भूखा बच्चा (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Bhookha Bachcha (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

शहर की उत्साही म्युनिसिपल कमेटी ने लेविल-क्रासिंग के पार बने एक पुराने फुटबाल मैदान में फूस के छप्परों के शेड डालकर लम्बी-लम्बी कतारों को बिजली की तेज रोशनी से जगमगाकर एक्सपो 77-78 प्रदर्शनी का इन्तजाम किया था। इसमें, उनका दावा था कि आप एक आलपीन से लेकर मोटरकार तक खरीद सकते हैं जबकि जो अकेली गाड़ी वहाँ बड़ी धूमधाम से रंग-बिरंगे बल्बों के साथ सजाकर प्रदर्शित की गयी थी, वह एक 'फोर्ड 1930' माडल की गाड़ी थी, जिसे एक खास लकी नंबर की टिकट लेने वाले को इनाम के तौर पर दिया जाना था। मार्केट रोड से दिन भर स्पेशल बसें चलती थीं जो दर्शकों के झुंड-के-झुंड भरकर यहाँ लाकर छोड़ देती थीं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर लगे लाउडस्पीकर चारों तरफ के आसमान को फिल्मी गानों और विज्ञापनों के मिलेजुले शोर से, जिसमें उमड़ रही भीड़-भाड़ का अपना शोर भी शामिल था, गुंजा रहे थे। एक्सपो के आयोजकों ने शोर-शराबे, चमकती शान-बान, धूल धक्के और कूड़े-कर्कट की एक अलग दुनिया कायम कर दी थी।

लेकिन रमन को इस भीड़-भाड़ से थकावट महसूस होने लगी थी और उसके कान के पर्दे फटने लगे थे। वह सोचने लगा कि प्रकृति अगर कानों में ऐसी मशीन लगा देती जिसका बटन दबाकर आवाज को बंद किया जा सके, तो कितना अच्छा होता। 'तब मैं कितने आराम से टाइगर छाप अंडरवियर और उस बेवकूफ फिल्म स्टार के भद्दे प्यार-श्यार के गाने से बचकर प्रदर्शनी में घूम-फिर सकता था।' वह सोचता रहा, 'मैं तो यहाँ बोरियत से बचने के लिए आया था लेकिन यहाँ तो नरक है, ऐसी धकापेल कि.....।" उसे अफसोस हुआ कि इलामन स्ट्रीट से यहाँ आया, लेकिन वह लौट जाने के लिए भी तैयार नहीं हो पा रहा था, भीड़ और शोर-शराबे से उसका मन बाहर निकल-निकल पड़ रहा था, और आजकल वह यही तो चाहता था। वही भीड़ के साथ-साथ इधर-उधर घूमता रहा और कभी-कभी रुककर विज्ञापन और पोस्टरों को आलोचक की नजर से देखता रहा, क्योंकि यही उसका पेशा भी था। जिस एक चीज ने उसका ध्यान आकर्षित किया, वह था एक स्टाल के आगे लगा एक प्लेकार्ड जिसमें एक औरत, जिसका निचला हिस्सा मछली जैसा था, अंकित की गयी थी। वह सोचने लगा कि अगर उसे इस स्त्री-मछली का चित्र बनाने को दिया जाता, तो वह इसे किस प्रकार अंकित करता। वह इस तथा दूसरे विज्ञापनों को ज्यादा सुरुचिपूर्ण बनाने का प्रयत्न करता और काफी धन कमा लेता, लेकिन इसके लिए उसे प्रदर्शनी के आयोजकों को खुश करना चाहिए था। पर इन दिनों वह जबरदस्त उदासीनता के दौर से गुजर रहा था और किसी काम में उसका मन नहीं लगता था। कई महीने से वह अपनी कार्यशाला में नहीं गया, जिसका फायदा उसका मार्केट गेट वाला प्रतिद्वंद्वी जयराम उठा रहा था। रमन ने सोचा, 'कोई बात नहीं, पनपने दो उसे, हालाँकि उसकी कला-दृष्टि चिम्पांजी बंदर जैसी थी। वह स्त्री-मछली के चित्र को चिढ़ और आकर्षण दोनों के मिलेजुले भाव से देखने लगा-उसका मालिक सामने की पटरी पर चढ़ा टीन के भोंपू से लोगों से कह रहा था, 'आइये, आइये, इस आधी औरत और आधी मछली को देखिये, जल में तैरती और जवाब पाइये,... ऐसा मौका फिर हाथ नहीं आयेगा।

