भवानी जंक्शन : जॉन मास्टर्स

भारतीय शाही नौसेना की बगावत बुधवार की शाम को शुरू हुई। अगले रविवार को मैं हमेशा की भाँति बटालियन ऑफिस में काम कर रही थी। डब्ल्यू ए. सीज बटालियन हेडक्वार्टर्स में काम करने के लिए नहीं है। फिर भी मैं वहाँ रुकी थी क्योंकि मुझे इस बात से खुशी मिलती कि मैं अकेली सैनिकों के पास रहूँगी - उन्हीं की तरह।

रेलकर्मचारियों की हड़ताल के कारण मालरा पर रुकी मालगाड़ी लूट ली गयी थी। लूटनेवालों को यह पहले से ही पता था कि उसमें गोला-बारूद है। उन्हें शायद अन्दाज था कि हड़ताल शुरू होने के समय गाड़ी कहाँ होगी। कर्नल सेवेज ने वहाँ से आते ही मुझसे कलक्टर की कार में शहर के दौरे पर साथ चलने को कहा।

शहर की सँकरी गलियाँ हमेशा की भाँति भीड़-भरी थीं, परन्तु वातावरण कुछ विशेष ढंग का था। लोग जोर-जोर से बातें करते झुण्डों में खड़े थे या अपनी सामने से खुली हुई दुकानों के पीछे वाले अँधेरे हिस्सों में जमा थे। नगरवासी ठीक मूड में नहीं हैं - कर्नल सैवेज ने कहा।

“नहीं, अभी शोर इतना ज्यादा है कि गम्भीर बात नहीं हो सकती। जब शहर शान्त हो और सड़कों पर कोई भी न हो, तब आपको तैयार होना पड़ता है,” कलेक्टर ने जवाब दिया।

हम स्टेशन पहुँचे, पैट्रिक ने तुरन्त कलक्टर से आकर कहा, “अभी-अभी किसी ने डेनिस पर गोली चलायी है, हड़ताली अभी तक हम पर छिपकर पत्थर फेंकते थे, अब हमें गोलियाँ मारी जा रही हैं, आपको कुछ करना चाहिए। नहीं तो, यदि ऐंग्लो इण्डियन ड्राइवरों और गार्डों ने भी रेलों को ले जाने से इनकार कर दिया तो मुझसे कुछ मत कहिएगा।”

मिस्टर गोविन्द स्वामी चुप रहे और हम वापस कार में आकर बैठ गये और उनके बँगले की तरफ चल दिये।

मैं बँगले के बड़े हाल में टेलीफोन के पास जा बैठी। खबरों पर खबरें आ रही थीं, लैनसन कलक्टर से बात करना चाहता था। उससे बात करके चोंगा रखते हुए उन्होंने कहा-यहाँ की कांग्रेस कमेटी के चेयरमैन सूराभाई एक बड़ी भीड़ को स्टेशन की तरफ ले जा रहे हैं। भीड़ तख्तियाँ लिये है-‘विद्रोही अमर रहें’, ‘आजादी के लिए करारी चोट’, ‘भारत छोड़ो’ नारे लगाने और तितर-बितर न होने के सिवा वे पूरी तरह शान्त हैं।

अपने हाथ पीठ पीछे बाँधे वह हाल में घूमते रहे। सहसा उन्होंने रुककर कहा, “मुझे ताज्जुब है, मिस जोन्स, पता लगाओ कि क्या जिले में कोई स्पेशल गाड़ी लाइन पर है या आनेवाली है।”

मैंने टेलीफोन पर पैट्रिक से बात की। सिथरी स्टेशन पर एक ट्रुप स्पेशल थी, जिसे यहाँ करीब चालीस मिनट में आ जाना था। मैंने उन्हें बताया। वह कर्नल सैवेज की ओर मुड़े और बोले, “मुझे पूरा विश्वास है सूरा भाई और उनके साथी उस गाड़ी को रोकने का प्रयत्न करेंगे।”

