैं। ओणम, विषु, तिरुवातिश, नवरात्रि आदि केरल में मनाए जाने वाले मुख्य त्योहार हैं। केरल के त्योहारों में सबसे प्रमुख ‘ओणम’ है। यह केरल के नववर्ष के उल्लास का उत्सव है। श्रावण महीने के श्रवण (तिरुवोणम्) नक्षत्र के दिन यह त्योहार मनाया जाता है। ओणम के दस दिन पूर्व हस्त (अत्तं) नक्षत्र से ही इस त्योहार की धूम मच जाती है। हस्त नक्षत्र के दिन से लेकर श्रवण नक्षत्र तक के दस दिन घर के आँगन में गोलाकार में गोबर पोतकर उसके ऊपर रंग-बिरंगे फूल सजाकर रंगोली बनाई जाती है। इसे ‘अत्तप्पूक्कलम्’, अर्थात् हस्त-रंगोली कहते हैं। हर दिन सुबह पुराने फूल हटाए जाते हैं और नए फूल बिछाए जाते हैं। श्रवण नक्षत्र के दिन रंगोली के सामने ओणत्तप्पन् या तृक्काक्करयप्पन की छोटी सी मिट्टी की मूर्ति रखी जाती है। उस दिन सुबह बच्चे, युवक, वयस्क सब इकट्ठे होते हैं और ओणम के गीत गाते हैं और खुशियाँ मनाते हैं।
इस त्योहार का संबंध असुर चक्रवर्ती महाबलि की कथा से जोड़ा जाता है। यही विश्वास है कि महाबलि को पाताल भेजने के पहले वचन दिया गया था कि प्रतिवर्ष एक दिन अपनी प्रजा को देखने के लिए वे केरल पधार सकते हैं। केरलियों की परंपरागत विश्वास अनुसार महाबलि तिरुवोणम के दिन केरल आया करते हैं। महाबलि के शासनकाल के ऐश्वर्य और समृद्धि की मीठी स्मृतियों में वर्तमान काल में भी केरल के लोग ओणम का त्योहार आनंदपूर्वक मनाते हैं। संसार में जहाँ भी केरलीय या मलयाली हैं, वहाँ खूब ठाट-बाट के साथ यह त्योहार मनाया जाता है।
इस त्योहार का मुख्य अंग प्रीतिभोज या बड़ी दावत है। ओणम के चार-पाँच दिन तक यह दावत चलती है। इसमें केले के पत्ते पर छोटा केला, पापड़, केले के चिप्स, आम, नीबू, अदरक आदि के अचार तथा तरह-तरह की सब्जियाँ परोसी जाती हैं। भात पर हपले दाल और घी परोसे जाते हैं। फिर सांबार, पुल्लिश्शेरी (दही की कढ़ी) रसम, छाछ आदि एक के बाद एक परोसकर भोजन किया जाता है। खीर भी कई प्रकार की बनती है। दूध और शक्कर मिलाकर तथा गुड़ मिलाकर चावल, दाल, केले, कटहल के फल आदि से स्वादिष्ट खीर बनाई जाती है। ओणम की विशिष्टता यह है कि घर के सब लोग एक साथ बैठकर ही प्रीतिभोज का मजा लेते हैं।
प्रीतिभोज के बाद सभी उम्र के लोग विभिन्न खेल-तमाशों में लग जाते हैं और खुशियाँ मनाते हैं। लड़के और युवा लोग गुल्ली-डंडा, पतंगबाजी जैसे विनोद में लगते हैं। बूढ़े-बूढ़ियाँ अतीत के अच्छे दिनों की स्मृति की कहानियाँ कहकर और गप्पें मारकर आनंद पा लेते हैं। स्त्रियाँ झूला झूलती हैं और तिरुवातिश आदि नृत्यों में लग जाती हैं। कई प्रकार के लोकगीत भी इन दिनों प्रस्तुत किए जाते हैं। अत्यंत प्रसिद्ध एक ओणम लोकगीत की कतिपय पंक्तियाँ यहाँ दी जा रही हैं—
मावेलि नाटु वाणीटुं कालं
मानुषरेल्लारुमोन्नुपोले
आमोदत्तोटे वसिक्कुंकालं
आपत्तंगागाक्कुऱ्मोट्टिलल तानुं
भावार्थ है—
महाबलि जब राज करते थे,
मानव सब एक जैसे थे
आमोद के साथ सब रहते थे
विपदाओं से सब दूर रहते थे।
इस प्रकार लोकगीत, लोकनृत्य आदि की प्रस्तुतियों के कारण केरल की पुरानी लोक-संस्कृति के संरक्षण का सराहनीय प्रयास ओणम के त्योहार के दौरान होता है।
विषु
केरल का और एक मुख्य त्योहार है विषु। यह वैभव का त्योहार है, जो चैत्र महीने में मनाया जाता है। इस त्योहार का भी अटूट संबंध केरल की कृषि-संस्कृति से है। नए भेष-संक्रम का यह उत्सव है। यह शगुन का उत्सव माना जाता है। परंपरागत विश्वास के अनुसार यदि विषूत्सव मंगलमय निकला तो पूरा साल मंगलकारी रहेगा। विषूत्सव का मुख्य अंग है विषु की झाँकी या ‘विषुक्काणि’। परिवार के सारे सदस्यों को झाँकी दिखाने के उद्देश्य से पूर्व रात्रि में ही गृहस्वामिनी किसी बड़ी सी पीतल या ताँबे की कटोरी या थाली में चावल, नारियल, सब्जियाँ, फल-फूल, सोना-सिक्का, दर्पण, सिंदूर, नया कपड़ा विषुपुष्प या कनेर आदि सजाकर श्रीकृष्ण की मृर्ति या चित्र के सम्मुख रख देती हैं। अगले दिन ब्राह्म मुहूर्त में गृहस्वामिनी नहा-धोकर झाँकी के सामने दीप जलाकर रख देती है और घर के सबको जगाकर झाँकी का दर्शन कराती है। घर के मुखिया सबको भेंट के रूप में सिक्के-पैसे देते हैं। भाई-बंधु, नौकर-चाकर, किसान-मजदूर, पास-पड़ोंस के बच्चे बड़े लोग सब विषु की भेंट के अधिकारी हैं। केरल के मंदिरों में विषु के पर्व पर विशेष उत्सव का आयोजन होता है।
तिरुवातिश (आर्द्रा नक्षत्र)
तिरुवातिश अथवा आर्द्रा नक्षत्र का उत्सव भी केरल में धूमधाम से मनाया जाता है। इस उत्सव में आर्य-द्राविड़ संस्कृतियों के समन्वय का स्पष्ट दर्शन होता है। आर्य लोग इस दिन को महादेव या शिव पूजा का विशेष पर्व मानते हैं तथा द्राविड़ लोग देवी पार्वती की पूजा का दिन समझते हैं। रूढ़ि के अनुसार मार्गशीर्ष या अगहन महीने के अंत में उत्तरायण या देवताओं का दिन आरंभ होता है। शिव भक्तों के लिए इस महीने के आर्द्रा नक्षत्र का दिन विशेष पवित्र है। शिव मंदिरों में उस दिन विशेष पूजा-पाठ का क्रम चलता है। केरल की स्त्रियाँ हर्षोल्लास के साथ तिरुवातिश का त्योहार मनाती हैं। केरल के आर्द्र्रोत्सव का संबंध सती धर्म से भी है। नव-विवाहिता युवतियाँ इस उत्सव को विशेष महत्त्व देती हैं। विवाह के बाद का प्रथम आर्द्र्रोत्सव फूल की आर्द्र्रा (पूंतिरुवातिश) कहलाता है। नव-वधुएँ आर्द्र्रा नक्षत्र के बारह दिन पहले से व्रत प्रारंभ कर देती हैं। उषाकाल में ही गाँवों की स्त्रियाँ जागकर प्रभाती गीत गाने लगती हैं। हाथ में दीप लिये वे स्नान के लिए निकट की नदी या तालाब जाती हैं और जल के ऊपरी सतह पर ताल बजाते और आर्द्र्रा गीत गाते हुए स्नान करती हैं और घर वापस जाती हैं। आर्द्र्रा के एक दिन पहले, यानी मृगशिश का दिन भी विशेष महत्त्व का होता है। उस दिन रात को स्त्रियाँ शिव-पार्वती को चढ़ाने का नैवेद्य तैयार करती हैं। केरल के विशेष फलों, दालों और कंदों का उपयोग इसमें होता है। चुने हुए दस फूलों की अर्चना भी चलती है। यह रूढ़ि केरल की पुरानी हरी-भरी खेती और फल-फूल वैभव को प्रमाणित करती है। पूजा के बाद गीत-नृत्य का कार्यक्रम भी चलता है। केरल की तिरुवातिशकलि (आर्द्र्रा नृत्य) बहुत ही लोकप्रिय है।
नवरात्रि या सरस्वती पूजा का उत्सव
भारत में दशहरा, नवरात्रि आदि नामों से जो त्योहार मनाया जाता है, वह केरल में भी कुछ स्थानीय विशेषताओं के साथ मनाया जाता है। केरल में सरस्वती पूजा का यह त्योहार मुख्यतया तीन दिनों तक चलता है। अष्टमी के दिन शिक्षार्थी अपने पाठ्य सामग्री तथा विविध पेशों में लगे हुए कारीगर अपने उपकरणों को सायंकाल वीणापाणि देवी सरस्वती के श्रीचरणों पर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजा के लिए रख देते हैं। नवमी के दिन देवी की आराधना की जाती है। विजयादशमी के प्रातःकाल की पूजा के उपरांत पूजा के लिए रखी गई सामग्रियों को वापस लिया जाता है। विजयादशमी का दिन विद्यारंभ के लिए उत्तम समझा जाता है। गुरु, शिक्षक अथवा परिवार का मुखिया बच्चे को गोद में बिठाकर उसकी उँगली पकड़कर थाली में बिछाए गए चावल में ‘हरिश्री गणपतये नमः अविध्नमस्तु’ लिखवा देते हैं। यहीं से विद्यारंभ होता है। संगीत, नृत्य आदि के शिक्षार्थी भी अपने संगीतोपकरण, बाजे, पायल आदि देवी के सम्मुख पूजा के लिए रख देते हैं ये तीनों दिन सरकार की ओर से सार्वजनिक छुट्टी घोषित की जाती है, ताकि जनता विद्या से जुड़े इस त्योहार को धूमधाम से मना ले।
केरल के लोक एवं शास्त्रीय कलारूप
प्राचीनकाल से ही केरल विविध लोक एवं शास्त्रीय कलारूपों की क्रीड़ाभूमि रहा है। केरल के विविध कलारूप उसकी प्रांतीय विशेषताओं, जनता के अचार-विचारों और सांस्कृतिक गरिमा की उद्घोषणा करनेवाले हैं। भारत के लोककला-क्षेत्र को केरल की प्राचीन लोककलाओं की देन विशेष उल्लेखनयोग्य है। केरल का मौलिक कलारूप ‘कथकलि’ तो विश्वविख्यात है। ‘कूत्त्’ के विशिष्ट कलारूप हैं—
चाक्यार कूत्त्
चाक्यार कूत्त् या कूत्त का उद्भव और विकास केरलीय मंदिरों के पुनीत प्रांगणों में हुआ है। ऐसे मंदिरों के प्राचीरों के अंदर कूत्त् के लिए अलग मंडप बना हुआ होता है, जिसे कूत्तंबलम् (कूत्त् का मंदिर) अर्थात् कूत्त् के प्रस्तुतीकरण के लिए बनाया गया मंच कहते हैं। ये मंडप पुराने रंगमंचों के समान होते हैं, जिनमें चारों ओर बैठकर लोग कूत्त् देख और सुन सकते हैं। कूत्त् की प्रस्तुति चाक्यार (शाक्य) नामक जातिविशेष के लोग किया करते थे। पौराणिक कथाओं का सामिनय प्रवचन ही इसमें होता है। कथा-प्रवचन करनेवाले चाक्यार को संगति देनेवाले दो व्यक्ति होते हैं—नंपियार और नंगियार। नंपियार एक विशेष तरह का बाजा, जिसे ‘मिषाव्’ कहते हैं, बजाता है। नंगियार बीच-बीच में झाँझ पर ताल बजाती है।
कूटियाट्टम
केरल में प्रचलित विशिष्ट कलारूप हैं कूटियाट्टम्। कूत्त एक व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, तो कूटियाट्टम् में कई पात्र मिलकर नाटक का सा अभिनय करते हैं। ‘कूटि’ से मतलब है अभिनय। कूटियाट्टम् कलाकार पुराने जमाने में विख्यात संस्कृत नाटकों का ही अभिनय किया करते थे। आजकल इस कलारूप की लोकप्रियता कम हो गई है।
कृष्णनाट्टम, रामनाट्टम तथा कथकलि
कूत्त्, कूटियाट्ट आदि काविकास केरल की विशिष्ट कला ‘कथकलि’ में देखा जा सकता है। कथा और कलि ये दो शब्द मिलकर ‘कथकलि’ शब्द बना है, जिसका मतलब है कथा को नृत्य अथवा अभिनय के द्वारा प्रस्तुत करना। कथा को अभिनय द्वारा प्रस्तुत करने की परंपरा केरल में पहले से ही प्रचलित थी। केरल में प्रचलित कई प्राचीन लोकनृत्यों और लोकनाट्यों में पौराणिक आख्यानों तथा उपाख्यानों का अभिनय हुआ करता था। सन् 1653 में कोषिक्कोड के मानवेद राजा ने कृष्णकथा को आधार बनाकर ‘कृष्णगीति’ या ‘कृष्णाष्टक’ नामक संस्कृत काव्य का प्रणयन किया था, जिसपर जयदेव कृत ‘गीतगोविंद’ का स्पष्ट प्रभाव प्रकट है। कृष्णाष्टक ही आगे चलकर ‘कृष्णनाट्टम्’ बना है। इसमें संपूर्ण कृष्ण चरित का अभिनय आठ दिनों में किया जाता है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध की कथा ही इसका मुख्य वर्ण्य-विषय है। अब गुरुवायूर के श्रीकृष्णमंदिर में कृष्णनाट्टम का प्रस्तुतीकरण होता है। ‘कृष्णनाट्टम्’ के अनुकरण पर ‘रामनाट्टम्’ नामक द्श्यकला रूप का आविर्भाव हुआ। माना जाता है कि कोट्टारक्करा राजवंश के राजा कोट्टारक्करा तंपुरान ही रामनाट्टम के प्रणेता हैं। उन्होंने इस कलारूप के प्रस्तुतीकरण के लिए रामकथा को आधार बनाकर मलयालम में आठ कथाओं की रचना की है। शनैः-शनैः रामनट्टम् में आवश्यक सुधार-परिस्कार होता गया और रामकथा के अतिरिक्त अन्य कथाएँ भी इसके लिए स्वीकारी गईं। यों रामनाट्टम् नाम असंगत होता गया और उसके स्थान पर ‘आट्टम्’ अथवा ‘कथकलि’ नाम जड़ पकड़ गया। ‘रामनाट्टम्’ का सुधार-परिष्कार करके एक नूतन दृश्यकला रूप के आविष्कार में सर्वाधिक प्रवृत्त व्यक्ति कोट्टयत्तुतांपुरान थे तथा यही कारण है कि ये ही कथकलि के जन्मदाता माने जाते हैं।