'क्या सवाल पूछे?' रमन खुद से पूछने लगा। क्या यह पूछे कि पानी में उसे जुकाम क्यों नहीं होता, या किस कपड़े से सीकर उसे मछली का रूप दिया गया है? वह सोच ही रहा था कि इसे देखने भीतर जाये या नहीं, कि एक दूसरी घोषणा उसे सुनायी दी: 'पाँच साल का लड़का, जो अपना नाम गोपू बताता है, अपने माँ-बाप की तलाश कर रहा है, सेंट्रल आफिस में आकर उसे ले जाइये...।" उसने चार दफा यह घोषणा लाउडस्पीकर से सुनी। उसने स्त्री मछली के आकर्षण से अपने को मुक्त किया और इस बच्चे को देखने जाने का फैसला किया।' हमें जानना चाहिए कि किस तरह के बच्चे मेलों में खो जाते हैं। वे माँ-बाप कैसे लापरवाह होते हैं जो बच्चों को खो जाने देते हैं... या वे जानबूझकर ही तो नहीं छोड़ देते?" वह एक डॉक्टरी प्रदर्शनी के लिए लगी लम्बी लाइन से उलझते हुए, जिसमें आदमी का दिल, गुर्दे, फेफड़े वगैरह शीशे की बोतलों और जारों में रखे हुए थे, साथ ही एक आदमी की पूरी एक्सरे तस्वीर भी लगी हुई थी-सेंट्रल आफिस की तलाश में चल पड़ा।

रास्ते में उसने एक चरखी से निकलती और रोयेंदार लाल-गुलाबी रंग की मिठाई बिकती देखी, जो आकार में बहुत बड़ी लेकिन वजन में एकदम हल्की होती थी, और खुद भी उसने एक अपने खाने के लिए खरीदी। लेकिन जैसे ही उसने इसकी तरफ अपना मुँह बढ़ाया, यह सारे मुँह में चिपक गयी। उसने सोचा, 'सब के सामने इसे खाना ठीक नहीं है।' इसलिए उसने इसे मुंह से दूर कर लिया और इस प्रकार उसे हाथ में लिये चलने लगा, मानो किसी और के लिए लिये जा रहा है। लेकिन कभी-कभी धीरे से मुँह पूरा खोलकर एक टुकड़ा भीतर डाल लेता और मजे ले-लेकर चूसता रहता। दुनिया की सबसे ज्यादा मीठी चीज है यह।' एक हाथ में झंडे की तरह इसे उठाये और भीतर-ही-भीतर जबान चलाते वह सेंट्रल आफिस जा पहुँचा, जो एक्सपो के दक्षिणी द्वार पर था। यहाँ बड़ी व्यस्तता थी, बहुत से टाइपिस्ट मशीनों पर खटर-पटर कर रहे थे और तरह-तरह के लोग आ-जा रहे थे। उसने देखा, इनके बीच एक लड़का बेंच पर बैठा जोर जोर से अपने पैर हिला-हिलाकर और खुद भी अपने बदन को इधर-उधर करके उसके टूटे-फूटे पैरों से खिलवाड़ कर रहा है जिससे परेशान पास बैठा क्लर्क उसे बार-बार झिड़क रहा है, 'चुप बैठी, चुप... ज्यादा शोर मत मचाओ'- जिसके जवाब में गोल-गोल गालों और फूली हुई नाकवाला यह लड़का अपने सफेद दाँत निकालकर संतोषपूर्वक हँसने लगता है।

'यह सात साल का होगा, पाँच का नहीं है... " उसे देखकर रमन ने मन में सोचा। रमन ने अपनी अधखाई कैंडी उसकी तरफ बढ़ायी, जिसे देखते ही लड़के ने लपककर उसे पकड़ लिया और फौरन उसमें अपना मुँह गड़ा दिया। रमन को उसका यह जोश पसंद आया और उसने उसे थपथपाया। क्लर्क ने घूरकर रमन को देखा और पूछा, 'आप इसे लिये जा रहे हैं?"