“कैसे?” कर्नल सैवेज ने पूछा।

कलक्टर ने कहा, “अहिंसा। वह और उनके ढेर सारे स्वयंसेवक पटरी पर लेट जाएँगे। ऐसा पहले भी हो चुका है। और इससे निबटना बड़ा कठिन है। हमें स्टेशन तुरन्त चलना चाहिए।”

स्टेशन के बाहर का अहाता लोगों से भरा था, सभी एकदम चुप। केवल लोगों के हिलने-डुलने से झण्डे चमक उठते थे - ‘भारत छोड़ो!’ ‘आजादी के लिए एक करारी चोट!’ मिस्टर गोविन्द स्वामी सूराभाई से बात करने लगे।

तभी मैंने देखा, कुछ लोग धीरे से स्टेशन के अन्दर दाखिल हो गये। मैंने कुछ नहीं कहा। उलटे, यदि यह पेटर की गाड़ी नहीं होती तो भारतीयों के हाथों कर्नल सैवेज को मूर्ख बनते देख मुझे खुशी हुई होती। कर्नल सैवेज ने स्वयं उन आदमियों को देख लिया था और कलक्टर से पूछा कि क्या वह चाहते हैं कि स्टेशन के गेट बन्द कर दिये जाएँ?

कलक्टर ने कहा, “नहीं, उन्हें अन्दर जाने दो। इसके खिलाफ कोई कानून नहीं है। इसके अलावा, एक दर्जन के लगभग लोग पहले से ही पटरी पर लेटे हुए हैं।”

मैंने सुना, उत्तेजित होकर सूराभाई कह रहे थे - “जैसा कि मैं कह रहा था मिस्टर कलक्टर, हम अपने नौसैनिक भाइयों को मौत के घाट उतारे जाने के खिलाफ अपना विरोध प्रकट करेंगे, भले ही यह गैर-कानूनी क्यों न हो। वे आपके भी नौसैनिक भाई हैं और मेरे भी, मिस्टर कलक्टर, हालाँकि आप ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के दास होने से अपने पद पर शोभा पाते हैं। हम विरोध करेंगे, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ - शान्तिपूर्ण, अहिंसक विरोध, परन्तु हम करेंगे जरूर।”

कलक्टर ने कहा, “अभी तक किसी को भी मौत के घाट नहीं उतारा गया है, सूराभाई।”

“बहादुर भारतीय नाविक!” सूराभाई ने चीखकर कहा, “उनकी आँखें निकली पड़ रही थीं। नौसेना के समुद्री लोगों पर गोलियाँ, बारूद और बम बरसाये जा रहे हैं। किसलिए? देश के झण्डे को ऊँचा उठाने के सामान्य काम के लिए, मि. कलक्टर।”

कलक्टर ने फिर कहा, “अभी तक किसी भी बागी का कुछ नहीं बिगड़ा है। सिर्फ बम्बई की सड़कों को छोड़कर कहीं भी हिंसा नहीं हुई है। वहाँ शहर के सारे बदमाश बाहर निकल आये - आपके इस जैसे विरोधों का फायदा उठाने के लिए - और उन्होंने लूट और दंगा-फसाद शुरू कर दिया।”

सहसा एक पत्थर हवा में कर्नल सैवेज को कुछ इंचों से छोड़ता, सनसनाया और एक जीप का विण्डस्क्रीन टूट गया। उसके अन्दर बैठे गोरखे भुनभुनाकर बाहर कूद पड़े और उन्होंने अपनी राइफलें व टॉमीगनें तान लीं।

कलक्टर ने कहा, “यह एक अहिंसक मिसाइल है न, सूराभाई?”

सूराभाई चुपचाप खड़ी भीड़ की तरफ मुड़े। वह चिल्लाये, “हिंसा बिलकुल नहीं, मैं प्रार्थना करता हूँ, मेरे दोस्तो! अपनी स्वाभाविक भावनाओं को अपने ऊपर हावी मत हो जाने दो।” वह कलक्टर की तरफ वापस मुड़े, “बहुत हो चुकी यह बहस! इसका कोई लाभ नहीं। अब मैं अपने साथियों का साथ देने जा रहा हूँ।” वह स्टेशन के भीतर चले गये। एक इंजिन ने लाइन पर सीटी दी, एक लम्बी और लगातार सीटी...