तुल्लुल्
‘कथकलि’ की भाँति ‘तुल्लुल्’ भी केरल की अस्मिता का परिचायक कला रूप है। इस कला रूप के प्रणेता केरल के प्रथम हास्य-व्यंग्यकार कवि कुंचन नंपियार हैं। इस कलारूप में नट, विशेष वेष-भूषा धारण करके, सिर पर अनोखे मुकुट रखे तथा पैरों में पायल बाँधे रंगमंच पर उपस्थित होता है तथा किसी पौराणिक या वीर रसात्मक कथा का गायन करते हुए हाव-भाव के साथ नृत्य और अभिनय करता है। पौराणिक कथा के आख्यान के बीच-बीच में नंपियार तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक समस्याओं का समावेश हास्य-व्यंग्य पूर्ण शैली में करते हैं। तुल्ललू में प्रयुक्त साहित्य इतना सरल, सरस और हास्य-व्यंग्यपूर्ण होता है कि पंडित-पामर के भेदभाव के बिना ही सारी जनता इस कलारूप का आस्वादन कर सकते हैं। यही कारण है कि जनसाधारण के कलारूप के रूप में ‘तुल्लल्’ प्रसिद्ध है।
इनके अलावा भी अनेक लोकनाट्य रूप केरल में प्रचलित थे। लोकनाट्य मनोरंजनकारी तो हैं ही, इसके धार्मिक परिप्रेक्ष्य ही इन लोकनाट्यों में न्यूनाधिक मात्रा में परिलक्षित होना है। ये लोकनाट्य लोकसंस्कृति के परिचायक हैं तथा इनमें लोकजीवन के विभिन्न पक्ष अपनी पूरी हार्दिकता, निश्छलता एवं सरलता के साथ प्रतिबिंबित हैं।
केरल के परंपरागत शस्त्र-व्यायाम शिक्षा ‘कलरिप्पयट्टु’ तथा ‘अंकम्’
कलरिप्पयट्टु :
‘केरलोत्पत्ति’ नामक ग्रंथ में उल्लेख है कि केरल के विभिन्न स्थानों पर परशुराम ने कवरियों और उनकी देवियों की स्थापना की थी। ‘कवरि’ का मतलब है शस्त्र-व्यायाम-शिक्षाशाला। यहाँ का प्रशिक्षण ही ‘कवरिप्पयट्टु’ कहलाता है। कवरि के ‘कुरूप’ कहलाते थे। केरल के उत्तरी भाग मलाबार में ही अधिक कवरियाँ चालू थीं। सात बरस की आयु में कवरि की शिक्षा शुरू होती है। ‘कवरि’ अथवा शस्त्र व्यायाम शिक्षाशाला का निर्माण परंपरागत रूढ़ियों और नियमों के अनुसार किया जाता है। दीवारें मिट्टी से बनती हैं। छतें नारियल या ताड़ वृक्ष के पत्तों से ढकी जाती हैं, जो गरमी से कवरि के शिक्षार्थियों को बचाती हैं। चौकोर मंडप बनाया जाता है। फर्श पर लाल चिकनी मिट्टी बिछाई जाती है। कवरि का चौकोर कमरा पूर्व दिशा की ओर खुलता है। इसका दक्षिण-पश्चिमी कोना ‘पूत्तरा’ (पूजा स्थान) कहा जाता है। यहाँ अर्द्धवृत्ताकार सात सीढ़ियाँ होती हैं। ऊपरी सातवीं सीढ़ी पर का मुकुटस्थान कवरि के देवता का आवाहन-स्थान है। कवरि के देवता हैं ‘आयुध भैरव’ और ‘आयुध भैरवी’। पूजा स्थान के आगे उत्तरी ओर श्रीगणेश तथा उत्तरी ओर नाग-संकल्प है। पश्चिमी ओर ठीक बीच में गुरु-संकल्प है। जनश्रुति है कि स्वयं परशुराम ने इक्कीस गुरुओं को शस्त्र विद्या का आचार्यत्व दिया था। उत्तरी कोने में ‘अंतिवीरन’ नामक उपदेवता का स्थान है। उत्तर-पूर्वी दिशा भद्रकाली की है और दक्षिण-पूर्वी दिशा में ‘वेट्टक्कोरूमकन’ नामक किरातमूर्ति का संकल्प है। पश्चिमी ओर के गुरु संकल्प के पास शस्त्र रखे जाते हैं। विश्वास किया जाता है कि शस्त्रविद्या और व्यायाम, कवरि के देवी-देवता और गुरुदेव की कृपा के बिना सफलता से संपन्न नहीं होंगे। अतः इन सबकी वंदना करके ही शिक्षा प्रारंभ की जाती है।
कवरिप्पयट्टु की प्रथम सीढ़ी शारीरिक व्यायाम होती है। इसे मलयालम में ‘मेय्यिरक्कम्’ (मेय माने शरीर तथा इरक्कं माने लाघव) कहा जाता है। शरीर के अंग-प्रत्यंग, नस-नस और पुट्ठे-पुट्ठे को अपनी इच्छा के अनुसार चलाने की कला ‘कवरिप्पयट्टु’ के लिए अनिवार्य है। जब तक हाथ-पाँव और दूसरे अंग इच्छानुसार घूमने-फिरने, उछलने-कूदने और झुकने-तनने में कुशल नहीं बनते, तब तक शस्त्र-प्रयोगों में सफलता मिलना संभव नहीं होता। शरीर की लघुता मात्र कसरत करने से अपनेआप नहीं आ जाती। उसके लिए शरीर की मालिश करानी होती है। मालिश को मलयालम में ‘उषिच्चिल्’ कहते हैं। उषिच्चिल् या मालिश के लिए कवरि के गुरु विशेष प्रकार का उबटन तैयार करते हैं और उससे गुरु ही शिष्य के बदन पर उबटन खूब मलकर मालिश शुरू कर देते हैं। मालिश भी विविध प्रकार के होते हैं। मालिश के अनंतर पूरा शरीर हलका सा बन जाता है। मालिश के बाद शारीरिक व्यायाम का अभ्यास आरंभ होता है। उसके बाद ही शस्त्र-शिक्षा का प्रशिक्षण शुरू किया जाता है। धनुर्विद्या, योग-विद्या और मर्मविद्या के आधार पर गुरु प्रशिक्षणार्थियों को विविध प्रकार के प्रशिक्षण देते हैं। शस्त्र-शिक्षा में विविध प्रकार के शस्त्रों का इस्तेमाल होता है, जैसे डंडा, भाला, कटार, तलवार-ढाल आदि, प्रशिक्षण लंबे काल तक चलता है। इस प्रशिक्षण से अनुशासन की चेतना अपने आप आ जाती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह प्रशिक्षण अत्यंत लाभकारी है।
अंकम् (विशेष प्रकार का द्वंद्व युद्ध)
केरल में प्राचीन काल में प्रचलित एक विशेष प्रकार के द्वंद्व युद्ध को ही ‘अंकम्’ कहते हैं। पुराने जमाने में दो व्यक्तियों या दलों का आपसी मतभेद समाप्त करने का अंतिम उपाय था ‘अंकम्’। गाँव या नगर के मुखिया आदि के निर्णय से संतुष्ट न होनेवाले वादी-प्रतिवादी ‘अंकम’ के लिए तैयार हो जाते थे।
अंकम के विविध चरण होते थे। द्वंद्व युद्ध के साथ-साथ तलवार, भाले, कटार आदि के प्रयोग का युद्ध भी चलता था। जो सज्जन आपस में ‘अंकम्’ लड़ने का निर्णय करते थे, उन्हें तत्संबंधी सूचना अनिवार्य रूप से शासक, नगर के प्रधान, गाँव के मुखिया आदि को देनी थी। वे युद्ध कला में प्रवीण वीरों को अपने-अपने प्रतिनिधि के रूप में लड़ने के लिए चुन लेते थे। ऐसे वीर ‘चेकोन’ या ‘चेकवन’ पुकारे जाते थे।
चेकोन व्यावसायिक वीर योद्धा होते थे और अंकम् का निमंत्रण पाने पर इनकार करना उनके लिए बड़ा कलंक माना जाता था। अंकम् में योद्धा की मृत्यु का खतरा भी रहता था। इसलिए अंकम् लड़ानेवाले सज्जन को अग्रिम रूप से धन की तीन थैलियाँ लड़नेवाले व्यक्ति की सेवा में प्रस्तुत करनी पड़ती थीं। इनमें एक थैली योद्धा के लिए, दूसरी अंकम् के खर्च के लिए तथा तीसरी, योद्धा के बंधुजनों के लिए होती थी। ‘अंकम्’ पूर्णतः धर्मयुद्ध के नियमों के अनुसार चलता था।
केरल की लोकथाएँ
केरल में लोककथाओं का अक्षय भंडार है। इन लोककथाओं में केरलीय जन-मानस की सहज अभिव्यक्ति मिलती है। ये लोककथाएँ केरलीय मिट्टी की महक और जनजीवन की अस्मिता की पहचान करानेवाली हैं। “लोक शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है दिखाई देना अथवा दृष्टिगोचर होना। समस्त संसार, जो सामने दृष्टिगोचर होना। समस्त संसार जो सामने दृष्टिगोचर या इंद्रिय-गोचर होता है, वह सब लोक है। वेदशास्त्रादि में निरूपित ‘लोक’ शब्द का विवेचन करते हुए ‘विचार और वितर्क’ शीर्षक अपनी कृति में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जो लिखा है, वह सटीक और संगत है। ‘लोक’ शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं। ये लोग नगर के परिष्कृत, रुचि-संपन्न, सुसंस्कृत समझे जानेवाले लोगों की अपेक्षा सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारता को जिलाए रखने के लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।” सामान्यतः लोक का अर्थ होता है जन-सामान्य। तब तो जन-सामान्य द्वारा कही गई कथाएँ अथवा जन-सामान्य में प्रचलित कथाएँ ही लोककथाएँ हैं। इन लोककथाओं में मानव जीवन, परिवार, व्यक्ति और समाज के सुख-दुख, राग-द्वेष, प्रणय-कलह, जन्म-मरण सब समाविष्ट होते हैं। मानव के साथ पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सब इन कथाओं में स्थान पाते हैं। मानवीय गुणों के पोषण के साथ लोकमंगल की भावना भी इन लोककथाओं की अंतर्धारा में लक्षित होती है।
केरल की लोककथाएँ केरल के लोकजीवन आचार-विचार, रीति-रिवाज आदि की झाँकियाँ अंकित करनेवाली हैं। केरल प्रदेश से जुड़े ऐतिह्य, यहाँ के पर्व, त्योहार, यहाँ के पुराने मंदिर, सर्पक्काव, यहाँ के वीरों और वीरांगनाओं की वीर-साहसिकता मांत्रिकों के चमत्कार, डाकुओं के विलक्षण चरित्र आदि इन लोककथाओं में जीवंत हो उठते हैं। वस्तुतः देश के राज्य-राज्य की लोक-संस्कृतियों का समाहार ही भारतीय संस्कृति है। हर राज्य के लोकजीवन और संस्कृति एवं अस्मिता ही उस राज्य की लोककथाओं में प्रतिबिंबित हैं। यही कारण है कि अतीत की पीढ़ी ने लोककथाओं की स्मृतियों को मौखिक रूप में ही सही सँजोकर वर्तमान पीढ़ी को दिया है। अब हमारी धरोहर स्वरूप इन लोककथाओं को सुरक्षित रखकर भविष्य की पीढ़ी को सौंपना वर्तमान पीढ़ी का दायित्व है।
ऐतिहासिक कथाएँ
केरल की उत्पत्ति (परशुराम तथा केरल भूमि की सृष्टि)
माना जाता है कि महाविष्णु के अवतार परशुराम ने केरल की सृष्टि की। मातृहत्या तथा इक्कीस बार क्षत्रियों की सामूहिक हत्या करने पर परशुराम बड़े भारी पाप से ग्रस्त हुए। पापमुक्ति के लिए उन्होंने अति कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से वरुण और पृथ्वीदेवी उनपर प्रसन्न हुए। दोनों के आशीर्वाद पाने पर भूमिदान के द्वारा अपने घोर पाप से मुक्त होने का उन्होंने निश्चय किया। परशुराम ने उत्तर के गोकर्ण में खड़े होकर अपना परशु या फरसा समुद्र की ओर फेंका। परशु कन्याकुमारी पर जाकर गिरा और वहाँ तक का समुद्रजल पीछे हट गया और भूतल उभरकर आया। यह भूतल केरल बना। परशुराम ने उसकी सृष्टि की। अतः उसका नाम ‘परशुराम क्षेत्र’ या ‘भार्गव क्षेत्र’ भी पड़ गया। परशुराम ने यह भूमि ब्राह्मणों को दान में दे दी। उन्होंने बाहर से ब्राह्मणों को ले आकर यहाँ बसाया। ये ब्राह्मण ‘नंपूतिरि’ कहलाते हैं।
‘ओणम्’ या महाबलि की कथा