'हाँ ' रमन ने भावना में भरकर कहा। क्लर्क ने फौरन उसके सामने एक रजिस्टर बढ़ा दिया, ' यहाँ दस्तखत करो।' रमन ने वहाँ अस्पष्ट-सा कुछ लिख दिया।

'आप लोग अपने बच्चों पर नजर क्यों नहीं रखते ? अब मत खो देना... ऐसे लड़के को यहाँ रखना भी बड़ी परेशानी का काम है... और कोई काम नहीं कर सकते। अब मुझे आधी रात तक बैठकर ये सब कागज पूरे करने पड़ेंगे," क्लर्क ने भुनभुनाते हुए कहा।

'आप तो घोषणा कर रहे थे कि यह रो रहा है?' 'यह उस तरह का नहीं है, यह तो कहना ही पड़ता है, नहीं तो माँ-बाप तब तक नहीं आयेंगे, जब तक वे वापस न जाने लगेंगे... और तब तक हमें इन शैतानों की देखभाल करनी पड़ेगी। यह भी उनकी चाल होती हैं। इसकी माँ कहाँ है?'

'बाहर इन्तजार कर रही है, ' यह कहकर रमन ने लड़के की तरफ अपना हाथ बढ़ाया, जिसे उसने फौरन पकड़ लिया। दोनों दफ्तर से बाहर आये और फुर्ती से भीड़ में खो गये।

लड़के को अपने साथ ले जाते हुए रमन के दिमाग में एक शब्द गूंजता रहा, 'माँ'! बड़ा आकर्षक शब्द था यह, वह सोचने लगा, 'काश! उसकी एक बीवी भी होती, जो सचमुच बाहर खड़ी होती।' चिड़चिड़े क्लर्क ने सचमुच मान लिया कि बीवी बाहर खड़ी है। रमन ने सोचा, 'ठीक ही तो है। मैं बीवी वाला लगता हूँ न। मेरी हर चीज ठीक-ठाक है, मशहूर पेंटर हूँ मैं, नए ढंग से पेंटिंग बनाता हूँ बैंक में काफी पैसा है, कार्यशाला है, सरयू के किनारे दूर तक मेरी जमीन है...। और गोद लिये इस लड़के के अलावा, एक और भी हो सकता था, उसका अपना, डेजी के भीतर।'

कौन जानता है, इस क्षण भी वह मुझसे यह कहने को तैयार हो जाये कि 'तुमने मुझको यह गर्भ दिया है'- और उस जन्म-नियंत्रण तथा शहर और गाँव में घर-घर जाकर 'कम बच्चे पैदा करो', का प्रचार करने वाली के लिए यही सही होता। वह अपने को बहुत ज्यादा समझने लगी थी, और मैं भी कितना मूर्ख था जो उसके पीछे-पीछे लगा रहा। सच यही है कि यह मेरी गलती नहीं थी। उसी ने मुझे हर गाँव की हर दीवाल पर यह मूर्खतापूर्ण संदेश लिख-लिखकर लगाने का काम सौंपा था, कि 'और बच्चे नहीं चाहिए', वही उसे अपने साथ हर जगह अकेले जबरदस्ती ले गयी थी-और इन स्थितियों में कुमार बने रहने का व्रत कब तक कायम रह सकता है! देखा जाय तो यह शताब्दी का सबसे बड़ा मजाक हो सकता है कि सब तरह के उसूलों और सावधानियों के बाद भी वह गर्भिणी हो गयी थी और उसकी मदद माँगने लगी थी। इस स्थिति पर विचार करके उसे हँसी आने लगी। उसे हँसते देखकर उँगली पकड़कर साथ चल रहा लड़का भी उसकी तरफ देखकर हँसने लगा। रमन ने उसे झिड़का, 'तुम क्यों हँस रहे हो?' 'पता नहीं," यह कहकर लड़के ने फिर दाँत निकाल दिये।

भीड़ में चलना मुश्किल हो रहा था, इसलिए भी कि खाने-पीने के हर स्टाल पर लड़के के कदम रुकते। एक्सपो वालों ने जरा-जरा दूर पर खाने-पीने की दुकानें और ठेले रखवा दिये थे। चाट-पकौड़े के ऊँचे-ऊँचे ढेर, कहाड़ी से निकलती सुनहरी जलेबियाँ तेल में तलती पतली-पतली अफलम्, जो आपकी आँखों के सामने ही चंद्रमा की तरह फूलकर गोल हो जाते थे, और भी तरह-तरह की स्वादिष्ट मिठाइयाँ और नमकीन, जिन्हें देखकर राह चलतों के मुँह में पानी भर आता था।

