भूमिका : मेरी प्रिय कहानियाँ : भीष्म साहनी

Bhoomika : Meri Priya Kahaniyan : Bhisham Sahni

ये कहानियाँ मुझे क्यों प्रिय हैं, मैंने अपनी आज तक की लिखी सभी कहानियों में से क्यों इन्हीं को चुनकर रख दिया है, इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत आसान नहीं है। कोई कहानी इसलिए प्यारी लगने लगती है कि उसे लिखते समय एक विशेष प्रकार के सुख का अनुभव हुआ हो, कलम चल निकली हो, कहानी सुभीते से लिखी गई हो, एक विशेष प्रकार के भावात्मक माहौल में देर तक बने रहने का सुअवसर मिला हो, और इस बात का भी आश्वासन मिला हो कि मैंने जिन उद्गारों के बल पर कहानी लिखना शुरु किया था, वे अन्त तक ठण्डे नहीं पड़े, बल्कि अन्त तक मेरे साथ बने रहे हैं। एक कारण यह भी हो सकता है कि कोई कहानी छपने पर लोकप्रिय हुई हो, पाठकों ने इसे सराहा हो, और पाठकों को प्रिय लगने पर मुझे भी प्रिय लगने लगी हो। ऐसा कहानी-लेखन के आरम्भिक काल में तो अवश्य होता है, जब लेखक बेताबी से पाठकों की प्रतिक्रिया का इन्तज़ार करता है और कहीं से सराहना का पत्र आ जाने पर गद्गद् हो उठता है, तब वही कहानी जिसके बारे में पहले आशंका-सी बनी हुई थी और मन डोल-डोल जाता था, सराहे जाने पर उसका एक-एक वाक्य सार्थक और महत्त्वपूर्ण लगने लगता है। कहानी पाठकों से स्वीकृत हुई, अपने आप ही लेखक को अच्छी लगने लगी।

पर शायद एक और कारण भी रहता है, और उसका सीधा संबंध कहानी की लेखन-प्रक्रिया से है, उस उधेड़बुन से जिसमें से कहानी अपना रूप ले पाती है। अपने किसी अनुभव को लेकर, अथवा किसी घटना से प्रेरणा लेकर जब लेखक कहानी लिखने बैठता है तो वह एक तरह से वास्तविकता को गल्प में बदलने के लिए बैठता है, यथार्थ को कला का रूप देने के लिए। लेखक यथार्थ का दामन नहीं छोड़ता, और साथ ही साथ उसका काया-पलट भी करने लगता है, ताकि वह मात्र घटना का ब्योरा न रहकर कहानी बन गए, कला की श्रेणी में आ जाए। इसी प्रक्रिया में से गुज़रते हुए कभी-कभी ऐसे बिन्दु पर पहुँचता है, जहाँ कलम रुक जाती है, लेखक नहीं जानता कि वह किस ओर को बढ़े, घटना अथवा अनुभव से जितना निबटना था, निबट लिया। अब आगे क्या हो, कहानी में उठान कैसे आए, वह कहानी कैसे बने, यह बिन्दु लेखक की सबसे कठिन घड़ी और सबसे बड़ी चुनौती होती है, अगर उस वक्त कल्पना लेखक का साथ दे जाए, उसे कुछ सूझ जाए, जो उस कथानक में से फूटकर निकला भी हो और उसके विकास का अगला स्वाभाविक चरण भी बन जाए तो जिस कहानी में ऐसी सूझ ने रास्ता दिखाया हो, वह लेखक को प्रिय लगने लगती है।