प्राचीन काल में महाबलि नामक राजा केरल में राज करते थे। हिरण्यकशिपु (हिरण्य-कश्यप) के पुत्र प्रह्लाद के पुत्र विरोचन का पुत्र था महाबलि। महाबलि के शासनकाल में सारी प्रजा सुखी एवं संतुष्ट थी। इसलिए प्रजा अपने शासक को खूब मानती थी। महाबलि ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य की प्रेरणा से देवों से युद्ध किया और युद्ध में हारने पर देवों का स्वर्गलोक नष्ट हो गया। अपने पुत्रों की हालत पर दुखी देवमाता अदिति ने द्वादशी-व्रतानुष्ठान किया। व्रत के अंत में महाविष्णु प्रकट हुए तो अदिति ने अपने पुत्रों को स्वर्ग वापस दिलाने का वर माँगा। अदिति को दिए वर के परिणामस्वरूप अदिति के गर्भ में महाविष्णु ने वामन के रूप में जन्म लिया। जब राजा महाबलि महायज्ञ चला रहे थे, तब उपयुक्त अवसर समझकर विष्णु के अवतार वामन ने एक मुनिकुमार के वेश में आकर अपने लिए तीन कदम भूमि माँगी। दैत्यगुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी महाबलि दान देने को तैयार हो गए। उन्होंने वामन से अपनी इच्छा के अनुसार भूमि नाप लेने को कहा। तब वामन ने बृहदाकार धारण कर दो कदम में स्वर्ग और भूमि नाप ली। तीसरे कदम रखने के लिए वचनबद्ध महाबलि ने अपना सिर झुका दिया। विष्णु बलि के सिर पर पैर रखकर उन्हें पाताल में भेज दिया। जाते समय महाबलि ने वर्ष में एक बार अपनी प्रजा से मिलने के लिए पृथ्वी पर आने की अनुमति माँगी। विष्णु ने अनुमति दे दी, पर ऐसा विश्वास किया जाता है कि हर साल श्रावण या सिंह महीने के श्रवण (तिरुओणम्) नक्षत्र के दिन महाबलि अपनी प्रजा के दर्शनार्थ केरल पधारते हैं। केरलीय जनता धूम धाम के साथ सज-धजकर अपने महाराजा का स्वागत करती है।
आचार्य श्री शंकर
अद्वैत धर्म के प्रतिष्ठापक आचार्य श्री शंकर का नाम केवल उनकी जन्मभूमि केरल तक सीमित नहीं, वे तो पूरे देश में तथा विश्व में विख्यात हैं। यही कारण है कि उनके जीवन से जुड़ी कथाएँ भी विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हुई हैं। किंतु कुछ कथाएँ ऐसी भी हैं, जो अपनी मिट्टी से जुड़ी हुए हैं।
आचार्य शंकर का जन्म केरल के कालड़ी नामक गाँव में हुआ था। यह गाँव केरल की प्रसिद्ध नदी ‘पेरियार’ के तट पर स्थित है। पुराणेतिहास में यह नदी ‘पूर्णा’, ‘चूर्णा’ आदि नामों से भी जानी जाती है। नदी के तट पर एक शिव मंदिर था। आचार्य शंकर के पिता पं. शिवगुरु सपरिवार मंदिर के पास रहते थे। विश्वास किया जाता है कि उस मंदिर के महादेव के कृपा-कटाक्ष से ही शिवगुरु और आर्यांबा को शंकर जैसा पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ था।
अपनी वृद्ध माता की सुविधा के लिए शंकर ने पेरियार नदी की धारा को उनके घर के निकट से मोड़ दिया था। यह कथा यहाँ के गाँव-गाँव में प्रचलित है। शंकर की माता रोज स्नान के लिए ‘पेरियार’ जाया करती थी। ग्रीष्म काल में नदी का प्रवाह कालड़ी के बहुत दूर तक चला जाता था। अतः बालुकाराशि में बहुत दूर तक चला जाता था। अतः बालुका राशि में बहुत दूर तक पैदल जाना पड़ता था। बालशंकर रोज माता के साथ स्नान करने आता था। एक दिन घर में अतिथियों के होने के कारण माता को अकेले ही नदी के किनारे जाना पड़ा। बहुत देर बाद भी माता घर लौटकर नहीं आई तो बालशंकर दौड़े-दौड़े आया। बालक ने देखा कि जलजलाते बालुका प्रदेश में नंगे पाँव चलने से माता बहुत थक गई थी। अपनी माता को पीठ पर उठाकर बालक ने उन्हें घर पहुँचा दिया। माता को घर पहुँचाकर पुनः वह नदी के किनारे गया और वहाँ बैठकर ईश्वर की आराधना में स्तोत्र-गान करने लगा। घर लौट आकर बालक ने माता से कहा कि जब तक नदी की जलधारा उनके घर के समीप तक न पहुँचे, तब तक एकाकी स्नान करने न जाएँ। हर दिन बालक माता के साथ स्नान के लिए जाता, माता को स्नान कराकर नदी के तट पर बिठाता और फिर वह स्नान करता। स्नानोपरांत माता के चरणों के समीप बैठकर ईश्वर की आराधना करता। एक सप्ताह तक यह कार्यक्रम चला। दूसरी स्त्रियाँ भी शंकर का मधुर स्तोत्रालाप सुनने वहाँ बैठ जातीं। गाँव में यह चर्चा फैल गई कि बालशंकर पेरियार नदी की जलधारा को मोड़ने के लिए स्तवन कर रहा है, जिससे उसकी माता तथा अन्य स्त्रियों को स्नान के लिए इतनी दूर पैदल न आना पड़े। अचानक कालड़ी में मूसलधार वर्षा हुई। नदी का जलप्रवाह उमड़ने-घुमड़ने लगा। कूलों को भेदकर धारा बहने लगी। एक धारा गाँव में शंकर के घर के निकट से बहने लगी। गाँव की जनता ने उसे बालशंकर का चमत्कार ही मान लिया।
शंकर के संन्यास ग्रहण से जुड़ी एक कथा भी प्रसिद्ध है। एक बार रोज की भांति बालशंकर अपनी माता के साथ पेरियार नदी के तट पर आया। स्नानोपरांत माता को तट पर बिठाकर शंकर स्नान कराने लगा। एकाएक एक मगरमच्छ ने बालक पर आक्रमण किया और उसके एक पैर को अपने मुँह में दबा लिया। बालक अपनी माँ को पुकारकर चिल्लाने लगा। माता भी आर्तनाद करने लगी। उन दिनों ‘आपत्संन्यास’ पर आस्तिकों का भरोसा था। मृत्यु को निकट देखने वाली, समान परिस्थितियों में संन्यास ग्रहण करने की पद्धति ही ‘आपत्संन्यास’ है। बालक का बचना असंभव देखकर माता ने उसे संन्यास ग्रहण करने की अनुमति दी। आश्चर्य की बात कि मगरमच्छ बालक को छोड़ कहीं अप्रत्यक्ष हो गया। यह स्थान ‘मुतलक्कटव्’ (मगरमच्छ घाट) नाम से जाना जाता है। शंकर की माता आर्यांबा का स्मृतिमंडप भी कालड़ी में है।
केरल के कालड़ी में जनमे शंकर का दिग्विजय काफी प्रसिद्ध है। भारत भर में भ्रमण करके देश के चारों कोनों में उन्होंने चार मठों की स्थापना की थी—दक्षिण में (मैसूर में) शृंगेरी मठ, उत्तर में (हिमालय के बदरीनाथ में) ज्योतिर्मठ, पूर्व में (पुरी में) गोवर्धन मठ तथा पश्चिम में (द्वारका में) शारदा मठ। इन चार मठों की प्रतिष्ठापना करके केरल के आचार्य शंकर ने भारत की भावात्मक एकता को सुदृढ़ करने का महत्त्वपूर्ण कार्य ही किया था।
वररुचि
राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में प्रमुख वररुचि के संबंध में कई लोककथाएँ केरल में प्रचलित हैं। वररुचि वेद-पुराणों के पारंगत पंडित थे। एक बार राजा ने वररुचि से प्रश्न किया कि रामायण का सबसे महत्त्वपूर्ण श्लोक कौन सा है तथा अर्थ की दृष्टि से उस श्लोक का महत्त्वपूर्ण अंश क्या है? वररुचि सहसा उसका उत्तर न दे पाए।
राजा ने वररुचि से अपने प्रश्न का उत्तर कहीं-न-कहीं से किसी-न-किसी प्रकार ढूँढ़कर लाने की आज्ञा दी। उन्होंने यह भी कहा कि यदि उत्तर जान न पाए तो वापस न आएँ। उत्तर की खोज में वररुचि वहाँ से निकल पड़े। कई गाँवों और शहरों में घूमे फिरे। कई विद्वानों से पूछताछ की। किंतु सबने यही उत्तर दिया कि रामायण के सारे-के-सारे श्लोक एक-से-एक बढ़कर महत्त्वपूर्ण हैं। चालीस दिन यों ही बीत गए। वररुचि के दुख का ठिकाना न रहा। अब तक वररुचि को राजा सहित सभी लोग सर्वज्ञ ही मानते थे। अब आत्मगौरव गँवाकर स्वदेश जाना उचित नहीं। कहीं जाकर प्राण त्याग करना ही अच्छा है। चिंतामग्न होकर घूमते-फिरते वे एक बरगद के पेड़ के नीचे आ गए। वनदेवियों से यह प्रार्थना करते हुए वे निद्रालीन हुए कि अपनी समस्या का हल कर दें। आधी रात होते-होते कुछ गगनचारिणी देवियाँ उस बरगद पर आ जमीं। इस पेड़ पर स्थायी रूप से रहनेवाली अन्य देवियों को बुलाकर उन्होंने कहा कि एक जगह पर एक शिशु का जन्म होनेवाला है। हम वहीं जा रही हैं। उन्होंने उन्हें उनके साथ आने का निमंत्रण तो दिया किंतु उन्होंने यह कहकर आने से मना किया कि यहाँ एक आदरणीय ब्राह्मणश्रेष्ठ आ गए हैं। हमारी कृपा की प्रार्थना करके वे सो गए हैं, अतः वे नहीं आ रही हैं। किंतु लौटते वक्त इधर से होकर जाने की और शिशु जन्म की सूचना देने की उन्होंने विनती की।
रात के अंतिम पहर में चिंताओं में लीन वररुचि जाग तो गए, किंतु वे आँखें मूँदकर लेटे ही रहे। तब तक देवियाँ वापस आ गईं। शिशु-जन्म के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि एक चंडालिन के यहाँ एक शिशु का, एक बच्ची का जन्म हुआ है। तब बरगद में बसनेवाली देवियों ने पूछा कि उस बच्ची को ब्याहनेवाला आखिर कौन होगा? तो आगंतुक देवियों ने कहा, “माँ बिद्धि...’ न जाननेवाला। यह वररुचि ही उसे ब्याहेगा।” इतना कहकर वे विदा हो गईं।
वररुचि को उत्तर तो मिला। किंतु भविष्य में होनेवाली अधोगति की चिंता से वे व्याकुल हो उठे। किंतु चतुर वररुचि ने उस अधःपतन से अपने को बचाने का उपाय भी ढूँढ़ निकाला।
लंबे अंतराल के बाद भी वररुचि दरबार वापस न आए तो दूसरे दरबारी सब हर्षित हुए किंतु राजा अत्यंत दुखी थे। दरबार में वररुचि की चर्चा हो रही थी कि वे एकाएक वहाँ आ पहुँचे। राजा ने पूछा, “क्या, उत्तर मिला?” तो वररुचि ने कहा कि भगवान् की कृपा, गुरु के अनुग्रह एवं आप जैसे सज्जनों के आशीर्वाद से उत्तर मिल ही गया है। वररुचि ने कहा, “रामायण का सबसे महत्वपूर्ण श्लोक है—
“रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकालजामं
अयोध्यामटवीं विद्धि गच्छा तात यथासुखम्।”
इसमें भी महत्वपूर्ण अंश है “माँ विद्धि जनकालजाम्” यह सुनते ही सारे सभासदों ने एक कंठ से उसे मान लिया। हर्ष के मारे राजा ने वररुचि के हाथ पकड़कर उन्हें अपने आसन पर बिठाया, कई उपहार दिए और आजीवन अपने साथ ही रहने का आदेश दिया।
वररुचि ने उस श्लोक की अनेक व्याख्याएँ भी कह सुनाईं। श्रीराम चंद्र के अपनी पत्नी सीता देवी तथा भाई लक्ष्मण के साथ वन गमन का प्रसंग है यह। उस समय माता की चरणों की वंदना कर विदा माँगने वाले लक्ष्मण को उनकी माता सुमित्रा का उपदेश है यह। पहला अर्थ यह है कि हे वत्स! राम को तुम दशरथ समझना अर्थात् तुम्हारे बड़े भाई राम को तुम अपना पिता ही मान लो। जानकीजी में तुम मेरी झाँकी देखना। अर्थात् उन्हें माता ही मान लो। वन को तुम अयोध्या मान लो। यों हर प्रकार से तुम खुशी-खुशी चलो।”
वररुचि के मुँह से प्रस्तुत श्लोक की दसों व्याख्याएँ सुनकर राजा और सारे सभासद अतीव हर्षित हुए। उसके बाद देश-काल के समाचारों की चर्चा के बीच वररुचि ने निवेदन किया कि कल रात को एक चंडाल के घर में एक बच्ची का जन्म हुआ है। उसकी जन्मपत्री के अनुसार जब वह तीन साल की आयु की होगी, तब हमारे इस राज्य के सर्वनाश की संभावना है। राज्य को विपित्ति से बचाना है तो उस बच्ची की हत्या कर डालनी होगी। राजा और दरबारी लोग भली-भाँति जानते थे कि इतने बड़े ज्योतिषी एवं विशिष्ट ब्राह्मण पंडित का वचन कदापि गलत नहीं होगा। शिशुहत्या तो बड़ा पाप है, विशेषकर बालिका की हत्या। बड़ी देर तक सोच-विचार करके अंत में सब लोगों ने मिलकर एक उपाय ढूँढ़ निकाला कि केले की बनी एक नौका पर लिटाकर इस बालिका के सिर में एक छोटा सा दीप ठोंक दें और उसे नदी-प्रवाह में छोड़ दें। तुरंत ही दो सैनिकों को बुलाकर उस प्रकार करने की आज्ञ दे दी। सैनिकों ने राजा की आज्ञा का पालन किया। खबर पाकर वररुचि बेहद खुश हुए कि भविष्य में उनके ऊपर आने वाली बला तो टल गई। कुछ सालों तक राजा की सेवा में रहने के उपरांत वररुचि अपने घर चले गए।