रमन को बच्चे पर दया आ रही थी, क्योंकि वह तुरंत उसके साथ चल पड़ा था। 'कुछ खाओगे?' उसने पूछा।

'हाँ ' लड़के ने एकदम जवाब दिया और एक मिठाईवाले की तरफ इशारा किया। रमन ने उसका एक हाथ कसकर पकड़ रखा था कि कहीं यह फिर न खो जाय, और दूसरा हाथ ही खाली छोड़ रखा था जिससे वह इशारा कर सकता था और खा भी सकता था। लड़का मिठाई खाने में लग गया और इधर-उधर की सब बातों को भूल गया। जब उसकी मिठाई खत्म हो गयी, रमन ने फिर पूछा, 'आइसक्रीम खाओगे?' लड़के ने खुश होकर सिर हिलाया और रमन ने ठेले से दो आइसक्रीम खरीदीं-दूसरी से वह उसे साथ देने के लिए। रमन अपनी सब चिंताएं भूल गया, जिस उदासी और बोरियत ने उसे परेशान कर दिया था और जिसके कारण उसकी सुबह, दोपहर और रात की सारी जिंदगी बरबाद हो गयी थी। लड़के की ओर देखते हुए वह सोचने लगा, 'इसको खुश देखकर मुझे भी खुशी क्यों हो रही है? पिछले जन्म में जरूर यह मेरा ही बेटा रहा होगा।' वह सोचने लगा, 'इसे खुश करने के लिए और क्या किया जाये!'

'तुम उस पर चक्कर लगाना चाहते हो?' सामने खड़े विशाल चक्र की तरफ इशारा करते हुए, जो धूं-धूं करते हुए हर बैठने वाले को आसमान तक पहुँचा देता था, उसने पूछा। लड़के ने इसके लिए भी 'हाँ" कर दी। रमन लड़के को साथ लेकर झूले पर बैठ गया। 'यह अच्छा है, इससे इसका खाना कम होगा, 'रमन ने सोचा। उसे लड़के के स्वास्थ्य की चिंता होने लगी थी। अगर यह पेट दर्द की शिकायत करता, तो वह खुद को ही अपराधी महसूस करता कि जरूरत से ज्यादा खिला दिया।

अब झूले पर बैठे चक्कर के चलने का इन्तजार करते हुए वह इस बदलती हुई परिस्थिति पर विचार करने लगा। लड़के को माँ-बाप की फिक्र नहीं थी। शायद यह अनाथ बच्चा हो, जो मेले में मैदान में रास्ता भूल गया हो। लेकिन अब वह अनाथ नहीं रहेगा, रमन को यह विचार बहुत अच्छा लग रहा था। वह उसे अपने को 'डैडी' या 'अप्पा' कहना सिखायेगा! अब महिमा ऊपर चढ़ने लगा और उसी के साथ रमन के विचार भी आसमान छूने लगे। लड़के ने कसकर उसकी बाँह पकड़ ली। रमन ने कहा, 'डरने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारे साथ हूँ। झूले का मजा लो।"

'अगर लोग पूछे कि यह लड़का कौन है, तो मैं कहूँगा, 'बेटा है मेरा... तुम्हें डेजी की याद होगी। उसने इसे कन्वेंट में पाला था, उसे यही पसंद था, लेकिन अब मैं इसे ले आया हूँ। बात यह है कि बच्चों को घर में ही पालना चाहिए।'

'और इसकी माँ कहाँ है?' वे पूछे सकते हैं।

'पता नहीं, वह किसी के साथ भाग गयी', यह बात वह बदले के ढंग से कहेगा, क्योंकि रात-दर-रात उसके साथ सोने के बाद अंत में जब शादी का इन्तजाम हुआ, तब वह उसे दगा दे गयी थी, जिससे उसे बहुत तकलीफ पहुँची थी।

अचानक उसने बगल में बैठे लड़के से पूछा, 'उम्र क्या है तुम्हारी?" तो लड़के ने आँख झपकाई और फिर सिर हिला दिया। 'सात साल से कम नहीं होगे तुम!' यह कहते हुए उसने सोचा की वह दो-तीन साल पहले ही इस शहर में आयी थी, इसलिए, उसे कुछ दूसरा जवाब ढूँढना पड़ेगा।

लड़के ने कहा, ' यह पहिया तेज-तेज कब चलेगा?'पर रमन इसी चाल से संतुष्ट था क्योंकि ज्यादा तेज चलने से उसे परेशानी होती। इसलिए वह दूसरी बातें करके लड़के का मन बदलने की कोशिश करने लगा," अच्छा, तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगे?'

