भोजपुर की ठगी (हिंदी उपन्यास) : गोपाल राम गहमरी

Bhojpur Ki Thaggi (Hindi Novel) : Gopalram Gahmari

भोजपुर की ठगी : अध्याय १ : गंगा जी की धारा

अगर आकाश की शोभा देखना चाहते हो तो शरद ऋतु में देखो, अगर चन्द्रमा की शोभा देखना चाहते हो तो शरद ऋतु में देखो, अगर खेतों की शोभा देखना चाहते हो तो शरद ऋतु में देखो, अगर सब शोभा एक साथ देखना चाहते हो तो शरद ऋतु में देखो। आकाश में चन्द्रमा की खिलखिलाहट, तालाब में कमल की खिलखिलाहट, खेतों में धान की हरियाली, घर में नवरात्र की धूम, शरद ऋतु में सभी सुन्दर, सभी मनोहर हैं। इसी मनोहर समय दुर्गा पूजा की छुट्टी पाकर मुंशी हरप्रकाश लाल नाव से घर आ रहे थे। वे दानापुर के एक जमींदार के मुलाजिम थे। सूर्य डूब गया है, नीले आकाश में जहाँ-तहां दो-एक बड़े-बड़े बादल सुमेरु पर्वत की तरह खड़े हैं। चौथ के चन्द्रमा दिखाई दे रहे हैं परन्तु अभी तक उनकी चांदनी नहीं खिली है, इसी समय मल्लाहों ने डांड़ हाथ में लिए। गंगा की उलटी धार में नाव धीरे-धीरे चलने लगी। मुंशी हरप्रकाश लाल, उनके बहनोई हरिहर प्रसाद, मित्र लक्ष्मी प्रसाद और पुजारी खेलावन पांडे नाव में भीतर बैठकर ताश खेल रहे थे। कौन जीता और कौन हारा सो मालूम नहीं। शाम होने पर उन्होंने खेल उठा दिया। खेलावन पांडे और लक्ष्मी प्रसाद बाहर आकर नाव के किनारे बैठकर गंगाजल से संध्या करने लगे। हरिहर ने सुमिरनी की झोली में हाथ डाली और मुंशी जी एक भजन गाने लगे –

‘रे मन, हरी भज, हरी भज!’

जगत जाल में भूल न फंसना, कपट मोह माया मद छलताज।

दृढ विश्वास आस हरी पद कर, दयाशील संतोष साज सज।।

जा पड़ राज सो तरी अहल्या, ह्रदय तिलक धारण कर सो राज।

नाव धीरे-धीरे भागीरथी के दक्षिण किनारे पर एक गाँव के पास पहुंची तो मुंशी जी ने गीत बंद किया। उनका सुख-स्वप्न टूट गया, उन्होंने पूछा – “यह कौन गाँव है मांझी?”

मांझी –“जी सरकार, ए गाँव के नाव भोजपुर बोलेला।”

मुंशी जी – “ठोरा यहाँ से कितनी दूर है?”

“जी सरकार। नियरे”- यह कहकर पतवार मोड़ते हुए कर्णधार ने डाँड़ खेनेवालों से कहा – “वाह रे भाई। अब पहुंचे और दो हाथ कसके।”

एक डाँड़ी ने बिगड़कर कहा – “हूँ हमरे के सरकार का सिखावतानी। खेवत-खेवत जीव जात बा अब केतना खेवल जाला।”

सरदार – ‘अरे भैया नाराज मति हो। इ भोजपुर बलियाक सीधान ना होइत त काहे के कहतीं।”

इस बात से हरिहर प्रसाद चौंक पड़े, झोली-झ्क्कर भूल गए। झूठ-मुठ खांसकर बोले – “क्यों रे। यह क्या बात कहता है? यहाँ कुछ डर है क्या?”

सरदार के जवाब देने से पहले ही दूसरा डाँड़ी बोल उठा – “डर नाहीं? नीके-नीके एहिजा से निबहि जाइत तो तिनकौड़ीया पीर के सिरनी चढ़ाइब।”

मुंशी –“ठोरा पर नाव जरूर लगानी होगी।”

सरदार –“अरे बाप रे। सरकार का कहला?”

इतने में दोनों डाँड़ी चिल्ला उठे –“हमनी से इ ना सपरी, सरकार साहब का खातिर हमनी का जान देई?”

मुंशी जी –“तुम क्या कहते हो? मुझे यहाँ बहुत जरूरी काम है, ठोरा पर उतरना ही होगा।”

हरिहर प्रसाद ने कुछ नाराजी और कुछ दिल्लगी से कहा –“अरे जोड़ू के भाई, जान बड़ी है या जनाना? आज न सही, सप्तमी को वह चाँद का मुखड़ा देख लेना। इतनी उतावली करके जान देगा?”

मुंशी जी (कुछ बिगड़कर) –“तुम क्या कहते हो? मैं उन लोगों को चिट्ठी लिख चुका हूँ। मुझे जाना ही पड़ेगा। मांझी नाव किनारे लगाओ।”

मल्लाह ने नाव किनारे लगाकर कहा –“सरकार। गरीब के बात बासी भइला पर मीठ लगेला। चेत करीं, पीछे पछताइबि।”

नाव ठोरे पर आ लगी। मुंशी जी – “ओ ओ जी दलीप सिंह” – किनारे कूद पड़े। दलीप सिंह अपनी लाठी और मुंशी जी का सन्दूकचा लेकर उनके पीछे-पीछे चले और सब सामान नाव ही पर रहा।

मुंशी जी ने किनारे उतरकर बहनोई से कहा – “लाला जी। अगर आपको बहुत ही डर लगता हो तो आज चौसा जाकर ठहरिये; कल सबेरे फिर यहाँ आकर इंतजारी कीजियेगा।”

हरि. – “हमलोग तो आवेंगे परन्तु तुम्हारे दर्शन मिलेंगे?”

मुं. –“क्या? मेरी ससुराल यहाँ से बहुत दूर नहीं है। यहाँ न मुलाक़ात हो तो वहां होगी। वहां चलिए न?”

हरि. – “यहाँ इस वक़्त हम पांच-सात आदमी पहुंचेंगे तो तुम्हारे ससुर बहुत तड़फड़ा जायेंगे और नाव का सामान किसके सुपुर्द करें, हमलोग आज चौसे में ही जाकर रहेंगे। अब तुम जाओ, भगवान् रामचंद्र तुम्हारी रक्षा करें।”

“सरकार। अब हमनी का देरी नाही करब जा।” – कहकर मल्लाह ने नाव ठेल दी। देखते-ही-देखते नाव बीच गंगा में जा पहुंची और पहले की तरह धीरे-धीरे जाने लगी। डाँड़ी जी-जान से डाँड़ खेने लगे।

भोजपुर की ठगी : अध्याय २ : पंछी का बाग़

मुंशी हरप्रकाश लाल जहाँ नाव से उतरे वहां से थोड़ी दूर पश्चिम जाने पर एक बाग़ मिलता है। किन्तु हम जिन दिनों की बात लिखते हैं उन दिनों वहां एक भयानक जंगल था, लोग इसको ‘पंछी का बाग़’ कहते हैं। इस नाम का कुछ इतिहास है:-

लार्ड कार्नवालिस के समय में भोला पंछी नामक एक जबरदस्त डाकू था। वह किसी से पकड़ा नहीं जाता था। शाम को आपसे उसकी बातचीत होती। रात को वह बीस-पच्चीस कोस का धावा मारकर डाका डाल आता और सबेरे फिर वह वहीँ दिखाई देता। उसकी इस चाल के कारण लोग उसको पंछी कहते थे और यही उसका अड्डा था, इसलिए उसका नाम ‘पंछी का बाग़’ पड़ गया।

चार-पांच घड़ी रात गई थी। इतने में एक डोंगी उस जंगल के किनारे आ लगी। एक लम्बा और गोरा मर्द उससे उतरकर नाव को किनारे बाँधने के बाद जंगल में घुसा और उतनी रात को उस सुनसान कांटे और बिच्छुओं से भरे वन में जाने लगा। बीच में एक तालाब था, उसके चारों ओर बड़ी-बड़ी आकाश चूमनेवाली डालियाँ फैलकर वन को सघन बनाए हुए थीं। उन डाल-पत्तों के भीतर सूर्य की किरणें नहीं जाने पाती थी। सचमुच वह जगह ऐसी भयानक थी कि दिन को भी वहां जाने की हिम्मत किसी को नहीं होती थी। तालाब के आसपास बांस और बेंत की झाडी थी। उस तालाब के बीच में ताड़ के पत्तों से ढंका हुआ लकड़ी का एक मचान था। वह मर्द बांस और बेंत का वन पार करके तालाब में पैठा और हाथ की लम्बी लाठी से जल की गहराई नापते हुए कुछ दूर जाकर जल में डूबी हुई किसी कड़ी चीज पर चढ़ा और वहां से लाठी के सहारे कूद कर मचान पर पहुँच गया।

मचान पर एक ओर एक चिराग टिमटिमा रहा था और काले दैत्यों की शक्ल के कई आदमी वहां मौजूद थे।

उस कुरूप और भयंकर आदमियों से थोड़ी दूर एक अलग आसन पर तकिया लगाये पचास वर्ष का एक गंभीर पुरुष चांदी के गड़गड़े पर तमाकू पी रहा था। उसका नाम हीरा सिंह था। वह क्षत्रिय था। उन दिनों शाहाबाद जिले में वह एक बड़ा जमींदार और रईस गिना जाता था। वह उमर अधिक होने पर भी शरीर से कमजोर नहीं था, देखने में पहलवान मालूम होता था। वह लाठी और तलवार चलाने में बड़ा ही चतुर था। उसने उस नये आये हुए जवान से पूछा –“क्यों भोला। क्या खबर है?”

भोला –“गहरा माल है। कम से कम दस हजार।”

हीरा (हड़बड़ाकर) –“एं। वह कौन है रे?”

भोला –“देखने में अच्छा मोटा-ताजा है।”

हीरा –“ब्राह्मण तो नहीं हैं?”

भोला –“जी। भोला क्या इतना बेवक़ूफ़ है?”

हीरा-“तौ भी वह है कौन?”

भोला-“कलम की छुरी चलाने वाला है।”

हीरा-“अरे बता तो सही, कौन है?”

भोला-“मुंशी हरप्रकाश लाल।”

हरप्रकाश लाल का नाम सुनकर हीरा का चेहरा कुछ उतरा मानों उसका कुछ उत्साह घाट गया।

भोलाराय जाती का भूमिहार था। इसके डर से गंगा के दोनों पार के लोग थर-थर कांपते थे। इसके डर से रात को कोई बेखबर सोने नहीं पाता था। उन दिनों ऐसे आदमी बहुत ही कम थे, जो उसके नाम से न डरते हों। यहाँ तक कि भोला जहाँ जाता था वहीँ उसकी इज्जत होती थी और दामाद से भी बढ़कर उसकी खातिर-बात की जाती थी। भोला बड़ा चालाक था, हीरा का ढंग देखकर ताड़ गया कि हरप्रकाश लाल का नाम सुनकर डर गया है। उसने मुस्कुराकर कहा – “क्यों सिंह जी। मुंशी का नाम सुनकर आपको भय हो गया?”

हीरा-“भैया, भय भी नहीं है और भरोसा भी नहीं।”

भोला-“भरोसा क्यों नहीं है?”

हीरा-“हरप्रकाश ऐसा-वैसा आदमी नहीं है, वह भोलाराय को कुछ दिन पढ़ा सकता है।”

भोला-“मुझे पढानेवाला भोजपुर-बलिया क्या बिहार भर में कोई नहीं है।”

हीरा-“तुम हिन्दुस्तानियों को लूट लेते हो, वह अंग्रेजों को लूटता है।”

भोला-“वह अंग्रेजों को लूटता है तो मैं उसको लूटूँगा। आज तुम्हें दिखाऊंगा कि भोला की करामात, हिम्मत और ताकत कितनी है। यही काम करते-करते बुड्ढे हो गए लेकिन अभी तक डरते ही हो।”

हीरा-“अरे नादान। मैं द्रोणाचार्य हूँ और तू अर्जुन है, यह बात याद रखकर तो कुछ कहा कर।”

भोला (कुछ शरमाकर) –“जी। आप नाराज हो गए?”

हीरा-“नाराज नहीं, लेकिन ऐसे बड़े जोखम के काम में हाथ डालना अच्छा नहीं है। अपने बूते के बाहर काम करने से किसी-न-किसी दिन धोखा खाना पड़ेगा।”

भोला-“आप उसकी चिंता न करें। हरप्रकाश सामने के घाट पर उतरा है और सिर्फ एक प्यादे के साथ मैदान से जा रहा है। मेरे साथ सिर्फ हींगन, साधो और लालू को कर दीजिये, मैं अभी काम फतह करके हाजिर होता हूँ। दामी-दाम चीजें उसके साथ ही हैं। नाव में सिर्फ कपड़े-लत्ते और कुछ बर्तन हैं। सिर्फ दो-तीन आदमी साथ देने से मैं यह काम कर आऊंगा।”

हीरासिंह मुंशी हरप्रकाश लाल को खूब जानता था। उसे यह भी मालूम था कि वह कैसा दबंग और इज्जतदार है। परन्तु यह सुनकर उसकी जीभ में पानी आ गया कि मुंशी जी सिर्फ एक प्यादे के साथ दामी चीजें लेकर इस सुनसान मैदान से जा रहे हैं। उसका साहस बढ़ गया। उसने बिना विलम्ब किये भोला पंछी के मन मुताबिक़ काम करने का हुक्म दिया। उसी वक़्त दो डोंगियाँ तैयार होकर बाहर निकल गयीं और भोला ने उन तीनों डाकुओं को साथ लेकर मुंशी जी का पीछा किया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय ३ : मैदान में

मुंशी हरप्रकाश लाल लंबे-लंबे डेग मारते चले जा रहे थे। वे डर को कोई चीज नहीं समझते थे। उनके पीछे-पीछे भीम-देह दलीपसिंह एक संदूक पीठ पर बाँधे लम्बी लाठी कंधे पर लिए मतवाले हाथी की तरह झूमता जाता था। दोनों चुरामनपुर गाँव को जा रहे थे, जहाँ मुंशी जी की ससुराल थी। ठोरे पर से चुरामनपुर सड़क से जाने के बाद मैदान की पगडण्डी से जाना पड़ता था। मुंशी जी और दलीपसिंह धीरे-धीरे कई गाँव पार करके मैदान में जा पहुंचे। वहां जाने पर मुंशी जी को बड़ी ख़ुशी हुई। अगणित तारों से जुड़ा हुआ अनंत आकाश, चांदनी में सराबोर खेतों की हरियाली और शीतल-मंद बयार उनकी ख़ुशी चौगुनी करने लगी। मुंशी जी चलते-चलते गाने लगे –

अगर हम बागवाँ होते, तो गुलशन को लुटा देते।

पकड़कर दस्त बुलबुल को, चमन से जा मिला देते।।

दलीप सिंह इस गीत में मग्न हो रहा था। अचानक उसके पैर के पास से कोई चीज बिजली की तरह निकल गईं। वह झट कूदकर मुंशी जी के सामने जा खड़ा हुआ। मुंशी जी ने पूछा –“क्यों दलीप, क्या है?”

दलीप ने कहा –“सरकार। आपने सुना नहीं फरफराकर कोई चीज मेरे पैर के नीचे से चली गई। जो हो, सरकार रंग कुरंग मालूम होता है। जरूर डाकू हमलोगों के पीछे लगे हैं।”

मुंशी जी –“डर गए क्या दलीप?”

यह बात सुनकर दलीप कुछ शरमाया। उसने चिल्लाकर कहा –“अरे बदमाशों। अगर मर्द हो तो सामने आओ सामने।”

डाकू आगे-पीछे से गरज उठे। हरप्रकाश लाल लड़ने के लिए तैयार हो कर बोले –“देखो जी दलीप। अगर मैं घायल हो जाऊं तो तुम उसी वक़्त भाग जाना और यह संदूक मेरी स्त्री को जाकर देना। खबरदार नमकहरामी मत करना और संदूक में से दस मोहरें तुम ले लेना।”

उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि दो लंबे-लंबे जवान उनके सामने आकर खड़े हो गए। उनमे से एक के हाथ में एक लाठी और दुसरे के हाथ में तलवार थी।

मुंशी जी –“तुम लोग कौन हो? क्या चाहते हो?”

भोला-“यह संदूक चाहता हूँ।”

मुंशी –“बौना चाँद चाहता है।”

भोला –“मरने का शौक इतना क्यों है।” – कहकर उसने मुंशी जी पर लाठी उठाई।

मुंशी जी झट उछलकर एक बगल जा रहे और दुसरे डाकू के दाहिने हाथ पर ऐसी लाठी जमाई कि उसकी तलवार टूट गिरी। भोला ने फिर मुंशी जी पर हमला किया। दोनों में घमासान लड़ाई होने लगी। इस बीच दलीपसिंह जमीन से वह तलवार उठाकर भोला की तरफ दौड़ा। मुंशीजी की लाठी से हींगन का दायाँ हाथ टूट गया था, उसने बायें हाथ से लाठी उठाई। इस बीच में और दो डाकू आ पहुंचे। अब वे चार हो गए। मुंशीजी और दलीपसिंह इससे भी न डरकर पहले से अधिक जोश के साथ लाठी चलाने लगे। बड़ी देर तक लड़ाई होने के बाद हींगन मुंशी जी से सख्त घायल होकर धरती पर लोट गया। इसके बाद ही भोला पंछी के प्रहार से आंधी से टूटे हुए वृक्ष की भांति मुंशी जी भी लोटन कबूतर हुए। दलीपसिंह मालिक के आज्ञानुसार हवा की तरह भागा।

भोलाराय ने दलीपसिंह को भागते देखकर कहा –“साधो। तुम हींगन को देखो, माल उस बच्चू के हाथ में है। हम उसे पकड़ने जाते हैं।

यह कहकर उसने लालू सहित दलीप का पीछा किया।

चन्द्रमा अस्त हो गया है। आकाश में घोर घटा छा गयी है। एक भी तारा नहीं दिखाई देता। चारों ओर काली अंधियारी है, बीच-बीच में बिजली चमक जाती है, बूंदा-बंदी होने लगी है। पास की चीज भी नहीं दिखाई देती। ऐसी भयानक रात में डाकू सरदार भोलाराय का साथी हींगन मैदान में अधमरा पड़ा है। खून चारों ओर बह रहा है। चुपके-चुपके एक गीदड़ आकर उसका मुख सूंघने लगा। हींगन डर के मारे चीख उठा।

साधो घायल डाकू को वहां से हटाने का भार लेकर एक टूटे पुल पर बैठकर गांजा मलने लगा। हींगन की चीख सुन उसके पास आकर बोला – “हींगन। तुम अभी जीते हो। तमाकू पीओगे?”

हींगन ने धीरे-धीरे कहा – “आह! आह! अरे पहले इस गीदड़ को भगाओ।”

साधो-“गीदड़ भाग गया; गांजा पीओगे?”

हींगन-“मुझमें उठने की शक्ति थोड़े हैं। आह! आह! भाई जरा मेरा सिर बाँध दो।”

साधो-“अच्छा! मुंशी का कपड़ा खोल लाऊं।”

साधो उठकर मुंशी जी के लाश ढूँढने लगा परन्तु उसका कहीं नाम निशाँ भी न पाकर हींगन के पास लौट आया और उसी की धोती फाड़ एक गढ़े पानी में भिंगोकर उसके सिर में बाँध दिया और ऊपर से अपना गमछा लपेट दिया। हींगन ने जरा आराम पाकर पूछा – “मुंशी मर गया?”

“लेकिन मरकर गया कहाँ? गीदड़ घसीट ले गया क्या?” – यह कहकर साधो चारों ओर मुंशी जी को ढूँढने लगा। सड़क के किनारे, झाडी, जंगल, धान के खेत, सब जगह ढूँढा, लेकिन कही उनका चिन्ह नहीं पाया। लाचार लौटकर हींगन की बगल में सोना चाहता था कि इतने में एक आदमी आया और उसे जमीन पर ढकेलकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा और बोला – “पाजी! अब कह?”

साधो हिल-डुल नहीं सकता था। उसने बड़े कष्ट से कहा – “सरकार मैं आपका गुलाम हूँ, आप मेरी जान मत मारिये। आप जो हुक्म देंगे वही करूँगा।”

हमला करने वाले ने कहा – “तू डाकू है। तेरी बात का विश्वास क्या?”