कई वर्ष बीत गए। एक दिन वररुचि कहीं जा रहे थे। रास्ते में भोजन करने के लिए वे किसी ब्राह्मण के घर पहुँचे। गृहस्थ ने उनका स्वागत किया और कहा कि स्नान करके आएँ और भोजन करें। उस ब्राह्मण की बुद्धि को परखने के लिए वररुचि ने यह शर्त रखी, “यदि हमें भोजन करना है तो कुछ खास रस्मों का पालन करना चाहिए। स्नान के बाद पहनने के लिए एक शानदार कपड़ा चाहिए। सैकड़ों व्यक्तियों को खिलाने के बाद ही हम कुछ-न-कुछ खा सकते हैं। एक सौ आठ प्रकार के उपदंश भी भोजन के लिए आवश्यक है। भोजन के उपरांत तीन को चबाना है तथा उसके बाद चार व्यक्ति मुझे कंधे पर रखकर चलने को भी चाहिए।”
वररुचि की शर्तें सुनकर ब्राह्मण स्तब्ध रह गए। तब अंदर से एक कन्या की आवाज आई—“पिताजी! आप तनिक भी चिंता न करें। बस इतना कह दें कि सब तैयार है।” फिर कन्या ने अपने पिता को समझा दिया कि शानदार कपड़े का मतलब यही है कि उन्हें एक लँगोटी चाहिए। सैकड़ों को खिलाने का मतलब है कि वे वैश्य-देव-होम करना चाहते हैं। फिर एक सौ आठ कढ़ियों का उल्लेख इसी उद्देश्य से किया है कि उन्हें भोजन के अवसर पर अदरक का छोला अवश्य चाहिए। अदरक की कढ़ी एक सौ आठ कढ़ियों के बराबर है। भोजन के बाद तांबूल, सुपारी एवं चूना के साथ पान खाने की आदत को ही उन्होंने भोजन के बाद तीन को चबाना बताया है। भोजन के उपरांत चार व्यक्तियों के द्वारा उन्हें कंधे पर रखना—यह वस्तुतः इस उद्देश्य से कहा गया है कि वे चारपाई पर लेटकर थोड़ा सा आराम करेंगे। अपनी बेटी की बुद्धि पर पिता आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने बेटी से सारी वस्तुओं का प्रबंध करने को कहा। वररुचि स्नान करके आए तो होम के लिए आवश्यक हविस, चंदन, फूल सबकुछ तैयार थे। भात के साथ अदरक का छोला भी परोसा गया। भोजन के बाद बरामदे में पान की तैयारी थी। तकिया और सेज से सुसज्जित चारपाई का प्रबंध भी था। पान खाने के बाद वररुचि चारपाई पर लेट गए। कहे अनुसार सारी बातें शत-प्रतिशत सही ढंग से सुसज्जित करने में कुशल निकली उस कन्या की प्रतिभा पर वररुचि अत्यंत प्रसन्न हुए। उस कन्या को किसी-न-किसी प्रकार अपनी गृहिणी बनाने की इच्छा उनके मन में प्रबल हो उठी। कन्या के पिता से उन्होंने अपनी इच्छा प्रकट की तो वे सहमत हो गए। शुभ मुहूर्त में दोनों का ब्याह संपन्न हो गया।
दंपती अपने घर पर प्रेम से रहने लगे। एक दिन वररुचि अपनी प्रेयसी के उलझे बालों को सँवार रहे थे कि उनकी दृष्टि उसके सिर के बीच के एक बड़े दाग पर पड़ गई। पूछने पर पत्नी ने बताया कि माँ से उसने सुना है कि एक केले की बेड़ी में बहकर आई उसे स्नान कर रही उन्होंने बचा लिया था और उसका पालन-पोषण भी किया था। जब वह माँ के हाथ पड़ी थी, तब उसके सिर पर एक बत्ती भी थी। यह तो उस बत्ती का दाग है। यह सुनते ही वररुचि समझ सके कि अपनी प्रेयसी वही पूर्व निश्चित चांडाल बालिका है। विधि का विधान अलंघनीय है। उन्होंने सारी बातें उसको बता दीं। यह निर्णय लिया गया कि अब वे अधिक काल तक उस घर में नहीं रहेंगे और शेष दिन तीर्थाटन में बिताएँगे। यों कहते हुए वे दोनों उधर से निकले। प्रवास में वे केरल भी पहुँचे। जगह-जगह की यात्रा के बीच उनकी पत्नी गर्भ धारण करती थी। गर्भ के पूर्ण होने पर प्रसव-पीड़ा शुरू होने पर पति उससे किसी जंगल की ओट में कार्य निपटा लेने को कहते। वे रास्ते में पत्नी की प्रतीक्षा में बैठे रहते। प्रसव के बाद वररुचि अपनी पत्नी से पूछते, “क्या, बच्चे का मुँह है?” पत्नी उत्तर देती, “जी हाँ।” तो पति प्रत्युत्त्तर देते,
“अगर मुँह है तो उसके लिए आवश्यक भोजन भी मिलेगा। इसलिए उसे साथ ले चलने की आवश्यकता नहीं।” यों कहते हुए वे बच्चे को ज्यों-का-त्यों वहीं छोड़कर अपनी पत्नी के साथ यात्रा जारी करते। इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानों की यात्रा के बीच उस साध्वी ने ग्यारह बच्चों को जन्म दिया। सभी को जंगल में ही छोड़ना पड़ा। वे ग्यारहों बच्चे ब्राह्मण समेत ग्यारह जातियों के लोगों के घरों में पले और बढ़े। बारहवीं बार भी जब गर्भ धारण हुआ तो उस साध्वी स्त्री ने सोचा कि अब यह बारहवाँ शिशु अपने साथ रहे। पति के पूछने पर वह ‘ना’ वाला उत्तर पत्नी से प्राप्त हो गया। प्रतीक्षा के अनुसार उस बच्चे को साथ ले आने की अनुमति मिली। जल्दी ही उस शिशु को साथ लेकर दंपती आगे बढ़े। लेकिन थोड़ा समय बीत जाने पर शिशु का मुँह सदा के लिए अदृश्य हो गया। महान् लोगों का वचन कभी मिथ्या नहीं हो जाता। वररुचि ने उस शिशु को एक पहाड़ी के शिखर पर प्रतिष्ठित किया। वही ‘वायिल्लाकुन्निलप्पन्’ (पहाड़ी का मुँह रहित स्वामी) नाम से प्रसिद्ध है। चंडालिन के द्वारा प्रसूत वे बारह संतानें हैं—मेलत्तोल अग्निहोत्री, राजकन, पेरुतच्चन, वल्लोन, वटुतलनायर, कारयक्कल अम्मा, केलुंपुकुट्टन, पाणनार, नाराणत्तु भ्रांतन, अकवूर चात्तन, पाक्कनार तथा वायिल्लाकुन्निलप्पन्। भिन्न-भिन्न जगहों पर भिन्न-भिन्न कुलों में उनका बचपन बीता। वररुचि और उनकी पत्नी ने घुमक्कड़ी में ही अपना शेष जीवन बिताया। उनके देहांत के बाद माता-पिता के श्राद्ध के लिए बारह संतानों में वायिल्लाकुन्निलप्पन को छोड़कर शेष सारी संतानें एक स्थान पर एकत्र हो जाया करती थीं और वे एक ही जगह श्राद्ध कर्म भी किया करते थे।
पेरुंतच्चन् (महास्थपति या महा शिल्पी)
पेरुंतच्चन् या महास्थपति वररुचि का पुत्र था। कहा जाता है कि वररुचि ने एक शबर-कन्या से विवाह किया और उनके बारह संतानें हुईं। पति-पत्नी देश-देशांतर घूमते-फिरते थे। जब संतान का जन्म होता, तब वररुचि का यही कहना था कि ‘देखो, शिशु का मुँह है कि नहीं? यदि मुँह है तो शिशु अपना काम सँभालेगा’। इधर-उधर जनम लेने और पलने के कारण वररुचि के पुत्र भिन्न-भिन्न जाति और धंधे के हो गए। उन पुत्रों में एक किसी बढ़ई को मिला था। बढ़ई के यहाँ पलकर वह पेरुतच्चन् (महास्थपति) बन गया। भवन-निर्माण-कला में वे बड़े प्रवीण थे। एक बार उन्हें एक तालाब खुदवाने का बुलावा आया। मालिकों में एक ही इच्छा थी, तालाब गोलाकार हो। दूसरा चौकोर तालाब बनवाना चाहता था। तीसरा लंबा तालाब खुदवाना चाहता था। पेरुतच्चन ने कहा, ‘आप सबकी इच्छा पूर्ण हो जाएगी। तालाब की पूर्ति पर सबों ने देखा कि एक-एक कोण से देखने पर तालाब का आकार अलग-अलग दीख पड़ता था।
पेरुतच्चन् के गाँव में एक नदी थी, जिस पर पुल भी बना था। लोग पुल से नदी पार करते थे। पेरुंतच्चन् ने पुल के एक सिरे पर एक यंत्रचालित गुड़िया लगा दी। गुड़िया आदमी की शक्ल की थी। जब कोई पुल पर कदम रखता, तब गुड़िया नीचे की ओर जाने लगती। यात्री पुल के बीचोबीच पहुँच जाता तो गुड़िया नदी में डूबती और मुँह में पानी भर लेती। यात्री आगे बढ़ता तो गुड़िया ऊपर उठती हुई दूसरे सिरे की ओर बढ़ती। जब यात्री ठीक पुल के दूसरे सिरे पर पहुँचता, तब गुड़िया भी वहाँ पहुँचती और यात्री के मुँह पर घूँट भर पानी का कुल्ला कर देती। देखनेवाले हँसकर लोटपोट हो जाते थे और पेरुंतच्चन् की प्रशंसा करते थे।
उस महास्थपति का पुत्र भी बड़ा ही प्रतिभावान कलाकार था। पिता को पुत्र पर गर्व अवश्य था, किंतु मन-ही-मन वे कुछ-कुछ कुढ़ते भी थे। कलाकार पुत्र ने नदी के पुल की नटखट गुड़िया की करामात देख ली, उसने चुपचाप और एक गुड़िया बनाकर पहली गुड़िया के बगल में लगा दी। जब यात्री पुल पर कदम रखता तब यह दूसरी गुड़िया उसके साथ कदम बढ़ाने लगती। पुल के दूसरे सिरे पर यात्री के पहुँचने के पहले ही वह पहुँच जाती। यात्री के आते-आते पिता की गुड़िया मुँह में पानी लेकर पहुँचती। ज्यों ही गुड़िया मुँह खोलने लगती, त्यों ही पुत्र की गुड़िया ऐसा थप्पड़ लगा देती कि पहली गुड़िया का सिर घूम जाता और मुँह का पानी नदी में ही गिर जाता। पिता को पुत्र का काम अच्छा नहीं लगा।
गाँव में एक मंदिर का निर्माण चल रहा था। केरल के मंदिरों के निर्माण में पुराने जमाने में लकड़ी का ज्यादा इस्तेमाल होता था। मंदिरों की छत गुंबद की तरह गोलाकार बनती थी। विभिन्न दिशाओं से सारे शहतीरों को केंद्र में लाकर केंद्रीय साँचे में एक साथ जमा कर देना पड़ता था। यह बड़ा कठिन काम होता था। बढ़इयों से वह काम संपन्न नहीं हो रहा था। उस अवसर पर पेरुंतच्चन उधर से अपना वसूला-आरी सब एक गठरी में लिये जा रहा था। बढ़इयों ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया तो यह पेरुतंच्चन को अखर गया। उन्होंने बढ़इयों को एक सबक सिखाने का सोचा। जब बढ़ई लोग भोजन के लिए गए तब पेरुंतच्चन ने अपने वसूले से कुछ शहतीरों पर एक नई लकीर खींच दी और चुपचाप घर चले। भोजन के बाद लौट आए बढ़इयों ने लकीर देखी तो सोचा कि यह पेरुतच्चन द्वारा खींची गई लकीर होगी। उन्होंने शहतीरों को नई लकीर पर काट दिया। जब साँचे में वे शहतीर जमाने लगे तो शहतीर छोटे होने के कारण जम नहीं पाए। चिंतित होकर सब घर लौट गए।
पेरुंतच्चन ने शहतीरों के कुछ खास प्रकार के टुकड़े तैयार किए और दूसरे दिन मंदिर के निर्माण की जगह पर पहुँच गए। पुत्र भी साथ था। पेरुंतचचन जब वहाँ पहुँच गए, तब कोई बढ़ई वहाँ नहीं था। उन्होंने छत पर चढ़कर साथ लाए लकड़ी के टुकड़े स्थान-स्थान पर रखकर हाथौड़े से छत का साँचा ऐसा जमाया कि बड़ी आवाज के साथ छत जम गई। आवाज सुनकर बढ़ई लोग दौड़े-दौड़े आए और यह दृश्य देखकर वे अत्यधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने पेरुतच्चन और पुत्र की खूब तारीफ की। सभी जगहों से उन दोनों को आमंत्रण आने लगे। पुत्र की कुशलता पर कभी-कभार पिता का दिल जल उठता था। एक दिन पिता-पुत्र दोनों किसी बड़े मंदिर के निर्माण में लगे थे। पेरुंतच्चन छत के ऊपर बैठकर वसूले से कोई काम कर रहा था। ठीक नीचे जमीन पर सिर झुकाए बैठकर पुत्र कोई तख्ता बना रहा था। पिता ने एक पल रुककर नीचे की ओर देखा। एक क्षण उन्हें लगा कि वह उनका पुत्र नहीं बल्कि प्रतिद्वंद्वी है। तत्क्षण उसका वसूला हाथ से छूटकर उस युवा कलाकार की गरदन पर जा गिरा। उसका सिर धड़ से जुदा हो गया। अगले पल पेरुंतच्चन नीचे कूद पड़ा और अपने प्राणप्यारे का कटा सिर गोद में लिये विलाप करने लगा। पेरुंतच्च का शेष जीवन पछतावे और पुत्र शोक में बीता।