'मुझे भूख लगी है, कुछ खाने को चाहिए," लड़के ने जवाब दिया। उसकी भूख पर ताज्जुब करते हुए रमन बोला, 'घर चलोगे तो वहाँ खाने-पीने की बहुतसी चीजें मिलेंगी।'

लड़का एकदम सतर्क हो, गया, चाकलेट और आइसक्रीम और बबलगम भी ?'

'हाँ और बहुत-सी जलेबी...।"

'मुझे जलेबी बहुत अच्छी लगती हैं," लड़के ने खुश होकर कहा और पूछा, 'मैं जितना चाँहू खा सकूँगा या हर दफा आपसे पूछना पड़ेगा?"

'सब तुम्हारे लिए होंगी, जितनी चाहो, खाना, 'रमन ने उत्तर दिया।

लड़के के मुँह में पानी भर आया। कहने लगा, 'मेरे पापा कहते हैं कि ज्यादा खाओगे तो बीमार पड़ जाओगे।"

'वे हैं कहाँ?" रमन ने पूछा। इस मेले में ही कहीं हैं?' लड़का इस विषय पर ज्यादा बात नहीं करना चाहता था। लगता था कि उसे डर है कि कहीं उसे माँ बाप को वापस न कर दिया जाये और इस सब चाकलेट और बबलगम से वह वंचित रह जाय। रमन ने कहा, 'यह ठीक बात है। ज्यादा खाने से तुम्हारे पेट में दर्द होने लगेगा।'

'मुझे पता है," लड़का कहने लगा। 'जब चाचा आये थे तब आपको पता है, मैंने कितना खाया था, ' यह कहते हुए अपने दोनों हाथ फैलाकर कितना ज्यादा, यह बताने की कोशिश की। रमन को यह देखकर खुशी भी हुई कि लड़का काफी तन्दुरुस्त था, कमजोर होता तो उसे सबसे पहले मेडिकल स्टेशन ले जाकर डॉ. किशन से इलाज कराना होता। लड़के को एक कमरा तो देना ही होगा। वह कमरा जो उसने डेजी के लिए तैयार करके रखा था, कि शादी के बाद वह इसमें आकर रहेगी, लेकिन वह तो दगा ही दे गयी। यह लड़का उसी में रहेगा। उसी में अपने खिलौने, किताबें, कपड़े वगैरह रखेगा, उसका बिस्तर भी उसी में होगा। उसे उम्मीद थी कि लड़का अकेला सो सकेगा और रात में रोयेगा नहीं। वह उसे सिखायेगा भी यही कि अकेले सोना चाहिए और अपनी किताबों और कपड़ों की देखभाल भी खुद करना चाहिए। वह इसे कल प्राइमरी स्कूल में भर्ती करा देगा, जो बहुत अच्छा तो नहीं है, लेकिन वह हेडमिस्ट्रेस को जानता है, क्योंकि उसने स्कूल का साइनबोर्ड मुफ्त में बना दिया था। दो बटा छह फीट के इस साइनबोर्ड पर उसने प्लास्टिक इमल्शन का रंग लगाया था और चाँदी के पाउडर से उसे सजाया था। स्कूल मंदिर के पास सड़क के उस पार था और लड़का घर से स्कूल तक अकेला जाया और आया करेगा। लेकिन अफसोस की बात यह होगी कि जब वह स्कूल से लौटकर घर आयेगा, तब वहाँ उसे कोई नहीं मिलेगा।

