प्रश्नः उत्तर : भूमिका - कहाँ जा रहे है हम (उपन्यास) : अखिलन
Prashna: Uttra : Bhoomika - Kahan Ja Rahe Hain Ham ? (Tamil Novel in Hindi) : P. V. Akilan
‘कहाँ जा रहे हैं हम ?’,देश कहाँ जा रहा है ?
’-इस तरह के प्रश्न देश की आजादी का पहला दशक पूरा
होते-होते,1957 में मेरे मन में उठने लगे थे। चोरबाजारी करनेवाले, जमाखोर
और धनाढ्य लोग,जिन्होंने अँग्रेज हुक्मरानों के लिए चँवर डुलाया था-ऐसे
लोगों को खादी का कुरता पहनाकर तमिलनाडु में जनता के प्रतिनिधियों के रूप
में चुनाव में खड़ा किया गया। यही नहीं,शिक्षित,संस्कार-सम्पन्न तथा
गाँधीवादी विचारधारा में आसक्ति रखनेवाले योग्य व्यक्ति राजनीति में
हाशिये पर धकेल दिये गये।
शिक्षा-ज्ञान,सिद्धान्त के प्रति निष्ठा सेवा-भावना, श्रमशीलता आदि गुणों
के मुकाबले में अवसरवाद धनतन्त्र और जातीय तन्त्र राजनीतिक जीवन की
बुनियादी योग्यता के रूप में माने गये। देश के इस रूख पर मैं बेहद सदमे के
साथ गौर करता रहा।
हालाँकि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ राजतन्त्र का सिद्धान्त
जनतन्त्र के लिए अनभ्यस्त हमारी जनता को सम्भवतः यही रुचिकर एवं अनुकरणीय
लगा हो ! पत्र-पत्रिकाएँ भी, जिनका धर्म जनता के बीच में जनतान्त्रिक
चेतना लाने के लिए राजनीतिक,आर्थिक एवं सांस्कृतिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार
करना है,जनता को धोखा देने लग गयीं। जिन अखबारों ने देश के
स्वतन्त्रता-संग्राम को अपना एकमात्र उद्देश्य मान रखा था,बाद में
खुदगर्जी और मुनाफाखोरी को अपना चरम और परम लक्ष्य मानने लग गये। जिन
लोगों ने देखा कि पत्रिका-व्यवसाय अपनाने पर गलत-सलत तरीके से अकूत
सम्पत्ति और राजनीतिक लाभ मिल सकते हैं वे भी यहाँ खुलकर खेलने लगे। काले
धन को समान के रूप में अपनानेवालों-राजनीति, पत्र-पत्रिका और फिल्म-इन
तीनों ने आपस में एक अलिखित समझौते पर दस्तखत कर लिये थे।
वह जमाना लद गया जब किसी प्रलोभन या भय के बिना जनता के सामने
साहस के साथ
सच्ची बात लिखनेवाले धीर -पुरुष समाचारपत्रों के सम्पादक पद पर विराजे थे।
सुब्रह्मण्य भारती,तिरु,वी.कल्याणसुन्दर
मुदलियार, टी. एस. चोक्कलिंगम, पुदुमैपि-त्तन, कल्की जैसे सम्पादक-रत्नों
का
लेखन पढ़ते हुए मैं बड़ा हुआ था। जिस जगह पर सच्चे मानव बैठकर अच्छे
इनसानों को रूप दिया करते थे,वहाँ हमारी बदकिस्मती से धन-पिशाच आकर बैठ
गया और वह जन-समाज को ठगने और बिगाड़ने लगा। सनसनीखेज खबरें,फिल्मी दुनिया
का नग्न श्रृंगार,स्त्री-पुरुष की मांसलतापूर्ण काम-केलियाँ आदि का जनता
के मध्य प्रति दिन और प्रति सप्ताह प्रचार-प्रसार किया गया। जो महानुभाव
अपने को वेद-शास्त्रों में पारंगत कहलाने में गर्व का अनुभव करते थे,वे भी
इस तरह के कदर्य व्यवसाय में अभिमान के साथ संलग्न हो गये। जब सम्पादकीय
एवं अग्रलेख लिखनेवाला मस्तिष्क ही दूषित तथा कलुषित हो जाए तो समाज का
धड़ कहाँ से स्वस्थ रह पाएगा ? मार्गदर्शक गुरु ही जब फिसलकर गिर जाए तो
फिर देश कहाँ जाएगा ?