साधो-“हुजूर! विश्वास कीजिये, मैं कभी नमकहरामी नहीं करूँगा।”

उस आदमी ने तुरंत साधो को छोड़कर कहा – “मैं तुझे छोड़ देता हूँ लेकिन तू अपनी बात रख जो कहता हूँ सो कर।”

साधो ने हाथ जोड़कर कहा –“क्या हुक्म है हुजूर।”

उस आदमी ने कहा –“इस घायल आदमी को कंधे पर चढ़ाकर मेरे साथ चल, यह जो मैदान में रौशनी दिखाई देती है वहीँ जाना होगा।”

साधो ने हींगन को कंधे पर लिया और उस आदमी के साथ-साथ उसी रोशनी की तरफ चला।

भोजपुर की ठगी : अध्याय ४ : साधु का आश्रम

साधो अधमरे हींगन को कंधे पर लेकर उस जवांमर्द के पीछी एक पगडण्डी से जाने लगा। पगडण्डी के दोनों तरफ बबूलों की कतार खड़ी थी, एक तो अँधेरी रात, दुसरे तंग रास्ता, उन लोगों को बड़ी तकलीफ होने लगी। परन्तु साधो को उस तकलीफ से मन की तकलीफ अधिक थी। डर के मारे वह सूख गया और उसके पीछे-पीछे जा रहा था। वह ताड़ गया था कि मुंशी जी नाजुक जगह में चोट लगने से बेहोश हो गए थे और अब होश में आकर मुझे पकड़े लिए जाते हैं। यह सोचकर उसका खून सूख जाता था कि मेरी क्या गति होगी। वह डर के मारे चुपचाप मुंशी जी के पीछे-पीछी जाने लगा। धीरे-धीरे आसमान साफ़ हो चला, अन्धकार की गहराई घाट गई। वे लोग जिस चिराग की रोशनी को ताकते हुए आते थे धीरे-धीरे उसके पास पहुँच कर देखा कि एक बड़े भारी पीपल के नीचे नख जटा बढाये, लम्बी दाढ़ी लटकाए, आँखे बंद किये एक साधु योगासन पर बैठे हैं और उनके सामने धूनी जल रही है।

मुंशी जी साधु के पास पहुँच गए और साधो को भी पास आने का इशारा किया। साधो लाचार होकर वहां गया और धीरे से हींगन को सुलाकर मुहं लटकाए उनके पास खड़ा हो गया। डर से उसका कलेजा कांप रहा था, वह सोचने लगा कि कैसे इस आफत से जान बचेगी। बहुत कुछ सोचने-विचारने के बाद उसने धीरे से कहा – “सरकार। आपके पैर में कीचड़ लग गया है, हुक्म हो तो उस जगह से पानी लाकर पैर धो दूँ।”

साधो की इच्छा पूरी हुई, वह हुक्म पाकर पानी लाने के बहाने धीरे-धीरे वहां से चलता हुआ।

साधु चुपचाप आँखें मूंदे बैठे हैं, एक तरफ हींगन डाकू मुर्दे की तरह पड़ा है और दूसरी तरफ मुंशी जी चुपचाप बैठे न जाने क्या सोच रहे हैं।

इसी तरह कुछ समय बीतने पर थोड़ी दूर पर बड़े जोर से चिल्लाहट सुनाई दी। साधु बाबा ने आँखे खोलकर बड़ी गंभीर आवाज में कहा –“घबराओ मत बच्चा।”

मुंशी जी ने चौंककर साधु की तरफ देखा। साधु बाबा ने फिर कहा –“घबराओ मत बच्चा! वह कहाँ भागेगा, अभी पकड़ा जाएगा।”

साधु की यह बात सुनकर मुंशी जी चकराये, सोंचने लगे कि उन्होंने मेरे मन की बात कैसे जान ली। थोड़ी ही देर दलीप सिंह भागते हुए साधो की चुटिया पकड़ हाजिर हुआ। साधो का बायाँ हाथ कुछ कट गया था, जख्म से खून जा रहा था। दलीप सिंह की भी अब वह हालत नहीं है। उसका शरीर लहू-लहान हो रहा है। वह बायें हाथ से साधो की चुटिया और दायें में तलवार पकड़े भयंकर वेश में आकर खड़ा हो गया।

साधो –“दुहाई बाबाजी, दुहाई बाबा जी की।”

साधु-“चिल्ला मत कमबख्त।”

दलीप सिंह ने मालिक के मुहं की तरफ देखकर साधो को छोड़ दिया और एक तरफ कठपुतला की तरफ चुपचाप खड़ा हो गया।

साधु-“भकुआ क्यों बन गए? अपने मालिक को पहचानता नहीं क्या?”
दलीप सिंह में अभी तक बोलने की शक्ति नहीं थी। वह मुंशी जी की तरफ एकटक देखता रहा।

मुंशी जी ने कहा –“क्या है दलीप! तुम यहाँ क्यों आये?”

“सरकार बतलाता हूँ।” – इतना कहने के साथ ही दलीप की आँखों से आंसुओं की धारा बह चली। उसका गला भर आया, मुहं से और बातें नहीं निकलीं। बड़ी देर के बाद उसने भारी आवाज से कहा –“सरकार के दर्शन मिलने की आशा नहीं थी।”

मुंशी जी –“अब क्या खबर है? तुम अहिरौला नहीं गए?”

दलीप-“सरकार। ज्योंही आप गिर पड़े मैं आपके हुक्म के मुताबिक़ जान लेकर भागा, लेकिन कुछ दूर जाकर सोचा कि डाकू जरूर ही मेरा पीछा करेंगे। मैं अकेला हूँ, पास में गहने की संदूक है। मैं भी मरूँगा, संदूक भी जायेगी, कहीं छिप रहना चाहिए। यह सब सोचता और एक साँस दौड़ता जाता था कि एक जगह सामने बरगद के पेड़ दीख पड़े। वहां बड़ा अँधेरा था। धीरे-धीरे उसी में जाकर बरोहनियों में छिप गया। थोड़ी ही देर बाद सुना कि डाकू दौड़े आ रहे हैं। एक कहता है –‘सार कहाँ गया?’ दूसरा कहता है –‘चाहे जहाँ जाय, भोलाराय से बचकर नहीं निकल जाएगा। फिर वह जहाँ जाएगा उसे भी मैं जानता हूँ। तू चला आ।’ दोनों आगे बढ़ गए। मैंने वहां से निकलकर सोचा कि पहले जिसका नमक खाता हूँ उसकी खबर लेनी चाहिए। यही सोचकर सीधे वहां आया जहाँ डाकुओं से मार-पीट हुई थी। वहां आने पर यह मिला।”

मुंशी जी-“अरे गया कहाँ, भागा तो नहीं?”

साधुबाबा इस बीच में धूनी कुरेद रहे थे। सबको बेखबर देखकर साधो खिसक रहा था। थोड़ी ही दूर गया था कि साधु ने घुड़की दी –“बदमाश! फिर भागता है? इधर आ।”

साधो डाकू मन मारे हुए की तरह उनके पास आकर खड़ा हो गया। साधु ने किचकिचाकर उसकी तरफ देखते हुए न जाने क्या कहा। फिर मुंशी जी से कहा –“देखो बच्चा। उसका हल हो गया। अब एक कदम भी हिलने की ताक़त नहीं है।”

मुंशी जी साधु बाबा की यह करामात देखकर चकित हो गए और उन पर उनकी भक्ति प्रबल हो आई। वे दोनों डाकुओं को उनके पास छोड़कर दलीप सिंह सहित वहां से चल दिए। जाते समय कह गए – “कल सबेरे आकर फिर चरणों के दर्शन करूँगा।”

साधु के आश्रम से विदा होकर मुंशी हरप्रकाश लाल फिर उसी बबूल के जंगल से चले। दलीप सिंह भी पीछे-पीछे चला, जाते-जाते मुंशी जी ने प्यादे से पूछा –“क्यों जी। तुम उस पाजी को थाने में न ले जाकर यहाँ क्यों ले आये?”

दलीप. – “सरकार! थाना यहाँ से बड़ी दूर है। उतनी दूर इतने बड़े जवान को घसीट ले जाना क्या सहज है? रौशनी देख कर सोचा कि जरूर यहाँ कोई आदमी होगा, वहां कुछ-न-कुछ उपाय हो जाएगा इसीसे यहाँ आया।”

मुंशीजी और कुछ न पूछकर चुपचाप कुछ सोचते हुए चले। कुछ दूर जाने के बाद अपनी लाठी दलीप को और उसकी तलवार लेकर कहा –“तुमने सीधे अहिरौली जाकर अच्छा नहीं किया।”

दलीप. – “सरकार। मैं बेवकूफ आदमी हूँ, बिना समझे-बूझे काम कर डाला है, मेरा कसूर माफ़ कीजिये।”

“अच्छा आओ।”- कहकर हरप्रकाशलाल तेजी के साथ जाने लगे। रास्ते में तरह-तरह की चिंता उनके मन को डावाँडोल करने लगी। वे सोचने लगे – क्या ही आफत आ पहुंची। चार-पाँच घंटे पहले मेरा मन कैसा था और अब क्या हो गया? फिर आगे क्या होगा सो कौन कहे? यह भी नहीं जानता कि मेरे साथियों की क्या गति ही। ससुराल में औरतों का घर है, मर्द के नाम पर सिर्फ बूढ़े ससुर जी हैं। उनसे क्या होगा? न जाने डाकू कितना सता रहे होंगे, किस तरह इज्जत उतार रहे होंगे? ओफ! सहा नहीं जाता। (दलीप से) दलीप सिंह और कितनी दूर है? हमलोग कहाँ आये हैं?”

दलीप-“सरकार। दाहिनी तरफ खौलिया छुटता है।”

मुंशीजी- “तब तो हमलोग पहुँच गए।”

दलीप-“जी सरकार। यही तो रास्ता है।”

लंबा-चौड़ा मैदान झनझना रहा है। उसके पश्चिम किनारे पर बड़ और पीपल के पेड़ अगणित जुगनुओं से घिर कर रत्नतरु की भांति शोभा दे रहे हैं। उन पेड़ों के पीछे एक कच्चा रास्ता उत्तर से दक्षिण को गया है। उसी रास्ते पर अहिरौली गाँव है। वही रास्ता दलीपसिंह ने मुंशीजी को दिखाया। वे लोग जिस रास्ते आते थे उस से दुसरे रास्ते को एक पुल मिला देता है।

मुंशीजी प्यादे सहित गाँव के पास पहुँच गए। यहाँ आने पर उनका चित्त और भी घबराया। कल्पना में तरह-तरह के कुदृश्य देखने लगे। उनको एक स्त्री की चिल्लाहट सुनाई दी। उनसे देर सही नहीं गई। पागल की तरह दौड़कर गाँव में घुसे।

भोजपुर की ठगी : अध्याय ५ : ससुराल

रात झन-झन कर रही है। चारों ओर सन्नाटा है। निशाचरी जानवरों के सिवा और सभी जीव सोये हुए हैं। ऐसी गहरी रात में वह कौन स्त्री अकेली इस अटारी की खिड़की में बैठी झाँक रही है? युवती क्या किसी की बाट देख रही है? या किसी असह्य मनोवेदना से अभी तक सुख की नींद नहीं सो सकी है? घर में एक दीया जल रहा है और एक पलंग पर एक विधवा सोयी हुई है। घर के पिछवाड़े से एक गीदड़ हुआँ- हुआँ करके भागा, फिर कई कुत्ते भों-भों करने लगे। विधवा की नींद टूटी। उसने खिड़की की तरफ देखकर कहा – ‘जीजी। सोवोगी नहीं क्या? रात बहुत हो गयी।”

खिड़की पर बैठी हुई स्त्री मुंशी हरप्रकाश लाल की पत्नी पार्वती है। पार्वती ने उदास होकर कहा –“हाँ सोती हूँ।”

विधवा ने करवट बदलकर कहा – “रात भर जागने से बीमार हो जाओगी।”

पार्वती –“आती हूँ।”

विधवा –“अब देर मत करो। पाहुन आने को होते तो अबतक आ गए होते। अब आज नहीं आवेंगे। तुम आओ सो रहो।”

पार्वती-“आती हूँ।”

विधवा-“अरे! तुम रोती हो क्या?”

पार्वती के ह्रदय में बड़ा कष्ट हो रहा था। कितनी ही कुचिंताएं उसके चित्त-पट पर तरह-तरह के अशुभ चित्र खींचती थी। बहतु दिनों के बाद स्वामी आनेवाले थे। वह अभी तक उनकी बाट देख रही थी। विधवा की बात सुनकर वह अपना मान संभाल नहीं सकी, रोने लगी।

विधवा उठी, पार्वती का हाथ पकड़ कर पलंग पर ले आई और उसे बिठाकर आप भी उसकी बगल में बैठ गयी।

विधवा ने अपने आँचल से पार्वती का मुहं पोछकर कहा –“राम!राम! तुम रोती क्यों हो? जीजा नहीं आये इसीसे रोती हो क्या? तुम तो महा नादान हो। रोकर उनका अशुभ क्या करती हो? नाव पानी का रास्ता है, ज्वार-भाटे की बात है, शायद नाव नहीं पहुंची, इसीसे नहीं आये। खैर, आज नहीं आये तो कल सवेरे आ जायेंगे। इसके लिए इतनी फ़िक्र क्यों, रोना-पीटना क्यों?”

पार्वती-“भौजी! मेरे मन में कैसा तो हो रहा है। बड़ी चिंता हो रही है। वे अच्छे तो हैं न?” – फिर आँखों से आंसू जारी हो गए।

विधवा-“वाह, अच्छे नहीं तो क्या हैं? ऐसी अशुभ बात जबान पर नहीं लानी चाहिए। जीजी! बाहरी दरवाजे पर कौन धक्का मार रहा है। धां-धां धक्का ही तो मारता है। दरवाजा तोड़ डालेगा क्या?”

पार्वती-“बाबूजी तो बाहर ही हैं। क्या वे ऐसे बेखबर सो गए हैं?”

विधवा-“रात क्या कम गई है। बूढ़े आदमी हैं। बैठे-बैठे सो गए होंगे। एक काम करो। दीया लेकर मेरे साथ चलो, मैं ही जाकर दरवाजा खोले देती हूँ।”

पार्वती का चेहरा खिल गया। उसने ख़ुशी मन से चिराग ले जाकर कोठरी का दरवाजा खोला। बाहरी दरवाजे पर लगातार धक्का पड़ रहा है। विधवा पार्वती के पीछे-पीछे चली और हँसते-हँसते बोली-“हरे, हरे। मुंशीजी से देर सही नहीं जाती है, दरवाजा ही तोड़ डालेंगे क्या?”

उन्होंने ज्योंही दालान में पैर रखा, त्योंही दरवाजे का एक किवाड़ धड़-धड़ाकर गिर पड़ा और यमदूत सरीखे दो लंबे जवान भीतर घुस आये। उनके सारे अंग में तेल और स्याही पुती हुई थी, दोनों के हाथ में एक-एक जलती मशाल और एक-एक लाठी थी। दोनों स्त्रियाँ अचानक इन भयंकर मूर्तियों को देख डर के मारे चिल्ला उठीं। पार्वती के हाथ से दीया गिर पड़ा। दोनों भाग कर अटारी पर चढ़ गई।

पार्वती जन्म से ही कोमल स्वभाव की है। एक तो रात भर जागते और इंतज़ार करते रहने से उसकी देह और मन थक गया था, ऊपर से इस घटना ने भय और नाउम्मीदी से उसको बदहवास कर दिया। वह खड़ी नहीं रह सकी, एकदम अचेत होकर धरती पर गिर पड़ी। विधवा भी घर का दरवाजा बंद करके भौंचक सी बनकर खिड़की की राह बाहर की तरफ चुपचाप ताकने लगी।

जो दो विकट मूर्तियाँ मकान में घुसीं उनमे से एक वही प्रधान डाकू भोलाराय और दूसरा उसका साथी था। भोला घर में घुसकर बड़े जोर से गरजा और लालू को नीचे छोड़कर खुद उन स्त्रियों के पीछे-पीछे गया। लेकिन ऊपर जाकर देखा कि औरतों ने भीतर से दरवाजा बंद कर दिया है। तब वह उसकी जंजीर चढ़ाकर फिरा, दालान में एक चारपाई पर मुंशीजी के ससुर बूढ़े बलदेवलाल सोये थे, नींद में नहीं थे। भोला पंछी के तड़पने से पहले ही उनकी नींद टूट गयी थी, परन्तु डाकुओं की अवाई जानकार वे पत्थर की तरह पड़े रहे।

भोला ने हाथ में मशाल लिए बूढ़े के सामने आकर कहा – “अरे बुड्ढा। तेरे दामाद का वह पाजी प्यादा कहाँ है?”

बूढा-“ऐं! दामाद!!!”

भोला-“तेरे दामाद को तो यमलोक में भेज दिया; अब यह बता कि उसका प्यादा और संदूक कहाँ है?”

बूढा-“ ऐं! संदूक! मुझे…तो कुछ माँ….लू….म…नहीं भैया….”

भोला-“हरामजादा! तू नहीं जानता?(मारते-मारते) बता कहाँ है?”

बूढा-“दुहाई दादा की। मैं कुछ नहीं जानता। भगवान् जाने, मैं कुछ नहीं जानता। यह चाभी देता हूँ। मेरे पास जो कुछ है ले लो, मेरी जान मत मारो।”

भोला-“अरे बदमाश तेरे पास लेने को क्या रक्खा है, बता दे संदूक कहाँ है, बता दे।”

बूढा-“भैया। तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ, मुझे मत मारो। मैं संदूक-फंदूक कुछ नहीं जानता।”

“नहीं बतावेगा?”-कहकर भोला ने लात मार बूढ़े को दूर फेंक दिया। बूढा कराहने लगा। परन्तु भोला इसका कुछ ख्याल न करके फिर एक बड़ी लकड़ी से उसके हाथ-पैर खोदने लगा। जब इतने से भी अपना काम बनते न देखा तब उस असमर्थ बूढ़े को उठाकर गाय के घर में पटक दिया। बूढा बेहोश हो गया। गाय वह विकट मूर्ति, जलती मशाल और भयंकर घटना देखकर उछल पड़ी और पगई तुड़ा कर बां-बां करती हुई भाग चली। भोला राय ने बाहर से किवाड़ बंद करके मशाल से घर में आग लगा दी और भीतर घुसकर लूट-मार मचाने लगा।

विधवा खिड़की से बूढ़े ससुर की पीड़ा और यंत्रणा देखकर रो उठी, उसके रोने से पार्वती को होश हुआ। वह उठ बैठी परन्तु पागल सी सिर्फ एक ओर टुकुर-टुकुर ताकती रही।

भोला ने नीचे के घर में जो कुछ दामी माल पाया उसे समेट कर कमर में बाँध लिया। फिर अटारी पर चढ़कर बंद दरवाजे पर धक्का देने लगा। बार-बार धक्का देने से किवाड़ टूट गया। भोला ने भीतर घुसते ही पार्वती की चम्पाकली नोंच ली और कहा-“अगर खैर चाहती है तो संदूक सामने रख दे।”

इसका कुछ उत्तर न पाकर वह दोनों स्त्रियों को पीटते-पीटते दालान में ले आया और बोला –“देख रे लालू। अगर प्यादे और संदूक का पता न बतावें तो इन हरामजादियों को भी जला दे।”

यह कहकर भोला गरजता हुआ बिजली की तरह लाठी घुमाता हुआ इधर-उधर नाचने लगा। आग गाय के फूसवाले मकान में भभक उठी और उसी में अभागा बूढा चिल्ला रहा था। क्या ही भयंकर दृश्य था।

पार्वती फिर मूर्छित हो गई। किन्तु धन्य विधवा का साहस। धन्य उसका धैर्य। वह इस दशा में भी पार्वती का सिर अपनी गोद में उठाकर उसकी मूर्छा छुड़ाने की चेष्टा करने लगी। पार्वती के बदन पर जो कुछ जेवर बाकी थे, उन सबको लालू ने उतार लिए। उसके गालों से लहू की धारा बहने लगी। विधवा रोते-रोते अपने आँचल से वह धारा पोंछने लगी।

इतने में “हाय रे राक्षस। तू ने क्या कर डाला?” कहकर कौन चिल्लाया? किसका कलेजा छेदकर यह आवाज निकली। विधवा ने उस आवाज की तरफ कान दिया कि उसी घड़ी डाकू का सिर धड़ से अलग हो गया। विधवा चिल्ला उठी। यह कार्यवाई किसने की? इस विपद में किसने आकर मदद की? विधवा ने फिर देखा कि खून से रंगी तलवार हाथ में लिए पागल की तरह एक आदमी आकर पार्वती को गोद में उठाये महल में चला गया। वह आने वाला मुंशी हरप्रकाश लाल था।

थोड़ी ही देर बाद दलीप आ पहुंचा। भोला पंछी अपने को अकेला देखकर भाग गया। तब दलीप सिंह चिल्लाहट सुनकर जलते हुए गौसार की तरफ दौड़ा गया और क्षणभर में बूढ़े लाला बलदेव लाल को निकाल लाया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय ६ : सलाह

पार्वती उसी अटारी में पलंग पर बेहोश पड़ी है, हिलती है न डोलती है। विधवा बहु उसके पास बैठी सेवा-शुश्रूषा करती है। मुंशी जी दालान में बैठकर ससुर जी के जख्मों पर जल में भिंगो-भिंगो कर पट्टी बाँध रहे हैं। दलीप सिंह सीढ़ी के नीचे खड़ा होकर चिलम पी रहा है। सभी चुप हैं। कोई कुछ नहीं बोलता है।

गाय वाला घर अभी तक जल रहा है और गाय बां-बां करती घर के चारों ओर दौड़ रही है। कुछ देर यों ही बीतने पर पार्वती ने एक लम्बी सांस लेकर धीरे से कहा –“भौजी।”

विधवा-“क्यों जीजी। मैं यहीं हूँ।”

पार्वती-“भौजी, मेरे शरीर में बड़ा दर्द है। कलेजा टूक-टूक हो रहा है। तुम मेरी छाती पर हाथ सहलाओ।”

पार्वती की यह बात सुनकर बूढ़े ससुर उठ बैठे। ससुर जी को उठाते देखकर मुंशी जी ने घबराकर कहा –“आप क्यों उठे?”