(यह लोककथा भारत के विविध राज्यों में भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रचलित है।)
नाराणत्तु भ्रांतन (पागल नारायण)
नाराणत्तु भ्रांतन केरल के एक बड़े ज्ञानी पुरुष थे। उनकी सिद्धियाँ अलौकिक थीं। किंतु वे ऐसे अजीबोगरीब काम किया करते थे, जो साधारण लोगों की दृष्टि में पागलपन के लगते थे। इसलिए साधारण लोग उन्हें ‘पागल’ या भ्रांतन पुकारते थे। (मलयालम शब्द ‘भ्रांतन’ का मतलब है पागल तथा नाराणत्तु नारायण का तद्भव रूप है।) पागल पुकारने पर भी साधारण लोग उनके प्रति बड़ा श्रद्धा भाव रखते थे। वे उन्हें बड़े दार्शनिक ही समझते थे।
नाराणत्तु भ्रांतन ब्राह्मण थे, किंतु जाति-पाँति या छुआछूत का कोई विचार उन्हें छू तक नहीं गया था। किसी का भी दिया हुआ खाना वे खा लेते थे। उनकी शारीरिक शक्ति अद्भुत थी और वे बड़े-से-बड़े कठिन काम भी अनायास कर डालते थे। उनका एक विचित्र विनोद था। किसी ऊँचे टीले पर जाकर के भारी पत्थर ढूँढ़ लेते। उन पत्थरों को एक-एक करके बड़े परिश्रम से ऊपर की ओर लुढ़काते-लुढ़काते टीले के ऊपर तक पहुँचा देते। जब पत्थर टीले के ऊपर जाता तब वे एक पल रुक जाते। उसके बाद चारों ओर देखकर वे उस पत्थर को नीचे की ओर लुढ़काते। पत्थर तेज गति से लुढ़कते-लुढ़कते नीचे जमीन पर आ जाता। यह दृश्य देख वे तालियाँ बजा-बजाकर स्वयं ठहाका मारकर हँस लेते। यही दशा देखकर वे हँसते थे कि किसी के ऊपर तक पहुँचने में कितना कष्ट होता है और कितनी जल्दी वह नीचे की ओर आ जाता है।
नाराणत्तु भ्रांतन से संबंधित कई लोककथाएँ केरल में प्रचलित हैं। उनमें एक यक्षिणी से संबंधित है। श्मशान में घूमना-फिरना नाराणत्तु भ्रांतन की आदत थी। एक बार वे श्मशान में बैठे थे तो अकस्मात् एक यक्षिणी उनके सामने प्रकट हुई और उनसे कोई वर माँग लेने को कहा। नाराणत्तु ने कहा कि “तो मुझे उस दिन के दो दिन बाद मरने का वर दे दें।” यक्षिणी ने बताया, “मौत का दिन और वक्त जन्म के समय ही निश्चित हो जाता है। इसलिए यह वर भी मैं दे नहीं सकूँगी।” यह सुनकर नाराणत्तु भ्रांतन जोर-जोर से हँस पड़े और बोले, “यह भी नहीं! तो क्या वर देंगी?” यक्षिणी बोली, “मैं आ ही गई तो कोई-न-कोई वर तुम्हें माँगना ही पड़ेगा।” नाराणत्तु भ्रांतन ने तब कहा, “अगर बात ऐसी है तो मेरे दाहिने पैर में जो सूजन है, उसे बायें पैर में कर दी।” यक्षिणी को अपनी निस्सारता पर बड़ी ग्लानि हुई। नाराणत्तु भ्रांतन फिर ठहाका मारकर हँसने लगे।
नाराणत्तु भ्रांतन से जुड़ी और एक कथा भी है। काली चींटियों को लंबी पंक्तियों को देखते रहना और उनको गिनना उनका एक व्यसन था। किसी दिन वे यों चींटियों को गिन रहे थे कि उधर से जानेवाले किसी यात्री ने उनसे पूछा, “कितनी हो गईं?” तुरंत ही नाराणत्तु ने उत्तर दिया, “दस हजार अब जाने के लिए बाकी हैं। उन्हें भी जाने दें। तब सबकुछ ठीक हो जाएगा।” जिस यात्री ने नाराणत्तु से यह प्रश्न पूछा था वह व्यक्ति कई सालों से पेट दर्द से पीड़ित था। इलाज के लिए दस हजार खर्च कर चुका था। दस हजार की रकम उसके पास बची थी। पागल नाराण के कहने का मतलब यही था कि दस हजार की जो रकम बची है, वह भी खर्च जब हो जाए तो पेटदर्द से शायद छुटकारा मिले। यात्री ने नाराणत्त का संकेत समझ लिया। उसने अपने पास बचे दस हजार रुपए इलाज तथा अन्य पुण्य कर्मों में खर्च कर दिया। उसका पेट दर्द भी दूर हो गया।
पाक्कनार
वररुचि की संतानों में पाक्कनार भी एक था। निम्न जाति वालों के कुल में उसका पालन-पोषण हुआ था। वह ताड़पत्र का छाता बनाकर बेचने का काम करता था। उससे उसकी जीविका चलती थी। परंपरागत पेशा करके जीविकोपार्जन करने में वह गर्व का अनुभव करता था।
अपने माता-पिता का श्राद्ध जब भाई अग्निहोत्री के गृह में मनाया जाता, तब पाक्कनार अवश्य भाग लेता था। दूसरे भाइयों के समान वह भी अपनी ओर से कोई चीज लाया करता था। अकसर वह मांस ही लाया करता था। यद्यपि अग्निहोत्र की ब्राह्मणी पत्नी तथा श्राद्ध में भाग लेने वाले और लोगों के लिए यह अखरता था तो भी कोई कुछ भी अनिष्ट प्रकट नहीं किया करते थे। अग्निहोत्री के भाई जो कोई भी चीज लाते, उन सबका पाचन ब्राह्मणी किया करती थी और श्राद्ध-भोजी ब्राह्मण उन्हें खा लिया करते थे। एक बार जब श्राद्ध मनाया जा रहा था, तब पाक्कनार एक गाय का थन काटकर एक पत्ते में पोटली सी बाँध कर लाया और ब्राह्मणी के हाथों सौंप दिया। श्राद्ध के भोज के लिए आवश्यक चीजों का पाचन होने लगा तो ब्राह्मणी ने पाक्कनार द्वारा लाई गई पोटली खोल ली। जब पता चला कि वह गाय का थन है तो घृणा के मारे उसने उसे ज्यों-का-त्यों आँगन में गड्ढा खोदकर गाड़ दिया।
श्राद्ध का भोज शरू हुआ तो अपने द्वारा लाई गई चीज को न पाकर पाक्कनार ने पूछा कि उसके द्वारा लाई गई चीज कहाँ है? ब्राह्मणी मौन खड़ी रही तो पाक्कनार ने उसे सच बताने को विवश कर दिया। आखिर उसे सारा वृत्तांत कहना पड़ा। पाक्कनार ने एकदम आज्ञा दी, “तो जाकर देख लें कि वह उग आया है कि नहीं?” ब्राह्मणी ने जाकर देखा तो उससे कोपलें निकल आई थीं और लहराते हुए बहुत सारे फलों के साथ वह सब कहीं फैला था। उसने आकर पाक्कनार को खबर दी, तब पाक्कनार ने कहा, “उनमें से एक फल ही सही निकालकर भूनकर ले आना।” पुरोहित का भोजन हो चुकने के पहले ही फल भूनकर लाया गया और परोसा भी गया। कहा जाता है कि वह परवल ही था। एक कहावत भी प्रचलित है कि परवल तथा मुर्गी जहाँ होती हैं, वहाँ श्राद्ध बनाने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात् जहाँ परवल होता है, वहाँ श्राद्ध के न मनाने पर भी बुजुर्ग लोग प्रसन्न हो जाते हैं, जबकि मुर्गी जहाँ होती है, वहाँ पवित्रता के साथ श्राद्ध मना न पाने के कारण श्राद्धकर्म करने से भी कोई प्रयोजन नहीं है।
एक बार पाक्कनार अपने घर में बैठे थे कि सामने के रास्ते से कुछ ब्राह्मणों को कहीं जाते हुए देखा। पाक्कनार ने उठकर उनकी वंदना की और पूछा कि वे कहाँ जा रहे हैं। एक ब्राह्मण ने कहा कि वे काशी में गंगा-स्नान के लिए जा रहे हैं। तब पाक्कनार ने उनसे प्रार्थना की कि वह अकिंचन एक छड़ी देगा। उसे भी गंगा के पुण्य तीर्थ में डुबो ले आने की कृपा करें। पाक्कनार ने जो छड़ी दी, उसे लेकर ब्राह्मण लोग वहाँ से निकले। काशी जाकर गंगा स्नान करते वक्त ब्राह्मण ने उस छड़ी को जल में डुबोया तो महान् आश्चर्य! उन्हें लगा कि कोई जल के भीतर से छड़ी को खींच रहा है तथा छड़ी पानी में डूब गई। लौटकर पाक्कनार के पास जाकर क्या कहेंगे—यह सोचकर ब्राह्मण लोग बड़े दुखी हुए। उन लोगों ने गंगा स्नान किया, विश्वनाथजी के दर्शन किए, अन्य अनेक पुण्य तीर्थों की यात्रा की, आखिर लौट आए और पाक्कनार के पास पहुँचे। उन लोगों ने पाक्कनार से छड़ी के जल में डूब जाने की कहानी कह सुनाई।
पाक्कनार ने कहा, “छड़ी तो गंगा में ही डूब गई न, यह अच्छा ही हुआ।” यों कहकर वे उन ब्राह्मणों को साथ लेकर घर के पास के तालाब गए और उसके किनारे खड़े होकर कहा, “मेरी छड़ी दिला दो।” तुरंत ही उस तालाब के जल से छड़ी उभर आई और पाक्कनार ने उसे पकड़ लिया। ब्राह्मणों को यह तथ्य समझ लेने में थोड़ा भी विलंब न हुआ कि संसार में जो कुछ भी जल के रूप में विद्यमान है, वह सब गंगा ही तो है। सच्चे भक्त को मुक्ति पाने के लिए गंगा स्नान करने के लिए काशी जाने की आवश्यकता नहीं है। मन चंगा तो कठौती में गंगा'।
अकवूर चात्तन
वररुचि और चंडालिन की जनमी तथा विविध कुलों में पली संतानों में एक था अकवूर चात्तन। अकवूर के पंडितश्रेष्ठ नंपूतिरि के सेवक के रूप में वे रह रहे थे। उनके पांडित्य और चमत्कारपूर्ण कार्यों के कारण लोग उनका बड़ा सम्मान करते थे।
अकवूर नंपूतिरि प्रतिदिन सुबह उठकर स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर साढ़े सात बजे से दोपहर तक पूजापाठ किया करते थे। चात्तन ने एक दिन नंपूतिरि से इस पूजा-पाठ के उद्देश्य के बारे में पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि वे परब्रह्म की पूजा-उपासना कर रहे हैं। तब कुतूहल के साथ चात्तन ने उनसे पूछा कि आखिर परब्रह्म कैसा होता है ? चात्तन का यह सवाल नंपूतिरि को नहीं भाया। उन्होंने सोचा कि चात्तन उनकी हँसी उड़ा रहा है। इसलिए उन्होंने जवाब दिया, "वह हमारे 'माटन पोत्त्' (बड़े आकार का भैंसा) जैसा रहेगा।" तब से लेकर नंपूतिरि जब कभी स्नान करके पूजा करने बैठते, तब चात्तन भी स्नानादि कर्म निपटाकर परब्रह्म की पूजा किया करते थे। इकतालीसवें दिन चात्तन का साक्षात्कार 'माटन पोत्त' से हुआ। फिर सदैव वह माटन पोत्त के साथ चलता था। उससे चात्तन जो कुछ भी करने को कहता, पाटन पोत्त वह कर डालता था। लेकिन नंपूतिरि इस बात से अनभिज्ञ थे। यही नहीं नंपूतिरि के लिए वह पोत्त दृष्टिगोचर भी नहीं होता था।
एक दिन नंपूतिरि को दक्षिण की ओर कहीं जाना था। गठरी ढोने के लिए उन्होंने चात्तन को भी साथ लिया। चात्तन ने गठरी को माटनपोत्त के ऊपर रख दिया और नंपूतिरि के पीछे-पीछे चला। थोड़ी देर बाद वे ऐसी एक जगह पहुँच गए, जहाँ का रास्ता अतीव तंग था। नंपूतिरि वह रास्ता पार कर चुके। चात्तन भी पार कर गए। किंतु माटन पोत्त के सींग उधर अटक गए। वह तो वहीं खड़ा रहने को विवश हो गया। चात्तन ने पीछे मुड़कर उससे कहा कि वह जरा सींग झुकाकर आगे बढ़ जाए। यह सुनकर नंपूतिरि ने पीछे मुड़कर देखा तो कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उन्होंने चात्तन ने पूछा कि वह किससे बात कर रहा है? चात्तन ने कहा कि अपने माटन पोत्त से। नंपूतिरि ने पूछा, “मोटन पत्त आखिर कहाँ है? तू किस माटन पोत्त के बारे में कह रहा है ?" चात्तन ने उत्तर दिया, “यहाँ के माटन पोत्त के बारे में। क्या आप देख नहीं पाते? आपकी आज्ञा के अनुसार आपके इस सेवक चात्तन ने माटन पोत्त को यहाँ प्रत्यक्ष कर लिया है।"
यह सुनकर नंपूतिरि ने चात्तन को छूकर देखा तो माटन पोत्त की रूपाकृति में परब्रह्म को प्रकट पाया। नंपूतिरि ने चात्तन के महत्त्व को पहचान लिया और उनका नमन करते हुए कहा, "मुझ से भी अधिक भक्ति तुझ में विद्यमान है।" पल भर में माटन पोत्त भूमि के अंदर ओझल हो गया। किंतु चात्तन हठपूर्वक वहाँ खड़ा रहा और कहा कि माटन पोत्त के बिना वह वहाँ से नहीं जाएगा। तब नंपूतिरि ने पूछा, "अरे! अब मैं क्या करूँ?" चात्तन ने जवाब दिया, "ऊपर चढ़ने के लिए धागा है न? उसके जरिए ऊपर चढ़िए।" नंपूतिरि ने चात्तन का संकेत समझ लिया। वेद-मंत्र-जाप के द्वारा मुक्ति पाने का प्रयास करने की ओर ही उसका संकेत था। चात्तन के संकेत को मानकर बेमन ही सही, नंपूतिरि चात्तन को छोड़कर चले गए। चात्तन कुछ दिनों के लिए परब्रह्म की पूजा-आराधना करते हुए वहीं रहे। उसको यह ज्ञात था कि हम जिस रूप में परब्रह्म का साक्षात्कार करना चाहते हैं, वह उसी रूप में हमारे सामने प्रकट हो जाता है।