जनतन्त्र का मूलाधार है लेखन की स्वतन्त्रता। जनतन्त्र को पालने-पोसने में
सक्षम लेखकीय-स्वतन्त्रता उसे मटियामेट भी कर सकती है एक दशक के इस छोटे
अर्से में समाचारपत्र देश के अन्दर ऐसा स्वस्थ वातावरण पैदा कर सकते थे
जिसमें देश के नागरिक पर्याप्त सुख-सुविधा शिक्षा-संस्कार और राजनीतिक
जागरण के साथ जीवन-यापन करते। अखबारों के पतन से यहाँ अच्छे इनसानों की
किल्लत पड़ गयी,धन प्रबल हुआ और धनतन्त्र का नंगा नाच शुरू हो गया।
‘जनता जिधर को बढ़े सरकार उसी ओर मुड़े’-यही जनतन्त्र
का उसूल है। यहाँ जनता को दोष देना अर्थहीन है. बदकिस्मती यह है कि
अधिसंख्यक तमिल् जनता का मार्गदर्शन करती हैं तमिल फिल्में,और उनके लिए
चँवर डुलाकर पेट पालनेवाली पत्रिकाएँ। यह सच्चाई अब जग-जाहिर हो चुकी है।
आज भी ये पत्रिकाएँ कॉलेजों में शिक्षित युवक-युवतियों के बीच में अमेरिकी
‘हिप्पी’ संस्कृति और अर्ध-शिक्षित नौजवानों के बीच
में तमिल फिल्मी संस्कृति का योजनाबद्ध ढंग से प्रचार करने में लगी हुई
हैं। पैसे की हेकड़ी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है,कम होने का नाम नहीं ले रही।
इधर देश ने महात्मा गाँधी का शताब्दी वर्ष मनाया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति का
रजत-जयन्ती वर्ष निकट आ रहा था। 1970 में ‘कलैमगल’
पत्रिका में ‘ज्वालामुखी’ कहानी के माध्यम से मेरे मन
के भीतर का जलजला फूट पड़ा। उस कहानी की प्रतिध्वनि के रूप में विभिन्न
भागों से गर्जन और घरघराहट मुझे सुनाई दी। प्रशंसा करनेवालों ने दिल खोलकर
उसकी तारीफ की। निन्दा करनेवालों ने उतने ही जोश और आक्रोश के साथ उस
कहानी की आलोचना की। पाठकों की सजगता देखकर मेरे मन में उत्साह बढ़ा।
मैंने सोचा,‘बहरों के सामने शंखनाद करने की गोरखधन्धेवाली
स्थिति’ अब नहीं है। निन्दकों की भी पहचान हो गयी। मैंने ठान
लिया कि जो बात मन को अच्छी लगे,उसे बेखटके लिखता जाऊँगा,जिनमें समझने का
माद्दा हो,समझ लें और जो लोग भावुक हों इन पर चिन्तन करें....आज या कल
अथवा अगली पीढ़ी में उभरनेवाले किसी कर्मवीर के हाथ में यह पड़ जाएँ तो
इसी में मुझे कृतार्थता मिल जायगी।
वेश्यावृत्ति में अपने तन को पूँजी के रूप में लगाकर बेशुमार दौलत बटोरने
की बेहाली के लिए अभिशप्त एक नारी को मैने जानबूझकर इस उपन्यास की नायिका
बनाया। समाज में ‘भद्र लोक’ का चोला पहनकर घूमनेवाले
तथाकथित प्रतिष्ठित लोग वास्तव में इस वेश्या से भी गये-गुजरे हैं। चाँदी
के टुकड़ों के लिए अपने अन्तःकरण, वाणी, कर्म, आत्मा-इन सबका व्यभिचार
करनेवाले कापुरुष हैं ये लोग ! समाज में जहाँ-तहाँ नीच और कदर्य लोग रहते
ही हैं। किन्तु ऐसे पतितों को मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार करनेवाले
समाज का कभी उद्धार हो पाएगा ? इस उपन्यास के माध्यम से मेरा यही प्रश्न
है। इस देश ने गाँधीजी के मार्गदर्शन में आजादी पायी। महज पच्चीस साल के
अन्दर यह बदहाली देखनी पड़ी,क्या यह उचित है ?