बलदेव लाल ने लम्बी सांस लेकर कहा –“हा दैव। बुढापे में यही विपद बड़ी थी। बेटी, पार्वती। तू भी मुझे छोड़कर भागना चाहती है?”

“आप यह क्या बकते हैं?” क्यों घबराते हैं? गश के बाद कलेजा इसी तरह दुखता है, आप घबराइये नहीं चित्त को स्थिर कीजिये।”

यह कहकर मुंशी जी पार्वती के पास जा खड़े हुए।

विधवा-“जीजी। ज़रा आँखें खोल कर देखो तो ये कौन आये हैं?”

पार्वती ने एक बार हरप्रकाश लाल की ओर देखकर लाज से आँखें बंद कर लीं। पार्वती का वह सलज्ज भाव देखकर हरप्रकाश लाल का दाम्पत्य स्नेह उमड़ आया। उन्होंने विधवा को संबोधन करके कहा –“देखिये अभी किसी तरह उठने मत दीजियेगा। अभी उठने से फिर गश आ सकता है। घर में दूध हो तो थोड़ा पिला दीजिये।”

यह कहकर मुंशी जी बूढ़े ससुर के पास लौट आये। बूढ़े ने कहा –“बबुआ जी। आज पुत्र का काम किया है। आज तुम्हारे ही दम से कई आदमियों के प्राण बचे हैं।”

मुंशी जी ने कहा –“नहीं साहब। मेरे कारण ही आप लोगों पर यह आफत आई।”

यह कहकर वे उस भयानक रात के सारी कहानी ससुर जी को सुनाने लगे। इतने में बाहर से किसी के चिल्लाने की आवाज आई। सब लोग घबराए। मुंशी जी तलवार लेकर खड़े हो गए।

बलदेव लाल ने उनका हाथ धरकर कहा –“बबुआ जी। यह क्या करते हो? बैठों, तुमको नहीं जाने दूंगा। अभी हरगिज नहीं जाने दूंगा।”

“आप रहिये मैं जाता हूँ।” – यह कहकर मालिक का हुक्म बिना सुने ही दलीप सिंह दालान में आया। वहां कोई नज़र नहीं आया। उसने देखा कि गाय की झोपडी जल कर धूल में मिल गयी है और आग का जोर बहुत घट गया है। घर में चारों ओर देखा और कहीं कोई नज़र नहीं आया। अंत में बाहर जाकर देखा कि एक आदमी धरती पर लेटा हुआ है। दलीप सिंह उस आदमी को देखते ही पहचान गया, वह उसके मालिक के बहनोई हरिहर प्रसाद थे। दलीप झट उन्हें गोद में उठाकर भीतर ले गए।

मुंशी जी बहनोई की यह दशा देखकर बहुत ही दुखी हुए और उनको होश में लाने का यत्न करने लगे। थोड़ी देर के बाद हरिहर प्रसाद को होश हुआ।

मुंशी जी –“हरि जी। माजरा क्या है?”

हरि.-“भई। उस समय अगर तुम्हारे साथ आता तो ऐसी विपद में नहीं पड़ता। बाप रे आप, जिन्दगी भर में ऐसी आफत कभी नहीं आई थी। ठोरे के पास तुम लोगों को उतार नाव आगे बढ़ी, थोड़ी ही दूर गयी थी, इतने में न जाने किधर से कई डोंगियों ने आकर हमारी नाव घेर ली। एक डोंगी से एक आदमी ने मेरी नाव पर चढ़कर कर्णधार को पानी में ढकेल दिया। डांडी यह देखकर पानी में कूद पड़े। फिर और दो-तीन आदमी आकर हमलोगों के चीजें लूटने लगे। आफत देखकर मैं नाव पर से कूद पड़ा। बड़ी मुश्किल से तैरकर किनारे आया। पानी से निकलकर इधर-उधर देखा, परन्तु हमारी नाव नज़र नहीं आई। ऊपर आकर देखा कि चारों ओर जंगल ही जंगल है, वहां न तो कोई गाँव है न कोई रास्ता। लाचार किनारे-किनारे रेत में चलने गला। बहुत दूर जाने पर एक मछुए को देखकर कहा –‘भैया, मैं बड़ी विपद में पड़ा हूँ मेरी जान बचाओ।’ मेरी गिड़गिड़ाहट से उसको दया आयी। उसने मुझे चुरामनपुर का रास्ता दिखा दिया। रात में आश्रम ढूँढा मगर कहीं किसी को नहीं पाया – अकेला मैदान में चलने लगा और बड़ी मुश्किलों से यहाँ तक आया, लेकिन यहाँ आने पर जो कुछ देख वह इस जिन्दगी में नहीं भूलूंगा। कैसा भयंकर दृश्य। घर जल रहा है, आग की लपट आकाश छू रही है और एक बड़ा भारी राक्षस एक आदमी को पकड़कर चर-चर चबा रहा है। यह देखकर मेरा कलेजा सूख गया, सारा अंग कांपने लगा, मुझसे खड़ा नहीं रहा गया, चिल्लाकर जमीन पर गिर पड़ा।”

मुंशी जी –“देखो तो दलीप सिंह। वह डाकू पड़ा हुआ है या नहीं?”

दलीप तुरंत नीचे उतर गया। कुछ देर बाद लौटकर बोला –“सरकार। वह तो नहीं दिखाई देता।”

यह सुनकर मुंशी जी का चेहरा कुछ उदास हो गया। वे बोले –“जो खटका था वही हुआ। डाकू लाश उठा ले गए।”- पीछे हरप्रकाश लाल ने अपनी राम कहानी हरिहर प्रसाद से कह सुनायी। धीरे-धीरे सबेरा हो गया, चारों ओर चिड़ियाँ चहकने लगीं।

मुंशी जी, हरिहर प्रसाद और दलीपसिंह के बैठक में आने पर बूढ़े बल्देव्लाल भी एक छड़ी टेकते-टेकते बाहर आये। उनकी दानशीलता और परोपकार से गाँव के सब लोग उनको बहुत मानते थे। उनकी विपद सुनकर सभी घबराए थे। कितने ही उनको देखने आये। उनमे एक ऊँचे आदमी ने मुंशी जी से कहा –“मुंशी जी, मुझे पहचानते हैं?”

मुंशी जी –“जी हाँ, आपको यहाँ देखा था।” – वह आदमी लाला बलदेव लाल का लंगोटिया यार मथुरा लाल था। वह अक्सर लाला जी के घर आकर शतरंज खेलता था।

बलदेव –“मथुरा भाई, कल पाहुन ने ही हम लोगों की जान बचाई।”

मुंशी जी –“मैं नहीं जानता था कि आप लोगों का परगना ऐसा भयानक है।”

मथुरा-“भय की बातें हमेशा सुनने में आती हैं। खासकर पंछिबाग के सामनेवाला स्थान बड़ा ही खौफनाक है।”

मुंशी जी-“आरा जिले के पास भी ऐसी बदमाशों का अड्डा है? इन दुष्टों को सजा क्यों नहीं होती?”

मथुरा –“इसमें बड़ी-बड़ी चाल है। सुनते हैं कि हीरा सिंह डाकुओं को रखता है। उसके दल को गिरफ्तार करना सीधा न समझियेगा।

मुंशी –“तो भी इस अंधेर को मिटाने की कोशिश करना बहुत जरूरी है।”

मथुरालाल ने बलदेवलाल से कहा-“तुम अगर आरे के फौजदार रहीम खां के यहाँ जाकर हाथ-पैर जोड़ो तो शायद यह लूट बंद हो सकती है।”

मुंशी-“इस मामले में लापरवाही करने से ठीक नहीं होगा। आपको ज़रा आराम हो ले तो हम दोनों आरा चलकर इस अत्याचार का हाल उनसे कहेंगे और इसकी दवा के लिए सलाह करेंगे।”

मथुरा-“भाई। जितनी जल्दी हो सके, मुंशी जी को साथ लेकर आरा जाओ। यह जुल्म अब सहा नहीं जाता, इसका इलाज़ करना बहुत जरूरी है।”

यों बातचीत करते-करते बहुत दिन चढ़ गया, तब सबलोग अपने-अपने घर चले गए।

मुंशी जी स्त्री को विदा करा के अपने गाँव को रवाना हुए। हरिहर प्रसाद और दलीप उनके साथ हो लिए। मैदान से जाते-जाते पिछली रात की बात याद आने से मुंशी जी इस पीपल के नीचे साधु बाबा के दर्शन करने गए परन्तु वहां किसी को नहीं पाया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय ७ : नौरतन का खँडहर

डुमरांव से उत्तर नौरतन नाम का खंडहर है। कहते हैं राजा विक्रमादित्य की तरह राजा भोज के दरबार में भी नौरतन थे। राजा ने उनके लिए एक बैठक बनवाई थी। जिस समय का यह हाल है, उस समय नवरतन का खँडहर अनेक प्रकार की वृक्ष-लता आदि से बहरा होने के कारण एक जंगलमय पहाड़ जान पड़ता था। उसके चारों ओर भी एक घना जंगल था। वहां आदमी का प्रवेश नहीं था। रात की कौन कहे, दिन को भी कोई अकेला उस नौरतन के पास से जाने की हिम्मत नहीं करता था। लोगों का ऐसा विश्वास था कि वहां भूत-प्रेत और दैत्य रहते हैं। आधी रात के समय वहां एक औरत के गाने की आवाज सदा सुनी जाती थी, और कभी-कभी पीपल की लम्बी डाल पर पैर लटकाये, सफ़ेद कपड़ा पहने भूतनी भी चांदनी में बाल सुखाते देखी जाती थी।

संध्या बीत जाने पर, पंचमी के चाँद के साथ मिलकर शाम-वाले तारों के विदा हो जाने पर और घाट तथा घर पर सन्नाटा छा जाने पर उस भयानक खँडहर के ऊपर एक लम्बी मूर्ति आकर खड़ी हुई। उसके सारे अंग में चन्दन, गले में जनेऊ और कमर में सफ़ेद धोती के ऊपर एक रंगीन अंगोछा त्रिकोणाकार बंधा हुआ था। वह मूर्ति इधर-उधर न जाने क्या देखने लगी। कुछ देर बाद वह खंडहर पर से धीरे-धीरे एक बावली के पास पहुंची। वह बावली बहुत गहरी और बड़ी तथा तरह-तरह की जल-लताओं से भरी हुई थी।

तालाब के बीच में एक डोंगी पर सवार होकर एक युवती झिन्झरी खेल रही थी, उसका चेहरा काला और बाल लंबे कमर तक लटके हुए थे। युवती एक हाथ से डांड़ खेती हुई मीठे राग से गीत गा रही थी।

उस नये आदमी ने किनारे से एक घिरनई निकाली और उस पर सवार होकर उस युवती की ओर चला। उसको देखते ही युवती चुप हो गयी और नाव दूसरी तरफ ले चली। उस आदमी ने उधर ही घिरनई फेरी और बड़ी तेजी से डेंगी को आ लिया। स्त्री ने चाल बदली परन्तु नाव के लता में अटक जाने से आगे नहीं बढ़ सकी। उस आदमी ने नाव पकड़ ली। युवती लाचार होकर बोल उठी –“क्यों रे बभना फिर आया?”

आदमी-“देखूं, कितनी मछली पकड़ी है?”

युवती-“तुझे क्यों दिखाउंगी?”

आदमी- “तू यों ही रोज मछली पकड़ती है। आज तुझे पकड़वा दूंगा?”

युवती –“मुझे तो पकड़वा देगा, लेकिन यह तो बता कि कल तू कहाँ गया था?”

आदमी-“(एक हार दिखाकर) देखती है?”

युवती –“किसका गला काटा है?”

आदमी-“लेगी?”

युवती-“मुहंझौंसा बाभन! तू मुझे लोभ दिखाता है? गहने-सहने का लोभ रहता तो इस गूजरी को इस तरह मछली पकड़कर पेट पालन नहीं करना पड़ता।”

आदमी-“नहीं लेगी? तब क्या चाहती है?”

युवती-“मैं और कुछ नहीं चाहती, सिर्फ यही चाहती हूँ कि तेरा यह मुँह फिर देखना न पड़े।”

आदमी-“अरे बदमाश! यही तेरा प्रेम है।”

युवती-“प्रेम! प्रेम सभी करते हैं, परन्तु प्रेमी मनुष्य हैं कहाँ? जो मन का दुःख नहीं समझता उससे मन का मेल कैसे होगा? मन लायक मुझे भी मिले तो मैं उसकी लौंडी बनकर रहूँ।”

आ.-“क्यों गूजरी! मैं क्या तुम्हें प्यार नहीं करता?”

यु.-“तेरे प्यार पर पाला पड़े, ऐसा प्यार मैं नहीं चाहती। तूने प्यार का काम ही क्या किया है?”

आ.-“बता दे क्या करना होगा।”

यु.-“आ दूर पागल! मैं तुझे सिखला दूंगी कि तू इस तरह मुझे प्यार कर, तब तू मुझे प्यार करेगा? यह बात कहते तुझे ज़रा भी लाज नहीं लगी? प्यार करना भी कही सिखाया जाता है?”

आ.-“अब पिंगल बहुत मत पढ़ा। बता क्या चाहती है?”

यु.-“अरे बभना! कै बार बताना होगा? असल बात ही तू भूल जाता है कि—”

आ.-“नहीं रे भूला नहीं सब याद है। ( गूजरी का बाल पकड़ता है।)”

यु.-“हट-हट मुहंझौंसा कहीं का।”

आ.-“अरी बावली। हटाती क्यों है? तू जो कहेगी सो ही करूँगा।”

यु.-“तू मेरे साथ अपनी जात गंवावेगा? जनेऊ फेंकेगा?”

आ.-“इतना ही न? अरी प्रेम के आगे जाती-भेद कब तक रहता है?”

यु.-“अरे बाभन! तेरी बात पर मैं भूलूंगी। मैं तेरे प्रेम का काम देखना चाहती हूँ।”

आ.-“अच्छा यही सही, इस समय यह हार पहन ले।”

यु.-“धत्त पागल। दुसरे का हार मैं क्यों पहनूंगी?”

आ.-“मैं क्या बेगाना हूँ री पगली।”

यु.-“तू मेरा कौन है?”

आ.-“चोंचले रहने दे, बता लेगी कि नहीं?”

यु.-“नहीं कभी नहीं लुंगी। जिसकी चीज है उसको लौटा आ तब जानूंगी कि तू मुझे प्यार करता है।”

“यह मेरी ही चीज है, ले तो तेरे गले में पहना दूंगा” – यह कहकर वह आदमी ज्योंही गूजरी के गले में हार पहनाना चाहता था त्योंही उसने धक्का मारकर उसे पानी में गिरा दिया और तेजी से खेकर किनारे आ लगी।

गूजरी बिन्द की लड़की कही जाती थी; दिन हो चाहे रात वह हमेशा नवरत्न के झाड़-झंखाड़ में बेखटके आया-जाया करती थी, इससे सबको विश्वास था कि उसको किसी भूत की सिद्धि है। गूजरी ने जिसे पानी में ढकेल दिया वह भोला पंछी था। भोला तैरकर किनारे आया। गीले कपड़े सहित नाराजी के साथ वहां से गायब हो गया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय ८ : हीरा सिंह का मकान

हीरा सिंह एक बड़ा भारी जमींदार था। उसका धन-ऐश्वर्य अपार और दबदबा बेहद था। उन दिनों शाहाबाद जिले में उसकी जोड़ का कोई जमींदार नहीं था। हीरा सिंह दानी-मानी और आचारी था। सब तीर्थों में उसके बनाए मंदिर और बड़े-बड़े शहरों में उसकी कोठियां थी। वह मुरार में रहता था। जो कोई उससे एक बार मिलता या बात कर लेता था वह मानों उसीका हो जाता था। उसकी हंसती बोली में कुछ ऐसी ही जादू भरी थी।

हीरासिंह का मकान बड़ा भारी था। वैसा मकान उस समय और कहीं देखने में नहीं आता था; मकान के सामने फुलवारी थी, फाटक और नौवतखाना थे। एक दिन पहर रात चली गयी थी, पंचमी का चन्द्रमा अस्त हो गया था, नौवतखाने में शहनाई बज रही थी। नामी तायफा लतीफन कोयल को लजाने वाले स्वर से श्रोताओं को मोह रही थी। हीरासिंह कभी हँसता, कभी हाथ जोड़ता, किसी का हाथ धरकर बिठाता, किसी को अपने हाथ से पंखा करता, किसी को ताम्बूल और फूल देता, किसी के बदन पर गुलाबजल छिड़कता था। पर उसका ध्यान किसी और ही तरफ था।

हीरासिंह के यहाँ विजयादशमी बड़ी धूमधाम से मनाई जाती थी। कुँवार सुदी १ से १० तक रोज तरह-तरह के नाच-तमाशे होते थे। खासकर हर साल पंचमी को उसकी वर्षगाँठ होने से बड़ा भारी उत्सव होता था। आज उसी की धूम है। सब लोग खुश हैं लेकिन हीरासिंह का चित्त उतना चंचल क्यों है?

वेश्या अपने गीत से सबको मोह रही थी। आधी रात जा चुकी थी। सभी कठपुतली की तरह बैठे थे कि इतने में ड्योढ़ीदार आकर दरवाजे पर खड़ा हुआ। उसपर हीरासिंह की नज़र पड़ी तो उसने सलाम करके कहा – “हुजूर नीचे राय साहब खड़े हैं।”

यह सुनते ही हीरासिंह अपने पुत्र मोतीसिंह को अतिथियों के स्वागत का भार सौंपकर दरबान के साथ नीचे आया। वही भोलाराय को देखा। हीरासिंह ड्योढ़ीदार को यथा स्थान भेजकर भोलाराय सहित ठाकुरबाड़ी में आया। वहां सिर्फ एक चिराग जलता था और सामने राम, लक्ष्मण, जानकी की मूर्तियाँ दिखाई देती थी। दोनों ने ठाकुरबाड़ी की एक कोठरी में घुसकर भीतर से दरवाजा बंद कर दिया। कोठरी में बहुत अँधेरा था, रोशनी का नाम नहीं। टटोल-मतोलकर दोनों और एक दरवाजे पर पहुंचे। हीरासिंह ने उसका ताला खोला और एक छोटी सी सीढ़ी से उतरकर एक लंबे-चौड़े घर में दोनों दाखिल हुए। उस पाताल-गृह में सदा एक गंभीर शक आप से आप होता था और उसकी बेमरम्मत दीवारों पर ढाल, तलवार, भुजाली, हथोड़ी, मोचनी, संड़सी, आदि सोनार के औजार और दूसरी तरफ कई मोटी-मोटी मशालें और तेल के भांड पड़े थे। चिराग की झलमलाती रोशनी में मालूम होता था कि एक जगह लाश की सी कोई चीज पड़ी है और उसके बगल में एक विकटाकर मूर्ति चुपचाप बैठी है।

वहीँ जाकर हीरासिंह ने भोला पंछी से पूछा –“क्यों राय साहब क्या खबर है? आज दिन भर आसन कहाँ था?”

भोला कुछ नहीं बोला, उदास मन से चुपचाप बैठा रहा।

राय साहब कहने से ही भोला को क्रोध हो गया क्या, यह सोचकर हीरासिंह ने कुछ शरमाकर फिर कहा –“क्यों भोला! आज तुम इतने उदास क्यों हो?”

भोला –“अब मैं यह काम नहीं करूँगा। इससे क्या फायदा है? क्या सुख है?”

हीरा – “फायदा रूपये का है, रुपया होने से सुख की क्या कमी है।”

भोला –“रूपये से तुम्हें सुख हो सकता है, मुझे रूपये से सुख नहीं होगा। मैंने बहुत रूपये पैदा किये हैं लेकिन एक दिन भी सुखी नहीं हुआ। इस काम में कभी कुछ सुख नहीं है।”

हीरासिंह ने जोर से हंसकर कहा – “तुम तो बड़े बेवकूफ मालूम होते हो, इस काम में सुख नहीं रहा तो क्यों करता? और तू मेरे कहने को क्यों बजाता? जान पड़ता है तुमने आज दिन भर कुछ खाया नहीं है। आओ पहले भोजन कर लो, तुम्हारे लिए भोजन बनवा रक्खा है। पहले खा-पीकर ठंढा हो लो तब बातचीत होगी।”

हीरासिंह भोला का हाथ पकड़कर चिराग के पास ले आया और उसको आसानी से बिठाकर हलवा, पूड़ी-कचौड़ी आदि पकवान सामने ला रक्खा। सामने पकवान की थाली देखकर भोला का चेहरा पहले से कुछ प्रसन्न हो आया, उसने छककर खाया और ऊपर से एक हांडी दूध भी चढ़ा गया। उसके हाथ-मुहँ धोने पर फिर काम की बात छिड़ी। पहले रायसाहब ने ही मुहं खोला, कहा- “ठाकुर साहब, आप कहते थे कि तुम्हें जो हुआ है वह मैं समझ गया हूँ, अच्छा बताइये तो मुझे क्या हुआ है?”