विल्वमंगलम् स्वामी
देवी-देवताओं को अपने दिव्य चक्षुओं से देखने की क्षमता रखनेवाले विल्वमंगलम् स्वामी से जुड़ी कई कथा केरल में प्रचलित हैं।
एक बार अग्रहायण महीने के कार्तिक नक्षत्र के दिन विल्यमंगलम् स्वामी तृश्शूर के वटक्कुन्नाथ मंदिर में दर्शन करने गए। किंतु भगवान् उधर दिखाई नहीं पड़े। स्वामीजी बाहर निकलकर प्रदक्षिण करने लगे। अब भगवान् दक्षिणी दीवार से ऊपर चढ़े सीधे दक्षिणी छोर की ओर मुँह कर बैठे मिले। कारण पूछने पर भगवान् ने कहा कि आज उनकी प्रेयसी कुमारनल्लूर कात्यायनी सद्यस्नाता होकर बाजा बजाकर आने वाली है, उस दृश्य को देखने के लिए ही वे उस ओर मुँह किए बैठे हुए हैं। तदनंतर हर साल कार्तिक महीने के कार्तिक नक्षत्र के दिन सुबह भगवान् के लिए दक्षिणी चहारदीवारी के ऊपर आरती चढ़ाना नित्य की बात हो गई। कहा जाता है कि हर साल उस अवसर पर भगवान् कुमारनल्लूर भगवती की शोभा यात्रा देखने के लिए उस चहारदीवारी पर पधारते हैं।
वैक्कन मंदिर के साथ भी विल्वमंगलम् स्वामी से जुड़ी एक कथा प्रसिद्ध है। एक बार अष्टमी के दिन विल्वमंगलम् स्वामी वैक्कम मंदिर में दर्शनार्थ गए तो मंदिर के भीतर ब्राह्मणों की एक बड़ी सी भीड़ को भोजन करते हुए पाया। स्वामी अंदर घुस गए तो गर्भगृह में भगवान् दिखाई नहीं दिए। स्वामीजी मंदिर भर में भगवान् को ढूँढने लगे तो भगवान् को एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में मंदिर के एक स्तूप के नीचे बैठकर भोजन करते हुए पाया। स्वामीजी ने अपनी दिव्यदृष्टि से भगवान् को पहचान लिया और पास जाकर उनकी वंदना की तथा सारे लोगों को इसकी सूचना भी दी। उस दिन से लेकर जब कभी वैक्कम मंदिर में प्रीतिभोज चलता है, तब उस स्तूप के पास भगवान् के नाम पर एक पत्ता अलग से रखकर उस पर सारे के सारे व्यंजन परोसे जाते हैं। वैक्कम मंदिर में अष्टमी के दिन का प्रीतिभोज बहुत ही प्रसिद्ध है।
अनंत वन और श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर
विल्वमंगलम् स्वामी जब विष्णु-पूजा करते थे, तब भगवान् कृष्ण बालक के रूप में उनके सामने प्रकट होते थे। स्वामी भगवान् को 'उण्णी' (लाल) पुकारते थे। जब कभी भगवान् बालक के रूप में प्रकट होते थे, तब पूजा में लीन स्वामी की देह पर कूद पड़ते, पूजा के लिए रखे फूल, पत्ते, बरतन आदि को तितर-बितर कर देते तथा न जाने कैसे-कैसे नटखटपन किया करते थे। एक दिन बालक की शरारतों से तंग आकर स्वामी ने उसे बाएँ हाथ की उँगली से हटा दिया। बालक नाराज होकर यों कहकर अप्रत्यक्ष हो गया कि आगे उनके दर्शन करना है तो अनंतवन आना है। अनंत वन की खोज में स्वामी मारा फिरने लगे, किंतु अनंतवन का पता नहीं चला। कड़ी धूप में चलते-फिरते वे अंत में थके-माँदे किसी पेड़ की छाँह में बैठ गए। अपनी करनी पर उन्हें पश्चात्ताप हुआ। उस अवसर पर निकट की किसी कुटिया में पति-पत्नी के बीच झगड़ा हो रहा था। क्रुद्ध होकर पति कह रहा था, 'आगे कहीं तू मेरा सामना करने आवे तो मैं तुझे टुकड़ा-टुकड़ा करके अनंतवन में फेंक दूंगा।' यह सुनते ही स्वामी उस व्यक्ति के पास पहुँचे और अनुनय-विनय करके उसके क्रोध को शांत कर दिया और आखिर उन्होंने उनसे अनंतवन का रास्ता जान लिया।
वह वन कंकड़-पत्थरों, काँटों और पेड़-पौधों से भरा हुआ था। भगवान् के दर्शनों की उत्कट अभिलाषा के कारण स्वामी इन कठिनाइयों की तनिक भी परवाह किए बिना वन में घुस गए और भगवान् को ढूँढ़ने लगे। थोड़ी दूर चलने पर उन्हें भगवान के दर्शन प्राप्त हुए। किंतु वहाँ वे बालक के रूप में उपस्थित नहीं थे। एक महुआ की छाँह में सिर रखे अनंत नाग पर लेटे थे। चरणों के तले भूदेवी और लक्ष्मीदेवी बैठी थीं। तुरंत ही स्वामी ने भगवान् के चरणों पर दंडवत् प्रणाम किया। स्वामी को देख भगवान् भी अत्यंत आनंदित हुए और बोले, "कई दिनों से भूखा हूँ। अब मुझे भरपेट कुछ-न-कुछ खिला दो न?" स्वामी के पास कुछ भी नहीं था। उधर वन में आम के पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे फल गिरे हुए थे। स्वामी ने कुछ फल इकट्ठा करके एक पत्थर पर कुछ घिसवाकर वहीं पड़े हुए एक नारियल के छिलके में भरकर भगवान् के भोग के रूप में चढ़ा दिया। भगवान् ने अतीव प्यार के साथ उसे खा लिया और वे प्रसन्नचित्त हो गए।
उसके बाद स्वामी ने तिरुबितांकूट के महाराजा को यह सूचना दी कि अनंतसायी भगवान् श्री पद्मनाभ स्वामी से अनंत वन में उनका साक्षात्कार हो गया है। उन दिनों तिरुवितांकूट की राजधानी पद्मनाभपुरम् में थी। महाराजा भी वहीं रहते थे। स्वामी के दिव्य दर्शनों की सूचना पाकर महाराजा पद्मनाभपुरम् के आसपास के ब्राह्मणश्रेष्ठों को साथ लेकर अनंतवन पधारे। महाराजा और परिजनों को भगवान् के दर्शन नहीं मिले। किंतु स्वामी की सिद्धि से वे भली-भाँति परिचित थे। इसलिए स्वामीजी के कथनानुसार महाराजा ने अनंत वन एवं आसपास की जगह के पेड़-पौधों को काटकर अलग कर देने और नियत स्थान पर एक मंदिर का निर्माण करने की आज्ञा दी। आठ मठों से आए पुरोहितों ने सारा कार्य संपन्न कर दिया।
मंदिर का निर्माण संपन्न हो गया तो महाराजा ने पुजारियों की सहायता ने शुभ मुहूर्त में मंदिर में श्री पद्मनाभ स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करा दी। अनंत नाग पर लेटे हुए श्री पद्मनाभ स्वामी की उसी रूप की मूर्ति प्रतिष्ठित हुए, जिसके दर्शन विल्वमंगलम स्वामी ने किए थे। अब भी मंदिर में भगवान् की वही मूर्ति विराजमान है।
सबकुछ समंगल संपन्न हुआ तो विल्वमंगलम् स्वामी को उधर से वापस भेजना महाराजा के लिए तथा पद्मनाभ स्वामी को छोड़ जाना विल्वमंगलम् के लिए असहनीय सा लगा। अतएव मंदिर के निकट ही पश्चिमी ओर महाराजा की आज्ञा के अनुसार एक मठ स्वामी के लिए बनवा दिया गया। स्वामी वहाँ रहने लगे और नियमित रूप से मंदिर जाते तथा भगवान् के चरणों पर पुष्पांजलि चढ़ाने का कार्य कर देते थे। राजा ने प्रतिदिन नियमित रूप से भगवान् के श्रीचरणों पर पुष्पांजलि चढ़ाने का आदेश दिया। स्वामी ने एक सुयोग्य नंपूतिरि को दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। महाराजा की ओर से यह घोषणा भी हुई कि पुष्पांजलि चढ़ाने वाले साधु 'पुष्पांजलि स्वामी' की उपाधि से सम्मानित हों। फलतः विल्वमंगलम् स्वामी के शिष्य भी 'पुष्पांजलि स्वामी' हो गए। उसी स्वामी की शिष्य-परंपरा का कोई व्यक्ति आज भी पद्मनाभ स्वामी की पुष्पांजलि के लिए नियुक्त होता है। आज तिरुवनंतपुरम् नाम से जो नगर सुशोभित है, वह पुराने जमाने में एक बड़ा सा वन था, जिसका नाम 'अनंतवन' था। तिरुवनंतपुरम् में श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर की स्थापना का श्रेय विल्वमंगलम् स्वामी को है।
विल्वमंगलाम और श्रीकृष्णकर्णामृतम्'
विल्वमंगलाम स्वामी पूर्वाश्रम में गृहस्थ थे। अपने घर के करीब दो-तीन मील दूर रहनेवाली एक ब्राह्मणेतर जाति की स्त्री चिंतामणि को उन्होंने सहधर्मिणी बना लिया था। उस स्त्री से उनका इतना गहरा प्रेम था कि कहीं भी चले जाने पर भी रात के वक्त वे पत्नी के पास जरूर पहुँच जाते थे। एक दिन दोपहर के वक्त मूसलधार वर्षा शुरू हुई। रात तक वर्षा के थम जाने की प्रतीक्षा थी। किंतु दस बजने पर भी घनघोर वर्षा होती रही। तिसपर अमावस्या का घनघोर अंधकार भी चारों ओर छाया हुआ था। फिर भी एक बत्ती जलाते हुए विल्वमंगलम् अपने घर से निकले। वर्षा के कारण बत्ती बुझ गई। किसी-नकिसी प्रकार रास्ता टटोलते हुए वे आगे बढ़े। नदी के किनारे पहुँच गए। नदी में बाढ़ आई हुई थी। किनारे पर न कोई मल्लाह था और न कोई नाव भी। वे बड़े चिंतित हुए। इतने में एक बिजली कौंध उठी और उसकी चमक में उन्होंने तट पर एक लट्ठा देखा। उस पर चढ़कर किसी-न-किसी प्रकार नदी पार पहुँच गए।
वर्षाजल में भीगकर वे अपनी पत्नी के घर पहुँचे। पत्नी दीपदान के सामने बैठी कोई किताब पढ़ रही थी। युवक विल्वमंगलम् गीले कपड़े बदल रहे थे कि पत्नी ने उन्हें पानदान ला दिया। बीड़ा बनाते हुए उन्होंने अपनी पत्नी को रास्ते में बीती बाधाओं के बारे में सुना दिया। वह साध्वी अत्यंत खिन्न हुई। विल्वमंगलम् के समान वह भी बड़ी विदुषी थी। उन्होंने दीवार पर टंगे श्रीकृष्ण चित्र की ओर इशारा करते हुए कहा, "मेरी धुन में आप इतने चिंतित क्यों होते हैं? अगर भगवान् के प्रति आपकी इतनी आस्था होती तो कितना अच्छा होता। इस ब्राह्मण-जन्म को आप क्यों व्यर्थ कर रहे हैं?" अपनी प्रियतमा के ये शब्द युवक के अंतस्थल में घुस गए। थोड़ी देर तक भगवान् श्रीकृष्ण के चित्र की ओर आँख गड़ाए वे बैठे रहे। फिर बोले, “हाँ, तुम्हारी बातें अक्षरश: सही हैं। मेरी आँखें अभी खुल गई हैं। मेरा मन भगवान् पर अर्पित हो चुका है। तुम सचमुच मेरी गुरु हो।" इतना कहकर वे श्रीकृष्ण के चित्र की ओर निहारते बैठे रहे। एकाएक उनके मुँह से श्लोक पर श्लोक बह निकले। सारे-के-सारे श्लोक श्रीकृष्ण की लीला से संबंधित थे। इन्हीं श्लोकों का संग्रह है 'श्रीकृष्णकर्णामृतम्'। ये श्लोक कान के लिए अमृत ही हैं। एक ओर विल्वमंगलम् के मुँह से श्लोक निकलते रहे और उनकी पत्नी उसे लिपिबद्ध करती रही। जब वे श्लोक सुनाते गए, तब दीवार पर लटका श्रीकृष्ण का चित्र अपना सिर हिलाता था। जिन श्लोकों को सुनकर श्रीकृष्ण ने आनंदविभोर होकर सिर हिलाया, केवल उन श्लोकों को ही पत्नी ने लिपिबद्ध कर लिया था। श्लोकों की समाप्ति पर विल्वमंगलम् अपने घर पहुंच गए और स्वयं उन्होंने सन्यांस-दीक्षा ली, तब स्वामी विल्वमंगलम् नाम से विख्यात हुए। (केरल में प्रचलित इस जनश्रुति का तुलसीदास और रत्नावली की कथा से अद्भुत साम्य)।
गुरुवायूर का श्रीकृष्णमंदिर