उसके दिल में दर्द की लहर दौड़ गयी-यह सब डेजी के कारण हुआ, नहीं तो उसकी चाची बचपन से ही उसके साथ रहती आयी थी। वह अपनी जिंदगी के आखिरी क्षण तक उसी के साथ रहती। उसने सोचा था कि चाची के कारण डेजी को दिक्कत होगी, इसलिए चाची को उसने बनारस रवाना कर दिया था। ओफो, जब घर में थी, तब उसे खाने का कितना आराम था-जब जरूरत होती, खाना या नाश्ता तैयार मिलता था, वह हमेशा घर पर ही रहती थी और जब वह आता तो दरवाजा खोलती थी। अब तो वह एक तरह से भूखा ही रहता था। उसे कॉफी बनाने तक की इच्छा नहीं होती थी और न वह बोर्डलेस होटल जा पाता था क्योंकि वहाँ आने वाले उसे पसंद नहीं थे। उनका घमंड और बार बार वही बातें करने से उसके सिर में दर्द हो जाता था। लेकिन हो सकता है कि गलती उसी की हो ! डेजी की दगाबाजी के बाद शायद उसका अपना स्वभाव ही बदल गया था,अब उसमें खटास आ गयी थी। दिन खाली, कुछ सोचना नहीं, न कुछ करना, किसी का इन्तजार नहीं, निराशा और बोरियत से भरी जिंदगी, हार सवेरे खाली, सुनसान दिन में आँखें खोलना, और यह सोचना, 'फिर आ गया यह मनहूस दिन," चारों तरफ खाली पड़ा घर, कहीं किसी तरह की कोई जिंदगी नहीं लगता था, घर की चिड़ियाँ भी उसे छोड़कर उड़ गयी हैं, जो पहले जब यहाँ हर कमरे में तरह-तरह की चीजें और खाने-पीने के लिए अनाज, चावल वगैरह भरे होते थे, वे बड़ी तादाद में चहचहाती नजर आती थीं, अब खालीपन के सिवा कहीं कुछ नहीं था। रमन कभी-कभी सोचता कि वह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का अनुभव कर रहा है, जिसमें मकान टूटने लगते हैं, और खंडहर बनकर पुरातत्व के नमूनों में बदल जाते हैं। लेकिन अब बच्चे के आने से वातावरण बदलेगा और घर में रौनक आ जायेगी। अब वह सब कमरों मे नये बल्ब लगा देगा, जो सब फ्यूज हो चुके हैं और मुद्दत से बदले नहीं गये हैं। अब वह उत्साह से पिता का यह रोल अपना लेगा और बच्चे को सिखा-पढ़ाकर देश का संस्कृत और उत्तम नागरिक बनायेगा। डेजी के जाने के बाद उसने घंटे पर ध्यान देना भी बंद कर दिया था, अब वह नियमित रूप से हर ग्राहक से मिलेगा-जुलेगा और उनके लिए साइनबोर्ड बनायेगा, क्योंकि उसे लड़के की परवरिश करने के लिए पैसे की जरूरत होगी, जिसे बाद में वह ऊटी के लवडेल बोर्डिग में दाखिल करा देगा। उसने लड़के से कहा, 'अब तुम स्कूल जाओगे, वह बहुत अच्छा होता है, वहाँ तुम्हें बहुत से दोस्त मिलेंगे...।"

यह बात सुनते ही लड़के का चेहरा उतर गया, उसने तुरंत उत्तर दिया, ' मैं 'क्यों नहीं है?' 'वहाँ मास्टर मुझे पीटते हैं। 'रमन ने उसे समझाने और उसका डर दूर करने की कोशिश की लेकिन लड़का अपनी बात पर कायम रहा और कहता रहा, " स्कूल नहीं जाऊँगा, नहीं जाऊँगा...।"

'कोई बात नहीं, तुम स्कूल मत जाना, चलो, अब तुम्हें चाकलेट खिलायेंगे," रमन ने उसे धीरज बँधाते हुए कहा और सोचा कि रास्ते में चेट्टियार स्टोर्स पर रुककर उसके लिए चाकलेट खरीदेगा। उसने खुद को समझाया, 'मुझे जल्दी नहीं करना चाहिए। धीरे-धीरे मैं उसे ठीक कर लूगा।... मुझे खुद स्कूल कितना नापसंद था... ।'

पहिये में घूमने के बाद लड़का मेले के चारों तरफ चलने वाली खिलौनागाड़ी में बैठने की जिद करने लगा। उसका चक्कर पूरा होने के बाद भी वह गाड़ी से उतरने को तैयार नहीं हुआ, और चाहता रहा कि एक के बाद, फिर तीसरा, और इसी तरह चक्कर लगाता रहूँ। चार चक्कर लगाने के बाद भी वह उतरने को तैयार नहीं हुआ। रमन को भी चक्कर लगाने में खूब मजा आया और वह कुछ देर के लिए डेजी के व्यवहार से उत्पन्न परेशानी को भूल गया। इस सब घूमने फिरने और खाने-पीने के बाद रमन को ख्याल आया, कि इस लड़के के कारण उसने भी काफी खा-पी लिया है, नहीं तो सवेरे से उसने कुछ भी नहीं खाया था। यह सोचकर उसे प्रसन्नता हुई, 'इस लड़के के कारण मुझमें भी जान पड़ गयी, टॉनिक की तरह। जब वह साथ रहने लगेगा, तब तो न जाने कितना परिवर्तन आ जायेगा। काम करने के वक्त को छोड़कर वह सारा समय लड़के के साथ ही बितायेगा। वह कहानियों की किताबें खरीद लेगा और लड़के को कहानियाँ पढ़कर सुनायेगा। उसे रामायण कहानी भी बतायेगा।'