भोला ने ज्योंही यह बात पूछी त्योंही गूजरी की झाड़-फटकार उसे याद आ गयी। उसने सोचा कि, हो सकता है इन्होंने गूजरी की बात जान ली हो।

हीरासिंह ने उत्तर दिया –“अरे नादान! इतना नहीं समझता तो तुम लोगों की सरदारी क्या करता?”

भोला-“अच्छा बताइये न, क्या समझा है?”

हीरा-“भैया, नाकामयाबी और गर्व खर्ब होने पर किसका चित्त ठिकाने रहता है? तुम्हारी भी आज यही दशा हुई है?”

भोला मन ही मन काँप गया। सोचा – इनको ये सब बातें कैसे मालूम हुईं? इन्होने कैसे जान लिया कि मेरा मतलब सिद्ध नहीं हुआ, गूजरी ने मेरा गर्व खर्ब कर दिया है?

किन्तु जब हीरासिंह ने कहा –“भैया, बूढ़े की बात न मानने से ऐसा ही होता है, उसी समय कहा था कि हरप्रकाशलाल को ऐसा-वैसा आदमी नहीं है।” – तब भोला को होश हुए।

उसने नराजी के साथ कहा – “आप हरप्रकाश लाल को क्या समझते हैं?”

हीरा-“मैं चाहे जो समझूँ परन्तु तुमने उसका क्या कर लिया है? तुम उसके दस हज़ार लूटने गए थे, वे रूपये कहाँ हैं? ऐं। हींगन कहाँ है? लालू कहाँ है?”

भोला ने कुछ उत्तर नहीं दिया सिर्फ दांत किचकिचाकर हीरा सिंह की ओर ताकने लगा। हीरा ने चुप देखकर फिर कहा –“क्यों, बोलते क्यों नहीं? चुप क्यों रह गए?”

भोला-“चुप रहो।”

हीरा-“चुप क्या रहूँ? तुम लालू की लाश वहीँ क्यों छोड़ आये? तुम्हारा जो साहस और बल है वह मालूम हो गया। अब बात मत बनाओ।”

भोला-“अब भी कहता हूँ, चुप रहो।”

हीरा –“ऐं। तेरा इतना बड़ा दिमाग है कि मेरे सामने लाल-लाल आँखे करके बोलता है?”

भोला-“क्यों तू है कौन? हीरासिंह। मैं तुझे तिनकी बराबर समझता हूँ, तू बूढा हो गया – क्या कहूँ तेरा नमक बहुत खाया है।”

हीरा-“(बात काटकर) नहीं तो मुझे मारता क्या?”

एक तरफ जो विकटाकर मूर्ति चुपचाप बैठी थी वह अब आगे बढ़ी। वह वही साधो डाकू था। उसने आकर बायें हाथ से भोला के दोनों पैर पकड़ लिए।

भोला-“छोड़, छोड़।”

साधो-“रायसाहब। गम खाइये, आप गुस्सा करेंगे तो किसी की खैर नहीं है। मालिक ने दो बात कह दी तो क्या इतना गुस्सा करना चाहिए? कसूर होने पर मालिक नहीं डांटेंगे तो कौन डाँटेगा?”

भोला-“मेरा क्या कसूर है?”

हीरा-“तेरा हज़ार दोष है, तूने मेरी बात क्यों नहीं मानी?”

भोला-“तुम्हें दिखा दूँगा कि होता है या नहीं, भोलाराय के शरीर में जबतक एक भी हड्डी रहेगी तब तक हरप्रकाश की जान नहीं छोडूंगा।”

हीरा-“बहुत हुआ, अब बात बनाने का काम नहीं है तेरी ही बात पर भरोसा कर बैठ रहने से यह आफत हुई।”

साधो-“यह बात सच है, मालिक की चतुराई से इस बार हम लोगों की जान बची है। वे हमलोगों के पीछे-पीछे नहीं जाते तो जरूर जान जाती। उन्होंने साधु बनकर बड़ी-बड़ी दिक्कतों से हम लोगों को बचाया है। राय जी, झूठ-मूठ गुस्सा करके क्या आपस में ही बिगाड़ कीजियेगा? चुपचाप बैठिये।”

भोला-“अब मैं नहीं बैठूँगा।”

हीरा-“न बैठ, इस वक़्त कहाँ जाएगा?”

भोला-“मेरा मन खराब हो रहा है, मैं अभी जाता हूँ।”

हीरा-“नहीं-नहीं, चलो गीत सुनो। साधो जानता है न, यहाँ एक गड्ढा खुदा हुआ है?”

साधो ने कहा – “जी सरकार। आ जाइये।”- फिर मन ही मन कहने लगा – “जैसी करनी वैसी भरनी। हिन्दू होकर भी हींगन कब्र में गाड़ा जाता है। न जाने मेरे भाग्य में क्या लिखा है।”

भोजपुर की ठगी : अध्याय ९ : मुंशी जी का मकान

मुंशी हर प्रकाशलाल अपने मकान पर पहुँच गए है। उनका मकान हीरा सिंह की इमारत की तरह आलीशान नहीं है और उनका न उतना ठाठ-बाट है परन्तु बहुत मामूली भी नहीं है। मकान खूब साफ़-सुथरा और देखने योग्य है। मकान के सामने रास्ता है, रास्ते के दूसरी तरफ बाग़ और तालाब है। भीतर दो मंजिले पर नई सफेदी का एक चमकता हुआ बड़ा कमरा है, उसके सामने खुली छत है। उसी घर में मुंशी जी सोते हैं। घर में एक तरफ एक शमादान में बत्ती जलती थी। उसकी रोशनी में घर में सजे हुए बर्तन चमचमा रहे थे और दाहिनी ओर खिड़की के पास एक सुन्दर चारपाई पर पार्वती सो रही थी। पार्वती स्वामी की बाट बहुत देर तक, देखती रही परन्तु पिछली रात जागने और थक जाने के कारण उसकी आँखें लग गयी। कुछ देर बाद दरवाजा खुला, मुंशी जी भीतर आकर चारपाई के पास खड़े हुए और प्रेम भरे नयनों से प्राण प्यारी का मुख-कमल और लुनाई भरी देह निरखने लगे।

मुंशी जी इससे पहले जिस चिंता में पड़े थे, कोठरी में पैर रखते ही वह सब भूल गए। ये मन ही मन कहने लगे – हाय ऐसे कोमल अंग पर चोट करते समय पापी का हाथ क्यों नहीं बँध गया। ओफ! बर्दाश्त नहीं होता। देखूंगा कि हीरा सिंह कितना बड़ा डाकू है। उसको कितनी ही धन-दौलत हो, कितना ही प्रताप हो, कितने ही मददगार हों, कितनी ही प्रतिष्ठा हो, एक बार मैं उसे देखूंगा। उस पापी के अत्याचार से जाने कितने ही दूधमुहें बच्चे पितृहीन हो गए, कितनी ही बूढी माताएं पुत्र से हाथ धो चुकीं, कितनी अबलायें विधवा हो गयीं। हीरा! तूने अनगनित लोगों को राह का भिखमंगा बना दिया है, तेरे पाप का प्रायश्चित नहीं है।

हरप्रकाश लाल गहरी चिंता में डूबे हुए हैं, इतने में अचानक वहां बेला और चन्दन की खुशबू महक उठी। अचानक दरवाजे पर एक हट्टे-कट्टे ब्रह्मचारी का आगमन हुआ, उसने गंभीर स्वर से कहा – “हरप्रकाश लाल! अपनी स्त्री का यह हार लो।” – कहकर उसने एक हार मुंशी जी के सामने फेंक दिया। मुंशी जी भौंचक से दरवाजे की ओर इकटक ताकने लगे।

फिर उस मूर्ति ने कहा – “मुंशी। तुम मुझे देखकर चकरा गए हो? मेरा नाम भोला राय है। मैंने ही कल रात को तुम्हारी ससुराल में डाका डाला था। यह हार मैं नहीं चाहता, मैं तुम्हारा वह गहनों का संदूक चाहता हूँ। तीन दिन की मुहलत देता हूँ, आगामी अष्टमी की रात को वह संदूक यहीं लाकर रखना; नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं।”

यह कहकर डाकू गायब हो गया। मुंशी जी कुछ भौंचक से खड़े रहे। कुछ देर के बाद उनके होश-हवाश ठिकाने आये, जमीन से हार उठाकर तुरंत बाहर गए, चारों ओर ढूंढा परन्तु उसको कहीं नहीं पाया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय १०: मैदान में

आकाश में न बादल हैं न चाँद, सिर्फ लाखों तारे चारों ओर चमक रहे हैं। मैदान सनसन कर रहा है। कहीं जीव-जंतु का नाम निशाँ नहीं मिलता। केवल पेड़ों पर जुगनू चकमक कर रहे हैं। रात बीत चली है। इसी अवसर पर भोला पंछी मैदान के रास्ते पंछी बाग़ की तरफ जा रहा था; उसके चलने का ढंग निराला है। वह कभी दौड़कर और कभी लाठी के बल उछलता जाता था। जाते-जाते एक जगह सुना कि कोई गीत गा रहा है| गीत सुनकर वह खड़ा हो गया।
पूरा गीत सुनकर भोलाराय मुस्कुराया और जिधर से सुर आ रहा था उसी तरफ चला। धीरे-धीरे एक तालाब के एक बड़े ऊँचे भीटे पर वह पहुंचा। भीटे के ऊपर लगे हुए ताड़ के पेड़ रात के अँधेरे में विकटाकार दैत्य सेना की तरह जान पड़ते थे और तालाब के बाँधे घाट पर एक स्त्री पैर फैलाए गीत गा रही थी। भोला ने चुपके-चुपके उसके पास जाकर पीछे से उसकी आँखें बंद कर दीं| स्त्री बिना कुछ भी डरे या अकचकाये बोली – “अरे छोड़ रे बभना। छोड़ यहाँ क्यों मरने आया?”
भोला-“बदमाश, तू यहाँ क्या करती है?”
गूजरी-“तेरी कार्यवाई देखने, तेरा पिंडा पाड़ने आई हूँ।”
भोला –“कार्यवाई कैसी?”
गू. – “उससे मतलब क्या है? जो देखना था सो देख लिया।”
भोला – “देख लिया न, तू ने जो कहा था वही किया न?”
गू. – “क्या किया है”
भो. – “हार लौटा दिया है।”
गू. – “लौटा दिया तो अच्छा किया, परन्तु जो कुछ देखा है उससे नहीं चाहता कि तुम से बात करूँ। भोला, तू एक दिन मारा जाएगा। यह काम छोड़ दे – डाका डालना छोड़ दे, हीरा आदमी नहीं शैतान है, तू भी शैतान है।”
भोला – “तू ने क्या देखा है?”
गू.-“तुझसे क्या कहूँ?”
भो.-“कहना ही पड़ेगा।”
गू.-“कभी नहीं।”
भो.-“ऐं, तू नहीं बतावेगी?”
गू.-“नहीं।”
भो.-“याद रख तू इस घड़ी मेरे हाथ में है।”
गू.-“पागल तू मुझे डराता है? तू क्या समझता है कि मैं तुझसे डरती हूँ? अच्छा तुझे जो करना है सो कर।”
कहकर गूजरी तालाब में कूद पड़ी। राय जी गुस्से से कुचले हुए सांप की तरह गरज उठे परन्तु कहीं गूजरी को नहीं पाया। फिर अँधेरा चारों ओर साफ़ हो गया, चिड़ियाँ चहकने लगीं और आसपास के गाँवों में शोरगुल होने लगा।
भोला राय सोच में पड़ गया। गूजरी ने क्या कहा? उसने क्या देखा है? क्या उसने हीरा सिंह की पातालपुरी देख ले है? हमलोगों की गुप्त सलाह सुन ली है? अगर देखा और सुना है तो क्या वह लोगों से कह देगी? वह स्त्री है, उसका क्या विश्वास? गूजरी चाहे मुझे प्यार करती हो लेकिन उससे यह नहीं भरोसा होता कि वह उन गुप्त बातों को प्रकट नहीं करेगी
यों सोचते-सोचते बहुत उद्विग्न मन से भोला राय तालाब के किनारे से चला गया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय ११ : नौरत्न

संध्या बीत गयी है, निर्मल आकाश में छठ का चन्द्रमा हँस रहा है। नौरत्न के पास के गाँव में रामलीला की धूम है। सारा गाँव रामलीला देखने को एकत्र हुआ है, सिर्फ गूजरी नहीं गयी है। वह अपनी झोपड़ी में बिछौना बिछाकर चिराग चलाये बैठी है। इतने में रामलीला के बाजे बजे। गूजरी मन-ही-मन बोली – “भगवान् ने जिनको सुख दिया है, वे सुख करें। मैं अभागिनी सिर्फ दुःख भोगूंगी। मेरे भाग्य में सुख लिखा ही नहीं है तो सुख भोगूंगी कैसे? परन्तु मैं अपने ही मन के दोष से दुख पाती हूँ – नहीं तो मुझे कमी किस बात की है? लोग मुझसे नहीं बोलते न बोलें, इसकी मुझे परवा नहीं है। मैं उसके पीछे क्यों मरती हूँ? वह मेरा कौन है? वह डाकू है, खूनी है, उसकी चिंता मैं क्यों करती हूँ? नहीं अब उसकी चिंता नहीं करुँगी – उसका नाम नहीं लूंगी, अब उसे भूल जाउंगी।”

इसी वक़्त डाकू भोला पंछी नंगी तलवार हाथ में लिए गंभीर चेहरा बनाए उस झोपडी से कुछ दूर गंगा किनारे टहलते हुए सोच रहा था –गूजरी कौन है? उससे मेरा क्या सम्बन्ध है? वह देखने में जरा खूबसूरत है, इसी से उसे प्यार करता हूँ। तो इससे क्या उसका गुलाम हो जाऊंगा? वह जो कहेगी वही मुझे करना होगा? ऐं! वह मेरा जनेऊ उतरवायेगी, मेरी डकैती छुड़ावेगी, तब मुझ पर राजी होगी?

इसी बीच में “राय साहब! राय साहब” कहकर किसी ने पुकारा।

भोला राय ने कहा –“क्यों रे आ गया?”

काले भुजंग हट्टे-कटते जवान ने सामने आकर सलाम किया। उसका नाम अबिलाख बिन्द है। यह एक मशहूर चोर है। उसने धीरे से पूछा – “क्यों राय साहब। काम तमाम हो गया?”

भोला-“नहीं।”

अबिलाख – “अरे यह आपने अच्छा नहीं किया।”

भोला – “तू बोलनेवाला कौन है?”

अबिलाख-“अब वह सब भेद जान गयी है, हमारी पातालपुरी देख आई है तब उसको जिन्दा रहने देना उचित नहीं।”

भोला-“इसका विचार मैं करूँगा।”

अबि. – “राय जी! आप माया में फंस गए हैं, बात अच्छी नहीं होती है, तलवार जरा मुझे तो दें।”

भो.-“(गुस्से से) ख़बरदार।”

अ.-“आप क्या कहते हैं? आपकी एक स्त्री के लिए हम सब लोग जान देंगे क्या?”

भो.-“जान नहीं देनी होगी। तू एक काम कर।”

अ.-“क्या?”

भो.-“चौसा से एक नाव आ रही है, उसमें एक स्त्री है। वह चुरामनपुर के कायस्थ घराने की है। उसके बदन पर बहुत जेवर हैं, साथ में एक प्यादा, एक खवास और एक लाला है। समझा, झट जाकर पकड़ तो ले।”

अ.-“आप भी चलिए न?”

भो. –“नहीं, मेरी तबियत अच्छी नहीं है।”

“तो मैं घुरहू और चिरागू को बुला लूँ।” – यह कहकर अबिलाख चला गया।

कुछ देर बाद भोला राय सीधे गूजरी की झोपड़ी में दाखिल हुआ। उस समय वह कोयल की तरह गा रही थी, अपने राग पर आप मोहित थी। भोला को देखते ही वह गीत छोड़कर ठठाकर हंसने लगी, बोली – “राय जी तुम बहुत दिन जिओगे, मैं अभी तुम्हारा नाम लेती थी।”

भो.-“परन्तु तू अभी मारेगी। मैं भी अभी तेरा नाम लेता था।”

गू-“तुम्हारे मुहं पर फूल बरसे, ऐसा ही हो।”

भोला-“मरने की इतनी साध क्यों है?”

गू.-“जिसे सुख नहीं है उसको जीने की साध क्यों होगी?”

भो.-“तुझे सुख नहीं है तो किसे सुख है? यों हँसने, गाने में जो मस्त है उसे सुख नहीं है?”

गूजरी ने कहा –“राय जी! मेरा दुःख कोई नहीं समझता, इसी से मैं गीत गाती हूँ। मेरे गीत में रुलाई छोड़कर और कुछ नहीं है। बड़े दुःख से मैं गाती हूँ। अड़ोसिन-पड़ोसिन मुझे देख मुहं फेरकर चली जाती हैं। मुझसे कोई बोलता नहीं। यह क्या कम दुःख है। फिर मेरे मुंह पीछे सभी मुझे गाली देते हैं, डाइन-चुड़ैल कहते हैं। भला बताओ तो मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? मैं कुत्ते-बिल्ली से भी बदतर हूँ, मुझे जीने की साध क्यों होगी? – यह कहकर गूजरी रोने लगी, उसके आँखों से आंसुओं की धारा बह चली।

भोला-“दुर पगली। रोती क्यों है? तुझसे कोई नहीं बोलता तो बला से, तू मेरे साथ बातचीत किया कर, मुझे प्यार कर, मैं तुझे प्यार करूँगा।”

गू.-“तू मुझे क्यों प्यार करेगा? क्या तुझे प्यारी नहीं है?”

भो.-“मेरे कौन है?”

गू.-“तेरी स्त्री नहीं है? क्या तू नहीं जानता कि स्त्री को प्यार करना चाहिये?”

भो.- “यह तुझसे किसने कहा कि मेरे स्त्री है?”

गू.-“नहीं है?”

भो.-“नहीं।”

गू.-“झूठ मत बोल; तू इतना बड़ा मर्द है, भला कौन विश्वास करेगा कि तेरा ब्याह नहीं हुआ?”

भो.-“अगर हुआ है तो तेरा क्या?”

गू.-“अगर तेरी स्त्री है तो उसी को लेकर घर-गृहस्थी चला। मेरे पास क्यों आता है?”

भो.-“मैंने उसे छोड़ दिया है।”

गू.-“अपनी स्त्री कौन छोड़ता है? तूने उसे क्यों छोड़ा?”

भो.-“वह काली-कुरूपा थी मुझे पसंद नहीं आई इसीसे उसे छोड़ दिया।”

गू.-“तो मैं क्या गोरी हूँ?”

भो.-“तू काली है तो क्या, मैं तुझे चाहता हूँ। मैं तुझे प्यार करूँगा।”

गू.-“मुझे विश्वास नहीं होता कि तू मुझे चाहता है।”

भो.-“विश्वास क्यों नहीं होता?”

गू.-“तू डाकू है।”

भो.-“मैं डाकू हूँ तो तेरा क्या?”

गू.-“डाकू का कौन विश्वास करता है? मुझे कैसे विश्वास होगा कि तू मुझे प्यार करेगा?”

भो.-“अविश्वास का क्या कारण है?”

गू.-“जिसको दया-माया नहीं है, जो मछली की तरह आदमी को मारता है वह क्या कभी किसी को प्यार कर सकता है?”

भोला ने कहकहा लगाकर कहा – “आदमी मारता हूँ तो तेरा क्या? तुझे क्या नहीं प्यार करूँगा?”

गू.-“हाय रे। तू यह काम छोड़ दे। तू क्यों आदमियों की जान लेता है? जिनको मारता है, वे न जाने कितना कष्ट सहकर मरते हैं, तुझे जरा भी दया नहीं आती।”

भो. –“मेरे न मारने से वे अगर कभी न मरते, मरने का कष्ट नहीं पाते तो मैं उन्हें नहीं मारता। मैं आदमी को भयानक मृत्यु कष्ट से बचा देता हूँ और सिर्फ मृत्यु कष्ट ही क्या सब प्रकार के कष्ट से सदा के लिए रिहा कर देता हूँ। मैं क्या बुरा काम करता हूँ?”