आप किसी गली में चलते जा रहे हैं और सहसा आपको लगे कि आगे गली बन्द है कि आप अन्धी गली के नाके पर आ पहुँचे हैं, यदि उस विकट घड़ी में आप के सामने रास्ता खुल जाए, और आप इत्मीनान से आगे बढ़ सकें तो जो राहत, जो खुशी, तसल्ली, आपको उस समय होगी, वैसी ही राहत लेखक को भी नसीब होती है, जब वह उस आड़ी स्थिति में से निकल आता है। अपनी ओर से लेखक यदि कुछ जोड़ता है तो वह यही कुछ होता है। ऐसा अनुभव कहानी को लेखक की नज़र में भी प्रिय बना देता है। उसे लगने लगता है कि अब तलवार मार ली, अब कहानी चल निकलेगी।
पर यह लेखक की अपनी निजी दुनिया की बात है, उसके आन्तरिक संघर्ष की, जिसमें वह कहानी लिखने की प्रक्रिया से जूझ रहा होता है। यह ज़रूरी नहीं कि कहानी का जो रास्ता उसे सूझा हो, और जो उसे आश्वस्त कर गया हो वह पाठक को भी आश्वस्त करे, यह लेखक का अपना अन्दरूनी मामला है, कहानी के गुण-दोष के साथ उसका सीधा संबंध नहीं होता, हालाँकि अक्सर देखने में आया है कि यह समाधान कहानी के कलापक्ष के लिए निर्णायक साबित होता है।
मुझे ये कहानियाँ प्रिय हैं, क्योंकि मेरे लेखन-संघर्ष से जुड़ी हैं, मगर आपको तो कहानी पढ़ना है, कहानी अच्छी होगी तो आपको संतोष होगा, कहानी पसंद नहीं आएगी तो आप सिर झटक देंगे, और मेरी सारी वकालत के बावजूद कह देंगे कि बात नहीं बनी।

कहानी से जुड़े बहुत से सवाल बहस तलब होते हैं। अपनी-अपनी पसन्द भी होती है। पर निश्चय ही कहीं पर अच्छी कहानी को व्यापक स्तर पर मान्यता का आधार मिलता है, जिससे उसकी सामान्य लोकप्रियता सुनिश्चित हो जाती है। इस लोकप्रियता के क्या कारण होते हैं, इनका विश्लेषण करना कठिन है।
अपने तयीं मुझे ऐसी कहानियाँ पसन्द हैं, जिनमें अधिक व्यापक स्तर पर सार्थकता पाई जाए। व्यापक सार्थकता से मेरा मतलब है कि अगर उनमें से कोई सत्य झलकता है तो वह सत्य मात्र किसी व्यक्ति का निजी सत्य ही न रहकर बड़े पैमाने पर पूरे समाज के जीवन का सत्य बनकर सामने आए, जहाँ वह अधिक व्यापक सन्दर्भ ग्रहण कर पाए, किसी एक की कहानी न रहकर पूरे समाज की कहानी बन जाए, जहाँ वह हमारे यथार्थ के किसी महत्त्वपूर्ण पहलू को उजागर करती हुई अपने परिवेश में सार्थकता ग्रहण कर ले। ऐसी कहानी मेरी नज़र में अधिक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण होती है।

कहानी की मूल प्रेरणा जीवन से ही मिलती है। कहीं न कहीं, कोई जाना-पहचाना पात्र, कोई वास्तविक घटना, उसकी तय में रहते हैं। पूर्णत: कल्पना की उपज कहानी नहीं होती, कम से कम मेरा ऐसा ही अनुभव है, जिंदगी ही आपको कहानियों के लिए कच्ची सामग्री जुटाती है, जहाँ हम समझते हैं कि कहानी हमने मात्र अपनी ‘सोच’ में से निकाली है, वहाँ भी उसे किसी न किसी रूप में जीवन का ही कोई संस्कार अथवा प्रभाव अथवा अनुभव का कोई निष्कर्ष उत्प्रेरित कर रहा होता है। पर जहाँ कहानी का पूरा ताना-बाना काल्पनिक हो, जो मात्र कल्पना के सहारे लिखी जाए, वहाँ कहानी के चूल अक्सर ढीले ही होते हैं, ऐसा मैंने पाया है। दृष्टान्त कथाओं की बात अलग है, वहाँ कहानी की समूची परिकल्पना ही विभिन्न स्तर पर होती है।