कुछ दूर चलकर लड़का एक दुकान पर रुक गया, जहाँ कड़ाही में बड़े-बड़े बौंडे तलकर निकाले जा रहे थे। रमन ने कहा, 'अब और नहीं खाना है... और नहीं," क्योंकि उसे डर लगा कि यह सब भी उसके पेट में गया तो कहीं वह उल्टी करना शुरू कर दे। खुद उसके पेट में गुड़गुड़ होने लगी थी। बौंडे खिलाने की जगह वह उसे कुछ और तमाशे दिखाने ले गया,- जहाँ तोता सरकस के खेल दिखा रहा था, कुत्ता ताश के पते उठा-उठाकर दे रहा था, मौत के कुएं में मोटरसाइकिल की गोलगोल दौड़-इसे देखकर लड़का उत्तेजना से चीखें मारने लगा।

लड़के को जब मौका मिलता तो वह कुछ शैतानी भी कर गुजरता-उसने फूलों के गमले तोड़ दिये, पोस्टर फाड़ डाले, जहाँ कहीं खाली जगह मिला, उलट-पुलट करने लगा, फव्वारों का पानी इधर-उधर उछाल दिया, खासतौर से पास से गुजरते बच्चों पर, कभी-कभी जबरदस्ती हाथ छुड़ाकर अपनी उम्र के किसी लड़के को पटखनी दे दी, किसी लड़की की चुटिया पीछे से पकड़कर खींच ली, जमीन से पत्थर उठाकर ऊपर लगे बल्बों में दे मारे, इत्यादि। रमन को उसकी इन हरकतों से परेशानी तो हुई और वह उसे रोकने की कोशिश भी करता रहा, लेकिन भीतर-ही-भीतर वह खुश भी होता रहा। जब वह लड़के का हाथ पकड़े एक लाइन में लगा तो डरता रहा कि पता नहीं, आगे खड़े आदमी के पीछे से वह क्या कर गुजरे। रमन उसकी शैतानियों और हर बात में दखल देने की आदत को गुण मानकर ही लेता रहा। यद्यपि वह उसे काबू में भी किये रहा क्योंकि कहीं मारपीट न हो जाये, जो उसे ही झेलनी पड़ती। उम्र के ख्याल से यह उसके लिए स्वाभाविक बात है, स्कूल जाने लगेगा तो ठीक हो जायेगा हमारे देश के लोग नहीं जानते कि बच्चे का विकास रोके बिना उसे किस तरह पालना पोसना चाहिए।

अब वे 'मेरी-गोराउन्ड' के पास आ पहुंचे थे। लड़के ने जैसे ही दूसरे बच्चों को लकड़ी के घोड़ों पर चढ़े देखा, कहा, 'मैं भी घोड़े पर चढूँगा।' रमन सोचने लगा कि इस पर उसे अकेले बिठा देना ठीक भी रहेगा या नहीं, क्योंकि वह खुद उसके साथ नहीं बैठ सकता था। उसने कहा, 'तुम पहिये की सवारी कर चुके हो। यह भी उसी तरह है।

'नही," लड़के ने पैर पटकते हुए कहा, 'मैं तो चढ़ूँगा।'

रमन की समझ में नहीं आया कि कैसे उसे समझाये, इसलिए उसने कुछ खाने का लालच दिया, हालाँकि वह भी अब ठीक नहीं लगा रहा था। लड़के ने कहा, 'जरूर खाँऊगा लेकिन घोड़े पर चढ़ने के बाद।"

रमन ने अचानक उत्साह दिखाते हुए कहा, 'अरे, वहाँ फिल्म दिखायी जा रही है। चलो, उसे देखेंगे।' लड़के ने यह सुनकर सिर घुमाया परदे के सामने भीड़ लगी होने के कारण उसे कुछ दिखायी नहीं दिया, इसलिए उसने सिर हिला दिया। रमन ने कहा, 'मैं तुम्हें इतना ऊँचा उठा दूँगा कि दूसरों से ज्यादा अच्छा दिखायी देगा...।"