गू.-“न, बड़ा अच्छा काम करते हो। बेटा रोजगार करके बूढ़े बाप और अंधी माँ को खिलाता है पर तू उनको मार डालता है, जिस बेचारी ने नन्हें बच्चों को किस तरह पाल-पोस बड़ा किया है। उस स्त्री के स्वामी के भी तू खोपड़ी तोड़ डालता है, बड़ा पुण्य करता है।”

भो.-“और अगर वे रोग से मरते तब किसको दोष देती? आदमी की जिन्दगी में दुःख ही दुःख है, मेरी समझ में ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे मनुष्य-वंश शीघ्र नष्ट हो जाय।”

गू.-“सब आदमी मरेंगे और तू जीता रहेगा। मुहं-झौंसा तू ही क्यों नहीं मर जाता कि वंश की बाला एकदम दूर हो जाय।”

भो.-“पगली, तुझे छोड़कर मैं कभी नहीं मरूँगा।”

गू.-“अच्छा तो पहले मुझे मार पीछे आप मर।”

भो.-“अभी नहीं, पहले कुछ दिन तुझे लेकर गृहस्थी कर लूँ तो पीछे बेफिक्र होकर मरूँगा, मरूँगा जरूर।”

गू.-“मुझे लेकर गृहस्थी करेगा, डाका डालना छोड़ देगा? जनेऊ फेंक देगा?”

गूजरी की इस बात से भोला का चेहरा राहुग्रस्त सूर्य की तरह भयंकर बन गया। उसका सारा अंग डोल गया। वह बोला – “क्या डकैती छोडूंगा? क्या तू जानती नहीं है कि मैं अपने बाप का कपूत हूँ?”

गू.-“सो कहने की दरकार क्या है? मैं तो पहले ही कह चुकी हूँ कि तेरा क्या विश्वास? जब तू डकैती नहीं छोड़ेगा, जनेऊ नहीं फेकेंगा, मुझसे सगाई नहीं करेगा तब तू मेरा कौन है? जीते जी मैं अपना धर्म नहीं बिगाड़ूँगी।”

बोला-“तेरा ही धर्म बड़ा है और मेरा धर्म कोई चीज नहीं है। एक बिन्द की लड़की के लिए मैं जनेऊ फेंक दूंगा, धर्म नष्ट करूँगा?”

गू.-“डाकू का धर्म-कर्म क्या है रे मुँहझौंसा? तू इसी लिए मेरे यहाँ मरने आता है, धोखा देकर मेरा धर्म बिगाड़ने आता है?”

बोला-“रख अपना धर्म, छोटी जात का भी कोई धर्म है। बिन्द भर लड़की सत्त दिखाने चली है?”

गू.-“देखो राय जी। मैं बड़ी दुखिया हूँ, कटे घाव पर नमक मत छिड़को, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, तुम मेरे घर से जाओ।”

भोला –“तो क्या सचमुच तू जीना नहीं चाहती?”

गू.-“नहीं, घड़ी भर भी नहीं तू मेरे घर से जा।”

भोला और कुछ न कहकर चेहरा बेहद गंभीर बनाए वहां से चला गया। गूजरी दरवाजा बंद करके बिछौने पर आ बैठी। मन ही मन बोली – “जब इतनी दूर चली आई हूँ तब नहीं लौटूंगी। जिसके लिए सर्वस त्याग दिया उसके हाथ से मर जाना ही ठीक है।”

भोजपुर की ठगी : अध्याय १२ : गंगा की धारा

छठ की रात तीन घड़ी बीत गयी है। डोरा के पास जंगल की नाहर से एक छोटी सी नाव निकलकर गंगा जी में आई। हीरासिंह के डाकुओं में से अबिलाख बिन्द, सागर पांडे, बुद्धन मुसहर तथा और दो आदमी उस पर सवार हैं। सागर पांडे ने जम्हाई ली और चुटकी बजाकर कहा – “क्यों रे कहीं तो कुछ दिखाई नहीं देता।”

अबिलाख – “आँखें बंद किये हो क्या पांडे? देखते नहीं वह जा रही है।”

सागर – “कहाँ रे?”

अ.-“वाह! अरे वह क्या है। चरित्रवन के पास पहुंचना चाहती है। नाव जल्दी चलाओ।”

नाव खूब तेजी से पूरब की ओर चली और आगे जाती हुई नाव के पास पहुँच गयी।

अबिलाख ने पूछा –“नाव कहाँ जायेगी?”

उस नाव के एक मांझी ने खड़े होकर और उसको घूरकर पूछा –“तुमलोग कौन हो?”

अ.-“हमलोग मल्लाह हैं। आपलोग कहाँ जायेंगे सरकार?”

माँझी – “हमलोग आरा जायेंगे। तुमलोग कहाँ जाओगे?”

अबिलाख.-“हमलोग सेमरी जायेंगे। बाबूजी तमाखू पीयेंगे जरा आग दोगे।”

आरा जाने वाली नाव में एक मिरजापुरी प्यादा था, उसने गंभीर स्वर से कहा – “आग कहाँ बा रे?”

अबिलाख-“कोई तमाखू तो पी रहा है।”

सागर पांडे ने जरा मुहं बनाकर कहा – “क्यों नहीं मिलेगी?”

मिरजापुरी-“नहीं मिलेगी सरऊ।”

पूर्वोक्त मांझी ने मिरजापुरी से कहा – “अजी लड़ते क्यों हो? ज़रा आग ही लेगा न।” – डांड़ियों ने डांड़ रोक दिया, नाव खड़ी हो गयी। अबिलाख कूदकर उस नाव में चला गया, बुद्धन मुसहर भी कूद आया।

अबिलाख – “क्यों सरकार! आग दो।”

मांझी-“शायद यह मल्लाह तमाखू पीता है देखो।”

मल्लाह-“आग देता हूँ।”

“अच्छा मैं आग जिला लेता हूँ।” – कहकर अबिलाख नाव के भीतर घुस गया। इतने में बुद्धन ने धक्का मारकर मिरजापुरी प्यादे को पानी में गिरा दिया। इसके बाद ही पिस्तौल की आवाज हुई और बुद्धन नाव में लोटकर खून फेंकने लगा। उस मांझी ने हाथ की पिस्तौल सागर पांडे की तरफ लागाकर कहा – “अगर जान प्यारी है तो ख़बरदार भागने की कोशिश मत करना।”

सागर पांडे – “नहीं सरकार। भागूँगा क्यों? यह लीजिये नाव की पतवार छोड़ देता हूँ” – कहकर पानी में कूद पड़ा। नाव के और दो डाकुओं ने भी उसी का रास्ता लिया। नाव चक्कर खाती हुई एक तरफ को चली। इधर नाव में हाथबाहीं को घूम देखकर उस पिस्तौल वाले ने पूछा – “क्यों जी दलीप। काबू में नहीं आता?”

दिलीप ने कहा – “सरकार। आइये।”

पिस्तौल लिए हरप्रकाशलाल ने नाव के भीतर घुसकर देखा कि दलीप सिंह उस जबरदस्त डाकू की छाती पर चढ़कर उसका हथियार छीनना चाहता है लेकिन कामयाब नहीं होता है। उन्होंने तुरंत हथियार छीन लिया और रस्सी से उसके हाथ-पैर अच्छी तरह बांधकर बाहर आये और मल्लाहों को खूब जोर से नाव चलाने को कहा। नाव फर्राटे के साथ चली।

दलीप – “सरकार। अब उधर जाने की क्या दरकार है?”

मुंशी जी- “जगन्नाथ सिंह को ढूंढना चाहिए न?”

दलीप.- “ऐसी तेज धारा है, न जाने कहाँ बह गया। आप कहाँ ढूंढेंगे?”

मुं. – “नहीं, नहीं, एक बार ढूंढना चाहिए। अरे वहां आग लगी है क्या? आसमान एकदम लाल हो गया है और हौरा मचा हुआ है।”

मल्लाह – “हाँ सरकार। जोर से आग लगी है।”

मुं-“अच्छा, यहाँ नाव लगाओ।”

दलीप. – “सरकार! डाकुओं की यह नाव बही जाती है पकडूँ?”

मुं.-“अरे नाव के नीचे से कौन पुकार रहा है?”

दलीप.-“कौन है जगन्नाथ सिंह?”

जगन्नाथ- “अरे हम तो मर गए भयवा।”

मुं.-“अरे धरो धरो। ऊपर खींच लो।”

मल्लाहों ने नाव रोकी। देखा कि प्यादा नाव की पतवार पकड़ अधमरा सा हो रहा है। उसको ऊपर खींचकर नाव चलाई गयी। मुंशीजी के हुक्म से नौरत्न के घाट पर नाव आकर लगी।

मुंशीजी ने दलीप सिंह के साथ किनारे उतरकर देखा कि एक झोपड़ा जल रहा है। आग की लपट आकाश चूमना चाहती है। गांववाले हल्ला मचाते हुए अपना-अपना घर बचाने का बंदोबस्त कर रहे हैं। हरप्रकाश लाल ने उस जले हुए झोपड़े के पास जाकर सुना कि भीतर कोई स्त्री चिल्ला रही है। वे बिना कुछ आगा-पीछा किये, जान की परवा छोड़ पैर से किवाड़ तोड़ कर झोपड़े में घुस गए और तुरंत एक स्त्री को कंधे पर लिए बाहर निकल आये। यह स्त्री थी, वही मुखरा गूजरी। गूजरी के जरा होश में आने पर मुंशीजी ने पूछा – “तुम्हारे घर में आग कैसे लगी?”

गूजरी ने कहा – “मुझे कुछ मालूम नहीं, मैं सो गयी थी।”

मुंशी-“यहाँ तुम्हारा कोई अपना है?”

गू.-“मेरा कोई नहीं हिया।”

गू.-“मेरा कोई नहीं है।”

मुंशी-“तब तुम इस रात को कहाँ रहोगी?”

गू.-“जहाँ होगा वही पड़ रहूंगी। घर गया तो पेड़ तो है।”

मुंशीजी ने कुछ सोचकर कहा – “देखो, नवमी के दिन तुम एक बार मेरे मकान पर आना मैं तुम्हें कुछ दूंगा। सरेजा मेरा मकान है, मेरा नाम हरप्रकाश लाल है। याद रहेगा तो?”

गू.-“सरकार। जितने दिन जीऊँगी उतने दिन याद रहेगा आपका नाम मुंशी हरप्रकाशलाल है? मैं समझती थी कि मुंशी जी बूढ़े होंगे।”

मुंशीजी हँसते हुए नाव पर चढ़े। मल्लाहों ने नाव चलाई।

भोजपुर की ठगी : अध्याय १३ : ठाकुरबाड़ी

सबेरा हो गया है लेकिन अभी तक कहीं-कहीं अँधेरा है। इसी समय “सियाराम” – “सियाराम” कहकर प्रसिद्ध पुण्यात्मा हीरासिंह ने चारपाई से उठकर जमीन पर पैर रक्खा।

वह इधर-उधर घूमकर एक पत्थर की वेदी के पास आ खड़ा हुआ। देखा वेदी पर भोलाराय गुमसुम बैठा है। भोला आज मानों ब्रम्हाण्ड उलटा देख रहा है, उसे सब चीजें उदास मालूम होती हैं। सभी जहरीली, सभी भयानक जान पड़ती है। सबेरे की शीतल वायु उसके बदन में बिच्छू के डंक-सी लगती है। वह सोचता है – क्यों ऐसा कुकर्म किया? क्यों गूजरी की हत्या की? जिसके देखने से मेरे सब दुःख, सब कष्ट दूर हो जाते थे, उसको मैंने अपने हाथ से मार डाला। डरपोक की तरह, कायर की तरह उसको मार डाला। मैंने जवानी से ही कितने कुकर्म किये हैं क्या उन सबका प्रायश्चित है? न जाने किस कुसाइत में हीरासिंह से मेरी मुलाक़ात हुई थी। हीरा ही मेरे इस कष्ट का कारण है।

हीरा – “क्यों रायजी। यहाँ सी तरह क्यों बैठे हो? क्या हुआ है?”

भोला-“हट जाओ, मेरे सामने से, हट जाओ, मैं क्रोध सम्हाल नहीं सकूँगा। तुम अभी सामने से हट जाओ।”

हीरा-“अजी क्या हुआ है, कहो न।”

“तुम्हीं ने मुझे चौपट किया है। पाजी। आओ आज तुम्हारे लहू से होम करूँगा, तुम्हें मारकर पापयज्ञ की पूर्णाहुति दूंगा।” – यह कहकर गरजते हुए भोलारय ने शेर की तरह उछलकर हीरा सिंह का गला पकड़ा। हीरा झट उसे भेद की तरह जमीन पर पटक कर उसकी छाती पर चढ़ बैठा, बोला – “बाभन! तू शोख हो गया है कि मेरे बदन पर हाथ लगाता है?”

भोला-“हीरा। तुम्हारे पैर पड़ता हूँ, तू मुझे मार डाल, इस कष्ट से मेरा उद्धार कर।”

हेरा. – “पाजी, मैं ब्रह्म-हत्या करूँगा?”

भोला-“तेरे लिए मैंने स्त्री-हत्या की। जिसका मुँह देख कर कलेजा ठंढा होता था उसको मैंने अपने आहत से कुतिया की तरह जला डाला।”

इतने में ही एक घुड़सवार दौड़ा हुआ फुलवारी में आया। हीरा सिंह ने भोला को छोड़ दिया। भोला उठकर फिर वेदी पर जा बैठा। सवार हीरा सिंह के पास पहुंचकर घोड़े से उतरा; हीरा सिंह ने कहा –“क्यों दरोगा साहब! क्या खबर है।”

दरोगा – “हुजूर। खबर अच्छी नहीं है, अबिलाख बिन्द पकड़ा गया है।” – इसके बाद दरोगा ने नाव पर हुई घटना कह सुनाई।

भोला –“अने कि मक्खी मकड़ी के जाल में फंसी।”

हीरा – “मक्खी कौन है रे?”

भोला – “मक्खी हरप्रकाश लाल है और मकड़ी हीरा सिंह।”

हीरा – “अच्छा खूब बनाकर एक दरख्वास्त तो लिख लाओ। मैं आज बहुत काम में हूँ, सिर्फ दस्तखत कर दूंगा। दरोगा जी। आप इस वक़्त जाइए मैं अभी एक आदमी भेजता हूँ।”

दरोगा फ़तहेउल्ला चला गया। ठाकुरबाड़ी में शंख-घड़ियाल बजने लगे। हीरा सिंह भोला को दफ्तर में जाने को कहकर ठाकुर जी की आरती लेने गया लेकिन भोला कहीं गया नहीं, वहीँ चुपचाप बैठा रहा।

भोजपुर की ठगी : अध्याय १४ : पातालपुरी

हीरा सिंह जब ठाकुर जी की आरती लेकर लौटा तबतक एक पहर दिन चढ़ गया था। अभी तक भोला राय वहीँ पर उसी तरह बैठा था। हीरा सिंह ने सोचा कि भोला का ढंग अच्छा नहीं है, इस समय उसको हाथ में न रखने से पीछे आफत आवेगी।

यह सोचकर उसने भोला के पास जाकर उसका हाथ पकड़ा और कहा – “क्या करते हो राय जी। आओ चलो कुछ बातें करनी हैं।’

भोला चुपचाप उनके साथ चला। हीरा सिंह उसको साथ लेकर पहले कहे हुए पातालपुरी में गया, वहां उसके शरीर पर हाथ फेरकर प्रेमपूर्वक बोला – “क्या भोला राय। पहले तुम भी मुझे नहीं जानते थे और मैं भी तुम्हें नहीं जानता था परन्तु इन बारह वर्षों में हम एक दुसरे में इतना प्रेम हो गया है कि जितना शायद बाप-बेटे में भी नहीं होता। परन्तु एक समय मुझे भी तुम भूल जाओगे। तब दुसरे से तुम्हारा प्रेम होगा, तुम उसको अपना समझोगे। संसार का यही नियम है। इसीलिए गूजरी के लिए तुम इतना क्यों हाय-हाय करते हो? गूजरी तुम्हारी कौन थी? उससे तुम्हारा क्या सम्बन्ध था? रुपया से सुख है।”

भोला – “तू राक्षस है, पशु है, मेरा दुःख तू क्या समझेगा? रूपये में सुख होता तो मैं सुखी रहता। रूपये से मैं एक दिन भी सुखी नहीं हुआ, रूपये से मुझे सुख नहीं होगा, मुझे रुपया नहीं चाहिए। मैं सिर्फ उसी गूजरी को चाहता हूँ।”

हीरासिंह – “ तुम्हारी तो स्त्री मौजूद है, उसे लाकर अपने पास रखो। वह अब युवती हो गयी है, अब शायद वह तुम्हें पसंद आ जायेगी।”

यह कहकर हीरा सिंह भोला को पातालपुरी में बैठाकर आप अपने दफ्तर आया। वहां दरोगा फ़तेहउल्ला के नाम एक चिट्ठी लिख भेजी। चिट्ठी पाने के साहत ही दरोगा साहब ने दल-बल जाकर हरप्रकाश लाल का मकान घेर लिया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय १५ : हरप्रकाश लाल का मकान

पहले कही हुई कार्यवाई करके मकान लौटने में देर हो जाने से मुंशी जी अन्दर महल में न जाकर बैठक में ही सो रहे। बड़ी मेहनत के बाद अधिक रात गए, सोने के कारण, आज सबेरे सात बजे उनकी नींद खुली।

उठकर वे भीतर गए – चौक में देखा कि और कोई नहीं है, सिर्फ एक लौंडी कुछ काम कर रही है। वे कोठे पर चढ़े, वहां भी कोई नहीं है, उनके सोने के कमरे में ताला बंद है। लौंडी से पूछने पर जवाब मिला – “छत पर”। मुंशी जी छत पर चढ़ गये। दकेह कि पार्वती सिर नीचे किये पूजा के बर्तन साफ़ कर रही है। उसकी मांग के दोनों ओर काले घुंघराले बाल लटक कर मंद पवन से धीरे-धीरे हिल रहे हैं और ललाट तथा नाक पर दो एक बूंद पसीना और गालों पर ललाई आ जाने से मुँह की शोभा अपूर्व हो गयी है।

मुंशी जी पार्वती की यह अपूर्व अलौकिक मूर्ति देखते-देखते मुग्ध होकर उसके पास आ बैठे और उसके नर्म-नर्म हाथ अपने हाथों में लेकर प्रेम से बोले – “तुम क्या कर रही हो? इतनी कड़ी धुप में बैठी हो? अरे! तुम रोती क्यों हो?”

पार्वती कुछ उत्तर न देकर और जोर से रोने लगी।

मुंशी -:”क्या हुआ प्यारी? बताओ क्यों रोती हो?”

पार्वती –“रोती नहीं हूँ।”

इसी बीच में लौंडी ने आकर कहा – “हाँ, एहिजे त बानी। क सरकार। रवां कइसन हईं। रवां का बेचारी डर का मारे रातभर एको बेर त आवे के चाही। काल्ह जइसे राति कटल ह तवन रवां का जान तानी आ हम जानतानी।”

मुंशी – “अरे, तू क्या बक रही है।”

लौंडी – “सरकार, राउर नून खाइला ऐही से कहतानी नाहीं, हमरा बोलला का कवन काम बा? साच बात घुरहू कहें सब का मन उतरे रहें। रवां जवान गहना ओह मुँहजरी के दिहली तवन इनके दिहती त रउरे न रहित।”

मुंशी –“अरे तू यह सब क्या बक रही है, पागल हो गयी है क्या?”

लौंडी – “सरकार। हम पागल नइखी भइल। रउरे मति गड़बड़ा गइल बा। नाहीं त अइसन रानी के छोड़ि के एगो भिखमंगिन के ले ले फिरतीं?”

मुंशी – “तू ने तो मुझे चक्कर में डाल दिया। मैं किसको लेकर फिरता हूँ रे?”

लौंडी – “सरकार, वा नइखी जानत? काल्हि सांझ के केकरा पहिरा-ओढा के संग ले गइलीं। हम का न देखलीं?”

मुंशी जी ने मुस्कुराकर कहा – “अरे! तू ने कहाँ से देखा?”

लौंडी-“हम कतहूँ से देखले होई, बाकी इ का रवां नीक काम कइली ह?”

मुंशी – “जो गहना उसके बदन पर देखा था वह मैं अपनी स्त्री के लिए लाया हूँ। उसीके कारण रास्ते मुझे आफत आई थी।”

मुंशी जी ने यह कह और छत के किनारे जाकर दलीप सिंह को गहना का संदूक लाने के लिए पुकारा। लौंडी ने कुछ देर चुप रहकर कहा- “अच्छा सरकार। इनहीं खातिर गहना ले आइल रहलीं, हाँ त ओकरा के काहे पहिरवलीं?”

मुंशी – “किसको? वह क्या जनाना है?”

इतने में दलीप सिंह संदूक लाया।

लौंडी – “क जी प्यादा साहब। काल्हि इ कुल गहना के पहिरले रहे साँचे-साँचे कहीं।”

दलीप – “क्यों। टीमल चौबे ने पहना था।”

लौंडी – “हूँ, टीमल चौबे। उनके त डाकू मारी धललनिस। उनकर महतारी राति दिन रोवले।”

दलीप – “नहीं, दाई नहीं। कल सबेरे वे आये हैं।”

पार्वती ने धीरे से कहा – “बड़ा अच्छा हुआ। बेचारी बुढिया माँ रो-रोकर मरती थी। पांडे जी भी आये हैं क्या?”