“अच्छा हो हम भी स्टेशन के भीतर चलें,” कलक्टर ने कहा।

कर्नल सैवेज ने कहा, “मैं सिंगवीर की पलटन को वहाँ लाता हूँ।” कलक्टर ने सहमति प्रकट की, परन्तु उनको पीछे ही रखने के लिए कर्नल से कहा, “व्यावहारिक रूप से कोई भी कुछ नहीं कर सकता, जब तक कि स्वयंसेवक थककर घर नहीं चले जाते, और यदि इसका वास्तव में कोई बड़ा भारी महत्त्व होता तो हम उन पर हौजों से पानी की तेज धार गिरवा सकते थे, या उन्हें कुचल तक सकते थे - हालाँकि मैं नहीं समझता कि हमें एक व्यक्ति से अधिक को कुचलना पड़ेगा। परन्तु यह कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है।”

बीस गोरखों का एक दस्ता हमारे पीछे-पीछे प्लेटफॉर्म पर आया। कर्नल सैवेज ने उनसे कहा, “हर आदमी पूरे तीन गिलास पानी पी ले। यह हुक्म है।”

कुछ स्वयंसेवकों को छोड़कर जो प्लेटफॉर्म पर खड़े थे, अधिकांशतः आराम से रेलवे लाइन पर लेटे हुए थे। उनके सिर पटरियों का तकिया लगाये थे और हाथ पेट पर बँधे थे। वे लेटे-लेटे नारे लगा रहे थे। पेटर की सैनिक गाड़ी आ चुकी थी और स्टेशन के बीच में रोक दी गयी थी। उसका काउ कैचर सूराभाई से कुछ फीट की दूरी पर था।

कलक्टर ने प्लेटफॉर्म के किनारे पर आकर कहा, “मिस्टर सूराभाई! क्या आप जानते हैं कि यह गाड़ी जिसे आप यहाँ इतनी गरमी में रोके हुए हैं, हिन्दुस्तानी सैनिकों से भरी है जो अपनी सेवाओं की समाप्ति के लिए मद्रास जा रहे हैं?”

सूराभाई ने आँखें खोलीं - “यह कोई खास बात नहीं है। वे भी अँग्रेजों के दास हैं, आपकी तरह।”

अचानक मैंने देखा, प्लेटफॉर्म पर न जाने कहाँ से ढेर सारे लोग आ गये थे। वे धक्का-मुक्की कर हमारे पास जमा हो गये। एक पुलिसमैन ने चिल्लाकर कहा, “पीछे रहो!” और उसने अपनी लाठी पूरी ताकत से घुमायी। जैसे ही वह ठीक मेरी बगल में खड़े एक व्यक्ति के सिर में लगी, किसी चीज के टूटने की आवाज स्टेशन में चारों तरफ गूँज गयी। वह आदमी बिना किसी आवाज के आगे गिर पड़ा और उसके कान पर से होकर खून फर्श पर टपकने लगा। भीड़ गुर्रायी और पीछे हट गयी। उसमें से ईंटें और पत्थर फेंके जाने लगे, लेकिन मैं फेंकनेवालों को नहीं देख सकी।

कलक्टर ने कहा, “इंजिन पर पहुँच जाओ। जल्दी।” मैं झपटकर ऊपर चढ़ गयी और कैब की आड़ में हो गयी। पत्थर उससे आ-आकर टकरा रहे थे। बदले में फायरमैन ने बड़े-बड़े कोयले फेंकना शुरू कर दिया। पुलिस जब पूरी तरह से अपनी लाठियाँ घुमा रही थी, मैंने झाँककर देखा, कर्नल सैवेज और मिस्टर गोविन्द स्वामी अब भी वहीं खड़े थे। उसी क्षण एक ईंट का टुकड़ा मिस्टर गोविन्द स्वामी के कन्धे पर आकर लगा और वह लड़खड़ाकर पीछे हटे। कर्नल सैवेज ने उन्हें सहारा दिया।