मैं नहीं मानता कि कहानी मात्र आत्माभिव्यक्ति के लिए लिखी जाती है। सचेत रूप से, किसी लक्ष्य को लेकर भले ही उसे न लिखा जाता हो, परन्तु कला उस साझे जीवन की ही उपज होती है जो हम अपने समाज में अन्य लोगों के साथ मिलकर जीते हैं। कला हज़ारों तन्तुओं के साथ उस जीवन के साथ जुड़ी रहती है। जिस प्रकार का जन्म, मात्र लेखक के मस्तिष्क से नहीं होता, वैसे ही कहानी की उपादेयता भी मात्र लेखक के लिए नहीं होती। लेखक भले ही मर-खप जाए, पर उसकी कहानी जिन्दा रह सकती है, वह इसलिए कि वह कुछ कहती है जिसके साथ मानव समाज का सरोकार होता है। चोख की कहानियाँ, सात समंदर पार बैठे लोग पढ़ते हैं, उनमें रस लेते हैं तो इसलिए कि वे हमें कुछ कहती हैं, हमारे सामने जीवन का कोई अन्तर्द्वन्द्व उघड़कर सामने आता है।

साहित्य सामाजिक जीवन की ही उपज होती है, और समाज के लिए ही उसकी सार्थकता भो होती है। लेखक के लिए यह अनुभूति भी बड़ी सन्तोषजनक होती है कि वह कहाँ पर जीवन की गहराई में उतर पाया है, मात्र छिछले पानी में ही नहीं लोटता रहा, कहीं जीवन के गहरे अन्तर्द्वन्द्व को पकड़ पाया है। उस अन्तर्विरोध को, जो हर युग और काल में समाज के अन्दर पाए जाने वाले संघर्ष की पहचान कराता है, उन शक्तियों की भी जो समाज को आगे ले जाने में सक्रिय हैं, इस अन्तर्विरोध को पकड़ पाना कहानी लेखक के लिए एक उपलब्धि के समान होता है। कहानी का सबसे बड़ा गुण मेरी नज़र में, उसकी प्रामाणिकता ही है, उसके अन्दर छिपी सच्चाई में जो हमें जिन्दगी के किसी पहलू की सही पहचान कराती है। और यह प्रामाणिकता उसमें तभी आती है जब वह जीवन के अन्तर्द्वन्द्वों से जुड़ती है। तभी वह जीवन के यथार्थ को पकड़ पाती है। कहानी का रूप-सौष्ठव, उसकी संरचना, उसके सभी शैलीगत गुण, इस एक गुण के बिना निरर्थक हो जाते हैं। कहानी ज़िन्दगी पर सही बैठे, यही सबसे बड़ी माँग हम कहानी से करते हैं। इसी कारण हम किसी प्रकार के बनावटीपन को स्वीकार नहीं करते-भले ही वह शब्दाडम्बर के रूप में सामने आए, अथवा ऐसे निष्कर्षों के रूप में जो लेखक की मान्यताओं का तो संकेत करते हैं, पर जो कहानी में खप कर उसका स्वाभाविक अंग बनकर सामने नहीं आते। प्रामाणिकता कहानी का मूल गुण है। कहानी में यह गुण मौजूद है तो कहानी कला के अन्य गुण उसे अधिक प्रभावशाली और कलात्मक बना पाएंगे । प्रामाणिकता कहानी की पहली शर्त है ।