मुंशी – “नहीं, वे न जाने किधर बह गए, कुछ पता नहीं मिला। लक्ष्मी प्रसाद बड़ी-बड़ी मुश्किलों से बचे हैं।”

दलीप-“पाण्डेय जी भी आये हैं।”

मुंशी – “ऐं! कब आये?”

दलीप – “आपके भीतर जाने के थोड़ी ही देर बाद वे आये।”

इतने में मकान के दरवाजे पर बड़ा शोरगुल मचा। थोड़ी देर बाद चकराये और कांपते हुए मुंशी जी के बहनोई हरिहर प्रसाद वहां पहुंचे।

मुंशी – “क्यों हरी जी। इतना शोरगुल क्यों मच रहा है?”

हरिहर – “इतनी आफत मचा सकते हो। क्यों सत्यानाश कर रहे हो?”

मुंशी – “क्यों क्या हुआ?”

हरि.-“तुम्हारे नाम गिरफ्तारी का वारंट आया है। ड्योढ़ी पर दारोगा, जमादार आकर धूम मचा रहे हैं। दुनिया भर के लोग जमा हो गए हैं। तुमने क्या किया है?”

मुं.-“मैंने डाकू को मारा है और डाकू को पकड़ा है।” – कहकर वे अटारी से उतरकर बैठक में आये।

भोजपुर की ठगी : अध्याय १६ : मुंशी जी की बैठक

मुंशीजी बैठक में आकर एक कुर्सी पर बैठ गये। खवास सामने अलबेला रख गया था। मुंशीजी ने तमाखू पीते-पीते कहा-“बाहर जो लोग शोरगुल मचा रहे हैं उनको यहाँ बुलाओ।”

दरोगा, जमादार और लट्ठ लिये कई चौकीदार बैठक में आये। उनके साथ हमलोगों का पुराना परिचित अबिलाख बिन्द भी आया था। दारोगा फ़तेहउल्ला ने हरप्रकाश की तरफ उँगली दिखाकर अबिलाख से पूछा-“यही आदमी है!”

अबिलाख – “हाँ सरकार!”

दारोगा – “तुम्हारा नाम हरप्रकाश लाल है?”

मुंशीजी ने फतेहउल्ला के मुँह की तरफ ताककर मुसकुराते हुए व्यंग्य से कहा-“जी हाँ हुजूर!”

दारोगा -“तुम्हारे नाम गिरफ्तारी का वारंट है। कल रात को तुमने हीरासिंह के रेशम की किश्ती लूट ली है और एक नौकर को मार डाला है। तुम्हे थाने चलना पड़ेगा।”

मुंशी-“अच्छी बात है। खड़े क्यों हैं? तशरीफ का टीकरा रखिये।”

दारोगा- “दिल्लगी क्यों करते हो?”

मुंशीजी ने कहा – “वाह बड़े मियाँ! आपसे मैं दिल्लगी करूँगा?” आपने इतनी दूर का रास्ता तयकर, इतनी तकलीफ उठाकर बन्दे के यहाँ कदमरंजा फरमाया है तो आपकी खातिर बात करना मुझे लाजिम नहीं है? आप कैसी बात कहते हैं?”

यह कहकर उन्होंने एक बार जोर से तमाखू खींचा, चिलम की आग जल उठी उन्होंने जलती हुई चिलम उतारकर दारोगा साहब की दाढ़ी के पास ले जाकर बड़ी नरमी से कहा-“पीजिये मियाँ साहब!”

दारोगा साहब “तौबा” “तौबा” कहते हुए मुँह फेरकर दोनों हाथ से दाड़ी झाड़ने लगे।

“क्यों बदमाश! तू इतना गुस्ताख है?”

कहकर जमादार ने मुंशीजी की गर्दन पर हाथ रक्खा परन्तु तुरन्त ही मुंशीजी की ठोकर से दस हाथ दूर जा गिरा।

फिर मुंशीजी ने एक चौकीदार की लाठी छीन ली और ऐसी भयानक मूर्ती धारण कर ली कि किसी को उनकी तरफ जाने की हिम्मत नहीं होती थी। उनको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो उनके शरीर में कई हाथियों का बल आ गया है। उन्होंने गम्भीर स्वर में चौकीदारों से कहा-“अगर भला चाहते हो तो लाठियाँ यहाँ रख दो।”

चौकीदार एक दूसरे का मुँह देखने लगे।

“हथियार क्यों रखेंगे? चोरी करके और खून करके तुम नवाब बन गये हो?”

कहकर जमादार ने चौकीदार की लाठी ले ली। अबिलाख भी लाठी लिये आगे बढ़ा और दोनों ने गरजकर एक साथ मुंशी पर हमला किया। महल में चिल्लाहट और चारों ओर हाय-हाय मच गई।

मुंशीजी बड़ी दिलेरी से इस प्रकार लाठी भाँजने लगे कि देखकर जबरदस्त डाकू अबिलाख भी सहम गया। वह लाठी फेंककर एक तरफ जा बैठा। दलीपसिंह और पाँडे ने तलवार दिखाकर चौकीदारों को रोका। जमादार बेइज्जती और नौकरी के डर से कुछ देर लड़ने के बाद चोट खाकर धरती पर लोट गया।

“दलीपसिंह! सब लट्ठ जमा कर के यहाँ रक्खो” कहकर मुंशीजी फिर कुर्सी पर आ बैठे।

मुंशीजी ने दारोगा की तरफ कटाक्ष करके मुसकुराते हुए पूछा-“हाँ मिया साहब ! तो आप मुझे जेल में लम्बी म्याद तक रखना चाहते हो न? हीरा का कितना रुपया खाया है?”

दारोगा – “तो आप नहीं जाइएगा? अगर नहीं जाना हो तो हम लोग यहाँ रहकर क्या करेंगे? हमलोग भी जाएँ।”

मुंशीजी-“अजी वाह बड़े मियाँ, अभी जाइयेगा? हाथ मुँह धोइये। दो-चार लड्डू खाइये, जरा ठंढा से हो लीजिए तो जाइयेगा जाने के लिए इतना घबराते क्यों हैं?आइये, आइये इस कमरे में बैठिये।”

दारोगा साहब दल-बल सहित बड़े चाव से एक बे-खिड़की की कोठरी में जाकर बैठे।

दलीपसिंह ने दो बड़े-बड़े तालों से उसका दरवाजा बन्द कर दिया ।

भोजपुर की ठगी : अध्याय १७ : भोला और गूजरी

हीरासिंह के मकान में बड़ी धूम-धाम से नवरात्र की सप्तमी पूजा हो गयी। उन्होंने उसी दिन ब्राहमणों को खिलाया।”हीरा सिंह बड़े पुण्यात्मा हैं।” “हीरासिंह दूसरे कर्ण हैं” हीरासिंह का नाम पृथ्वी पर अमर हो” आदि कहते हुए दल के दल ब्राहमण दक्षिणा ले-लेकर विदा होने लगे और कंगालों के शोरगुल और जय जयकार से आकाश गूँजने लगा। उसको देखकर कौन नहीं कहेगा कि हीरासिंह बड़ा धर्मात्मा और पक्का भक्त है!

परन्तु इस समय उसका बायाँ हाथ भोलाराय कहाँ है? आइये पाठक! पातालपुरी में चलिये, वहीं उसका पता मिलेगा। उस अभागे ने दिन भर कुछ नहीं खाया है न एक बूँद पानी पिया है। हीरासिंह ने उसको खिलाने के लिए बहुत कोशिश की थी परन्तु कामयाब नहीं हुआ। भोला ने भूखों रहकर मर जाने की ठान ली थी। उसको अब जीने की लालसा नहीं थी, ज़िन्दगी भारी मालूम होती थी। तरह-तरह की भयंकर चिन्ताओं से उसका जी व्याकुल हो गया था। बड़े कष्ट से सारा दिन काटकर संध्या को उसकी आँखें एक बार लगी थीं परन्तु मानसिक चिंता सोने कब देती। तुरन्त उसकी नींद टूट गई।

“हाय क्या कर डाला” कहकर वह उठ बैठा देखा कि चारों ओर घना अंधकार छाया हुआ है। उस भयंकर जगह में उस समय घने अन्धकार के सिवा और कुछ नही दिखाई देता था। भोला को ऐसा मालूम हुआ कि उस अँधेरे में, आकाश में पुच्छल तारों की तरह सैकड़ों पंजर नाच रहे हैं। भोला का विशवास था कि अपघात मृत्यु से मरनेवाला भूत होता है। अचानक कच शब्द हुआ। भोला चौंक पड़ा और जिधर शब्द हुआ था उधर ध्यान से कान लगाये रहा। उसे जान पड़ा कि कोई दबे पाँव उसकी ओर आ रहा है। बोला पंछी ने पूछा -“कौन है?”

उत्तर मिला-“मैं गूजरी हूँ।” भोला को भूत होने का संदेह हुआ।

गूजरी ने कहा-“राय जी! डरो मत मैं तुम्हारा गला घोंटना नहीं आई हूँ। मैं भूत नही हूँ। मरने से पहले तुमको एक बार देखने की इच्छा हुई इसी से तुम्हे देखने आई हूँ।”

इसके बाद ही गूजरी भोला की गोद में पहुँच गई। भोला की आँखों से आँसू की धारा बह चली। जवान होने के बाद भोला कभी नहीं रोया था, आज वह अभागा रोया।

“राय जी तुम रोते क्यों हो? तुम्हारा क्या दोष है? सब मेरे भाग्य का दोष है। सब मेरे इस पापी मन का दोष है।”

भोला की बुद्धि ठिकाने न रही। “गूजरी। मेरे पाप का प्रायश्चित नहीं, तू मुझे माफ़ कर” कहकर भोलाराय उसके पैरों में गिरकर बालक की तरह रोने लगा। इतने में इस अन्धकार पुरी में रोशनी की चमक आयी।

गूजरी-“रायजी! कोई आता है। इस वक्त मैं जाती हूँ।”

भोला – “कहाँ जायेगी?”

गूजरी-“चूल्हे में। तुमने मेरे लिए सिर छिपाने की जगह थोड़े रखी है।”

भोला – “तू बच गयी कैसे?”

गूजरी-“मुंशी हरप्रकाशलाल ने मुझे बचाया।”

भोला-“ऐ! हरप्रकाश लाल ने तुझे बचाया है?”

“क्यों चौकें क्यों?” कहकर बिना कोई उत्तर सुने ही गूजरी चली गई। वह जिस रास्ते से आई थी उसी रास्ते निकल गई और सावधानी से उसने सुरंग का मुँह बंद कर दिया। इस रास्ते को हीरासिंह के दल के मुख्य-मुख्य डाकुओं के सिवा और कोई नहीं जानता था।

दूसरी ओर एक हाथ में दीया और दूसरे हाथ में एक थाली लिए पापवतार हीरासिंह वहाँ दाखिल हुआ। उसने कहा-“क्यों रायजी! कुछ खाओगे नहीं! सारा दिन यों ही बीता, अब कुछ खाओ उठो। मेरी बात रखो, कुछ खा लो” कहकर उसके सामने मिठाई-पूरी की थाली रख दी।

भोला बिना कुछ कहे भोजन करने बैठ गया। अब उसकी चिंता मिट गई, मन का बोझ उतरा है, अब उसे खाने की रुचि हो आई।

इसी बीच में हीरासिंह एक घड़े से एक लौटा जल लेकर भोला के पास आ बैठा। बैठकर बोला – “अभी तक फतेहउल्ला का कुछ पता नहीं मिला। वह सवेरे ही गया हुआ है, अभी तक नहीं लौटा।”

भोला- “नहीं लौटा तो तुम्हारा क्या और मेरा क्या?”

हीरा- “अरे तब तो सत्यानाश ही होगा। तुम नहीं समझते हो कि क्या-क्या आफत आवेगी? हरप्रकाश क्या ऐसा-वैसा आदमी है?”

भोला-“अगर इतना ही डर है तो मुझको यह काम छोड़ देना चाहिये।”

हीरा-“यह आफत तुम्ही लाये हो। मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि हरप्रकाशलाल मामूली आदमी नहीं है।”

भोला-“हरप्रकाशलाल से तुम डरो, मैं उसको तिनके के बराबर समझता हूँ। अगर मैं आफत लाया हूँ तो मैं जरूर यह आफत मिटा दूँगा, परन्तु इसके बाद तुमसे मेरा कुछ सरोकार नहीं रहेगा, अब मैं डकुहाई नही करूँगा।”

हीरा-“अच्छा इसका विचार पीछे होगा, इस वक्त बड़ा तमाखू पिओगे?”

भोला-“क्या गाँजा? प्राण रहते अब मैंने गाँजा नहीं छूऊँगा। गाँजा ने ही मुझे चौपट किया है, मेरा दोनों लोक बिगाड़ा है।”

हीरा-“ऐ, तुम गाँजा नहीं पिओगे? अच्छा देखा जायेगा।”

भोला ने रूखाई से कहा-“सिंहजी! अब घर जाइए, रात बहुत हो गई, जाकर सोइये। आपके सिर पर चील मँडरा रही है, सोये-सोये जरा सोचिये। इस आफत के लिए आपको फ़िक्र नहीं करनी पड़ेगी। इसके लिए बेफ़िक्र रहिए। परन्तु याद रखना, भोला का प्रण कभी नहीं टूटता। अब जाइये, जी मत जलाइये।”

हीरासिंह भोलाराय का मिजाज पहचानता था। और वह कुछ न कहकर वहाँ से चला गया और पातालपुरी में गिर अँधेरा छा गया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय १८ : मैदान में

डुमराँव का तीन कोस तक फैला हुआ मैदान धू-धू कर रहा है। तीन कोस तक धान की हरियाली बिहारियों की आँखों को आनन्दित कर रही है। अष्टमी के दिन तीसरे पहर को उसी हरियाली के बीच डाँड़ो के ऊपर भयंकर डाकू भोलाराय अकेला जा रहा था। उसने जाते-जाते देखा कि एक बगुला एक गढ़ के किनारे, एक पैर उठाये चुपचाप जल की तरफ ताक रहा है। उसे देखकर भोला हँसा और मन ही मन बोला- अरे जानवर! हम लोग आदमी की देह धरकर भी तेरी ही चाल चलते हैं, तू जो करता है, मैं और हीरासिंह भी वही काम करते हैं, हम लोग आदमी होकर भी जानवर हैं। तू सिर्फ अपना मतलब ढूँढता है और हम भी वही करते हैं। जन्म भर डकैती करके मैं खुद बेहद दुखी हुआ और अनगणित आदमियों को बेहद सताया है, न जाने कितने खून किये हैं, कैसा कुकर्म किया है! मैंने क्यों नहीं समझा कि दूसरे को सुखी करने में ही, परोपकार करने में ही सच्चा सुख है! यों सोचते-सोचते भोलाराय पलास के पेड़ों से घिरे हुए एक पोखरी के पास आ पहुँचा।

पाठकों को याद होगा, इसी तालाब की चौड़ी सीढ़ियों पर पश्चमी की रात को गूजरी से भोला की भेंट हुई थी। भोला ने देखा कि तालाब के किनारे एक काला ब्राहम्ण बैठा माला जप रहा है। इस ब्राहम्ण को भी पाठकों ने एक दिन देखा है। उसका नाम सागर पाँडे है। भोला ने प्रणाम करके उससे पूछा-“क्यों पाँडेजी! कुछ हाथ लगा?”

सागर – “कुछ भी नहीं भैया।”

भोला-“आजकल अब कुछ हाथ नहीं लगेगा, आज अष्टमी है। अब कोई बटोही नहीं मिलेगा। जिसको जहाँ जाना था वह वहाँ पहुँच गया। मेरे साथ चलो, गहरा माल हाथ लगेगा।”

सागर – “कहाँ?”

भोला – “मुंशी हरप्रकाश के मकान पर।”

सागर -“वहाँ सिर्फ दो ही जने?”

भोला-“वहाँ क्या है? तुम सिर्फ मेरे साथ रहना, मैं अकेले सब काम को करूँगा।”

यों बातचीत हो रही थी कि इतने में उनके पीछे कोई चीख उठा। उन्होंने पीछे फिरकर देखा कि एक आदमी एक साँस दौड़ा आ रहा है और दूसरा उसका पीछा कर रहा है।

आगे वाला बूढ़ा था “दुहाई तुम्हारी, मेरी जान बचा” कहकर उसने सागर पाँडे के पैर पकड़ लिये। भोलाराय ने कहा-“डरो मत उठो। तुम कहाँ जाओगे?”

बूढ़ा -“मैं सरेंजा जाऊँगा।”

भोला-“सरेंजा किसके यहाँ?”

बूढ़ा – “हरप्रकाश लाल के यहाँ।”

भोला-“बेखटके चले जाओ। किसकी मजाल है जो तुम्हे छुएगा। हम यहाँ खड़े हैं तुम चले जाओ।”

पीछे बार-बार ताकता हुआ बूढ़ा भरपूर तेजी से चला गया। पीछा करने वाले डाकू ने भोला के पास आकर कहा-“क्यों रायजी! बूढ़े को छोड़ दिया?”

भोला-“उसको मारकर क्या होगा, उसके पास क्या है?”

डाकू -“अरे इसकी टेंट में रूपये हैं। आपने देखा नहीं क्या?”

भोला-“अरे दो चार रूपये के लिए एक आदमी की जान लेना अच्छा है?”

डाकू -“राय साहब! आज आपके मुँह से यह नई बात सुनी!”

भोला -“अब मैं वह काम नहीं करूँगा।”

सागर-“और अभी कहते थे कि हरप्रकाश के घर डाका डालने चलो।”

भोला-“इसी डाके के बाद मेरा प्रण चलेगा। जो प्रण किया है उसे जरूर करूँगा। जीते जी भोलाराय का प्रण कभी नहीं टूटा और टूटेगा भी नहीं।”

डाकू – “आप दो ही जने जाते हैं, और लोग कहाँ हैं?”

भोला – “और कौन? अधिक आदमियों की क्या दरकार है? तू भी मेरे साथ चल।”

तीनो डाकू एक साथ चले। दिन भर आकाश में बादल छाये हुए थे लेकिन वर्षा नहीं हुई। अब एक काला मेघ पश्चिम तरफ फैलकर धीरे धीरे ऊपर जाने लगा और आधे आकाश को घेर लिया। बिजली चमकने और बादल गरजने लगे।

भोला ने कहा – “पाँडेजी! पानी बड़े जोर से आता है। जरा तेजी से चलो।”

सागर – “हाँ भाई, मैदान पार हो जाये तो जानें।”

धीरे-धीरे सारा आकाश काले बादलों से छा गया। बड़े जोरशोर से मूसलाधार वर्षा होने लगी। डाकू फुर्ती के साथ चलकर सरेंजा के पास पहुँच गये।

भोजपुर की ठगी : अध्याय १९ : मोदी की दुकान

सरेंजा के पास पहुँचकर डाकू एक मोदी की दुकान में जा रुके। उन्होंने देखा कि मोदी कुटकी, तिलवा, चावल, दाल, सत्तू आदि चीजों से भरी हाँडी पतुकी चंगेली के बीच में गम्भीर भाव से बैठा है। और एक दूसरा आदमी उसके पास खड़ा होकर गाँजे का दम लगाते हुए बातें बना रहा है। वह जैसा ही काला है वैसा ही लम्बा-चौड़ा है। उसके सिर के बाल बहुत बढे हुए हैं। ओंठ के ऊपर बड़ी बड़ी मूँछें हैं और आँखें पकी करजनी की तरह लाल हैं। गरज यह कि उसको राक्षस कहने में कुछ दोष नहीं है। वक्ता ने मुसाफिरों को एक चटाई दिखाकर कहा -“सलाम साहब! बैठिये।”

पाँडे और राय चटाई पर जा बैठे, तीसरा डाकू और एक जगह। मोदी ने चकमक पत्थर से आग जलाते हुए कहा-“भई, दलीप सिंह! यह तो बड़े अचरच की बात है। लोग सबेरे उठकर उसका नाम लेते हैं वही हीरासिंह ऐसा आदमी है?”

दलीप-“अबकी धर्मात्मा जी की सब विद्या-बुद्धि देखी जायेगी। अबके उन्होंने भले घर बायन दिया है।”

मोदी ने तमाखू चढ़ाकर चिलम फूँकते-फूँकते कहा- “मुंशीजी में गजब हिम्मत है।”

दलीप – “सिर्फ हिम्मत नहीं? इतना बल कितने आदमियों में है?”

भोला – “हाँ, हमने भी सुना है हीरासिंह भी बहुत जबरदस्त आदमी है।”

मोदी ने “तमाखू पीजिये” कहकर रायजी को चिलम दिया और कहा-“हीरासिंह के बल की क्या कहते हैं, बहुत लोग उनको देवता समझते हैं।”

भोला- “हीरासिंह से मुंशीजी की रार का असल कारण क्या है?”