मैं नर्वसनेस से रो पड़ने को ही थी और अपने आपको नियन्त्रण में रखने के लिए मुझे आँसू निगलने पड़ रहे थे। वे सब कितने भयानक और क्रूर थे! मैंने इसके पहले ऐसी कोई चीज नहीं देखी थी। मुँह बिचकाये लाठियाँ घुमाती पुलिस, भीड़ में खड़े आदमी, खूँखार चेहरे लिये, प्रहार करने की लालसा से भरे, मैंने एक औरत को डगमगाते देखा और चिल्लायी - ओह, नहीं! परन्तु पुलिसमैन ने उस पर दुबारा वार किया और वह गिर पड़ी। मैं आड़ में और नहीं रुक सकी और खड़ी होकर सब देखने लगी।

कर्नल सैवेज ने अपनी कार्बाइन आसमान की तरफ की और घोड़ा दबा दिया। पिस्तौल की आवाज के साथ ही अचानक शान्ति छा गयी। मिस्टर गोविन्द स्वामी हिन्दी में चिल्लाये - “मैं आप सबको तितर-बितर हो जाने का हुक्म देता हूँ। एक मिनिट में प्लेटफॉर्म खाली कराने के लिए मिलिट्री गोली चला देगी।” और उन्होंने अपनी घड़ी बाहर निकाल ली।

पटरी पर से सूराभाई चिल्लाये - “हत्यारो,” परन्तु आधे मिनट से कम में ही प्लेटफॉर्म खाली हो गया। वे घायलों को अपने साथ ले गये थे।

मैं कैब में से उतर आयी, परन्तु उसका सींखचा पकड़े रही क्योंकि मेरे घुटनों में शक्ति नहीं थी और मैं काँप रही थी। मैंने प्रार्थना की कि यह सब समाप्त हो जाए, कि हम सब घर जाएँ और उसे भूलने का प्रयत्न करें जो हमने किया है, जो हमने देखा है, पटरी पर लेटे लोगों का उद्देश्य कोई नुकसान पहुँचाना नहीं था। वे भौंदू नजर आ रहे थे लेकिन गरिमामय भी। उन्हें वहीं लेटे रहने दो! आखिरकार, वे लोग शायद ठीक ही थे। जल्दी ही, यह देश उनका होगा।

कर्नल सैवेज ने कहा, “इन लोगों का क्या होगा।”

“मुझे नहीं मालूम। मैं उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता,” कलक्टर ने धीमे स्वर में कहा।

कर्नल सैवेज ने कहा, “ठीक है मैं उन्हें ठिकाने लगा दूँगा। मिस्टर जोन्स अपना इंजिन चलने के लिए तैयार रखो।”

सिलिण्डरों की सतह से जोर की ‘हिस्स’ की आवाज के साथ भाप निकली और विशालकाय पहिये थोड़ा घूमे! सूराभाई ने बड़ी तेजी से अपने शरीर को कड़ा कर लिया और हाथों को पहले से कसकर बाँध लिया।

मैं यह सह न सकी और विक्षिप्त-सी चिल्लायी, “नहीं। वे नहीं उठेंगे। सूराभाई नहीं उठेंगे।” पेटर ने रेगुलेटर बन्द कर दिया और पहियों का चलना बन्द हो गया। काऊ कैचर अब सूराभाई को छू रहा था।

मैंने कलक्टर की बाँह पकड़ ली, “प्लीज, पेटर को गाड़ी मत चलाने दीजिए, सर! सूराभाई नहीं उठेंगे। यह हत्या होगी।”

“तुम क्यों सोचती हो कि वह नहीं उठेंगे?” कलक्टर ने मुझसे पूछा।

मैंने कहा, “क्योंकि, उन्हें विश्वास है कि वह सही हैं, सर, और क्योंकि वह बहादुर हैं।”

“मैं उन्हें धमकाकर पटरी पर से हटाने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, मिस जोन्स,” कर्नल सैवेज ने बीच में चिढ़कर कहा, “मैं समझता हूँ कि मिस्टर सूराभाई के चरित्र का मैं भी उतना अच्छा पारखी हूँ जितना कि तुम। यदि तुम दखलन्दाजी न करो तो मैं बता दूँगा कि मुझे अच्छी तरह पता है मैं क्या कर रहा हूँ,” और उन्होंने धीमी आवाज में जमादार सिंगवीर से कुछ बात की। जमादार मुँह-ही-मुँह में हँसा और उसने गोरखों से कुछ कहा। उन सबने खीसें निपोर दीं।

कर्नल सैवेज ने हाथ से इशारा किया और गोरखे प्लेटफॉर्म के किनारे लाइन में खड़े हो गये। कर्नल ने नम्रतापूर्वक कहा, “मिस्टर सूराभाई, क्या आप ऊँची जाति के हिन्दू हैं?”

सूराभाई ने कहा, “हाँ, परन्तु आजादी की लड़ाई में सभी जातियाँ एक समान हैं।”

“बहुत ठीक,” कर्नल सैवेज ने कहा, “क्योंकि राइफलमैन त्रिलोक वीर आले आपका प्रयोग एक पेशाबघर की भाँति करनेवाला है। उसे जोर की हाजत लगी है। वह एक तरह का हिन्दू है, परन्तु उसकी जाति कुछ नीची है! आपके पास उठ जाने और इन मद्रासियों को घर जाने देने के लिए पाँच सेकण्ड का समय है।”

सूराभाई एक झटके के साथ बैठ गये - “क्या कहा तुमने?” वह हकलाये - “तुम क्या करना चाहते हो?” उन्होंने प्लेटफॉर्म की तरफ देखा! गोरखों की पीठ मेरी तरफ थी, पर मैं कह सकती थी कि वे अपने बटन खोल रहे थे।

सूराभाई ने कहा, “ओह! तुम जानवर।”

थ्री... टू... वन... फायर! कर्नल सैवेज ने अपना हाथ गिरा दिया। स्वयंसेवक चिल्लाते हुए झपटकर खड़े हो गये या दूसरी पटरी पर लुढ़क गये। पेशाब उनके कपड़ों पर दाग छोड़ रहा था और उनके चेहरों से बह रहा था। पेटर ने पहले ही रेगुलेटर चालू कर दिया था। ट्रुप ट्रेन रफ्तार पकड़ तेजी से प्लेटफॉर्म के बाहर हो गयी।

मैं परदा रूम में चली गयी। प्लेटफॉर्म पर खून, टूटे हुए काँच, फटे हुए कपड़े और कुछ दाँत पड़े थे। रेलवे लाइन पर बिखरे हुए झण्डे और कुछ टोपियाँ और एक औरत की चप्पलें पड़ी थीं। मैंने यह सब देखा जब कि मेरे पेट में मरोड़ चलता रहा। मेरा गला फूल आया और आँखें बाहर निकली पड़ रही थीं। कै करने के बाद मैंने चेहरा धोया, सुस्ताने को थोड़ा बैठी और फिर एक बार पानी से आँखों को धो बाहर निकल आयी।

“तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लगती है, मिस जोन्स,” कर्नल सैवेज ने कहा, “मैं तुम्हें गाड़ी में घर छोड़े देता हूँ।”

इसे छोड़कर सबकुछ! मैं एक भी मिनट और उसकी निकटता नहीं बर्दाश्त कर सकती थी। मैं उन सबको वहीं छोड़ धूप में सारे रास्ते दौड़ती घर आयी, जिससे जब मैं बिस्तर पर गिरी, मेरे कपड़ों का एक-एक तार पसीने से भीगा हुआ था।

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