मध्य केरल के तृश्शूर (त्रिशिवपेरूर) जिले के 'चावक्काट' तालुके में स्थित एक छोटा सा शहर है 'गुरुवायूर'। यहाँ का श्रीकृष्ण मंदिर भारतवर्ष के अति प्राचीन और गरिमामंडित कृष्णतीर्थों में प्रमुख है। इस मंदिर से जुड़ी कई लोककथाएँ केरल में प्रचलित हैं। माना जाता है कि यदुवंश के विनाश के उपरांत उनके द्वारा पूजित कृष्णमूर्ति को, कृष्ण के परम भक्त उद्धव की विनती पर देव गुरु बृहस्पति और वायुदेव ने यहाँ लाकर प्रतिष्ठित कर दिया था। यों गुरु और वायु के द्वारा प्रतिष्ठित होने के कारण इस मंदिर का नाम 'गुरुवायूर मंदिर' पड़ गया। इस मंदिर की ख्याति के साथ-साथ यह प्रदेश की गुरुवायूर (गुरुवायुपुर) नाम से अभिहित हुआ। गुरुवायूर के श्रीकृष्ण 'गुरुवायूरप्पन' पुकारे जाते हैं। अपने सर्वविध ऐश्वर्यों और चमत्कारों के कारण गुरुवायूर का श्रीकृष्ण मंदिर प्राचीन काल से जनमानस को आकृष्ट करता आया है। ऐसी मान्यता है कि जगद्गुरु आचार्य शंकर यहाँ पधारे थे। उन्होंने इस मंदिर के आराधना-क्रम में आवश्यक सुधार-परिष्कार कर दिए थे। गुरुवायूरप्पन के चमत्कारपूर्ण कार्यों पर कई जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। इतिहास साक्षी है कि टीपू सुल्तान के भीषण हमले के समय अनगिनत मंदिरों को तहस-नहस करनेवाले टीपू ने अपनी सेना को गुरुवायूर के मंदिर को रत्ती भर भी हानि न पहुँचाने का हुक्म दिया था। गुरुवायूर के श्रीकृष्ण की अनंत कृपा से सुप्रसिद्ध संस्कृत पंडित एवं महाकवि मेल्पुत्तूर नारायण भटिटरि अपने वातरोग से विमुक्त हो गए थे। बीसवीं शती में भी अन्य अनेक आस्तिकों के साथ सुविख्यात कर्णाटक संगीतज्ञ चेंबै वैद्यनाथ भागवतर गुरुवायूर के श्रीकृष्ण के कृपापात्र बने थे और अपनी विनष्ट स्वरमाधुरी पुनः प्राप्त कर सके थे।
मेलपुत्तर अपने समय के सबसे प्रतिष्ठित संस्कृत पंडित और कवि थे। अपने दीर्घकाल के वातरोग से मुक्ति पाने के लिए वे गुरुवायूर आए। यह कथा प्रचलित है कि मेल्पुत्तूर ने एक बार मलयालम के सर्वश्रेष्ठ भक्तकवि तुंचत्त एषुत्तच्छन से रोगशांति के उपाय तथा नया काव्यसृजन संबंधी उपदेश माँगा था तथा एषुत्तच्व्वन ने उन्हें 'मीन् तोटु कूट्टणं' (मछली चख लो अथवा मत्स्य से शुरू करो) का उपदेश दिया था। इसी आदेश पर महाज्ञानी मेल्पुंतूर ने मत्स्यावतार से अपने काव्य 'नारायणीयं' का श्रीगणेश किया था। 'नारायणीयं' में मेल्पुत्तूर ने श्रीमद्भागवत का सार-संक्षेप 1036 श्लोकों में प्रस्तुत किया है। भक्ति का सांगोपांग एवं रोमांचकारी वर्णन प्रस्तुत कृति में उपलब्ध है। भगवान् की लीलाओं और अवतारों के वर्णन से अभिमंडित यह कृति 'आयुरारोग्य सौख्यकारी' समझी जाती है। जनश्रुति है कि 'नारायणीयं' की रचना की पूर्ति के साथ-साथ मेल्पुत्तूर रोगमुक्त भी हो गए।
मलयालम में कृष्ण भक्ति की अजस्रधारा बहाने वाले कवियों में प्रमुख पूंतानम नंपूतिरि भी गुरुवायूरप्पन के परम भक्त थे। पूंतानम गृहस्थ भक्त थे। अनपत्य दुख ने उनको भगवान् के प्रति अधिक उन्मुख कर दिया था। भगवान् की कृपा से उनके एक पुत्र पैदा हुआ था। किंतु विधिवश अन्नप्राशन के दिन ही उसकी असामयिक मृत्यु हो गई। तदनंतर पूंतानम गुरुवायूर के श्रीकृष्णमंदिर में अपने इष्टदेव के संकीर्तन में ही दिन-रात व्यतीत करते थे। गोवर्धन के श्रीनाथजी के मंदिर में सूरदासजी जब तन्मय होकर कृष्ण संकीर्तन किया करते थे, तब कविता, संगीत और भक्ति की त्रिवेणी धारा में जिस भाँति भक्तजन निमग्न होकर निर्वृत्ति प्राप्त कर लेते थे, उसी प्रकार गुरुवायूर के श्रीकृष्ण मंदिर में भक्ति में तल्लीन होकर पूंतानम जब कृष्ण-संकीर्तन किया करते थे, तब भक्तजन उसका श्रवण कर सायूज्य प्राप्त कर लेते थे।
शबरिमला धर्मशास्ता (अय्यप्पा ) मंदिर
शबरिमला के सुप्रसिद्ध धर्मशास्ता मंदिर की स्थापना से संबंधित लोककथा केरल में खूब प्रचलित है। एक बार मदुरै के पांड्य राजा शिकार के लिए जंगल गए तो उन्होंने एक तेजस्वी बालक को तेजी से बाण चलाते हुए देखा। उस बालक की ओजस्विता और तेजस्विता पर राजा मुग्ध हो गए। बाण चलाकर हिंस्र जंतुओं की हत्या करनेवाले बालक को निकट बुलाकर राजा ने उसका नाम, कुल आदि के बारे में पूछ लिया। बालक ने उत्तर दिया कि न उसका कोई वास स्थान है, न घर-बार। सारा विश्व ही उसका अपना घर है। उसने यह भी कहा कि लोग उसे 'अय्यप्पन' पुकारते हैं। सच में उसके अपने माँबाप जीवित नहीं हैं। साक्षात् महामाया उसकी माता है और महादेव उसके पिता हैं। केरल में उसके पोष्य पिता रहते हैं, अतः वह केरलीय है। बालक के ये वचन सुनकर राजा ने सोचा कि यद्यपि यह बालक अनाथ है तो भी शस्त्र-विद्या में अति निपुण है। राजा उसे अपने साथ राजमहल ले गए और उसे अपना सैनिक बना लिया।
उन दिनों पांड्य राज्य में हमेशा ही लड़ाई-झगड़ा हुआ करते थे। अय्यप्पन के आगमन से जीत हमेशा उनकी हुआ करती थी। शत्रु-पक्ष चाहे जितना ही प्रबल क्यों न हो, अय्यप्पन अकेले उन पर विजय पा लेता था। इसलिए पांड्य राजा ने उसे अपना सेना-प्रधान बना दिया। यों स्थायी रूप से अय्यप्पन पांड्य राज्य में रहने लगे तो शत्रुगण भयभीत हो गए। राजा अत्यधिक प्रसन्नचित्त हो गए। अय्यप्पन पर राजा की बढ़ती अवस्था देखकर पहले ही सिपाही उनसे रुष्ट थे और उन्होंने अय्यप्पन को किसी न किसी प्रकार वहाँ से भगाना चाहा। इसके लिए आवश्यक षड्यंत्र भी बनाया।
उन सिपाहियों के एक दल ने गुप्त रूप में राजा की पटरानी को कुछ भेंट की और अपनी फरियाद सुनाई। उन्होंने कहा कि राजा उनसे ज्यादा अय्यप्पन का मानते हैं। अत: केरल के अय्यप्पन को किसी-न-किसी प्रकार देश से हटाना चाहिए। सिपाहियों की दुख-गाथा सुनकर रानी का मन पिघल उठा। उन्होंने कुछ करने का निर्णय लिया। सिपाहियों ने एक उपाय ढूँढ़ निकाला और राजपत्नी से कहा कि उनको सख्त पेट-दर्द का बहाना करते हुए कराहते रहना चाहिए। वैद्य को बुलाकर बाकी सब करने का कार्य वे कर लेंगे। षड्यंत्र के अनुसार नियत दिन रानी बीमार पड़ी। पेट-दर्द से कराहती अपनी प्रेयसी को देख राजा विह्वल हो उठे। तुरंत ही वैद्य बुलाए गए। किंतु चिकित्सा का कोई प्रयोजन नहीं हुआ। पेट दर्द बढ़ता गया। आखिर सैनिकों ने रिश्वत देकर एक वैद्य को बुलाया। वह आया और उसने कहा कि इस रोग की शांति के लिए बस एक ही दवा है। वह है बाघिनी का दूध। कोई जाकर बाघिनी का दूध लाएगा तो रानी रोगविमुक्त हो जाएगी। दुर्लभ दवा के बारे में सुनकर राजा एकदम सन्न रह गए। वैद्य की ओर से यह सुझाव आया कि नए सेना-प्रधान को भेजेंगे तो कार्य सिद्धि हो जाएगी। राजा ने बेमन ही अय्यप्पन को पास बुलाया और बाघिनी का दूध लाने की आज्ञा दी। कोशिश करने का वादा कर अय्यप्पन जंगल की ओर चल पड़ा। षड्यंत्रकारियों ने यही सोचा था कि अय्यप्पन जिंदा वापस नहीं आएगा, किंतु भगवान् की लीला कौन जाने?
अय्यप्पन तो जंगल में घुसकर बाघिनी और उसके शावकों के वृंद को लेकर एक व्याघ्र के ऊपर चढ़कर राजधानी आ पहुँचा। व्याघ्रों को देख लोग घबराकर चारों ओर भागने लगे। व्याघ्रों का गर्जन सुनते ही रानी का पेट दर्द भी गुम हो गया और वह उठकर चलने लगी। राजा को लगा कि अय्यप्पन अवश्य ही अलौकिक व्यक्ति है। उन्होंने अय्यप्पन के चरणों पर दंडवत् प्रणाम किया और उनसे क्षमाप्रार्थना की। अय्यप्पन ने कहा कि क्षमाप्रार्थना की कोई बात नहीं। किंतु यहाँ के कुछ सैनिक उसके प्रति ईष्यालु हैं, अत: वह केरल लौट जाना चाहता है। राजा से भी उसने अपने साथ आने को कहा। इतना कहकर व्याघ्रों के साथ अय्यप्पन अप्रत्यक्ष हो गया। अय्यप्पन के विदा हो जाने पर राजा अत्यंत दुखी हुए। अपने राजमहल में राजा दिन-रात चिंता में डूबे रहे। अय्यप्पन की कही बातें उनकी स्मृति में आईं। अब राजा को ज्ञात हो गया कि परमेश्वर को विष्णुमाया में जनमा पुत्र ही 'शास्ता' है। शास्ता का दूसरा नाम ही 'अय्यप्पन' है। तरह-तरह की चिंताओं में डूबे राजा सपरिवार केरल की ओर रवाना हुए। कई प्रदेशों को पार करते हुए वे अंत में 'पंतलम्' आ पहुँचे। उस समय वहाँ के शासक कैप्पुषत्तंपान थे। उनसे थोड़ी भूमि खरीदकर राजा ने एक कोयिक्कल् (मकान) बनाया और सपरिवार वहाँ रहने लगे। पांड्य राज्य से राजा जब पंतलम् आ बसे तब से वे पंतलम् राजा के नाम से माने जाने गए।
पांड्य राज्य से निकलकर अय्यपन सीधे केरल पधारे। पूर्वी केरल में उनकी भेंट परशुरामजी से हुई। परशुराम ने अय्यप्पन से कहा, “हे हरिहरपुत्र! केरल के रक्षार्थ मैंने केरल की पूर्वी दिशा के पहाड़ी प्रांतों और पश्चिमी दिशा के समुद्र तटों पर भगवान् की कई दिव्य मूर्तियों की प्रतिष्ठा की है। अब यहाँ आपका निवास हो, यही मेरा अनुरोध है। आपके दर्शन जिस स्थान पर हुए, वहाँ मैं एक मंदिर बनाऊँगा। इस स्थान पर पुराने जमाने में मातंग मुनि तप किया करते थे, तपस्वियों की पाद-शुश्रूषा के द्वारा तपिस्विनी बनी शबरी को महाराजा दशरथ के पुत्र श्रीरामचंद्रजी के दर्शनों से मुक्ति भी इसी स्थान पर मिली थी। ऐसे पुण्य स्थान पर आपका निवास हो, यही मेरी कामना है। मैं केरल के प्रमुख रक्षक के रूप में आपको ही पाता हूँ। अय्यप्पन परशुराम के मत से सहमत हो गए और शीघ्र ही परशुराम ने वहीं पर अय्यप्पन की प्रतिष्ठा भी कर दी। शबरी के जीवन और मुक्ति से जुड़े उस पहाड़ी प्रांत को 'शबरिमला' या 'शबरिगिरि' नाम भी दिया गया। मलयालम में 'मला' का मतलब है पहाड़। वह स्थान शबरिमला नाम से प्रसिद्ध हो गया।
एक दिन रात को पंतलाम राजा को अय्यप्पन ने स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, "मैं शबरिमला में हूँ। वहाँ पधारकर आप मेरे दर्शन कर सकते हैं।" अगले दिन ही राजा सपरिवार शबरिमला के लिए रवाना हुए। राजा ने शबरिमला पहुँचकर जंगल साफ करके देखा तो परशुराम के द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति दिखाई दी। पर अय्यप्पन का प्रत्यक्ष दर्शन न हो पाने पर राजा दुखी हो गए। तब यह आकाशवाणी सुनाई दी कि “यहीं पर मेरा सान्निध्य है। मेरी मूर्ति की पूजा करने पर सारी मनोकामनाएँ अपने आप पूरी हो जाएँगी।" राजा ने वहाँ रहकर आवश्यक चीजें इकट्ठा करके मंदिर बनवाया और नित्य पूजा-पाठ भी आरंभ कर दिया। उस जमाने में हिंस्र जंतुओं से भरे उस घने जंगल में मनुष्य का हर दिन पूजा-पाठ करना अत्यंत कठिन था। नियम बनाया गया कि हर महीने पाँच दिन की पूजा करना काफी है। (आजकल पूजादि कार्यों में काफी परिवर्तन आए हैं।) मकर संक्रांति के वार्षिक पर्व पर शबरिमला में धूमधाम से उत्सव चलता है। आजकल मकर-संक्रांति के दिन अय्यपपन के दर्शन के लिए 'स्वामिये शरणं अय्यप्पा' (प्रभु अय्यप्पन ही शरण) वाले नामोच्चारण के साथ भक्तजन शबरिमला आते हैं और उनका पुण्य दर्शन कर सायुज्य का अनुभव प्राप्त करते हैं।