मोदी-“वह कहानी बड़ी लम्बी है। तो हाँ सिंह जी! दारोगा जी दलबल समेत उसी कोठरी में कैद हुए, इसके बाद क्या हुआ?”

दलीप – “इसके बाद उनको अच्छी तरह खिला-पिलाकर कर कल श्याम को आरे चालान कर दिया। मुंशीजी ने चिट्ठी में सारा हाल खुलासा लिख दिया है। अब के हीरासिंह बचके नही जायेंगे।”

मोदी – “यह बात अभी नहीं कह सकते। भाई साहब, अब सब हीरासिंह के हाथ में है, खासकर मुंशीजी पर जो जुर्म लगाया है उससे जान पड़ता है कि मुंशी जी ही फँसेंगे।”

दलीप – “अरे वह साबित कैसे होगा? कहा है कि रेशम की नाव लूट ली है; लेकिन माल कहाँ है?”

यह कहकर वह फिर गाँजा पीने लगा। भोला ने मन ही मन कहा- वह प्रण आसानी से पूरा हो जाएगा। दूसरा प्रण है मुंशी जी के जेवर का सन्दूक या बतौर उसकी कीमत दस हजार रूपये जबरदस्ती लेना। यह प्रण पूरा होते ही मेरा पाप-कर्म पूरा हो जाएगा। परन्तु यह पापी कौन है? फिर प्रकट में बोला-“”भैया जबरदस्त दुष्ट आदमी क्या नहीं कर सकता! हीरासिंह ने मुंशीजी पर जो जुर्म लगाया है, तुम देख लेना, वह बात की बात में साबित हो जायगा।”

दलीपसिंह ने चिलम जमीन पर रखकर कहा – “मुमकिन है कि सबूत हो गया। हमलोग गरीब आदमी बड़े आदमियों की बात क्या समझेंगे! (मोदी से ) भई! अब वर्षा होने लगी मैं जाता हूँ। हाँजी आज वहाँ नाच होगा, देखने चलोगे?”

मोदी-“गुलशन का नाच होगा देखेंगे नहीं! तुम मुझे पुकार लोगे न? कब आओगे?”

दलीप – “आधीरात को। लेकिन भई! आज बेफ़िक्र होकर नाच देखने नहीं पाऊँगा। बीच-बीच में आ-आकर मकान पर पहरा देना होगा? साले कब आ जायँ, कुछ ठिकाना नहीं। अब चलता हूँ।”

दलीप के चले जाने पर भोला ने मोदी से पूछा – “यह कौन आदमी है, किसके घर डाका पड़ने की बात कहता था?”

मोदी-“इसका नाम दलीप सिंह है, यह मुंशी हरप्रकाशलाल का प्यादा है। भोलापंछी का नाम आपने सुना है।? उसके जैसा डाकू इस दुनिया में नहीं है। सुनते हैं वही कह गया है कि आज रात को मुंशी जी के घर पर डाका डालूँगा।”

भोला -“तब तो बड़ी आफत है। यह देश बेराजा का हो गया। अच्छा भैया, हम लोग चलते हैं।”

मोदी ने उनलोगों को प्रणाम करके विदा किया।

भोलाराय दोनों साथियों सहित कुछ दूर चलकर शूद्र डाकू से बोला, सुनो जी दुःखी! तुम अभी मुरार जाओ। नंगे पैर जाओगे तो देर होगी। उस बेंत की झाडी में दो जोड़ी खड़ाऊँ रक्खी है। जो जोड़ी लम्बी है उसी पर चढ़कर हवा की तरह जाओ। हीरा सिंह से मेरा नाम लेकर कहना कि उन्होंने 25 गाँठ रेशम माँगा है। उसे अपने साथ लाना और पचीसों गाँठ लाकर मुंशी जी की गोशाला में छिपा देना। देखना खूब सावधानी से काम करना। काम हो जाय तो खूब जोर से तीन बार “सियाराम” “सियाराम” कहना। तब मैं समझ जाऊँगा कि काम निर्विघ्न हो गया। अगर कुछ विघ्न पड़े तो दो बार “गुरूजी पार लगाओ, गुरूजी पार लगाओ” कहना। समझ गये न। अब जाओ, अभी जाओ। जो कुछ कहा है वह सब याद रहेगा?”

दुःखी-“याद तो रहेगा मगर काम सीधा नहीं है।”

दुःखी के चले जाने पर भोला ने सागर पाँडे से कहा-“सुनो पाँडे जी ! तुमको भी एक काम करना होगा।”

पाँडे – “क्या? कहो।”

भोला-“यह जो आदमी गाँजा पीकर गया है उसको खूब पहचान लिया है न?”

पाँडे – “हाँ।”

भोला – “वह मुंशी जी का प्यादा है। आज आधीरात को वह मोदी के साथ नाच देखने जायेगा। तुम अभी से उस दुकान में कुछ खाकर सो रहो। जन वह नाच देखने जाय तब तुम भी उसके साथ जाना। उसको अपनी निगाह में रखना। वह उठे तो तुम भी उठना लेकिन खबरदार वह न देखने पावे। वह मुंशी जी के मकान के पास आये तो तुम दूर से कोई गीत गाना। बस, इससे ज्यादा तुमको कुछ नहीं करना पड़ेगा।”

पाँडे – “बस इतना ही? इतना तो मैं मज़े में कर लूँगा।”

भोला – “तब तुम दुकान पर लौट जाओ।”

भोला राय सागर पाँडे के हाथ में खाने के लिए चार पैसे देकर चलता बना।

भोजपुर की ठगी : अध्याय २० : मुंशी जी की बैठक

चूनाकली कराई हुई बैठक में चारपाई और जाजिम बिछा है। जाजिम के ऊपर कई तकिये, एक ढोलक और एक सितार रक्खे हुए हैं और ऊपर हँड़िया ग्लास में मोमबत्ती जल रही है। वहाँ मुंशी हरप्रकाश लाल, उनके बहनोई हरिहर प्रसाद, लक्ष्मी प्रसाद और पुजारी पाँडे जी मन लगाकर लाला बलदेव लाल की आफत की बात सुन रहे थे। बूढ़े बलदेव लाल मैदान में डाकू के पल्ले पड़कर किस प्रकार बच आये थे यह बात पाठक जानते हैं।

बलदेव लाल ने अपनी राम कहानी पूरी करके मुंशी जी से कहा-“यह देश अराजक हो गया। मेरी जो कुछ जमीन-जायदाद है वह सब बेचकर मुझे कुछ रुपया दो तो मैं काशीवास करूँ। इस जगह अब एक घड़ी रहने का जी नहीं चाहता।”

लक्ष्मी प्रसाद – “वाह साहब! देश छोड़कर भाग जायेंगे! अगर देश में जुल्म जबरदस्ती होती है तो ऐसा उपाय कीजिये कि न होने पावे। देश छोड़कर भागने से क्या होगा?”

इसी समय एक ब्राहम्ण भेषधारी लम्बा पुरुष “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च” कहते हुए बैठक में दाखिल हुआ। मुंशी जी, हरी जी और बलदेव लाल ने उसको प्रणाम करके बैठने की जगह दी। अतिथि भोला राय “जय हो” कहकर बैठ गया।

मुंशी जी – “आपका नाम क्या है पण्डित जी और कहाँ से आते हैं?”

भोला – “मेरा नाम रघुवीर दूबे है। मकान चौसा है। राम जी की इच्छा से चेला-चाटियों में गया था। आज वहीं अबेर हो गई। आज यहाँ टिक रहने का विचार है। राम जी कि इच्छा से इधर डाकुओं का बड़ा उपद्रव है। सो राम जी की इच्छा से रात को अकेला आगे जाने का ह्याव नहीं होता है।”

मुंशी जी – “कुछ परवाह नहीं, आज यहीं आराम कीजिये। बेशक डाकुओं का उपद्रव बहुत बढ़ गया है। (बलदेव लाल को दिखाकर) इनको आज दिनदहाड़े डाकू ने घेर लिया था सौभाग्य से कई राही आ गये जिससे इनकी जान बच गई।”

हरि जी- “क्या बताऊँ महराज! इन लोगों की बिलकुल अकल मारी गई है। इस जिले में हीरा सिंह नाम का एक बड़ा जबरदस्त जमोन्दार है। उसको धन-बल, जनबल और बुद्धिबल तीनो हैं। उसके डाकू-दल के कई आदमियों को पकड़कर इन लोगों ने आरे चालान किया है? यह क्या अच्छा काम किया है?”

भोला – (हँसकर) “क्या, अच्छा ही तो किया है। राम जी की इच्छा से दुष्टों को दबाना ही चाहिये।”

मुंशी – “मैं भी यही कहता था जब एक दिन मरना ही होगा तब मौत के डर से अधमरा होकर जन्मभर मौत का कष्ट क्यों भोगूँ? देश में सारी अराजकता हो गई है, किसी के धन-प्राण की खैर नहीं है। दुष्ट डाकुओं के जुल्म से सबलोग थर्रा उठे हैं। एक घड़ी के लिये भी कोई सूचित नहीं है, कोई क्षण भर के लिये भी सुखी नहीं। ऐसी दशा में रहकर कष्ट भोगने के बदले जुल्म रोकने की कोशिश करना उचित नहीं है? रोज डाकू हमलोगों को मार-पीटकर हमारा सर्वस्व लूट ले जाया करेंगे, हमारे पिता, पुत्र, भाई आदि को जहाँ-तहाँ मार डालेंगे, हमारी स्त्रियों की फजीहत करके उनके बदन से जेवर छीन लेंगे, और हमलोग हाथ पर दही जमाकर बैठे-बैठे देखेंगे, डर के मारे चूँ नहीं करेंगे? जान का इतना मोह क्यों है? जान जायगी तो जाय परन्तु जुल्म कभी नहीं सहेंगे। जो बेइज्जती सह सकता है, बेकारण जुल्म सह सकता है वह नामर्द है।”

भोला राय सन्नाटे में आकर चुपचाप एकटक मुंशी जी का मुँह ताकते हुए झरने की तरह निकलने वाली उनकी वचनावली सुनता था और मन ही मन कहता था – हीरासिंह नर रुपी राक्षस है और हरप्रकाश लाल मनुष्य देहधारी देवता है। मुंशी जी की बात पूरी होने पर उसने मुसकुराकर कहा- “लाला जी! इस देश में डाकू बड़े जबरदस्त हैं। राम जी की इच्छा से आप अकेले इस काम का बीड़ा उठाकर क्या पूरा कर लेंगे? अगर देश भर के आदमी एक मत हों तो यह कार्य सिद्ध हो सकता है।”

मुंशी- “चोरों को दबाना कुछ ऐसा मुश्किल काम नहीं है कि उसमें देश भर के लोगों की मदद की दरकार हो। मैंने दो ही तीन दिन में चार-पाँच डाकुओं को गिरफ्तार करके चालान कर दिया है। आज मेरे घर पर डाका पड़ने की अफवाह है। देखें डाकू कैसे मेरे मकान से सही-सलामत लौट जाते हैं।”

हरी-“अजी भोला राय ऐसा-तैसा डाकू नहीं है। उसके नाम से तीन जिलों के आदमी थर-थर काँपते हैं। उसका सामना करने में तुम जरूर जान से हाथ धोओगे, लक्षण ऐसा ही जान पड़ता है।”

मुंशी – “मैं विदेश जाकर दूसरे की गुलामी करके जो कुछ कमा लाया वह सब उसके हवाले कर दूँ?”

भोला-“धन बड़े कष्ट से, बड़े परिश्रम से पैदा होता है। परन्तु राम जी की इच्छा से बात यह है कि आप अपने ही बल और साहस के भरोसे न रहें। भोला पंछी बड़ा ही बली डाकू है। राम जी की इच्छा से आप अपना धन कहीं और जगह भेज दें या कहीं गाड़ दें।”

मुंशी – “आप क्या चाहते हैं पंडित जी,एक मामूली डाकू से इतना डरना होगा? भोला पंछी गहनों का जो सन्दूक चाहता है उसको मैंने बड़े सन्दूक में भी रखा है, घर खुला छोड़ दिया है। देखें वह कितना बड़ा डाकू है, कैसे लूट ले जाता है।”

बलदेव लाल ने उठकर कहा – “भैया, सचेत आदमी को कुछ डर नहीं है। जरा सम्हल कर चलना। तुम चतुर आदमी हो, तुम्हे अधिक क्या समझाऊँ। एक बार मेरे साथ और चलो, कल जाकर फौजदार से इन डाकुओं का जुल्म कहेंगे। देखें वे इनका कुछ इलाज करते हैं कि नहीं। अब जरा अन्दर चलो।”

भोजपुर की ठगी : अध्याय २१ : चोर के भाग जाने पर बुद्धि चलती है

आधीरात हो गयी है, चारो ओर सन्नाटा है। मकान के बाहर तीनबार “सियाराम” की आवाज़ हुई। भोला उठ बैठा और मन ही मन बोला – यही मौका है। देखा, पुजारी की नाक बज रही है। भोला ने अपनी झोली सहित बाहर निकलकर दरवाज़े की जंजीर चढ़ा दी। फिर ड्योढ़ी पर आया। वहाँ एक लालटेन जलती थी और ढाल-तलवार बर्छी आदि हथियार जगह जगह लटकते थे। मिरजापुरी ड्योढ़ीदार जगन्नाथ चित सोया था।
भोला राय ने अपनी झोली से मोटी रस्सी निकालकर जगन्नाथ को खटिये से बाँध दिया। वह चिल्लाया तो भोला ने दीवार से एक तलवार निकालकर उसको डराया। मिरजापुरी जवान चुप हो गया।
भोलाराय ने झोली कमर में बाँधकर हाथ की तलवार जगन्नाथ के मुँह के पास ले जाकर कहा-“साँस न लेना समझा?” यह कहकर वह सीढ़ी से झट छत पर चढ़ गया। वह मुंशीजी की सोने की कोठरी के पास आया और शबरी से एक खिड़की की कई ईंटें निकालकर उसका किवाड़ निकाल दिया। देखा कि घर में चिराग जल रहा है, मुंशीजी अपनी स्त्री के साथ बेखबर सो रहे हैं। सोचा-“बड़े मौके पर आया हूँ परन्तु वह सन्दूक कहाँ है? मुंशीजी ने कहा कि वह सन्दूक बड़े सन्दूक में नहीं रखा है तो जरूर इसी घर में कहीं है।” यों सोचते-सोचते भोलाराय इधर-उधर ढूँढने लगा परन्तु कहीं नज़र नहीं आया।

-तो क्या मुंशीजी ने झूठ कहा था? न, ऐसा नहीं हो सकता। वह जैसा तेजस्वी और साहसी है वह झूठी डींग नहीं मारेगा। यों सोचते-सोचते भोला ने मुंशीजी के पलंग के पीछे आकर देखा कि कई खूटियों पर वह सन्दूक रखा हुआ है।

भोलाराय काम फ़तेह कर ताबड़तोड़ ज्योंही चला त्योंही पलंग के पावों में पैर ठेक जाने से वह सन्दूक के साथ जमीन पर गिर पड़ा, दम्पति की नींद टूट गई।
मुंशीजी “कौन है, कौन है” कहकर उछल पड़े। पार्वती खिड़की के पास डाकू की भयंकर मूर्ती देखकर डर के मारे चिल्ला उठी।
भोलाराय झटपट उठकर खिड़की के पास आकर बोला-“मेरा नाम भोलाराय है प्रण पूरा करके अब जाता हूँ। भगवान् तुम्हें बनाये रखें।”
मुंशीजी घायल शेर की तरह गरजकर उसके पीछे दौड़े। भोला हँकड़ता हुआ कूदकर तिमंजिले पर पहुँचा । वहाँ से बोला-“मुंशीजी! तुम इन गहनों के लिये अफ़सोस मत करना, तुम धर्म से चलकर अपार धन कमाओगे।”
मुंशीजी ने दलीपसिंह को पुकारा, जगन्नाथ को पुकारा परन्तु किसी की आहट नहीं मिली। वे तिमंजिले पर चढ़े वहाँ भोला को नहीं पाया। झटपट नीचे उतारकर देखा कि मिरजापुरी ड्योढ़ीदार खटिया से बँधा है और बाहरी दरवाजा बन्द है। उन्होंने झटपट दरवाजा खोलकर सड़क में पहुँचकर दलीपसिंह को पुकारते-पुकारते सुना कि कोई धीमी आवाज़ से कुछ कह रहा है। जिधर से आवाज़ आती थी उधर कुछ दूर जाते ही दलीपसिंह को देखकर पूछा-“अजी, तुम यहाँ इस तरह क्यों बैठे हो? तुम कहाँ थे? कड़ा दम लगाकर कहीं पड़े थे न?”
दलीप-“सरकार! आज भी कड़ा दम लगाने का दिन है? आपपर विपद पड़ने के दिन मैं ख़ुशी मनाऊँगा ? आपका नमक बहुत खाया है परन्तु आपके काम नहीं आया! इसी का मुझे बड़ा दुःख है! डाकू मेरी जान ही क्यों न ले गये!”
मुंशीजी-“तुम्हे मारा भी है क्या?”
दलीप-“सरकार! मेरा दायाँ पैर तोड़ गये।”
मुंशी – “वे सब घर में घुसे थे कि निकले? तुमसे जैसा कहा था उसी तरह मकान के चारों ओर पहरा देते थे न?”
दलीप – “सरकार! मैं कसम खाकर कहता हूँ कि रात के एक बजे तक एक चूहा भी घर में घुसने नहीं पाया था। इसके बाद सरकार मुझसे एक कसूर हो गया। मैंने सोचा एक बज गया और अभी तक कोई नहीं आया तो आज डाका नहीं पड़ेगा। यही समझकर आधे घण्टे के लिये सिर्फ एक बार नाच देखने चला गया था। वहाँ से लौटकर ज्योंही साहजी के गोले के पास पहुँचा हूँ कि एक आदमी आपकी छत से रास्ते में कूदा। मैंने दौड़कर उसे पकड़ा वह, छुड़ाने लगा। मैं भी उसे काबू में लाने की कोशिश करने लगा। इतने में और एक आदमी ने आकर मेरे पैर में लाठी मारी। मैं गिर पड़ा वे दोनों भाग गये।”
मुंशी – “दलीप! तुम्हारा कुछ कुसूर नहीं है। मुझे ही जरा खबरदार रहना चाहिये था। अब समझ गया कि कल जो ब्राहम्ण बनकर आया था वही भोला पंछी था। खैर, जो होना था सो हो गया। तुम्हे क्या गहरी चोट लगी है?”
दलीप- “सरकार! गहरी चोट नहीं लगती तो क्या मैं इस तरह बैठा रहता?”
मुंशीजी – “अच्छा मैं ड्योढ़ीदार को भेजता हूँ, वह तुम्हें सहारा देकर लिवा ले जायगा। जगन्नाथ-को खटिया में बाँध दिया है। वह शायद सो गया था।” मुंशीजी ने घर लौटकर जगन्नाथ का बंधन खोलकर उसे दलीपसिंह के पास भेजने के बाद देखा कि सब घरो में जंजीर बंद है। जंजीर खोलने पर घर भर के लोग जमा होकर हाय-हाय करने लगे। बलदेवलाल ने कहा-“भैया! हम जिस लिये आयें है आओ वह काम अभी करें, अब घड़ी भर देर करना उचित नहीं है। चलो पौ फटते हम और तुम फौजदार के पास चलें। वे जरूर इसका कुछ इलाज करेंगे।”
मुंशीजी-“बहुत अच्छा! आप तैयार हो जाइये। मैं भी कपड़ा बदल कर आता हूँ।”

भोजपुर की ठगी : अध्याय २२ : पार्वती और गूजरी

सबेरे ससुर-दामाद के आरे जाने पर एक काली युवती मुंशी हरप्रकाशलाल के दरवाजे पर आई। ड्योढ़ीदार ने पूछा – “क्या चाहती है?”

युवती ने हँसकर कहा – “भीतर जाना चाहती हूँ।”

एक देहाती स्त्री के मुँह से ऐसी हिन्दी सुनकर ड्योढ़ीदार ने कुछ आश्चर्य के साथ उसके मुँह की तरफ देखा। युवती बोली-“क्या देखते हो?”

ड्योढ़ीदार ने अचकचाकर कहा – “आप भीतर जाइये। जनाने में जाइये। वह भीतर चली गई।”

यह काली युवती गूजरी है। दाई के द्वारा गूजरी बुलाये जाने पर पार्वती के पास आई और सिर से पैर तक उसको देखकर बोली- “तुम्ही मुंशीजी की बहू हो?”

पार्वती ने शरमाकर सिर नीचे कर लिया, कुछ जवाब नहीं दिया।

गूजरी – “समझ गई, तुम्ही बहूजी हो।”

पार्वती – “किसलिये आना हुआ है?”