मैं इस विचार से सहमत नहीं जो आधुनिकता को अच्छी कहानी की कसौटी मानता है । आधुनिकता कला का कोई गुण नहीं है। इसलिए जहाँ आधुनिकता ला पाने के लिए जोड़ तोड़ की जाती है -भले ही वह मुक्त प्रेम के प्रसंग दिखाकर हो या शब्दों के नए-नए प्रयोग द्वारा अथवा कहानी को अकहानी का रूप देने की चेष्टा हो - आधुनिक भावबोध के नाम पर ये चेष्टाएँ लेखक का नज़रिया बिगाड़ती हैं । यदि आप जीवन को उसके अन्तर्विरोधों के परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं तो आपकी कहानी में आधुनिकता आएगी ही , यह अनिवार्य है, क्योंकि जीवन के भीतर पाया जाने वाला अन्तर्विरोध वास्तव में जीवन को बदलने वाली शक्तियों और जीवन को यथावत् बनाए रखने वाली शक्तियों के बीच ही विकट संघर्ष का रूप लेता है, और इस तरह युगबोध के स्वर अपने आप ही उसमें से फूट- फूट पड़ते हैं , पर यदि आप आधुनिकता को भाषा, शैली, शिल्प के प्रयोगों से या फिर मात्र सैक्स के उन्मुक्त प्रदर्शन से जोड़ते हैं, और इन तत्त्वों को कहानी में इसलिए लाने की कोशिश करते हैं कि वह आधुनिक भावबोध की कहानी कहला सके, तो मैं समझता हूं, यह अपने को धोखा देने वाली बात है। इसलिए आधुनिकता बोध की जिस कसौटी पर कहानी को परखा जाने लगा है, उससे मैं सहमत नहीं हूँ। जहाँ कहानी जीवन से साक्षात्कार कराती है, उसके भीतर पाए जाने वाले अन्तर्विरोधों से साक्षात् कराती है, वहाँ वह अपने आप ही समय और युग का बोध भी कराती है । पर यदि आधुनिक भावबोध को साहित्य का विशिष्ट गुण मान लिया जाए तो हम दिग्भ्रमित ही होंगे । यदि कहानी में अवसाद है, मूल्यहीनता का भाव है, अनास्था है तो वह कहानी आधुनिक, और चूँकि आधुनिक है, इसलिए उत्कृष्ट है, इस प्रकार का तर्क मुझे प्रभावित नहीं करता । अपना भाग्य ढोते हुए इन्सान का चित्र आधुनिक है, पर अपने भाग्य से जूझते हुए इन्सान का चित्र असंगत है, अनास्था आधुनिक है, आस्था असंगत है, मृत्युबोध आधुनिक है, जीवन बोध असंगत और निरर्थक है, इस प्रकार के तर्क के आधार पर साहित्य को परखना और उसके गुण-दोष निकालना ज़िन्दगी को भी और साहित्य को भी टेढ़े शीशे में से देखने की कोशिश है ।

मानव जाति बहुत लम्बी यात्रा करके यहाँ तक पहुंची है। जहाँ इन्सान टूटता और बिखरता रहा है, वहाँ वह जुड़ता भी रहा है । उसकी उपलब्धियाँ उसके अनवरत संघर्ष की उपज हैं , व्यक्तिगत संघर्ष की भी और जातिगत अथवा सामूहिक संघर्ष की भी । सहस्रों शताब्दियों के संघर्ष ने मनुष्य को जीवन में आस्था रखना सिखाया है । हार न मानने वाली मनःस्थिति दी है । यह उसके स्वभाव का नैसर्गिक गुण बन गया है । वह इस आस्था और विश्वास के बल पर ही जीता और अपनी स्थितियों से जूझता आया है, और आज के विकट सन्दर्भ में भी यह स्वभावगत गुण असंगत नहीं हो गए हैं, केवल उनका सन्दर्भ बदल गया है । इसी कारण यदि जीवन के केवल नकारात्मक पहलुओं पर से ही सारा वक्त पर्दा उठाया जाता रहे तो वह भी सही तसवीर नहीं होगी। परस्पर विरोधी अनेक वृत्तियों के रहते हुए भी, मनुष्य जीना चाहता है, अपने जीवन को बेहतर बनाना चाहता है । वस्तुसत्य के दर्शन के साथ-साथ इस संघर्ष, इन इच्छाओं आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति भी कहानी को पूर्णता देती है, उसे प्रामाणिक और विश्वसनीय बनाती है ।

और फिर , कहानी मात्र जीवन दर्शन ही कराती हो , ऐसा नहीं है । वह निश्चय ही हमें सचेत भी करती है, हमारे अन्दर दायित्व की भावना भी जगाती है, हमारी अनुभूतियों को अधिक संवेदनशील भी बनाती है, सौन्दर्यबोध के स्तर पर हमारे लिए उत्प्रेरक का काम भी करती है ।

ज़ाहिर है कला की जिस विधा में इतने गुण पाए जाते हों, उन पर पूरा उतरना लेखक के बस का नहीं होता। उसकी तो कोशिश ही कोशिश है, यदि कहीं पर मेरे प्रयास किसी हद तक सफल हुए हैं तो मैं अपने प्रयास को सार्थक ही मानूँगा ।

नईदिल्ली
भीष्म साहनी

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