लड़के ने जिद की, 'मुझे तो घोड़े ही चढ़ना है।' अब बिना कुछ कहे रमन ने उसे कंधे पर उठा लिया और परदे की तरफ बढ़ते हुए कहने लगा, 'हाँ हाँ पहले फिल्म में बहुत से शेर, चीते और बंदर देख लो फिर उसके बाद...।"

लड़का काफी भारी था और उसके धूल-मिट्टी से सने जूते रमन के कपड़े भी गंदे कर रहे थे, साथ ही वह लातें भी चला रहा था, लेकिन रमन उसे जबरदस्ती एक ऊँचे से ढेर पर ले जाकर खड़ा हो गया। लेकिन इस भारी वजन को सिर चढ़ाये वह भी हाँफने लगा था। वहाँ से भी फिल्म के एकाध टुकड़े के सिवा कुछ नहीं दिखायी देता था, पर उसे उम्मीद थी कि इसमें एकाध शेर या बंदर जरूर दिखायी देगा, जिसका उसने लड़के से वादा किया था। लड़के के मन में उसका विश्वास टूटना नहीं चाहिए, कि वह उसे झूठा समझने लगे। उसने पूछा, 'क्या दिखायी देता है तुम्हें?" तो लड़के ने कहा, 'कोई शेर या बंदर नहीं है इसमें, एक आदमी गेंद खेल रहा है-अच्छा, मुझे गेंद चाहिए।'

'ठीक है, तुम्हें गेंद मिलेगी। जब हम यहाँ से चलेंगे, गेंद खरीद लेंगे।' उसे एक दुकान की याद आयी जहाँ प्लास्टिक का सामान और गेंदें रखी थीं, पर वह कहाँ थी, यह ध्यान में नहीं आ रहा था। वह दुकान ढूँढ़ लेगा और एक की जगह दो गेंदें खरीदेगा, एक खेलने के लिए और दूसरी रिजर्व में रहेगी कि कहीं पहली गेंद खो जाये तो यह दे दी जायेगी।

तभी कंधे पर चढ़े लड़के ने किसी को देखकर जोर से आवाज लगायी, 'अम्मा', और उतरने के लिए ऐसी उछल-कूद करने लगा कि रमन का कंधा दर्द करने लगा। उसने लड़के को छोड़ दिया और उतरते ही वह तेजी से लाइफ इन्श्योरेंस के स्टाल के बगल में घास पर बैठे कुछ लोगों की तरफ भागा। रमन भी उसके पीछे दौड़ा। इस दल में एक काफी लंबा और तगड़ा आदमी था। जो किसी गाँव का किसान लगता था। भूरे रंग की साड़ी पहने एक अधेड़ औरत और दो लड़कियाँ थीं, इनके खरीदे सामान के बहुत से बंडल आस-पास बिखरे पड़े थे, जिनसे लगता था कि ये लोग खरीद-फरोख्त करने के इरादे से यहाँ आये हैं और शाम की बस से गाँव वापस चले जायेंगे।

लड़का तीर की तरह उनके बीच जा घुसा। उसे देखते ही सब उसके इर्दगिर्द इकट्टे हो गये और सवाल-पर-सवाल करने लगे। रमन ने सुना कि वह तगड़ा आदमी बड़ी जोरदार आवाज में उससे पूछ रहा है, 'कहाँ गायब हो गया था शैतान! तेरी वजह से हमारी बस छूट गयी।' फिर उसने लड़के को एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद किया और कान पकड़कर उमेठना शुरू किया। लड़के ने चीखना शुरू किया।

रमन को यह बरदाश्त नहीं हुआ और आगे बढ़कर उसने कहा, 'मत मारो।'

आदमी दूसरा थप्पड़ रसीद करने ही जा रहा था कि माँ ने आगे बढ़कर उसे अपनी तरफ घसीट लिया और इस दूसरी मार से उसे बचा लिया। रमन ने सोचा कि अब उसके सपने का अंत हो गया है। वह मेले से बाहर निकल आया और सरयू के किनारे अपने घर की ओर चल पड़ा।

  • आर. के. नारायण की अंग्रेज़ी कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • भारतीय लेखकों की अंग्रेज़ी कहानियां और उपन्यास हिन्दी में
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां