भूमिका - चित्रप्रिया (उपन्यास) : अखिलन
Bhoomika - Chitrapriya (Tamil Novel in Hindi) : P. V. Akilan
तिरुवल्लुवर ने जहां यह कहा है कि धनहीन मनुष्य के लिए इस संसार में कोई
जीवन नहीं है, वहीं इस बात की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया है कि अपनी
योग्यता के बल पर और न्यायपूर्ण ढंग से कमाए हुए धन से ही धर्म और आनन्द
को प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन आज बहुत से लोग धर्म और आनन्द की परवाह किए बिना बड़ी तीव्रता से अर्थ रूपी स्वर्ण-मृग को अपने वश में करने में
लगे हुए हैं।
मैं पिछले दस वर्षों से मद्रास शहर में रह रहा हूँ। मेरा विचार है कि
स्वर्णमृग के आखेट की दिशा में यह शहर तमिलनाडु के अन्य भागों का दिशा
निर्देशन कर रहा है। आज हमारा समाज एक ओर नैतिकता और सामाजिक चेतना से हीन कपटी व्यक्तियों को देश की जनता का उपकार करके धन इकट्ठा करने और दूसरी ओर चतुर एवं सद्विचारों से पूर्ण सदाचारी व्यक्तियों को अच्छे काम करके
सुरक्षित जीवन न बिता सकने के कारण दुःखी होने का अच्छा अवसर प्रदान कर
रहा है। आज से दो सहस्त्र वर्षों पूर्व तिरुवल्लुवर ने ‘नीच व्यक्ति
भी सज्जनों की तरह ही दिखालाई पड़ते हैं’ कहकर सज्जनों का-सा
अभिनय करने वाले नीच व्यक्तियों के विषय में हमें चेता दिया था। इतने पर भी हम इन नीच लोगों को आसानी से नहीं पहचान पाते।
मुझे यह देखकर बहुत दुःख होता है कि इन नीच, कपटी लोगों के प्रयत्नों से
हमारे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी तेजी से छल-कपट की भावना का
समावेश होता जा रहा है। मैं देख रहा हूं कि हमारे देश में परोक्ष रूप से
जो अनेक परिवर्तन हो रहे हैं वे इन कपटियों को एक खोखले समाज का निर्माण
करने का अच्छा अवसर प्रदान करेंगे। आज बहुत से लोगों पर आसान तरीकों से धन कमाने और धन से पाए जा सकने वाले अधिकारों को पा लेने की धुन सवार है।
धन को पारिवारिक जीवन की शान्ति और आनन्द से बढ़कर मानने वाले
इन मूर्खों का एक प्रतिनिधि है माणिक्कम। अण्णामलै, आनन्दी आदि पात्र उस जैसे लोगों का शिकार बनने वाली नादान जनता के अंग हैं।
कुछ पाठकों ने मुझसे शिकायत की थी कि मैंने कथा के अन्त में माणिक्कम को
उचित दण्ड नहीं दिया। पाठकों ने जिस दण्ड की ओर संकेत किया है वह दण्ड
स्वयं समाज उस जैसे व्यक्तियों को नहीं दे पाया है। लेकिन उससे बहुत बड़ा
दण्ड जिसकी चर्चा स्वयं तिरुवल्लुवर ने की है, उसे कथा के अन्त में मिल
गया है। कथा को ध्यान से पढ़ने वाले इस बात को अवश्य ही जान जाएंगे।
कुछ लोग शायद अब भी माणिक्कम को मनुष्य समझते हैं। अन्यथा आनन्दी की
प्रतिक्रिया देखकर उसकी निन्दा करते हुए इतने कठोर शब्दों में मुझे पत्र
नहीं लिखते। कुछ लोगों ने मुझसे शिकायत की है कि मैंने युगो-युगों से मानव
समाज में प्राप्त एक गहन विश्वास के विरोध में अपने विचार व्यक्त किए हैं।
इस उपन्यास द्वारा मैंने जिन विचारों की अभिव्यक्ति की है उसके लिए कुछ
लोगों ने अत्यधिक निन्दा भी की। मैं प्रशंसा और निन्दा को समान भाव से
ग्रहण करता हूं। जिसे मैंने ठीक समझा उसी की अभिव्यक्ति मैंने की है। मैं
सोचता हूँ कि आज जीवन के अन्तःबाह्य पक्षों को भला प्रकार छानबीन करके
भविष्य के अनुकूल पाठकों की मनःस्थिति का निर्माण करना मेरा दायित्व है।
पाठक क्या चाहते हैं इसकी चिन्ता मैंने नहीं की। उन्हें जिसे पाने की
इच्छा करनी चाहिए उसी को मैंने यहां प्रस्तुत किया है। आज का साहित्य कल
समाज का पथ-प्रदर्शक बनेगा। यह आवश्यक नहीं कि इस उपन्यास में मैंने
आनन्दी के बारे में जो विचार व्यक्त किए हैं उनसे सभी सहमत हों। लोग इस
दिशा में चिन्तन करें, यही काफी है। कल यदि समाज में माणिक्कम जैसे नीच
व्यक्ति अण्णामलै और आनन्दी जैसे पात्रों को धोखा दें और उन्हें जीने न
दें तो इस स्थिति में यह कृति उन्हें कुछ करने की प्रेरणा दे
सके—यही मेरा उद्देश्य है।
मैंने लगभग चालीस वर्षों से साहित्य सर्जना को ही अपना मूल लक्ष्य बनाया
है। तमिलनाडु के अधिकांश पाठकों को आज भी किताबें खरीदकर पढ़ने की आदत
नहीं पड़ी है। युवा पीढ़ी को वर्तमान तमिल साहित्य के अध्ययन की दिशा में
जो प्रेरणा दी जानी चाहिए उसे हमारे विश्वविद्यालय और महाविद्यालय नहीं दे
पाए। अतः सर्वप्रथम पत्र-पत्रिकाओं द्वारा ही मेरा अपने पाठकों से सम्पर्क
स्थापित हुआ। इस दृष्टि से इस उपन्यास को पहले पहल प्रकाशित करने वाले
‘आनन्द विकटन’ पत्रिका के सम्पादक स्वर्गीय श्री एस.एस. वासन
को धन्यवाद देना मेरा पहला कर्तव्य है। उन्होंने 19-3-1967 से 14-1 1968
तक इस उपन्यास को अपनी पत्रिका में छापकर लाखों पाठकों तक पहुंचाया।
मैंने चित्रकार अण्णामलै को इस उपन्यास का नायक बनाया है। इस कला
सम्बन्धित आवश्यक विवरण पाने के लिए मैं कुछ प्रमुख चित्रकारों से मिला।
चित्रकला महाविद्यालय और चित्रकारों की बस्ती में गया। इस सम्बन्ध में
सारी जानकारी प्राप्त करने में चित्रकार मित्रों ने मेरी बहुत सहायता की।
इस उपन्यास पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हो जाने के उपरान्त यह
अपने सम्पूर्ण रूप में हिन्दी पाठकों के सम्मुख आ रहा है, मैं प्रकाशकों
का धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने इस उपन्यास के हिन्दी रूपान्तर को अत्यन्त
सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया है। मैं डॉ कुमारी के.ए.जमुना को भी धन्यवाद
देता हूं जिन्होंने बड़ी लगन से हिन्दी में इस उपन्यास का अनुवाद किया है।
-अखिलन