बापू के त्याग और बलिदन से इस देश ने जो आजादी पायी,उसमें प्राप्त
लेखकीय-स्वतन्त्रता का मैने इस कार्य में भरपूर उपयोग किया है। इस उपन्यास
में मैंने बापू के विचारों को पुनः समझने की कोशिश की है। यदि इस देश में
कोई ऐसी गलतफहमी पाले कि बापू की नाड़ियों में स्पन्दित संघर्ष-भावना उनके
साथ मरकर मिट्टी में मिल जाएगी तो वे लोग दयनीय हैं। जिस तरह सत्य का कोई
मार नहीं सकता उसी तरह गाँधी को भी मारा नहीं जा सकता।
विदेशों से उधार में मिले उपन्यास-सिद्धान्त यहाँ टकराकर धक्के खा रहे
हैं। मैंने न तो उनका एकदम तिरस्कार किया है,न ही पूर्ण रूप से इन्हें
स्वीकार किया है। साहित्य का एक सिद्धान्त ऐसा है जो कुछ व्यक्तियों और
उनके आन्तरिक मामलों के इर्द-गिर्द व्यापक रूप से डंका बजाता है। दूसरा
सिद्धान्त ऐसा है जो समाज-हित के नाम पर उस सिद्धान्त के उन्नायक लेखक का
मुँह बन्द करने पर तुला हुआ है। इसलिए मैं इतना कहूँगा कि जो लोग इस
उपन्यास के साहित्यिक रूप,गठन,युक्ति या आशय अथवा उद्देश्य के बारे में
फैसला करने के लिए आगे बढ़ेंगे,वे अपने-अपने मानदण्डों की खामियों को ही
इसमें देख सकेंगे। सावधान होकर इसके समीप आइए। यह एक ऐसा अग्निपुंज
हैं,‘ज्वालामुखी’ से फूटकर जिसके सत्यावेग का तेज अभी
ठण्डा नहीं हुआ है।
आत्मा की अभिव्यक्ति ही कला है,सत्य में सौन्दर्य की तलाश
करो,बाह्म-चक्षुओं के लिए सत्य का स्वरूप भले ही असुन्दर दिखाई दे,आन्तरिक
नेत्रों से उसके सौन्दर्य की खोज करो-इस मिट्टी में जनमें इसी कला-साहित्य
दर्शन की देश के कलाकारों-साहित्यकारों की सभा में एक बार चर्चा की थी। इस
उपन्यास में मैने उसी दर्शन का परीक्षण करने का प्रयास किया है। जहाँ तक
मैं जानता हूँ यह तमिलनाडु का सर्वप्रथम प्रयोगवादी उपन्यास है,जिसमें
बापू जी के साहित्यिक सिद्धान्त को साकार करने का प्रयत्न हुआ है। आज के
युग में सत्य और असत्य का ऐसा एकाकार संगम हो गया है जिसमें अभ्रक खालिस
सोने के समान और खालिस सोना जंग लगे लोह-खण्ड के समान दिखाई देता है। मुझे
लगा कि उनकी सही-सही पहचान कराना मेरा धर्म है,और इसी भावना से प्रेरित
होकर मैंने यह उपन्यास रचा है।
जिन लोगों ने मुझ पर ‘सामान्य जन के मनोरंजन के लिए पत्रिकाओं
में लिखनेवाला साधारण लेखक’ का ठप्पा लगाया था पत्रिकाओं में
लिखने के लिए अवसर न मिलने से वे लोग हताश होकर आज आलोचक बन गये हैं। यह
सच है कि मैं पत्रिकाओं में लिखता हूँ किन्तु पत्रिकाओं के लिए-पत्रिका
चलानेवालों की इच्छा-अनिच्छाओं के अनुरूप मैंने कभी भी नहीं लिखा है।
इसमें भी मैं गाँधी की सीख का अनुगामी हूँ। बापू का आदेश है-कला और
साहित्य को लक्ष-लक्ष जनता तक पहुँचना है। बापू एक जनप्रिय नेता रहे
हैं,इसलिए लाखों की संख्या में जनता की भीड़ को जगाकर उन्हें
स्वतन्त्रता-सेनानी की तरह बदलने में कामयाबी मिली। उन्होंने किसी कोने
में बैठकर ‘करुणा-निधान ब्रिटिश सरकार बहादुर की सेवा
में’ अर्जियाँ भेजने के जरिए आजादी नहीं दिलायी। पत्रिका
पढ़नेवाली जनता की भीड़ मेरी सम्पत्ति है। मैं जिस चीज को उन तक पहुँचाना
चाहता हूँ लिखता हूँ। पाठक-गण अपनी क्षमता की सीमा में जितने हद तक समझ
सकें उतना समझ लें,तो उसी में मेरी कृतार्थता है।
-अखिलन