गूजरी बोली – “मैं बड़ी दुखिया हूँ। मेरा एक छप्पर खर का था वह आग लगकर जल गया। अगर मैं भी उस में जल मरती तो मेरा सब दुःख दूर हो जाता। तुम्हारे पति ने उस आग से मुझे बचाकर कहा- ‘देखो तुम नवमी के दिन एक बार मेरे घर आना मैं घूमने के लिए तुम्हे कुछ रुपया दूँगा।’ इसीसे उनको ढूँढती हुई आई हूँ।”

दाई – “तू त बड़ बेहया मेहरारू बुझाताडू। काल्हि राति के एघरे चोरी हो गइल ह आ तू आजू अनगुत्ते भीख माँगे अइल ह।”

पार्वती ने दाई पर जरा नाराज होकर कहा-“चोरी की बात उसे क्या मालूम! उसको उन्होंने आने के लिए कहा था इसलिये वह आई है।”

गूजरी- “मैंने सुना था कि तुम्हारे मायके में डाका पड़ा था; यहाँ भी डाका पड़ा?”

दाई- “आहिरे दादा! मुंशीजी इनका खातिर दस हज़ार रुपय्या का गहना बनवा ले आइल रहलनि हं। उ सब चोरा ले गइलन स।”

पार्वती-“क्या जाने अभी हमारे भाग्य में क्या-क्या लिखा है। मुझे बड़ा डर लगता है कि वे गये हैं उनपर कुछ आफत न आवे।”

गूजरी – “बहूजी! तुम डरो मत, मैं कहती हूँ तुम्हारा बुरा कभी नहीं होगा।”

“मैं जानती हूँ मेरी ज़िन्दगी दुःख ही में बीतेगी, नहीं तो मुझे आठ वर्ष की छोड़कर मेरी माँ क्यों मर जाती?” यह कहकर पार्वती सिर नीचे किये सिसकने लगी।

गूजरी का गला भर आया। पार्वती का मलिन मुँह उससे देखा नहीं गया। वह अपना दुःख भूल गई और उसकी ठोड़ी धरकर मुँह उठाकर अपने आँचल से आँसू पोछती हुई भरी आवाज में बोली-“बहू! तुम लक्ष्मी हो, जिसका मुँह देखने से कलेजा ठंडा होता है वह क्या कभी दुःख पाता है? तुम रोओ मत,तुम्हारे पति का कभी अशुभ नहीं होगा, रामजी उनका भला करें। जिस दिन तुम्हारे सब गहने तुम्हारे बदन पर देखूँगी उसी दिन मेरा जीना सफल होगा। बहूजी! इस अभागिन कंगालिनी को याद रखना।”

इतना ही कहकर गूजरी चली गई; जहाँ तक नज़र गई, पार्वती अकचका कर उसकी ओर देखती रही।

भोजपुर की ठगी : अध्याय २३ : लतीफन का इजहार

आरा में बड़ी धूमधाम से रामलीला हो रही है। आज नवमी को मेघनाथ वध होगा, बड़ी भीड़ है। शहर भर के लोग टूट पड़े हैं। चार बजे का समय है। भीड़ ‘राजा रामचन्द्र की जय’ शब्द से आकाश गुँजा रही है। इतने में खबर आई कि नहर के किनारे चार लाशें पड़ी हुई हैं। यह सुनते ही भीड़ मेला छोड़कर लाश देखने चली। नहर के पास पहुँच कर लोगों ने देखा कि अंगाटोपी पहने चार मरे मुसलामानों को घेर कर दारोगा, जमादार और चौकीदार खड़े हैं और एक मुसलमान बुढ़िया छाती पीटती चिल्ला-चिल्ला कर रो रही है। भीड़ बहुत बढ़ गई। बहुतेरों ने मरे मुसलामानों को पहचाना। हौरा मचा कि लतीफन बीबी कहीं नाचने गई थी, लौटते समय नाव डूब जाने से समाजियों के साथ डूब गई। चारो मुसलमान उसी के समाजी हैं।

बुढ़िया रो रही है, कितने ही आदमी कितनी तरफ की बातें कर रहे हैं। इसी बीच में एक नाव आकर वहीं पर लगी और एक बड़ी खूबसूरत स्त्री नाव से उतरी। “लतीफन आई” का हल्ला मचा। बड़ा शोर मचा और धक्कम-धुक्की होने लगी।

“मेरी लतीफन कहाँ है?” “मेरी लाड़ली कहाँ” कहती बुढ़िया ने दौड़कर बेटी को छाती से लगाया और उसका सिर चूमने लगी। माँ-बेटी आँसुओं की धारा से एक दूसरे की छाती भिगोने लगीं। यह देखकर कितनों ही कि आँखें भर आईं।

जमादार ने लतीफन से पूछा – “तुम्हारी जान कैसे बची? नाव कहाँ डूबी?”

लतीफन – “खुदा ताला ने मेरी जन बचाई है। नाव डूबती कैसे?”

दारोगा – “तो क्या ये लोग पानी में डूबकर नहीं मरे? जरा इधर आकर तुम इन लोगों को पहचानों तो?”

लतीफन अपने समाजियों की लाश देखकर कुछ देर तक बदहवास हो गई, पीछे आँचल से आँखें पोंछकर बोली-“मुझे खूब याद है नाव डूबने से ये लोग नहीं मरे। शैतानों ने इन लोगों को मारकर पानी में फेंक दिया है। अम्मा, तूने ऐसे घर मुझे नाचने के लिये भेजा था? मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं जीती-जागती घर वापस आऊँगी।”

बुढ़िया -” ऐं क्या? अरे तेरे जेवर क्या हुए?”

लतीफन – “जेवर के लिये ही तो यह कयामत बरपा हुई।”

बुढ़िया – “अरे तो क्या मैंने शैतान के यहाँ लड़की भेजी थी? मैं क्या जानती थी कि हीरासिंह डाकू है।”

दारोगा-“मुरार का हीरासिंह?”

लतीफन – “हाँ।”

दारोगा – “हीरासिंह ने इनलोगों को मार डाला है?”

“मुझे बड़ी तकलीफ मालूम हो रही है; इस वक्त मुझसे कुछ बोला नहीं जाता।” कहकर लतीफन ने नहर से एक चिल्लू पानी उठाकर पी लिया।

दारोगा के हुक्म से एक चौकीदार दो इक्के भाड़े करके लाया। एक पर लतीफन माँ-बेटी और दूसरे पर दारोगा और जमादार बैठे। दारोगा ने हुक्म दिया – “महाजन टोली ले चलो।” इक्के खड़खड़ाते दौड़े गये और दो लाशों के पास रहे।

सबके-सब लतीफन के मकान पहुँचे। वहाँ आध घण्टा सबके आराम करने पर दारोगा ने लतीफन को बुलवाया। वह माँ के साथ दारोगा के पास आई। दारोगा ने उससे कहा-“तुमने जरा आराम कर लिया। अब बताओ क्या माजरा है तुम्हारे बदन पर कितने के जेवर थे?”

बुढ़िया -“हुजूर! माँ-बेटी ने जन्म बार नाच-गाकर जो कुछ कमाया था वह सब इस मकान में और उन जेवरों में लगा दिया था।”

दारोगा – “हीरासिंह ने तुम्हारे सब जेवर चुरा लिये हैं?”

लतीफन – “मैं सब हाल बयान करती हूँ आप सुनिये। मैं कल सबेरे कोई आठ बजे हीरासिंह के मकान में सब जेवर उतारकर नहाने की तैयारी कर रही थी कि इतने में उनके एक नौकर ने आकर कहा -‘तुम अपने सब कपड़े-लत्ते लेकर मेरे साथ चलो। यहाँ और कई आदमी आकर ठहरेंगे।’ मैंने कहा -‘ मेरे सब आदमी बाहर चले गये हैं। यह सब सामान कौन उठा ले जायगा? इस वक्त तो मैं कहीं नहीं जा सकती।’ उसने कहा -‘तुम सिर्फ यह सन्दूक लेकर मेरे साथ चलो। मैं तुमको जहाँ ठहरना होगा वहाँ बिठाकर धीरे-धीरे सब चीजें पहुँचा दूँगा।’ मैं और कुछ न कहकर सिर्फ जेवरों का सन्दूक लिये उसके साथ हो ली। कई चक्कर काटकर हम एक झाड़ी के पास पहुँचे । वहाँ हीरा सिंह एक पत्थर की चौकी पर बैठा था। हमारे वहाँ पहुँचते ही उसने न जाने क्या इशारा किया। इशारा करते ही उस नौकर ने मेरा गला पकड़ा और हीरासिंह मेरी सन्दूक छीनकर उस झाडी के भीतर का एक पत्थर उठाकर एक सुरंग के अन्दर घुस गया। नौकर मुझे भी उसके अन्दर ले गया। उसने वहाँ ले जाकर मुझे छोड़ दिया। वहाँ बड़ी खौफनाक जगह थी, जान पड़ा कि मैं दोजख में चली आई। नौकर चला गया, सिर्फ मैं और हीरासिंह वहाँ रह गये। मैं सोचने लगी कि मुझे यहाँ क्यों लाया? मेरा जेवरों का सन्दूक क्यों ले लिया ? क्या मुझे मार डालेगा? मैं बहुत डरी और रोने लगी। हीरासिंह ने मेरी पीठ पर हाथ घुमाकर कहा -‘तुम रोती क्यों हो?’ मैंने रोते-रोते कहा -‘मैं घर जाऊँगी माँ के लिये मेरा जी घबरा रहा है।’ हीरासिंह ने कहा-‘तुम घर जाओगी तो तुम्हारे लिये मेरा जी घबरायेगा। जीते जी मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा।’ मैं नाउम्मीद होकर ‘मुझे जाने दो’ कहती हुई उसके पैर पकड़ कर रोने लगी। इतने में जान पड़ा कि बाहर कोई बाजा बजा रहा है। ‘इस वक्त तुम यहाँ रहो, दूसरे वक्त आकर तुमसे मुलकात करूँगा।’ ‘कहकर हीरासिंह चला गया। तब मुझे कुछ हिम्मत हुई, मैं कपड़ा सम्हालकर भागने का रास्ता ढूँढने लगी लेकिन कही रास्ता नहीं मिला। हीरासिंह जिधर से गया था उधर से भी निकलने का रास्ता नही पाया। धीरे-धीरे घना अँधेरा छा गया, चारों ओर से डरावनी आवाजें आने लगीं। मुझे बड़ा डर लगा। मैं आँखें मूँदकर चुपचाप पड़ी रही। धीरे-धीरे मुझे नींद सी आ गई। इतने में किसी के पैर की आवाज़ आई, मैं काँप उठी। आँखें खोलकर देखा कि हीरासिंह अकेले एक चिराग लिये आ रहा है। मैंने उसको देखकर फिर आँखें मूँद ली। हीरासिंह ने पास आकर मेरे बदन पर हाथ रक्खा। मैं सारे बदन में कपड़ा लपेटकर उठ बैठी। हीरासिंह ने कहा-‘देखो लतीफन! तुम्हारे जेवर मेरी आँखों में गड़ गये थे उन्हें मैंने ले लिया है। तुम पर कुछ मोह हो गया है इसी से तुम्हें अभी तक जीती छोड़ रखा है, नहीं तो अब तक तुम्हें कब्र में गाड़ देता।’ ‘मुझमे दया-माया नहीं है। तुम्हारी उमर बहुत थोड़ी है, तुम बड़ी खूबसूरत हो और तुम्हारे ऐसा गला कभी किसी का नहीं देखा था, इसी से तुम्हारी जान लेने को जी नहीं चाहता। तुमको जन्म भर यहीं रहना होगा। तुम्हे कुछ तकलीफ नहीं होने पावेगी, मैं सब इंतजाम कर दूँगा।’ यह सुनते ही मेरा कलेजा सूख गया। मैं रोने लगी। इतने में एक हट्टाकट्टा काला आदमी हाँफता हुआ वहाँ पहुँचा। हीरासिंह ने उसे देखकर कहा-‘क्यों रे दुखिया! क्या खबर है?’ उसने कहा – ‘रेशम के गोदाम की चाबी चाहिये। राय जी ने मुझे भेजा है। वे मुंशी हरप्रकाश के मकान पर हैं।’ यह सुनकर हीरासिंह उसके साथ चला गया। फिर उस दोजख में अँधियारी छा गई। मैं बेहोश हो गई। पीछे जब होश हुआ तो देखा कि मैं गंगाजी के किनारे एक औरत की गोद में सिर रखकर सोई हुई हूँ। सबेरा हो गया था, मैं चौंककर उठ बैठी। उस औरत ने कहा-‘डरो मत।’ मुझसे कुछ बोला नहीं गया, सिर्फ उसके पैर पर सिर रखकर रोने लगी। उस काली बिखरे बाल वाली हँसमुख औरत ने मुझे एक नाव पर चढ़ा दिया जिसके सहारे मैं यहाँ पहुँची।”

बुढ़िया ने आँखों में आँसू भरकर कहा-“बेटी! वह औरत कौन थी? तुमने उससे कुछ पूछा नहीं?”

लतीफन-“अम्मा, उस वक्त मेरे होश-हवास ठिकाने थे?”

दारोगा साहब यह सब इजहार लिखकर दल-बल सहित वहाँ से चले गये।

भोजपुर की ठगी : अध्याय २४ : शिकार से चुका हुआ शेर

नवमी के दिन हीरासिंह के घरवाले एक साथ स्नान करने चले गये हैं। अकेला हीरासिंह शिकार से चुके हुए शेर की तरह भयंकर मूर्ती धारण किये बैठक में टहल रहा है। सोचता है- लतीफन कैसे भाग गई? उसे कौन निकाल ले गया? बाग़ का सुरंग तीन-चार आदमियों को छोड़कर और कोई नहीं जानता; जो लोग जानते हैं उनमें से भी कोई कल रात को यहाँ नहीं था। दुखिया सिर्फ एक बार आया था लेकिन वह भी तो तुरन्त ही गोदाम की चाबी लेकर चला गया था। मैंने अपने हाथ से सुरंग का मुँह बन्द किया था तब वह कैसे बाहर गई? मैंने क्यों नहीं उसको मार डाला! उह वह तुर्किन जहाँ रहे मेरा क्या कर सकेगी?

हीरासिंह इसी सोच-विचार में पड़ा था इतने में भोलाराय एक सन्दूक लेकर वहाँ आया, बोला-“लीजिये सिंहजी! मुंशीजी का जेवर का सन्दूक लीजिये। मैंने तुम्हारे बचने का रास्ता भी बना दिया है। मेरा प्रण पूरा हुआ, काम समाप्त हुआ। अब मैं जाता हूँ। अब तुमसे मेरी मुलाक़ात न होगी।” यह कहकर वह नौ-दो ग्यारह हुआ। हीरासिंह ने उसको कई बार पुकारा परन्तु उसने न तो कुछ उत्तर दिया न लौटा।

इसके बाद ही दरोगा फतेहउल्ला आया। हीरासिंह ने उसको बैठने के लिये कहकर खबर पूछी। दारोगा ने कहा-“सब ठीक कर दिया है साहब! आप बेफ़िक्र रहिये, आरे के कोतवाल कल सबेरे आये थे उनके सामने सब माल बरामद हुआ है। दलीपसिंह और जगन्नाथ सिंह गिरफ्तार हुए।”

हीरा – “और मुंशी?”

दारोगा – “वह बदमाश ससुर के साथ आरे गया है।”

हीरा – “अरे उसके पकड़ नहीं सके?”

दारोगा – “इसके लिये कुछ फ़िक्र नहीं है, मैं अभी जाकर उसको गिरफ्तार कर लाता हूँ।”

हीरा- “उसको पाओगे कहाँ?”

दा – “मुझे खबर लगी है कि वह फौजदारी में नालिश करने गया है। वहीं जाकर उसको गिरफ्तार कर लूँगा। मेरे पास यह वारंट है। मैं अभी जाता हूँ।”

हीरा-“दिन बहुत चढ़ गया है, खा पीकर जाते तो कैसा?”

दा – “नहीं साहब! देर करना ठीक नहीं, मैं अभी जाता हूँ। आदाब अर्ज।”

दारोगा के चले जाने पर हीरासिंह के जी में जी आया। वह अन्दर गया।

भोजपुर की ठगी : अध्याय २५ : पश्चात्ताप

हीरासिंह का पापभवन छोड़कर महापापी भोलाराय सड़क में जाते-जाते सोचने लगा- अब पापियों के साथ नहीं रहूँगा, पाप में भी नहीं रहूँगा। पंछीबाग – मेरा रहने का स्थान- मेरे पापों की निशानी है उसे आज मैं अपने हाथों से जलाकर चला जाऊँगा, अपनी बाकी उमर आजतक किये हुए महापाप के प्रायश्चित में बिताऊँगा। चालीस वर्ष की उम्र हुई, हम ब्राह्मण होने का दावा करते हैं, परन्तु इतनी उमर में मैंने ब्राह्मण के योग्य कौन सा काम किया है? मेरी सारी उमर सिर्फ कुकर्म में ही बीती है। गूजरी बीनिन है और मैं ब्राह्मण हूँ। – यों सोचते-सोचते भोलाराय ने सघन वन में सूर्य का मुँह न देखनेवाले अपने घर में पहुंचकर देखा कि गूजरी अकेले एक जगह बैठी गीत गा रही है। उसको पास आते देखकर वह कोयल चुप हो गई।

भोला- “गूजरी! तू यहाँ क्यों आई?”

गूजरी-“तुम यहाँ क्यों आये?”

भोला- “मेरा तो यह घर है।”

गूजरी-“मैं यहाँ चिड़िया पकड़ने आई हूँ।”

भोला-“क्यों गूजरी! तू अब भी मुझे चाहती है?”

गूजरी- “अगर चाहती हूँ तो तुम्हें क्या?”

भोला- “नहीं गूजरी! मैं तेरे प्रेम के योग्य नहीं हूँ। मैं चाण्डाल हूँ। मुझे छूने से तू अपवित्र हो जायगी।”

“मैं तुम्हे छूने क्यों जाऊँगी?” यह कहकर गूजरी फिर गीत गाने लगी।

भोला गीत सुनकर पागल की तरह चिल्लाकर बोला-“नहीं गूजरी! मैं छूकर तुझे अपवित्र नहीं करूँगा, तू मेरे ह्रदय की देवी है।”

गूजरी ने मुँह फेरकर आँसू पोंछा, परन्तु तुरंत ही रुख बदलकर रूखाई से बोली-“अब बहुत पेंगल मत पढो। यह बताओ कि कल रात को कहाँ गये थे?”

भोला-“क्या?”

गूजरी -“कल तुम लोगों के उस नरक में तुमको ढूँढने गई थी, लेकिन वहाँ तुम्हें नहीं पाया। तुम कहाँ थे?”

भोला- “हरप्रकाशलाल के मकान में डाका डालने गया था।”

गूजरी- “फिर तुमने डाका डाला?”

भोला-“मैंने प्रण किया था कि उसके गहनों का सन्दूक चुराऊँगा। वह प्रण पूरा करके अपने पापयज्ञ को पूरा कर दिया है, अब मैं डकैती नहीं करूँगा।”

गूजरी- “तुम डकैती करो या न करो मुझे उससे मतलब नहीं, मैं गहनों का वह सन्दूक चाहती हूँ।”

भोला-“अब मैं उसे कहाँ पाऊँगा। मैंने वह सन्दूक हीरासिंह को दे दिया है।”

गू-“अच्छा मैं तुम्हें दिखाऊँगी की वह सन्दूक ला सकती हूँ या नहीं। क्यों रे मुँहझौसा! तुम लोगों ने उस वेश्या नसीबन को उस नरक में क्यों बन्द कर रक्खा था?”

भोला आश्चर्य में आकर उसका मुँह ताकने लगा। फिर बोला- “तेरी बात समझ में नहीं आई।”

गूजरी-“तब तुम उसका हाल नहीं जानते? हाँ, कल तो तुम यहाँ थे भी नहीं।”

भोला- “हीरा ने लतीफन को भी मार डाला क्या?”

गूजरी-“मैं मौके से न पहुँचती तो शायद मार ही डालता। अजी तुम लोग आदमी हो या राक्षस? स्त्रियों की जान लेने में भी तुम लोगों को दया नहीं आती?”

भोला-“गूजरी! वह बात कहकर अब मेरे दिल पर चोट मत कर। जो होना था हो गया, मुझे माफ़ कर। अब तू जो कहेगी मैं वही करूँगा। डकैती छोड़ने को कहा था, उसे छोड़ दिया। जनेऊ फेंकने को कहती थी, यह ले”- यह कहकर भोला जनेऊ उतारने लगा, तब गूजरी ने बड़ी व्याकुलता और जल्दी से उसका हाथ धरकर कहा-“हैं हैं क्या करते हैं? मुझे माफ़ कीजिये, मैं आपके पैरों पड़ती हूँ, मुझे अब पाप में न डुबोइये।”

यह कहकर आँसू पोंछते-पोंछते गूजरी वहाँ से चली गई। तब भोलाराय ने अपने हाथ से अपने घर में आग लगा दी और -“जो जस करे तो तस फल चाख।” कहता हुआ वहाँ से गायब हो गया। पंछी बाग़ जलने लगा।

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