शबरिमला में शास्ता या अय्यप्पन के अलावा मालिकप्पुरत्तम्मा की भी प्रतिष्ठा है। अय्यपपन के अनन्य भक्त वावर, जो जाति से मुस्लिम थे, उनकी भी मूर्ति शबरिमला में प्रतिष्ठित है। अय्यप्पन के और एक भक्त कटुत्तु स्वामी' की मूर्ति भी वहाँ स्थित है। एक प्रकार से शबरिमला सर्वधर्म समभाव का केंद्र है। पंतलम में राजमहल के पास भी राजा ने अय्यप्पन का मंदिर बनाया और आज भी वहाँ प्रतिदिन पूजा का कार्यक्रम चलता है।
'मण्णारशाला' का नागमंदिर
मण्णारशाला में स्थित केरल के प्रसिद्ध नाग-मंदिर से जुड़ी कई लोककथाएँ प्रचलित हैं।
परशुराम ने जब परदेश से ब्राह्मणों को बुलाकर केरल में बसाया तब यहाँ सब कहीं साँपों का उत्पात मचा था। इसलिए यहाँ ब्राह्मणों का रहना असंभव सा हो गया। ब्राह्मण लोग अपने देश लौटने लगे तो परशुराम अतीब दुखी हुए। वे सीधे कैलाश गए और अपनी दुखकथा परमेश्वर को सुनाई। परमेश्वर ने सर्पराज वासुकी की पूजा करके उन्हें प्रसन्न करने का उपदेश दिया। परशुराम केरल आए और वासुकी को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे। तप से वासुकी प्रसन्न हुए और प्रकट हुए। परशुराम ने उनसे निवेदन किया, "हे सर्पराज! इस धरती पर आपके वंशज साँपों के यत्र-तत्र घूमने के कारण यहाँ के जल में लवण का लय हो चुका है और यह भूमि मनुष्य के रहने के अनुपयुक्त हो गई है। इसलिए इन दोनों बातों के लिए उपाय ढूँढ़ लेना और इस भूप्रदेश को लोगों के रहने लायक बनाना, बस यही मेरी विनती है।" वासुकी ने कहा, "एवमस्तु! इस केरल भूमि के जल में जो लवण तत्त्व फैला है, उसे मैं इधर से हटाकर समुद्र तथा उससे जुड़े जलाशयों में मिला दूँगा। किसी को कष्ट पहुँचाए बिना आपकी तपस्या के स्थान पर आकर बसने की आज्ञा मैं साँपों को दूंगा। जो शेष रहेंगे, उन्हें धरती के भीतर के बिलों में चले जाने का आदेश दूंगा। आप भी केरल की स्त्रियों से अपने घरों के समीप अलग 'काव' (वन स्थली) बनाकर उसमें स्थानीय सर्गों को अपने कुलदेव के रूप में बसाकर उनकी पूजा करने का आदेश दें। अगर वे सर्प पूजा में कुछ विघ्न डालेंगी तो सर्पगण भी उत्पात मचाएँगे। सर्पो को प्रसन्न रखें तो संतान, संपत्ति और सभी प्रकार के सुख ऐश्वर्य का लाभ प्राप्त होगा।"
वासुकी की बातें सुनकर परशुराम पुनः परदेश गए और ब्राह्मणों को साथ ले आए। यहाँ के जल में जो खारापन था, वह भी दूर हो गया। पूर्णरूप से स्वच्छ जल सब कहीं दिखाई दिया। जिस वनप्रदेश में परशुराम ने तप किया, वहीं अधिकांश साँप एकत्र हो गए। परशुराम की आज्ञा के अनुसार लोग सर्पो की प्रतिष्ठा करके उनकी पूजा करने लगे।
परशुराम ने अपनी तपस्या-भूमि पर नागराज एवं नागयक्षी की प्रतिष्ठा कर उनके वंश के अनेक सर्पो को भी प्रतिष्ठित किया। करीब चौदह एकड़ जमीन पर यों साँपों को बसा दिया। इसे 'सर्पक्काव्' (सर्प मंदिर) पुकारने लगे। दैनिक पूजा एवं वन की सुरक्षा के लिए उस जंगल के निकट ही एक भवन बनाकर एक ब्राह्मण परिवार को उसमें बसा दिया। उस वन के सारे अधिकार इस परिवार के सदस्यों को दिए गए। वे अपने कुलदेवता के रूप में सोँ की आराधना करने लगे। यह परंपरा अब भी जारी है।
जहाँ अब यह मंदिर स्थित है वहाँ पहले घना जंगल था। वह 'खांडव वन' नाम से जाना जाता था। अर्जुन द्वारा यह वन जलाया गया था। इसलिए उस देश का नाम 'चुट्टनाट्' यानी 'जलाया गया स्थान' पड़ गया। कालांतर में वह 'कुट्टनाट्' हो गया। खांडव वन पर फैली आग उधर से सीधे पूर्व दिशा की ओर भी फैल गई। परशुराम के द्वारा प्रतिष्ठित सर्पो के वासस्थान तक आग फैल गई। ब्राह्मण मठों की स्त्रियाँ आग रोकने के लिए निकटवर्ती तालाब से पानी भरकर डालने लगीं। आग से वन तो बच सका। फिर भी अग्नि ज्वाला से मिट्टी गरम ही रही और भीषण गरमी के मारे साँप तड़पने लगे। आग के बुझ जाने पर भी मिट्टी का ताप दूर न हो जाने के कारण स्त्रियाँ फिर भी पानी डालती रहीं। मिट्टी की गरमी दूर हो जाने पर यह आकाशवाणी सुनाई दी, "मण आरि' अर्थात् 'मिट्टी ठंडी हो गई'। इस स्थान का नाम हो जाए 'मण्णारिशाला'। सबने इसे वासुकी वाणी समझ लिया। उस समय से इस स्थान का नाम 'मण्णारिशाला' हो गया, जो कालांतर में 'मण्णारशाला' पड़ गया।
खांडव दाह के बाद मण्णारशाला मठ की एक सुहागिन ब्राह्मणी पुरुष संतान प्राप्ति की अभिलाषा से अपने कुलदेवता सर्यों की पूजा करती रही। कुछ सालों के बीत जाने पर उस साध्वी नारी ने गर्भधारण कर लिया और जुड़वाँ संतान को जन्म दिया। उनमें एक मनुष्य शिशु था और दूसरा साँप का बच्चा था। साँप का बच्चा क्षरण भर में बड़ा होकर अपनी माता से यों बोला, "माँ! इस परिवार के लोगों में साँपों के प्रति विशेष आस्था है। इधर के लोगों के प्रति भी उनका वात्सल्य है। स्त्रियों के प्रति वे बड़ी ममता रखते हैं। अतः परिवार की सबसे बड़ी उम्रवाली स्त्री ही सर्प की पूजा का दायित्व ग्रहण कर ले। कोई कठिनाई अनुभव करे तो वह दायित्व अपनी अगली उत्तराधिकारी को दे।' इतना कहकर पूजा की विधि, मंत्र-तंत्र आदि अपनी माँ को कह सुनाकर वह सर्प उस भवन के गर्भ गृह में जा बैठा। इसके उपदेशानुसार अब भी उस सर्पमंदिर की पूजा-आराधना चलती है।
मण्णारशाला मठ की किसी कन्या का ब्याह कायंकुलम् के आसपास 'वेट्टिक्कोट्ट' मेल्पल्लि नंपूतिरि के साथ हुआ था। दहेज के रूप में मण्णारशाला मठ से एक सर्प दिया। उसे ताड़पात्र की छतरी के सुराख में रखकर दिया गया था। वर उसे लेकर अपने मठ पहुँचा तो साँप मेल्लपल्ली के यहाँ की तख्ती में जा बैठा। यही नहीं, मण्णारशाला की भाँति ही बाड़ी एवं तालाब के साथ वहाँ भी साँपों की प्रतिष्ठा करने का उसने हठ किया। तदनुसार वहाँ भी बड़ा सा सर्प मंदिर बनाया गया।
मण्णारशाला के चमत्कारी कार्यों के बारे में भी कई कथाएँ प्रचलित हैं। साँपों की प्रीति के लिए सब कहीं बर्तन में दूध के साथ चावल का आटा एवं हल्दी का चूर्ण मिलाकर रख दिया जाता है। फिर उस बर्तन को उलटकर रखा जाता है। किंतु मण्णारशाला की तख्ती में जितने साँप हैं उन्हें नैवेद्य चढ़ाते वक्त बरतनों को उलटकर रखा नहीं जाता। पूजा के बाद दरवाजा बंद करके पुजारी लोग बाहर निकल जाते हैं। अगले दिन दरवाजा खोलकर बरतनों को उलटकर देखने पर कुछ भी नहीं दिखता। यह रिवाज आज भी है, जो आश्चर्यजनक है। इस सर्पमंदिर की विशेषता यह भी है कि बिना किसी कारण के यहाँ लोगों को साँप डसते नहीं। कहीं डसा भी करते तो भी न कोई विष फैलता और न विशेष प्रकार का कोई उपचार ही किया जाता।
मण्णारशाला में नागराज के भोग के लिए लोग आम, कटहल आदि के फल ले आया करते थे। एक बार अंबलप्पुषा के आसपास तकषि नामक गाँव के एक परिवार के अहाते में बहुत साल बीत जाने पर भी एक कटहल के पेड़ पर कोई फल नहीं लगा तो एक पड़ोसी ने घर के मालिक से कहा कि अगर इस पेड़ में पहलेपहल लगने वाला फल मण्णारशाला में भोग के रूप में भेंट करे तो इस पर फल निकल आएँगे। मालिक ने यह मनौती माँगी। कुछ दिनों के बाद पड़ोसी ने उसके बारे में पूछा तो मालिक ने जवाब दिया, 'अभी तक एक भी फल नहीं लगा। इसलिए आगे जुड़वाँ फल मैं दे दूंगा।' मौसम आने पर कटहल के पेड़ पर असंख्य फल लगे किंतु सबके सब जुड़वाँ थे। यह देखकर लोगों ने उसे नागराज का चमत्कार समझा। मालिक ने सारे के सारे फल मंदिर में चढ़ाए।
संतान-लाभ, रोग-शांति, भूत-प्रेतों से मुक्ति आदि बहुत सी बातों के लिए लोग मण्णारशाला आते हैं और कई दिनों तक पूजा-आराधना करते हैं। हर साल आश्विन महीने के आश्लेषा (आयिल्यं) नक्षत्र के दिन यहाँ धूम धाम से उत्सव चलता है। कार्तिक महीने के आश्लेष नक्षत्र का उत्सव भी बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।
केरल के नाग-तीर्थों में मण्णारशाला तथा वेट्टिक्कोट, दोनों का ही अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है।
'सुदामा चरित' कार रामपुरत्तु वारियर
रामपुरत्तु वारियर कृत एक लोकप्रिय मलयालम काव्यकृति है 'कुचेलवृत्तं वंचिप्पाट्'। कुचेलवृत्तं से मतलब है 'सुदामा चरित' तथा 'वंचिप्पाट्' से मतलब है 'नौकागीत'। इस कृति की रचना के संबंध में एक लोककथा प्रसिद्ध है।
मीनच्चिल तहसील के रामपुरम गाँव में कवि का जन्म हुआ था। माना जाता है कि रामपुरम गाँव के प्रसिद्ध श्रीकृष्ण मंदिर के निकट के वारियर-घराने में उन्होंने जन्म लिया था। रामपुरम में जन्म लेनेवाले और वारियर जाति (केरल का एक जातिविशेष, जिसके लोग मंदिर में भगवान् को माला गूंथकर जीविका चलाते थे) के होने के कारण आप रामपुरत्त वारियर कहलाए। उनके असली नाम का पता नहीं चलता। वारियर का परिवार अत्यंत गरीब था। किसी-न-किसी प्रकार वे संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर सके थे। गरीबी से तंग आकर वे भगवद् भजन के लिए वैक्कम् नामक स्थान के प्रसिद्ध मंदिर में जाया करते थे। एक बार वहीं संयोगवश उनका साक्षात्कार तिरुवितांकूर के महाराजा मार्तंडवर्मा से हुआ। महाराजा आश्रितवत्सल और महादानी थे। परमकृपालु महाराजा को साक्षात् श्रीकृष्ण तथा दीन-हीन स्वयं को सुदामा के रूप में चित्रित करते हुए वारियर ने एक श्लोक रचा और उसे महाराजा के सामने उपहार-स्वरूप चढ़ाया। श्लोक पढ़कर महाराजा अत्यंत प्रसन्न हुए। वैक्कम् से भगवद् दर्शन के बाद लौटते हुए महाराजा ने वारियर को भी अपने साथ आने की आज्ञा दी। यात्रा नाव में थी। राजा ने कवि से अनुरोध किया कि वे 'नौका-गीत' शैली में सुदामा चरित का आख्यान करें। माना जाता है कि राजा के उसी अनुरोध पर वारियर ने नौका गीत शैली में कुचेलवृत्तं (सुदामा चरित) की रचना की। भक्ति में वारियर हिंदी के सुदामा चरितकार नरोत्तमदास से कहीं ऊँचाई पर खड़े हैं।
राजधानी पहुँचकर राजा ने कई दिनों तक कवि को अपने साथ रखा और फिर जब कवि स्वदेश लौटने लगे तो राजा ने प्रकट रूप से उन्हें कुछ भी नहीं दिया। राजा ने कृष्ण की ही भाँति वारियर को चकाचौंध में डालने का संकल्प लिया था। राजा से कुछ भी प्राप्त न होने पर व्यथित हृदय और खाली हाथ लौटनेवाले वारियर अपने गाँव पहुँचकर अचंभे में पड़ गए। उन्होंने देखा कि अपनी टूटी-फूटी कुटिया के स्थान पर एक पक्का मकान खड़ा है तथा राजा ने उस मकान को समस्त सुख-सुविधाओं और ऐश्वर्यों से भर दिया है। राजा की परम कृपा पर कवि मुग्ध हो गए। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कई साल वे राजा मार्तंडवर्मा के आश्रित और दरबारी कवि रहे और राजा की आज्ञा से उन्होंने जयदेव की सुप्रसिद्ध कृति 'गीत गोविंद' का 'भाषाष्टपदी' नाम से मलयालम में सुंदर काव्यानुवाद किया।